समकालीन पंजाबी साहित्य की उत्कृष्ट कृतियों की तलाश

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Thursday, February 25, 2010

आत्मकथा



एक नेत्रहीन लेखक की आत्मकथा

धृतराष्ट्र
डॉ. एस. तरसेम
हिन्दी अनुवाद : सुभाष नीरव




चैप्टर-6(प्रथम भाग)
जोवड़ कि जुआर

तपा मंडी के आर्य स्कूल से मेरा रिश्ता माँ वाला भी है और सौतेली माँ वाला भी। इस बारे में बहुत कुछ मैं पहले लिख चुका हूँ। यहाँ सिर्फ़ आर्य स्कूल के उस जुल्म की ही बात कर रहा हूँ जिसने मुझे घर छोड़ने के लिए विवश किया था।
कोई संस्था अच्छी या बुरी नहीं होती, बुरे उसके प्रबंधक या कार्य करने वाले होते हैं। आर्य स्कूल के प्रबंधकों का मेरे से कोई झगड़ा नहीं था। वे सब तपा मंडी के वासी थे। हमारा उन सबसे घरवाला वास्ता था। मेरे भाई को उन्होंने ने ही तो बी.एड. करने के लिए कहा था। उन्होंने ही भाई के बी.एड. करते ही उसे आर्य हाई स्कूल का मुख्य अध्यापक बना दिया था। पहले वाला मुख्य अध्यापक यशपाल भाटिया यह भांप गया था कि हरबंस लाल गोयल की बी.एड. पूरी होने के बाद उसका तपा मंडी के आर्य स्कूल में टिक सकना संभव नहीं है। उसकी पंजाब आर्य समाज में अच्छी चलती थी। विशेष तौर पर आर्य विद्या परिषद् में उसका और उसके छोटे भाई राजेन्द्र जिज्ञासु का अच्छा प्रभाव था। जिज्ञासु कट्टर आर्य समाजी था। भाटिया कट्टर आर्य समाजी था या नहीं, पर वह इतवार को प्रात: स्कूल में हवन के लिए सभी अध्यापकों को बुलाया करता था। इतवार को छुट्टी लेना बड़ा कठिन होता था। उसके अपने इलाके से लाए गए दो अध्यापक उसके गुप्तचर थे। हर अध्यापक की सच्ची-झूठी रिपोर्ट भाटिया को देना मानो उनका धर्म हो। वे इस सी.आई.डी. की कमाई खाते थे। भाटिया स्वयं भी कदकाठी में जितना लम्बा था, उससे अधिक वह गप्पी था। उसके गप्प कितने बड़े होंगे, इसे समझने के लिए एक चुटकला देखें :-
एक बार गप्प मारने वाले इकट्ठा हुए। पहला कहने लगा, ''पुराने ज़माने में हमारे बुजुर्गों के पास इतना बड़ा कोठा हुआ करता था जिसमें सारा आसमान बादलों सहित आ जाता था।'' दूसरा गप्पी कहने लगा, ''हमारे बुजुर्गों के पास इतना लम्बा बांस होता था कि वे जब भी आसमान की ओर उसे मारते तो बारिश होने लगती थी।'' ''तुम्हारा बूढ़ा इतना बड़ा बांस रखता कहाँ था ?'' पहलेवाले गप्पी ने पूछा। ''तुम्हारे बूढ़े के उस कोठे में जिसमें आसमान बादलों सहित आ जाता था।'' दूसरे गप्पी का उत्तर था।
उपर्युक्त लतीफ़े जैसी गप्पों से कुछ छोटी गप्पें यशपाल भाटिया अक्सर मारा करता था। नये अध्यापकों पर एक तो उनके नये होने के कारण और दूसरे उसकी गप्पों के कारण अच्छा-खासा रौब पड़ जाता था। लेकिन, हम दोनों भाई उसकी तबीअत से परिचित थे। पहले मेरे भाई को और बाद में मुझे उसने ही स्कूल में अध्यापक नियुक्त किया था, पर जैसा कि मैंने पहले भी बताया है कि उसने मुझे स्कूल में से सबसे पहले यह बहाना बना कर निकाला कि आर्य विद्या परिषद् का नियम है कि एक स्कूल में दो भाई या पिता-पुत्र एक साथ काम नहीं कर सकते। भाई के मई, 1961 में बी.एड. करने के बाद वह पुन: स्कूल में लौट आया था। यशपाल भाटिया पहले ही अपना प्रबंध कर चुका था। उसने आर्य विद्या परिषद् से गांधी आर्य हाई स्कूल, बरनाला के मुख्य अध्यापक का नियुक्ति पत्र प्राप्त कर लिया था। तपा मंडी की प्रबंधक कमेटी के ज़ोर देने पर परिषद् को यशपाल भाटिया की भीतरी विरोधता के बावजूद मेरे भाई को तपा मंडी के आर्य स्कूल का मुख्य अध्यापक बनाना ही पड़ा। भाटिया साहिब ने जो दूसरा तीर छोड़ा, वह वही तीर था जिसे वह पहले भी दो बार छोड़ चुके थे- एक आर्य स्कूल में दो भाई एक साथ नहीं रह सकते। मुझे आर्य स्कूल, तपा को छोड़ना पड़ा। अब मैं रोज़ाना अख़बार में नौकरियों के विज्ञापन पढ़ा करता था। जहाँ ठीक लगता, अप्लाई कर देता।
अंग्रेजी टाइपराइटर हमारे घर का था। प्राइवेट स्कूल में अर्जी मैं पोस्टकार्ड पर ही टाइप करके भेज देता। 'ट्रिब्यून' में जनता हाई स्कूल जो उस समय तहसील- ऊना, ज़िला-होशियार पुर में था(अब हिमाचल प्रदेश में) की नौकरी का इश्तहार छपा। मैंने अपनी शैक्षणिक योग्यता के साथ एक अच्छे वक्ता और लेखक होने के सम्बन्ध में भी संक्षिप्त जानकारी देते हुए वहाँ आवेदन कर दिया। कम से कम वेतन लेने के बारे में भी अन्त में लिख दिया।
एक सप्ताह के अन्दर स्कूल वालों का नियुक्ति पत्र आ गया। उन्होंने मेरी वेतनवाली बात भी मान ली। मैंने सौ रुपया मासिक वेतन मांगा था। उन दिनों में सरकारी स्कूल के पंजाबी टीचर को एक सौ बारह रुपये मासिक मिलते थे। इसलिए सौ रुपया भी कोई कम नहीं था।
उनके पत्र में बताये गए रूट के अनुसार मैं होशियारपुर के भरवाईं बस-अड्डे पर पहुँच गया। इस अड्डे से कुल्लू, कांगड़ा, चिंतपुरनी, ज्वालामुखी आदि पहाड़ी इलाकों के लिए बसें चलती थीं। यह बात मुझे होशियारपुर के बस-अड्डे पर पहुँचकर ही पता चली। पत्र में उस जनता हाई स्कूल के मुख्य अध्यापक ने यह भी लिखा था कि बस शाम को चार बजे मिलेगी और यह भी कि केवल एक ही बस इस रूट पर चलती है। फिर भी, मैं भरवाईं बस-अड्डे पर दोपहर एक बजे तक पहुँच गया था। यह सन् 1961 के एक नवम्बर की बात है। मैं जाते समय अपने सर्दियों वाले कपड़े डाल कर ले गया था और साथ में एक काले-सफ़ेद डिब्बों वाला ग्यारह रुपये में खरीदा हुआ कम्बल। सोचा था कि स्कूल में उपस्थित होकर पाँच-सात दिन बाद बाकी का सामान ले जाऊँगा, क्योंकि हफ्ता भर बाद दीवाली की छुट्टी आनी थी। लेकिन भरवाईं अड्डे पर पहुँच कर मेरी आधी खुशी किरकिरी हो गई और जोश किसी हद तक ठंडा पड़ गया। अड्डे पर दो-तीन दुकानदारों से पूछा कि जोवड़ को बस कौन सी जाएगी। उन सभी का यही उत्तर था कि जोवड़ नाम का तो यहाँ कोई गांव ही नहीं। बसों के एक-दो कंडक्टरों-ड्राइवरों से भी पूछा। उनका भी यही उत्तर था। मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा था कि मैं अब क्या करूँ। समय तीन से ऊपर हो गया था। मैं बहुत निराश था। सोचा, वापस लौट जाऊँ। फिर दिमाग ने काम किया कि जो नियुक्ति पत्र मुझे मिला है, वह तो किसी को दिखाऊँ। मैं इंक्वारी वाली खिड़की पर गया और नियुक्ति पत्र सामने करके कंडक्टर से कहा, ''भाई साहब, यह चिट्ठी मेरे पास आई है, मुझे जोवड़ जाना है।'' उसने स्कूल का लैटर पैड पढ़ा और कहने लगा, ''कुथू जाणै ?'' ''जोवड़'' मैं कहा। ''बाऊ जी, इही तो जुआर है। उस बस में जाओ, वो जुआर जाएगी।'' मेरा सांस में सांस आया। इसे अंग्रेजी के शब्द-जोड़ और उच्चारण की गलती समझो कि मैं दो दिन पहले घर में और ढाई घंटे भरवाईं बस-अड्डे पर बुद्धू बना घूमता रहा। स्कूल के लैटर पैड पर अंग्रेजी में जनता हाई स्कूल, Jowar छपा था और मैं ही नहीं, अंग्रेजी में माहिर मेरे भाई ने भी इसे जोवड़ ही समझा था। उन दिनों में सब चिट्ठी-पत्र अंग्रेजी में ही हुआ करता था। अंग्रेजी में ही चिट्ठी-पत्र करने और बोलने वाले को ही असली पढ़ा-लिखा समझा जाता था। लेकिन खास नाम पढ़ने में जो गलतफ़हमी हो सकती थी, उनमें से एक गलतफ़हमी इस 'जोवड' और 'जुआर' को लेकर भी थी।
तीस-बत्तीस सीटों वाली छोटी बस की लाल बाडी और छोटे नीले मुँह ने मुझे अधिक हैरान नहीं किया था। उन दिनों में बहुत छोटे रूटों पर बिलकुल ऐसी ही बसें चला करती थीं। हम इस तरह की बस को लॉरी कहा करते थे। तपा मंडी से हमारे पुश्तैनी गांव शहिणे को भी इस तरह की ही एक लॉरी चला करती थी।
टिकट लेकर मैं लॉरी में बैठ गया। अभी बस में पाँच-सात मुसाफ़िर ही थे। वे मुझे पराये-पराये से प्रतीत हो रहे थे। उनके पहरावे और बातचीत से मैं जान गया था कि ये सब पहाड़ी इलाके के ही हैं।
''क्यों जी, यहाँ से जुआर कितनी दूर है ?''
''पहले गगरेट, फिर चौकी मुबारक पुर, फिर अम्ब, नहिरी और फिर जुआर... बस, दो ढाई घंटे।'' मेरे साथ बैठी सवारी ने मानो सफ़र को मीलों या किलोमीटर के स्थान पर घंटों में नाप कर बताया हो। वैसे भी, उसका पूरा वाक्य मेरी समझ में नहीं आया था। लॉरी चार बजे नहीं चली। साढ़े चार बजे भी कंडक्टर और ड्राइवर आसपास नहीं दिख रहे थे। लॉरी में बैठा मैं जैसे ऊब गया था। पाँच बजे तक लॉरी पूरी तरह भर चुकी थी। बस में बैठीं कुछ सवारियों की बीड़ियों और सिगरेटों के धुएं से मैं उकता गया था। यह इसलिए नहीं कि मैं तम्बाकू से नफ़रत करता था। बीड़ियाँ तो मैंने बचपन में चोरी छिपे बीसियों बार पी होंगी। मेरा अपना भाई भी बीड़ी पिया करता था। पर यहाँ तो आधी से अधिक सवारियाँ तम्बाकू पी रही थीं। इसलिए इतना धुआं मेरे से बर्दाश्त नहीं हो पा रहा था। वैसे भी मेरे दिमाग में ढाई घंटे के सफ़र की सूचना बेचैनी पैदा कर रही थी। 'अगर अब भी बस चल पड़े तो साढ़े सात बजे तक जुआर पहुँच पाऊँगा। तब तक तो अंधेरा हो जाएगा।' अंधेरे का भय मुझे निरंतर खाये जा रहा था। एक बार फिर मन हुआ कि वापस लौट जाऊँ। लेकिन माँ और भाई की ओर से पड़नें वाली डांट-फिटकार से डर कर मैं मन मार कर लॉरी में बैठा रहा।
सवा पाँच बजे कंडक्टर ने सीटी मारी। ड्राइवर आया, कितनी ही देर बस घुर्र...घुर्र... करती रही। सात-आठ किलोमीटर के बाद सड़क के दोनों ओर पहाड़ों के दर्शन हुए। बस चलने के कारण बीड़ियों का धुआं भी कम महसूस होने लगा था। थोड़ी थोड़ी दूरी पर मोड़-घुमाव आ रहे थे। मैं दायीं तरफ वाली ड्राइवर की पिछली सीट के पीछे वाली सीट पर खिड़की की तरफ बैठा था। मेरे से आगे वाली सीट पर खिड़की के साथ एक औरत बैठी थी। बोलचाल से पहाड़िन लगती थी। पर चार पाँच मोड़-घुमावों के बाद ही उसे उल्टी आनी शुरू हो गई। मैंने अपनी वाली खिड़की का शीशा बन्द कर लिया। सूरज के पश्चिम की ओर हो जाने के कारण ठंड भी कुछ बढ़ गई थी। औरत की उल्टी और ठंड से बचने के लिए शीशा बन्द करना मुझे ठीक लगा। कुछ और सवारियों ने शीशे बन्द कर लिए थे।
गगरेट पहुँचने पर दिन लगभग छिप गया था। जितना मैं देख सकता था, उसके अनुसार बस-अड्डा मुझे अच्छा लग रहा था। दो तीन चाय-पानी की दुकानों और कुछ फलों, सब्जियों के अड्डे इस साफ़-सुथरे पहाड़ी क्षेत्र यात्रियों को आकर्षित करते होंगे, मेरा यह अनुमान इसके बाद की मेरी अनेक फेरियों के बाद दृढ़ हो गया था।
सब कुछ अच्छा लगने के बावजूद डर और सहम मेरा पीछा नहीं छोड़ रहे थे। अगर बस साढ़े सात बजे पहुँची तो मैं क्या करूँगा। ठिकाने पर कैसे पहुँचूगा। इसी सोच-विचार ने तो मुझे चाय तक नहीं पीने दी थी।
दसेक मिनट पश्चात् बस फिर चल पड़ी। दोनों तरफ़ कभी छोटे-छोटे पहाड़ और कभी गहरी खाइयाँ थीं, पर साफ कुछ भी नहीं दिखाई दे रहा था। बस पानी में से निकल रही थी। यात्रियों की बातों से मालूम हुआ कि इस इलाके में पानी के इस बहाव को चौ कहते हैं। इस चौ को पार करते समय मुझे कोई डर नहीं लगा क्योंकि इससे बड़ा डर तो पहले ही मेरे दिल को दबाये बैठा था। बस अगले बस-अड्डे पर भी कुछ देर के लिए रूकी। यहाँ भी एक चाय की दुकान थी। बायें हाथ की ओर इशारा करते हुए एक यात्री भरवाईं के बारे में बताते हुए समझा रहा था कि भरवाई से आगे एक सड़क चिंतपुरनी को जाती है और दूसरी कांगड़े को। चिंतपुरनी और कांगड़ा मेरे लिए धार्मिक स्थल थे। इन दोनों देवी के मंदिरों के विषय में माँ से बहुत कुछ सुन रखा था। कांगड़ा के भूचाल और इसके ऐतिहासिक महत्व के बारे में मैंने बी.ए. में काफी कुछ पढ़ रखा था। इस सारी जानकारी से मुझे एक लाभ यह हो रहा था कि दो-एक घंटों के बाद मेरे संग घटित होने वाले घटनाक्रम के भय से मैं कुछ पल के लिए मुक्त हो रहा था।
अम्ब पहुँच कर दिन बिलकुल ही छिप गया। मेरे लिए बस के अन्दर तो कुछ उजाला था, पर बाहर अंधेरा ही अंधेरा। अम्ब पहुँचने पर सड़क के दोनों ओर की दुकानों में जलती लालटेनों, लैम्पों और दीयों की रोशनी से मन कुछ टिक सा गया। यहाँ सवारियों को उतार कर बस चल दी। ड्राइवर ने कंडक्टर को अपने पास बुलाया। नहिरी का अड्डा सिर्फ़ तीन-चार किलोमीटर रह गया था। घड़ी मेरे पास थी नहीं। टाइम पूछा। साढ़े सात बज चुके थे।
कहीं कहीं दूर ऊँची जगहों पर रोशनी नज़र आती। सड़क के दोनों तरफ जब बस की रोशनी पड़ती तो कुछ ऊँचे पहाड़ों और कुछ खाइयों का अहसास होता। खाइयों की तरफ कहीं-कहीं सीमेंट के बेंच से बने हुए थे। एक सवारी से पूछने पर पता चला कि इनको डंगे कहते हैं। मेरे अगले प्रश्न पर उसने यह भी बताया कि ये बस को खड्ड में गिरने से बचाते हैं।
नहिरी का अड्डा बड़ा रौनक वाला था। सड़क के दोनों तरफ दुकानें ही दुकानें, पर मेरे सिर पर उस समय मानो सौ घड़े पानी उलट गया जब ड्राइवर ने कहा कि बस आगे नहीं जाएगी। मेरा डर और भी दोगुना-चौगुना हो गया। मैंने कंडक्टर से कहा कि मैं परदेसी हूँ। मैं इस इलाके से परिचित नहीं हूँ। अब मैं कहाँ जाऊँ ? कहाँ ठहरूँ ? उसने मुझे हौसला दिया और समझाया कि इनमें से कई दुकानों वाले रात को ठहरने के लिए चारपाई-बिस्तर दे देते हैं। रोटी भी मिल जाएगी। पर मेरी समस्या रोटी या चारपाई-बिस्तर की नहीं थी। मेरी समस्या तो ठिकाने पर पहुँचने की थी। यह पहली बार था कि पिछले तीन सालों में मैं रात के समय किसी अजनबी जगह सड़क पर आया होऊँ। अंधेरे में न दिखने का अहसास इतनी शिद्दत से मुझे पहली बार महसूस हुआ था।
एक सवारी जो नहिरी की ही थी, मैंने उसकी बांह पकड़ कर याचना भरे स्वर में कहा कि वह मुझे किसी ऐसी दुकान पर छोड़ आए, जहाँ मैं रात बिता सकूँ। उसकी बांह पकड़ते समय मैंने उसे यह नहीं बताया था कि रात के अंधेरे में मुझे बहुत कम दिखता है। इस तरह का अहसास मुझे पहले कभी इतना अधिक हुआ ही नहीं था। परदेसी समझ कर उसने मुझे ढाढ़स बंधाया। मैंने बायीं बगल में कम्बल दबा कर और बायें हाथ में अटैची उठा कर दायां हाथ उसके कंधे पर रख लिया। दुकानों की दीया-बत्ती के कारण चलने में अधिक कठिनाई नहीं हुई थी। उसने एक दुकान के सामने ले जाकर मुझे खड़ा कर दिया और दुकानदार को मेरी समस्या समझा दी।
दुकानदार ने मुझे एक चारपाई पर बैठने का इशारा किया। बांस की बाही वाली चौकड़े के बाण से बुनी यह चारपाई कुछ ढीली भी थी और छोटी भी। बेदिली से मैं चारपाई पर बैठ गया। दुकानदार ने मुझे खाने-पीने के बारे में पूछा। रोटी का प्रबंध वहाँ कहीं नज़र नहीं आ रहा था। पर उन्होंने कहा कि इस वक्त मिर्चें या आम के अचार के साथ रोटी मिल सकती है। साथ में देशी घी मिल जाएगा। मैंने चार रोटियों और छटांक घी के लिए कह दिया। भूखा होने के बावजूद मानो मेरी भूख उड़ गई थी। आगे जुआर जाने का इरादा त्याग दिया था। लेकिन दुकानदार के समझाने पर सवेरे मैंने जुआर न जाने का अपना इरादा बदल लिया। मन ने भी कहा कि जब इतनी दूर आ ही गया है तो आगे चार-पाँच मील और जाने में हर्ज़ ही क्या है। रोटी आ गई थी। चार बड़ी-बड़ी रोटियाँ और साथ में बड़ी-बड़ी दो लाल मिर्चें मसाले से भरी हुईं। मैं बड़ी मुश्किल से दो रोटियाँ ही खा सका। ये दो रोटियाँ भी इसलिए खा सका कि मिर्चों के अचार के साथ देशी घी भी था। हमारे घर में तो इस एक रोटी की दो से अधिक रोटियाँ बन सकती थीं। शायद इसीलिए मैंने चार रोटियों के लिए कहा था। दो रोटियाँ मैंने लौटा दीं पर दुकानदार ने कहा कि पैसे चार रोटियों के ही लगेंगे। मेरे लिए यह कोई खास बात नहीं थी। एक तो भूख मर जाने के कारण और दूसरा इस डर से कि पेट भर कर खाने पर कहीं रात में जंगल-पानी न जाना पड़ जाए, मैंने शेष दो रोटियाँ छोड़ दी थीं। यही कारण था कि उनके द्वारा चाय या दूध पूछे जाने पर मैंने कुछ भी पीने से इन्कार कर दिया। एक तो अनजान इलाका, दूसरा टेढ़े-मेढ़े, ऊँचे-नीचे रास्ते और तीसरा - रात का समय। इन सबने मुझे और कुछ भी खाने से रोक दिया। खाने को तो दुकान पर पेड़े भी थे और नमक वाली पकौड़ियाँ भी। और भी बहुत कुछ खाने योग्य दुकान में था लेकिन मैं मन ही मन अपने आप को कोस रहा था - क्या ज़रूरत थी इधर आने की ? यहाँ के सौ से तो अपने इलाके में मिलने वाले साठ या सत्तर ही भले थे। पर लॉरी इस तरह धोखा दे जाएगी, घर से चलते समय इस बात का पता नहीं था।
घर से चलते समय चाव में भर कर पहनी लाल जर्सी और नीली पैंट मैंने उतार कर सिरहाने रख ली। पैंट में से साठ रुपये निकालकर मैंने कमीज की जेब में रख लिए। बस, यही पूंजी मेरे पास थी, इसमें से ही मुझे इस दुकानदार को रात काटने का किराया, खाने-पीने का खर्चा देना था और वापसी का सफ़र तय करना था। इस हिसाब-किताब से यह रकम किसी भी तरह से कम नहीं थी।
अटैची में से लुंगी निकाल कर मैंने चारपाई पर बिछा ली और कम्बल ऊपर लेकर लेट गया। दुकानदार भी वहीं था। अभी भी सौदे वाले ग्राहक आ-जा रहे थे। दुकानदार मेरे संग बातें भी किए जा रहा था और आने-जाने वाले ग्राहकों को भी निबटा रहा था। उसकी बात समझने में मुझे कोई अधिक कठिनाई नहीं हो रही थी। ज्ञानी पढ़ते-पढ़ाते समय भाषा विज्ञान के पेपर में पंजाबी की उप-भाषाओं के सर्वनामों और क्रियाओं की मुझे अच्छी जानकारी हो गई थी। हालांकि मैं बोल पूरी तरह नहीं सकता था, पर पहाड़ी समझने में कोई खास मुश्किल नहीं आ रही थी। दुकान के अन्दर जलते लैम्प और बाहर टंगी लालटेन के कारण मुझे देखने में भी कोई खास दिक्कत पेश नहीं आ रही थी। मैंने अपने अटैची में से टार्च भी निकाल कर सिरहाने रख ली थी। टार्च मैं इसलिए लेकर आया था क्योंकि मुख्य अध्यापक ने चिट्ठी में बस के जुआर पहुँचने में ढाई घंटे के सफ़र की बात लिखी थी। मुझे अपनी कमजोरी का पता था। इसलिए मैं रात-बेरात उठते समय टार्च को अपना आसरा समझ कर संग ले आया था।
दुकानदार बड़ा मीठा-मीठा बोल रहा था। उसने मुझे इस बात के लिए पक्का कर दिया था कि मैं स्कूल ज़रूर देख कर आऊँ। मुझे भी उसकी बात जच गई थी। दुकानदार के बताये अनुसार सड़क सीधी स्कूल तक जाती थी और वहाँ से आगे की सड़क भी पक्की थी। सुबह के समय इस दुकान के सामने से बहुत से लड़कों ने स्कूल के लिए गुजरना है, यह बात भी मुझे दुकानदार ने ही बताई थी। दुकानदार ने यह कह कर भी मुझे दिलासा दिया था कि मेरा अटैची और कम्बल लड़के उठा लेंगे। वे बड़े अदब से मुझे स्कूल ले जाएंगे। लड़के बहुत सीधे-सरल हैं। मास्टरों की बड़ी इज्ज़त करते हैं। स्कूल जा कर अगर तुम्हारा मन माने तो तुम ज़रूर यहाँ नौकरी करके देखना। दिलासे के उसके ये शब्द कम से कम रात काटने में मेरे बहुत सहायक होते, अगर चारपाई के खटमल सारी रात मुझे बेआराम न करते। घड़ी पल के लिए आँख लग गई हो तो मैं कह नहीं सकता, पर सारी रात जाग कर काटने के बावजूद मैं मुँह-अंधेरे ही उठ कर बैठ गया। दुकानदार पहले ही उठ चुका था। वह मुझे जंगल-पानी जाने के लिए कह रहा था, पर मैं दिन चढ़ने की प्रतीक्षा कर रहा था।
(जारी…)
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Sunday, February 14, 2010

आत्मकथा



एक नेत्रहीन लेखक की आत्मकथा

धृतराष्ट्र
डॉ. एस. तरसेम
हिन्दी अनुवाद : सुभाष नीरव
चैप्टर-5


पुन: तपा के आर्य स्कूल में

लौट के बुद्धू घर को आए।
सुखानंद आर्य हाई स्कूल, तपा में जुलाई या अगस्त 1960 को मेरे हाज़िर होने पर उक्त कहावत तो लागू नहीं होती क्योंकि मैं स्वयं स्कूल छोड़ कर नहीं गया था, स्कूल छुड़वाया गया था। यह समझो, खूबसूरत योजना के तहत स्कूल से निकाला गया था। हाँ, 'मुड़ घुड़ खोती बोहड़ थल्ले' वाली कहावत मेरे स्कूल में पुन: नौकरी करने पर अगर कोई लागू करता है, तो उस पर मेरा कोई उज्र नही। लेकिन मेरे लिए इस बोहड(वट वृक्ष) के सब पत्ते झड़े हुए हैं। इस वट वृक्ष के नीचे आकर झुलसा देने वाले सेक का मुझे ज्ञान था। मेरी तुलना खोती यानी गधी के साथ भी नहीं हो सकती थी। हालांकि मेरे पास कोई धन-दौलत नहीं थी, पर अक्ल का खाना मेरा पूरी तरह खुला था। माँ की शिक्षा और भाई के हुक्म पर ही मैंने यह नौकरी स्वीकार की थी।
जुलाई में दाख़िल होने के बाद भाई ने मई में वापस लौटना था। नौ-दस महीने घर का सारा खर्च अब मेरे जिम्मे थे। माँ और भाभी के बिना भाई के चार बच्चे भी थे- ऊषा, सरोज, सुरेश और नरेश। बहन शीला का बड़ा बेटा विजय भी उन दिनों हमारे पास ही दसवीं में पढ़ रहा था। अब वाले ज़िला मोगा के गांव सल्हीणे में बहन शीला के परिवार की रिहाइश थी। वहाँ सिर्फ़ चौथी तक स्कूल था। इसलिए बहन ने हम पर अपना ज़ोर समझ कर विजय को पाँचवी से ही हमारे पास छोड़ दिया था और तब से उसकी फीस और किताबों का सारा खर्च हमारे ऊपर ही था। इस प्रकार परिवार के कपड़े-लत्ते और राशन-पानी के अलावा इन पाँच बच्चों की पढ़ाई-लिखाई का सारा खर्च भी मेरे सिर पर आ पड़ा।
कोल्हू के बैल की भांति सुबह पाँच बजे से लेकर रात नौ बजे तक मैं पढ़ाने में जुटा रहता। सवेरे छह बजे से आठ बजे तक का एक ग्रुप पढ़ाता। आठ बजे से स्कूल के बाकायदा लगने तक स्कूल में ज़ीरो पीरियड पड़ता और फिर स्कूल के आठ पीरियड भी। छठी और दसवीं तक की पंजाबी के अलावा सातवीं कक्षा की अंग्रेजी और आठवीं कक्षा का मैथ भी पढ़ाता। स्कूल में सिर्फ़ एक पीरियड ही खाली मिलता, वह भी दफ्तर के किसी काम के लेखे लग जाता। तनख्वाह वही पहले वाली सिर्फ़ 60 रुपये, पर नौकरी का फायदा यह था कि जो ट्यूशन मेरे भाई के पास आती थीं, अब वे सारी मेरे पास आने लग पड़ी थीं। अधिक ट्यूशन मिलने का एक कारण और भी था। वह यह कि अंग्रेजी पढ़ाने वाला सतपाल गुप्ता और साइंस पढ़ानेवाला हरचरन दास कपला स्वयं ट्यूशन नहीं कर सकते थे। नौवीं और दसवीं को मैथ हैड मास्टर स्वयं पढ़ाता था। गुप्ता और कपला बच्चों को ट्यूशन के लिए मेरे नाम की सिफारिश करते ही थे, हैड मास्टर भी छोटे-बड़े अनेक विरोधों के बावजूद ट्यूशन के लिए मेरे पास जाने की ही प्रेरणा देता।
चार बजे के बाद एक घंटे के लिए डा. आनंद कुमार के बच्चों को उसके घर पढ़ाने जाना पड़ता। हमारे घर से डॉक्टर साहिब का घर दो किलोमीटर से भी अधिक दूरी पर होगा। पर इस ट्यूशन के पढ़ाने का वायदा मेरे भाई ने ही आनंद कुमार से किया था, इसलिए मैं उसको जवाब नहीं दे सकता था। इसका एक कारण यह भी था कि बी.एड के दाख़िले के समय कुछ पैसे भाई ने डॉक्टर आनंद कुमार से बिना ब्याज पर पकड़े थे और लौटाने की भी कोई समय-सीमा नहीं थी। ट्यूशन के 20 रुपये महीना देने में डॉ. आनंद कुमार बहुत पक्का था। उसके घर जाने से पहले रास्ते में उसका क्लीनिक पड़ता था। पहली तारीख को फीस देने में वह इतना पक्का था कि मेरे घर लौटते समय वह दस-दस के दो नोट हाथ में लिए बाहर खड़ा होता और बड़े आदरसहित वह रकम मेरी जेब में डाल देता। लेकिन उनके घर में ट्यूशन पढ़ाने का यह काम बहुत कठिन था। आरंभ में उसने कहा तो था दो विद्यार्थियों को पढ़ाने के लिए, पर धीरे-धीरे यह गिनती दोनों लड़कियों -आठवीं वाली सीता और छठी वाली प्रकाश से बढ़ कर पाँच तक पहुँच गई थी। दसवीं वाला मनमोहन, तीसरी वाला पवन और पहली कक्षा वाला सुरेश भी पढ़ने बैठ जाते। मनमोहन जिसे सभी मोहणा कहते थे, को ऊँचा सुनाई देता था। वह हिसाब के कुछ सवाल समझने के लिए मेरे पास आता, खास कर एलज़बरे के। करते-कराते वह मेरा आधा घंटा खा जाता। उसे पढ़ाने के लिए ऊँची आवाज़ में बोलना पड़ता। तपते तंदूर पर रोटी उतारने की तरह दो-चार सवाल और पंजाबी का थोड़ा-बहुत पाठ पवन भी पढ़ जाता। पाँचेक मिनट सुरेश पर भी लगाने पड़ते। दोनों लड़कियों को अंग्रेजी और हिसाब पढ़ाना पड़ता। अगर घंटा नहीं तो पचासेक मिनट तो उन पर भी लग जाते। इस तरह एक घंटे के स्थान पर डेढ़ घंटे पढ़ाने के बावजूद पानी मांग कर पीना पड़ता। आठ महीनों में उन्होंने सिर्फ़ एक बार शिकंजी पिलाई थी और एक बार चाय। लेकिन भाई पर की गई डॉ. आनंद कुमार की कृपादृष्टि और समय से ट्यूशन की फीस देने के कारण ओखली में दिए सिर को अधिक महसूस न होता। कम महसूस होने का एक कारण और भी था। डॉ. आनंद कुमार दिमागी रोगों के भारत प्रसिद्ध वैद्य पंडित गोवर्द्धन प्रसाद का भतीजा था। पंडित जी का अपना अड्डा हवेली के बड़े गेट के साथ लगने वाले कमरे में था और उनके साथ ही डॉ. आनंद कुमार के पिता पंडित देवराज जी भी बैठते थे। इस दरवाजे में से गुजर कर ही मुझे इन बच्चों को पढ़ाने के लिए चौबारे पर जाना पड़ता था, क्योंकि इस हवेली में पंडित गोवर्द्धन दास जी और पंडित देव राज जी के परिवार रहा करते थे। जब मैं हवेली के दर पर पहुँचता तो अक्सर पंडित जी के दर्शन हो जाते। उन जैसा आकर्षक व्यक्तित्व मैंने आज तक दुनिया में नहीं देखा -सफ़ेद दूध जैसी पगड़ी और दूध जैसे सफ़ेद वस्त्र, साथ में सुर्ख दिपदिपाता चेहरा, चौड़ा माथा, नुकीली नाक और मोटी आँखें। उनके चेहरे से मानो कोई नूर बरस रहा हो। वह जब मुझे कविराज कह कर बुलाते तो मेरी सारी थकान मिट जाती। संभव है उनके दिल में प्यार की यह भावना पैदा करने में उनकी बेटी कमला का हाथ हो, क्योंकि वह उन दिनों में आर्य स्कूल में दसवीं कक्षा में पढ़ती थी और मैं उसे पंजाबी पढ़ाया करता था। डॉ. आनंद कुमार और उनके सारे परिवार का भी पंडित जी के दिल में मेरे प्रति आदर बढ़ाने में हाथ हो सकता है। एक कारण और भी था। पंडित जी स्वयं संस्कृत के कवि थे। मेरी कविताएं उन दिनों अखबारों में छपती रहती थीं। वे कविताएं उन्हें कोई न कोई अवश्य सुना दिया करता था। यही कारण है कि वह मेरे साथ जब भी बात करते, कविता की ही बात करते।
सितम्बर में एक डॉक्टर की बेटी भी मुझसे पढ़ने लगी थी। वह डॉक्टर हमारा फैमिली डॉक्टर था। दसवीं में पढ़ने वाली यह लड़की मुझसे एक महीना ही पढ़ सकी। मैं चाहता था कि किसी न किसी तरह उससे छुटकारा पाऊँ। वह लड़की ठीक नहीं थी। डॉक्टर साहब से मैंने समय की कमी का बहाना बना कर उससे पिंड छुड़ा लिया था और साथ ही लिहाज करने के उद्देश्य से कह दिया कि अगर इसे आप रात में दसवीं के ग्रुप में भेज सको तो अधिक अच्छा रहेगा। एक लड़की को पढ़ाने के लिए हैड मास्टर ने स्वयं कहा था। मैं उसे पढ़ाना नहीं चाहता था। उस लड़की का भाई भी दसवीं में पढ़ता था। 20 रुपये में दो किलोमीटर जा कर पढ़ाने का यह सौदा मुझे पुजता नहीं था। लेकिन मैं भाटिया साहब को जवाब भी नहीं दे सकता था। दो विद्यार्थियों को दसवीं की अंग्रेजी और हिसाब, और वह भी दो किलोमीटर जा कर पढ़ाना बस गले पड़ा ढोल बजाने वाली बात थी। अच्छा हुआ कि कानों का कच्चा लड़की का बाप लड़के द्वारा मेरे विरुद्ध शिकायत करने पर मुझसे बहस पड़ा और मेरे लिए ट्यूशन पढ़ाने का सिलसिला बन्द करना आसान हो गया। नवम्बर और फरवरी तक नौवीं और दसवीं के दो ग्रुप रात में भी लगाता था। सवेरे और रात के इन ग्रुपों में कम से कम एक तिहाई विद्यार्थी लिहाज वालों के थे। पर तपा मंडी जैसे छोटे से कस्बे में उन दिनों में आँख-लिहाज का भी बड़ा मूल्य था। इसलिए सेवाभाव वाला यह काम करना ज़रूरी था।
भाई की अनुपस्थिति में दसवीं तक अंग्रेजी और हिसाब की ट्यूशन करने वाला मैं तपा मंडी में इकलौता अध्यापक था। इलाके में मेरी इतनी पैंठ बन गई थी कि मैं अपने भाई से भी अधिक योग्य अध्यापक माना जाता। योग्य तो असल में मेरा भाई ही था, अन्तर सिर्फ़ यह था कि भाई के पढ़ाने की रफ्तार बहुत तेज थी। मैं बड़े धीरज के साथ पढ़ाता था। इसलिए मध्यम और कमजोर विद्यार्थियों को मेरे पढ़ाने का तरीका अधिक पसंद था। ट्यूशन रखने वाले थे भी बहुत मध्यम या कमजोर किस्म के विद्यार्थी। मेरे एक सफल और सर्वप्रिय अध्यापक होने की मुहर तो सबके दिलों पर लग गई थी, पर भाई के स्वभाव की तरह मेरे अन्दर मिठास और नम्रता का अभाव कइयों को चुभता था। स्कूल में भी और मंडी में भी मुझे अड़ियल और हठी समझा जाता था। कम्युनिस्ट पार्टी के कार्यक्रमों में चोरी छिपे हिस्सा लेने वाली बात भी पता नहीं लोगों और हैड मास्टर को कहाँ से पता चल जाती। इस कारण भी भाई के गऊ जैसे स्वभाव के मुकाबले मंडी के कई लिहाजी भी मुझे बिगड़ा हुआ बछड़ा समझते। कई तो मेरे मुँह पर भी यह बात कह देते।
भाई के बी.एड की परीक्षा देने के बाद लौट कर आने तक स्कूल में पूरा साल ही ठीक गुजर जाता अगर आर्य प्रतिनिधि सभा का एक पत्र आ कर रंग में भंग न डालता। पत्र में आदेश था कि अध्यापक सभी को 1961 में होने वाली मरदम शुमारी में अपनी मातृभाषा हिंदी लिखवाने के लिए प्रेरित करें। हैड मास्टर ने इस आदेश का ज्यों कि त्यों पालन करने के लिए पत्र को चपरासी के माध्यम से सभी अध्यापकों को दिखाने और नोट करने के लिए भेज दिया। जब पत्र मेरे पास पहुँचा तो पढ़ कर मुझे ताव-सा आ गया। मैंने पत्र पर ही पंजाबी में लिख दिया- ''हमारी मातृभाषा पंजाबी है'' और दस्तख़त कर दिए। भाटिया साहब को पंजाबी नहीं आती थी। जब पत्र वापस हैड मास्टर के पास पहुँचा तो पता नहीं उसने किससे पंजाबी में लिखा मेरा वाक्य पढ़वाया और तुरन्त मुझे क्लास में से बुलवा लिया। मुझे पता था कि मेरे इस वाक्य से हैड मास्टर ज़रूर गुस्से में होगा। जब मैं दफ्तर में पहुँचा तो वह जैसे आग बबूला हो उठा। वह मेरे साथ किसी रचनात्मक बहस की जगह डिक्टेटर शाही ढंग से पेश आ रहा था। आखिर मुझे कहना ही पड़ा -
''मैंने सच लिखा है और मैं अपने हाथ से सच का क़त्ल नहीं करूँगा।'' यह कह कर मैं अपनी क्लास में चला गया। कुछ मिनट बाद ही मेरे पास अंग्रेजी में लिखा हुआ आर्डर भेजा गया, जिसमें आज्ञा पालन न करने के कारण स्कूल से मेरी बरखास्तगी के आर्डर थे। मैंने आर्डर बुक पर हस्ताक्षर करने से इन्कार कर दिया। सतपाल गुप्ता और हरचरन दास कपला ने मुझे समझाने की कोशिश की, पर मैंने जो कुछ किया था, सोच-समझ कर ही किया था। मैंने उनका माफी मांगने का सुझाव रद्द कर दिया। विद्यार्थियों को पता नहीं यह बात कैसे पता चल गई थी। सभी छात्र कक्षाएं छोड़ कर बाहर आ गए थे। सिर्फ़ नौवीं-दसवीं की लड़कियाँ ही क्लास में रह गई थीं। बात स्कूल बन्द होने से पहले ही पूरी मंडी में फैल गई थी। पंडित गोवर्द्धन दास जी को जब यह बात पता चली तो उन्होंने हैड मास्टर को यह फैसला वापस लेने के लिए कहा। प्रबंधक कमेटी के अन्य सदस्यों ने भी हैड मास्टर के इस एक्शन को जल्दी में उठाया गया कदम कहा। पत्र पर लिखे गए मेरे वाक्य की भी छानबीन हुई। पता नहीं रातों रात क्या हुआ, हैड मास्टर खुद मेरे घर आया और उसने पहले की तरह मुझे स्कूल आने के लिए कहा। और भी बहुत सा उपदेश झाड़ा। शहर के कुछ प्रतिष्ठित लोगों की यह बात हैड मास्टर को जच गई थी -
''गोयल साहब हमें क्या कहेंगे। तरसेम ने तो बच्चों जैसी कर दी, पर आप तो सयाने हो। जब तक गोयल साहब नहीं आते, कोई ऐसी वैसी बात नहीं होनी चाहिए। लड़का पढ़ाने में एक नंबर है, स्वभाव का भी तेज है।'' मुझे बाद में पता चला कि असल में यह बात साधू राम ने कही थी जिसका आर्य स्कूल की इमारत बनाने के लिए सारी ज़मीन दान देने के कारण न केवल हैड मास्टर पर बल्कि शहर पर भी काफी प्रभाव था। लाला साधू राम हालांकि हमारे खानदान में से नहीं था, पर हमारे पुश्तैनी गाँव शहिणे का होने के कारण हमारा पक्ष भी खूब लेता था। पंडित श्री राम और उनके पढ़े लिखे पुत्र ब्रज मोहन शर्मा ने भी हैड मास्टर के इस एक्शन पर उसे काफी झाड़ा-फटकारा था। ब्रज मोहन शायद उन दिनों में स्कूल का मैनेजर था। वह मुझसे आठ साल बड़ा था और मेरे भाई से दस साल छोटा था। इसलिए वह मेरे साथ भी और मेरे भाई के साथ भी दोस्तों जैसी बातें कर लेता। सिगरेट का कश लेते हुए अगले दिन ब्रज मोहन कह रहा था-
''परवाह न करना। सारी मंडी तेरे साथ है। सब लड़के तेरे साथ हैं। पढ़ाने में कोई फर्क न करना।'' उसके बाद उसने हैड मास्टर को भी लगे हाथ दो तीन गालियाँ निकाल दी थीं।
जनवरी और फरवरी के दो महीने मेरा शिकंजा पूरी तरह कसा गया। मेरी बहन तारा ने प्रभाकर करने के बाद मैट्रिक और एफ.ए. की अंग्रेजी तो कर ली थी, पर पूरी मैट्रिक करने के लिए गणित-हाऊस होल्ड, इतिहास-भूगोल, पंजाबी और एक अन्य चुनिंदा विषय करने की आवश्यकता थी। तभी वह एस.डी. कन्या पाठशाला में अध्यापिका लग सकती थी। इसलिए रात में ट्यूशनें पढ़ाने के बाद आधा-पौंना घंटा बहन की सेवा में भी लगाना पड़ता। इससे भी एक और बड़ी सेवा इन्हीं दिनों मेरे हिस्से में आई। भाई साहब की छोटी साली। जिसने प्रभाकर करने के पश्चात् एफ.ए. अंग्रेजी की परीक्षा देनी थी। उस पर एक घंटा लगाने की जिम्मेदारी मेरे पर आ पड़ी थी। अप्रैल 1961 के पहले सप्ताह तक रात में एक घंटे के अलावा छुट्टी वाले दिन करीब दो घंटे उसको अर्पित करने पड़ते थे।
बी.ए. अंग्रेजी जिसमें मैं अप्रैल में फेल हो गया था, सितम्बर में लाख मुश्किलों के बावजूद मैंने पास कर ली थी। इसलिए मैं चाहता था कि अप्रैल 1961 में एक चुनिंदा और एक वैकल्पिक विषय लेकर बी.ए. भी पूरी कर लूँ। पर न तो पढ़ने का समय था, न ही पैसों का पूरा बंदोबस्त। जिन दिनों में दाख़िले होने थे, उन दिनों में 60रुपये दाख़िला भेजने लायक भी पैसे जेब में नहीं थे। अगर मैं अपने मित्र जगदीश से बात न करता और उससे एक बार कहने पर ही यह रकम मुझे न मिलती तो शायद अप्रैल 1961 में बी.ए. पास कर ही नही सकता था। चुनिंदा विषय के रूप में इतिहास और वैकल्पिक विषय के रूप में हिंदी भर कर फॉर्म भेज दिया। इतिहास की किताबें फरवरी के मध्य में खरीदीं, पर पढ़ने का समय रात में दस बजे के बाद ही मिलता। मार्च में ट्यूशनों का जोर कम हो गया। बहन तारा भी मार्च के मध्य के बाद अपने ससुराल चली गई। अब पढ़ाने के लिए सिर्फ़ भाई की साली ही रह गई थी। उसे पढ़ाना अब मुझे अधिक कठिन नहीं लग रहा था। मार्च में स्कूलों की परीक्षाएं शुरू हो जाने और अप्रैल के पहले सप्ताह में ट्यूशनों से मुक्त हो जाने के कारण मैं अपना अधिकांश समय अपनी बी.ए. के चुनिंदा विषय की तैयारी में लगाने लग पड़ा। हिंदी वैकल्पिक विषय की न कोई किताब खरीदी और न ही गाईड। इसके बावजूद मैंने ना सिर्फ़ सेकेंड डिवीज़न लेकर चुनिंदा विषय पास किया, बल्कि हिंदी के वैकल्पिक पेपर में भी सेकेंड डिवीज़न आ गई। भाई के बी.एड करने तक तनख्वाह और ट्यूशनों के सहारे घर का सारा खर्च भी निकाला। भाई को भी साढ़े तीन सौ रुपये मोगे भेजे। उसका कद ऊँचा करने के लिए कुछ साहित्यिक सामग्री भी भेजी जिसका जिक्र फिर कभी करना ही उपयुक्त रहेगा। भाई के सिर पर कोई कर्ज़ भी नहीं चढ़ने दिया था। लेकिन ज़िन्दगी में इतना काम न मैंने पहले कभी किया था और न कभी बाद में।
रविवार को होने वाली आर्य समाजी हवन से लेकर भाटिया साहब की तानाशाही तक, सब इसलिए बर्दाश्त की क्योंक यह मेरे परिवार की ज़रूरत थी। भाई का आदेश था। माँ की अन्दर घुस कर दी गई नसीहत थी।
(जारी…)
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