समकालीन पंजाबी साहित्य की उत्कृष्ट कृतियों की तलाश

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Friday, June 22, 2012

आत्मकथा




एक नेत्रहीन लेखक की आत्मकथा
धृतराष्ट्र
डॉ. एस. तरसेम
हिन्दी अनुवाद : सुभाष नीरव
चैप्टर-28

कालेज की ओर मुँह

1980 में अख़बारों में यह ख़बर छपी कि 1981 का वर्ष अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर विकलांग वर्ष के रूप में मनाया जाएगा। इस वर्ष को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर दी गई यह मान्यता मेरे लिए सुनहरी अवसर सिद्ध हुई। भारत सरकार ने भी और पंजाब सरकार ने भी विकलांगों को कुछ सुविधाएँ प्रदान करने का सिलसिला शुरू कर दिया। अब मुझे सरकारी नौकरी में से नेत्रहीन होने के कारण निकाले जाने का खतरा किसी हद तक कम हो गया। आहिस्ता-आहिस्ता यह खतरा बिलकुल ही खत्म हो गया।
     वर्ष के आरंभ में ही मैंने पंजाब के मुख्य सचिव को एक प्रार्थना पत्र भेज दिया और विनती की कि इस अंतर्राष्ट्रीय विकलांग वर्ष को ध्यान में रखते हुए मुझे किसी कालेज में लेक्चरर नियुक्त किया जाए क्योंकि नेत्रहीन होने के बावजूद मैंने एम.ए. में फर्स्ट डिवीज़न प्राप्त की है और साथ ही पंजाबी यूनिवर्सिटी में दूसरा स्थान भी प्राप्त किया है। इस तरह का एक प्रार्थना पत्र मैंने तत्कालीन प्रधान मंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी को भी लिखकर भेजा। प्रार्थना पत्र लिखकर मैंने यूँ समझा मानो अपना कोई शौक पूरा किया हो। मुझे यह उम्मीद कतई नहीं थी कि मेरे द्वारा दिया गया प्रार्थना पत्र कोई रंग लाएगा।
     डी.पी.आई. पंजाब के दफ्तर से मई 1981 में एक पत्र आया। उसमें मुझे लेक्चरर नियुक्त किए जाने के बारे में लिखा गया था और साथ ही, हिदायत की गई थी कि मैं मैट्रिक से एम.ए. तक की शैक्षिक योग्यता के सारे प्रमाण पत्र और डिग्रियाँ मूल रूप में उस दफ्तर में भेजूँ। चिट्ठी पढ़ते ही मैंने समझ लिया था कि मेरा तीर चल गया है।
     एक पूरा बड़ा लिफाफा डिग्रियों और सर्टिफिकेटों से भर गया था। डी.पी.आई. को उनके पत्र का संदर्भ देते हुए विनती की थी कि नियुक्ति शीघ्र करने की कृपा की जाए, लेकिन डेढ़ महीने तक कोई जवाब नहीं आया था। आख़िर, मैं स्वयं ही डी.पी.आई. के दफ्तर गया। मेरे संग जाने वाला भी कोई नहीं था। उन दिनों अक्सर मैं सफ़र अकेला ही किया करता था। एक फ़ायदा सिर्फ़ यह था कि सवेरे सात-सवा सात बजे सीधी चण्डीगढ़ की बस मिल जाती थी। मुझे मेरा बड़ा बेटा क्रांति बस में चढ़ा आता था। बस प्राय: पीछे से भरी आती थी, अबोहर-चण्डीगढ़ बस। मुझे इस बस में सीट नहीं मिली थी। बरनाला से कुछ सवारियाँ और चढ़ गई थीं। उतरी उनसे कम थीं। संगरूर में बस कुछ समय खड़ी रही, पर वहाँ कुछ सवारियों के उतरने के बावजूद मुझे सीट नहीं मिली थी। मैं यत्न तो करता कि किसी तरह खाली होने वाली सीट का पता चले और मैं जल्दी से सीट को रोक लूँ। लेकिन मेरे सीट पर पहुँचने से पहले ही सीट हथिया ली जाती। तीन सीटों वाली सीट के दायीं ओर की सीट पर बैठी औरत कह रही थी, ''रे भाई, अपने भार खड़ा हो।'' हो सकता है कि मैं तपा से खड़े-खड़े आते थक गया होऊँ और मेरा शरीर दायीं ओर झुक गया हो। लेकिन उस औरत की तल्ख़ी मेरे बहुत अन्दर तक कड़वाहट भर गई थी। सोचता था कि इस औरत को क्या पता कि मुझे दिखाई नहीं देता और उसे यह भी क्या मालूम कि मैं 50-60 किलोमीटर से खड़ा ही आ रहा हूँ। दसेक मिनट रुक कर बस फिर चल पड़ी और मैं खड़ा का खड़ा था। संगरूर से चलकर भवानीगढ़ जाकर बस रुकी, एक दो सवारियाँ चढ़ीं और उतरी एक भी नहीं थी। पटियाला में काफ़ी सवारियाँ उतर गई थी, पर चढ़ने वाले धक्का मुक्की करके या खिड़की में से अपना सामान रखकर सीटों पर काबिज़ हो गए थे। मुझे चण्डीगढ़ तक खड़े होकर ही सफ़र करना पड़ा।
     उन दिनों मैं सफ़ेद छड़ी लेकर नहीं चला करता था। सफ़ेद छड़ी नेत्रहीन की पहचान है। छड़ी उठाने में मुझे कोई संकोच नहीं था, पर मेरी पत्नी या बच्चे या कोई विद्यार्थी मुझे स्कूल छोड़ आता और लौटते वक्त भी कोई न कोई अन्य विद्यार्थी मुझे घर पहुँचाने के लिए तैयार रहता, इसलिए मुझे छड़ी की ज़रूरत नहीं पड़ी थी। वैसे भी, तब तक मैंने नेत्रहीनों की सभाओं में जाना आरंभ नहीं किया था। न ही मुझे नेत्रहीनों की किसी संस्था की जानकारी थी। अंध विद्यालय, अमृतसर का नाम सुन रखा था। 'होम फॉर द ब्लाइंड' मालेरकोटला में दो-चार बार हो आया था, क्योंकि मालेरकोटला में मेरी बहन चंद्रकांता के ससुराल वाले थे और अक्सर मैं वहाँ आता-जाता ही रहता था।
     बस अड्डे पर उतरकर मैं बस के पास आने वाले रिक्शावालों में से एक को 17 सेक्टर के डी.पी.आई. दफ्तर चलने के लिए कहा। राह में मैंने उसे यह भी बता दिया कि मुझे बिलकुल दिखता नहीं है, इसलिए वह मुझे दफ्तर के करीब ही उतारे। लेकिन उसने दफ्तर से काफ़ी पहले ही उतार दिया। कोई सज्जन पुरुष मिल गया, वही मुझे दफ्तर की सीढ़ियाँ चढ़ा गया था। मन बहुत दुखी था। पूछते-पुछाते मैं संबंधित बाबू की मेज़ तक पहुँच गया। साथ वाली सीटों के बाबू उसे 'चड्ढ़ा साहिब' कहकर बुलाते थे। उसने बताया कि केस पहुँच चुका है, समय लगेगा। मेरे यह पूछने पर कि कितना समय लगेगा, वह गुस्सा हो उठा। मैंने जवाब में उसे बड़े ही विनम्र भाव से कहा कि वह मेरे संग ठीक ढंग से पेश आए। मुझे अपनी पत्नी के फूफा धर्म पाल गुप्ता जी याद आ गए। सोचता था कि अगर अब वह इस दफ्तर में होते तो मेरी नियुक्ति कब की हो जाती। लेकिन उनकी एलोकेशन हरियाणा में हो जाने के बाद वह चंडीगढ़ यू.टी. में डेपुटेशन के उपरांत सेवा-मुक्त हो चुके थे।
     अगस्त तक मेरे डी.पी.आई. दफ्तर के चार चक्कर लग चुके थे और फ़ाइल वहीं की वहीं पड़ी थी। रिश्वत देने को न मेरा दिल करता था और न मुझे रिश्वत देनी आती थी। मेरी समझ में आ चुका था कि यहाँ चाँदी के पहियों की ज़रूरत है। बाबू की शिकायत मैंने इसलिए नहीं की, क्योंकि फ़ाइल पर उसके दिए नोट से ही कुछ हो सकता था।
     मैं जब भी चंडीगढ़ आता और वापस जाता, हमेशा अकेला होता। वही अबोहर-चंडीगढ़ वाली बस पर चढ़ता और दिन छिपते को घर पहुँचता। मेरे करीब दस चक्करों में जाते समय मुझे शायद एक-आध बार ही सीट मिली थी, परन्तु लौटते वक्त अक्सर सीट मिल जाती, क्योंकि बस चंडीगढ़ से ही चलती थी और वहाँ सीट मिलने में अधिक मुश्किल नहीं आती थी।
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     अगस्त 1981 में जब मैं एक दिन मालेरकोटला आया तो अचानक 'होम फॉर का ब्लाइंड' भी चला गया। हैडमास्टर आई.पी. शर्मा था। वह नेत्रहीन था। एक अन्य नेत्रहीन मास्टर महावीर चौधरी था। महावीर चौधरी को पंजाब स्तर पर एक संगठन की ज़रूरत थी, क्योंकि एन.एफ.बी. अर्थात नेशनल फेडरेशन ऑफ़ दा ब्लाइंड के महा सचिव जे.एल. कौल को जबरन कुछ अन्य नेत्रहीन नेताओं ने हटा दिया था और उसने ए.आई.सी.बी. अर्थात ऑल इंडिया कन्फेडरेशन ऑफ़ ब्लाइंड की स्थापना कर ली थी। अब उसको भारत के हर प्रान्त में कन्फेडरेशन अर्थात महासंघ की किसी संगठन ईकाई की ज़रूरत थी। जवाहर लाल कौल के जीजा जी एच. कुमार कौल एस.डी. कालेज, बरनाला के प्रिंसीपल थे। परिणामस्वरूप लगभग दो हफ्तों की भागदौड़ के बाद हमने 'पंजाब वैलफेयर एसोसिएशन फॉर दा ब्लाइंड' की स्थापना करके उसे ए.आई.सी.बी. से जोड़ दिया। इसमें पंजाब के नेत्रहीन और नेत्रवान दोनों किस्म के लोग सदस्य बन सकते थे, परन्तु शर्त यह थी कि इस संगठन में बहुमत नेत्रहीनों का ही रहे। प्रिंसीपल कौल को सर्वसम्मति से इसका अध्यक्ष और मुझे महा सचिव चुन लिया गया। फ़िलहाल इसका दफ्तर भी मेरा घर ही था अर्थात गली नंबर 8, तपा, ज़िला-संगरूर।
     पंजाब वेलफेयर एसोसिएशन फॉर दा ब्लाइंड जल्दी ही पी.डब्ल्यू.ए.बी. के नाम से सारे नेत्रहीन स्कूलों और संस्थाओं में प्रसिद्ध हो गई थी, क्योंकि इसके बारे में अख़बारों में ख़बरें और गतिविधियाँ एन.एफ.बी. की पंजाब शाखा से कहीं अधिक छपती थीं।
     मुझे पी.डब्ल्यू.ए.बी. बनाने से कुछ हौसला भी हुआ। नेत्रहीनों के पुनर्वास के लिए पंजाब सरकार को मैंने पत्र भेजे। 1981 का वर्ष अन्तर्राष्ट्रीय विकलांग वर्ष होने के कारण हमने पी.डब्ल्यू.ए.बी. की ओर से दिसम्बर माह में बरनाला में अखिल भारतीय नेत्रहीन कान्फ्रेंस रख दी।
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     मेरे महा सचिव बनने के साथ-साथ इस ओहदे के कारण मेरा जो मनोबल बढ़ा था, उसके चलते मेरे केस से संबंधित क्लर्क को मैं कुछ रौब डालने की हैसियत में भी आ गया था। शायद वह मेरे ओहदे के कारण अथवा मेरी आवाज़ में पहले से अधिक कड़कपन आ जाने के कारण मेरे केस को सचिवालय तक भेजने के लिए मज़बूर हो गया था। सचिवालय में जो जूनियर या सीनियर सहायक मेरे केस को डील करता था, वह भुच्चो मंडी का था। इलाके की सांझ के कारण उसने मेरे केस में दिलचस्पी लेना शुरू कर दी थी। अचानक मास्टर बाबू सिंह जो उन दिनों में एम.एल.ए. थे और मेरे साथ कम्युनिस्ट पार्टी की सांझ के कारण बहुत निकटता भी रखते थे, मुझे सचिवालय में मिल गए। उन्होंने स्वयं आगे बढ़कर मेरी बांह पकड़ी और काम के विषय में पूछा। जब मैंने केस बताया तो वह मुझे शिक्षा सचिव के पास ले गए। मास्टर जी के कहने भर से काम को जैसे पंख लग गए हों। एक बाबू मोहन लाल की सहायता, दूसरी मास्टर बाबू सिंह की सिफ़ारिश और तीसरी मेरी पैरवी। काम बनते बनते बन गया। यद्यपि जिस रफ्तार से काम होना चाहिए था, उस रफ्तार से नहीं हुआ था पर मेरे कालेज लेक्चरर लगने के आदेश तैयार कर दिए गए और बीच में यह भी लिख दिया गया कि पंजाब पब्लिक सर्विस कमीशन से इसकी मंजूरी के उपरांत इसको रैगुलर कर दिया जाए।
     पी.पी.एस.सी. की मंजूरी की बात तो फिर कभी सही। आदेश मिलने और हाज़िर होने की कहानी भी काफ़ी दिलचस्प है। मैंने जिन बाबुओं और छोटे कर्मचारियों की ख़ातिर पुलिस से टक्कर लेने से लेकर जेलें तक काटीं, उनको ही अपनी राह में जगह-जगह विघ्न पैदा करते हुए देखा।
     23 दिसम्बर 1981 को उपस्थित होने के लिए मैं सरकारी कालेज मालेरकोटला में पहुँच गया। कालेज में जाड़े की छुट्टियाँ थीं। अमला शाखा में स्टैनो हाज़िर था। उसने आदेश पढ़े और कहा कि कालेज में तो कोई पोस्ट खाली ही नहीं है। लेकिन मुझे किसी ने पहले ही बता दिया था कि यहाँ एक पोस्ट खाली है जिसके कारण मुझे स्टैनो के संग मामूली सी दलीलबाज़ी करने का मौका मिल गया। पर स्टैनो ने पैरों पर पानी नहीं पड़ने दिया और कहा कि यदि एडहॉक वाली पोस्ट को खाली समझ लिया जाए तो ये आदेश भी एडहॉक पर नियुक्ति के ही हैं। यह कहते हुए बाबू जी ने आदेश मेरे हाथ में पकड़ाने की कोशिश की, पर मैंने आदेश को पुन: उसकी ओर सरकाते हुए कहा कि यह नियुक्ति पंजाब सरकार की है और यहाँ पहले काम कर रहा लेक्चरर प्रिंसीपल का नियुक्त किया हुआ है। यदि वह इस आदेश को मानने के लिए तैयार नहीं तो वह लिखकर दे दें।
     पता नहीं स्टैनो ने प्रिंसीपल से फ़ोन पर बात की या किसी दूसरे से, करीब आधे घंटे के बाद उसने जो काग़ज़ मुझे दिया, उसकी इबारत कुछ इस तरह थी :
     'कालेज में एडहॉक आधार पर इस पद पर पहले ही किरपाल सिंह काम कर रहा है।'
     बाद में पता चला कि जो एडहॉक लेक्चरर किरपाल सिंह यहाँ काम कर रहा था, वह स्टैनो के किराये वाले घर में किरायेदार था। स्टैनो द्वारा अपने किरायेदार का इतना पक्ष लेने पर मुझे बहुत बुरा नहीं लगा था।
     जब मैंने कालेज की ओर से दिया गया पत्र ले जाकर संयुक्त सचिव के सामने रखा, वह तैश में आ गए। अगर मैं असली बात बता देता तो शायद वह और अधिक गुस्से में जा जाते, परन्तु मैं आते ही कालेज में दुश्मनी नहीं पालना चाहता था। संयुक्त सचिव साहिब की निजी दिलचस्पी और मोहन लाल की हमदर्दी के कारण सचिवालय से तो काग़ज़ अगले दिन ही डी.पी.आई. दफ्तर पहुँच गया, पर चड्ढ़ा साहिब ने अपने बाबू मन का कुछ रौब तो दिखाना ही था, जिस कारण मुझे सरकारी स्पष्टीकरण को प्राप्त करने में कुछ दिन लग गए।
     जब 31 दिसम्बर को दोपहर से पहले मैं फिर हाज़िर होने के लिए कालेज में पहुँचा, वही स्टैनो उसी सीट पर बैठा मिला और बड़ी नम्रता और मीठे लहजे में सलाह देने लगा कि मैं 1 जनवरी को उपस्थित होऊँ ताकि बेचारे किरपाल सिंह की पूरे महीने की तनख्वाह बन जाए। लेकिन मेरे जिद्द करने पर स्टैनो को मेरी उपस्थिति रिपोर्ट लेनी ही पड़ी और इस प्रकार मैं स्कूल अध्यापक से कालेज अध्यापक बनते बनते आख़िर बन ही गया। पर मेहरबान बाबुओं द्वारा दिल पर लगाये ज़ख्म अभी भी कभी कभी रिसने लग पड़ते हैं और मोहन लाल जैसे मेहरबानों की लगाई मरहम आज भी सुकून देती है।
(जारी…)

Monday, June 4, 2012

पंजाबी उपन्यास







''साउथाल'' इंग्लैंड में अवस्थित पंजाबी कथाकार हरजीत अटवाल का यह चौथा उपन्यास है। इससे पूर्व उनके तीन उपन्यास - 'वन वे', 'रेत', और 'सवारी' चर्चित हो चुके हैं। ''साउथाल'' इंग्लैंड में एक शहर का नाम है जहाँ अधिकतर भारत से गए सिक्ख और पंजाबी परिवार बसते हैं। यहाँ अवस्थित पंजाबी परिवारों के जीवन को बेहद बारीकी से रेखांकित करता हरजीत अटवाल का यह उपन्यास इसलिए दिलचस्प और महत्वपूर्ण है क्योंकि इसके माध्यम से हम उन भारतीय लोगों की पीड़ा से रू-ब-रू होते हैं जो काम-धंधे और अधिक धन कमाने की मंशा से अपना वतन छोड़ कर विदेशों में जा बसते हैं और वर्षों वहाँ रहने के बावजूद वहाँ की सभ्यता और संस्कृति का हिस्सा नहीं बन पाते हैं।

साउथाल
हरजीत अटवाल

हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव


। चौंतीस ॥
यह बात है सन् साठ की जिन दिनों में पंजाबी लोग साउथाल में आकर बसने शुरू होते हैं। साउथाल में बसने के कई कारण हैं। यह एअरपोर्ट की करीब है। एक सौ पाँच नंबर बस सीधी जाती है। यहाँ घर भी आसपास के इलाकों से कुछ सस्ते हैं। यहाँ काम भी आसानी से मिल जाते हैं। कुछ लोग पहले यहाँ बसते हैं और फिर अपनो के करीब रहने के मकसद से दूसरे लोग भी यहीं रहना शुरू कर देते हैं। इन दिनों लोग वियोगग्रस्त हैं। इन्हें अपने देश और अपने परिवारों से बिछड़ने का दु:ख है। ये अपने देश के बारे में जानना चाहते हैं कि वहाँ क्या हो रहा है। उनके जज्बात को सहलाने के लिए ज्ञानेन्द्र पंजाबी का एक परचा निकालने का सपना देखता है। ज्ञानेन्द्र ने पहले दो उपन्यास लिखे हैं और यहाँ भी कुछ न कुछ लिखता रहता है। इसी दौरान भारत से आए लेखकों को अपने साथ जोड़ता है और दो पन्नों का साइक्लोस्टाइल परचा निकालता है। नाम रखता है - 'वास-परवास'। कुछ ख़बरें भारत की और कुछ यहाँ की और कुछ दिलचस्प सामग्री। परचा धीरे-धीरे मकबूल होने लगता है। इसके पृष्ठ भी बढ़ जाते हैं। दो पन्नों से दस, दस से बीस। ज्ञानेन्द्र का ख़बर लिखने का तरीका बहुत दिलचस्प और मौलिक है। ग्रामीण लोगों की मानसिकता की उसको खूब समझ है। जैसे-जैसे पंजाबी लोग साउथाल में बढ़ते जाते हैं, 'वास-परवास' का प्रचार भी बढ़ता जाता है। 'वास-परिवास' अकेले साउथाल में ही नहीं, पूरे ब्रिटेन में पढ़ा जाने लगता है। ज्ञानेन्द्र के संपादकीय की सुर कुछ विद्रोही होती है और लोग इस संपादकीय को रुचि से पढ़ते हैं। भारत में तत्कालीन सरकार इमरजेंसी लगा देती है। साउथाल के लोगों में इमरजेंसी के विरुद्ध रोष जाग पड़ता है। 'वास-परवास' इस रोष की तरजुमानी बहुत शिद्दत से करता है। इतनी शिद्दत से कि वह भारत सरकार की नज़रों में आ जाता है और उसके भारत जाने पर पाबंदी लग जाती है। इसी समय 'वास-परिवार' का दायरा इतना बढ़ जाता है कि यह दुनिया के कोने-कोने में पढ़ा जाने लगता है। इसमें सिर्फ़ समाचार और संपादकीय ही नहीं होता, और भी बहुत सारी सामग्री होती है जैसे कि कविताएँ, कहानियाँ, उपन्यास-अंश, लतीफ़े, प्रश्न-उत्तर और अन्य बहुत सारे लेख। अब ब्रिटेन में पंजाबी कम्युनिटी बहुत बड़ी हो चुकी है। तीज-त्योहार पंजाबी की तरह ही मनाए जाने लग पड़े हैं। भारत की तरह ही मेले लगते हैं। कबड्डी के टूरनामेंट होते हैं। 'वास-परवास' इन सबको कवर करता है। इस कवरेज़ को पढ़ने के लिए लोग अब 'वास-परवास' को घर की ज़रूरतों में शामिल करने लग पड़े हैं। जब वे साप्ताहिक खरीददारी करने के लिए जाते हैं तो उनकी टोकरी में दूध, मक्खन, सब्जियों, दालों आदि के साथ-साथ 'वास-परवास' भी होता है।
     इस अख़बार के बराबर कई अन्य अख़बार निकलते और बन्द होते रहते हैं, पर यह अख़बार अपनी गति से चलता चला जा रहा है। भारत से आया हर लीडर 'वास-परवास' के दफ्तर में उपस्थिति दर्ज़ करवाने का इच्छुक होता है। ज्ञानेन्द्र स्वयं लेखक है, इसलिए पंजाबी के लेखकों की खास इज्ज़त करता है। आर्थिक तौर पर भी मदद कर देता है। साउथाल के लेखकों को भी दफ्तर में बुलाकर महफ़िल जमाये रखता है। हर लेखक इसमें छपने में गर्व महसूस करता है। चाहे लेखक मार्क्सवादी हो या किसी धर्म से जुड़ा हो, हर कोई अपनी रचना इस अख़बार में भेजता है और ज्ञानेन्द्र रचना का स्तर परखकर बड़े चाव से उसे प्रकाशित करता है। ऐसे ही वह गाने वालों और खिलाड़ियों के साथ व्यवहार करता है। ज्ञानेन्द्र साउथाल की खास शख्सियतों में शामिल है। उसका अख़बार तो साउथाल की रूहे-रवां है। 'वास-परवास' के बगैर साउथाल की कल्पना नहीं की जा सकती।
     फिर दौर आता है खालिस्तान की लहर का। पहले तो ज्ञानेन्द्र किसी का पक्ष लिए बगैर संतुलित-सी ख़बरें छापता है, पर जब फौज हरमंदिर साहिब में दाख़िल होती है तो वह एकाएक खालिस्तान का पक्ष लेने लगता है। खालिस्तान का समर्थन करते हुए आलेख छापने लगता है। अपने संपादकीय में खालिस्तान की आवश्यकता पर बातें करता है। उसके इस रुख से बहुत सार दोस्त खफ़ा हो जाते हैं, पर वह उनकी परवाह नहीं करता। वह अपने दिल की बात कहना जारी रखता है। जहाँ वह कुछ दोस्त गवां बैठता है, वहीं बहुत सारे लोग उससे जुड़ने भी लगते हैं। लेखकों में मार्क्सवादी लेखक उसका साथ छोड़ जाते हैं, परन्तु अन्य खालिस्तानी विचारधारा वाले लेखक उसके संग आ खड़े होते हैं।
     ग्रेवाल गाहे-बगाहे 'वास-परवास' में छपता रहता है। मार्क्सवादी लेखक ग्रेवाल को कई बार कहते हैं कि वह इस परचे की मूलवादी नीति का साथ न दे, पर ज्ञानेन्द्र के साथ उसकी पुरानी मित्रता है। फिर वह लिखता भी कितना भर है। वार्षिक अंक हो या विशेष अंक, ज्ञानेन्द्र का उसको फोन आ जाता है कि लेख चाहिए। कोई गुरपर्व हो तो उससे संबंधित लेख लिखकर भेज देता है। एक दिन ज्ञानेन्द्र का फोन आता है।
     ''ले भाई ग्रेवाल, लिख एक गरमा-गर्म लेख खालिस्तान की रूप रेखा खींचता हुआ।''
     ''नहीं भाई संपादक महोदय, यह काम मैं नहीं कर सकता। मुझे नहीं चाहिए खालिस्तान।''
     ''मुझे भी नहीं चाहिए, पर तू लेख तो लिख।''
     ''नहीं, जिस काम के लिए मेरा ज़मीर न माने, वह काम मैं नहीं किया करता।''
     ग्रेवाल के इस इन्कार पर ज्ञानेन्द्र गुस्सा नहीं करता। वह उसके विचारों की कद्र करता है।
     ज्ञानेन्द्र के क़त्ल की ख़बर सुनकर ग्रेवाल कहता है-
     ''यह तो बहुत बुरा हुआ। मुझे डर था कि कुछ न कुछ होगा, पर ऐसा होगा कभी नहीं सोचा था।''
     ''कौन हो सकता है इसके पीछे ?''
     जगमोहन पूछता है। जगमोहन ज्ञानेन्द्र को कभी नहीं मिला, पर उसके अख़बार का निरंतर पाठक है। वह भी इस ख़बर से अचम्भित हुआ बैठा है। ग्रेवाल हाथ घुमाते हुए जवाब देता है-
     ''कुछ नहीं कहा जा सकता। इन बाबों के भी कई ग्रुप बने हुए हैं। एक-दूसरे के खिलाफ़ दुश्मनबाजी करते रहते हैं। ज्ञानेन्द्र भी ऐसी दुश्मनबाजी में शामिल था, पर यह कारण शायद न हो। पिछले दिनों पुलिस की एक रिपोर्ट आई थी कि ज्ञानेन्द्र की जान को ख़तरा है, पर उसने किसी किस्म की सिक्युरिटी नहीं रखी हुई थी। जो भी हुआ, बहुत बुरा हुआ।''
(जारी…)