समकालीन पंजाबी साहित्य की उत्कृष्ट कृतियों की तलाश

‘अनुवाद घर’ को समकालीन पंजाबी साहित्य की उत्कृष्ट कृतियों की तलाश है। कथा-कहानी, उपन्यास, आत्मकथा, शब्दचित्र आदि से जुड़ी कृतियों का हिंदी अनुवाद हम ‘अनुवाद घर’ पर धारावाहिक प्रकाशित करना चाहते हैं। इच्छुक लेखक, प्रकाशक ‘टर्म्स एंड कंडीशन्स’ जानने के लिए हमें मेल करें। हमारा मेल आई डी है- anuvadghar@gmail.com
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Sunday, July 29, 2012

आत्मकथा





एक नेत्रहीन लेखक की आत्मकथा
धृतराष्ट्र
डॉ. एस. तरसेम
हिन्दी अनुवाद : सुभाष नीरव
चैप्टर-29

कालेज मेरा पहला दिन

वैसे तो लेक्चरर के तौर पर कालेज में मेरा पहला दिन 31 दिसम्बर 1981 से शुरू हो गया था परन्तु असली पहला दिन मैं उसको समझता हूँ, जब मैं पहली बार पढ़ाने के लिए कालेज गया। इससे पहले कुछ दिन मुझे क्लास में जाने की आवश्यकता नहीं पड़ी थी, क्योंकि दिसम्बर-जनवरी टैस्ट चल रहे थे और ये टैस्ट ही कालेज में विद्यार्थियों के यूनिवर्सिटी परीक्षा में बैठने के लिए आधार थे, अब भी हैं। मेरी इस परीक्षा में ड्यूटी नहीं लगी थी। कारण स्पष्ट है कि मैं एक निरीक्षक के तौर पर परीक्षा में काम कर ही नहीं सकता था। इसलिए मैं समय पर कालेज तो आता। दफ्तर के बरामदे के सामने बैडमिंटन कोर्ट के दोनों ओर सीमेंट के बैंच बने हुए थे, उन्हीं बैंचों में से किसी एक बैंच पर बैठ जाता। कालेज में लेक्चरर की हाज़िरी नहीं लगा करती थी। डा. हरमंदर सिंह दिओल उन दिनों में कालेज के प्रिंसीपल थे। मेरा तीसरा कहानी संग्रह ''पाटिया दुध'' अभी छप कर आया ही थाजब उन्होंने एक दिन मुझे अपने दफ्तर में बुलाया, मैंने अपना कहानी संग्रह ''पाटिया दुध'' उन्हें भेंट कर दिया। किताब लेकर वे बहुत प्रसन्न हुए। मुझे बाद में पता चला कि दिओल साहब खुद भी पढ़ने और लिखने का शौक रखते हैं। उनकी मानववादी पहुँच का उल्लेख करना यहाँ बहुत ज़रूरी है।
      प्रो. सरबजीत सिंह गिल पंजाबी विभाग के हैड थे। प्रो. स.स. पदम इस विभाग में उससे अगले स्थान पर थे। पदम साहिब बरनाला के होने के कारण मेरे पहले ही परिचित थे। वैसे भी, वह स्वयं साहित्यकार होने के कारण मेरे साथ दिल से मोह रखते थे। जब कर्मचंद ऋषि और मैं धौला में एक ही घर में रहा करते थे, उस समय अक्सर ऋषि से पदम साहिब का चिट्ठी-पत्र चलता रहता था। जब चिट्ठी-पत्र की वे यादें मैंने पदम साहिब को ताज़ा करवाईं तो वह मुझसे और अधिक मोह करने लग पड़े।
      कालेज के कमरा नंबर 9 में कई वरिष्ठ लेक्चरर और पदम साहिब खाली पीरियडों में आकर बैठा करते थे। मुझे दो-चार दिन में ही पता चल गया था कि पदम साहिब यद्यपि कालेज में वरिष्ठता के लिहाज़ से पाँचवे-छठे नंबर पर हैं, पर प्रभाव के तौर पर वह कालेज में प्रमुख हैं। उनके द्वारा मुझे खाली समय में 9 नंबर कमरे में बैठने के लिए कहना मेरे लिए बहुत बड़ी बात थी। एक एडहॉक नेत्रहीन लेक्चरर को 75 लेक्चररों में इतने वरिष्ठ स्टाफ में बैठने का अवसर मिलना कोई छोटी बात नहीं थी।
      घरेलू परीक्षा के तुरन्त बाद कक्षाएँ प्रारंभ हो गई थीं। मुझे अधिकांश पीरियड बी.ए. भाग दो तक ही दिए गए और वे भी अनिवार्य पंजाबी के, पंजाबी लिटरेचर के नहीं। दूसरे पीरियड से मेरा टाइम टेबल शुरू होता था। यह पीरियड प्रैप के 'पंजाबी अनिवार्य' के विषय का था। यह कक्षा दफ्तर से कुछ दूर एक दरख्त के नीचे लगा करती थी। कमरों के अभाव के कारण पंजाब की बहुत की कक्षाएँ उन दिनों कमरों से बाहर ही लगा करती थीं। इस कक्षा में मेरी एक भान्जी नीरजा भी पढ़ती थी। उसकी सहेली पाली अक्सर नीरजा के संग घर आ जाती थी। मैंने मालेरकोटला आकर अपना ठिकाना बहन के घर को ही बनाया था। उनके कारण ही मैंने मालेरकोटला कालेज में नियुक्ति करवाई थी। जीजा जी का निधन हो जाने के कारण घर में मेरी बहन चन्द्र कांता के अलावा प्रैप अर्थात ग्यारहवीं में पढ़ने वाली मेरी यह भान्जी नीरजा और लड़कियों के जैन कालेज में पढ़ती मेरी बड़ी भान्जी सुनंदा थी। बहन का बड़ा बेटा और सबसे छोटा बेटा मुम्बई में कारोबार करते थे और बीच वाला बेटा उस समय एम.बी.बी.एस. करके कहीं बाहर नौकरी करता था। इसलिए मेरा उनके यहाँ रहना उनको एक सहारा महसूस होता था और मुझे अपनी बहन के पास रहना बिलकुल पराया नहीं लगता था।
      पाली और नीरजा को मैंने पहले ही बता दिया था कि मुझे वही टाइम टेबल मिला है जो पहले किरपाल सिंह के पास था। इसलिए जब पंजाबी विभाग के हैड प्रैप को यह बताने के लिए गए कि प्रो. किरपाल सिंह की जगह अब प्रो. एस. तरसेम उन्हें पढ़ाया करेंगे, तो उन्होंने मेरी नेत्रहीनता के विषय में भी विद्यार्थियों को बता दिया। यह सुनकर विद्यार्थियों में खुसुर-पुसुर शुरू हो गई और एक लड़का जिसका नाम शायद विनोद धीर था, कुछ अधिक ही उच्छृंखल होकर बोला कि ब्लाइंड आदमी हमें क्या पढ़ा सकता है। पाली जिसका पूरा नाम हरपाल कौर था, खड़ी होकर कहने लगी कि हमें पढ़कर देख लेना चाहिए, अगर अच्छा पढ़ाएँगे तो इसमें क्या हर्ज़ है कि यह ब्लाइंड हैं। दूसरे शब्दों में पाली ने बड़ी जुगत से मेरा पक्ष लिया था। दरख्त के नीचे से विद्यार्थी उठकर हैड के पीछे-पीछे बैडमिंटन कोर्ट के पक्के फर्श पर आ बैठे। मैंने हैड की आमद पर विभाग का हैड होने के नाते उनका आदर किया। वहाँ आकर भी हैड ने मेरी शैक्षिक योग्यता और मेरे छपे तीन कहानी संग्रहों और सैकड़ों कविताओं/ग़ज़लों के संबंध में विद्यार्थियों को बताया और फिर स्वयं चले गए।
      मेरे लिए यह परीक्षा की घड़ी थी। मैं समझता था कि इसमें पास होना मेरे लिए बेहद आवश्यक है। पहले कभी भी मैं ऐसे अवसरों पर डोला नहीं था। अब भी मैंने लेक्चर शुरू करने से पहले विद्यार्थियों को अपना संक्षिप्त सा परिचय देने के पश्चात पूछा कि किस पाठ्य-पुस्तक में से, कहाँ से पढ़ना है। वही विद्यार्थी धीर जो पहले हैड द्वारा मेरे बारे में बताये जाने पर मुझसे पढ़ने से इन्कार कर रहा था, उसी ने कहा कि कविता पढ़नी है - ताजमहल। यह मेरी खुशकिस्मती ही समझो कि मैंने ज्ञानी और पंजाबी की एम.ए. करते समय प्रो. मोहन सिंह की चुनिंदा कविताओं की पुस्तकें पढ़ रखी थीं। सबब से यह पूरी की पूरी कविता मुझे ज़बानी याद थी। इसलिए इस कविता को पढ़ाने के लिए मेरी नेत्रहीनता कोई रुकावट नहीं बन सकती थी। मैंने पहले प्रो. मोहन सिंह के जीवन के बारे में बहुत कुछ बताया और फिर क्रमवार प्रो.मोहन सिंह के काव्य-संग्रहों की सूची ज़बानी बता दी। यह भी बताया कि मोहन सिंह एक प्रगतिशील कवि हैं और प्रगतिशील लेखक किसे कहा जाता है, इस विषय में भी ग्यारहवीं के पेपर को सामने रखकर संक्षेप में जानकारी दी। फिर मुगल बादशाह शाहजहाँ के ताज महल बनाने की पृष्ठभूमि भी बहुत ही सरल और संक्षिप्त रूप में बताई। साथ यह भी बता दिया कि 'ताज महल' को लेकर कविताएँ और भी कवियों ने लिखी हैं, क्योंकि मैं जानता था कि इस कक्षा में कुछ विद्यार्थी मुसलमान ज़रूर होंगे, जिन्हें उर्दू साहित्य के बारे में जानकारी अवश्य होगी। इसलिए साहिर लुधियानवी की कविता 'ताज महल' के विषय में भी बताया और यह भी बताया कि प्रो. मोहन सिंह और साहिर की इस कविता में एक साझी बात यह है कि पैसे और ताकत के ज़ोर पर शाहजहाँ ने उस समय गरीब मिस्त्रियों और मज़दूरों पर जुल्म ढाह कर अपनी पत्नी मुमताज़ महल की यह यादगार बनवाई थी। चूंकि शाहजहां ने अपनी प्रजा से मुहब्बत की अपेक्षा अपनी पत्नी से मुहब्बत को अधिक आंका, इसलिए ये दोनों कवि इस अद्भुत और सुन्दर इमारत को सुन्दर नहीं मानते और यह कहकर मैंने पहले साहिर की कविता 'ताज महल' का यह शेर सुनाया :
     
इक शहनशाह ने दौलत का सहारा लेकर
      हम ग़रीबों की मुहब्बत का उड़ाया है मज़ाक

      इस शेर के अर्थ भी बताये और फिर पाठ्य-पुस्तक में शामिल कविता का मूल पाठ शुरू कर दिया। 
      अभी मैं पहले बंद के अर्थ और उसकी व्याख्या करने ही लगा था कि घंटी बज गई। जितना समय मैं बोलता रहा, बच्चे गेहूँ के घुन की भाँति निश्चल-से बैठे रहे। मैं महसूस करता था कि मेरा जादू चल गया है। विद्यार्थियों की उस दिन मैंने हाज़िरी नहीं लगाई थी और उनसे कहा था कि वे इस पीरियड के लिए यहीं पर आएँ।
      विभाग का हैड मेरी बांह पकड़कर मुझे दफ्तर में ले गया। बरामदे में अध्यापक और विद्यार्थी आ जा रहे होंगे, यह अहसास मुझे उनके पदचापों से लगा था। हैड ने प्रिंसीपल दिओल के सम्मुख मेरी बहुत प्रशंसा की। शायद मेरे लेक्चर का कुछ हिस्सा प्रिंसीपल साहिब ने भी सुना हो, क्योंकि मेरे कक्षा-अनुशासन की प्रशंसा वह भी कर रहे थे।
      टाइम टेबल के अनुसार मैंने शेष तीन दिन और पीरियड लिए। बाकी कक्षाओं को भी उसी तरह लेक्चर दिया जैसे प्रैप को दिया था।
      स्टाफ रूम में हाज़िरी लगाने के बाद मैं 9 नंबर कमरे में चला गया था और वहाँ से मुझे किसी विद्यार्थी के संग पदम साहिब के घर भेज दिया गया था।
      मेरे जाने से पहले ही नीरजा और पाली घर पहुँच चुकी थीं। दोनों बहुत खुश थीं। उन्होंने मुझे बताया कि कालेज में बहुत सारे अध्यापकों, सभी क्लर्कों, लड़कियों के कॉमन रूम और बरामदे में सैकड़ों विद्यार्थियों ने मेरा लेक्चर सुना था। मुझे ऐसा महसूस हुआ कि जैसे मैं तमाशा दिखाने वाला कोई मदारी या सरकस का कोई अद्भुत जीव होऊँ, जिसकी कलाबाज़ियों को देखने के लिए कालेज के विद्यार्थी और स्टाफ दूर-करीब खड़े होकर तमाशा देखने आए थे। मैं तमाशा बढ़िया दिखा रहा था और इस तमाशे की सफलता ने मुझे इस कालेज के सफल अध्यापक होने का सर्टिफिकेट दे दिया था।
(जारी)

Friday, June 22, 2012

आत्मकथा




एक नेत्रहीन लेखक की आत्मकथा
धृतराष्ट्र
डॉ. एस. तरसेम
हिन्दी अनुवाद : सुभाष नीरव
चैप्टर-28

कालेज की ओर मुँह

1980 में अख़बारों में यह ख़बर छपी कि 1981 का वर्ष अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर विकलांग वर्ष के रूप में मनाया जाएगा। इस वर्ष को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर दी गई यह मान्यता मेरे लिए सुनहरी अवसर सिद्ध हुई। भारत सरकार ने भी और पंजाब सरकार ने भी विकलांगों को कुछ सुविधाएँ प्रदान करने का सिलसिला शुरू कर दिया। अब मुझे सरकारी नौकरी में से नेत्रहीन होने के कारण निकाले जाने का खतरा किसी हद तक कम हो गया। आहिस्ता-आहिस्ता यह खतरा बिलकुल ही खत्म हो गया।
     वर्ष के आरंभ में ही मैंने पंजाब के मुख्य सचिव को एक प्रार्थना पत्र भेज दिया और विनती की कि इस अंतर्राष्ट्रीय विकलांग वर्ष को ध्यान में रखते हुए मुझे किसी कालेज में लेक्चरर नियुक्त किया जाए क्योंकि नेत्रहीन होने के बावजूद मैंने एम.ए. में फर्स्ट डिवीज़न प्राप्त की है और साथ ही पंजाबी यूनिवर्सिटी में दूसरा स्थान भी प्राप्त किया है। इस तरह का एक प्रार्थना पत्र मैंने तत्कालीन प्रधान मंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी को भी लिखकर भेजा। प्रार्थना पत्र लिखकर मैंने यूँ समझा मानो अपना कोई शौक पूरा किया हो। मुझे यह उम्मीद कतई नहीं थी कि मेरे द्वारा दिया गया प्रार्थना पत्र कोई रंग लाएगा।
     डी.पी.आई. पंजाब के दफ्तर से मई 1981 में एक पत्र आया। उसमें मुझे लेक्चरर नियुक्त किए जाने के बारे में लिखा गया था और साथ ही, हिदायत की गई थी कि मैं मैट्रिक से एम.ए. तक की शैक्षिक योग्यता के सारे प्रमाण पत्र और डिग्रियाँ मूल रूप में उस दफ्तर में भेजूँ। चिट्ठी पढ़ते ही मैंने समझ लिया था कि मेरा तीर चल गया है।
     एक पूरा बड़ा लिफाफा डिग्रियों और सर्टिफिकेटों से भर गया था। डी.पी.आई. को उनके पत्र का संदर्भ देते हुए विनती की थी कि नियुक्ति शीघ्र करने की कृपा की जाए, लेकिन डेढ़ महीने तक कोई जवाब नहीं आया था। आख़िर, मैं स्वयं ही डी.पी.आई. के दफ्तर गया। मेरे संग जाने वाला भी कोई नहीं था। उन दिनों अक्सर मैं सफ़र अकेला ही किया करता था। एक फ़ायदा सिर्फ़ यह था कि सवेरे सात-सवा सात बजे सीधी चण्डीगढ़ की बस मिल जाती थी। मुझे मेरा बड़ा बेटा क्रांति बस में चढ़ा आता था। बस प्राय: पीछे से भरी आती थी, अबोहर-चण्डीगढ़ बस। मुझे इस बस में सीट नहीं मिली थी। बरनाला से कुछ सवारियाँ और चढ़ गई थीं। उतरी उनसे कम थीं। संगरूर में बस कुछ समय खड़ी रही, पर वहाँ कुछ सवारियों के उतरने के बावजूद मुझे सीट नहीं मिली थी। मैं यत्न तो करता कि किसी तरह खाली होने वाली सीट का पता चले और मैं जल्दी से सीट को रोक लूँ। लेकिन मेरे सीट पर पहुँचने से पहले ही सीट हथिया ली जाती। तीन सीटों वाली सीट के दायीं ओर की सीट पर बैठी औरत कह रही थी, ''रे भाई, अपने भार खड़ा हो।'' हो सकता है कि मैं तपा से खड़े-खड़े आते थक गया होऊँ और मेरा शरीर दायीं ओर झुक गया हो। लेकिन उस औरत की तल्ख़ी मेरे बहुत अन्दर तक कड़वाहट भर गई थी। सोचता था कि इस औरत को क्या पता कि मुझे दिखाई नहीं देता और उसे यह भी क्या मालूम कि मैं 50-60 किलोमीटर से खड़ा ही आ रहा हूँ। दसेक मिनट रुक कर बस फिर चल पड़ी और मैं खड़ा का खड़ा था। संगरूर से चलकर भवानीगढ़ जाकर बस रुकी, एक दो सवारियाँ चढ़ीं और उतरी एक भी नहीं थी। पटियाला में काफ़ी सवारियाँ उतर गई थी, पर चढ़ने वाले धक्का मुक्की करके या खिड़की में से अपना सामान रखकर सीटों पर काबिज़ हो गए थे। मुझे चण्डीगढ़ तक खड़े होकर ही सफ़र करना पड़ा।
     उन दिनों मैं सफ़ेद छड़ी लेकर नहीं चला करता था। सफ़ेद छड़ी नेत्रहीन की पहचान है। छड़ी उठाने में मुझे कोई संकोच नहीं था, पर मेरी पत्नी या बच्चे या कोई विद्यार्थी मुझे स्कूल छोड़ आता और लौटते वक्त भी कोई न कोई अन्य विद्यार्थी मुझे घर पहुँचाने के लिए तैयार रहता, इसलिए मुझे छड़ी की ज़रूरत नहीं पड़ी थी। वैसे भी, तब तक मैंने नेत्रहीनों की सभाओं में जाना आरंभ नहीं किया था। न ही मुझे नेत्रहीनों की किसी संस्था की जानकारी थी। अंध विद्यालय, अमृतसर का नाम सुन रखा था। 'होम फॉर द ब्लाइंड' मालेरकोटला में दो-चार बार हो आया था, क्योंकि मालेरकोटला में मेरी बहन चंद्रकांता के ससुराल वाले थे और अक्सर मैं वहाँ आता-जाता ही रहता था।
     बस अड्डे पर उतरकर मैं बस के पास आने वाले रिक्शावालों में से एक को 17 सेक्टर के डी.पी.आई. दफ्तर चलने के लिए कहा। राह में मैंने उसे यह भी बता दिया कि मुझे बिलकुल दिखता नहीं है, इसलिए वह मुझे दफ्तर के करीब ही उतारे। लेकिन उसने दफ्तर से काफ़ी पहले ही उतार दिया। कोई सज्जन पुरुष मिल गया, वही मुझे दफ्तर की सीढ़ियाँ चढ़ा गया था। मन बहुत दुखी था। पूछते-पुछाते मैं संबंधित बाबू की मेज़ तक पहुँच गया। साथ वाली सीटों के बाबू उसे 'चड्ढ़ा साहिब' कहकर बुलाते थे। उसने बताया कि केस पहुँच चुका है, समय लगेगा। मेरे यह पूछने पर कि कितना समय लगेगा, वह गुस्सा हो उठा। मैंने जवाब में उसे बड़े ही विनम्र भाव से कहा कि वह मेरे संग ठीक ढंग से पेश आए। मुझे अपनी पत्नी के फूफा धर्म पाल गुप्ता जी याद आ गए। सोचता था कि अगर अब वह इस दफ्तर में होते तो मेरी नियुक्ति कब की हो जाती। लेकिन उनकी एलोकेशन हरियाणा में हो जाने के बाद वह चंडीगढ़ यू.टी. में डेपुटेशन के उपरांत सेवा-मुक्त हो चुके थे।
     अगस्त तक मेरे डी.पी.आई. दफ्तर के चार चक्कर लग चुके थे और फ़ाइल वहीं की वहीं पड़ी थी। रिश्वत देने को न मेरा दिल करता था और न मुझे रिश्वत देनी आती थी। मेरी समझ में आ चुका था कि यहाँ चाँदी के पहियों की ज़रूरत है। बाबू की शिकायत मैंने इसलिए नहीं की, क्योंकि फ़ाइल पर उसके दिए नोट से ही कुछ हो सकता था।
     मैं जब भी चंडीगढ़ आता और वापस जाता, हमेशा अकेला होता। वही अबोहर-चंडीगढ़ वाली बस पर चढ़ता और दिन छिपते को घर पहुँचता। मेरे करीब दस चक्करों में जाते समय मुझे शायद एक-आध बार ही सीट मिली थी, परन्तु लौटते वक्त अक्सर सीट मिल जाती, क्योंकि बस चंडीगढ़ से ही चलती थी और वहाँ सीट मिलने में अधिक मुश्किल नहीं आती थी।
..

     अगस्त 1981 में जब मैं एक दिन मालेरकोटला आया तो अचानक 'होम फॉर का ब्लाइंड' भी चला गया। हैडमास्टर आई.पी. शर्मा था। वह नेत्रहीन था। एक अन्य नेत्रहीन मास्टर महावीर चौधरी था। महावीर चौधरी को पंजाब स्तर पर एक संगठन की ज़रूरत थी, क्योंकि एन.एफ.बी. अर्थात नेशनल फेडरेशन ऑफ़ दा ब्लाइंड के महा सचिव जे.एल. कौल को जबरन कुछ अन्य नेत्रहीन नेताओं ने हटा दिया था और उसने ए.आई.सी.बी. अर्थात ऑल इंडिया कन्फेडरेशन ऑफ़ ब्लाइंड की स्थापना कर ली थी। अब उसको भारत के हर प्रान्त में कन्फेडरेशन अर्थात महासंघ की किसी संगठन ईकाई की ज़रूरत थी। जवाहर लाल कौल के जीजा जी एच. कुमार कौल एस.डी. कालेज, बरनाला के प्रिंसीपल थे। परिणामस्वरूप लगभग दो हफ्तों की भागदौड़ के बाद हमने 'पंजाब वैलफेयर एसोसिएशन फॉर दा ब्लाइंड' की स्थापना करके उसे ए.आई.सी.बी. से जोड़ दिया। इसमें पंजाब के नेत्रहीन और नेत्रवान दोनों किस्म के लोग सदस्य बन सकते थे, परन्तु शर्त यह थी कि इस संगठन में बहुमत नेत्रहीनों का ही रहे। प्रिंसीपल कौल को सर्वसम्मति से इसका अध्यक्ष और मुझे महा सचिव चुन लिया गया। फ़िलहाल इसका दफ्तर भी मेरा घर ही था अर्थात गली नंबर 8, तपा, ज़िला-संगरूर।
     पंजाब वेलफेयर एसोसिएशन फॉर दा ब्लाइंड जल्दी ही पी.डब्ल्यू.ए.बी. के नाम से सारे नेत्रहीन स्कूलों और संस्थाओं में प्रसिद्ध हो गई थी, क्योंकि इसके बारे में अख़बारों में ख़बरें और गतिविधियाँ एन.एफ.बी. की पंजाब शाखा से कहीं अधिक छपती थीं।
     मुझे पी.डब्ल्यू.ए.बी. बनाने से कुछ हौसला भी हुआ। नेत्रहीनों के पुनर्वास के लिए पंजाब सरकार को मैंने पत्र भेजे। 1981 का वर्ष अन्तर्राष्ट्रीय विकलांग वर्ष होने के कारण हमने पी.डब्ल्यू.ए.बी. की ओर से दिसम्बर माह में बरनाला में अखिल भारतीय नेत्रहीन कान्फ्रेंस रख दी।
..

     मेरे महा सचिव बनने के साथ-साथ इस ओहदे के कारण मेरा जो मनोबल बढ़ा था, उसके चलते मेरे केस से संबंधित क्लर्क को मैं कुछ रौब डालने की हैसियत में भी आ गया था। शायद वह मेरे ओहदे के कारण अथवा मेरी आवाज़ में पहले से अधिक कड़कपन आ जाने के कारण मेरे केस को सचिवालय तक भेजने के लिए मज़बूर हो गया था। सचिवालय में जो जूनियर या सीनियर सहायक मेरे केस को डील करता था, वह भुच्चो मंडी का था। इलाके की सांझ के कारण उसने मेरे केस में दिलचस्पी लेना शुरू कर दी थी। अचानक मास्टर बाबू सिंह जो उन दिनों में एम.एल.ए. थे और मेरे साथ कम्युनिस्ट पार्टी की सांझ के कारण बहुत निकटता भी रखते थे, मुझे सचिवालय में मिल गए। उन्होंने स्वयं आगे बढ़कर मेरी बांह पकड़ी और काम के विषय में पूछा। जब मैंने केस बताया तो वह मुझे शिक्षा सचिव के पास ले गए। मास्टर जी के कहने भर से काम को जैसे पंख लग गए हों। एक बाबू मोहन लाल की सहायता, दूसरी मास्टर बाबू सिंह की सिफ़ारिश और तीसरी मेरी पैरवी। काम बनते बनते बन गया। यद्यपि जिस रफ्तार से काम होना चाहिए था, उस रफ्तार से नहीं हुआ था पर मेरे कालेज लेक्चरर लगने के आदेश तैयार कर दिए गए और बीच में यह भी लिख दिया गया कि पंजाब पब्लिक सर्विस कमीशन से इसकी मंजूरी के उपरांत इसको रैगुलर कर दिया जाए।
     पी.पी.एस.सी. की मंजूरी की बात तो फिर कभी सही। आदेश मिलने और हाज़िर होने की कहानी भी काफ़ी दिलचस्प है। मैंने जिन बाबुओं और छोटे कर्मचारियों की ख़ातिर पुलिस से टक्कर लेने से लेकर जेलें तक काटीं, उनको ही अपनी राह में जगह-जगह विघ्न पैदा करते हुए देखा।
     23 दिसम्बर 1981 को उपस्थित होने के लिए मैं सरकारी कालेज मालेरकोटला में पहुँच गया। कालेज में जाड़े की छुट्टियाँ थीं। अमला शाखा में स्टैनो हाज़िर था। उसने आदेश पढ़े और कहा कि कालेज में तो कोई पोस्ट खाली ही नहीं है। लेकिन मुझे किसी ने पहले ही बता दिया था कि यहाँ एक पोस्ट खाली है जिसके कारण मुझे स्टैनो के संग मामूली सी दलीलबाज़ी करने का मौका मिल गया। पर स्टैनो ने पैरों पर पानी नहीं पड़ने दिया और कहा कि यदि एडहॉक वाली पोस्ट को खाली समझ लिया जाए तो ये आदेश भी एडहॉक पर नियुक्ति के ही हैं। यह कहते हुए बाबू जी ने आदेश मेरे हाथ में पकड़ाने की कोशिश की, पर मैंने आदेश को पुन: उसकी ओर सरकाते हुए कहा कि यह नियुक्ति पंजाब सरकार की है और यहाँ पहले काम कर रहा लेक्चरर प्रिंसीपल का नियुक्त किया हुआ है। यदि वह इस आदेश को मानने के लिए तैयार नहीं तो वह लिखकर दे दें।
     पता नहीं स्टैनो ने प्रिंसीपल से फ़ोन पर बात की या किसी दूसरे से, करीब आधे घंटे के बाद उसने जो काग़ज़ मुझे दिया, उसकी इबारत कुछ इस तरह थी :
     'कालेज में एडहॉक आधार पर इस पद पर पहले ही किरपाल सिंह काम कर रहा है।'
     बाद में पता चला कि जो एडहॉक लेक्चरर किरपाल सिंह यहाँ काम कर रहा था, वह स्टैनो के किराये वाले घर में किरायेदार था। स्टैनो द्वारा अपने किरायेदार का इतना पक्ष लेने पर मुझे बहुत बुरा नहीं लगा था।
     जब मैंने कालेज की ओर से दिया गया पत्र ले जाकर संयुक्त सचिव के सामने रखा, वह तैश में आ गए। अगर मैं असली बात बता देता तो शायद वह और अधिक गुस्से में जा जाते, परन्तु मैं आते ही कालेज में दुश्मनी नहीं पालना चाहता था। संयुक्त सचिव साहिब की निजी दिलचस्पी और मोहन लाल की हमदर्दी के कारण सचिवालय से तो काग़ज़ अगले दिन ही डी.पी.आई. दफ्तर पहुँच गया, पर चड्ढ़ा साहिब ने अपने बाबू मन का कुछ रौब तो दिखाना ही था, जिस कारण मुझे सरकारी स्पष्टीकरण को प्राप्त करने में कुछ दिन लग गए।
     जब 31 दिसम्बर को दोपहर से पहले मैं फिर हाज़िर होने के लिए कालेज में पहुँचा, वही स्टैनो उसी सीट पर बैठा मिला और बड़ी नम्रता और मीठे लहजे में सलाह देने लगा कि मैं 1 जनवरी को उपस्थित होऊँ ताकि बेचारे किरपाल सिंह की पूरे महीने की तनख्वाह बन जाए। लेकिन मेरे जिद्द करने पर स्टैनो को मेरी उपस्थिति रिपोर्ट लेनी ही पड़ी और इस प्रकार मैं स्कूल अध्यापक से कालेज अध्यापक बनते बनते आख़िर बन ही गया। पर मेहरबान बाबुओं द्वारा दिल पर लगाये ज़ख्म अभी भी कभी कभी रिसने लग पड़ते हैं और मोहन लाल जैसे मेहरबानों की लगाई मरहम आज भी सुकून देती है।
(जारी…)

Sunday, May 13, 2012

आत्मकथा











एक नेत्रहीन लेखक की आत्मकथा
धृतराष्ट्र
डॉ. एस. तरसेम
हिन्दी अनुवाद : सुभाष नीरव
चैप्टर-27(द्वितीय भाग)

एक नया मोड़

दूसरे भाग की तैयारी में मुझे ख़ास मुश्किल नहीं आई थी। गुरचरन सिंह ढिल्लों को मेरी ज़रूरत थी और मुझे ढिल्लों जैसे पढ़कर सुनाने वाले किसी सज्जन-मित्र की। संयोग से वह नतीजा निकलने से कुछ दिन बाद मेरे पास स्वयं ही आ गया। उसके प्रथम भाग के पेपर में 50 प्रतिशत नंबर भी शायद नहीं आए थे। उसने सारी उम्र साइंस पढ़ी थी। इसलिए बग़ैर किसी के नेतृत्व के उसके इतने नंबर आ जाना भी ठीक ही थे। पर हैरानी की बात यह थी कि इतिहास के पेपर में उसके नंबर मेरे से अधिक थे। यह सबकुछ कैसे हो गया ? मैं यह दोष किसके सिर पर धरूँ ? हमारी शिक्षा प्रणाली इतनी घटिया है कि इसमें खामियाँ ही खामियाँ हैं। सबसे बड़ा दोष यह है कि हमारे अध्यापकों में पढ़ाने से लेकर पर्यवेक्षक और परीक्षक के तौर पर सही फ़र्ज़ निभाने में लापरवाही बरतना। लोक बाणी के अनुसार 'अध्यापक नाप कर नंबर लगाते हैं।' इस प्रकार नंबर लगाते मैंने पहले स्कूल में भी देखे हैं और बाद में कालेज में भी। इसलिए गुरचरन सिंह के साहित्य के इतिहास वाले पेपर में मेरे से अधिक नंबर आना कोई हैरानी की बात नहीं थी और मेरे कम नंबर आना भी कोई ख़ास बात नहीं थी, जहाँ 'अंधी पीसे, कुत्ती चाटे' वहाँ कुछ भी संभव है।
     गुरचरन और मैंने दोनों ने फ़ैसला किया कि अक्तूबर से पढ़ाई शुरू की जाए। हर शनिवार को शाम के समय वह मेरे घर आ जाया करे, रात को आधी रात तक पढ़ा जाए। सवेरे जल्दी उठकर फिर कुछ समय पढ़ा जाए। मुँह-हाथ धोकर नाश्ते के बाद दोपहर तक एक शिफ्ट और लगे। वह पढ़े और मैं सुनूँ। वह लिखे और मैं लिखवाऊँ। हमारी यह योजना सौ फीसदी कामयाब रही।
     तय किए गए प्रोग्राम के अनुसार अक्तूबर से पढ़ने-लिखने का काम शुरू कर दिया। पहले पाठ्य-पुस्तक पढ़ते। मैं साथ ही साथ संबंधित पंक्तियों, पैरों और काव्य-पंक्तियों आदि पर निशानी लगवाता रहता। आवश्यकतानुसार पुस्तक के हाशिये पर संक्षेप में नोट्स भी लिए जाते। फिर उस पुस्तक के बारे में आलोचना की जितनी पुस्तकें हमारे पास होतीं, उन्हें पढ़ते। निशानी लगाने वाली विधि पाठ्य-पुस्तक जैसी ही होती। फिर पाठ्य-पुस्तक और आलोचना संबंधी पुस्तकें पढ़ने के उपरांत मैं प्रश्नों की सूची तैयार करवाता। सूची के क्रम के अनुसार किताबों पर लगाई गई निशानियों के आधार पर मैं बोलता रहता, गुरचरन लिख रहता। जो भी हवाला देना होता, उसकी निशानी पाठ्य-पुस्तक या आलोचना पुस्तक पर लगी होती, गुरचरन पुस्तक में देखकर वह नोट्स वाले पन्ने पर चेप देता। इस प्रकार सारी पुस्तकें क्रमवार पढ़ीं और उनके नोट्स ले लिए गए।
     गुरचरन सिंह ढिल्लों बड़ा मेहनती व्यक्ति था। साइंस वाले प्राय: मेहनती ही होते हैं। वह जुगती भी था। वह नोट्स की दो कॉपियाँ बनाता था। बढ़िया दस्ते लाकर हमने शीटें तैयार कर ली थीं। ऊपर लकीरदार काग़ज़ रखते, बीच में कार्बन और नीचे बिलकुल कोरा सफ़ेद काग़ज़। कार्बन कॉपी भी असल कॉपी जैसी ही तैयार होती और कई बार उससे भी बढ़िया उभरती। हमने इस काम में बिल्कुल भी कंजूसी नहीं की थी। बढ़िया काग़ज़, बढ़िया कार्बन, बढ़िया पेन-पेंसिल और शनिवार शाम से लेकर इतवार दोपहर तक लंगर-पानी का भी बढ़िया इंतज़ाम होता। बनियों के घर पैदा हुआ हूँ। फालतू खर्च भी नहीं करता, पर कंजूसी भी कभी नहीं की। गुरचरन जट्ट था। जट्ट के बारे में कहा जाता है कि जट्ट गन्ना नहीं देता, गुड़ की भेली दे देता है। पर मैंने गुरचरन से न गन्ना लिया था और न भेली। मेरे लिए तो इतना ही बहुत था कि बग़ैर किसी अहसान के मुझे एक पढ़ने वाला निष्ठावान दोस्त मिल गया था। फरवरी तक हमारा शनिवार-रविवार को पढ़ने-लिखने का यज्ञ चलता रहा और हमने चारों पेपरों के पूरे नोट्स तैयार कर लिए थे। लगभग छह सौ से लेकर आठ सौ तक पृष्ठ। अब गुरचरन को न मेरी ज़रूरत थी और न मुझे गुरचरन की। पर प्रश्न यह था कि अब वो नोट्स मुझे पढ़कर कौन सुनाये। इस काम में मेरी अब साइंस मास्टर ने नहीं, साइंस ने मदद की। उन दिनों टेप रिकार्डर आम चल पड़े थे। इनके आम प्रचलन को ही मैं साइंस की देन कहता हूँ।
     मैंने एक अच्छी कंपनी का मंहगा टेप-रिकार्डर खरीदा। तीस कैसिटें भी खरीदीं। उसी बेटी सलोचना को फिर तकलीफ़ दी। अधिकांश नोट्स उसी की आवाज़ में रिकार्ड हुए। कुछ नोट्स मास्टर विजय बावा ने कैसिटों में बन्द किए। उन दिनों विजय बावा तपा मंडी में मास्टर था और तपा की एक लड़की जो मेरी छात्रा भी थी और मुझे चाचा जी भी कहा करती थी, विजय बावा से ब्याही हुई थी। उस लड़की सत्या के कारण ही हमने अपने घर का पिछला हिस्सा विजय बावा को किराये पर दिया हुआ था। हम उन दोनों को अपने बच्चों की भाँति ही रखते थे और वे हमारे पास रहे भी हमारे बच्चों की भाँति ही।
     बाबू पुरुषोत्तम दास प्रोत्साहन मेरी लिए सदैव वरदान बना रहा। रमेशर दास पहले स्वयं भी आ जाता और सलोचना को भी भेज देता। इस बार मेरी तैयारी में कोई खास कमी नहीं थी। वही बठिंडा सेंटर, वही मेरा लिखारी बाबू पुरुषोत्तम दास, वही परीक्षा के महीने, सारा वातावरण पहले वाला था पर हौसला पहले से दुगना-चौगुना था और सारे पेपर हुए भी कमाल के थे। मुझे खुशी इस बात की थी कि एम.ए. न होने के कारण जिस हीनभावना का मैं पिछले सोलह-सत्रह साल से शिकार रहा था, उससे अब मैं मुक्त हो गया था।
     मुझे 65-70 प्रतिशत नंबर आने की उम्मीद थी, लेकिन आए 64 प्रतिशत। पेपर समाप्त होने के बाद मुझे डॉ. आत्म हमराही ने कहा था कि मैं परीक्षकों से सम्पर्क करूँ। उसने मुझे दो परीक्षकों के नाम भी बताये थे। एक चण्डीगढ़ में था और दूसरा दिल्ली में। अच्छे नंबरों के लालच ने मुझे उल्टी राह पर चला दिया था। मैं चण्डीगढ़ भी गया और दिल्ली भी। लेकिन मेरे पहुँचने से पहले ही बाजी खत्म हो चुकी थी।
     डॉ. आत्म हमराही मेरा बी.एड. का सहपाठी थी। उसने तो मेरे संग सहानुभूति के कारण ही मुझे अपनी ओर से सीधे राह पर डाला था, पर शुक्र है कि वह राह मुझे रास नहीं आया था।
     एक बात मुझे बाद में पता चली कि उन्हीं दिनों लोग इम्तिहानों में तो नकल मारते ही हैं, बाद में पेपरों का भी पीछा करते हैं। पीछा करने की इस प्रवृत्ति पर 'पाँचवा पर्चा' शीर्षक से एक लेख भी एक अखबार में छपा था। उस समय इस बीमारी को शुरू हुए थोड़ा ही समय हुआ होगा। हमारे जैसे पिछड़े इलाके में रहने वाले लोगों तक यह 'प्रगतिशील' विधि नहीं पहुँची थी। यूनिवर्सिटियों के विद्यार्थियों में यह रोग फैल चुका था। यूनिवर्सिटियों के अध्यापक भी इसका शिकार थे। वे अपने विद्यार्थियों और अपने बच्चों को अधिक से अधिक नंबर दिलवाने और यहाँ तक कि उनकी जेब पर 'गोल्ड मैडल' सजवाने के लिए हर हथकंडे का प्रयोग करते थे। विद्यार्थी भी इस सहायता के बदले अध्यापकों का यथायोग्य मान करते थे। पर मैं इस रोग का शिकार होते-होते बच गया था।

     जिस दिन एम.ए. भाग-द्वितीय का नतीजा निकला, उस दिन मैं अपने मामा की पोती के विवाह में शामिल होने के लिए अपने ननिहाल के गाँव मौड़ां गया हुआ था। मौड़ां तपा मंडी से सिर्फ़ आठ किलोमीटर की दूरी पर है। अभी बारात को चाय पिलाई ही थी कि मेरे भतीजे शिवजी राम जो मामा जी के बड़े बेटे चिरंजी लाल का बेटा है और मेरे साथ उसके संबंध मित्रों जैसे ही हैं, उसको किसी ने अख़बार लाकर दिया। अख़बार था- इंडियन एक्सप्रैस। शिवजी राम को मेरे द्वारा इम्तिहान दिए जाने की जानकारी थी। यद्यपि वह मेरा भतीजा है पर बुलाता वह मुझे गोयल साहब कहकर ही है और उस दिन भी बड़ी उत्सुकता से वह मुझसे मेरा रोल नंबर पूछने लगा। मैं भी समझ गया कि रिजल्ट आ गया होगा। रोल नंबर बताये जाने के एक मिनट बाद ही उसने मुझसे पार्टी मांग ली। रोल नंबर के साथ सबके नंबर भी दिए हुए थे। प्रथम आने वाले के नंबर 506 थे और मेरे 480 । फर्स्ट डिवीज़न बन गई थी और अख़बार के अनुसार यूनिवर्सिटी में दूसरा स्थान भी प्राप्त हो गया था, पर मेरी संतुष्टि नहीं हुई थी। इसके बावजूद मैं बेहद खुश था। बग़ैर पाँचवे पर्चे के यूनिवर्सिटी में दूसरे स्थान पर पहुँच जाना, मेरे लिए यह कोई कम प्राप्ति नहीं थी।
     विवाह में शगुन तो मैंने दे ही दिया था। अब मेरा विवाह में बिलकुल भी जी नही लग रहा था। मन करता था कि कब घर पहुँचूँ और अपनी पत्नी सुदर्शना देवी को यह खुशखबरी सुनाऊँ। मेरी इस प्राप्ति में उसका योगदान कोई कम नहीं था।
     मैंने मामा जी के पुत्र मदन लाल से जिसकी बेटी का विवाह था, जाने की आज्ञा मांगी और किसी ज़रूरी काम का बहाना बनाकर अपने ड्राइवर से कहकर मैं बीसेक मिनट में ही तपा पहुँच गया। आठ नंबर गली के इस घर में हमारे लिए पहली बार यह सबसे बड़ी खुशी थी। बाबू पुरुषोत्तम, रमेशर दास और उसकी बेटियाँ, ज्ञानी रघबीर सिंह, जिन जिन को भी पता चला, वे मेरे घर इस तरह आ रहे थे मानो किसी शादी में शामिल होने के लिए आ रहे हों। सचमुच यह शादी का अवसर ही तो था।

     बाबू पुरुषोत्तम दास इस खुशी का प्रचार करने के लिए अधीर था। वह मुझसे तीन तस्वीरें ले गया और बरनाला के एक पत्रकार तीर्थ राम सिधवानी को वो तस्वीरें उसने जा थमाईं। जगबाणी, पंजाब केसरी और अन्य कई अख़बारों में मेरी तस्वीर छप गई- 'पंजाबी यूनिवर्सिटी का एक नेत्रहीन विद्यार्थी एम.ए. पंजाबी में अप्रैल 1980 की परीक्षा में दूसरे स्थान पर रहा।' संग मेरी फोटो भी थी और नाम भी। तपा और बरनाला में ही नहीं, सारे पंजाब में ही पता लग गया था। हरियाणा, हिमाचल और दिल्ली तक ख़बर पहुँच गई। बतौर लेखक मेरा थोड़ा-बहुत नाम होने के कारण बधाई की चिट्ठियाँ आने लग पड़ीं। मेरे स्कूल के अध्यापक दंग थे, उनमें से हरकीरत सिंह ने तो कह ही दिया, ''गोयल साहिब, यह तो आपने बुक्कल में ही भेली तोड़ ली।'' मैं खुश भी था और डरता भी था। सरकारी काग़ज़ों में अभी मैं नेत्रहीन कर्मचारी के तौर पर स्वीकार नहीं हुआ था। यह ख़बर तो मेरे नेत्रहीन होने का पक्का सुबूत थी। उन दिनों हमारे यहाँ एक महिला डी.पी.ई. हुआ करती थी - सुरिंदर कौर। बड़ी भोली और सज्जन-सी स्त्री थी वह।
     ''वीर जी, आप प्रोफेसर लगकर कब जा रहे हो फिर ?'' सुरिंदर कौर मानो भोलेपन से ही पूछ रही थी। क्योंकि एम.ए. करने से या यूनिवर्सिटी में पहले अथवा दूसरे स्थान पर आने से कोई प्रोफेसर तो नहीं बन जाता। लेकिन उसके मीठे वचनों ने मुझे धुर अन्दर तक सरशार कर दिया। मुझे लगा कि मैं अब प्रोफेसर ज़रूर बनूँगा। भोलीभाली महिला सुरिंदर कौर के शब्द मुझे बड़े अर्थपूर्ण लगे। इन शब्दों को अमलीजामा पहनाने के लिए उस दिन से मैं अन्दर ही अन्दर योजनाएँ बनाने लग पड़ा था। पर ज्ञानी हमीर सिंह मेरी तस्वीर छपवाने के हक में नहीं था। बात यह नहीं थी कि वह राणा ग्रुप में था। असल में वह मेरा हमदर्द भी था। उसके दिमाग में एक धुकधुकी थी कि कहीं यह ख़बर मेरी नौकरी के राह में रोड़ा ही न बन जाए।

     जो विद्यार्थी मेरे से अधिक नंबर लेकर प्रथम स्थान पर आया था, उसके नाम और पते के बारे में एक साल बाद मुझे पता चला था। छह साल बाद तो उसके विषय में बहुत कुछ पता चल गया था। उस समय तक मैं सरकारी कालेज, मालेरकोटला में स्थायी तौर पर लेक्चरर लग गया था। वह मेरे कालेज में एडहॉक पर लेक्चरर लगने के लिए इंटरव्यू दे आया था। मेरे कालेज में आ जाने से यूनिवर्सिटी शिक्षा की हर किस्म की पोल-पट्टियाँ मेरे सामने खुलनी आरंभ हो गई थीं। पंजाब पब्लिक सर्विस कमीशन की पी.सी.एस. की परीक्षाओं से लेकर डॉक्टरों, लेक्चरारों और इंजीनियरों की नियुक्तियों के संबंध में यहाँ बताने की आवश्यकता नहीं, रवि सिद्धू कांड ने ही सबकुछ जग-जाहिर कर दिया है। इससे पहले भी बहुत या कम धूल कमीशन में उड़ती रही होगी। बहुत-सी यूनिवर्सिटियों में भी यह धूल उड़ रही है। ईश्वर ही रक्षक है हमारी ज़मीरों का। मुझे एम.ए. में अपनी मेहनत से हासिल पोज़ीशन पर गर्व है। यह मेरे श्रम और मेरी योग्यता की देन थी। मुझे मेरी इस छोटी-सी प्राप्ति पर गर्व है और यह प्राप्ति ही मेरे उजले भविष्य की ज़ामन बनी।
     कुछ लोग शायद मेरे 480 नंबरों पर मेरे द्वारा गर्व किए जाने को मेरी नादानी ही न समझ बैठें। उन्हें 2003 के बाद एम.ए. में थोक में नंबर लाने वाले विद्यार्थियों की प्राप्ति शायद मेरे से कहीं बड़ी लगे, पर मैं समझता हूँ कि अब नंबर दिए नहीं जाते, नंबरों की तो अब लूट मची हुई है। 20 प्रतिशत नंबर इंटरनल असिसटेंट के हैं जो कालेज या यूनिवर्सिटी के अध्यापकों द्वारा स्वयं दिए जाने होते हैं। ऑब्जेक्टिव टाइप प्रश्नों के उत्तर बाहर से की गई समाज सेवा के माध्यम से बहुत सरलता से हल हो जाते हैं। इसलिए अब तो एम.ए. में 70-75 प्रतिशत नंबर ही अक्सर आ रहे हैं। सो पाठको ! किसी साधू के चेले की झोली में आटा देखकर ही उसे बड़ा चेला मानने की भूल न करो। उसकी साधूगिरी और तपस्या की परीक्षा लेकर देखो। इससे अधिक मैं सफाई के तौर पर कुछ नहीं कहना चाहता।
(जारी…)

Saturday, March 31, 2012

आत्मकथा




एक नेत्रहीन लेखक की आत्मकथा

धृतराष्ट्र
डॉ. एस. तरसेम
हिन्दी अनुवाद : सुभाष नीरव
चैप्टर-27(प्रथम भाग)


एक नया मोड़
मैं जेल में से मानो कोई नई शक्ति लेकर लौटा था। मैं स्वयं को भरा-भरा समझता था। शायद इसका कारण यह भी था कि जेल में सब अध्यापक साथियों ने धड़ेबंदी से ऊपर उठकर मुझे मान-सम्मान दिया था। मेरे पास ज्ञान पता नहीं कम था या अधिक, परन्तु जेल में मेरे ज्ञान और भाषणों के कारण मेरा जो प्रभाव बना था, वह मेरी मानसिक ऊर्जा की नींव थी। यद्यपि हमें जेल पीरियड की तनख्वाह नहीं मिली थी और आर्थिक तौर पर मैं कुछ कर्ज़ाई भी हो गया था, पर इसके बावजूद मेरे अन्दर एक अजीब-सी उमंग और उत्साह था। मैं पहले से भी अधिक मस्ती में रहता। सरकारी जबर और स्थानीय गुंडागर्दी के विरुद्ध लड़ने के लिए मैं अपने आप को पहले से अधिक तगड़ा महसूस करने लग पड़ा था। मेरी काफी समय से खत्म हुई आशा को भी बौर लगता महसूस हो रहा था। लगता था मानो जिस इच्छा को मैं कभी का दफ़न कर चुका था, उस इच्छा की पूर्ति साकार रूप में मेरे सामने पड़ी हो। जेल में अक्सर जो भी रैली होती, उसमें मैं साहित्य को लेकर बोलता। विचारधारा की साहित्य-सृजन में भूमिका मेरे भाषण का मुख्य मुद्दा होती। मेरे पहले दो-तीन लेक्चरों का परिणाम यह निकला कि दो एम.ए. पास नौजवान अक्सर ही हमारे वाले टेंट में आ जाया करते। एक ने एम.ए. पंजाबी 58-59 प्रतिशत नंबर लेकर पास की थी और दूसरे की शायद एम.ए. पंजाबी में फर्स्ट डिवीज़न थी। हमारे साथ एक हिंदी का एम.ए. भी था, पर पंजाबी एम.ए. पास साथी जब कभी मेरे पास आते, उनके पास कई सवाल होते। यह शायद मेरी हीनभावना थी कि मैं शुरू में यह समझता था कि नक्सली लड़के मेरी परीक्षा लेने आते हैं, पर धीरे-धीरे मेरा भ्रम दूर हो गया। वे तो बड़े ही अदब से मेरे पास आते और हम काफ़ी समय साहित्य और ख़ास तौर पर पंजाबी साहित्य के बारे में बातें किया करते। इनमें से एक साथी था- बलबीर सिंह मुकेरियाँ।
मेरी उन दिनों सिर्फ़ दो किताबें छपी थीं - 'कणक दा बुक' और 'अज्ज दे मसीहे’। इनमें से बहुत-सी कहानियाँ अख़बारों और पत्रिकाओं में भी छप चुकी थीं। कुछ किताबों की समीक्षा और कुछ खोज निबंध छपे थे और छपे भी अधिकतर उन अख़बारों और पत्रिकाओं में जो या तो कम्युनिस्ट पार्टियों से संबंधित थे या फिर उनका विशुद्ध संबंध नक्सली आन्दोलन से था। मेरी पुस्तकों पर भी और मेरे विषय में भी कुछ पत्रिकाओं, अख़बारों में काफ़ी कुछ छप चुका था। विशेष तौर पर 'कणक दा बुक' किताब तो हर नौजवान, प्रगतिशील पाठक और लेखक ने पढ़ी हुई थी। इसलिए मैं जेल में से यह प्रभाव लेकर लौटा था कि मेरे द्वारा काले किए गए काग़ज़ व्यर्थ नहीं गए। ज्ञानी रघवीर सिंह जेल में मेरा सबसे करीबी दोस्त होने के कारण घरेलू बातों से लेकर अन्य हर किस्म की बातें किया करता। मेरे भविष्य को लेकर चिंतातुर तो ज़िला संगरूर की जेल वाले सारे साथी थे ही, पर ज्ञानी रघवीर तो इस तरह था मानो मेरी नेत्रहीनता उसकी ही कोई अपनी समस्या हो।
जेल में रहकर जो योजना हमने बनाई, वह थी एम.ए. पंजाबी करने की। मेरी यह एम.ए. सन् 1963 में पूरी हो जानी थी, यदि मैं यूँ ही लम्बे चक्कर में न पड़ जाता। 1961-62 में जितना पंजाबी साहित्य मैंने पढ़ा, उतना शायद ज़िन्दगी में इतने कम समय में कभी नहीं पढ़ा था। और पढ़ा भी एम.ए. पंजाबी के पाठ्यक्रम से संबंधित और विस्तारपूर्वक। इस अधिक पढ़ने ने और एम.ए. में यूनिवर्सिटी में पहले या दूसरे स्थान पर रहने के सपने ने मुझे इम्तिहान नहीं देने दिया। अगले वर्ष बी.एड. में दाख़िला ले लिया और उसके पश्चात् स्वयं पढ़ने की समस्या सामने आ गई। बी.एड. की परीक्षा से ही स्पष्ट हो गया था कि मेरी निगाह बहुत कम हो गई है और मैं निरंतर घंटा, दो-घंटा किताब नहीं पढ़ सकता। इस भय से कि आगे नज़र और कम न हो जाए, मैंने पढ़ने का काम बहुत कम कर दिया था, समझो बन्द ही कर दिया था। मैं पढ़ने-लिखने के लिए एक तरह से दूसरे पर निर्भर हो गया था। यह मेरा शक ही नहीं था, एक सच्चाई थी कि मैं तीन घंटे बैठकर पढ-लिख नहीं सकता था। अब तो चिंता ही यह थी कि जितनी निगाह रह गई है, उसे ही कैसे बचाया जाए। रात में तो मैं अँधेरे में स्वयं चल कर जा ही नहीं सकता था।
जेल में रघवीर ने और मैंने एम.ए. पंजाबी करने का जो फ़ैसला लिया था, उसे मैं रद्द नहीं करना चाहता था। दिसम्बर में जेल से रिहा होने के बाद पहला काम जो मैंने किया, वह था पटियाला जाकर एम.ए. पंजाबी, भाग-प्रथम की पुस्तकें खरीदना। रघवीर ने यह वायदा किया था कि स्कूल टाइम के बाद वह मेरे घर आया करेगा। हम दोनों मिलकर पढ़ा करेंगे। वह पढ़कर सुनाएगा, मैं सुनूँगा। जो बात समझ में नहीं आएगी, उस संबंध में बहस किया करेंगे।
रघवीर ने शायद अभी दाख़िला नहीं भरा था। मेरे दाख़िला भरने में भी एक समस्या थी। मेरे दाख़िला फॉर्म को अटेस्ट करवाने और परीक्षा में बैठने वाला काम मुझे ब्लैक में अफीम बेचने जैसा लगता था। लेकिन, मेरा फ़ैसला और मेरा शौक मुझे हर खतरा मोल लेने से रोकता नहीं था, बल्कि उसे उभारता था। मेरे पास ऐसा काम करवाने के लिए जो व्यक्ति था, वह था बाबू पुरुषोत्तम दास सिंगला। मेरे अपने स्कूल का बाबू, स्कूल में मेरा सबसे बड़ा हमदर्द और इन्सानियत की खूबियों से लबरेज़ मनुष्य। फॉर्म अटेस्ट करवाने से लेकर इम्तिहान देने तक उसका दिया हौसला, हमदर्दी और मदद ही मेरी कामयाबी की नींव भी थी और निर्माण भी।
रघबीर रोज़ चार बजे आ जाता। पहले हम चाय पीते। फिर वह मुझे रोज़ाना 'नवां ज़माना' पढ़कर सुनाता। बीच बीच में हम बातें भी करते। स्कूलों की राजनीति से लेकर राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय राजनीति को खंगाल डालते। अँधेरा होने पर वह चला जाता। इस प्रकार फरवरी का महीना भी बीत गया था, पर अभी तक सिलेबस की किताब मैंने पढ़कर नहीं देखी थी। यह समझ लो, मैंने एक प्रतिशत भी काम नहीं किया था। रघवीर तो यह कहकर अलग हो गया कि गोयल साहब, अगले साल पूरी तैयारी करके परीक्षा देंगे। पर मैं किसको उलाहना देता। लेट फीस के साथ इम्तिहान की दाख़िला-फीस भी मैंने भरी थी। जेल के समय की तनख्वाह मिलने के भी कोई आसार नहीं थे। जेल के दौरान पत्नी की बीमारी पर जो दवाई का खर्चा हुआ था, उसका मैं अभी देनदार था, पर रघवीर से मैं सिर्फ़ यह कह सका, ''ज्ञानी जी, यार अगर इम्तिहान देना ही नहीं था तो मुझे पंगा क्यों दिलाया था।''
''फिक्र न करो गोयल साहब, अगले साल फट्टे चक्क देंगे।'' उसकी बात सुनकर न मैं हँस सकता था, न रो सकता था।
पिछले कमरे में बैठी मेरी पत्नी सुदर्शना देवी ने सारी बात सुन ली थी और हम दोनों को वह 'गपोड़ी' का खिताब देकर रसोई में चली गई थी। मेरे लिए ऐसा था मानो पैदा हुई आस की किरन भी बिलकुल मिट गई हो।
बैठक में बिस्तर पर पड़ा मैं सोच रहा था कि अब क्या किया जाए ? पता नहीं वो कौन-सी अच्छी घड़ी थी कि मेरे सोचते-सोचते रमेशर दास आ गया। रमेशर दास को हम दोनों के इम्तिहान देने का तो पता था, पर उसको यह नहीं पता था कि हमने कितना सिलेबस खत्म कर लिया है। वह तो समझता था कि हमने एक बार तो सिलेबस पढ़ ही लिया होगा। मेरे बताने पर वह भी अवाक् रह गया। मैंने उसको यह भी बताया कि वक्त-बेवक्त सुदर्शना देवी पढ़कर सुनाती है, लेकिन वह भी चार-पाँच घंटे नहीं पढ़ सकती। न उसके पास समय है और न ही उसकी आँखें उसे चार-पाँच घंटे लगातार पढ़ने की अनुमति देती हैं। उसकी भी ऐनक का एक शीशा आठ नंबर का था और दूसरा दस नंबर का। अन्तर केवल यह था कि उसे मेरी वाली बीमारी नहीं थी। डॉक्टरों के बताये अनुसार उसकी ऐनक के इस ऊँचे नंबर के कारण वह ‘हाई माइयोपिया’ की शिकार थी। नंबर और भी बढ़ने की संभावना थी। इसके बावजूद वह मुझे कविता की किताब के दस-बीस पृष्ठ पढ़कर सुना ही देती थी, कभी घंटा, कभी आध घंटा। इस प्रकार वह ढेड़-दो घंटे पढ़ती। कविता की जो पुस्तकें सिलेबस में लगी थीं, वे किताबें मैंने पहले पढ़ रखी थीं। यदि पूरी नहीं तो बीच-बीच में से कुछ कविताएँ अवश्य पढ़ी हुई थीं। इसलिए जब भी वह पढ़ती, मुझे समझने में कोई कठिनाई पेश न आती।
रमेशर दास को मैंने यह समस्या इसलिए बताई थी ताकि कोई हल खोजा जा सके। किसी आम व्यक्ति के समक्ष मैं यह बात कतई नहीं कर सकता था क्योंकि मैं तो सरकार और स्कूल के सब अध्यापकों से छिपकर इम्तिहान दे रहा था। रमेशर दास को स्वयं पढ़ने में बहुत रुचि नहीं थी। इसलिए मैं उसको किसी इम्तिहान में डालना नहीं चाहता था। मैं कभी भी दोस्ती की परख किसी के शौक या दिमागी रुझान को सामने रखकर ही किया करता था और अभी तक मेरी यही आदत बनी हुई है।
रमेशर दास की बड़ी बेटी सलोचना दसवीं की परीक्षा दे रही थी। परीक्षा मार्च के तीसरे हफ्ते में खत्म होनी थी। इसलिए मैं सलोचना के आख़िरी पर्चे के बारे में पूछकर रमेशर दास के साथ यह कार्यक्रम बनाना चाहता था कि वह अपनी लड़की को मेरे इम्तिहानों तक या तो मेरे पास छोड़ दे या वह सवेरे आकर शाम को चली जाया करे। रमेशर मेरी कही बात को अक्सर फरमान ही समझा करता था। कभी कभी वह गीला पीसने भी बैठ जाया करता था और वह भी किसी यूनियन के मसले पर या किसी अध्यापक के किरदार पर। लेकिन घरेलू मामलों पर हमने एक दूसरे की बात कभी नहीं लौटाई थी।
सलोचना के आने से मानो मेरी साँस में साँस आई हो। रहती तो वह लगभग सारा दिन ही थी, पर सारा दिन पढ़कर सुनाना कहाँ आसान काम था। बड़ी मुश्किल से तो बेचारी ने दसवीं के इम्तिहानों से फुर्सत पाई थी। ये दिन उसके अपनी माँ के संग काम में हाथ बँटाने के थे या सहेलियों में बैठकर गप-शप मारने के। मुझे पता था कि वह अपने गंभीर स्वभाव के कारण किसी सहेली के घर नहीं जाती और न ही उसे गप्पें मारने का शौक है, पर अपनी माँ के काम में तो वह सहायक हो ही सकती थी। परन्तु, मैंने यह स्वयं ही सोच लिया था कि अब नीलम और सुनीता भी इम्तिहानों से खाली हो गई हैं, जिस कारण सलोचना के मेरे घर आने से उन्हें कोई कठिनाई नहीं हो सकती। रमेशर दास के मेरे परिवार के संग बने संबंधों के कारण घर में सलोचना की गैर-हाज़िरी से कोई मुश्किल नहीं आने वाली थी और न ही आई। हाँ, सलोचना चार-पाँच घंटे पढ़कर थक जाती, मैं ज़रूरत से ज्यादा उस पर बोझ नहीं डालना चाहता था। अप्रैल के तीसरे सप्ताह मेरे इम्तिहान शुरू हुए थे। इस तरह मुझे पच्चीसेक दिन तैयारी के लिए मिल गए थे।
लगातार ज्ञानी के विद्यार्थियों को पढ़ाने के कारण मुझे कविता की सैकड़ों नहीं हज़ारों तुकें याद थीं - मध्यकालीन काव्य में से भी और आधुनिक कविता में से भी। अंग्रेजी, संस्कृत, हिंदी और पंजाबी के विद्वानों की सैकड़ों कुटेशन्स भी मेरी उंगलियों पर थीं। कविता और गद्य की पाठ्य-पुस्तकों में से आधी से अधिक मेरी पहले ही पढ़ी हुई थीं। एक पेपर पंजाबी साहित्य के इतिहास का था और एक पेपर था भारतीय और पश्चिमी आलोचना का। पंजाबी साहित्य का इतिहास तो मुझे कतई पढ़ने की ज़रूरत नहीं थी। ज्ञानी का पाँचवा पेपर पंजाबी साहित्य के इतिहास का ही होता था और शायद अब भी हो। पश्चिमी और भारतीय आलोचना के सिद्धान्तों में से आधे से अधिक यदि मैं न भी पढ़ता, तब भी काम चल सकता था। इतिहस में से बगैर पढ़े 60 प्रतिशत से अधिक नंबर ला सकता था और आलोचना के पेपर में 50-55 प्रतिशत। इसलिए मैंने इतिहास को छोड़कर बाकी तीनों पेपरों की तैयारी की। इस सच्ची होनहार बेटी के सहारे मैं परीक्षा में बैठने योग्य हो गया था।
बाबू पुरुषोत्तम दास है हालांकि सिर्फ़ मैट्रिक पास, पर उसकी लिखावट मोतियों जैसी है और लिखने की गति भी हवाई जहाज की उड़ान को मात देती है। वह स्वयं ही मेरा 'लिखारी' बना था। दरअसल, मेरी इस एम.ए. का सारा सेहरा ही उसके सिर पर बंधता है। सरकारी रजिंदरा कालेज, बठिंडा में मेरा सेंटर था। पेपर सुबह नौ बजे आरंभ होना होता था। बाबू पुरुषोत्तम दास स्वयं मुझे घर से ले जाता। बस अड्डा बिलकुल स्कूल के साथ था। घर से सिर्फ़ दो मिनट का रास्ता। हम पेपर शुरू होने से पन्द्रह-बीस मिनट पहले ही पहुँच जाते। प्रो. आर.के. कक्कड़ (एस.डी. कालेज, बरनाला) के पर्यवेक्षक के रूप में वहाँ नियुक्त होने के कारण मुझे किसी अच्छी जगह पर बिठाने का प्रबंध भी हो गया था। बिठाया हालांकि बरामदे में ही जाता था, शायद इसलिए कि बिठाने के लिए अतिरिक्त कमरा वहाँ नहीं था। मुझे बोलकर पेपर लिखवाना होता था। इसलिए मेरी सीट अन्य परीक्षार्थियों के संग नहीं लगाई जा सकती थी। हालांकि सुपरिंटेंडेंट ने कुछ उल्टे-सीधे सवाल पूछकर मेरा मूड खराब कर दिया था, पर प्रश्न पत्र पढ़ने पर मैं सोच रहा था कि कौन-सा प्रश्न मैं करूँ और कौन-सा छोड़ूँ। मुझे तो सभी प्रश्न एक जैसे आते थे। सभी दस प्रश्नों में से पाँच प्रश्न करने थे, पर शर्त यह भी थी कि उपन्यास और कहानी भाग में से कम से कम दो-दो प्रश्न अवश्य करने थे। प्रश्नों के जवाब इस तरह थे जैसे कोई शोधपत्र लिखना हो।
मैंने पहले दो घंटे में उपन्यास 'पिउ-पुत्तर' के विषय में दो प्रश्न किए। बाबू हवा की रफ्तार से लिखे जा रहा था और उसने मुझे बताया कि अब सिर्फ़ एक घंटा शेष बचा है और प्रश्न हैं तीन। मैंने उसे बताया कि अपने पास डेढ़ घंटा है। नेत्रहीन होने के कारण आधा घंटा अधिक मिलने से हमें पेपर करने के लिए साढ़े तीन घंटे मिलने थे। 38 पन्ने भर चुके थे। बार बार शीट माँगने के कारण प्रो. कक्कड़ तीन शीटें एकसाथ ही दे गया था। और हम साढ़े बारह बजे तक पर्चा पूरा करके पूरी तरह संतुष्ट थे, दोनों अन्दर से खुशी से भरे हुए। 73 पृष्ठ भरने के कारण मुझे अदभुत खुशी महसूस हो रही थी। यदि कुछ उदासी भी थी, वह थी सुपरिंटेंडेंट के व्यवहार को लेकर। मेरे जैसे एक नेत्रहीन के कारण उसे सेंटर बन्द करने में आधे घंटे का विलम्ब होना था और मैथ के प्रोफेसर के लिए आधा घंटा बहुत कीमती होता है। इस बात का अहसास मुझे पहले स्कूल में भी था और बाद में कालेज में आकर भी हुआ। मैथ, अंग्रेजी और साइंस की ट्यूशन करने वाले प्रोफेसर समय को नोटों में बदलकर देखते थे। आदमी से शायद उन्हें हमदर्दी न हो। मेरे अन्दर इन व्यापारी अध्यापकों के प्रति दिली आदर का अभाव तब भी था और अब भी है। इसमें मेरा कोई कसूर नहीं है। प्रो. कक्कड़ एम.ए. अंग्रेजी गोल्ड-मैडलिस्ट थे। मैंने अपने पेपर में अंग्रेजी की अनेक कुटेशन्स प्रयोग की थीं। हिंदी और पंजाबी के आलोचकों के हवाले भी दिए थे। टैक्स्ट में से भी उदाहरण दिए थे। वह एम.ए. पंजाबी फर्स्ट-क्लास भी था। जब पेपर करके हम बरामदे में से बाहर जा रहे थे, प्रो. कक्कड़ ने मुझे अपनी बांहों में कसकर सीने से लगा लिया था और फिर बाबू जी को भी। वह हमें पहले भी जानता था। उसकी यह टिप्पणी थी कि ज़िन्दगी में ऐसा बढ़िया पेपर वह कभी नहीं कर सका। मेरा हौसला और अधिक बढ़ गया था।
हर पेपर के बाद दो-तीन छुट्टियाँ अवश्य होतीं। सलोचना आती और मुझे पढ़कर सुनाती। अब हम चार घंटों की बजाय छह-सात घंटे भी पढ़ लेते थे। पंजाबी साहित्य का इतिहास तो सिर्फ़ इन दिनों में ही पढ़ा था। पहले पढ़ने का समय ही नहीं मिला था। चारों पेपर बहुत बढ़िया हो गए थे। मैं अपने ज्ञान और परफोर्मेंस तथा बाबू जी की लिखावट की सुंदरता के कारण बहुत आस लगाए बैठा था। फर्स्ट डिवीजन तो समझता था कि जैसे सामने ही पड़ी है, लेकिन सिर्फ़ 57 प्रतिशत नंबर ही आए। सबसे कम नंबर गल्प (फिक्शन) के पेपर में आए केवल 53 और साहित्य के इतिहास वाले पेपर में सिर्फ़ 55। मेरे साथ इस अन्याय के होने का रहस्य दस साल बाद जाकर खुला था। पर मैं निराश नहीं था। मेरे लिए तो बन्द द्वार मुश्किल से खुले थे।
तपा मंडी में और हमारे स्कूल में मेरे पेपर देने के बारे में किसी को मालूम नहीं था। हालांकि बाबू पुरुषोत्तम दास का खुशी की बात करते समय हाज़मा कुछ कमज़ोर होता था, पर उनका भी मैंने पूरी तरह मुँह बाँध दिया था और इस संबंध में सरकारी कठिनाइयों से परिचित होने के कारण बाबू जी अपनी खुशी का आनन्द अन्दर ही अन्दर लेते रहे होंगे।
एक बात जो मेरी पोल खोल सकती थी, वह थी सरकारी मिडल स्कूल, महिता में पढ़ाते साइंस मास्टर गुरचरन सिंह ढिल्लों का मेरे साथ पंजाबी एम.ए. के पेपर देना। गुरचरन को मैंने ही सरकारी मिडल स्कूल, महिता में ज्वाइन करवाया था। तब मैं वहाँ हैड मास्टर था। बरामदे में बैठने के कारण हर परीक्षार्थी, पर्यवेक्षक और अन्य परीक्षा-स्टाफ मुझे पेपर लिखवाते हुए देखने में दिलचस्पी रखता था। कइयों के लिए मेरा पेपर देना एक नया अनुभव था। गुरचरन ने मुझे देख लिया था और पुरुषोत्तम ने गुरचरन को। मैं उसे पक्का कर दिया था कि वह मेरे इम्तिहान देने के बारे में किसी को न बताए और बाबू पुरुषोत्तम ने भी कक्कड़ साहिब का मुँह बाँध दिया था।
(जारी…)