समकालीन पंजाबी साहित्य की उत्कृष्ट कृतियों की तलाश

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Wednesday, March 24, 2010

आत्मकथा




एक नेत्रहीन लेखक की आत्मकथा

धृतराष्ट्र
डॉ. एस. तरसेम
हिन्दी अनुवाद : सुभाष नीरव
चैप्टर-7(प्रथम भाग)


जीना पहाड़ों का जीना

माँ और भाई मेरी बेसब्री से प्रतीक्षा कर रहे थे। मुझे अच्छी तरह याद है कि माँ दहलीज में खड़ी थी और मेरे अन्दर प्रवेश करने से पहले भाई भी ड्यौढ़ी में आ गया था। भाभी ने भी मेरे पैरीं-पैणा (चरण-स्पर्श) को मुस्कान के साथ स्वीकार किया था। ऊषा के लिए मैं जैसे मुद्दत के बाद लौटा होऊँ। सब मुझसे जोवड़ की कहानी सुनने के लिए उतावले थे। जब मैंने बताया कि यह जोवड़ नहीं, अम्ब और नहिरी से आगे एक पहाड़ी गाँव जुआर है तो माँ ने झट कह दिया :
''अच्छा, अच्छा ! जुआर की हट्टियाँ। जब हम दो बार तेरे चाचा के साथ लाटांवाली गए थे न, तो हमने पहला पड़ाव जुआर की हट्टियों पर ही किया था।'' फिर माँ ने पैदल और खच्चरों पर की होशियारपुर से बरास्ता जुआर, ज्वालामुखी(लाटांवाली), चिंतपुरनी, कांगड़ा आदि सभी जगहों की यात्रा से संबंधित अपने अनुभव दो चार मिनट में ही हम सबसे साझा किए। ऊषा, सरोज, सुरेश और नरेश - सभी इस उम्मीद में थे कि चाचा हमारे लिए कोई चीज़ लाया होगा, पर मैं तो खाली हाथ आ गया था। माँ ने समझाया कि इतनी लम्बी यात्रा के बाद घर में खाली हाथ नहीं घुसा करते, आगे से ध्यान रखना। बच्चों की तरफ इशारा करते हुए माँ ने और भी बहुत कुछ कहा था जो मुझे अब पूरी तरह याद नहीं है। जो कुछ जाते समय घटित हुआ था, जोवड़ और जुआर की कहानी को छोड़कर, मैंने अपनी ओर से सब अच्छा बना कर बताया था। नहिरी रैन-बसेरे के समय के तनाव का मैंने बिलकुल भी जिक्र नहीं किया था। शायद यही कारण था कि मेरी आँखों की किसी तकलीफ़ का अभी तक न माँ को और न ही भाई को कुछ पता था। मैं ऐसा क्यों करता रहा, इस विषय में मेरे पास कहने के लिए कुछ भी नहीं है।
दीवाली हमने अच्छी मनाई थी। सर्दियों का बिस्तरा और ट्रंक में कपड़ों के अलावा ज़रूरत मुताबिक बर्तन रख कर दीवाली के दो दिन बाद मैं फिर धुरी वाली गाड़ी चढ़ गया था। होशियारपुर का भरवाईं अड्डा अब मेरे लिए अनजाना नहीं था। बस भी इस बार सीधी जुआर पहुँच गई थी। दो लड़कों और परसे की आवाज़ें मेरे कानों में पड़ने के साथ ही मेरा सारा तनाव खत्म हो गया था, क्योंकि अब मुझे अंधेरे की कोई चिंता नहीं थी। एक लड़के ने ट्रंक और दूसरे ने बिस्तरा कंधे पर रख लिया था। परसे को जब मैंने पंडित परस राम कह कर बुलाया तो मेरे कानों में पड़ी उसकी हँसी मुझे अभी तक याद है। उसकी दायीं टांग कम काम करती थी। मैं उसके बायें कंधे पर हाथ रख कर चल दिया जैसे कोई दो दोस्त किसी मुहब्बत की रौ में आकर चल रहे हों। जौंढ़ू हलवाई की दुकान जो बस का अड्डा भी थी, से स्कूल का ग्राउंड मुश्किल से पचासेक गज की दूरी पर होगा और जिस सावतीं कक्षा के कमरे में मेरा ठिकाना था, वह कोई सत्तर-अस्सी गज दूर होगा। मैंने अपनी आँखों की कमजोरी परसे और लड़कों को ज़ाहिर नहीं होने दी थी। लड़कों और परसे से मुझे ज्ञात हुआ कि वे कल भी बस अड्डे पर मुझे देखने आए थे।
चारपाई सातवीं कक्षा के कमरे में पहले ही बिछी पड़ी थी। लड़कों को समझाने पर उन्होंने मेरा बिस्तरा खोल कर बिछा दिया। किशनू रसोइया भी मेरी हाज़िरी लगा गया था। सेकेंड मास्टर सुरिंदरपाल भी मिलने आया और हॉस्टल में रहने वाले विद्यार्थी भी। पता चला कि बाजवा अभी नहीं आया था। सो, मेरी दीवाली के बाद की तीन दिन की छुट्टी जो मुझे आते समय खुद भी बहुत चुभ रही थी, की चुभन कुछ हद तक कम हो गई थी। सुरिंदरपाल जिस अपनत्व के साथ मिला, वह एक ऐसा रिश्ता था जो जुआर-वास के अन्तिम दिन तक बा-वफ़ा रहा।
मुख्य अध्यापक शर्मा जी मुझे देखकर जैसे हरे हो गए। स्कूल लगने की घंटी से दस-पंद्रह मिनट पहले आ जाने के कारण वे मुझसे घर का हालचाल इस तरह पूछते रहे जैसे वे मेरे अपने ही हों। मैंने पुन: अपने रैन-बसेरे की समस्या दुहरा दी। मुझे यह बात कतई अच्छी नहीं लगती थी कि मैं किसी कक्षा के कमरे के एक कोने में अपना बिस्तर लगा कर सोऊँ। सवेरे मैं अपना बिस्तर उठाऊँ या उठवाऊँ और मेरा ट्रंक-बिस्तरा सेकेंड मास्टर और बाजवा के कमरे में धूल चाटता रहे। यही कारण था कि उन्होंने मुझे उसी दिन गुरबख्श के साथ उसके घर भेज दिया। गुरबख्स का बड़ा भाई उन दिनों जालंधर में किसी दफ्तर में नौकरी करता था। घर यद्यपि स्कूल से ढाई-तीन मील की दूरी पर था, पर जिस कमरे की मुझे पेशकश की गई, वह बहुत अच्छा था। अंग्रेजी के अक्षर 'एल' की तरह मकान बना हुआ था। पहले एक बड़ा-सा कमरा, फिर वह कमरा जो मुझे दिया जाना था और उसके साथ ही एक बड़ी-सी रसोई। दूसरी ओर बड़े कमरे से भी कहीं अधिक सुन्दर और बड़े कमरे थे। तीन तरफ़ आसपास सात-आठ फीट ऊँचा स्थान, बड़े कमरे के बिलकुल सामने से जाता एक रास्ता जो ढलान के रूप में एक अन्य राजपूत परिवार के घर को जाता था। घर के पिछवाड़े दायें हाथ ऊँची जगह पर दो और कमरे थे जिनमें से एक में पशु बांधे जाते थे और दूसरा भूसे और चारे आदि के लिए था जैसा कि मैदान में अनाज और भूसे वाले कोठे हुआ करते हैं। इन सभी कमरों की छतें स्लेटों के स्थान पर खपरैलों वाली थीं। बाद में पता चला कि ये खपरैल कच्ची मिट्टी को पाथ कर छोटे-छोटे आवों में पकाई जाती थीं। इन्हें एक-दूसरे से इस प्रकार जोड़कर रखा जाता था कि भारी आंधी-बरसात में भी ये गिरती नहीं थीं। इन सभी कमरों की छतें भी स्कूल की छतों की तरह ढलानदार थीं। इन छतों के नीचे आवश्यकता पड़ने पर एक या दो कमरों में या फिर खाते-पीते परिवार वाले घर के सभी कमरों में लक्कड़ की छतें डलवा लेते थे। राम सिंह के घर के एक कमरे में ही लक्कड़ की इस तरह की छत थी जिसमें एक ऊँचा रंगीला पलंग बिछा हुआ था। यह गुरबख्स के पढ़ने वाला कमरा था।
रात में हुई खातिर-सेवा, साफ-सुथरा कमरा और राम सिंह और गुरबख्स की बोल-बाणी ने मेरे मन को यहाँ टिक जाने के लिए मानो मना लिया हो। ढाई-तीन मील के आने-जाने की दूरी मुझे खटकती नहीं थी। सवेरे आठ-साढ़े आठ स्कूल के लिए चल देना। गुरबख्स, छठी कक्षा में पढ़ने वाली उसकी बहन कला, चौथी जमात में पढ़ने वाला काका और दूसरी में पढ़ने वाली कृष्णा भी संग ही जाते। प्राइमरी में पढ़ने वाले ये दोनों बच्चे मेरे स्कूल के साथ ही लगने वाले प्राइमरी स्कूल में जाते थे। मुझे कमरा पसन्द आ जाने पर मुख्य अध्यापक को बड़ी तसल्ली हुई होगी। पूरी छुट्टी के बाद गुरबख्स एक छोटे-से कद वाले अपने एक दोस्त को संग लेकर मेरा ट्रंक और बिस्तरा अपने घर ले गया। राह में जो पाँच-सात घर आए, वे सब तरखाणों (बढ़ई) के घर थे। उनका भी एक लड़का स्कूल में पढ़ता था। कहने को तो यह जुआर से अलग एक गाँव था जिसे लाहड़ कहते थे, पर इसे जुआर की ही एक अगवाड़ या पत्ती समझो। पंचायत भी वही, डाकखाना भी वही, बस-अड्डा भी वही और खरीद-फरोख्त के लिए जुआर की दुकानें भी वही। बस, पास में एक सौदे की दुकान थी जहाँ ज़रूरत के समय सौदा लिया जा सकता था। राम सिंह के घर से पहले जैसे तरखाणों के घर आते थे, वैसे ही दो घर कहीं, चार घर कहीं और पाँच-सात कहीं - इस तरह लाहड़ बसा हुआ था। राह में एक ऊँची जगह पर जट्टों का एक घर भी था। यह मोने पहाड़ी जट्ट पंजाब के जट्टों जैसे नहीं थे, बेशक होशियारपुर ज़िले की यह अर्द्ध पहाड़ी ऊना तहसील, ज़िला-कांगड़ा और कुल्लू भी पंजाब का ही हिस्सा थे। ब्राह्मणों को छोड़ कर सबके नामों के पीछे 'सिंह' लिखा जाता, पर उनमें से केशधारी कोई नहीं था। अधिकांश घर पहाड़ी राजपूतों के थे। उनकी स्त्रियों के नामों के पीछे हिन्दू नामों की तरह रानी, देवी आदि लगाया जाता।
बोली मैं सब समझने लग पड़ा था, पर स्वयं बोलते समय मुझे बड़ी झिझक होती। वैसे इस परिवार में रह कर मेरा मन लग गया था। रोटी मैं उनके परिवार में ही खाया करता। अंदाजे से ज़रूरत से भी अधिक राशन मंगवा देता ताकि मैं उन पर बोझ न समझा जाऊँ। दो-तीन समय की चाय स्टोव पर गुरबख्स बना देता और रात का दूध भी। घर में गुरबख्स को बंता कहते थे, सो मैं भी उसे बंता कह कर ही बुलाने लग पड़ा था। अगर बंता इधर-उधर गया हुआ होता तो चाय हमीरा या लक्ष्मी बना कर दे देती। हमीरा ब्याही हुई थी, गोद में उसके लड़की थी। लक्ष्मी कुआंरी थी, उसकी उम्र शायद 17-18 वर्ष हो, टब्बर में सबसे सुन्दर और मृदुभाषिणी! बंते को छोड़कर वे सभी भाई-बहन मुझे 'भाई जी' कह कर बुलाते। हमीरा और बंता अक्सर मुझे मास्टर जी कहकर बुलाते। लक्ष्मी भी कभी मास्टर जी कहकर बुला लेती। बहुत सुन्दर होने के कारण उसका रूप आकर्षित करने वाला था। छल-कपट से मुक्त उसकी बोली-बाणी ने मुझे कील लिया था। राम सिंह को मैं प्रधान जी कहता और कभी बंते की तरह चाचा कहकर बुलाता और कभी बब्ब(पिता)। बंते की माँ को मैं माँ जी कहता। हफ्ते-दस दिन के अन्दर मैं परिवार में इस प्रकार घुलमिल गया था मानो मुद्दतों से यहीं रह रहा होऊँ। स्कूल से छुट्टी होती तो हाज़िरी लगाकर बंते के संग सीधा घर आता।
एक सेर देसी घी लेकर मैंने अपने कमरे में रख लिया था। उस समय यह घी साढ़े चार या पाँच रुपये सेर मिलता था। मैंने शायद यह एक सेर घी बंते की ताई से लिया था और उसने मेरे से चार रुपये लिए थे। दोनों समय दाल-सब्ज़ी में घी डालकर रोटी खूब स्वादिष्ट लगती। पर उनकी रोटी-सब्ज़ी का स्तर हमारे घर जैसा नहीं था। सब्ज़ी शायद उन्होंने कभी मोल की ली ही नहीं थी। घर में बोई अरबी और एक दो अन्य सब्ज़ियाँ ही अक्सर बनतीं या दोनों समय माह की दाल। घी और अपनी इच्छानुसार नमक-मिर्च डालने के बाद रोटी स्वाद से खायी जाती। लेकिन एक बढ़िया बात यह थी कि जिस देसी घी के लिए मैं घर में तरसा करता था, वह घी खाने की यहाँ मुझे पूरी छूट थी। पीले रंग का यह घी नाटे कद की पहाड़ी गायों का था। घी में ज्यादा पीलापन गायों द्वारा हरड़ा (बहेड़ा) खाने के कारण आ जाता। यह पीलापन दूध में भी था। शाम को एक सेर दूध लेता- पाँच आने सेर। आधा दूध मैं रात में पी लेता। बंते को भी दूध पीने के लिए कहता पर उसने दूध कभी पिया नहीं था। सुबह के समय चाय पीता और बचे हुए दूध की चाय हम स्कूल से लौटने के बाद बनाते। उस वक्त बंते को चाय मैं जबरन दे ही देता। वैसे पहाड़ी लोग चाय कम ही पीते थे। आए-गए मर्द मेहमान के लिए वे चाय के स्थान पर पहले हुक्का पेश करते। राम सिंह स्वयं भी अक्सर हुक्की पीता। पंजाब में चाय, यू.पी. में पान और यहाँ पहाड़ों में हुक्का पेश करना मेहमान नवाज़ी का चिह्न तब भी था, अब भी है।
स्कूल में दिसम्बर की छुट्टियाँ होने से पहले पहले मैं सब अध्यापकों और विद्यार्थियों में घुलमिल गया था। दीवाली की छुट्टियों के बाद यह बात साफ हो गई कि हैड मास्टर सारा काम राम नाथ की सलाह से किया करता है। राम नाथ स्कूल का क्लर्क भी था और अध्यापक भी। निचली कक्षाओं के कुछ पीरियड पढ़ाने के अलावा दफ्तर का सारा काम राम नाथ ही करता। राम नाथ स्कूल की कमेटी का विश्वासपात्र भी था और हैड मास्टर का भी। अधिकांश पहाड़ी अध्यापक हैड मास्टर से अधिक राम नाथ से डरते, पर राम नाथ सेकेंड मास्टर और मेरी बड़ी कद्र करता। दफ्तर के कई काम भी वह मुझसे पूछ कर करने लग पड़ा था। जब हैड मास्टर और राम नाथ को यह मालूम हुआ कि तबादला होकर आया नया डिप्टी सी.ई.ओ. (उप मंडल शिक्षा अधिकारी) गुरबचन सिंह दीवाना मेरा ख़ास-उल-ख़ास है, हैड मास्टर और राम नाथ दोनों ने ही मेरे आगे-पीछे कुछ अधिक ही घूमना आरंभ कर दिया। उन दिनों में इस स्कूल के टेक-ओवर करने का केस चल रहा था और दीवाना साहब ने पड़ताल के लिए आना था। हैड मास्टर के लिए गुरबचन सिंह दीवाना जैसे भगवान हो, लेकिन मेरे गुरबचन सिंह दीवाना के साथ भाइयों संबंध वाले थे। वह दस वर्ष से अधिक मेरे गाँव शहिणे हाई स्कूल का मुख्य अध्यापक रहा था और हमारी हवेली उसके पास बारह रुपये महीना किराये पर थी। किराया वसूलने के लिए तपा मंडी से अक्सर माँ के साथ मैं ही जाता था। अव्वल तो किराया वह आते-जाते किसी व्यक्ति के हाथ भेज देता था। अगर दो तीन महीने पिछड़ जाता तो माँ किराया लेने चली जाती। माँ को वह और उसकी पत्नी चाची कहकर बुलाते थे। बड़ा आदर-मान करते। एक बार जब उसे किसी ने यह बताया कि मालिक उससे हवेली खाली करवाना चाहते हैं, क्योंकि उन्हें भय है कि हैड मास्टर हवेली पर कब्ज़ा न कर ले, तो उसने माँ से कहा था-
''चाची, मुझे हरबंस और तरसेम समझ। जब बदली होगी तो चाबी खुद तपे देकर आऊँगा।'' वह अपने वचनों पर बिलकुल पूरा उतरा था। बदली होने पर उसका सन्देशा आया और हम माँ-बेटा चाबी लेने गाँव चले गए। दो महीनों का किराया बकाया था। उसने जब किराया देने की बात की तो मेरी सयानी माँ ने बड़े अपनत्व के साथ कहा-
''गुरबचन सिंह भाई, हरबंस ने कहा है कि किराया और नहीं लेना। अपने घर की तरह संभाल कर रखा है तूने हवेली को। जीता-बसता रह, तरक्कियाँ हों।'' माँ के मेरी उपस्थिति में कहे इन शब्दों के साथ गुरबचन सिंह दीवाना से हमारा रिश्ता और भी गहरा हो गया था। यह सारी बात मैंने हैड मास्टर और राम नाथ को बताई थी। दिसम्बर की छुट्टियों के बाद मैं माँ को संग ले आया। माँ को यह सोचकर संग लेकर आया था कि जितने दिन मैं बाहर रहूँगा, वह चार दिन अच्छे काट लेगी। लेकिन भाई से मैंने कहा था कि मुझे रोटी-सब्ज़ी की दिक्कत होती है और जिस घर में मैं रहता हूँ, उनके हाथ की पकी रोटी में मुझे अधिक स्वाद नहीं आता। अपनी अपनी जगह दोनों बातें ठीक थीं। माँ बहुत खुश थी। उसने कपड़े-लीडे, बर्तन-भांडे और रसोई के अन्य सामान के साथ-साथ अपनी पूजा वाला बस्ता भी ले लिया था। माँ को देख कर राम सिंह का सारा टब्बर बहुत खुश हुआ। सबने माँ के चरण छुए। माँ ने सबको आशीषों से लाद दिया।
ज़िन्दगी में बढ़िया रोटी खाने का आनन्द उठाना पहली बार शुरू किया था। देसी घी और दूध के साथ-साथ मैंने माँ से आज्ञा लेकर अण्डे लाने शुरू कर दिए थे। अण्डा उस समय वहाँ एक आने का मिलता था। बंता मुझे इकट्ठे एक दर्जन अण्डे ला देता। माँ अण्डों को हाथ नहीं लगाती थी। अण्डे बनाने के लिए मूंठ वाली एक बाटी लगा ली थी। प्याज तो माँ काट देती, घी भी माँ डाल देती पर चूल्हे पर पड़ी बाटी में अण्डे मैं ही डालता और करछुल से हिलाता भी मैं। बाद में करछुल फेरने का काम भी माँ ने संभाल लिया था। उसे मेरी सेहत का बहुत ख़याल था। उसकी इच्छा थी कि मैं अच्छी खुराक खाऊँ और जल्दी ही मेरा दुबला-पतला शरीर भर जाए। यह खुराक मेरा नाश्ता थी। देसी घी में बनाई अण्डों की भुर्जी से माँ के पकाये परांठे मेरे लिए किसी स्वर्ग के झूलों से कम नहीं थे।
माँ के आ जाने से हैड मास्टर को भी यह पक्का हो गया कि अब मैं कम से कम यह सैशन तो कहीं नहीं जाने वाला। हैड मास्टर और उसकी पत्नी विशेष तौर पर माँ को मिलने आए। माँ के सवेरे के पाठ और रात में लम्बे समय तक माला फेरने के कारण उसका मान-सम्मान राम सिंह के परिवार में इतना बढ़ गया था कि हर बात माँ से पूछ कर होने लगी। रोटी पकाने के सिवा माँ को दूसरा कोई काम नहीं करना पड़ता था। रोटी माँ उस कमरे में पकाती थी जो सबसे पहले पड़ता था। वहीं एक तरफ हम नहाया करते थे। नहाने के लिए एक तरफ बड़ा सा पत्थर रखा हुआ था और बिलकुल दूसरी तरफ चूल्हा-चौका था। साफ-सफाई से लेकर सूहड़े से पानी लाने तक का काम राम सिंह की बेटियाँ हमीरा, लक्ष्मी और कला किया करतीं। एक सूहड़ा घर से सौ डेढ़-सौ गज़ की दूरी पर था, इर्दगिर्द छोटी-सी पहाड़ी और उसके एक कोने में यह सूहड़ा। जिसे पहाड़ी लोग सूहड़ा कहते थे, हम आम भाषा में उसे चश्मा कह सकते हैं। लड़कियाँ सूहड़े से गागरों में पानी भर कर लातीं। दो-दो गागरें तो लड़कियाँ सहज ही उठा लातीं, एक सिर पर और दूसरी बगल में। कमरे भी लड़कियाँ लीप-पोत कर रखतीं और मेरे वाला कमरा खास तौर पर मीरा झाड़-पोंछ कर रखती। माँ के आने से बंते के सोने का कमरा बदल गया था। पढ़ता वह रात में मेरे पास बैठकर ही था। मेरे पास ग्लोब लैम्प था जिसकी रोशनी में कई जन आसपास बैठकर पढ़ सकते थे। बिजली न होने के कारण पहाड़ियों के लिए यह ग्लोब लैम्ब ही बहुत बड़ी चीज़ थी। आम तौर पर वहाँ रोशनी के लिए चीड़ की बरोज़े वाली ढांकों के सिरों को आग लगाकर इधर-उधर जाते समय उनके प्रकाश से काम लिया जाता। हालांकि उनके पास लालटेन भी थी पर वे लालटेन बहुत कम इस्तेमाल करते थे। सीमित आर्थिक साधन होने के कारण वे हाथ खींच कर पैसा खर्च करते।
घर के पिछवाड़े राम सिंह की ज़मीन थी। ज़मीन बमुश्किल चार-पाँच बीघे होगी। छोटे-छोटे सीढ़ीदार खेत। उन दिनों में इन खेतों में गेहूं बो रखी थी। वर्षा इन खेतों के लिए एकमात्र सिंचाई का साधन थी। इस कमज़ोर आर्थिक स्थिति के कारण ही राम सिंह को वो काम भी करना पड़ा था जिसे हमारे परिवारों, हमारे परिवार क्या सब सभ्य परिवारों में बहुत घटिया समझा जाता है। यह बात एक दिन मुझे हमीरा के घरवाले ने बताई जब वह अपनी ससुराल में मिलने आया हुआ था। बड़ी लड़की कौशल्या और इस हमीरा दोनों का पुण्य का विवाह नहीं था, दोनों के ही श्वसुरों से राम सिंह ने पैसे लिए थे। यह समझो कि राम सिंह की दोनों बेटियाँ अपनी ससुराल में मोल खरीदी औरतें थीं। पहाड़ों में राजपूतों के बहुत से रिश्ते वट्टे अर्थात बदले में किए गए रिश्ते भी होते थे। उसकी बहन इसके घर, इसकी बहन उसके घर। पर एक बात समझ में नहीं आ रही थी कि लक्ष्मण हमीरा को लेकर क्यों नहीं जा रहा था। मैं सवेरे तो दूर-बाहर जाता ही था, शाम को भी बहुत दूर निकल जाता। राह में चीड़, साल और अन्य किस्म के दरख्त मन को आकर्षित करते। कहीं-कहीं लसूड़ों का पेड़ भी राह में आता। जामुन और आम के पेड़ भी कहीं न कहीं नज़र आते। पकी हुई लसूड़ियाँ मैदानी इलाके की छोटी छोटी लसूड़ियों से बड़ी भी थीं और मीठी भी। इन बड़ी लसूड़ियों को माँ काबुली लसूड़ियाँ कहती थी। जामुनें अव्वल तो गिरी हुई मिल जातीं, नहीं तो बंता तोड़ लाता। यहाँ ऐसा कोई आम का दरख्त दिखाई नहीं दिया था जिसपर चूसने या काटने वाले आम लगे हों। अचारी आम बेशुमार थे। ये सब दरख्त सरकार की सम्पति थे। शायद बहुत कम दरख्त ऐसे थे जो लोगों के खेतों में हों। हाँ, आड़ू, गलगल, किम्म, औले और हरड़ा के दरख्त लोगों की ज़मीन में भी थे। किम्म वैसे तो बहुत खट्टा होता था, उसमें थोड़ा सा चीरा लगा कर वहाँ खांड भर देते और चीरे को फिर से बन्द कर देते। घंटे दो घंटे बाद उसे मौसम्मी की तरह काट कर खाते। ये किम्म बड़े स्वाद लगते। बेरों वाली झाड़ियों पर एक फल लगता था जिसको पहाड़ों में 'गरने' कहते हैं। इनका स्वाद जामुन जैसा और रंग भी जामुन जैसा था। आकार में वे झाड़ियों के बेरों से कुछ बड़े और जामुन जैसे लम्बूतरे होते थे। मैं चलता-फिरता 'गरने' ज़रूर खाता। मुझे याद है कि एक बार जब मैं तपा गया, गलगलों का बड़ा बोरा पूरा भरकर ले गया था, पर इस काम को घर में मेरी कम-अक्ली समझा गया, क्योंकि गलगल तपा मंडी में आम मिल जाती थी और थी भी बहुत सस्ती। गलगल का घर में भी अचार डाला गया और आस-पड़ोस में भी बांटी गयी। पर मेरे द्वारा लाई गई सौगात को जब मेरी कम-अक्ली समझी गई तो मैं यह मान गया था कि व्यापारिक तौर पर मेरा दिमाग कहीं मोटा ज़रूर है, क्योंकि लाड़ से जुआर के बस अड्डे और फिर बस पर लादने, होशियारपुर में उतारने और फगवाड़े वाली बस में चढ़ाने, फगवाड़े में बस से उतार कर लुधियाने वाली बस में चढ़ाने, लुधियाना के बस-अड्डे से स्टेशन जाने, धुरी वाली गाड़ी में से उतारने और फिर तपा वाली गाड़ी में चढ़ाने तक का सारा सिलसिला ऊबाऊ और थकाऊ भी था और मंहगा भी। पाँच-सात रुपये की गलगलों पर पाँच-सात रुपये कुली ले गए थे और कंडक्टरों की कड़वी-तीखी बातें व्यर्थ में। घर आकर यह कहानी सुनाने पर मेरा जो मजाक उड़ा, वह क्या बताऊँ।
मैंने नौजे(चिलगोजे) कई बार खाये थे पर मुझे यह जुआर में आकर ही पता चला कि ये चीड़ की टहनियों के साथ बड़ा लम्बा किसी तगड़े आदमी की बंद मुट्ठी की शक्ल का जो फल लगता है, गरमी के कारण सूखने के बाद उसमें से नौजे झड़ कर ज़मीन पर गिर पड़ते हैं। मैं आते-जाते फुरसत में नौजे चुगने को एक खेल समझ कर कितनी कितनी देर चीड़ के दरख्तों के नीचे घूमता रहता। चीड़ के इन दरख्तों पर सरकारी नंबर लगे होते। इनके तनों पर कट लगाकर कसोरे की शक्ल का मिट्टी का एक प्याला-सा टंगा देखता। धीरे-धीरे यह प्याला रिसने वाले रस से भर जाता। कोई कारिन्दा उस बर्तन को उतार कर दूसरा बर्तन वहाँ टांग जाता। मेरे पूछने पर राम सिंह ने बताया कि यह बरोज़ा है। सरकार ने ये दरख्त ठेके पर दिए हुए हैं। ठेकेदारों के कारिन्दे ही बरोज़ा एकत्र करने के काम को करते हैं।
चीड़ के नौजे वाले फूल सूख कर झड़ जाते। ये बहुत बढ़िया बालण थे। मेरी माँ भी बालण के तौर पर इनका प्रयोग करती। बंता और काका कुछ और लकड़ियाँ जंगल में से इकट्ठी करके ला देते। वे अपने चूल्हे के लिए भी इसी प्रकार बालण इकट्ठा करते थे। अनेक किस्म के दूसरे बेल-बूटे भी थे जिनके नाम अब मुझे याद नहीं है। गरमी के मौसम में भी इनमें से अधिकांश की हरियाली कायम रहती। थोहर इस तरह लगा हुआ था मानो उसने बाड़ का काम करना हो। जब थोहर पर रंगदार फूल लगते तो वे बहुत प्यारे लगते। अचानक ही थोहर से नीचे एक दिन कुछ झाड़ियाँ दिखाई दीं और उनके साथ कुछ बेलें भी। वहाँ से सब छोटी छोटी रत्तियाँ मैं तोड़ कर घर ले आया। पहले माँ को दिखाईं। माँ ने कहा, ''लगती तो रत्ती ही हैं।'' बाद में राम सिंह ने इस बात की पुष्टि भी कर दी।
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दिन का अधिकांश समय स्कूल में गुजर जाता। सेकेंड मास्टर और बाजवे को छोड़कर सारा स्टाफ लोकल या आसपास के गाँवों में से आने वाला था- हौलदार पी.टी.आई., नाटे कद वाला शास्त्री, क्लर्क राम नाथ शर्मा और अन्य सभी। जो चार बातें सेकेंड मास्टर से करनी होतीं, वे किसी खाली घंटे में कर लेते। बाजवा शेखीबाज़ था, मैंने उसके साथ अधिक लिंक नहीं रखा था। सेकेंड मास्टर के बाद अगर कोई मेरा दोस्त था, तो वह था स्कूल के सामने सरकारी आयुर्वेदिक डिस्पेंसरी का डिस्पेंसर राज कुमार कपूर। पटियाला का होने के कारण उसके संग मेरी अच्छी दोस्ती हो गई थी। उन दिनों डिस्पेंसर को उप-वैद्य कहा करते थे, जिसे आजकल आयुर्वेदिक मेडिकल अफ़सर कहा जाता है, उसे वैद्य कहते थे। वैद्य की तनख्वाह 120 रुपये हुआ करती थी और उप-वैद्य की 80 रुपये। अपने इलाके का होने के कारण और वैद्य की अफ़सरी से तंग आया हुआ वह कभी-कभार मेरे घर आ जाता। मैं भी कभी-कभार उसके कमरे में चला जाता। वह भी लाड़ में बंते की मौसी का किरायेदार था। जब भी हम मिलते, वैद्य की चुगलियों के साथ साथ पहाड़ी लड़कियों की बातें करते। वह मुझसे उम्र में सालभर छोटा था। जहाँ रहता था, वहीं पास ही एक लड़की से फंस गया था। वह उसकी बातें सुनाता। मैं प्रश्न पर प्रश्न करके उसके इश्क के खेल की हर तह को खंगालने की कोशिश करता। बाद में दो महीने बाद उसकी प्रेमिका ऐसी होशियारपुर गई कि वह फिर उसके दर्शनों के लिए तरसता रह गया। एक दिन मुझसे बोला-
''ज्ञानी जी, तुम्हारे घर में गंगा है, तुमने कोई ट्राई नहीं मारी ?''
बाद में बातें करते करते पता चला कि उसका इशारा लक्ष्मी की ओर है। पर लक्ष्मी तो मुझे सदैव 'भाई जी' कहकर बुलाया करती थी। मैं उसके साथ इस तरह की बात कैसे कर सकता था। बाहर डंगर चराने लक्ष्मी ही जाया करती थी। उसके सिर पर मुंडासा बंधा होता। उसके संग कई बार मियां जी की लड़की भी होती। छोटे कद वाली गऊयों और भैंसों को वे मर्दों से अधिक जुगत से काबू में रखतीं। कभी-कभार मैं सैर करता उधर निकल जाता। शायद लक्ष्मी के साथ ही कोई बात करने के बहाने उस तरफ जाता होऊँगा। उसके पास जाकर खड़ा भी हो जाता, बातें भी करता, पर असली बात करने का कभी कोई सबब नहीं बना था। वैसे उसे मालूम था कि मैं उसे बहुत चाहता हूँ। पहाड़िनें बहुत सुन्दर होती हैं पर लक्ष्मी जैसी सुन्दर पहाड़िन मैंने कोई नहीं देखी थी। मेरी ज़िन्दगी में अगर कोई खूबसूरत लड़की आयी है तो वह लक्ष्मी है। कोरी अनपढ़, सस्ते और मैले से कपड़ों में भी वह लड़की मुझे आज भी इतनी सुन्दर लग रही है, वह बन-संवर कर कितनी सुन्दर होगी, इसकी सिर्फ़ कल्पना ही की जा सकती है।
बहती गंगा में हाथ धोने का अवसर तो नहीं मिला, पर पहाड़ी सुन्दरता के बहते पानी में बिलकुल ही डुबकी लगाने से वंचित रह गया होऊँ, ऐसी बात नहीं।
एक दिन माँ हैड मास्टर की घरवाली के बुलावे पर राम सिंह की घरवाली के साथ गई हुई थी, सब बच्चे भी संग ही चले गए थे। लक्ष्मी मियां जी के घर चली गई। राम सिंह अपना इलाज करवाने के लिए बंते को संग लेकर होशियारपुर गया हुआ था। पता नहीं घटा कहाँ से आयी, पानी बरसने लगा। मैं अपने कमरे में अकेला था। आदत के अनुसार फुर्सत में होने के कारण नावल पढ़ रहा था। हमीरा आयी और मेरे साथ बातें करने लग पड़ी। बच्ची को शायद वह सुला कर आयी थी। अपना हाथ सामने करके कहने लगी-
''मेरी किस्मत बताओ।''
पहले तो मैंने उससे कहा कि मैं कोई ज्योतिष नहीं हूँ, पर जब उसने जबरन अपना हाथ मेरे हाथों में थमा दिया तो लक्ष्मण के आने के बारे में कई बातें मैंने मन से जोड़ कर कह दीं। वह कहने लगी-
''अगर वह न आया फिर ?'' यह कह कर वह उठ कर खड़ी हो गई और उसने दरवाजा आधे से अधिक भिड़ा दिया। बारिश और तेज हो उठी थी। मेरे मन की गंगा में मेरे हाथ धोये गए या नहीं, पर उस पहाड़ी चौ में उस दिन और उसके बाद कई बार डुबकियाँ लगी होंगी। यह उसके अन्दर की आग और मेरे अन्दर की आग को ठंडा करने का मसला था। इसे मैं प्यार नहीं कहता। प्यार का दर्जा इससे ऊपर है। जिन्सी सम्बन्धों में प्यार होता तो है पर शारीरिक सम्बन्ध मुहब्बत के सम अर्थी नहीं हैं।
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Tuesday, March 9, 2010

आत्मकथा



एक नेत्रहीन लेखक की आत्मकथा

धृतराष्ट्र
डॉ. एस. तरसेम
हिन्दी अनुवाद : सुभाष नीरव


चैप्टर-6(अन्तिम भाग)
जोवड़ कि जुआर

पहाड़ों के ऊँचे-नीचे, टेढ़े-मेढ़े रास्तों पर चलने का यह मेरा पहला अवसर था। दिन चढ़ने के कारण मुझे चलने में कोई परेशानी नहीं हो रही थी, परन्तु ढलान के कारण डर लगता था कि कहीं पैर फिसल न जाए। मैं बस इतनी ही दूर गया कि वापस लौटते समय मुझे किसी से रास्ता पूछने की आवश्यकता न पड़े। लोग आ-जा रहे थे। बड़ी उम्र के कई लोगों के सिर पर सफेद टोपी थी। लौटते समय एक औरत भी मिली, उसने सिर पर पानी की एक गागर उठा रखी थी। उतरते समय मैं बड़े ध्यान से पैर जमा जमा कर रख रहा था, पर यहाँ के लोग इस तरह चल रहे थे मानो दौड़े जा रहे हों। रात वाला भय जैसे खत्म हो गया हो। दातुन-कुल्ला मैं वहीं कर आया था। मुँह-हाथ भी धो आया था। पानी बहुत ठंडा था, इसलिए नहाने को जी नहीं किया था। कच्छा-बनियान उसी तरह वापस ले आया था। बस, सिर्फ़ तौलिया और साबुन ही इस्तेमाल किया था। जब मैं दुकान पर पहुँचा तो स्कूल देखने को मेरा मन पूरी तरह तैयार था। तैयार होने से पहले दुकानदार ने मुझे चाय बना कर दे दी थी। साथ में कुछ खाने को भी। जब दुकानदार से सुबह की चाय तक के मैंने पैसे पूछे तो मैं हैरान रह गया। उसने सिर्फ़ चार रुपये ही लिए और साथ में यह भी कहा कि मैं तो उनके बच्चों का उस्ताद हूँ। कमाई के लिए और बहुत से मुसाफ़िर आते-जाते रहते हैं। गुनगुनी धूप ने हल्की-हल्की गरमाहट देनी आरंभ कर दी थी। स्कूल जाने वाले बच्चे आने शुरू हो गए थे। दुकानदार ने एक लड़के को हांक लगाई और मुझे साथ ले जाने के लिए कहा। उसने यह भी बता दिया कि मैं उनका मास्टर हूँ। एक गोल से मुँह वाले पक्के रंग के लड़के ने मेरा अटैची और दूसरे छोटे-से कद वाले लड़के ने मेरा कम्बल पकड़ लिया। राह में और लड़के भी मिलते गए। काले रंग वाला लड़का सबको बड़े चाव से मेरे बारे में बताता। लड़के बड़े अदब से नमस्ते करते। कुछ लड़कों ने तो मेरे पैर भी छुए। लड़कों के सत्कार ने मुझे मोह लिया था। पर फिर भी मन उस स्कूल में नौकरी करने के लिए नहीं मान रहा था। कल दोपहर के बाद की सारी मुश्किलें मुझे पीछे लौट जाने के लिए ही कहतीं। करीब पौने घंटे में हम स्कूल के सामने पहुँच गए। स्कूल ऐन सड़क पर था। पी.टी.आई. मास्टर प्रार्थना करवा रहा था। राष्ट्रीय गीत के लिए विद्यार्थियों को सावधान कर रहा था। यह बुजुर्ग पी.टी.आई. मुझे बड़ा सीधा-साधा प्रतीत हुआ। दो सरदार अध्यापक मुझे देख कर सड़क की तरफ आ रहे थे।
''आप गोयल साहब ही हो न ?''
''आओ जी ज्ञानी जी, मोस्ट वैलकम।''
बाद में बातचीत में पता चला कि पहला बारीक-सी मूंछों वाला साइंस मास्टर बाजवा है और सिर्फ़ एफ.एस.सी. पास है। दूसरा सुरिंदरपाल सिंह मैथ मास्टर था। उसने बी.ए., मैथ ए. बी. कोर्स और बी.एड. कर रखी थी। सवेर की सभा का सिलसिला चलता रहा। साइंस मास्टर और सुरिंदरपाल मुझे मुख्य अध्यापक के दफ्तर में ले गए। मुख्य अध्यापक हेम राज शर्मा अपनी कुर्सी से उठ कर मुझे इस तरह मिला मानो किसी अफसर के स्वागत के लिए खड़ा हुआ हो। कुशल-क्षेम पूछने पर मैंने उस स्कूल में नौकरी न करने का अपना फैसला सुना दिया। मुख्य अध्यापक जैसे बहुत उदास हो गया हो। मुझे अपनी आँखों की तो क्या बात करनी थी, यह करनी भी नहीं चाहिए थी। यहाँ आने-जाने में आने वाली मुश्किल बता कर मैंने यहाँ रहने में अपनी असमर्थता प्रकट की।
पी.टी.आई. की सुबह की सभा वाली कार्रवाई अभी चल रही थी। मेरी अच्छे मेहमान वाली खातिर-सेवा का सिलसिला शुरू हो चुका था। सामने हलवाई की दुकान से बर्फी, पेड़े और नमकीन, चाय के साथ मंगवाया गया। मुख्य अध्यापक ने बड़ी आजिज़ी के साथ कहा-
''तुम नौकरी नहीं करना चाहते तो मत करना, मेरी इतनी अर्ज़ तो मान लो कि हमारे बच्चों को एक लेक्चर दे जाओ। तुमने अपनी अर्जी में एक अच्छे वक्ता होने की बात लिखी थी। हम तुम्हारा भाषण सुनना चाहते हैं।''
मुख्य अध्यापक साहब, सरदार सुरिंदरपाल और साइंस मास्टर मुझे ग्राउण्ड में ले गए। पी.टी.आई. ने हमारे पहुँचने पर एक लम्बी सीटी बजाई और फिर विद्यार्थियों को बैठने का कॉशन दे दिया। मुख्य अध्यापक ने विद्यार्थियों को सम्बोधित होते हुए मेरे बारे में कुछ बताया। कुछ बढ़ा-चढ़ा कर भी बताया, जिस विषय पर बोलना था, वह पहले ही दफ्तर में तय कर लिया गया था। वैसे भी मुझे किसी विषय पर बोलने में कोई झिझक नहीं थी।
जब मैंने बोलना आरंभ किया, विद्यार्थियों ने ज़ोर से ताली बजाई। मुख्य अध्यापक के बोलने के बाद भी विद्यार्थियों ने ताली बजाई थी, पर मेरे बोलने से पहले इन ज़ोरदार तालियों का अर्थ मैंने यही लगाया कि मुख्य अध्यापक ने मेरी तारीफ़ में जो पुल बांधे थे, यह उस तारीफ़ की करामात है। कुल दसेक लड़कियाँ थीं, बाकी ढाई सौ से भी अधिक लड़के। एक लड़की ने चप्पलें पहन रखी थीं और दो लड़कों ने फ्लीट, शेष सभी विद्यार्थी नंगे पांव थे। उनके कपड़ों से भी उनकी गुरबत का पता चलता था। इसलिए मैंने अपने भाषण का विषय आधा तो वह रखा जो दफ्तर में तय हुआ था, और आधा मैंने बदल दिया। सच, नम्रता, सहनशीलता और मीठे बोल - असल में मेरे भाषण का विषय था। परन्तु विद्यार्थियों के नंगे पैरों को देखकर मैं गरीब और अमीर के अन्तर की बात छेड़ बैठा और फिर इस बात को सच, नम्रता, सहनशीलता और मीठे बोल आदि के गुणों से जोड़ने में इस प्रकार मस्त हो गया कि एक घंटा बोलता ही चला गया। बोलना भी विद्यार्थियों के स्तर का था। फ़रीद, कबीर, बाबा नानक, कुरबानी के पुंज गुरु अर्जन देव जी, गुरु गोबिंद सिंह जी से ले कर कई विदेशी, कुछ हिंदी और उर्दू शायरों के कलाम को अपने भाषण में फिट करता गया। धन्यवाद करने के पश्चात् मैंने सबसे इस बात की क्षमा मांगी कि मैं ज़रूरत से अधिक समय ले गया हूँ और साथ ही साथ इस बात की भी माफी मांगी कि मैं इस स्कूल में सेवा नहीं कर सकूंगा।
मुख्य अध्यापक ने फिर से मेरी तारीफ़ के पुल बांधने शुरू कर दिए और विद्यार्थियों से कहा कि हम सभी ज्ञानी जी को जाने नहीं देंगे। एक तो उनका आदर भाव और दूसरा दफ्तर में आकर तनख्वाह और बढ़ा देने का लालच, इन दोनों बातों ने मुझे उपस्थिति रिपोर्ट (ज्वाइनिंग रिपोर्ट) लिखने के लिए मजबूर कर दिया।
मैं अपने सभी यूनिवर्सिटी और अनुभव से संबंधित सर्टिफिकेट संग ले कर गया था। मुख्य अध्यापक और सुरिंदरपाल ने सारे सर्टिफिकेट बड़े ध्यान से देखे। पंजाबी के अलावा दसवीं तक अंग्रेजी, मैथ और सामाजिक शिक्षा पढ़ाने का अनुभव देख कर मेरा टाइम टेबल केवल पंजाबी अध्यापक का न रहा। आठवीं से दसवीं तक पंजाबी, नौंवी को अंग्रेजी और सामाजिक विज्ञान के साथ-साथ कुछ पीरियड दसवीं की सामाजिक शिक्षा के दिए गए। दसवीं कक्षा को सामाजिक शिक्षा का विषय उस समय मुख्य अध्यापक स्वयं पढ़ाया करता था। टाइम टेबल की स्लिप लेने से पहले मैंने मुख्य अध्यापक को यह बात स्पष्ट कर दी -
''अगर मेरा दिल लग गया तो रहूंगा, नहीं तो दीवाली से एक दिन पहले चला जाऊँगा। मुझे इतने दिनों का वेतन दे देना।''
मुख्य अध्यापक ने दीवाली की छुट्टी के साथ पाँच-सात दिन और घर में रहने की छूट भी दे दी। स्कूल में ही एक अस्थायी-सा होस्टल था। दसवीं के सभी विद्यार्थी वार्षिक परीक्षा तक हॉस्टल में ही रहते थे। सुरिंदरपाल और साइंस मास्टर भी वहीं एक कमरे में रहते थे। शाम को मेरे लिए भी उसी कमरे में रहने का प्रबंध कर दिया गया।
बच्चों के आदर-भाव और नम्रता ने मुझे कम से कम एक सैशन वहीं रहने के लिए विवश कर दिया। हॉस्टल की रोटी तो अच्छी थी। दोनों समय बड़ी-बड़ी मक्की की रोटियाँ बनतीं। सवेरे नाश्ते में परांठे मिलते। विद्यार्थी अचार के साथ परांठे खाते, पर चाय नहीं पीते थे। दोपहर को तरी वाली सब्जी के साथ वही मक्की की मोटी-मोटी रोटियाँ और शाम के वक्त माह-छोलों की दाल से वही मक्की के ढोडे। इन रोटियों को देख कर मुझे 'हीर दमोदर' के कैदों के मुँह से कहलाई गई यह तुक याद आ जाती - 'असीं खांदे हां ढोडा थापी, चाक खांदा ई वथ्थू।' रोटियों की खूबी यह थी कि वे इकसार होतीं और उनमें मिठास होती। इतनी मीठी मक्की मैंने कभी नहीं खायी थी। हम हॉस्टल में रहने वाले मास्टर तीन-चार बार चाय भी पीते। लेकिन अधिकांश बेचारे विद्यार्थी तीन वक्त की रोटियों से भी पेट भरते। शायद ही कोई विद्यार्थी चाय, दूध और मिठाई वाली सामने की दुकान से चाय पीकर आता होगा या मिठाई खाकर, परन्तु आम विद्यार्थियों के लिए हॉस्टल का तीन समय का भोजन ही नेमत थी।
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जिस कमरे में सेकेंड मास्टर और साइंस मास्टर बाजवा रहते थे, उसकी सारी दीवारें ही पहाड़ की कच्ची मिट्टी से बनी हुई थीं। पहाड़ों पर सभी घरों की भांति स्कूल की सभी छतें ढलानदार थीं। एक ढलान दायीं तरफ थी और दूसरी हर कमरे के बायीं ओर। छत का बीच का हिस्सा ऊँचा उठा हुआ होता। स्कूल की ये सारी छतें स्लेटों की थीं। ये उसी किस्म की स्लेटें थीं जिस तरह की पत्थर की स्लेटों पर मैदानी स्कूलों के बच्चे स्लेटी के साथ गणित का काम करते थे। अन्तर सिर्फ इतना था कि इन स्लेटों को पहाड़ी लोग स्लोटां कहते थे। इन स्लोटों और कच्ची दीवारों वालें कमरे में सेकेंड मास्टर और बाजवा की चारपाई के पास ही मेरी चारपाई बिछा दी गई थी। बढ़िया-सा बिस्तर मुख्य अध्यापक के घर से आ गया था।
मैंने रात की रोटी कमरे में ही मंगवा कर खा ली थी। दो लड़के जो पढ़ने में तो बहुत अच्छे नहीं थे, पहले दिन से लेकर सैशन के अन्तिम दिन तक मेरे सेवादार बने रहे। इन्होंने ही यह रोटी-पानी की सेवा की।
कमरे में एक बहुत बड़ा नुक्स था। इसके एक तरफ कोने की दीवारों में छत से लेकर फर्श तक इतनी बड़ी दरार थी कि आसानी से छोटा बच्चा या कुत्ता-बिल्ला अन्दर आ-जा सकता था। मुझे डर लगता था कि कहीं यह छत गिर ही न पड़े। मैंने जब अपना यह डर दोनों साथियों को प्रकट किया तो सेकेंड मास्टर सुरिंदरपाल सिंह हँस पड़ा।
''एक साल हो गया, अभी तक तो गिरी नहीं। अगर गिर पड़ी तो 'सदे उठ जाइ' हो जाउ, और क्या बिगड़ेगा अपना।'' मुझे उसकी यह बात किसी हिसाब मास्टर की बजाय किसी जट्ट के मुँह से निकली हुई प्रतीत हुई। नया होने के कारण मैं और कुछ नहीं बोला। मैं अपना दूसरा भय प्रगट करता तो वे मुझे डरपोक समझते। मैं डरपोक था भी नहीं। लेकिन अनआई मौत मरना भी तो समझदारी नहीं है। पेट भर कर खाई रोटी और पिछली रात की अनिद्रा के कारण रजाई लेते ही मुझे नींद आ गई।
दिन चढ़ने से पहले सेकेंड मास्टर और बाजवा तो उठ कर बाहर चले गए थे। मुझे बाहर ले जाने के लिए रातवाले वे दोनों छात्र आ गए थे। दिन निकलने के बाद मुझे जाने-आने में कोई कठिनाई नहीं हुई थी। मुझे याद नहीं कि वे दोनों मास्टर कहाँ और कब नहाये। लेकिन मैं एक अन्य कमरे के एक कोने में बैठ कर गरम पानी से नहाया था। पानी मेरी इच्छा पर रसोइये ने गरम कर दिया था और पानी लाने की सेवा उन दोनों छात्रों ने की थी।
दूसरे दिन मुख्य अध्यापक ने भाषण देने के लिए पुन: इच्छा व्यक्त की। मैं इस प्रकार अगले दिन भाषण करने से दो बातों के कारण झिझक रहा था। एक तो पहले दिन की तरह भाषण का स्तर बनाये रखने की अंदरूनी कशमकश थी, दूसरा इसे मैं अपना ओछापन समझता था। सो, मैंने मुख्य अध्यापक के सम्मुख बदल-बदल कर भाषण करवाने का सुझाव रख दिया। मुख्य अध्यापक ने शायद समझ लिया था कि मैं सवेरे की सभा में रोज़ भाषण करने के लिए तैयार नहीं हूँ। उसने मुझ पर भाषण के लिए दबाव नहीं डाला। राष्ट्रीय गीत के पश्चात् मैं मुख्य अध्यापक के संग दफ्तर में आ गया और सोने वाले कमरे की समस्या बता कर उसे हल करने की विनती की। मेरी इस समस्या के हल होने का मुझे उस समय पता चला जब शाम को एक कक्षा का कमरा खाली करवा कर मेरा बिस्तर वहाँ लगवा दिया गया।
पहले दो दिन पढ़ा कर मैं भी संतुष्ट था, मुख्य अध्यापक भी और विद्यार्थी भी। लेकिन बेचारा फौजा सिंह परेशान था। वह पहले छठी से दसवीं तक इस स्कूल में पंजाबी पढ़ाया करता था। वह इसी इलाके का था। उसने स्वयं भी सिर्फ़ मैट्रिक तक पंजाबी पढ़ी हुई थी। उसे दसवीं तक के पीरियड देना एक अस्थायी इंतज़ाम था। पंजाबी और साइंस के अध्यापक इस इलाके में जाने के लिए इतनी जल्दी तैयार नहीं होते थे। मेरे यहाँ आ जाने से फौजा सिंह सातवीं कक्षा तक का ही अध्यापक बन कर रह गया। दसवीं कक्षा को जो कुछ उसने पढ़ाया था, उसमें से अधिकांश वह उच्चारण और अर्थ के हिसाब से गलत पढ़ा बैठा था। कविताओं के अर्थ समझाते समय जिन शब्दों के अर्थ उसने बताये थे, उनमें से कुछ शब्दों के अर्थ बच्चों ने किताब पर लिखे हुए थे। कुछ अर्थ पुस्तक के अंत में दिए हुए थे। फौजा सिंह द्वारा बताये गए अर्थ यद्यपि सभी तो गलत नहीं थे, परन्तु कुछ अर्थों में उसने तुक्के का ही प्रयोग किया हुआ था। लेकिन मुझे फौजा सिंह की इज्जत का ख्याल था। इसलिए बच्चों को असली अर्थ बताते समय फौजा सिंह का यह कह कर बचाव कर लेता कि एक शब्द के कई कई अर्थ होते हैं और मेरी बुद्धि के अनुसार इस शब्द का यह अर्थ होता है। इसके बावजूद कुछ बच्चे असलियत समझ गए थे। इसलिए फौजा सिंह मेरे से काफी परेशान था और उसने पहले कुछ दिन बच्चों को कुछ ऐसे शब्द देकर मेरे पास भेजा जिनके बारे में उसे आशा थी कि मैं बता नहीं सकूंगा। लेकिन मैं फौजा सिंह के इम्तिहान में पास होता रहा और उसकी यह कमीनगी न चाहते हुए भी मैंने मुख्य अध्यापक के नोटिस में ला दी। मुख्य अध्यापक ने मेरी उपस्थिति में ही उसकी अच्छी-खासी क्लास ली। मैंने ऐसा न करने के लिए मुख्य अध्यापक से विनती की और स्वयं फौजा सिंह को ऐसी हरकतों से परहेज करने के लिए कहा।
दीवाली की छुट्टी से पहले ही स्कूल की प्रबंधक कमेटी का उप-प्रधान राम सिंह मुझे अपने घर में रहने की पेशकश कर गया था, क्योंकि उसके बेटे गुरबख्स के माध्यम से उसे पता चला था कि स्कूल में मेरा अभी तक पूरी तरह जी नहीं लगा। राम सिंह के अलावा स्कूल के काम में अन्य कोई दिलचस्पी नहीं लेता था। गाँव का सरपंच पंडित शिवराम स्कूल का मैनेजर था। वह शायद सरकारी ग्रांट लेने के लिए ही मैनेजर बना हो। वैसे वह न तो स्कूल और न ही गाँव के किसी काम में दिलचस्पी लेता था। दरअसल, हेमराज शर्मा स्कूल का मुख्य अध्यापक भी था और प्रबंधक कमेटी के सभी अधिकार भी उसके पास ही थे। कमेटी तो यूँ ही अंगूठे लगवाने के लिए बनाई हुई थी। राम सिंह को छोड़कर दूसरा कोई मेम्बर स्कूल में नहीं आता था। वह भी मुख्य अध्यापक को ही स्कूल का मालिक समझता था और अपने बच्चों को पढ़ाने के लिए या अपनी सज्जनता के कारण मुख्य अध्यापक के कहने पर स्कूल के कामों में दिलचस्पी लिया करता था। बड़े अदब के साथ मिल कर उसने मुझे कहा था कि यदि मेरा स्कूल में मन न लगे तो मैं उसके घर में ठहर सकता हूँ, जहाँ मुझे कोई दिक्कत नहीं होगी।
स्कूल के हॉस्टल में नहाने-धोने से लेकर नाश्ते-पानी तक सब कुछ तसल्लीबख्श था, परन्तु रात में सोने का सिलसिला जैसा मैं चाहता था, वैसा नहीं था। जिस कमरे में मैं सोता था, वह सातवीं कक्षा का कमरा था। पूरी छुट्टी के बाद कुछ बेंच एक तरफ सरका कर मेरा बिस्तर लगा दिया जाता। सुबह स्कूल के लगने से पहले मुझे कमरा खाली करना पड़ता। हालांकि इस काम में मुझे हाथ तक नहीं हिलाना पड़ता था और सारा काम या तो परसा चौकीदार करता या किशनू रसोइया या फिर विद्यार्थी, पर मुझे यह चूल्हा उठाने जैसा सिलसिला भाता नहीं था।
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लॉरी जो शाम में आती थी, वही अगले दिन सवेरे होशियारपुर को वापस लौट जाती। इसलिए सेकेंड मास्टर, बाजवा और मैं उस बस से ही दीवाली मनाने अपने अपने घर के लिए चले थे। मुख्य अध्यापक विशेष तौर पर मुझे बस चढ़ाने आया था। उसने मुझे अपना कम्बल नहीं ले जाने दिया था। एक पैंट-शर्ट भी रख ली थी। शायद उसे डर था कि मैं सारा सामान ले जाने के बाद लौट कर ही न आऊँ।
''ज्ञानी जी, अपने वचन याद रखना। यहाँ तुम्हें कोई तकलीफ़ नहीं होगी।'' चलती बस में मुख्य अध्यापक के प्यार भरे शब्दों ने मुझे वचन निभाने के लिए मन ही मन पक्का कर दिया। दसवीं के कुछ विद्यार्थी भी हमें बस चढ़ाने आए थे। इस तरह का मान-सम्मान मुझे अपने इलाके के विद्यार्थियों में खत्म होता लग रहा था और विद्यार्थियों के इसी सत्कार के कारण मैं कम से कम यह सैशन तो इस स्कूल में पूरा करने के लिए मानो नैतिक तौर पर बंध गया था। एक अन्य बात जिसने मुझे यहाँ लौट कर आने के लिए पक्का कर लिया था, वह थी इस पहाड़ी इलाके की वनस्पति। चीड़, साल, गलगल, किम्म (आजकल के किन्नुयों जैसा फल), आड़ू, हरड़, औले और अनगिनत किस्म की झाड़ियाँ और जड़ी-बूटियों की हरियाली और प्राकृतिक दृश्यों ने मानो मेरी आँखों को मुझे लौट आने के लिए खुला निमंत्रण दिया हो। आते समय होशियारपुर और जुआर का सफ़र जितना कठिन, उबाऊ और दिल में खीझ पैदा करने वाला था, लौटते समय उससे कहीं बढ़कर सुखद और मनमोहक लगा। होशियारपुर से लुधियाना तक बस का सफ़र, इसके बाद रेल यात्रा - अपनी आज़ादी और मस्ती में बगैर किसी तनाव के घर वापसी का यह मेरा पहला लम्बा सफ़र था।
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