समकालीन पंजाबी साहित्य की उत्कृष्ट कृतियों की तलाश

‘अनुवाद घर’ को समकालीन पंजाबी साहित्य की उत्कृष्ट कृतियों की तलाश है। कथा-कहानी, उपन्यास, आत्मकथा, शब्दचित्र आदि से जुड़ी कृतियों का हिंदी अनुवाद हम ‘अनुवाद घर’ पर धारावाहिक प्रकाशित करना चाहते हैं। इच्छुक लेखक, प्रकाशक ‘टर्म्स एंड कंडीशन्स’ जानने के लिए हमें मेल करें। हमारा मेल आई डी है- anuvadghar@gmail.com

Thursday, December 30, 2010

पंजाबी उपन्यास



''साउथाल'' इंग्लैंड में अवस्थित पंजाबी कथाकार हरजीत अटवाल का यह चौथा उपन्यास है। इससे पूर्व उनके तीन उपन्यास - 'वन वे', 'रेत', और 'सवारी' चर्चित हो चुके हैं। ''साउथाल'' इंग्लैंड में एक शहर का नाम है जहाँ अधिकतर भारत से गए सिक्ख और पंजाबी परिवार बसते हैं। यहाँ अवस्थित पंजाबी परिवारों के जीवन को बेहद बारीकी से रेखांकित करता हरजीत अटवाल का यह उपन्यास इसलिए दिलचस्प और महत्वपूर्ण है क्योंकि इसके माध्यम से हम उन भारतीय लोगों की पीड़ा से रू-ब-रू होते हैं जो काम-धंधे और अधिक धन कमाने की मंशा से अपना वतन छोड़ कर विदेशों में जा बसते हैं और वर्षों वहाँ रहने के बावजूद वहाँ की सभ्यता और संस्कृति का हिस्सा नहीं बन पाते हैं।

साउथाल
हरजीत अटवाल

हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव

।। अट्ठारह ॥
जैसा कि शाम भारद्वाज सोचता है, फ्री लीगल सर्विस का काम चल पड़ता है। लोगों को उनके बारे में पता चल जाता है। उन्होंने ब्राड वे पर खड़े होकर लीफ़लेट्स बाँटे हैं। वे लोकल प्रैस में और देसी प्रैस में भी इश्तहार देना चाहते हैं, पर ऐसे इश्तहार के लिए पैसे चाहिएँ और उनके पास पैसे नहीं हैं। गुरचरन सलाह देता है कि जो लोग अपनी इच्छा से फीस देना चाहें, वह ले लिया करें ताकि उनके पास कुछ फंड जमा हो जाए। पर इसके लिए शाम राजी नहीं। वह लोगों में मुफ्त में काम करके हरमन प्यारा होना चाहता है।
पहले कुछ दिनों में ही बारह केस उनके पास आ जाते हैं। सलाह लेने वाले तो पन्द्रह-बीस आदमी रोज़ना के हो जाते हैं। दिलजीत की हिम्मत से 'नये अक्स' में शाम भारद्वाज की पूरी इंटरव्यू लग जाती है जिसके कारण वह बहुत खुश है। वह काम करवाने आए लोगों से उत्साह में हाथ मिलाता है। एक मुस्कराहट सी हर वक्त चेहरे पर जमाए रखता है। गुरचरन और जगमोहन तो बारी बारी ही रेड हाउस आते हैं पर शाम भारद्वाज लगभग हर रोज़ ही आ जाता है। एक दिन वह सोचता है कि सलाह लेने वालों का या काम करवाने वालों का पता डायरी में नोट कर लिया जाए ताकि भविष्य में काम आ सके। हफ्ते के आख़िर में वह देखता है कि आधे से अधिक लोग तो साउथाल से बाहर के आते हैं। कई तो ईलिंग के भी नहीं होते। वह गुरचरन को कहता है -
''यह यार बढ़िया तरीका नहीं लगता लोगों में जाने का।''
''क्यों ?''
''क्योंकि यह लोग मेरी वोट नहीं बनने वाले। ये तो भाँत भाँत की लकड़ी इकट्ठी होकर पहुँच रही है मेरे पास।''
''पर मुझे तो काम करने में मजा आ रहा है। कोई मकसद सा बना हुआ है। एक उद्यम है, पब में टाइम खराब करने से तो ठीक प्रतीत होता है।''
शाम भारद्वाज उसकी बात सुनकर चुप रहता है। वह सोच रहा है कि उस का मकसद सिर्फ़ उद्यम बनाने से नहीं, वोटें बनाने से हैं। ईलिंग काउंसल के कितने ही कांउसलर है। कोई धर्म के नाम पर वोट ले रहा है, कोई इलाके के नाम पर। जिन लोगों तक यह कांउसलर पहुँच करते हैं, कम से कम वे स्थानीय तो होते हैं जिन्हें उनका वोटर बनना होता है। पर वह तो जैसे बगैर सोचे-समझे हाथ मारता जा रहा है। कितना कुछ सोचता हुआ वह ग्लौस्टर में फिर मीटिंग रख लेता है। सभी पहुँच जाते हैं। जगमोहन पूछता है-
''हाँ भई, दो महीनों में ही ऊब गया। सियासत तो लम्बी जद्दोजहद होती है।''
''मैं देख रहा हूँ कि जिन लोगों तक हम पहुँच रहे हैं, ये अपने काम के नहीं। ये तो दूर-दराज से आ जाते हैं।'' शाम जवाब देता है।
सोहन पाल उसकी बात पर ज़रा गुस्से में आकर कहता है-
''जैसे जग्गा कहता है, यह एक लम्बी रेस है, ज़िन्दगी भर की रेस। सबसे पहले तेरा पब्लिक फिगर बनना ज़रूरी है, फिर तू जिस वार्ड का मेंबर बनना चाहे, वहाँ जाकर काम करना पड़ेगा। असल में काम तो समूची कम्युनिटी के लिए करके ही तेरा नाम होगा।''
''पर ये जो मंदिरों, गुरूद्वारों, मस्जिदों के सिरों पर काउंसलर बने फिरते हैं, ये कैसे ?''
''शाम, तू सियासत से बाहर खड़ा होकर बयान दिए जाता है, ज़रा और इन्वोल्व हो, इसके और अन्दर जा, यह जो तुझे बाहर से दिखता है, बात ऐसी नहीं। यह ठीक है कि पंजाब के बदले हालातों के कारण लोग अपने अपने धर्म से ज्यादा जुड़ गए हैं, पर चुनाव जीतने का आधार अभी भी ये बातें नहीं बनीं।''
''ये जो हिंदू लीडरों के घर सिक्खों के ग्रंथ से पाठ करवाते आ रहे हैं, ये क्या है ?''
''सिक्ख भी तो हिंदुओं की मंतर पूजा करवाते हैं, सियासत में ऐसा ही करना पड़ता है। यह सियासत की ही चाल है, पर तू तो दो महीने में ही भाग खड़ा हुआ।''
जगमोहन कहता है। शाम भारद्वाज की सोहन पाल या जगमोहन की किसी बात से तसल्ली नहीं होती, पर वह चुप रहता है। गुरचरन और दिलजीत कुछ नहीं बोल रहे। जगमोहन फिर कहता है-
''कम्युनिटी में काम किए बगैर तेरे पैर नहीं लगने वाले, यह तो तू खुशकिस्मत है कि एक तरीका तेरे हाथ लग गया, लीगल सर्विस तुझे बहुत कुछ दे सकती है शाम।''
''तू ऐसा कर जग्गे, इसे प्रोफेसन के तौर पर एडोप्ट कर ले। मैं तेरी बीच बीच में हैल्प करता रहूँगा।
''शाम, अगर ऐसा करना होता तो संधू अंकल के साथ ही काम करते रहना था। असल में बात तो यह है कि मेरे से टेढ़े और गलत केस नहीं किए जाएँगे, ये जो तूने खालिस्तानी बना कर पक्के करवाने वाले केस पकड़ लिए, मैं तो कभी न पकड़ूँ।''
''जग्गे यूँ ही धर्म पुत्र न बन।''
गुरबचन ताना मारता है। जगमोहन उत्तर देता है-
''हमें कामरेड इकबाल ने मुफ्त में यह जगह दी है और उसका फोन भी फ्री फण्ड का है। कम से कम हमें कामरेड की सुहृयता का तो ख़याल रखना चाहिए। हम मकसद भी यही लेकर चले हैं कि सीधे काम करेंगे, जिन लोगों को टेढ़ी खीर खानी है, उनके लिए संधू जैसे बहुत हैं, वो ठोक बजा कर पैसा लेते हैं।''
वे पब में दो घंटे बैठे रहते हैं। बात किसी किनारे नहीं लगती। शाम भारद्वाज को गिला है कि उसके दोस्त कहने के अनुसार नहीं चल रहे।
पिछले कुछ सालों में पंजाब के हालातों ने यहाँ की सियासत को भी बदलकर रख दिया है। खालिस्तान की चढ़ाई से यहाँ के लोगों के मूड भी बदले हैं। अधिकांश को लगता है कि खालिस्तान कुछ दिनों में बना ही बना। बहुस सारे लोग केश रखकर सिक्ख सज गए हैं। लोग पीली पगड़ियाँ पहनते हैं। अब खालिस्तान की लहर में उतराव आ रहा है और लोग भी एकदम मुख मोड़ने लग पड़े हैं। जहाँ गुरुद्वारों में गरमदल वालों के कब्जे हो गए थे, वे अब टूटने लगे हैं। गुरुद्वारों में संगत की गिनती एक बार फिर बढ़ने लगी है।
(जारी…)
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Tuesday, December 28, 2010

आत्मकथा



एक नेत्रहीन लेखक की आत्मकथा

धृतराष्ट्र
डॉ. एस. तरसेम
हिन्दी अनुवाद : सुभाष नीरव
चैप्टर-16( दूसरा भाग)


जाए नदौण, आए कौन

मुझे नदौण गए अभी पूरा महीना भी नहीं हुआ था कि मेरा मन हुआ कि मैं जुआर होकर आऊँ। एक रविवार सुबह ही बस पकड़ ली। स्कूल के सामने बस खड़ी होती थी। वहाँ परचून की दुकानवाले और हलवाई ने मुझे पहचान लिया था। स्कूल में सिर्फ़ परसा ही रह गया था। वह वहाँ चौकीदार था। उससे पता चला कि हैड मास्टर हेमराज शर्मा सहित सभी अध्यापकों का यहाँ से तबादला हो गया था, क्लर्क रामनाथ शर्मा का भी। परसे ने चायपानी के लिए ज़ोर डाला और जौंडूमल ने भी। लेकिन मैं राम सिंह के घर 'लाड़' जाने के लिए उतावला था। पता चला कि दौलतराम का अगले हफ्ते विवाह है। दौलतराम, राम सिंह का बड़ा लड़का था, गुरबख्श जिसे मैं बंता कहा करता था, वह फौज में भर्ती हो गया था। लक्ष्मी का अभी तक ब्याह नहीं हुआ था। वह कम से कम 26-27 वर्ष की हो गई होगी। लक्ष्मी सहित सभी ने मुझे गले लगाया मानो दौलत के विवाह की रौनक मेरे पहुँचने से और बढ़ गई हो। मैं जिस कमरे में रहता था, उसमें खड़ा होकर कितनी देर दीवारों, छत और फर्श को निहारता रहा। उस कमरे में भी गया जहाँ मेरी माँ रोटी पकाया करती थी।
वहाँ जुआर में आए-गए के लिए चाय बनाने का रिवाज़ नहीं था। मैं इस बात को जानता था। सो, मैं पानी पीकर काके को साथ लेकर उस चश्मे तक गया जहाँ से हम अक्सर पानी भरा करते थे और आते-जाते उसका पानी पीते थे। पर वापस लौटते हुए जब काके ने मुझे बताया कि हमीरा को टी.बी. हो गई है, मेरे मन को बहुत धक्का लगा। अगले हफ्ते विवाह में भी शामिल हुआ। इस बहाने इस परिवार के सभी रिश्तेदारों से मिल लिया था। सबसे अधिक खुश थे- बंता और हमीरा, पर हमीरा से अधिक खुलकर बात नहीं हो सकी थी। वैसे, पिछली कुछ बातें अवश्य कीं।
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छुट्टियों के बाद लौटे हुए अभी दूसरा ही दिन हुआ था कि उर्मिला आ टपकी। मेरे बताने से पहले ही माँ जी(कुंती की माँ) ने बता दिया था कि तरसेम की मंगनी हो गई है। उस समय तो वह कुछ न बोली, चुप रही मानो पत्थर हो गई हो। मैं सोच रहा था कि इसे क्या हो गया। तीसरे दिन वह ऊपर मेरे कमरे में पहुँच गई और मेरी मंगनी की बात छेड़ दी। मैंने उसे बता दिया कि मेरी मंगनी भी हो गई है और बदली भी शीघ्र हो जाएगी। उसने दो बार अपने माथे पर हाथ मारा और फिर उसकी आँखों से आँसू टपक पड़े। ''बस, ऐसे ही धोखा हुए जाता है।'' वह रो भी रही थी और कुछ न कुछ बोले भी जा रही थी मानो उसका कोई हसीन सपना टूट गया हो। मैं हैरान था कि जब मैंने उसके संग कोई रिश्ता जोड़ा ही नहीं था, वह पागलों की तरह ऐसा क्यों किए जा रही है। मैंने पहले से भी अधिक प्यार और दिलचस्पी से उसे बहलाया और समझाने का यत्न किया कि ये रिश्ते इस तरह नहीं बनते, पर उसके चेहरे पर मैंने वो खुशी कभी न देखी जो छुट्टियों से पहले देखा करता था।
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अब तो बस बदली के आदेश की प्रतीक्षा थी। सितम्बर के महीने के अन्दर-अन्दर आदेश अवश्य आ जाने चाहिए थे, पर पता नहीं क्या बाधा थी कि ये आदेश सितम्बर के अन्तिम सप्ताह में हुए। भाई स्वयं आर्डर लेकर आया क्योंकि मैंने पत्र में लिख दिया था कि आर्डर वह खुद लेकर आए ताकि प्रिंसीपल मुझे रिलीव करने में कोई दिक्कत पैदा न करे। मेरा अन्दाजा बिलकुल ठीक था। यदि भाई स्वयं न आता तो प्रिंसीपल ने न जाने क्या-क्या बहाना बनाना था। मेरे भाई के आने के बावजूद प्रिंसीपल ने मुझे 29 सितम्बर को दोपहर के बाद रिलीव तो कर दिया, पर रिलीविंग चिट पूरे 12 बजे मेरे हाथ में दी।
मैं सामान पहले ही बांध आया था। स्कूल में से केवल कृष्ण और फ़िरोजपुर वाला रमेश शर्मा, माँ जी और मेरा सामान उठाने के लिए सुरिंदर और यशपाल आ गए थे। ठीक चलने के वक्त उर्मिला भी पहुँच गई। वह मेरे साथ शायद कोई बात करना चाहती थी, पर कोई भी बात करना अब संभव नहीं था। फिर भी, उसने मुझसे मेरा पता मांग लिया। बस अड्डे तक मुझे छोड़ने भी आई। इसके बाद वह कभी नहीं मिली। उसके अन्दर मेरे प्रति जो प्यार जागा, वह तो अब समय की धूल में दब चुका होगा, पर वह जहा भी हो, सुखी हो, यही मेरी कामना है।
जुक़ाम तो मुझे पहले ही कई दिनों से चल रहा था। सितम्बर के महीने में मौसम में नमी होने के कारण मुझे अक्सर जुक़ाम हो जाता था। कांगड़ा की नौकरी भी मैंने लगातार जुक़ाम रहने के कारण ही छोड़ी थी। उस दिन जब हम पौने एक बजे वाली बस में बैठे तो बस के बड़ी तेज चलने के बावजूद हमें लुधियाना वाली बस बड़ी मुश्किल से मिली। अगर ड्राइवर परिचित न होता तो शायद वह बस न रोकता। लुधियाना से हम रेल द्वारा सात बजे तपा पहुँच गए थे। 'जाए नदौण, आए कौन ?' इस कहावत को मैंने झूठा साबित कर दिया था।
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सतवीं कक्षा में नदौण के समीप वाली रिआसत के राजा का बेटा मेरे पास पढ़ता था। सचमुच ही वह राजकुमार था। बेहद सुन्दर-सुशील। वह मुझे कई बार महल देखने के लिए कह चुका था। नदौण से महल तीनेक किलोमीटर दूर था। उस जगह को 'अमतर' कहते थे। एक शाम मैं लड़के के संग महल देखने चला गया। बड़ी आवभगत की उन्होंने मेरी। चाँदी के गिलास में दूध पिलाया, पर चाँदी के गिलास मेरे लिए कोई बड़ी बात नहीं थी। चाँदी के बर्तन तो हमारे घर भी बहुत थे- गिलास, लौटा, थाल, कटोरियाँ, चाँदी का हुक्का और घोड़ी का साज़। इसलिए महल की सजावट ने तो मुझे प्रभावित किया पर चाँदी के बर्तनों ने बिलकुल नहीं। हाँ, उस राजकुमार और उसके परिवार की ओर से मिले सत्कार और उनकी विनम्रता ने मुझे बहुत कायल किया, ख़ास तौर पर पहाड़ी राजाओं की सादगी का रंग मैंने पहली बार ही देखा था।
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मैं पंजाबी पाठय-पुस्तक पढ़ाने के लिए प्राय: अच्छे विद्यार्थियों का चयन कर लेता था। यही फार्मूला मैंने नदौण में अपनाया। कॉपी पर काम कलम या जैड़ की निब से करने की आदत भी मैंने कुछ ही दिनों में विद्यार्थियों को डाल दी थी। सामाजिक शिक्षा का पाठ पहले किताब में से पढ़ाकर, उसमें से बनने वाले प्रश्न मैं स्वयं लिखवाता था। पंजाबी और सामाजिक शिक्षा की कॉपियों पर मैं सिर्फ़ हस्ताक्षर ही करता था। एक टिक मारा और हस्ताक्षर कर दिए। हालांकि भाषा अध्यापक के लिए विद्यार्थियों के शब्द-संयोजन को देखना आवश्यक समझा जाता था और यह नियम पंजाबी पर भी लागू होता था, पर यहाँ तो मेरे जैसी पंजाबी पढ़ाने और विशेष रूप से कविताओं के अर्थ करवाने वाला अध्यापक मुझसे पहले कभी कोई आया ही नहीं था। इसलिए कॉपियों को जाँचने के विषय में प्रिंसीपल ने कभी कुछ नहीं पूछा था। अन्य अध्यापकों को भी प्रिंसीपल द्वारा अंग्रेजी की कॉपियों की जाँच के अलावा कभी कुछ कहते नहीं सुना था। रही बात सातवीं कक्षा की अंग्रेजी की, इस काम के लिए मुझे एक होशियार लड़का जिसका नाम यशपाल था, मिल गया था। जी की निब से विद्यार्थियों को अंग्रेजी लिखने के लिए कहता। यशपाल की कॉपी लाल पेन से चैक कर देता, कभी कभार एक दो और होशियार लड़कों की कॉपियाँ भी चैक कर देता। वे आगे बाकी के विद्यार्थियों की कॉपियाँ चैक कर देते और मैं सबकी कॉपियों पर इनीशियल मार कर तारीख़ डाल देता। लब्बोलुआब यह कि यहाँ भी मेरे पढ़ाने का तरीका वही था जसे मैं मोड़ मंडी और बठिंडा के प्राइवेट स्कूलों में पहले पूरी तरह आजमा चुका था। इस प्रकार मुझे अधिक निगाह नहीं लगानी पड़ती थी। वैसे भी मैं विद्यार्थियों की कॉपियों पर दस्तख़त करते समय दरवाजे में कुर्सी डालकर बैठता, जहाँ प्रकाश पूरा होता। इस प्रकार किसी को भी मेरी कमज़ोर निगाह के बारे में पता नहीं लगा था।
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सुबह के समय ब्यास दरिया का लकड़ी का पुल पार करके जंगल-पानी के लिए जाता। गरमी के मौसम के कारण पाँच-साढ़े पाँच बजे तक दिन चढ़ जाता और मुझे अकेले आने-जाने में कोई कठिनाई न होती। नहाने-धोने का काम भी वहीं कर आता। चाय पानी खुद बनाता। पीतल का स्टोव मेरे पास था इसलिए चाय बनाने और रात में दूध गरम करने तक का सारा काम मैं अपने चौबारे में ही कर लेता। आवश्यकतानुसार बिस्कुट, ब्रेड और कुछ नमकीन लाकर रखता। दोपहर की रोटी उसी ढाबे पर ही खाता जिस पर एक-दो अन्य अध्यापक खाते थे। दोपहर की रोटी खाने के लिए हम इकट्ठा ही जाया करते पर शाम की रोटी के लिए मैं पहले चला जाता। अगर मैं टॉर्च लेकर भी रात में जाता तब भी वहाँ यह बात अजीब लगने वाली नहीं थी क्योंकि अंधेरा होने पर कभी कभार ही रोटी खाने मैं निकलता था। ज्यादा अंधेरे में थोड़ी बहुत मुश्किल भी आती, पर रास्ते का अभ्यस्त हो जाने के कारण मैं वापस अपनी मंजिल पर पहुँच ही जाता। कई बार तो अधिक रात हो जाने पर माँ जी मुझे ढाबे पर रोटी खाने के लिए नहीं जाने देती थी। कम से कम दस-पंद्रह बार तो मैंने रात की रोटी माँ जी के हाथ की पकी हुई ही खाई होगी। कुंती भी मुझे भाइयों वाला मोह-प्यार करती। कुछ दिन में ही हम इतने घुल-मिल गए थे कि कुछ भी पराया नहीं लगता था। शायद, माँ जी अपने बेटे वाला सत्कार मुझसे खोजती हों और मैं अपनी माँ वाला प्यार उसमें। हम कितनी कितनी देर स्कूलों में पढ़ाई के प्रबंध और अध्यापकों के किरदार के संबंध में बातें करते रहते। कुंती बेचारी ज्यादा बोलती नहीं थी। उसकी उदासी देखकर मैं कई बार उदास हुआ होऊँगा। कभी-कभी माँ जी कुंती को झिड़कती, कभी पीछे ही पड़ जाती। मुझे माँ जी की यह बात बिलकुल अच्छी नहीं लगती थी। सोचता, यदि कुंती का पति न मरता, बेचारी मायके में क्यों ठोकरें खाती। दूसरे विवाह का रिवाज़ वहाँ भी कम ही था और मेरे अपने इलाके मालवे में भी अक्सर विधवा स्त्रियों को रंडेपा भोगना पड़ता। अधिकांश विधवा स्त्रियाँ भले ही मायके में रहतीं या ससुराल में, उन्हें सिर झुका कर दिन व्यतीत करने पड़ते। ऐसी स्त्रियों के साथ या तो हद से ज्यादा हमदर्दी प्रकट की जाती या फिर उनसे एक दूरी रखी जाती। सुहागिनें विधवाओं के साये से भी दूर रहने का यत्न करतीं। उन दिनों तो ब्याह-शादी में कई शगुनों के अवसर पर किसी विधवा की उपस्थिति को अपशगुन समझा जाता। नव जन्मा बालक विधवा की झोली में तो क्या उसकी परछाईं से भी दूर रखा जाता। विधवा के लिए हार-श्रृंगार वर्जित होता। मांग में सिंदूर, माथे पर बिंदी और अधरों पर सुरखी अगर कोई विधवा लगा लेती तो उसे कंजरी, बेहया और लुच्ची तक कह दिया जाता। कुंती को देखकर मुझे ज्ञानी गुरमुख सिंह मुसाफ़िर (पंजाबी के प्रतिष्ठित अग्रज कथा लेखक) की एक कविता की ये सतरें अक्सर याद आ जातीं -
''होरां लई जहान 'ते लक्ख खुशियाँ, ऐपर मैं तत्ती लई कक्ख नाहीं।
खाणा पीणा, हंडाउंणा वी छड्ड दितै, ऐपर छड्डे जमाने की अक्ख नाहीं।
(दूसरों के लिए दुनिया में लाख खुशियाँ हैं परन्तु मुझ दुखियारी के लिए कुछ नहीं है। खाना, पीना, पहनना भी छोड़ दिया है, पर जमाने की आँख नहीं छोड़ती।)
उपर्युक्त पंक्तियाँ मैंने ज्ञानी करते समय पाठय-क्रम में लगी पुस्तक 'कावि-सुनेहे' में से याद की थीं। कुंती दूसरा हार-श्रृंगार नहीं करती थी पर आँखों में काजल बहुत लगाती थी। उसका रंग गेहुँआ था, दांत अर्धपीले और आँखें मोटी जो काजल से और मोटी दिखाई देतीं। कद में वह नाटी थी। माँ जी के सामने मैंने उसे कभी बोलते नहीं देखा था। माँ जी की अनुपस्थिति में उसके साथ बहुत हमदर्दी प्रकट करता। उसे बहुत समझाता पर मेरे पास उसके बढ़िया जीवन-यापन का कोई हल नहीं था। हाँ, मैंने उसे सगी बहनों से भी अधिक प्यार और सम्मान दिया। अभी मुझे माँ जी के घर रहते हुए हफ्ता भी नहीं हुआ था कि एक लड़की पढ़ने के लिए आ गई। वह माँ जी की सगी भतीजी थी। वह दसवीं में फेल हो चुकी थी। माँ जी की भाभी स्कूल टीचर थी, बहुत सुन्दर, हट्टी-कट्टी। वह भी संग आई थी। माँ जी ने पुरजोर सिफ़ारिश की। मैं इन्कार न कर सका। अगले दिन शाम चार बजे का समय दे दिया। जब वे माँ-बेटी चली गईं, माँ जी ने उलटा रिकार्ड बजाना शुरू कर दिया, '' है तो यह मेरी भतीजी, पर इसके लछण ठीक नहीं। तुम चार-पाँच दिन तो पढ़ाओ, बाद में जैसे भी पीछा छुड़ाना चाहो, छुड़ा लेना।'' माँ जी के इन दो-तीन वाक्यों से मैं सारी बात समझ गया था।
लड़की का नाम उर्मिला था और माँ जी उसे बिमला कहकर बुलाती थीं। अगले दिन वह चार बजे से पाँच-सात मिनट पहले ही आ गई। कुंती ने मुझे नीचे से आवाज़ लगाई। मैं नीचे उतर कर माँ जी के सोने वाले कमरे में चला गया और चारपाई पर पैर लटकाकर बैठ गया। माँ जी बाहर बरामदे में अपने काम में लगी रहीं, कुंती कभी अन्दर तो कभी बाहर। बिमला नीचे फर्श पर बोरी बिछा कर बैठी थी। पहले दिन जो कुछ मैंने उसे लिखवाया और हिसाब के जो सवाल करवाये, उससे लगा, वह पास तो हो सकती है लेकिन वह पढ़ने में अधिक रूचि नहीं ले रही थी। मैंने अगले दिन का उसे काम देकर एक घंटे से भी पहले वापस भेज दिया। इसका कारण यह था कि माँ जी ने अपनी सिफ़ारिश पर खुद काटा मार दिया था, दूसरा मेरी यह एक बेगार थी, तीसरे उस लड़की के मुझे लक्षण ठीक नहीं लगे थे।
दूसरे दिन उसके आने पर फिर मुझे हांक लगाई गई। माँ जी और कुंती बाहर काम कर रही थीं। चारपाई से मेरे पैर नीचे थे, फर्श पर। बिमला ने मेरे पैरों को एक बार नहीं, तीन-चार बार पाँच-सात मिनट के अन्तराल में स्पर्श किया, बिमला नंबर दो की तरह। मुझे उसकी नीयत का का पता चल गया था। जब भी वह मेरे पैर को छूती, पहले वह बाहर देख लेती। कुंती भी दो बार अन्दर का चक्कर लगा चुकी थी। आखिर, उसने मेरे पैर पर हल्की-सी च्यूंटी काटी। अब तो उसकी नीयत पर कोई संदेह ही नहीं रहा था। मैंने पैर ऊपर कर लिए। उसके चले जाने के बाद मैंने माँ जी को बताया कि लड़की की पढ़ने में अधिक दिलचस्पी नहीं है।
उस समय मैं उम्र के तेइसवें साल में था। मैं कोई देवता भी नहीं था। इन्सानों की तरह एक इन्सान था। उन दिनों जवान होने के कारण मेरे अन्दर भी तरंगे उठा करती थीं। जब नदी स्वयं ही प्यासे के पास आए, प्यासे का नदी में से घूंट भरना कितना अस्वाभाविक हो सकता है। पर मैं डरपोक बहुत था। ऐसे मामलों में तो सिरे का डरपोक हूँ। इसलिए मैंने उसकी पहल का कोई जवाब नहीं दिया था। जवाब तो क्या, पैर चारपाई के ऊपर रखकर मैंने उसे निराश ही किया होगा। यह निराशा मैंने उसके चेहरे पर पढ़ भी ली थी। एक हफ्ता लगभग चार-पाँच दिन मैं उसे इसी तरह पढ़ाता रहा। उसे कोई भी ऐसा मौका न मिला कि वह मुझे छू सके।
दूसरे हफ्ते उसने चार नहीं बजने दिए थे कि दबे पांव ऊपर चौबारे में चढ़ आई थी। कोई मेरे पैरों की उंगलियाँ मरोड़ रहा था। देखा, वह तो उर्मिला थी, माँ जी की बिमला। मैं घबराकर चारपाई पर बैठ गया और उससे ऊपर आने के बारे में पूछा।
''बुआ जी हमारे पड़ोसियों के यहाँ बैठे हैं और कुंती नीचे सो रही है।'' वह जैसे सीधे ऊपर आ जाने को लेकर मुझे बेखौफ कर देना चाहती हो। मेरे दो तीन बार कहने पर भी वह नीचे नहीं गई और वहीं चारपाई पर बैठ गई। चारपाई पर बैठने से पहले उसने खिड़की बन्द कर दी। उस खिड़की से केवल कृष्ण की खिड़की साफ दिखाई देती थी और उसकी खिड़की से मेरी खिड़की भी। मुझे यह इसलिए भी मालूम था क्योंकि मैं केवल कृष्ण के घर की इस खिड़की के पास खड़े होकर अपने घर की खिड़की को देख चुका था। जब मुझे यहाँ से उसकी खिड़की दिख सकती थी तो इस खिड़की को वहाँ से कोई भी आसानी से देख सकता था। बिमला को इस बात की पूरी समझ थी। इस काम में मुझे वह बहुत अनुभवी लगी।
मैंने बड़ी मुश्किल से उसे नीचे भेजा, पर जाते-जाते वह कुछ छेड़छाड़ कर ही गई। जब मैं नीचे गया तो उसने मुझे इस तरह 'नमस्ते' की मानो वह मुझे अभी मिली हो। अब मुझे उसका इस क्षेत्र की खिलाड़ी होने में कोई संदेह नहीं रहा था और मैंने अन्दाजा लगा लिया था कि लड़की है तो दिमागवाली, पर इसका दिमाग पढ़ाई-लिखाई की जगह इस तरफ अधिक काम करता है। पाँच-सात दिन बाद उसने मुझे एक पत्र पकड़ाया। वह पत्र किसी ज्ञानचन्द का था। उसने यह पत्र किसे लिखा था, कुछ पता नहीं चलता था, पर था एक आशिक का ख़त और वह आशिक शायद बिमला का ही था। बाद में उसने ज्ञान चन्द से अपने संबंधों की सारी कहानी सुना भी दी थी। अब वह स्थानांतरित होकर अपने इलाके में फगवाड़ा के आसपास कहीं चला गया था।
बिमला कुछ दिन बाद फिर सीधे ऊपर आ धमकी। उस दिन भी माँ जी बाहर थीं और भोली कुंती नीचे सोई पड़ी थी। मैं खुद जाग रहा था, पर उसका ऊपर चले आना आज मुझे अजीब नहीं लगा था। वह अपने आप ही सामने पड़े डिब्बे में से बिस्कुट निकाल कर खाने लगी। मैं उसके इस अपनत्व को क्या कहूँ। बड़ी मुश्किल से कह-सुनकर उसे नीचे भेजा। माँ जी भी आ गईं और उसकी भाभी भी। भाभी ने जब उसकी पढ़ाई के विषय में पूछा तो मैंने बताया कि पास तो यह आसानी से हो सकती है पर पढ़ाई की तरफ ध्यान कम देती है। भाभी का घरवाला अबोहर में कहीं क्लर्क लगा हुआ था। भाभी ने बताया कि अगर यह दसवीं पास कर ले तो इसे जे.बी.टी. में कहीं दाख़िला मिल सकता है। मैंने उसे तो कुछ नहीं कहा, पर मन ही मन बोला कि इसके जे.बी.टी. करने वाले लक्षण दिखाई नहीं देते। यह कैसा रिश्ता था कि न तो मैं उसके जाल से बाहर था, न अन्दर। हाँ, अगर मैं चाहता तो वह सबकुछ कर सकता था, जिसके लिए वह दोनों हाथों से तैयार थी।
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नदौण में रहते हुए मेरा एक और घर में आना-जाना हो गया था। यह वहाँ एकमात्र आर्य समाजी परिवार था। यशपाल मुझे अपने घर ले गया था। इसका कारण यह था कि इस बच्चे को मैंने सातवीं कक्षा का मॉनीटर बना रखा था और हर कक्षा में ही मैं अपने संबंध में जानकारी देते समय यह बताया करता था कि मैंने अधिकांश नौकरी प्राइवेट आर्य स्कूलों में की है और इनमें से एक स्कूल - आर्य स्कूल गुरूदत्त ऐंगले वैदिक हॉयर सेकेंडरी स्कूल, कांगड़ा भी था। उसका भाई सुरिंदर भी नौंवी कक्षा में पढ़ता था और मैं उस कक्षा को पंजाबी पढ़ाता था। उनके कहने पर मैं एक इतवार को सवेरे ही यशपाल के संग हवन पर उनके घर चला गया था। वे आर्य समाजी विधि से हर इतवार हवन किया करते थे। मैं तपा मंडी के आर्य स्कूल के हैड मास्टर यशपाल भाटिया का तो मन से विरोधी था ही, आर्य प्रतिनिधि सभा के इस विचार का भी विरोधी था कि हम सब की मातृभाषा हिंदी है। इस बारे में जो कुछ तपा मंडी के स्कूल में मेरे संग हुआ था, वह मैं पीछे बयान कर चुका हूँ। पर नदौण में उनके घर अपनी इस कड़वाहट के विषय में मैंने कुछ नहीं बताया था। यशपाल और सुरिंदर दोनों का स्कूल में मुझे बहुत सहारा था। इतवार के दिन मैं बिलकुल खाली भी होता था। हवन के विधि-विधान से भी मैं परिचित था और बहुत से मंत्र भी मुझे कंठस्थ थे। हर इतवार यशपाल मुझे ले जाता। इस अवसर पर इन दोनों लड़कों के अलावा उनकी स्कूल में पढ़ती बहनें और माता-पिता भी होते और एक मैं। अन्य कोई नहीं होता था। हवन के पश्चात अच्छा बढ़िया नाश्ता करता और अपने ठिकाने पर पहुँच जाता। यह सिलसिला तब तक चला, जब तक मैंने वहाँ नौकरी की।
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एक लड़का रमेश था। वह किसी गाँव से आता था और पढ़ता था नौंवी कक्षा में। वह मुझे कई बार अपने गाँव ले चलने के लिए कह चुका था, पर कभी जाने का सबब ही नहीं बना था। एक दिन वह चूसने वाले चार आम ले आया। इतना बड़ा चूसने वाला आम मैंने पहले कभी नहीं देखा था। कलमी आमों से भी बड़े-बड़े आम थे, लंगड़े बनारसी आमों जैसे। एक आम चूसकर ही तृप्ति हो जाती थी। मैंने चार दिन में वे चार आम चूसे यानि एक आम रोज़। स्कूल जाने से पहले मैं एक आम को पानी भरे लौटे में रख देता, पानी में वह अक्सर ठंडा भी रहता था। पूरी छुट्टी के बाद मैं वह आम चूसता। ऐसे आम मैंने अपनी ज़िन्दगी में कभी नहीं चूसे। इन आमों में मानो शहद भरा हो। पहले तो मैंने ढीले से आम देखकर नाक अवश्य सिकोड़ा होगा, पर बाद में वे आम मेरी यादों की पिटारी में स्थायी तौर पर अंकित हो गए। अब मैं कह नहीं सकता कि रमेश मुझे आमों के कारण याद है कि आम रमेश के कारण। ऐसा आदर-सम्मान करने वाले बच्चे आजकल कहाँ मिलते हैं।
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Sunday, December 12, 2010

पंजाबी उपन्यास

''साउथाल'' इंग्लैंड में अवस्थित पंजाबी कथाकार हरजीत अटवाल का यह चौथा उपन्यास है। इससे पूर्व उनके तीन उपन्यास - 'वन वे', 'रेत', और 'सवारी' चर्चित हो चुके हैं। ''साउथाल'' इंग्लैंड में एक शहर का नाम है जहाँ अधिकतर भारत से गए सिक्ख और पंजाबी परिवार बसते हैं। यहाँ अवस्थित पंजाबी परिवारों के जीवन को बेहद बारीकी से रेखांकित करता हरजीत अटवाल का यह उपन्यास इसलिए दिलचस्प और महत्वपूर्ण है क्योंकि इसके माध्यम से हम उन भारतीय लोगों की पीड़ा से रू-ब-रू होते हैं जो काम-धंधे और अधिक धन कमाने की मंशा से अपना वतन छोड़ कर विदेशों में जा बसते हैं और वर्षों वहाँ रहने के बावजूद वहाँ की सभ्यता और संस्कृति का हिस्सा नहीं बन पाते हैं।

साउथाल
हरजीत अटवाल
हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव

॥ सत्रह ॥
शाम को प्रदुमण रेड हाउस में जाता है। सामने अजनबी-सा व्यक्ति बैठा मिलता है। उसे पहचानते हुए वह कहता है-
''तुमने आई.डब्ल्यू.ए. में भी काम किया है ?''
''हाँ, लीगल एडवाइज़र रहा हूँ शर्मा के बाद।''
''मैं भी कहूँ, तुम्हें देखा है कहीं।''
''अब हमने यहाँ इमीग्रेशन के मसलों के लिए सलाह देनी शुरू की है।''
''मुझे पता चला है, जगमोहन हमारा रिश्तेदार है। कहाँ गया वो ?''
''आज नहीं मिलेगा वो आपको। घर में होगा आज तो। फ्राइडे होगा यहाँ पर। हमने कुछ ऐसा ही एडजस्ट किया हुआ है। पर बताओ क्या काम है, मैं भी कर सकता हूँ।''
''एक केस है, परिचित लड़की है, ससुराल वाले पक्का नहीं होने दे रहे। इंडिया से ब्याह कर लाए थे। अब कहते हैं पसन्द नहीं।''
''होम ऑफिस से लैटर आ गई।''
''लैटर मिल गया है, अपील के लिए तीस दिन दिए हैं।''
''बस, आप ले आओ लैटर, अपील कर देते हैं।''
''ठीक है।'' कहते हुए प्रदुमण सिंह वहाँ से चल देता है। वह कार को एक सुनसान-सी सड़क पर ले आता है और एक तरफ करके रोक लेता है।
''तू मुझे इतनी अच्छी लगने लगी है कि मैं तेरे लिए कुछ भी कर सकता हूँ।''
''थैंक्यू अंकल जी।''
''फिर अंकल... आज तो मैं देख कैसा तैयार होकर आया हूँ।''
''बिलकुल, आप भी बहुत सुन्दर लग रहे हो।''
कुलजीत बात करके तिरछी नज़र से उसकी ओर देखती है। प्रदुमण सिंह एकदम उसका हाथ पकड़ लेता है। कुलजीत कहने लगती है-
''बड़े आशिक मिजाज हो अंकल जी।''
''तेरी जैसी सोहणी औरत सामने हो तो मर्द आशिक न हो जाए तो फिट्टे मुँह उसके मर्द होने पर।''
''क्या खासियत है मेरे में ! मैं तो वक्त की मारी हुई हूँ।''
''तुझे कहा न, ये बात भूल जा।''
''याद क्या रक्खूँ ?''
''एक तू है और एक मैं हूँ।'' कहता हुआ प्रदुमण उसकी ठोड़ी पकड़कर उसके अधरों को चूम लेता है। कुलजीत कोई उज्र नहीं करती। फिर वह कुलजीत को उसके घर पर उतार देता है।
अब वह सातवें आसमान पर है। अजीब-से खुमार से भरा हुआ। उसने एक जवान लड़की को जीत लिया है। उसे आसपास से वही खुशबू आने लगती है जो नीरू से मिलने पर आया करती थी। अब वह सोच रहा है कि जैसे भी हो, कुलजीत का काम करे। वह जगमोहन से सारी बात करना चाहता है। जगमोहन से वह दिल की बात कर सकता है। यद्यपि वह उसके भाई हरकेवल सिंह का दामाद है पर उससे वह दोस्तों की तरह व्यवहार करता है। वह उसे कुलजीत के संग बने अपने संबंधों का राज़दार बनाना चाहता है। अब मसला यह है कि वह जगमोहन को मिले कैसे। शुक्रवार अभी दूर है। घर वह जाना नहीं चाहता। उसे है कि हरकेवल सिंह यह न सोचे कि वह उससे अलग होकर उसके दामाद से रिश्तेदारी गहरी करता घूम रहा है। और फिर, घर जाने पर खुलकर बात भी नहीं हो सकती। वह चाहता है कि जगमोहन कुलजीत को यह विश्वास दिलाता रहे कि वह स्थायी तो हर हाल में हो जाएगी, पर ऐसा होगा अंकल के जरिये ही। उसे मालूम है कि वह कोई न कोई बहाना गढ़कर दिन में ही कुलजीत को कहीं ले जाया करेगा। बच्चों के स्कूल चले जाने के बाद घर खाली ही होता है। राजविंदर भी घर में नहीं होता। वह फैक्ट्री में न हो तो दोस्तों के संग किसी तरफ निकल जाता है। घर में न भी सही 'बैड एंड ब्रेकफास्ट' भी मंहगा नहीं पड़ता। उसे यकीन नहीं हो रहा कि कुलजीत इतनी जल्दी मान जाएगी। कुलजीत को भी यहाँ स्थायी होने के बदले यह सौदा मंहगा नहीं लगता।
प्रदुमण सिंह अपने घर पहुँचकर ज्ञान कौर से जगमोहन के घर फोन करवाता है। मनदीप फोन उठाती है। वह जगमोहन को आवाज़ लगाती है और ज्ञान कौर प्रदुमण सिंह को फोन थमा देती है। वह कहता है-
''यंग मैन, किधर छिपा फिरता है भई ?''
''छिपना कहाँ है, कठिन समय में अपने आप को संभालता फिर रहा हूँ।''
''भई, बड़े फिल्मी डायलॉग मार रहा है।''
''अंकल जी, डायलॉग मैं क्या मारूँगा। आप बताओ क्या हाल है ?''
''काम है तेरे से इमीग्रेशन का।''
''हुक्म करो।''
''कहीं मिले तो बात करूँ, आज मैं रेड हाउस गया था पर तू था नहीं।''
''पर वहाँ शाम भारद्वाज तो होगा ही।''
''हाँ, पर हमारा वकील तो तू ही है, बता कब मिलेगा ?''
''आप बताओ, अभी आ जाओ।''
''अब ! आठ बजे हैं, पब में आ सकता है ?''
''पब में !... चलो आ जाता हूँ। कौन से पब में ?''
''द ग्लौस्टर में ही।''
''नहीं अंकल जी, वहाँ मेरे कई परिचित मिल जाएँगे। कोई बात नहीं हो पाएगी। आप लेडी मैगी में आ जाओ। वहीं मिलते हैं।'' कहकर जगमोहन फोन रख देता है। वह इस वक्त बाहर जाने के मूड में बिलकुल नहीं है। भोजन कर चुका है पर प्रदुमण सिंह ने कहा है, रिश्तेदारी है, जाना ही पड़ेगा। वह तैयार होने लगता है। उसकी अपने ससुर से तो अधिक नहीं बनती, पर प्रदुमण सिंह से संबंध बहुत ही दोस्ताना हैं। वह उसके सामने सिगरेट तक पी लेता है, नहीं तो उसने अपनी स्मोक करने की आदत काफ़ी छिपा कर रखी हुई है। वह बीसेक मिनट में लेडी मैगी में पहुँच जाता है। साउथाल के पबों में यह रिवायती-सा पब है जो अधिक भरता भी नहीं और खाली-सा भी नहीं होता। आम तौर पर लोकल गोरे ही यहाँ होते हैं और इसीलिए खुलकर बातचीत करने के अवसर यहाँ अधिक होते हैं। प्रदुमण सिंह उससे पहले ही आया बैठा है। उसने बियर के गिलास भी भरवाकर रखे हुए हैं। जगमोहन हाथ मिलाकर बैठते हुए कहता है-
''अंकल, मैं आप में कोई बहुत बड़ी चेंज महसूस कर रहा हूँ, पर क्या, समझ में नहीं आ रहा।''
''कई बातें ऐसी होती हैं कि न समझो तो अच्छीं। तू अपना गिलास उठा।''
अनमना-सा जगमोहन गिलास उठाते हुए कहता है-
''मैं तो रोटी खा चुका था।''
''इतनी जल्दी ?''
''बच्चों के संग ही खा लेता हूँ। पब भी मैं वीक एंड पर ही आता हूँ, बियर भी थोड़ी-बहुत ही।''
''अच्छी बात है। मैं तो जब तक गिलास पी न लूँ, नींद नहीं आती। लेकिन मैं पीता एक या अधिक से अधिक दो ही हूँ।''
''बताओ, अपना क्या केस है।''
''केस वही। लड़की आई विवाह करवाकर, बसी नही। ससुराल वाले पक्का नहीं करवाते।''
''रिफ्यूजल लैटर आ गई ?''
''हाँ, बस अपील करनी है।''
''लड़की है कौन ?''
''यह तो सीक्रेट है।''
''पर डॉक्टर के सामने तो नंगा होना ही पड़ेगा।''
उसके कहने पर प्रदुमण सिंह हँसने लगता है। उसकी हँसी में झलकते अल्हड़पन से जगमोहन समझ जाता है कि बात कुछ और है। वह पूछता है-
''हमारी आंटी तो सेफ है न ?''
''तुम्हारी आंटी तो ऐसा खम्भा है जिस पर न किसी तूफ़ान का असर, न भूचाल का। यह तो कोई पार्ट टाइम सा जोश है।''
''फिर ले आओ किसी वक्त।''
''लाने के बिना बात नहीं बनती ?''
''अपील के लिए ग्राउंड तो खोजनी ही पड़ती है और अपील उसकी कहानी में पड़ी है और कहानी उसके पास ही है फर्स्ट हैंड। जो आप बताओगे वो तो सेकेंड हैंड है।''
''यह तो भई सौदा घाटे का लगता है।''
''कैसे ?''
''कहीं कुछ पाने के चक्कर में कुछ गवां ही न बैठूँ।''
''आप फिक्र न करो अंकल जी, आपकी चीज़ आपकी रहेगी।''
''प्रॉमिज़ ?''
''प्रॉमिज़।'' कहकर जगमोहन अपनी ओर बढ़े प्रदुमण सिंह के हाथ से हाथ मिलाता है। अपना गिलास खत्म करते हुए प्रदुमण सिंह कहता है-
''मैं तुझे बात बताते हुए डर भी रहा था कि तू वूमेन लिबरेशन की कुछ ज्यादा ही बात करने लगता है।''
''नहीं, ऐसी भी कोई बात नहीं।''
''मैंने तो सुना था कि साधू सिंह ने लड़की का क़त्ल किया था तो तू बहुत दुखी था।''
''वह तो उसने गलत किया था, पर उसे सज़ा मिल गई। अब सारी उम्र अन्दर ही रहेगा। यह ऑनर किलिंग तो बहुत गलत है।''
''पर क्या तू भारतीय या पंजाबी कल्चर में नहीं जन्मा ? लड़की जब गलत कदम उठाती है तो उसका यही नतीजा होता है। यही होना चाहिए।''
''यहाँ मैं आपके साथ एग्री नहीं करता। देखो, जिस समाज को हमने अपनाया है, उसमें यह मामूली बात है। इस समाज को अपनाने की हमारी कोई मजबूरी तो नहीं थी, हमारी अपनी मर्जी थी। अब देखो, क्या हो रहा है। हमें कुछ सब्र से काम लेने की ज़रूरत है। लड़कियों को मारने से कोई समस्या हल नहीं होगी।''
''जगिया...हम मर्द लोग हैं। हम नहीं सह सकते। हमारा खून अभी सफेद नहीं हुआ। पर साधू सिंह की लड़की तुझे इतना हांट क्यों करती रही ? कोई चक्कर तो नहीं?''
''मैंने वो लड़की देखी थी, रोज़ देखता था।''
''और तू देखता भी स्विमिंग-पूल में था।''
''हाँ, पर कोई इस तरह की बात नहीं थी।''
''चल मान लेते हैं, अब ध्यान रखना कुलजीत न तुझे हांट करने लग पड़े। तुझे सिर्फ़ मदद करनी है।''
जगमोहन ज़रा-सा हँसता है और कहता है-
''आप फिक्र न करो, हम पहले अपील करते हैं, अपील का टाइम न गुजार दें। आप मुझे उसके पेपर, पासपोर्ट दो या फिर वहीं रेड हाउस ही दे आओ।''
''रेड हाउस के बजाय तो मैं संधू के पास जाता हूँ, पुराना परिचित है पर मुझे तो तेरे पर ही भरोसा है।''
''संधू अंकल भी बोतल पीकर टेढ़ा हुआ पड़ा होगा। इतना टेलेंटिड आदमी है और टेलेंट को भंग के भाड़े खराब कर रहा है।''
''छोड़ उसे, तू बता, तुझे कुलजीत कहाँ और कब मिलवाऊँ ?''
''जहाँ चाहो, पर घर में न लाना।''
''मैं इतना मूर्ख भी नहीं। तुझे कार में ही मिलवा दूँगा कल।''
''इतनी भी चोरी क्या कही।''
''चल, जहाँ कहेगा, मिलवा दूँगा, पर मेरा एक इम्पोर्टेंट काम है।''
''वो भी बता दो।''
''देख, सीधी-सी बात है कि कुलजीत भी अपनी ज़रूरत को मेरे संग जुड़ी है, जिस दिन पक्की हो गई वो पत्तरा बांच देगी। सो, हमें काम स्लौली-स्लौली करना है।''
''अंकल जी, इतने खुदगर्ज भी न बनो। वह बेचारी पक्की होती है तो होने दो। ये सारा साउथाल ही कुलजीतों से भरा पड़ा है। आप चिंता क्यों करते हो, कोई और मिल जाएगी।''
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Sunday, December 5, 2010

आत्मकथा



एक नेत्रहीन लेखक की आत्मकथा

धृतराष्ट्र
डॉ. एस. तरसेम
हिन्दी अनुवाद : सुभाष नीरव
चैप्टर-16( प्रथम भाग)


जाए नदौण, आए कौन


जब मैं जालंधर से नदौण के लिए चला, सीधी बस कोई नहीं थी। होशियारपुर होकर ही जाना था। होशियारपुर का अड्डा मेरा जाना-पहचाना था। बस का रूट बिलकुल जुआर वाला ही था। फ़र्क़ बस इतना था कि अब जुआर की ओर एक नहीं, अनेक बसें जाती थीं। गगरेट, मुबारकपुर चौकी, अम्ब, नहिरी और जुआर - सात बस-अड्डे मेरे जाने-पहचाने थे। मैं बस में बायीं ओर बैठा था। दूध-चाय वाला जौंढू बस रुकते ही मुझे दिखाई दे गया था, पर बस वहाँ अधिक देर नहीं रुकी थी। उससे आगे का सारा रास्ता बेशक मेरे लिए नया नहीं था, पर बहुत-सा हिस्सा नया था। अड्डे पर मैं बारह बजे से पहले पहुँच गया था, शायद ग्यारह बजे से भी पहले। बस कुछ हलवाइयों की दुकानों और ढाबों के सामने खड़ी होती थी। स्कूल को जाने के लिए रास्ता पूछना ही पड़ा। बाजार में से होता हुआ मैं जहाँ पहुँचा, वहाँ एक बड़ा ग्राउंड था और कुछ लड़के भी ग्राउंड में घूम रहे थे। गेट पर लोहे का एक बोर्ड लगा हुआ था। बोर्ड हिंदी में था - राजकीय उच्चतर माध्यमिक विद्यालय। मैं आगे बढ़ गया। मैंने समझा है तो यह कोई स्कूल ही पर यह सरकारी हायर सेकेंडरी स्कूल नहीं है। अभी दसेक कदम ही बढ़ा होऊँगा, मैंने आते हुए एक लड़के से एक तिहाई पहाड़ी और ज्यादातर मलवई पंजाबी में पूछ ही लिया, ''मुन्नू, हायर सेकेंडरी स्कूल कुथू है ?'' उसने गेट की तरफ इशारा कर दिया जिसे मैं पीछे छोड़ आया था। गेट के अन्दर सीधा जाकर एक बरामदा था और उस गेट के बिलकुल सामने प्रिंसीपल के दफ्तर का दरवाजा था। बाहर नेम-प्लेट लगी हुई थी- चानण राम, प्रिंसीपल। आज्ञा लेकर अन्दर गया और दुआ-सलाम के बाद अपना नियुक्ति पत्र प्रिंसीपल के सामने रख दिया। प्रिंसीपल ने घंटी बजाई, पहले चपरासी आया, फिर क्लर्क। फिर एक और सज्जन आ गए। बातचीत में ज्ञात हुआ कि वह मैथ का लेक्चरार है और सबसे वरिष्ठ होने के कारण वाइस-प्रिंसीपल भी। जब मैंने उपस्थिति रिपोर्ट लिखने के बारे में विनती की तो प्रिंसीपल ने कहा कि यहाँ पोस्ट खाली नहीं है। ''इसका मतलब यह है प्रिंसीपल साहब कि सी.ई.ओ. साहब ने गलत आर्डर कर दिए हैं ?'' मैंने नम्रता के साथ एक प्रश्नकर्ता की भांति पूछा। ''नहीं, आर्डर गलत नहीं है, जिस मास्टर की बदली हुई है, वह जाना नहीं चाहता।'' प्रिंसीपल ने सही बात बता दी। ''क्या उसने खुद अर्जी देकर बदली करवाई है या सरकार ने स्वयं बदली की है ?'' अन्दर से दुखी होने के बावजूद मैंने अपना लहजा नम्र रखा। ''नहीं, उसने स्वयं एप्लीकेशन दी है।'' प्रिंसीपल के स्थान पर क्लर्क बोला। ''फिर तो उसे रिलीव हो जाना चाहिए।'' मैंने विनम्रता का पल्ला अभी भी नहीं छोड़ा था। ''यह देखना प्रिंसीपल का काम है कि उसे रिलीव करना है या नहीं।'' अब वाइस-प्रिंसीपल बोला था। ''फिर मुझे क्या हुक्म है ?'' मैं प्रिंसीपल को मुखातिब होकर बोला। ''जल्दी न करो, कोई न कोई हल निकालते हैं।'' प्रिंसीपल दुविधा में लग रहा था।
पूरी छुट्टी होने में सिर्फ़ एक घंटा रहता था। चाय हालांकि प्रिंसीपल ने मंगवा कर पिला दी थी, पर मैं बहुत उदास था। मैं आते ही प्रिंसीपल के साथ बहस में नहीं पड़ना चाहता था क्योंकि ज़िला कांगड़ा के सभी कस्बों के बारे में मैं परिचित था। नदौण, हमीरपुर, कांगड़ा, परागपुर और धर्मशाला से बढ़िया इस ज़िले में कोई स्टेशन नहीं था। मैं मन ही मन में सोच रहा था कि यदि यहाँ से जवाब मिल गया तो संभव है कि किसी ग्रामीण पहाड़ी स्कूल के आर्डर कर दिए जाएँ, जहाँ बस भी न जाती हो। कांगड़ा ज़िले में ही ऐसे ग्रामीण हाई स्कूलों की मुझे जानकारी थी जहाँ 5-7 किलोमीटर से लेकर 15 किलोमीटर तक पैदल चलना पड़ता था।
पूरी छुट्टी होने से पहले प्रिंसीपल ने मुझे यह कहकर वाइस-प्रिंसीपल के साथ भेज दिया कि कल कोई फैसला कर लेंगे। मेरे अन्दर हौसले वाली बात तो पहले ही नहीं थी। छंटनी के कुल्हाड़े के कारण पहले ही मन पूरी तरह ज़ख्मी था, अब इस नौकरी के लिए भी ज़रूरत से अधिक दबना पड़ रहा था। यह सोचकर मैं अन्दर ही अन्दर जल-भुन रहा था।
डी.पी.आई. के दफ्तर में से सी.ई.ओ., जालंधर को आर्डर करने में मेरी एक सुपरिंटेंडेंट ने मदद की थी। यह सुपरिंटेंडेंट था- धर्म पाल गुप्ता। गुप्ता जी का पूरा उल्लेख तो मैं आगे जाकर करूँगा पर यहाँ उनका जिक्र इसलिए ज़रूरी है, क्योंकि उनके नाम लेने भर से ही मेरा बेड़ा पार हो गया था। मैं अपना बिस्तरा और अटैचीकेस बस-अड्डे पर एक ढाबे वाले के पास रख आया था। दोपहर का खाना खाने वाइस प्रिंसीपल को जाना था। हम दोनों जिस होटल पर पहुँचे, वह मेरे सामान वाले ढाबे से कुछ पहले पड़ता था। खाना खाते समय मैंने डी.पी.आई. दफ्तर में अपने संबंधों की बात कर दी और साथ ही, सी.ई.ओ. दफ्तर के ई.ओ. बंता सिंह की भी। वाइस प्रिंसीपल जिसें मैं अब तक वाइस प्रिंसीपल साहब कह कर बुला रहा था, उसने बताया कि उसका नाम केवल कृष्ण है और हम दोनों हम उम्र हैं, इसलिए मैंने उसे 'केवल कृष्ण जी' कहकर ही बुलाना आरंभ कर दिया। केवल कृष्ण ने गुप्ता जी और बंता सिंह के बारे में मुझसे कुछ और बातें पूछीं, जो मैंने जानबूझ कर बढ़ा-चढ़ाकर बता दीं। केवल कृष्ण ने ढाबे पर रोटी बांध रखी थी जिस कारण उसने रजिस्टर पर एक के स्थान पर दो उपस्थितियाँ दिखला दीं और मुझे पेमेंट करने से रोक दिया। उसके कहने पर ही मैं अपना बिस्तरा और अटैचीकेस उठवा कर उसके कमरे में पहुँच गया।
केवल कृष्ण हमीरपुर का रहने वाला था और मेरे नदौण के थोड़े समय के निवास के दौरान मेरा मित्र बन गया था। नदौण के अध्यापकों में से फ़िरोजपुर का रमेश शर्मा भी बाद में मेरे सबसे करीब रहा। बात बात में मैंने अपने परिवार की सारी पृष्ठभूमि बता दी। धर्म पाल गुप्ता और बंता सिंह से संबंधों की कहानी पहले ही बताने के कारण केवल कृष्ण मेरे साथ कुछ ही घंटों में घुलमिल गया था, जैसे काफी अरसे से परिचित हो। मेरे भाई का मुख्य अध्यापक होना, मेरी भतीजी ऊषा का मैट्रिक की परीक्षा में पंजाब यूनिवर्सिटी में प्रथम आना और मेडिकल की पढ़ाई वज़ीफे से करना और मेरा स्वयं एक लेखक होना आदि सब बातों से केवल कृष्ण जैसे सम्मोहित हो गया हो। ज्ञानी में यूनिवर्सिटी में मेरी तीसरी पोजीशन, एस.डी. सीनियर सेकेंडरी और जे.बी.टी. स्कूल, बठिंडा का हॉस्टल वार्डन और पहले भी जुआर और कांगड़े में नौकरी करने के कारण मेरा अच्छी खासी पहाड़ी बोल लेना और पहाड़ी समझ लेना आदि कुछ और नुक्ते थे, जिनके कारण केवल कृष्ण को मैंने पूरी तरह अपने हक में खड़ा होने के लिए तैयार कर लिया। मैंने तो पहले ही प्रिंसीपल से कोई बहस नहीं की थी। केवल कृष्ण ने मुझे और अधिक सचेत कर दिया कि प्रिंसीपल साहब के साथ बात करते समय मैं नम्रता का पल्ला न छोड़ूँ। मरता क्या न करता, मेरे जैसे बागी स्वभाव के बन्दे को भी मोम बनना पड़ गया था और यह रवैया मैंने तब तक कायम रखा जब तक अगले दिन बदली हुए मास्टर को रिलीव करके मुझसे ज्वाइन नहीं करवा लिया गया। फिर भी इतना लिहाज प्रिंसीपल ने उस मास्टर का रख लिया कि उसे दोपहर बाद रिलीव किया और मुझसे 14 अप्रैल को दोपहर बाद उपस्थिति दर्ज करवाई। इससे मेरे पहले दिन की तनख्वाह तो मर ही गई थी, दूसरे दिन की तनख्वाह पर भी लकीर फिर गई। लेकिन केवल कृष्ण का शुक्रिया अदा करना न मैं उस वक्त भूला था और न भविष्य में भूल सकता हूँ, जिसने मुझे ज्वाइनिंग देने के लिए प्रिंसीपल के सामने मेरी तारीफ़ के पुल बांध दिए थे। प्रिंसीपल पर बड़ा असर यह पड़ा कि मेरा भाई भी मुख्य अध्यापक है और डी.पी.आई. दफ्तर तक मेरी पूरी पहुँच है। ज्ञानी पास होने के कारण मैं विद्यार्थियों को ग्यारहवीं तक पंजाबी पढ़ा सकता हूँ, इस बात ने भी मेरी इस स्कूल में उपस्थिति के लिए राह को आसान किया क्योंकि ज़िला कांगड़ा में अभी भी पंजाबी अध्यापकों की बड़ी कमी थी।
रात को मैं रोटी खाने नहीं गया था। केवल कृष्ण ने बहुत ज़ोर डाला पर मैं सिर दुखने का बहाना लगाकर पड़ा रहा। एक और चारपाई उसने पहले ही मंगा ली थी। मैंने अपना बिस्तरा खोला और बिछा कर पड़ गया। यह बात नहीं कि मुझे रोटी की भूख नहीं थी, पर रात के समय बाज़ार में से गुजरते हुए मेरे अंधराते के बारे में केवल कृष्ण को पता चल जाने का अंदेशा था और यह बात मेरे इस स्कूल में नौकरी करने में विघ्न बन सकती थी। इसलिए मुझे रात में केवल कृष्ण के साथ किसी ढाबे पर रोटी खाने जाने की अपेक्षा भूखा रहकर रात काटने को अधिक तरज़ीह देनी पड़ी। इस तरह पहले भी मैं कई बार अन्य जगहों पर नौकरी के दौरान रात में भूखा सो चुका था। मजबूरी आदमी से क्या कुछ नहीं करवा देती, इस बात का मुझे सदैव अहसास रहा है। लेकिन यह केवल कृष्ण की सुहृदयता और समझदारी थी कि लौटते हुए वह मेरे लिए पेड़े ले आया था। ये पेड़े हम दोनों ने मिलकर खाये। इससे मुझे दो फायदे हुए। एक तो भूख से छुटकारा मिल गया, दूसरा रात में दूध पीने के बाद नींद न आने की गुंजाइश खत्म हो गई। लेकिन पेड़े मैंने हिसाब से ही खाये। मुझे डर था कि कहीं ये पेड़े मुझे दिन चढ़ने से पहले ही रात में जंगल-पानी के लिए उठने को विवश न कर दें। पर ये समझो कि रात भी बढ़िया कट गई और कोई समस्या भी नहीं आई थी। सवेरे दिन चढ़े ब्यास दरिया की तरफ हम जंगल-पानी भी हो आए और नहाने-धोने का काम भी निबट गया।
पहले दिन की मेहमाननवाज़ी के बाद अगले दिन छुट्टी के उपरांत कमरे की तलाश में मेरे साथ रमेश शर्मा भी था और केवल कृष्ण भी। केवल कृष्ण के कमरे से सिर्फ़ पचास गज की दूरी पर मुझे कमरा मिल गया। केवल कृष्ण की सिफारिश के कारण एक सेवा-मुक्त पहाड़ी अध्यापिका ने मुझे अपना एक कमरा दे दिया, सिर्फ़ दस रुपये महीने पर। चारपाई मुझे मकान मालिकन माता जी ने ही दे दी थी। नीचेवाले दो कमरे उस माता जी और उसकी बेटी के पास थे, ऊपरवाला एक बड़ा कमरा मुझे दे दिया गया और उसके साथ वाला कमरा बिलकुल खाली था। अपने कमरे में आकर मैंने राहत की सांस ली।
माँ खुद अध्यापिका रही होने के कारण दूर-दराज नौकरी करने वाले अध्यापकों की मुश्किलों को समझती थी। वह विधवा थी और 28-30 वर्ष की उसकी लड़की, जिसे वह कुंती कहा करती थी, वह भी विधवा थी। माँ का एक ही बेटा था जिसका नाम शायद विजय कुमार विज था। वह विवाहित था और दिल्ली में नौकरी करता था। सो, मुझे किराये पर रखना माँ-बेटी दोनों को किसी भी तरह से मुश्किल नहीं लगा था। पहाड़ी में बातचीत करने के कारण भी मैं माँ-बेटी दोनों को शायद विजय कुमार का रूप ही लगता होऊँगा। अगले रोज़ मैंने घर चिट्ठी भेजकर सारी स्थिति भाई को बता दी। भाई मेरा बहुत जुगाड़ी था। उसने प्रिंसीपल चानण राम को अपने लैटर पैड पर धन्यवाद की ऐसी चिट्ठी लिखी कि चिट्ठी मिलते ही प्रिंसीपल को लगा मानो उसे कुछ मिल गया हो। जब स्टॉफ मीटिंग हुई, प्रिंसीपल ने मेरा और मेरे परिवार का जिक्र किया और बताया कि अब चंडीगढ़ दफ्तर में इस स्कूल का काम इतनी आसानी से रुकने वाला नहीं। टाइम-टेबल तो पहले ही मुझे मेरी मर्जी का दे दिया गया था- नौवीं से ग्यारहवीं कक्षा तक की पंजाबी, आठवीं से सातवीं कक्षा की सामाजिक शिक्षा और सिर्फ़ सातवीं कक्षा की अंग्रेजी। भाई का ख़त आने पर प्रिंसीपल ने और रियायत की भी पेशकश की, पर सबकुछ मेरे मन मुताबिक ही हुआ था। इसलिए मीटिंग में जिन शब्दों में मैंने धन्यवाद किया, उससे मेरे अच्छे वक्ता होने का ऐसा प्रभाव पड़ा कि जल्द ही स्कूल में लिटरेरी क्लब बनाने की योजना बन गई और मुझे उसका प्रोग्राम इंचार्ज बना दिया गया। यह योजना एक अध्यापक आर.एल. भाटिया साहब ने रखी थी जो स्वयं क्लब का कन्वीनर बना। इसलिए मैंने सब कुछ उसकी निगरानी में करने का मन बना लिया था। बाद में, इस क्लब को बनाने के पीछे का असली मकसद भी उजागर हो गया था।
भाटिया साहब की लम्बी छुट्टी लेकर इंग्लैंड जाने की योजना थी। जाने से पहले वह चाहता था कि स्कूल की तरफ से कोई अच्छी विदाई पार्टी हो और ग्रुप फोटो भी खींची जाए। उसकी योजना फलीभूत भी हुई थी। विदायगी पार्टी की जिम्मेदारी एक वरिष्ठ अध्यापक द्वारका दास और मुझे सौंपी गई। बढ़िया विदाई पार्टी भी हुई और ग्रुप फोटो भी खींची गईं। तकरीरों में भाटिया साहब की प्रशंसा के पुल बांधे गए। यही वह चाहता था।
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ग्रीष्मावकाश में मैं घर आ गया था। कुशल-क्षेम का चिट्ठी-पत्र चलते रहने के कारण मुझे घर की हर बात और नदौण में मेरी रिहाइश से लेकर रोटी-पानी और स्कूल में एडजेस्टमेंट के बारे में बहुत कुछ बताने की ज़रूरत नहीं थी। भाई उतावला था कि मेरा विवाह हो जाए। हैल्थ-एजूकेटर की नौकरी के दौरान बड़े अच्छे घरों के रिश्ते आए, पर कोई परवान नहीं चढ़ा। कारण न दान-दहेज का लालच था और न ही लड़की के बहुत ही सुन्दर-सुशील होने की मांग। पता नहीं क्यों बात बनते-बनते टूट जाती थी। संभव है कि कोई पीठ पीछे मेरी कम नज़र की चुगली भी कर देता हो। मेरी निगाह कमजोर अवश्य थी पर आम लोगों में इस प्रकार का प्रचार नहीं हुआ था कि रिश्ते की राह में रुकावट बने। दिन के समय ऐनक लगी होने के कारण ही मेरी नज़र के कम होने का पता लग सकता था। वैसे मैं किसी को इतनी जल्दी सच्चाई का पता नहीं लगने देता था।
मेरी माँ और मेरा भाई ही नहीं, मैं भी चाहता था कि विवाह हो जाए। नज़र लगातार कम हो रही थी। मई 1959 से दोनों तरफ माइनस ढाई के शीशे लगे थे जो अब बढ़कर एक तरफ साढ़े चार और दूसरी ओर साढ़े पाँच हो गए थे। इस स्फेरिकल नंबर के साथ-साथ एक से डेढ़ का सिलेंड्रीकल नंबर भी दोनों ओर जुड़ गया था। इसलिए ये शीशे फ्रेम के साथ-साथ मोटे और बीच में पतले थे। शीशे की मोटाई से शायद कुछ लोग अंदाजा लगा लेते हों कि मेरी नज़र कुछ ज्यादा ही कमजोर है, पर असली बीमारी का तो मुझे भी पिछले वर्ष ही पता चला था। हमारे पड़ोसी किशने जिसकी घरवाली संती को हम सब मामी कहते थे, के छोटे लड़के मोहनलाल ने जोधपुरियों के बरनाला में रहते परिवार को मेरे बारे में बताया था। मोहन की दीवार से हमारी दीवार लगी हुई थी। मोहन के स्वयं भी ऐनक लगी हुई थी। इसलिए मेरा ऐनक लगाना उसे अजीब नहीं लगता होगा। लड़की का पिता लाला कर्ता राम सवेरे सात वाली पहली गाड़ी से ही मुझे देखने आ गया। मैं नहाकर आँगन में सिर में कंघी कर रहा था। वह बाहर से ही नज़र मार कर चला गया और मोहन से बात आगे चलाने के लिए कह गया। साथ ही, यह भी कह गया कि नदौण से तबादला करवाने की जिम्मेदारी उनकी है। तबादला हमारे लिए सबसे बड़ा लालच था क्योंकि पंजाबी प्रान्त बन जाने की घोषणा के कारण 1 अक्तूबर 1966 से नदौण हिमाचल प्रदेश में चला जाना था। अफ़वाह यह थी कि जो कर्मचारी जहाँ हैं, उनका उसी प्रान्त में आबंटन हो जाएगा।
जब यह मालूम किया गया कि जोधपुरियों का वह कौन-सा किला है जिसके सिर पर वह मेरी बदली नदौण से तपा मंडी के आसपास करवाने की गारंटी ले रहे हैं तो शाम को ही पता चल गया कि डी.पी.आई. दफ्तर का सुपरिटेंडेंट धर्मपाल गुप्ता करता राम का सगा बहनोई है। सो, बग़ैर किसी लम्बी-चौड़ी सौदेबाजी के मेरी मंगनी सुदर्शना देवी के साथ बरनाले में हो गई और साथ ही यह बात पक्की की गई कि विवाह बदली होने के पश्चात ही होगा। यह समझ लो कि मेरे दहेज में नदौण से धौले की बदली मिली थी और यह जो कुछ हुआ, अच्छा ही हुआ। शेष मंगनी और विवाह की कहानी अगले किसी अध्याय में पढ़ लेना।
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छुट्टियों में दुविधा का शिकार रहा। कभी मैं खुश हो जाता, कभी दुखी। मैं प्रिंसीपल के सम्मुख जैसे इस स्कूल में हाज़िर होते समय झेंपा था, बदली की गारंटी के कारण उस झेंप के खत्म होने की मुझे खुशी थी। उसने मुझे यूँ ही ज्वाइनिंग के समय भटकाये रखा था। बेडोल से कपड़ों वाला यह प्रिंसीपल न अधिक योग्य था और न ही इन्सानियत के बुनियादी तकाज़ों के प्रति संवेदनशील। जब मैं वापस नदौण पहुँचा, मैं चढ़ती कला में था। अब मैं गुप्ता जी के साथ अपनी रिश्तेदारी की बात छाती तान कर कह सकता था। वहाँ एक मास्टर था, जिसे सभी चौधरी साहब कहते थे। बी.डी.ओ. के पद से वह किसी तरह हटा दिया गया था। इसलिए दुबारा अफ़सर बनने की लालसा उसे तंग करती रहती थी। गुप्ता जी के साथ मेरी रिश्तेदारी की बात जब उसे पता चली, वह मेरे करीब होने का यत्न करने लगा। मेरी बहुत बढ़ा-चढ़ा कर प्रशंसा करने लगा। दरअसल वह चाहता था कि मैं किसी न किसी तरह उसकी विकास विभाग की बी.डी.ओ. की नौकरी के आधार पर उसे डी.पी.आई. के दफ्तर से मुख्य अध्यापक का नियुक्ति पत्र दिला दूँ। मैंने उसे भरोसा दिलाया कि मैं अपने तबादले के बाद उसके लिए यत्न करूँगा।
मकान मालकिन और उसकी बेटी कुंती यह सुनकर बहुत निराश हुईं कि बहुत जल्द मेरी बदली हो जाने वाली है। मैं तो उसके बेटे का हर फर्ज़ पूरा कर रहा था। मेरे कारण उसे अपने बेटे विजय की कमी महसूस नहीं होती थी। कुंती सगी बहनों से भी बढ़ कर सत्कार करती। राखी का त्यौहार आया, कुंती ने सवेरे ही नहाने-धोने के बाद माँ से कहकर मीठे चावल बनवा लिए और राखी बांधने के लिए मुझे नीचे बुला लिया। राखी बांधते समय वह बेहद खुश थी। मैंने बीस रुपये उसे देने चाहे पर उसने नोट नहीं पकडे। मैंने उसकी माँ से कहा कि वह कुंती से कह दे कि बहन-भाई के इस रिश्ते में मेरी ओर से कभी पीठ नहीं दिखाई जाएगी। बीस का नोट तो यूँ ही एक चिह्न है, असली तो बहन-भाई का प्यार ही इस त्यौहार की पवित्रता को बनाता है। 1966 की राखी के उस त्यौहार के बाद भी कुंती हर साल राखी भेजती रही। मैं मनीऑडर से उसे कुछ न कुछ अवश्य भेजता। पत्र भी लिखता, पर पत्र मैं उसकी माँ को लिखता था। हमारा यह सिलसिला 1975-76 तक चलता रहा। इसके बाद कुंती की कभी राखी नहीं आई। जब 1973 के नवरात्रों में मैं और मेरी पत्नी, क्रांति और बॉवी के साथ स्नान के लिए ज्वालामुखी गए, हम नदौण भी गए। मेरे दोनों गंजे बेटों को देखकर माँ और कुंती खुश हो गईं। जब मेरी पत्नी सुदर्शना ने दोनों के चरण छुए, उन्होंने आशीषों से मेरी पत्नी और बच्चों को लाद दिया। हमें कहाँ बिठायें, यह चिन्ता उनके चेहरे पर थी। बढ़िया भोजन तैयार किया गया। हमारी सेवा में कोई कसर शेष नहीं रही थी।
हम आर्य समाजी साबुन वाले मित्र के घर भी गए। उन्हें भी हमें देखकर जैसे बेहद खुशी हुई हो। बेटियाँ दोनों ब्याही गई थीं। छोटी बेटी तो जालंधर के एक बहुत बड़े व्यापारी के घर ब्याही गई थी। सुरिंदर घर पर नहीं था। यशपाल ही अब दुकान का काम संभालता था। अब वह पूरा जवान हो गया था और पहचान में नहीं आता था। वापस लौटने की जल्दी के कारण हम वहाँ करीब घंटाभर ही रुके, पर मुझे इन दोनों परिवारों से मिलकर जो खुशी हुई, वह शब्दों में बयान नहीं की जा सकती।
जब मैं नदौण में पढ़ाया करता था, तब भी मैं दो बार ज्वालामुखी गया था। एक बार पैदल चलकर ही ज्वालामुखी पहुँच गया था, वापस बस पर आया था। ये कैसे संस्कार थे कि मार्क्सवाद का अच्छा-खासा प्रभाव होने के बावजूद मैं ज्वालामुखी मंदिर में गया और शीश निवाया।
(जारी…)

Sunday, November 21, 2010

पंजाबी उपन्यास


''साउथाल'' इंग्लैंड में अवस्थित पंजाबी कथाकार हरजीत अटवाल का यह चौथा उपन्यास है। इससे पूर्व उनके तीन उपन्यास - 'वन वे', 'रेत', और 'सवारी' चर्चित हो चुके हैं। ''साउथाल'' इंग्लैंड में एक शहर का नाम है जहाँ अधिकतर भारत से गए सिक्ख और पंजाबी परिवार बसते हैं। यहाँ अवस्थित पंजाबी परिवारों के जीवन को बेहद बारीकी से रेखांकित करता हरजीत अटवाल का यह उपन्यास इसलिए दिलचस्प और महत्वपूर्ण है क्योंकि इसके माध्यम से हम उन भारतीय लोगों की पीड़ा से रू-ब-रू होते हैं जो काम-धंधे और अधिक धन कमाने की मंशा से अपना वतन छोड़ कर विदेशों में जा बसते हैं और वर्षों वहाँ रहने के बावजूद वहाँ की सभ्यता और संस्कृति का हिस्सा नहीं बन पाते हैं।

साउथाल
हरजीत अटवाल

हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव

॥ सोलह ॥
नई जगह पर आकर उनका काम बहुत ज्यादा बढ़ जाता है। घर में तो जब चाहे घर का भी काम कर लिया और समोसों का भी, पर अब यहाँ निश्चित समय पर शुरू करके निश्चित समय पर खत्म करना पड़ता है। प्रदुमण सिंह की दौड़धूप भी बहुत बढ़ जाती है। कभी मार्किट जा, कभी आटा ला, कभी समोसे देने जा। यूनिट में भी कोई न कोई काम करवाता रहता है। माल डिलीवर करने गया भी देर से लौटता है। वह स्वयं को थका-थका-सा महसूस करता है। वह सोचता है कि क्यों न राजविंदर को अपने संग काम पर लगाये।
राजविंदर ने स्कूल छोड़ दिया है और काम की तलाश में है। उसे कुकिंग का काम अच्छा नहीं लग रहा। घर में भी जब समोसे पक रहे होते हैं तो वह बाहर निकल जाता है। अब फैक्ट्री जाकर भी अधिक खुश नहीं है। प्रदुमण सिंह ने अपनी यूनिट को फैक्ट्री कहना शुरू कर दिया है। यदि कोई उसका यह फैक्ट्री शब्द सुनकर हैरान होता है तो वह इसका आगे विस्तार करते हुए कहता है कि समोसे बनाने की फैक्ट्री। राजविंदर के न पढ़ सकने का दोष वह अपने सिर लेने लग पड़ता है कि न वह इंडिया जाता और न लड़के के दो साल खराब होते। वह राजविंदर को फैक्ट्री ले जाता है। राजविंदर चला तो जाता है पर किसी काम को हाथ नहीं लगाता। दफ्तर में बैठकर लौट आता है। प्रदुमण सिंह सोचता है कि क्यों न इसको ड्राइविंग टैस्ट पास करा दिया जाए ताकि वह डिलीवरी का काम ही करने लग पड़े।
ज्ञान कौर सवेरे घर की सफाई करके आ जाती है। बलराम और दोनों बेटियाँ उठकर स्कूल चले जाते हैं। सबके पास अपनी-अपनी चाबी है। स्कूल से लौटते ही अपना-अपना बना कर खा लेते हैं। ज्ञान कौर को उनकी अधिक चिंता नहीं होती। उसे बड़े लड़के की फिक्र ज्यादा रहती है। एक दिन वह पति से कहती है-
''क्यों न हम राज का विवाह कर दें, हैल्प हो जाएगी।''
प्रदुमण सिंह हँसने लगता है और कहता है-
''वह तो अभी अट्ठारह का भी नहीं हुआ।''
''तब क्या हुआ, बल्कि बिगड़ेगा भी नहीं।''
''बिगड़कर भी वह किसकी टांग तोड़ देगा। अधिक से अधिक गर्ल-फ्रेंड रख लेगा, इसका कैसा फिक्र ! यह कौन-सा लड़की है।''
''फिर भी सोचो, कोई इंडिया से ले आते हैं।''
''पहले इसे टिककर काम तो करने दे, मुझे तो लगता है, यह कुछ ज्यादा ही निकम्मा निकलेगा। ये जो इनकम सपोर्ट वालों ने इसे चालीस पौंड देने शुरू कर दिए हैं, इसके कारण तो यह बिलकुल ही गया लगता है।''
राजविंदर कार का टैस्ट भी पास कर लेता है, पर फैक्ट्री फिर भी मनमर्जी से ही जाता है। यदि कोई कहे तो बहाना बना देता है। डिलीवरी पर दो-एकबार वह प्रदुमण सिंह के संग जाता है, पर राह में ही लड़कर वापस लौट आता है। आख़िर, प्रदुमण सिंह कुछ कहना ही बन्द कर देता है। ज्ञान कौर पुचकार कर अपने संग ले आती है, पर वह मौका पाते ही यूनिट में से यह कहते हुए निकल जाता है कि तेल की गंध से उसे एलर्जी हो रही है।
बड़ी लड़की सतिंदर और छोटी पवन, दोनों ही छुट्टी वाले दिन यूनिट में आ जाती हैं। काम में भी हाथ बँटाती हैं। छोटा बलराम भी कुछ न कुछ करता रहता है, पर प्रदुमण उन्हें अपनी-अपनी पढ़ाई में लगे रहने के लिए कहता है। वह समझता है कि पढ़ाई ज्यादा ज़रूरी है। काम तो सारी उम्र करना ही करना है।
प्रदुमण अनुभव करने लगता है कि राजविंदर से वह अधिक निकटता नहीं रख सका। जब से वह इंडिया से लौटा है, बच्चों के बीच कभी बैठकर भी नहीं देखा। इंडिया में होते थे तो सारा परिवार शाम की रोटी इकट्ठा बैठकर खाया करते थे। यहाँ उसकी जीवन-शैली ही बदल गई है। अधिकांश समय भाग-दौड़ में ही निकल जाता रहा है। वह फ़ैसला करता है कि वह हर शाम पहले ही भाँति बच्चों के संग बिताया करेगा।
वह फैक्ट्री खोलने का समय सुबह छह बजे का कर लेता है ताकि दोपहर तक काम समाप्त करके शाम को खाली रखा जा सके। सवेरे पाँच बजे उठते और तैयार होते-करते छह बजे से पहले घर से निकलते हैं। रास्ते में अजैब कौर को संग ले लेते हैं और फैक्ट्री खोल लेते हैं। जो समोसे कल के बने रखे होते हैं, उन्हें लेकर प्रदुमण सिंह डिलीवर करने चले जाता है। पीछे से ज्ञान कौर और अजैब कौर अपने काम में लग जाती हैं। दोपहर तक प्रदुमण सिंह लौट आता है। आकर शॉपिंग का काम निपटा लेता है। दो बजे के करीब वे फैक्ट्री बन्द कर देते हैं। यदि कोई काम शेष रह जाता है तो वे फैक्ट्री कुछ और समय के लिए खोले रखते हैं। प्रदुमण सिंह तेजी से हाथ चलाता उनकी मदद करने लगता है ताकि काम जल्द खत्म हो। उसे देखकर अजैब कौर भी तेजी से हाथ चलाने की कोशिश करती है लेकिन वह साठ साल की उम्र पार कर चुकी है, इसलिए वैसी फुर्ती नहीं आती। प्रदुमण सिंह चाहता है कि लड़कियों के स्कूल से लौटने से पहले-पहले वह घर पहुँच जाए।
कैनाल इंडस्ट्रीयल एस्टेट में यूनिटों की लाइनें हैं जैसे कि ए, बी, सी आदि। उनमें फिर यूनिटों की गिनती शुरू होती है। जैसे कि यह यूनिट बी लाइन में नंबर दस है। इसीलिए यह यूनिट दस बी कहलाता है। ग्यारह बी का मालिक टोबी मिल्टन है जो छपाई का काम करता है। प्रदुमण की उससे पहले दिन से ही नहीं बनती। वैन की पार्किंग को लेकर झगड़ा होता रहा है। टोबी मिल्टन के पास तीन गाड़ियाँ हैं। दो वैन और एक कार। यूनिट के सामने दो वैनों की ही जगह है। अतिरिक्त वाहनों के लिए थोड़ा हटकर कार-पार्क है। लेकिन टोबी अपना तीसरा वाहन भी प्रदुमण की जगह में खड़ा कर देता है जिसके कारण झगड़ा होता है। पहले टोबी सोचता है कि प्रदुमण एशियन है और डर जाएगा, पर प्रदुमण लड़ाई पर उतर आता है। टोबी को अपनी कार पार्क में खड़ी करनी पड़ती है। उसके बाद टोबी प्रदुमण को देखते ही मुँह बनाने लगता है और बड़बड़ाते हुए कहता है - पाकि बास्टर्ड ! प्रदुमण उसकी तरफ देखते ही समझ जाता है कि टोबी ने मन में उसे कोई नस्लवादी गाली बकी है। इतने वर्षों से गोरों के संग वास्ता पड़ने के कारण प्रदुमण के लिए उनके मन के अन्दर के नस्लवाद का अंदाजा लगाना आसान हो चुका है। नौ बी यूनिट किसी गोरे का ही है पर उसका बर्ताव नस्लवादी नहीं है। वह प्रदुमण को दूर से देखते ही हाथ हिलाते हुए 'हैलो मिस्टर सिंह' कहने लगता है।
सवेरे प्रदुमण अजैब कौर के घर के आगे कार रोकता है। वह देखता है कि अजैब के पीछे-पीछे ही तीसेक वर्ष की जवान औरत भी बाहर निकलती है। ज्ञान कौर प्रदुमण से कहती है, ''यही है कुलजीत, जिसके बारे में बात की थी।''
''ठीक है, काम करवा कर देख ले, अगर काम पसंद आया तो रख लेना।''
काम कुछ और बढ़ा है और एक और कामवाली की ज़रूरत पड़ रही है। प्रदुमण उन्हें फैक्ट्री पर उतारता है, वैन में समोसे रखकर अपने काम पर निकल जाता है। पहले वह मज़े से फैक्ट्री में से निकला करता था और शाम तक लौट आता था, परन्तु जब से उसने सुबह की शिफ्ट आरंभ की है, उसे समय से निकलना पड़ता है और रूट भी बदलना पड़ता है। सवेरे आठ बजे से नौ बजे तक का समय ट्रैफिक का होता है। पहले वह काम पर नौ बजे निकला करता था लेकिन अब ट्रैफिक में फँसने के डर से 'ए टू ज़ैड' सामने रखकर अपना रूट ऐसा बनाता है कि ट्रैफिक के उलट चले। यानि पहले वह उन दुकानों पर जाए जो जल्दी खुलती हैं। देर से खुलने वाली दुकानों पर जाते वक्त भी वह कोशिश करता है कि वह ट्रैफिक की विपरीत दिशा में जा रहा हो। लंदन के ट्रैफिक को देखते हुए वह सोचने लगता है कि एक बात से तो पीटर ठीक है कि वह अपना माल लंदन से बाहर बेचता है। लंदन में तो वक्त ही बहुत खराब होता है। चार घंटे के काम को आठ घंटे लग जाते हैं।
काम से लौटकर यूनिट में घुसते ही उसकी निगाह कुलजीत पर पड़ती है। इकहरे बदन की खूबसूरत लड़की उसे बहुत प्यारी लगती है। उसे देखते ही उसके मन में लहर-सी दौड़ जाती है। वह पगड़ी का सिरा ठीक करने लगता है। कुलजीत उसकी तरफ देखती है और फिर गर्दन झुकाकर अपने काम में लग जाती है। ज्ञान कौर पति की ओर देख रही है। प्रदुमण सिंह झेंपता-सा ऊपर दफ्तर में चला जाता है। आज सोमवार है। पैसे एकत्र करने का दिन होने के कारण उसे हिसाब-किताब करना होता है। दफ्तर में जाकर वह शीशा देखता है। दाढ़ी में से कुछ सफ़ेद बाल झाँक रहे हैं। कुछ देर खड़े होकर दाढ़ी रंगने के बारे में सोचता रहता है। पहले भी कई बार उसने दाढ़ी रंगने के बारे में सोचा है। लेकिन फिर सोचता है कि अभी इतने बाल सफेद नहीं हुए हैं। परन्तु आज उसे लगता है मानो सफेद वालों की गिनती एकदम बढ़ गई हो। ज्ञान कौन ऊपर आ जाती है। पूछती है-
''हो गई कुलैक्शन ?''
''हाँ, हो गई। यह लड़की काम में कैसी है ?''
''तेज है। वैसे भी बीबी है, अजैब कौर की रिश्तेदार है, इसके पति ने इसे किसी बात पर छोड़ दिया है। बेचारी दुखी है।''
''हम कौन-सा सुखी हैं, तू इसका काम देख।''
बात करते हुए प्रदुमण पत्नी से आँख नहीं मिला रहा। उसे नीरू याद आ रही है। ज्ञान कौर कहती है-
''इस बेचारी की कहानी कुछ और है। इसे इंडिया से ब्याह लाए और अब लड़का और उसके माँ-बाप कहते हैं कि हमें पसन्द नहीं और छोड़ दिया। इसे यहाँ पक्का भी नहीं करवा रहे। कहती थी कि अंकल से सलाह करनी है।''
'अंकल' शब्द उसे क्षणभर के लिए तंग करता है। वह कहता है-
''मेरे से क्या सलाह करनी है ?''
''अपना जगमोहन है न, उसे बहुत जानकारी है ऐसी बातों की।''
''फिर जगमोहन के पास भेजो इसे।''
प्रदुमण ज्ञान कौर की ओर अभी भी नहीं देख रहा। वह कहती है-
''तुम तो यूँ ही भारी हुए जाते हो, अगली ने तो मान से कहा है। तुम बेचारी के साथ बात करके तो देख लो।''
''जा, भेज दे ऊपर।'' वह झट से कहता है।
ज्ञान कौर झिझकती है। उसे कुलजीत को ऊपर भेजने वाली बात पसन्द नहीं है, पर उसने स्वयं ही इतना ज़ोर देकर उसे कुलजीत से बात करने के लिए कहा है।
ज्ञान कौर नीचे उतर जाती है। प्रदुमण सिंह का ध्यान सीढ़ियों की तरफ ही है। वह तो पहले ही कुलजीत से बात करने के लिए मौके की तलाश कर रहा है। ज्ञान कौर उसके लिए रास्ता आसान कर देती है। सीढ़ियों पर ऊपर चढ़ने की 'ठक-ठक' सुनाई देती है। यह 'ठक-ठक' मानो उसके दिल पर बज रही हो। फिर, आहिस्ता से दरवाजा खोलकर कुलजीत अन्दर प्रवेश करती है। 'सतिश्री अकाल' बुलाती है। प्रदुमण सिंह पूछता है-
''क्या नाम है लड़की तेरा ?''
''अंकल जी, कुलजीत।''
''नाम भी सोहणा...तू भी सोहणी... फिर तेरे ससुराल वाले क्यों परेशान हुए घूमते हैं?''
''बस किस्मत की बातें हैं, अंकल जी।''
''किस्मत की कोई बात नहीं, ये लोग जूती की यार है। तू फिक्र न कर, मैं तेरी पूरी मदद करूँगा।''
''अंकल जी, डरती हूँ कि कहीं इंडिया ही न भेज दें।''
''उनके घर का राज है।''
''अंकल जी, अगर मैं लौट गई तो गाँव में बहुत बेइज्ज़ती होगी।''
कहते हुए कुलजीत अपनी आँखें नम कर लेती है। वह कहता है-
''जब तक मैं बैठा हूँ, तुझे कोई इंडिया नहीं भेज सकता, फिक्र न कर।''
सीढ़ियों पर किसी की पदचाप सुनाई देती है। प्रदुमण सिंह समझ जाता है कि ज्ञान कौर ही होगी। कुलजीत का उसके पास अकेले बैठना उससे सहन नहीं हो रहा होगा। ज्ञान कौर अन्दर आती है। प्रदुमण सिंह कुलजीत से सवाल पूछता रहता है-
''किस शहर में रहते हैं तेरे ससुराल वाले ?''
''जी, लूटन।''
''मैं तेरे सास-ससुर से बात करके देखूँ कि कम से कम वो तुझे यहाँ पक्का ही करा दें।''
''हमारे रिश्तेदार उनकी बहुत मिन्नतें कर चुके हैं। वे नहीं चाहते कि मैं इस मुल्क में रहूँ।''
ज्ञान कौर कहने लगती है-
''जी, तुम आज ही जगमोहन से बात करो। मनदीप बताती थी कि शाम के वक्त वह कहीं सलाह देने के लिए बैठा करता है। और फ्री में काम करता है।''
प्रदुमण सिंह कुछ सोचते हुए कहता है-
''तू ही चली जा कुलजीत के साथ जगमोहन के पास।''
''नहीं जी, मैं कहाँ घूमती फिरूँगी।''
''अच्छा, मैं देखता हूँ। अब टाइम भी तो नहीं है।''
प्रदुमण सिंह थोड़ा अनमना-सा होकर कहता है। कुलजीत जाने लगती है। प्रदुमण उसे कहता है-
''ऐ लड़की, तू अब चिंता छोड़ दे, यह चिंता अब हमारी है।''
यह सुनकर कुलजीत का चेहरा खुशी में खिल उठता है। वह चली जाती है तो प्रदुमण सिंह गिला करने के लहजे में पत्नी से कहता है-
''तू जबरन इसे मेरे गले मढ़े जा रही है, मेरे पास भला इतना टाइम कहाँ है कि इसे लिए घूमता फिरूँ।''
''इसे लेकर तुम्हे जाने की क्या ज़रूरत है। जगमोहन को फोन करो, खुद आ जाएगा वो।''
''वो भला कैसे आ जाएगा, अपना वह रिश्ते में जंवाई लगता है।''
''जंवाइयों वाली बू तो है नहीं उसमें।''
''दिखाई ही नहीं देती, अन्दर से पूरा कांटा है वो। तेरे सामने ही है, बड़े भाई की ओर कितनी बार जाता है।''
प्रदुमण थोड़ा खीझकर कहता है ताकि ज्ञान कौर बात को यहीं खत्म कर दे। उसे डर है कि कहीं वह खुद ही जगमोहन को या मनदीप को फोन करने न बैठ जाए। वह तो कुलजीत को खुद लेकर जाना चाहता है। कुलजीत उसके मन में उतरती जा रही है। वह कुलजीत को जीतना चाहता है, उसकी मदद करके। उसे पता है कि जगमोहन कामरेड इकबाल के घर शाम के समय दो घंटे के लिए बैठा करता है। वह सोच रहा है कि सारी बात को कैसे अंजाम दे। सोचते हुए वह दफ्तर में से उठकर नीचे आ जाता है। अजैब कौर समोसे तल रही है। कुलजीत सफाई कर रही है। फैक्ट्री बन्द करने का समय हो रहा है। वह कहता है-
''कुलजीत, मैं आज जगमोहन से मिलता हूँ और तेरे केस के बारे में बात करता हूँ। तू अपने पेपर तैयार रखना, हम मिलकर करते हैं कुछ।''
कुलजीत 'हाँ' में सिर हिलाती है जैसे कह रही हो कि सत्य वचन। फिर वह ज्ञान कौर से पूछता है-
''आज हम कुलजीत को मनदीप की ओर ले जाएँगे, शाम को।''
''मुझे तो काम करना होता है। दूसरे के घर गए टैम लग जाता है। तुम भी वहीं जाना, जहाँ वो बैठा करता है।''
घर आकर प्रदुमण सबसे पहले दाढ़ी रंगता है। टाई लगाकर सूट पहनता है। उसे सूट पहनने का बहुत शौक हुआ करता था। उसके सभी सूट इंडिया ही रह गए हैं। यहाँ आकर एक सूट खरीदा है, पर उसे ढंग से कभी पहन नहीं सका। काम में भी बहुत व्यस्त हो गया है। मेहरून रंग की पगड़ी बाँधकर जब वह ज्ञान कौर के सामने आता है तो वह हैरान होकर पूछती है-
''यह चढ़ाई किधर को ?''
''इतने समय बाद जगमोहन से मिलना है। और फिर वह जंवाई भाई है।''
''पहले तो जग्गे से मिलने के लिए इतनी शौकीनी नहीं की कभी !''
''पहले मेरी हालत ठीक हुआ करती थी, अब इस काम ने जैसे दबा लिया है। कपड़ों में से तेल की गंध आती रहती है।''
वह सोचता है कि अच्छे मौके पर बात सूझ गई, नहीं तो ज्ञान कौर का शक कुलजीत की ओर चला जाता। वह पत्नी से कहता है-
''चल, कुलजीत को फोन कर कि बाहर आ जाए, मैं दो मिनट में पहुँच रहा हूँ।''
वह कार कुलजीत की रिहायश के बाहर रोकते हुए डर रहा है कि अजैब कौर भी कहीं संग ही न तैयार हो जाए, पर कुलजीत अकेली ही बाहर निकलती है। वह कार में बैठे-बैठे ही कार का दरवाजा खोलता है। कुलजीत कमीज़ को पीछे से ठीक करके उसके बराबर आ बैठती है। काले सूट पर सफेद फूल बहुत सज रहे हैं। प्रदुमण सिंह कहता है-
''कुलजीत, तू तो बहुत सोहणी लगती है।''
''थैंक यू, अंकल जी।''
''यह अंकल-अंकल न करा कर। मेरी ओर देख, मैं अंकल लगता हूँ।''
कुलजीत उसकी तरफ देखती है और हँसती है। वह फिर कहता है-
''तू तो हँसती भी बहुत सुन्दर है। ऐसे ही खुश रहा कर, बाकी सारे फिक्र मेरे लिए छोड़ दे।''
''थैंक यू।'' वह नखरे भरे अंदाज में बोलती है।
इकबाल का घर जिसमें जगमोहन ने अपने साथियों के संग बैठना आरंभ किया है, लेडी मार्ग्रेट रोड पर ही है। पैदल जाने के लिए भी दूर नहीं है। लेकिन प्रदुमण का चलकर जाने का कोई इरादा नहीं है। वह कुलजीत से उसके पति और सास के विषय में पूछता है, पर जवाब सुनने में उसकी कोई दिलचस्पी नहीं है। वह तो बात करती कुलजीत को देखते रहना चाहता है।
वह इकबाल के घर के पास जगह ढूँढ़कर कार खड़ी करता है। यहाँ वह पहले भी आ चुका है। कामरेड इकबाल खुद तो हेज़ में रहता है जहाँ उसका दूसरा घर है। इस घर को साझे कामों के लिए इस्तेमाल करता है। काफी समय से यह जगह इसी प्रकार उपयोग में लाई जाती है। कामरेड इकबाल को भी प्रदुमण जानता है। कामरेड इकबाल को तो सारा साउथाल जानता है। इमरजेंसी के समय भारत सरकार के विरुद्ध यहाँ जबरदस्त प्रदर्शन किए गए थे और कामरेड इकबाल उन प्रदर्शनों का नेता हुआ करता था। भारत की हर उथल-पुथल में कामरेड आगे रहे हैं, पर खालिस्तान की लहर चली तो सब चुप हो गए। कई बार प्रदुमण मन ही मन गिला भी करता है। घर के आगे पहुँचता है। घर के बाहर लिखा है – ‘रेड हाउस'। दरवाजा खुला है। अन्दर प्रवेश करते ही आम घरों की तरह रसोई दिखाई देती है। दो लाउंज हैं। एक बायीं ओर और दूसरी दायीं ओर। दोनों में ही कुर्सियाँ इस प्रकार लगी हुई हैं कि दफ्तर की तरह प्रतीत होते हैं। लेकिन अन्दर कोई नहीं है। वे दोनों तरफ जाते हैं जो खाली पड़े हैं। प्रदुमण हैरान होता हुआ कुलजीत से कहता है-
''यह कैसी जगह हुई जहाँ कोई आदमी नहीं है और दरवाजा खुला पड़ा है।''
वे लौटने लगते हैं तो एक बुजुर्ग़-सा व्यक्ति ऊपर से उतरता है। वह प्रदुमण से पूछता है-
''लीगल ऐड वाले लड़कों से मिलना है ?''
''जगमोहन से।''
''वह तो सात बजे आता है, वीक डे में। वीकएंड पर जल्दी आ जाते हैं। तुम बैठकर वेट कर लो।''
वह बताता है। प्रदुमण सिंह समय देखता है। अभी तो छह भी नहीं बजे। वह कुलजीत से कहता है-
''आ जा, चलते हैं। सात बजे आ जाएँगे।''
कुलजीत उसके पीछे चल पड़ती है। वे बाहर निकलकर पुन: कार में बैठ जाते हैं। प्रदुमण सिंह कुलजीत से उसके बारे में छोटे-छोटे सवाल पूछता है। उसके परिवार, उसकी पढ़ाई, उसकी सहेलियों और उसके शौंक के बारे में। कुलजीत हँस हँसकर जवाब दे रही है। प्रदुमण सिंह समझ जाता है कि उसका संदेश कुलजीत तक पहुँच चुका है। उसके मन में लड्डू फूटने लगते हैं।
(जारी…)
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Saturday, November 13, 2010

आत्मकथा



एक नेत्रहीन लेखक की आत्मकथा

धृतराष्ट्र
डॉ. एस. तरसेम
हिन्दी अनुवाद : सुभाष नीरव
चैप्टर-15( तीसरा भाग)

नया महकमा, नये अनुभव

जनवरी 1966 में उड़ती उड़ती ख़बर मिली कि सब ब्लॉक एक्सटेंशन एजूकेटरों की छटनी की जा रही है। इसके दो कारण थे - एक तो यह कि सैनेटरी इंस्पेक्टरों के लिए उन दिनों तरक्की का कोई चैनल नहीं था। उनकी मांग थी कि कम से कम एक पोस्ट ऊपर उनकी प्रमोशन होनी चाहिए। एक अफ़वाह यह थी कि ये एजूकेटर जनता में परिवार नियोजन का प्रभाव डालने में सफल नहीं हुए थे। मैंने डॉ. जैन से कहा कि वह बहन जी से मालूम करके बताएँ कि हमारा क्या हो रहा है। जैसे मैंने पहले भी उल्लेख किया है कि उस समय की स्वास्थ मंत्री ओम प्रभा जैन उनकी बहन थी। डॉ. जैन ने चार-पाँच दिन बाद मुझे बुलाकर बताया कि छटनी के आदेश जारी हो चुके हैं। 28 फरवरी 1966 को सभी एजूकेटरों का फारिग कर दिया जाना है।
हमने अपने भविष्य को सुरक्षित रखने के लिए एक मीटिंग बुलाई। हरचेत सिंह, जो पी.एच.सी., कौली(पटियाला) में काम करता था, उसके और मेरे उद्यम से ही यह मीटिंग रखी गई थी। पटियाला में यह मीटिंग की गई। छंटनी के आदेश के वापस होने का तो अब सवाल ही पैदा नहीं होता था, इसलिए हमने एस.एस.एस. बोर्ड के चेअरमैन को मिलने का निर्णय किया। हमारी हलचल का परिणाम यह निकला कि छंटनी के नोटिस की तारीख़ एक महीना और बढ़ा दी गई। इस तरह 31 मार्च 1966 को सभी हैल्थ एजूकेटर हटा दिए जाने थे। बोर्ड से अभी हम मिले भी नहीं थे कि हमारे सबसे जूनियर ऑडीटरों के पदों पर चयन कर लिया गया। ग्रेड था - 80-5-120 का। पर इन पदों पर भी सरकार ने नियुक्तियाँ न करने का फैसला ले लिया था। यह सूचना, बोर्ड के दफ्तर में न होने के कारण ही यह आदेश हुए थे।
बहुत से एजूकेटर 150 के मूल वेतन की नौकरी छोड़कर 80 रुपये के मूल वेतन की नौकरी स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं थे, लेकिन कुछेक तैयार थे। शायद वे सोचते होंगे- भागते चोर की लंगोटी ही सही। हम एक डेपुटेशन की शक्ल में बोर्ड के चेअरमैन सरदार उजागर सिंह से मिले। उसने मुझे पहचान लिया था क्योंकि मैंने पहले भी उसके साथ खुल कर बातें की हुई थीं। इसलिए मुझे उसके साथ बात करने में कोई झिझक महसूस नहीं हुई थी। उन दिनों पंजाब में कुछ नायब तहसीलदारों और पंचायत अफ़सरों के पद रिक्त पड़े थे। इन रिक्त पदों की संख्या 44 से अधिक थी। नायब तहसीलदारों के पद का ग्रेड हैल्थ एजूकेटर वाला ही था और पंचायत अफ़सरों के पद का ग्रेड उससे कम था लेकिन अफ़सर वाली पूंछ पीछे लगी होने के कारण सभी हैल्थ एजूकेटर पंचायत अफ़सर बनने के लिए भी तैयार थे। जब मैं इस संबंध में चेअरमैन साहब से विनती की तो वह हँसकर कहने लगे, ''काका जी, तुम किस दुनिया में रहते हो? नायब तहसीलदारों के पद क्या तुम्हारे लिए हैं?'' ''फिर जी आप हमें पंचायत अफ़सर लगा दो।'' मैंने पुन: बड़ी विनम्रता से कहा। वह फिर हँस कर बोले, ''ये पोस्टें भी तुम्हारे लिए नहीं हैं।'' जब कोई भी तीर चलता न दिखाई दिया तो मैंने कहा, ''हममें से तीन बी.ए., बी.एड भी हैं।'' ''हाँ, यह काम की बात की न। मास्टर लगना है ?'' मैंने ''हाँ'' में सिर हिला दिया। त्रिलोक सिंह बिलगे से था और एक महिला कुलजीत कौर थी जिसके गाँव का नाम अब मुझे याद नहीं। चेअरमैन साहब ने सुपरिटेंडेंट भनोट साहब को बुलाया और हमसे अर्जियाँ लेने के लिए कहा। हम तीनों के सामाजिक शिक्षा के अध्यापकों के पद पर आदेश करके डायरेक्टर, शिक्षा विभाग, पंजाब को भेज दिए गए और आदेश की एक प्रति हमें भी दे दी गई। गुरचरन सिंह जो उस समय हरपालपुर (पटियाला) में हैल्थ एजूकेटर था, मालूम नहीं डिप्टी सुपरिटेंडेंट (जेल) के आदेश कैसे ले आया। शेष सभी के आदेश 60-4-100 वाले ग्रेड की पोस्ट पर कर दिए गए। वे आसमान से गिरकर यदि खजूर में अटक जाते तो शायद स्वीकार कर लेते, पर उनमें से अधिकांश तो यूँ समझते थे मानो उन्हें ज़मीन पर पटक दिया गया हो। कुछ ने बेबसी में वह पोस्ट स्वीकार कर ली तो कुछ ने इसे अपना अपमान समझकर बेकार रहना उचित समझा।
31 मार्च 1966 को दोपहर के बाद मुझे सेवा-विमुक्त कर दिया गया। डा. अवतार सिंह की बदली हो चुकी थी। इसलिए इंचार्ज था- वेद प्रकाश फार्मासिस्ट। उसने मुझे स्मरण दिलाया कि मेरे आठ महीनों के टी.ए. बिल जो सी.एम.ओ. के दफ्तर में पड़े थे, मुझे उनका पता करना चाहिए। रकम आठ सौ के लगभग थी। मेरे तीन वेतनों से भी अधिक। सी.एम.ओ. के बाबू और रोकड़ के दफ्तरी से वेद प्रकाश ने ही बात की। नब्बे रुपये में सौदा हो गया और मुझे हैल्थ एजूकेटर के पद से विमुक्त होने के कुछ दिन के भीतर ही सारी रकम का भुगतान हो गया।
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शतराणे से रिलीव होना उस समय तो मेरे लिए दुखदायी घड़ी थी। मैं इस बात से भी दुखी था कि किसी ने मुझसे अभी तक विदायगी पार्टी की बात भी नहीं की थी। जिसके स्थान पर मैं यहाँ नियुक्त हुआ था, उसे कितने मान-सम्मान से विदायगी पार्टी दी गई थी। उसे याद करके मेरा मन भर आया। फिर मेरे मन ने पलटा खाया कि वह सिर्फ़ उसकी विदायगी पार्टी नहीं थी, मेरी स्वागत पार्टी भी थी। और फिर उस समय पार्टी के पीछे एक निश्च्छल इन्सान डा. अवतार था। इस वेद प्रकाश फार्मासिस्ट को क्या मालूम कि विदा हो रहे साथी को कैसे विदा किया जाता है। इसे तो घर घर जाकर टीके लगाने, पैसे बटारने और ज़मीन खरीदने के बारे में ही पता है। उस समय मेरे दिमाग में यह बात भी नहीं थी कि मेरे टी.ए. बिल पास करवाने वाला यह वेद प्रकाश ही था, बेशक बिल पास करवाने के लिए मुझे अपनी ज़िन्दगी में पहली बार बाबुओं की मुट्ठी गरम करनी पड़ी थी। मैं अभी रिलीविंग चिट बनवा ही रहा था कि दविंदर कौर ने दरियाई मल की दुकान से चाय पानी मंगवा कर दूसरे कमरे में रख दिया था। यद्यपि हम छह-सात कर्मचारी ही उपस्थित थे, पर दविंदर कौर के चेहरे पर बहुत उदासी थी मानो उसका कोई सगा भाई उसे छोड़कर जा रहा हो। मन उसका भी भर आया था और मेरा भी। दर्शन सिंह संधू और शुक्ला भी बहुत उदास थे। मेरी यह प्यारी बहन और दोनों मित्र मुझे बहुत याद आते हैं। 1979 में पता चला था कि शुक्ला की मृत्यु हो गई है। यह सुनकर मैं बहुत दुखी हुआ था। उसके सभी भाई एक एक करके चले गए थे। बस, वह अकेला ही माँ का इकलौता सहारा था। जब भी मैं पटियाला गया, मैंने उसकी माँ से मिलने का यत्न किया लेकिन उसका पूरा पता न होने के कारण मैं उस बेसहारा विधवा माँ से दुख साझा करने का अवसर प्राप्त नहीं कर सका।
दर्शन सिंह संधू की बदली पटियाला में राजेन्द्र अस्पताल में हो गई थी। किसी ने बताया था कि उसकी टांग और बांह का ऑपरेशन किया गया था और अब वह पहले से ठीक चल-फिर लेता है। लेकिन जब मैं एक दिन उसे अस्पताल में मिलने गया, वह छुट्टी पर था। लड़की होने के कारण मैंने दविंदर कौर को कभी भी मिलने का यत्न नहीं किया। सोचता था कि माँ और भाई क्या सोचेंगे। विवाह के बाद तो ऐसा करना और भी कठिन था। लेकिन वे मेरे प्यारे साथी और प्यारी बहनें जिन्होंने मुझे भरे मन से विदा किया था, उनके चेहरे अभी भी कभी-कभार मेरी आँखों के आगे आ जाते हैं।
विदायगी के बाद अगले दिन हमें तपा के लिए चलना था। संधू और शुक्ला की माँएँ तो उदास थी हीं, राज राणी भी बेहद उदास थी। बख्शी की आँखों में आँसू थे। सेवा सिंह मेरा सामान चढ़ाने के लिए बस-अड्डे पर आया हुआ था। दोबारा शतराणे अस्पताल में 1997 में गया था, पूरे 32 साल बाद। बस, वहाँ से गुजरा था। उस दिन छुट्टी होने के कारण अस्पताल में कोई नहीं था। दरियाई मल और बख्शी के परिवार में भी कोई नहीं मिला था। मेरे समय का कोई भी कर्मचारी वहाँ नहीं था। जो दाई और चौकीदार मुझे मिले भी, वे भी अजनबी की तरह मिले।
शतराणे बस-अड्डे पर हमारी रिहायश इस तरह थी जैसे खानाबदोश रहते हों। कमरे बेशक पक्के थे पर ईंट-बाले की छतें और कीकर के दरवाजों वाले ये कमरे बिलकुल भी जंचते नहीं थे। लेकिन फिर भी हमारे दिन त्यौहार की तरह गुजरे थे। हम पाँच कमरों में चार घर बसते थे। दाल-भाजी की सांझ तो थी ही, अन्य दुख-सुख भी साझे थे। गर्मियों में हम बाहर सोया करते थे। सबके साथ-साथ बिस्तर लगे होते थे। शुक्ला बीड़ी पिया करता था। बीड़ी वह बुझने ही नहीं देता था। बीड़ी पीते समय वह खांसता भी था। 1965 की हिंद-पाक लड़ाई की सब ख़बरें और ब्लैक आउट के सब दृश्य मैंने शतराणा में ही देखे थे। ब्लैक आउट के कारण दिन छिपने से पहले ही रोटी-सब्जी बनाकर सब खाली हो जाते थे। कोई दीया-बत्ती नहीं जलता था। शुक्ला जब बीड़ी लगाता, सब उसके पीछे पड़ जाते। सबसे ज्यादा ऊँचा-नीचा उसकी माँ ही बोलती, पर वह दोनों हाथ बीड़ी के ऊपर रखकर बीड़ी के सुट्टे मारता रहता। बीड़ी सुलगाने के समय भी वह कोशिश करता कि रोशनी बाहर न जाए, पर दियासलाई की लौ बाहर चली ही जाती थी। ऊँचा-नीचा उसे सुनना ही पड़ता। आख़िर यह सब कुछ हँसी में ही खत्म होता।
मेरी तनख्वाह भी सबसे अधिक थी और रुतबा भी बड़ा था। इसलिए संधू की माँ भी और शुक्ला की माँ भी बात बात में अपने बेटों की तनख्वाह और छोटे ओहदे को लेकर कलपती रहतीं। मुझे लगता जैसे वे मेरी माँ को सुना सुनाकर बातें कर रही हों। हमारे सभी के बिस्तर पास-पास होने के कारण अक्सर एक-दूजे की बात सुनाई दे ही जाती। लेकिन मेरी माँ तो माला फेरने में मगन होती, उस पर इनकी बातों का कोई असर न होता। मुझ पर इस तरह की बातों का असर इसलिए नहीं होता था क्योंकि मैं औरतों के चुगली दरबार की विषय-वस्तु के बारे में जानता था।
हैल्थ एजूकेटर के पद से विमुक्त होने के बाद अध्यापक के पद पर उपस्थित होने के लिए मुझे दो पड़ावों में से गुजरना था। उस समय अभी हरियाणा पंजाब से अलग नहीं हुआ था और कुल्लू और कांगड़ा ज़िले भी पंजाब में ही थे। एस.एस.एस. बोर्ड ने मेरे आदेश में कुल्लू और कांगड़ा ज़िले में मेरी नियुक्ति की सिफारिश की थी जिसकी वजह से मुझे डी.पी.आई के दफ्तर से आदेश लेकर मंडल शिक्षा अधिकारी, जालंधर से कांगड़ा या कुल्लू के किसी स्टेशन के आदेश प्राप्त करने की हिदायत हुई थी। इस इधर-उधर जाने में अप्रैल का महीना आरंभ हो गया था। मैं 1963-64 में कांगड़ा में प्राइवेट स्कूल में काम कर चुका था और उससे पहले भी एक पहाड़ी गाँव जुआर में। इसलिए मुझे कांगड़ा ज़िला के सब बड़े गाँवों और कस्बों की जानकारी थी। बाहर लगी खाली पदों की सूची पर सरकारी हायर सेकेंडरी स्कूल, नदौण में भी सामाजिक शिक्षा अध्यापक की पोस्ट खाली दिखाई गई थी। मैं हालांकि नदौण कभी गया नहीं था पर दसवीं की परीक्षा के समय 1962 में मेरी ड्यूटी विद्यार्थियों के साथ गरली की लगा दी गई थी। गरली एक छोटा-सा कस्बा था जो उस समय ज़िला होशियारपुर की तहसील ऊना का आख़िरी स्टेशन था या शायद ज़िला कांगड़ा का पहला स्टेशन। यहाँ ये नदौण दसेक किलोमीटर के फासले पर था। जब 1962 में मार्च के महीने में दो बार पैदल गरली से वापस जुआर आ रहा था, उस समय नदौण को जाने वाली पक्की सड़क मेरी देखी हुई थी और उधर से आने वाले ठंडी हवाओं की याद मेरे अन्दर अभी भी ताज़ा थी। इसलिए मैं फॉर्म में नदौण भरकर दे दिया। उसी दिन मेरे आदेश हो गए। आदेश में नौकरी पर उपस्थित होने से पहले सी.एम.ओ., धर्मशाला से मेडिकल फिटनेस सर्टिफिकेट लेने की हिदायत थी। उस समय ज़िला तो कांगड़ा था पर ज़िले के सारे दफ्तर धर्मशाला में थे।
मेडिकल फिटनेस सर्टिफिकेट की हिदायत पढ़कर मैं पूरी तरह हिल गया था। हिला हुआ तो मैं पहले ही था, अधिक ग्रेड की पोस्ट से कम ग्रेड की पोस्ट पर लगने के कारण और दूसरा इसलिए कि जिस इलाके को मैं सीले वायुमंडल के कारण छोड़कर गया था, मैं उसी इलाके में पुन: जाने के लिए मजबूर था। लेकिन फिर से मेडिकल फिटनेस सर्टिफिकेट लेने वाली हिदायत तो असल में मेरे लिए बहुत डरावनी और कंपा देने वाली थी। पिछले बरस ही संगरूर से जिस तरह बड़ी कठिनाई से मेडिकल फिटनेस सर्टिफिकेट लिया था, उसके बारे में मैं जानता था या मेरा भाई। संगरूर तो मेरा अपना इलाका था, ऊपर से डॉ. नरेश की मेहरबानी हो गई थी, पर धर्मशाला का तो मुझे कोई परिन्दा भी नहीं जानता था।
सोचते-सोचते आख़िर दिमाग काम कर ही गया। पिछले मेडिकल सर्टिफिकेट की सत्यापित प्रति मेरे पास थी। शायद यह सर्टिफिकेट ही काम आ जाए, यह सोच कर मैंने चिक उठाई और ई.ओ. के कमरे में घुस गया। ई.ओ. अर्थात अमला अफ़सर, जैसा कि बाहर तख्ती लगी हुई थी, कोई बंता सिंह था। सफ़ेद दाढ़ीवाला यह बेहद भला पुरुष प्रतीत होता था। मैंने डरते हुए कहा, ''सर, मैं रिट्रैंच्ड इम्प्लाई हूँ। पिछले साल मई में ही मेरा मेडिकल हुआ था।'' मेडिकल फिटनेस सर्टिफिकेट की नकल मैंने उसकी मेज पर रखते हुए कहा। ''फिर तुम्हें मेडिकल करवाने की कोई ज़रूरत नहीं। अर्जी लिखो, मैं अभी आर्डर कर देता हूँ।'' ई.ओ. साहब मुझे रब से कम नहीं लग रहा था। अर्जी लिखने का तरीका मुझे आता था। सारी उम्र अर्जियाँ लिखने में ही बीती थी। मैंने मंडल शिक्षा अधिकारी, जालंधर को सम्बोधित करते हुए प्रार्थना पत्र लिख लिया। ई.ओ. साहब ने अर्जी मार्क की और मुझे सुपरिटेंडेंट साहब के पास भेज दिया। शाम पाँच बजे से पहले मुझे मेडिकल फिटनेस सर्टिफिकेट की छूट देते हुए प्रिंसीपल, सरकारी हायर सेकेंडरी स्कूल, नदौण के नाम पत्र बनाकर दे दिया गया। मेरी जान में जान आई। यह तो याद नहीं कि मैं जालंधर में कहाँ ठहरा, पर ठहरा मैं जालंधर में ही था। सी.ई.ओ. दफ्तर का एक चपरासी नदौण के किसी करीबी गाँव का रहने वाला था। उसने मुझे नदौण जाने के लिए जो रास्ता बताया, वह मैं पहले ही जानता था। यह वही रास्ता था, जिस अड्डे से होशियारपुर जाकर मैं कभी जुआर या कांगड़ा की बस पकड़ा करता था। इसलिए वापस तपा जाने की कोई आवश्यकता नहीं थी। गुजारे लायक सामान मेरे पास था और यहाँ से सवेरे जल्दी चलकर मैं दोपहर से पहले हाज़िर हो सकता था। डूबते को तिनके के सहारे वाली बात थी। एक दिन की तनख्वाह और समय से हाज़िर होने के लालच के कारण मेरा जालंधर में ठहरना ही ठीक था।
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Sunday, November 7, 2010

पंजाबी उपन्यास


''साउथाल'' इंग्लैंड में अवस्थित पंजाबी कथाकार हरजीत अटवाल का यह चौथा उपन्यास है। इससे पूर्व उनके तीन उपन्यास - 'वन वे', 'रेत', और 'सवारी' चर्चित हो चुके हैं। ''साउथाल'' इंग्लैंड में एक शहर का नाम है जहाँ अधिकतर भारत से गए सिक्ख और पंजाबी परिवार बसते हैं। यहाँ अवस्थित पंजाबी परिवारों के जीवन को बेहद बारीकी से रेखांकित करता हरजीत अटवाल का यह उपन्यास इसलिए दिलचस्प और महत्वपूर्ण है क्योंकि इसके माध्यम से हम उन भारतीय लोगों की पीड़ा से रू-ब-रू होते हैं जो काम-धंधे और अधिक धन कमाने की मंशा से अपना वतन छोड़ कर विदेशों में जा बसते हैं और वर्षों वहाँ रहने के बावजूद वहाँ की सभ्यता और संस्कृति का हिस्सा नहीं बन पाते हैं।

साउथाल
हरजीत अटवाल
हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव

॥ पन्द्रह ॥
प्रदुमूण समोसे बनाने के लिए ऐसी जगह की तलाश आरंभ कर देता है जो कि कानूनी तौर पर सही हो। व्यापारिक कुकिंग करने के लिए काउंसल से मंजूरी लेनी पड़ती है। काउंसल का स्वास्थ्य विभाग बताता है कि कुकिंग वाली जगह कैसी हो और उस में कौन कौन से उपकरण लगे हों। सब कुछ उनकी कानूनी मांग के अनुसार ही सही हो तभी पास करते हैं। इसके अलावा और बहुत कुछ झंझट होते हैं। वह पहले ही सही तरीके से काम आरंभ करना चाहता है ताकि बाद में कोई चक्कर न पड़े। वह ऐसी जगह की तलाश के लिए एक एस्टेट एजेंट से परामर्श करता है। इंडस्ट्रीयल एरिया में कोई यूनिट ही ठीक रहेगा। कई यूनिट किराये पर लगे हुए हैं। ऐक्टन, वैंबली, ईलिंग में तो काफ़ी यूनिट हैं। कुछेक जगहें दुकानों के पीछे भी मिल रही हैं, जहाँ समोसे तैयार किए जा सकते हैं। लेकिन वह चाहता है कि साउथाल में ही हो। घर के नज़दीक हो और साउथाल में कामगार स्त्रियाँ भी सरलता से मिल जाती हैं जो कि सस्ती भी होती हैं। कैनाल रोड पर कैनाल इंडस्ट्रीयल एस्टेट है। वहाँ अनेक यूनिटें हैं। छोटी भी और बड़ी भी। इतनी बड़ी भी कि फैक्ट्री लगी हुई हैं। वहाँ एक यूनिट मिल रहा है जहाँ पहले केक बना करते थे। अब बन्द पड़ी है पर इसका किराया बहुत है। प्रदुमण सिंह हिसाब लगाकर देखता है कि यह तो बहुत महंगा पड़ेगा। वह तलाश जारी रखता है। पुराने साउथाल के इंडस्ट्रीय एरिये का भी चक्कर लगाता है परन्तु मनपसंद कुछ भी नहीं मिल रहा। ऊपर से, काउंसल वालों की घर चैक करने की तारीख करीब आ रही है। उसकी चिंता बढ़ रही है।
विलम्ब होते होते 12 मार्च आ जाती है। आज काउंसल के प्रतिनिधियों ने आना है। किसी पड़ोसी की शिकायत पर उसके घर का मुआयना करना है। लेकिन वह इसके लिए तैयार नहीं है। उधर, यूनिट आदि मिल नहीं रही। वे सवेरे ही घर में ताला लगाकर निकल जाते हैं ताकि कोई आए तो खुद ही घंटी बजा बजाकर लौट जाए। बच्चों को भी जल्दी भेज देते हैं और कामवाली को भी नहीं बुलाते। एक दिन माल तैयार नहीं होगा तो न सही, कम से कम जुर्माने से तो बच जाएँगे। शाम को जब घर लौटते हैं तो लैटर-बॉक्स में फेंका गया एक सख्त-सा चेतावनी पत्र मिलता है। काउंसल वाले परेशान होकर लौट गए हैं। एक और तारीख़ दे गए हैं जो कि नज़दीक की ही है।
वह कैनाल इंडस्ट्रीयल एस्टेट के मैनेजर हैनरी के पास जाता है। हैनरी की लम्बी घनी मूंछें और भारी भरकम आवाज़ उसका स्वागत करती हैं। वह दस बी नंबर किराये पर ले लेता है। खास लिखा-पढ़ी नहीं है। एक फॉर्म ही भरना है। घर के अथवा किसी अन्य जायदाद के मालिक होने का सुबूत देना है और फिर दो महीने का किराया। एक महीने का डिपोजिट के तौर पर और एक महीने का एडवांस। सारी कार्रवाई निपटा कर हैनरी उसे दस बी यूनिट की चाबियाँ पकड़ा कर मूंछों में मुस्कराता हुआ हाथ मिलाता है। प्रदुमण अधिक खुश नहीं है। आठ सौ पौंड महीने का किराया है और दो सौ पौंड जनरल रेट। ये हजार पौंड महीने का अधिक निकालना पड़ेगा। वह मन को तसल्ली देने के लिए सोचता है कि समोसे की कीमत बढ़ा देगा। जब वह यूनिट को खोलता है तो अधिक किराये का दुख कम होने लगता है। जगह काफ़ी है। समोसे बनाने के लिए दो मेज पड़े हैं। दो भट्ठियाँ भी हैं। स्टील के दो बड़े मेज भी हैं। यूनिट के ऊपर एक मंज़िल बनाकर दफ्तर बनाये हुए हैं और स्टाफ के बैठने के लिए एक कमरा भी है। प्रदुमण भट्ठियों और कैनपी पर धुऑं निकालने के लिए लगे पंखों से अधिक खुश नहीं है। लेकिन काम चलाया जा सकता है। एकदम काम चलाने के लिए यह सब ठीक है। सो, वह सोचता है कि आहिस्ता-आहिस्ता सब कुछ नया लगवा लेगा, एक बार काम चलता हो जाए।
ब्रॉडवे से लेडी मार्ग्रेट रोड पर पड़कर कार्लाईल रोड वाला राउंड अबाउट पार करके बाये हाथ पर पॉर्क रोड है। यह रोड स्पाईक्स पॉर्क के दूसरी तरफ जाकर जुड़ती है और इसमें से ही बायीं ओर को कैनाल रोड मुड़ती है जो कि रुआइसलिप रोड को भी जा मिलती है। कैनाल रोड पर ही यह कैनाल इंडस्ट्रीयल एस्टेट है। इस एस्टेट के दूसरी तरफ ग्रैंड यूनियन कैनाल है। यह बहुत पुरानी एस्टेट है हालांकि इमारतें गिराकर नई बना दी गई हैं। जिन दिनों में लंदन की माल ढुलाई नहरों द्वारा हुआ करती थी, उन दिनों की ही है यह इंडस्ट्रीयल एस्टेट। पुराने नक्शों में भी यह नाम पढ़ने को मिल जाता है। वैसे तो लेडी मार्ग्रेट से अन्य कई सड़कें भी कैनाल रोड पर निकलती हैं, पर वे सब छोटी सड़कें हैं। पॉर्क रोड और फिर कैनाल रोड बड़ी सड़कें हैं जहाँ से लॉरी भी निकलती है और अन्य ट्रैफिक भी काफ़ी हो जाता है। प्रदुमण सिंह का घर इस यूनिट से दसेक मिनट की पैदल दूरी पर स्थित है। उसकी रोड, हारटली रोड पॉर्क रोड से सीधा ही आकर मिलती है।
अधिक किराये वाला कांटा यद्यपि अभी भी चुभ रहा है, पर प्रदुमण अब खुश है। वह ज्ञान कौर को लाकर नई जगह दिखलाता है तो वह तुरन्त कह उठती है-
''इतनी जगह हमने क्या करनी है !''
''काम बढ़ाएँगे। अगर सबकुछ ठीकठाक रहा तो यह जगह भी छोटी पड़ जाएगी, तू देखती जा।''
वे यूनिट में सामान ले जाना आरंभ कर देते हैं और आते सोमवार को वहीं काम शुरू कर देते हैं। बूढ़ी अजैब कौर भी वहीं आने लगती है। घर में दस तारीख़ से पहले ही डेकोरेटर को काम पर लगा देता है। पेपर पेंट करा कर घर को एकदम नया-नकोर बना देता है। काउंसल वाले मुआयना करके लौट जाते है। प्रदुमण मन ही मन हँसता है -साँप तो निकल गया अब लकीर को क्या पीटेंगे !
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Saturday, October 30, 2010

आत्मकथा



एक नेत्रहीन लेखक की आत्मकथा

धृतराष्ट्र
डॉ. एस. तरसेम
हिन्दी अनुवाद : सुभाष नीरव
चैप्टर-15( दूसरा भाग)

नया महकमा, नये अनुभव

स्वास्थ विभाग में रोमांस की भरमार देखने को मिली। स्कूलों में यह काम कम था। मैंने तो जिस भी प्राइवेट स्कूल में काम किया, उनमें से किसी में भी कोई अध्यापिका नहीं थी। पढ़ने वाली लड़कियों की संख्या भी बहुत कम होती थी। बड़ी कक्षाओं की लड़कियों की क्लास या तो अलग लगती या अध्यापकों के साथ उन्हें बातचीत का अवसर कम मिलता। इस सम्बन्ध में मेरे संग जो पहले घटित हुआ है, वह मैं पीछे बता चुका हूँ।
हैल्थ सेंटर में तो लीला ही निराली थी। डॉ. अवतार सिंह स्वयं तो बहुत सज्जन थे। फार्मासिस्ट वेद प्रकाश भी इस मामले में पाक-साफ़ था, वह तो बस पैसे का बेटा था। स्त्रियों की ओर उसका कोई ध्यान नहीं था। एक दो को छोड़कर दोनों सैनेटरी इंस्पेक्टर, सर्वेलैंस वर्कर और सी.एम.ओ. दफ्तर में से आने वाले अफ़सरों के साथ आने वाले ड्राइवर- ये सब नर्सों पर आँख रखते। किसी के अगर कोई नर्स काबू में न आती तो वह किसी दाई के साथ रोमांस के चक्कर में पड़ जाते। यहाँ तक कि चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी भी इस काम में पीछे नहीं थे। चौकीदार सेवा सिंह बुजुर्ग़ था, बहुत सयाना था, बेहद गम्भीर। पहले ड्राइवर बाबू राम भी किसी हद तक इस चक्कर से मुक्त था। जंग सिंह को इस कुत्ते काम की जगह वेद प्रकाश से काम सीखने में अधिक दिलचस्पी थी। नर्सों में पी.एच.सी. हैडक्वार्टर की नर्स की तरफ किसी को झांकने का साहस नहीं था। उसका नखरा ऊँचा था या वह यूँ ही शरीफ थी। पर दोनों सैनेटरी इंस्पेक्टर यह कहा करते थे कि वह डॉक्टर से कम किसी से बात नहीं करती। हैडक्वाटर पर एक दाई शान्ति देवी थी। वह शतराणे की ही रहने वाली थी। उसकी ओर भी कोई आँख उठाकर नहीं देखता था। एक दाई थी अमर कौर। सब उसे अमरो कहकर बुलाते थे। वह मेकअप करने के बाद भी अच्छी नहीं लगती थी।
सैनेटरी इंस्पेक्टर सरबजीत का दुखान्त सबसे बड़ा था। मेरे पहुँचने से कई महीने पहले वहाँ जो एल.एच.वी. काम कर रही थी, सरबजीत उसे लेकर अपनी प्रेम कहानी जबरन सबको सुनाने लग पड़ता, पर वह लड़की जिसका नाम शायद दविंदर कौर था, बिलकुल चुपचाप अपने काम में मगन रहती। सरबजीत कई बहाने लगाकर उसे बुलाने की कोशिश करता पर वह मतलब की ही बात करती और उसके करीब आने में कोई न कोई बहाना लगाकर इधर-उधर चली जाती। करीब तीन महीने बाद दविंदर ने सारी कहानी मुझे बता दी। उसका पिता जब उसे यहाँ नौकरी पर छोड़कर गया था तो वह सरबजीत के साथ-साथ कुछ अन्य कर्मचारियों को दविंदर का ख़याल रखने के लिए कह गया था। लेकिन सरदार साहब को क्या पता था कि इस तरह कहने से कोई मर्द मजनूं भी बन सकता है और उसकी बेटी पर अपना कब्ज़ा जता सकता है। सरबजीत अपना क्लेम दविंदर पर बनाने के लिए पिछली लम्बी-चौड़ी घटनाओं की तफ़सील देता। उनमें से बहुत-सी घटनाएँ उसकी गलतफहमी का परिणाम थीं। सरबजीत जाति का आहलुवालिया था और दविंदर कौर जट्टों की बेटी थी। इसलिए दविंदर के माता-पिता को यह बात बिलकुल भी स्वीकार नहीं थी कि उनकी बेटी किसी दूसरी जाति में ब्याही जाए। जब तक मैं शतराणे में रहा, सरबजीत और उस लड़की में तनाव बना रहा। मैंने सरबजीत को समझाने का बड़ा प्रयास किया, पर उसने मेरी एक बात न मानी। मैंने उसे यह भी कहा, ''वह लड़की तो तेरे साथ बोलने तक को तैयार नहीं और तू उसके संग विवाह करवाने को मछली की तरह तड़प रहा है। वो कहती है- थड़े पर न चढ़ना, तू कहता है- पूरा तेली हूँ। ऐसे कोई बातें बना करती हैं। यह कोई गुड्डे-गुड़िया का खेल है।'' पर सरबजीत था निरा चिकना घड़ा, उस पर बूंद पड़ी न पड़ी, एक बराबर थी।
जिस नर्स या वर्कर की कोई बात चलती, उसकी कहानी अक्सर हैडक्वार्टर पर पहुँच जाती। मैं सब-सेंटर में भी जाया करता था। नर्सें और दाइयाँ मेरा बहुत आदर किया करती थीं। मब्बी सब-सेंटर वाली नर्स शादीशुदा थी और उसका पति उसके पास पहरेदारों की तरह रहता था। घग्गा सब-सेंटर वाली एक नर्स को कुछ महीने पहले दो बदमाश उठाकर ले गए थे, यह कहकर कि उनमें से एक की घरवाली को बच्चा होना है। उन्होंने उस बेचारी नर्स को रात भर बहुत परेशान किया। खानेवाल और मोमिआं सब-सेंटरों की नर्सें मेरे उपस्थित होने के बाद आई थीं और थी भी बिलकुल नईं। एक नर्स और भी थी हैडक्वार्टर पर, फरीदकोट ज़िले की। मेरे शतराणा में निवास के दौरान कोई न कोई बात किसी के बारे में सुनने को मिल ही जाती, पर मैं अपने दिल से इस कीचड़ से बाहर रहने की ही कोशिश करता रहता।
सब-सेंटर की जब भी कोई नर्स शतराणे आती, वह मेरे या संधू के कमरे में भी आ जाती। पटियाला वाली एक नर्स जो खानेवाल सब-सेंटर में काम करती थी, वह तो अल्मारी में पड़े डिब्बे भी खंगालने लग पड़ती। अल्मारी के कपाट नहीं थे। मेरी माँ बड़ी सख्त नज़रों से देखती, खास तौर पर जब वह मेरा शेव वाला डिब्बा खोलकर क्रीम आदि मुँह पर मलने लगती। ऐसी हरकत उसने दो-चार बार मेरी उपस्थिति में भी की थी और एक बार मेरी अनुपस्थिति में भी। मेरी माँ उसे कहती तो कुछ नहीं थी पर उसकी इस हरकत को देखकर उसने चाय-पानी पूछना बन्द कर दिया था। माँ मुझे समझाती कि मैं कहीं इस लड़की के चक्कर में न फंस जाऊँ। माँ की चक्कर वाली बात अपनी जगह पर ठीक सिद्ध हुई। वह नर्स एक सर्वेलैंस वर्कर के साथ निकटता के संबंध बना चुकी थी और इस बारे में मुझे उस वर्कर ने बता दिया था। इसी कारण वह चाहती थी कि मैं उससे हँसकर बात किया करूँ और इस बात को ढकी रहने दूँ। मैं तो किसी की भी बात आगे-पीछे नहीं करता था। इस हमाम में तो अधिकांश नंगे ही थे। आख़िर मैं इस नर्स के चक्रव्यूह में समझो आ ही गया। यह तीसरी बिमला थी जिसने मुझे अपने व्यूह में लेने की कोशिश की।
एक बार उसे मेरे दौरे का पता था। वह पटियाला से आकर पातड़ां बस अड्डे पर खड़ी थी। मैं साइकिल पर था। पातड़ां में उसे मेरे ठिकाने का पता था। वहाँ आकर मैं एक अखबार वाले या एक हलवाई की दुकान पर पाँच-सात मिनट बैठा करता था। उसने मुझे नमस्ते की और इस तरह मुस्कराई जैसे उसे बहुत कुछ मिल गया हो। टूर के बारे में पहले ही पता होने के कारण वह जानती थी कि मैं खानेवाल होकर आगे भूतगढ़ जाऊँगा। खानेवाल उस दिनों कोई बस नहीं जाया करती थी और मैं उसे साइकिल के पीछे बिठाने से इन्कार नहीं कर सकता था। वैसे भी मैं आख़िर मर्द था। एक सुन्दर लड़की इस तरह निकटता बनाने की कोशिश करे, उस जाल से भला मैं कैसे बच सकता था।
पातड़ां से कुछ आगे जाकर उसने वो हरकतें शुरू कर दीं, जिसकी मुझे इतनी जल्दी उम्मीद नहीं थी। मेरी पीठ पर वह अपनी उंगलियाँ फिराने लगी। पहले जब मैंने उसे रोका तो उसका जवाब था कि मुझे भ्रम हुआ है, पर जब मैंने पीछे की ओर अपना हाथ किया तो उसने मेरा हाथ पकड़ लिया। मैं सड़क के दोनों तरफ भी देख रहा था और सामने भी। शायद वह इस बात से चौकस थी। उसने मुझे कहा कि वह इतनी पागल नहीं कि राही के होते कोई शरारत करे। शरारत करने वाली बात उसने अपने मुँह से मान ली थी।
गाँव आने से कुछ गज़ पहले मैंने उसे साइकिल से उतार दिया था। मैं उसके सब-सेंटर पहुँच गया था। जिस घर में यह सब-सेंटर था, वह एक हॉकी के खिलाड़ी का घर था जो अब ज़िन्दगी की शाम बिता रहा था। मैं पहले भी उससे दो बार मिल चुका था, जिस कारण मेरा वहाँ पहुँचना कोई परायी बात नहीं थी। कुछ मिनट बाद बिमला भी पहुँच गई। उसने मुझे नमस्ते कहा और इस तरह प्रकट किया कि पहले वह मुझे मिली ही नहीं। ''लड़की, गोयल साहब ने तेरी गैर-हाज़िरी लगा देनी थी। टैम से आया कर। ये अफ़सर अच्छे हैं। हमारे ज़माने में तो अफ़सर आँख फड़कने नहीं देते थे। और फिर बच्ची, ड्यूटी ड्यूटी होती है।'' बुजुर्ग़, बुजुर्ग़ों वाली नसीहत दे रहा था और वह इस तरह खड़ी थी मानो सचमुच उससे बहुत बड़ी गलती हो गई हो। उसे हर किस्म का नाटक रचना आता था।
परिवार नियोजन के जिन दो केसों को हमने 'कन्विंस' करने जाना था, चाय पीने के बाद हम दोनों उस तरफ चल दिए। राह में प्रोग्राम यह बना कि भूतगढ़ की वापसी के बाद रात मैं उसके पास ठहरूँ। हालांकि मैं अपनी माँ को भी कह आया था और संधू को भी कि अगर भूतगढ़ से वापस नहीं लौटा गया तो अगले दिन सवेरे आऊँगा। शतराणे से भूतगढ़ 18-20 किलोमीटर दूर था और जोगेवाल से सात-आठ किलोमीटर की दूरी पर।
दोपहर की रोटी खाकर मैं अपने टूर के लिए तैयार हो गया। सरदार साहब ने स्वयं ही कह दिया कि लौटते समय मैं उनके पास रात में रुकूँ। इसलिए मेरा वहाँ रात में रुकना और आसान हो गया।
दिन छिपने से पहले मैं खानेवाल आ गया था। अंधराते के कारण मैं कभी भी बाहर अकेला दिन छिपने के बाद नहीं रहा था। यह घर भी मेरा देखा-परखा था। रोटी खाने के बाद बैठक में मेरा बिस्तर लगा दिया गया। अगर दूसरी चारपाई डालते तो सामने दरवाजा था। सर्दी होने के कारण सरदार साहब अपनी सबात में पड़ गए और जिस बैठक में मेरा बिस्तर लगाया गया था, वह असल में बिमला का कमरा था। वहीं अल्मारी में कुछ दवाइयाँ, कंडोम की डिब्बियाँ और उसका अपना बहुत-कुछ छोटा-मोटा सामान पड़ा था। सरदार साहब और मैं देर रात तक बातें करते रहे। वह अपनी खेल जीवन की और मैं अपने साहित्यिक और पारिवारिक जीवन की बातें करता रहा। उन दिनों मैंने साहित्य लिखना और पढ़ना बहुत कम किया हुआ था। बिमला ने सवेरे उठकर मुझसे माफी मांगी कि वह रात में नहीं आ सकी। साथ ही, उसका कारण भी बताया। मैं भी ऐसे माहौल में उससे कोई आस नहीं रखता था। मुझे अपनी इज्ज़त प्यारी थी, बहुत प्यारी। वैसे भी पहल उसकी थी, मेरी नहीं थी। लेकिन हम दोनों आपस में इतना खुल गए कि मैंने उसे अपनी माँ की भावनाओं से परिचित करवा दिया था। इसलिए वह जब भी दुबारा मेरे कमरे में आई, उसने किसी चीज़ को हाथ नहीं लगाया था। आकर मेरी माँ के साथ काम करवाती। मेरी माँ को वह कभी रोटी पकाने न देती। दो बार तो वह मेरी माँ के और मेरे कपड़े भी धो गई थी। पर मैंने कभी भी दुबारा खानेवाल रात नहीं बिताई थी। उसे भरोसा भी दे दिया था कि उसकी धर्म चन्द के साथ जो बातचीत है, मैं किसी को नहीं बताऊँगा। शायद वह यही चाहती थी। सी.एम.ओ. का एक ड्राइवर और हमारे दफ्तर के बाऊ जी एक नर्स जिसका नाम शायद पाल था, के साथ कई बार हैल्थ सेंटर के गैराज में ही मोर्चा लगा लेते। वे सबकुछ मुझे बता देते और संधू साहब ने इस यज्ञ में आहुति डालने की पेशकश भी की, पर मुझे पाल किसी भी तरह से अच्छी नहीं लगती थी। बिमला की अगर उस सर्वेलैंस वर्कर से बातचीत न होती तो शायद मैं उसकी ओर हाथ बढ़ाता।
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जैसा कि मैं पहले बता चुका हूँ, मेरा मुख्य काम परिवार नियोजन के प्रचार-प्रसार और उसकी सफलता से जुड़ा हुआ था। सिविल अस्पतालों, हैल्थ सेंटरों और सब-सेंटरों में कंडोम उन दिनों भी मुफ्त दिए जाते थे और अब भी। लेने वालों की कोई पड़ताल नहीं की जाती थी। अक्सर विवाहित स्त्री-पुरुष ही कंडोम लेने आते। इस तरह का जितना अधिक सामान लगता, उतना ठीक था पर असली ज़ोर इस काम पर दिया जाता था कि अधिक से अधिक नसबंदी और नलबंदी के ऑपरेशन करवाए जाएँ। उन दिनों में आज के कॉपर-टी की की तरह जो गर्भ-निरोधक उपाय इस्तेमाल किए जाते थे, उसे आई.यू.सी.डी. अर्थात इंटरा यूटरिन कांट्रासैप्टिव डिवाइश या आम भाषा में इसे लूप रखना भी कहा जाता था। कंडोम कितने भी लगते, उन्हें कर्मचारी की सफलता का पैमाना नहीं समझा जाता था। ओरल पिल्ज़ उन दिनों अभी प्रचलन में नहीं आई थीं। सबसे अधिक अहमियत नसबंदी को दी जाती थी। जिसमें मर्द का ऑपरेशन किया जाता जिससे उसके सीमन में से स्पर्म आने बन्द हो जाते थे। मर्द के स्पर्म और स्त्री के ओवम के मेल से औरत गर्भ धारण करती है। नसबंदी को छोटा ऑपरेशन समझा जाता था और हर सरकारी एम.बी.बी.एस. डॉक्टर को इस ऑपरेशन को करने की बाकायदा शिक्षा दी जाती थी। इस ऑपरेशन के लिए पोस्ट ग्रेज्यूएशन डिग्री अर्थात एम.एस. (सर्जन) की ज़रूरत नहीं थी। अब भी नसबंदी करने के लिए एम.बी.बी.एस. डॉक्टर योग्य समझे जाते हैं। नलबंदी औरत का मेजर ऑपरेशन है। यह ऑपरेशन पोस्ट ग्रज्यूएट सर्जन या स्त्री रोगों की विशेषज्ञ एम.डी. डॉक्टर करते थे, उन दिनों भी और अब भी। इसलिए सरकार की ओर से हमें हिदायत थी कि हम नसबंदी और नलबंदी पर ही ज़ोर दें। इन दोनों ऑपरेशनों को आबादी घटाने या रोकने का पक्का काम समझा जाता है। नसबंदी के कैम्प हैल्थ-सेंटर या सिविल अस्पताल में दो-तीन महीने बाद लगते ही रहते थे। जब तारीख सुनिश्चित हो जाती, हम पूरी तरह इस ओर जुट जाते। सब कर्मचारी- खासतौर पर नर्सें, एल.एच.वी., सैनेटरी इंस्पेक्टर, डॉक्टर और सबसे अधिक हैल्थ एजूकेटर व्यस्त हो जाते। हर कर्मचारी के लिए कोटा तय कर दिया जाता। हैल्थ एजूकेटर के लिए यद्यपि कोटा कुछ नहीं था पर कैम्प की सफलता की सारी जिम्मेदारी उसके सिर पर होती क्योंकि वह सारे ब्लॉक में एकमात्र कर्मचारी माना जाता था जिसके जिम्मे पूरा परिवार नियोजन का काम होता था। मुझे अच्छी तरह स्मरण है कि मेरे शतराणे में नौकरी के दौरान एक नसबंदी ऑपरेशन कैम्प समाणा और एक शतराणा में लगा था। केस लाने, उन्हें पैसे देने और जीपों पर बिठाकर उन्हें घर तक छोड़ कर आना, यह सारा काम मेरी निगरानी में हुआ था। लोगों को समझाने के लिए पंचायतों, बी.डी.ओ. स्टॉफ और पटवारी आदि सबकी मदद ली जाती थी। कैम्प की कामयाबी के लिए फिरकी की तरह घूमना पड़ता था। कम से कम एक हफ्ता तक सिर खुजलाने की भी फुर्सत नहीं होती थी। ऊपर से बड़े अफ़सरों की चेतावनियाँ सुननी पड़तीं और नीचे से अपने विभाग की भी तथा अन्य विभागों के उलाहने भी सुनने को मिलते। ऑपरेशन करने के लिए बाहर से आने वाले डॉक्टरों के चाय-पानी और उनके मान-सम्मान के प्रति भी चौकस रहने की मेरी ही जिम्मेदारी थी। शतराणा वाले कैम्प में हमने कोटा पूरा कर लिया था। कारण यह था कि शतराणे के आस पास हमारे चार सब-सेंटर थे। नर्सों ने अपनी जगह भागदौड़ की और बाकी कर्मचारियों ने अपनी जगह। मैंने अपने विभाग के कर्मचारियों को यह प्रकट करने की कोशिश की कि मेरा काम सिर्फ़ प्रचार-प्रसार करना है, केस लाना उन कर्मचारियों की ड्यूटी है जिनका इलाज के किसी न किसी क्षेत्र से संबंध है। हालांकि मैं अन्दर से समझता था कि कम काम होने से, सी.एम.ओ. और राज्य स्तर के अफ़सरों की ओर से खिंचाई मेरी ही होनी है।
समाणा ब्लॉक में लाल तिकोन के प्रचार में कोई कसर नहीं छोड़ी गई थी, पर सिविल अस्पताल समाणा में लगे नसबंदी के कैम्प ने हमारा नाक में दम कर दिया था। बड़ी कठिनाई से 11 केस तैयार किए थे। दो केस ऐसे आए कि ऑपरेशन करवाते समय बिफर गए। ये दोनों केस मैंने तैयार किए थे। उनमें से एक व्यक्ति ऐसा था जो घर से यह सोच कर आया था कि उसने ऑपरेशन करवाना ही नही। उसे काफी समय से खांसी थी और उसने खांसी की दवाई लेने के लिए ही जीप का फायदा उठाया था। मैंने भी उससे खांसी की दवाई देने का वायदा किया था पर उसने आते ही पर्ची बनवाने और खांसी की दवा लेने की रट लगा दी। मैं उसकी चालाकी समझ न सका। मैंने उसे गोलियाँ भी दिला दीं और उसका अधिया खांसी की दवाई से भी भरवा दिया। इस दवाई को उन दिनों चौदह नंबर मिक्सचर कहा करते थे। दवाई लेते ही वह गेट से बाहर निकल गया। हमने उसे राह में जाकर घेर लिया पर किसी को मज़बूर तो नहीं किया जा सकता था। उसने नहीं मानना था और न ही वह माना। हमें ठग कर ये गया, वो गया। मुझे बहुत निराशा हुई।
दूसरे केस में ऑपरेशन करवाने वाला सरदार कहे जा रहा था कि वह रोमां की बेअदबी नहीं होने देगा। मुझे इस भाषा की समझ थी। मैंने डॉ. जैन को सारी बात समझाई। डॉक्टर साहब ने उसे भरोसा दिलाया कि उस का ऑपरेशन बाल काटे बिना ही कर दिया जाएगा। मुझे नहीं पता कि वह ऑपरेशन कैसे किया गया, पर ऑपरेशन हो गया था और मरीज़ संतुष्ट था।
दोनों कैम्पों के बाद मैंने लगभग हर मरीज़ के घर घर जाकर उनकी जानकारी ली। समय से टांके कटवाने का प्रबंध किया। जिन केसों को और दवाई की ज़रूरत थी, उन्हें और दवाई उपलब्ध करवाई। यहाँ तक कि इन मरीज़ों के परिवार की ख़ैर-ख़बर भी पूछी। जब नसबंदी केस करवाने वाला कोई पुन: मिलता, मैं दौड़कर उसके साथ बात करने लगता। घर-परिवार की खैर-ख़बर पूछता।
तीसरा कैम्प जो बहुत ही सफल रहा, वह था शतराणे का लूप कैम्प। इस कैम्प में तीन लेडी डॉक्टरों को बुलाया गया था, पर केसों की तो जैसे बाढ़ ही आ गई हो। दोपहर से कुछ समय पहले पटियाला में सन्देशा भेज कर दो और लेडी डॉक्टरों को बुलाया गया। पाँच सौ से अधिक लूप फिट किए गए। ज़िला पटियाला में ही नहीं, इस कैम्प की धूम सारे पंजाब में पड़ गई थी। कैम्प वाले दिन एक चक्कर और पड़ गया। मेरे बहन तारा जनेपे के लिए आई हुई थी। पहले उसके दो बेटियाँ थीं। दूसरा मेरे जीजा जी का स्वभाव कुछ सख्त होने के कारण हमें यह डर था कि अगर फिर लड़की हो गई तो बहन का जीना तो इस घर में कठिन हो जाएगा। तारा को दोपहर से कुछ समय पहले तकलीफ़ हुई थी। आई तो वह इसलिए थी कि अस्पताल में डिलीवरी में कोई कठिनाई नहीं आएगी, पर उस दिन कैम्प के कारण अस्पताल में तिल रखने की जगह नहीं थी। हाँ, पाँच लेडी डॉक्टर और एक दर्जन नर्सें अवश्य उपस्थित थीं। जीपें चीलों की भांति घूम रही थीं। हैल्थ सेंटर के नज़दीक दवाई की कोई दूकान नहीं थी और पिचुरिटी के इंजेक्शन की ज़रूरत थी। यह इंजेक्शन हैल्थ-सेंटर में भी नहीं था। मैं स्वयं टीका लेने के लिए पातड़ां की तरफ जाने की तैयारी कर ही रहा था कि शमशेर सिंह ड्राइवर वाली जीप आ गई। मेरे बताने पर वह कहने लगा, ''वाह गोयल साहब, हम किसलिए हैं ?'' पर्ची लेकर उसने जीप पीछे मोड़ ली और बीस मिनट में टीका उसने मेरे हाथ में ला थमाया। मब्बी वाली नर्स जो बहुत अनुभव वाली थी और शान्ति दाई को डॉक्टर ने पहले ही घर भेज दिया था। टीका लगाया, आधे-पौने घंटे बाद काका जी ने अवतार लिया। आस पड़ोस में भी और सारे अस्पताल में भी खुशी की लहर दौड़ गई। डॉक्टर साहब कहते रहे, ''भई आज तो गोयल साहब का दिन है। कैम्प की शानदार कामयाबी और बहन जी के बेटा, भई बस कमाल हो गया।'' चारों ओर से बधाई ही बधाई की आवाज़ें सुनाई दे रही थीं। बाहर से आए स्टाफ को मिठाई खिलाने का काम पता नहीं किसने किया। पाँच-साढ़े पाँच तक सारा काम निपट गया। दिन छिपने से पहले गवैयों की एक टोली पता नहीं कहाँ से आ गई। सड़क के दूसरी तरफ नाचने-गाने का सिलसिला शुरू हो गया। संधू, शुक्ला, दरियाई मल, बख्शी - सबके परिवार इस तरह खुश थे मानो खुशी उनके घर ही आई हो। ऊपर का सारा काम दरियाई मल की घरवाली राज राणी ने संभाला हुआ था। मेरे लिए शतराणे की नौकरी के दौरान यह सबसे अधिक खुशी का दिन था- 29 अक्तूबर 1965 । अब इस काके का नाम अनुपम कुमार है, रामपुरा फूल में उसकी दवाइयों की दुकान इतनी बढ़िया चलती है कि सारा परिवार खुश है।
अनीता और बबली बेटा होने पर उछलती घूम रही थीं। बबली की शान जैसे बढ़ गई हो। उसके बाद ही लड़के का जन्म हुआ था। बबली का असली नाम अचला था। मेरी बड़ी बहन चन्द्रकांता के दोनों लड़कों के नाम भी 'अ' पर थे- आदर्श और अनूप। इसीलिए मेरी इस छोटी बहन तारा ने भी अपनी दोनों बेटियों के नाम भी 'अ' पर ही रखे हुए थे। हमने इसीलिए इस काके का नाम रखा - अनुपम। हमारे लिए इसके जन्म एक अनुपम घटना थी। हमारी तो बहन की इस बेटे के जन्म से ही कद्र बढ़नी थी। सचमुच इसका फ़र्क भी पड़ा। उन दिनों टेलिफोन आम नहीं होते थे। सो, मैंने तपा मंडी में अपने भाई और रामपुराफूल में जीजा जी को पत्र लिख दिए। शायद दो चिट्ठियाँ और लिखीं- एक मालेरकोटले और दूसरी सल्हीणे। मालेरकोटले तारा से बड़ी चन्द्रकांता रहती थी और सल्हीणे में बड़ी बहन शीला।
मदल लाल जी कुछ दिनों बाद आए। उनके पास घी की पीपी थी, चार सेर घी से भरी हुई पीपी। एक बादाम की गिरियों का भरा हुआ लिफाफा था और बहुत कुछ छोटा-मोटा सामान और था। बहन के ससुराल में पंजीरी बनाने वाला कोई भी नहीं था। बेचारी दादी सास तो पूरी तरह अपने योग्य भी नहीं थी। इसलिए जीजा जी सूखा सामान ही ले आए थे। वे जानते थे कि मेरी माँ स्वयं किसी बहन को बुलाकर पंजीरी बनवा लेगी। हम खुद भी चार सेर घी ले आए थे। उस दिनों शतराणे के इलाके में पाँच रुपये सेर घी मिलता था और मिलता भी बिलकुल खरा था।
मैंने कभी भी मदन लाल जी को इतना खुश नहीं देखा था। हालांकि हमारे इस कमरे की तुलना जीजा जी के बढ़िया लेंटर वाले मकान से नहीं की जा सकती थी, कहाँ राजा भोज और कहाँ कंगला तेली। पर फिर भी जीजा जी ने उस कमरे में चारपाई पर बैठ कर ही नाश्ता किया और दोपहर की रोटी भी खाई और जिस तरह की खुशी उनके चेहरे पर झलकती थी, उसका कोई पारावार नहीं था।
(जारी…)
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