समकालीन पंजाबी साहित्य की उत्कृष्ट कृतियों की तलाश

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Saturday, August 28, 2010

आत्मकथा



एक नेत्रहीन लेखक की आत्मकथा

धृतराष्ट्र
डॉ. एस. तरसेम
हिन्दी अनुवाद : सुभाष नीरव
चैप्टर-12(द्वितीय भाग)

आख़िरी प्रायवेट स्कूल - बठिंडा

26 जनवरी को स्कूल में गणतंत्र दिवस बड़े धूमधाम से मनाया गया। उन दिनों स्कूल में महिंदर सिंह बावरा क्रॉफ्ट टीचर था। बढ़ई होने के कारण उसे क्रॉफ्ट टीचर के पद पर रखा हुआ था। वैसे वह शायद मैट्रिक पास भी नहीं था। लेकिन उसकी स्कूल में कद्र इस कारण भी थी कि वह शहर की राम लीला में हनुमान बना करता था। सनातन धर्म सभा के लिए हनुमान का रोल करने वाले की अहमियत हुआ ही करती है, इसलिए उसकी भी थी। स्कूल में वह बच्चों को नाटक तैयार करवाता, गीत तैयार करवाता। गणतंत्र दिवस का सारा कार्यक्रम उसने ही तैयार करवाया था, पर निगरानी सारी मेरी थी। इसका एक कारण तो यह था कि मैं सांस्कृतिक गतिविधियों में दिलचस्पी रखने वाला सबसे सीनियर मास्टर था। दूसरा स्कूल की प्रबंधक कमेटी और अध्यापकों को मेरे लेखक होने के बारे में पता चल गया था। सो, विद्यार्थियों को जो प्राग्रोम तैयार करवाया गया, उसमें मेरी भूमिका भी थी, मैंने स्वयं भी एक कविता स्टेज पर सुनाई थी। उस दौरान मैं पंजाबी और हिन्दी दोनों भाषाओं में कविता लिखा करता था। इस अवसर के अनुसार जो उपयुक्त कविता मुझे याद थी, वह हिन्दी में थी। कविता पढ़ने का मेरा अपना खास अन्दाज था। जिस जोश और आत्मविश्वास के साथ मैंने कविता पढ़ी, मैं सारे समारोह का केन्द्र बिन्दु बन गया। स्कूल में ही नहीं, सारे बठिंडा शहर में मेरी बल्ले-बल्ले हो गई।
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जे.बी.टी. क्लास की अब कोई समस्या नहीं थी, न पढ़ाई की और न हॉस्टल की। मेरी भी कोई समस्या नहीं थी। मुझे पंजाबी पढ़ाने के लिए किताब पहले से पढ़ने की ज़रूरत नहीं थी। जे.बी.टी. को मैं लेक्चर देता था। सारा सिलेबस मेरी पकड़ में था। दसवीं, ग्यारहवीं और एक छोटी कक्षा को मैं पंजाबी पढ़ाता था। इसलिए किताब पढ़ने का काम कोई विद्यार्थी ही करता। मैं तो केवल कठिन शब्दों के अर्थ ही बताता। कविता के अर्थ बताते समय मुझे खुद ही सुरूर आने लग पड़ता। यह मेरी खुशकिस्मती समझो कि मुझे गुरबाणी, सूफ़ी और वीर रस के काव्य में से सब चुनिंदा बंद जुबानी याद थे। सब आधुनिक कविताएँ भी अगर पूरी नहीं तो आधी मुझे कंठस्थ थीं। इसलिए जब मैं कविताओं के अर्थ समझाता और बहुत सी काव्य-पंक्तियाँ भी स्वयं ही बोलता तो विद्यार्थी बहुत प्रभावित होते। मेरा रौब-दबदबा स्कूल में दुगना-चौगुना हो गया था। मैं समझता था कि मौड़ मंदी की अंग्रेजी पढ़ाने और हैड मास्टर की कापियाँ चैक करने और रामपुराफूल स्कूल के हिसाब पढ़ाने से यहाँ पंजाबी पढ़ाने का काम मेरे लिए बहुत आसान था। दिमाग पर कोई बोझ नहीं था, कोई तनाव नहीं था। दोनों स्कूल छोड़ने के कारण जो हीनभावना मेरे अन्दर घर कर गई थी, वह भी यहाँ आकर गायब हो गई थी। मानो कुबड़े को बजी लात फायदेमंद साबित हुई थी। हॉस्टल सुपरिटेंडेंट होने के कारण मेरी अपनी रोटी का मसला तो हल हो ही गया था, शाम को प्रिंसीपल, सेठ और गुप्ता भी आते और हॉस्टल में शाम की रोटी खाकर जाते। मुझे इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ना था। लड़के भी बेहद खुश थे, वे महसूस करते थे कि वे स्कूल के सीनियर स्टाफ के बहुत नज़दीक हो गए हैं। इनमें से अगर कोई विद्यार्थी दुखी था तो वह था - सुखदेव धालीवाल। शायद उसे भ्रम था कि मोंगा, सिद्धू और वर्मा मेरे अधिक करीबी हैं और वे सीनियर स्टाफ से भी घुलेमिले हैं। ऐसा होना स्वाभाविक भी था।
मुझे घर जाने का बहुत कम अवसर मिलता था। हॉस्टल सुपरिटेंडेंट होने के कारण कुछ विद्यार्थी इतवार को भी घर नहीं जाते थे। इसलिए मेरे लिए हॉस्टल छोड़ना कठिन था। वैसे भी माँ और भाई के अलावा वहाँ मेरा और था भी कौन। हालांकि भतीजे और भतीजियाँ भी मुझे बहुत प्यार करते थे, पर भाभी का मेरे प्रति रवैया अक्सर कठोर ही रहता। इसलिए मेरे अन्दर घर के लिए वह खिंचाव नहीं था, जो अक्सर हुआ करता है।
मौड़ मंडी वाले हॉस्टल की बनस्पित यहाँ के हॉस्टल में रहने का एक लाभ यह था कि यहाँ सवेरे या हाजत के समय बाहर जाने की आवश्यकता नहीं थी। लैट्रिन हॉस्टल में ही बनी हुई थी। मेरी समस्या यह थी कि मैं रात के समय बाहर नहीं जा सकता था। मौड़ मंडी के हॉस्टल में रहते समय मैं रात की रोटी पूरी नहीं खाया करता था। मुझे यह भय सताता रहता था कि कहीं रात को हाजत न हो जाए। गर्मी में सुबह पाँच बजे के बाद और सर्दी में छह बजे के बाद मुझे बाहर जाने में कोई कठिनाई नहीं थी। पाँच-साढ़े पाँच बजे गर्मियों में पौ-फटने की रौशनी मेरे बाहर जाने के लिए काफी थी। सर्दियों में साढ़े पाँच बजे के बाद ही बाहर जा सकता था। मैंने यहाँ रात की रोटी के बाद दूध पीना भी आरंभ कर दिया था जब कि मौड़ मंडी के हॉस्टल में सिर्फ़ शाम की रोटी ही खाता था।
हॉस्टल का कर्ता-धर्ता होने के कारण फर्स्ट फ्लोर की सारी बत्तियाँ और ग्राउंड फ्लोर के किचन तक के सारे बल्ब और ट्यूब-लाइटें जलती रखता। इस तरह रात के समय मुझे हॉस्टल में घूमने में कोई दिक्कत न पेश आती। वैसे भी मैं एक बढ़िया-सी टॉर्च अपने पास रखता था। शायद बठिंडा में कभी टॉर्च की ज़रूरत नहीं पड़ी थी। मुझे कोई एक भी मौका ऐसा याद नहीं जब रात के समय बिजली गई हो। इस सबकुछ के बावजूद नज़र की कमजोरी तो कमजोरी ही थी।
एक दिन मैं किचन में से निकल कर अपने कमरे की ओर जा रहा था कि मेरा पैर ठीक जगह पर नहीं रखा गया और मैं गिरते-गिरते बमुश्किल बचा। उस समय मेरे संग महिंदर सिंह बावरा भी था। उसे भी हॉस्टल की करारी और स्वादिष्ट दाल का चस्का लग गया था और मेरे न चाहने पर भी कभी कभार शाम को हॉस्टल में आ जाता, हॉस्टल में नहीं, किचन में। मैं तो गिरता-गिरता बमुश्किल बचा था, पर उसने मेरे जख्म पर ऐसा नमक छिड़का कि मुझे उसकी खिंचाई करनी पड़ी। जिस समय यह घटना घटी, उस समय बावरा ने मुझे धृतराष्ट्र कहकर सम्बोधित किया। हालांकि उसने जो कुछ कहा था, उसमें आधा सच तो था ही, पर सच बर्दाश्त करना कौन सा आसान है। उस समय मुझे जो ऐनक लगी हुई थी उसके शीशे का नंबर साढ़े पाँच और साढ़े चार माइनस था और दोनों तरफ डेढ़ से दो के सिलेंड्रीकल नंबर भी थे। यह मेरी दूर की ऐनक थी। पास की ऐनक मुझे नहीं लगी थी। वैसे नज़दीक की निगाह भी मेरी ठीक नहीं थी। मैं स्वयं अधिक पढ़ता नहीं था। पढ़ने का काम दूसरों से लेता था। कक्षा में विद्यार्थियों से और कमरे में ओम प्रकाश वर्मा से। वर्मा को अपने संग रखने के मुझे कई फायदे थे। पहला फायदा यह था कि जे.बी.टी. का वो सिलेबस जिसे मुझे पढ़ाना होता, उसे कमरे में वर्मा से पहले ही पढ़वा लेता। थोड़ा-सा पढ़ने से ही मेरा काम चल जाता था क्योंकि इस सिलेबस का दो-तिहाई से अधिक ज्ञान तो मुझे पहले ही था। शेष कक्षाओं को पढ़ाने के लिए मुझे कुछ भी पढ़ने की ज़रूरत नहीं थी। साहित्यिक पत्रिकाएँ और अख़बार पढ़ने के लिए भी कोई न कोई मेरे कमरे में आ ही जाता। अख़बार की सुर्खियाँ तो मैं खुद पढ़ लेता। रेडियों पर खबरें सुनी होने के कारण बहुत सी खबरें अख़बार में से पढ़ने की ज़रूरत ही नहीं पड़ती थी। यद्यपि रेडियो उस समय पूरी तरह भारत सरकार के नियंत्रण में था और समाचार भी सरकार के पक्ष वाले ही प्रसारित होते थे, किंतु मैं अपनी नज़र और नज़रिये से सरकार के सच-झूठ की छानबीन कर लेता था। वैसे भी उन दिनों में ''ट्रिब्यून'' ही मुख्य अख़बार था और यह अख़बार तथा पंजाबी, हिन्दी पत्रिकाओं को पढ़ने वाला कोई न कोई विद्यार्थी मेरे पास आ ही जाता। कांगड़ा में नौकरी के समय से ही पढ़ने-लिखने का काम मैं इसी प्रकार चलाया करता था। मेरी नज़र निरतंर घटती जा रही थी। ऐनक का नंबर बढ़ना बन्द हो गया था। डेढ़-दो से आरंभ होकर चार और साढ़े पाँच पर आकर रुक गया था। यहाँ रहकर हर समय यह चिंता लगी रहती कि अब नज़र का क्या होगा, क्योंकि मैं दो बार 'गांधी आई होस्पीटल, अलीगढ़' भी हो आया था। मेरी कम होती निगाह को लेकर मेरी माँ बहुत चिंतित थी और भाई भी। पर मेरी आँखों के इलाज के लिए घर का कोई भी सदस्य उपाय नहीं कर रहा था।
मार्च में दसवीं-ग्यारहवीं के इम्तिहान भी शुरू हो गए थे और घरेलू परीक्षाएँ भी। जे.बी.टी. को पढ़ाने वाले सब अध्यापकों ने इन परीक्षाओं में व्यस्त हो जाना था। इसलिए प्रिंसीपल ने जे.बी.टी. के लिए घरेलू परीक्षाओं का प्रोग्राम बना दिया। शिक्षार्थी यह परीक्षा नहीं देना चाहते थे क्योंकि उन्हें पता था कि यह परीक्षा ज़रूरी नहीं है। इसलिए प्रिंसीपल और शिक्षार्थियों के मध्य या ऐसा कह लो कि दफ्तर और जे.बी.टी. शिक्षार्थियों के बीच तनाव की स्थिति पैदा हो गई। सेठ और गुप्ता जो हमेशा मेरी पीठ पर रहे, वे समझते थे कि मैं ही इस समस्या का कोई हल खोज सकता हूँ। प्रिंसीपल गुप्ता से उनके संबंध अफ़सर-मातहतों वाले नहीं थे बल्कि मंडली के यारों जैसे थे। वे अपने यार को हर हालत में इस उलझन में से निकालना चाहते थे। प्रिंसीपल ने मुझे बुलाया, सेठ और गुप्ता को भी। मेरी राय यह थी कि दबाव में स्थिति बढ़ सकती है। मेरी इस बात से सब सहमत थे। कल तक का समय लेकर मैंने इस समस्या के हल को खोजने के लिए अपने दिमाग को पूरी तरह इस ओर लगा दिया।
उन दिनों में स्कूल ने एक बाग खरीदा था - उजड़ा हुआ बाग। इस बाग को ग्राउंड के तौर पर इस्तेमाल किया जाना था। पर समस्या यह थी कि इस लम्बे-चौड़े बाग में चौपड़ की कच्ची सड़क बनी हुई थी। यह सड़क दसेक फुट चौड़ी और ग्राउंड से तीन फुट ऊँची थी। कमेटी इस सड़क को खत्म करके समतल ग्राउंड की शक्ल में तब्दील करना चाहती थी। इस काम पर मज़दूर लगाकर कम से कम दस हजार रुपये का खर्चा होने की संभावना थी। उन दिनों मजदूर की दिहाड़ी तीन-चार रुपये थी। इतनी बड़ी रकम से तो स्कूल मास्टरों को दो ढाई महीनों की तनख्वाह दिया करता था। मैंने जे.बी.टी. के हॉस्टल में रहने वाले शिक्षार्थियों की बैठक बुलाई। तजवीज़ रखी कि दस दिन का सोशल सर्विस कैम्प लगा दिया जाए तो परीक्षाओं से छुटकारा मिलने की आस है। कैम्प की रूप रेखा पूछने पर मैंने चौपड़ की सड़क को समतल ग्राउंड में बदलने की तजवीज़ रख दी। शिक्षार्थी लम्बी-चौड़ी बहस के बाद तैयार हो गए, क्योंकि उन्हें सोशल सर्विस सर्टीफिकेट्स और अच्छी कार-सेवा के लिए ईनामों का भी लालच दिया। वैसे भी अग्रज विद्यार्थियों में मोंगा, सिद्धू और वर्मा ही थे, या फिर था धालीवाल। शायद एक और बड़ी उम्र का शिक्षार्थी था -हरनेक सिंह। वह जितना सज्जन था, उतना तकड़ा भी था। मोंगे और इस सज्जन शिक्षार्थी के कारण मेरी योजना सफल हो गई।
दो या तीन शिक्षार्थी अभी भी ऐसे थे जो हॉस्टल में नहीं रहते थे, उनमें से एक सेठ साहब का छोटा भाई त्रलोक चंद था और दूसरा दविंदर कुमार। दविंदर और त्रलोक चंद की आपस में गहरी दोस्ती थी। दविंदर जब जे.बी.टी. की किसी लड़की के साथ रोमांस के सिलसिले में उलझ गया और लड़के और लड़की की चिट्ठियाँ मेरे हाथ लग गईं, तब सेठ साहब और त्रलोक चंद के कारण ही छुटकारा हुआ था। वैसे भी इस मामले में मैं खुले दिल वाला था, पर जो इस रोमांस का कोई नोटिस ना लेते तो समूची क्लास के बिगड़ने का डर था और स्कूल की बदनामी का भी। जिम्मेदार या तो मुझे माना जाना था या दोषी होना था प्रिंसीपल ने। इसलिए हॉस्टल से बाहर वाले विद्यार्थियों सहित दस लड़कियाँ भी कैम्प लगाने के लिए सहमत हो गईं। अगले दिन हम चारों की मीटिंग में मेरी योजना पूरी होने में कठिनाई तो क्या आनी थी, प्रिंसीपल तो बागोबाग हो गया। कमेटी के पास नंबर बनाने का उसके लिए यह सुनहरी अवसर था। सेठ कहता रहा कि भई हमानूं तो ये बातें नहीं सूझतीं (सेठ पीछे से हरियाणा का था, शायद कैथल का जिस कारण वह अक्सर 'हमानूं- तमानूं बोल कर बातचीत में बांगरू रंग चढ़ा जाता था)। गुप्ता की छाती पहले से कहीं अधिक चौड़ी लगती थी क्योंकि मैं इस स्कूल में गुप्ता की ही देन था। ''ओए, तुम्हें हीरा लेकर दिया है 130 रुपये में। पी.सी. गुप्ता और तुम दोनों मिलकर भी एक तरसेम नहीं बन सकते।'' वह मेज पर मुक्का मार मार कर एस.पी. गुप्ता कह रहा था।

तीन समय की रोटी तो हॉस्टल में भी बननी थी और कैम्प में भी। अन्य चाय पानी का प्रबंध स्कूल की ओर से करवा दिया गया। मुझे कैम्प कमांडेंट बना दिया गया था। 1965 की 2 मार्च को बड़ी सजधज के साथ कमेटी के प्रधान पंडित पुशपति नाथ ने कैम्प का उदघाटन किया। लड़के सुबह नौ बजे से दोपहर दो बजे तक ग्राउंड को समतल करने का काम करते। काम बांट दिया गया था। कुछ दल बना दिए गए थे। देशभक्तों के नाम पर उन दलों का नामकरण भी कर दिया गया था। एक दल लड़कियों का था। शायद इस दल का नाम 'लक्ष्मीबाई दल' था। दोपहर के बाद रोज़ सांस्कृतिक कार्यक्रम होता, खूब मौजें लगतीं। लड़कों को लड़कियों के और लड़कियों को लड़कों के और निकट होने का अवसर मिला। जवानी-मस्तानी और क्या चाहा करती है। प्रिंसीपल गुप्ता, सेठ, एस.पी. गुप्ता, साइंस मास्टर कपूर से लेकर कुंदन लाल शास्त्री और ज्ञानी लाल चंद जैसे बुजुर्ग़ अध्यापक भी कैम्प में चक्कर लगाते और काम करते विद्यार्थियों को देखकर अश-अश कर उठते। जिस सजधज के साथ कैम्प का उदघाटन हुआ था, उससे बढ़कर शोभा और समझदारी से 12 मार्च को कैम्प का समापन समारोह सम्पन्न हुआ। कुछ ईनाम बांटे गए। सोशल सर्टिफिकेट तो सभी को ही दिए गए। करनैल सिंह एन.डी.एस.आई जो स्कूल में शारीरिक शिक्षा अध्यापक था, उसने मेरा दाहिना हाथ बनकर काम किया।
डॉ. राम सरूप बांसल, पंडित पुशपति नाथ, कुलवंत राय अग्रवाल और कमेटी के कुछ अन्य गणमान्य सदस्य भी समारोह में शामिल हुए। यहाँ मैं अपनी प्रशंसा करता कुछ अच्छा नहीं लगता, पर सच मानना, सभी के भाषण में प्रशंसा का केन्द्र बिन्दु मैं ही था। मैंने अपने भाषण में सारा सेहरा शिक्षार्थियों के सिर बांधा। यह था भी सच। विद्यार्थियों ने जिस मेहनत से काम किया और अनूठे अनुशासन का सबूत दिया, उनकी इस देन को याद करके आज भी मैं सोचता हूँ कि अगर जवानी को सही राह डाला जाए तो कोई वजह नहीं कि देश तरक्की के वे शिखर सर न कर सके, जिन्हें सर करने का दावा कई पश्चिमी देश करते हैं। आज जब मेरी आँखों की ज्योति पिछले पैंतीस साल से पूरी तरह जवाब दे चुकी है, मेरे सामने मेरे विद्यार्थियों द्वारा समतल किया ग्राउंड मुझे दिखाई दे रहा है और ऐसा सोच कर मैं अपने आप को भाग्यशाली समझता हूँ।
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कभी वे दिन भी थे जब मैं सरकारी नौकरी बिलकुल नहीं करना चाहता था। सरकारी नौकरी को मैं अपनी प्रगतिशील विचारधारा के राह का रोड़ा समझता था। इसलिए अक्सर सरकारी नौकरी के लिए अप्लाई करने के बावजूद इंटरव्यू पर जाना या तो टाल देता या फिर कोई अन्य ढंग इस्तेमाल करके नौकरी पर उपस्थित होने के लिए बहाना घड़ लेता। वैसे ढंग की नौकरी कभी मिली भी नहीं थी। 1963 के बाद मैंने स्कूल मास्टर से लेकर एक्साइज और टेक्सेशन इंस्पेक्टर, इनकम टैक्स इंस्पेक्टर और अन्य कई पदों के लिए अप्लाई किया। 1964 में टेलीफोन ओपरेटर की पोस्ट के लिए यह सोच कर अप्लाई कर दिया था कि वहाँ आँखों की तेज रोशनी की अधिक ज़रूरत नहीं। 1965 के शुरू में परिवार नियोजन के प्रचार के लिए स्वास्थ्य विभाग के अधीन सेवा चयन बोर्ड अर्थात एस.एस.एस. बोर्ड द्वारा ब्लॉक एक्सटेंशन एजूकेटर की 44 पोस्टों का विज्ञापन ट्रिब्यून में दिया गया। शैक्षिक योग्यता थी बी.ए. और ग्रेड था - 150-10-250 का। उस समय बी.एड. मास्टर का ग्रेड 110-250 का था। ग्रेड भी अच्छा था और पोस्ट भी मेरी मनपसंद की, सेहत सेवाओं का प्रचार जिस कारण लोगों से सीधा वास्ता पड़ना था, पर चयन होना सरल नहीं था। फिर भी भाई की सलाह से अप्लाई कर दिया। पहले टैस्ट दिया। कुल 44 पद थे और सुना था कि अर्जियाँ 800 पहुँची थीं। इसीलिए बोर्ड ने टैस्ट रखा था। टैस्ट के बाद 88 उम्मीदवारों को इंटरव्यू के लिए बुलाया गया। उन दिनों में पदों को भरने के लिए रिश्वत नहीं चलती थी जैसा कि आजकल मास्टरों के लिए दो-ढाई लाख, लेक्चरर के लिए चार-पाँच लाख और अन्य कमाई वाली गजेटिड पोस्टों के लिए पच्चीस-पच्चीस, तीस-तीस लाख रुपया चलता है। सिफारिश ज़रूर मानी जाती थी। कुछ पोस्टें मैरिट के आधार पर भी भरी जाती थीं। सरदार प्रताप सिंह कैरों का जमाना था और बोर्ड का चेयरमैन था - भूतपूर्व डी.एस.पी. उजागर सिंह। वह मोगे का रहने वाला था और था भी मेरे बड़े ताया चमन लाल के दामाद लाला साधू राम सिंगला का गहरा यार। हमें पता था कि किसी समय साधू राम ने उजागर सिंह का एक बड़ा काम किया था। इंटरव्यू आया तो मैं मोगे पहुँच गया। अप्रैल के दूसरे हफ्ते में इंटरव्यू था। उजागर सिंह ने 13 अप्रैल वैसाखी वाले दिन मोगे में आना था। लाला साधू राम ने मुझे यह कह कर भेज दिया कि 'बेफिक्र होकर चला जा, मैं खुद कर दूंगा। मेरा नाम लेकर उसे चण्डीगढ़ में मिल भी लेना।' मैं और मेरा भाई मिले तो वह भी अपनों की भांति मिला। हमारे पास एक चिट्ठी एक अन्य डी.एस.पी. की भी थी जो डरते डरते हमने उजागर सिंह को पकड़ा दी। उसने इंटरव्यू के बाद शाम के वक्त फिर मिलने के लिए कहा। बड़ा कमाल का आदमी था सरदार उजागर सिंह। अगले दिन मैं अकेला मिला। उसने बताया कि मेरा टैस्ट में तीसरा नंबर है और सेलेक्ट तो मैं हो ही जाऊँगा, पर हँसते हुए कहने लगा, ''लाला साधू राम को यह बात कह न देना, मुझे भी लाला से काम लेने हैं, जा दौड़ जा अब।'' मेरा धरती पर पैर नहीं लग रहा था। मुझे प्राइवेट स्कूल के 130 रुपये की जगह सरकारी नौकरी में 215 रुपये मिलने थे और डाक्टर की तनख्वाह उस समय शायद 275 रुपये थी।
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मार्च 30 थी या 31, यह याद नहीं। जब मैं शाम को दफ्तर के पास से गुजर रहा था तो स्कूल का माली बैठा रो रहा था। वह बेचारा कोई पुरबिया था। उसकी पत्नी और बच्चे स्कूल में ही कहीं रहते थे। वह स्कूल का चपरासी भी था और चौकीदार भी। वैसे सभी उसे माली ही कहकर बुलाते थे। जब मैंने उससे रोने का कारण पूछा, वह ज़ोर ज़ोर से रोने लग पड़ा। मैंने उसे हौंसला दिया। वह रोते रोते बताये जा रहा था कि उसका मोतिये का आपरेशन ठीक न होने के कारण उसकी नज़र नाममात्र ही रह गई है और स्कूल वालों ने उसे नौकरी से जवाब दे दिया है। मैं उसके काम से पूरी तरह वाकिफ़ था। वह अपने बेटे को साथ लेकर स्कूल के सारे कमरे बन्द करता, दफ्तर, स्टाफ रूम और अन्य ज़रूरी कमरों को ताले लगाता। सुबह कमरे खोलने का काम भी वही करता था। स्टाफ रूम के मेज और कुर्सियों की साफ-सफाई की जिम्मेदारी भी उसी की थी। मैंने प्रिंसीपल के मुँह से उसके काम के बारे में कोई शिकायत नहीं सुनी थी। मैंने माली को धीरज दिया, उसके मन को टिकाया और उसकी सहायता करने का वचन दिया। मैं सोच रहा था कि यह अनहोनी बात तो किसी के संग भी हो सकती है। किसी के साथ क्या, मेरे साथ तो हर हालत में घटित हो सकती है क्योंकि मेरी दृष्टि कम होते होते बहुत कम हो गई थी और जब मैंने ताया मथरा दास की बड़ी लड़की सोमावंती और तीसरे नंबर के बेटे सोम नाथ के बारे में सोचा तो मैं काँप-सा गया। तुरन्त मैं प्रिंसीपल पी.सी. गुप्ता जी के घर गया। उसने मुझे समझाया कि मैं इस काम में दख़ल न दूँ, यह कमेटी का फैसला है।
मैं नया नया सोशल सर्विस कैम्प लगा कर हटा था और पंडित पुशपति नाथ की वाह-वाह ले चुका था। इसलिए मैं पंडित जी के पास भी जाकर उपस्थित हो गया। मेरे काम की वजह से ही वह मुझे रखे हुए थे। वैसे मेरे कम्युनिस्ट होने की सारी कहानी उन्हें भी पता थी और कमेटी के बाकी मेंबरों को भी। ''मास्टर जी, तुमने टिक कर नौकरी करनी है तो करो, हम किसी की कामरेडी नहीं झेलते। तुम्हें भी चलता कर देंगे।'' पंडित जी के आग जैसे शब्द सुनकर मेरे मानो सात कपड़ों में आग लग गई। लेकिन मैं गुस्से में भरा वापस लौट आया। अगले दिन प्रिंसीपल गुप्ता से स्पष्ट कह दिया कि मैं इस स्कूल में नौकरी नहीं करूँगा। मेरी दिलेरी के दो कारण हो सकते हैं। एक तो यह कि ब्लॉक एक्सटेंशन एजूकेटर की नौकरी के लिए मुझे इंटरव्यू लैटर मिल चुका था और दूसरा यह कि नया सैशन आरंभ होने के कारण इतनी भर तनख्वाह पर तो मुझे कहीं भी नौकरी मिल सकती थी।
चार या पाँच अप्रैल की बात है। प्रिंसीपल ने मुझे कह दिया कि कमेटी मुझे दिल से नहीं रखना चाहती। ''गुप्ता जी, अगर कमेटी मुझे रखना नहीं चाहती तो मैं भी यहाँ रहना नहीं चाहता।'' मैंने पता नहीं क्यों यह बात कह दी थी। भाई और माँ के बारे में सोच कर अन्दर ही अन्दर मैं बहुत ही घबरा गया था। एक साल में यह मेरा तीसरा स्कूल था। सभी स्कूलों की कमेटियाँ एक जैसी हैं, सब हैड मास्टर और प्रिंसीपल एक जैसे हैं - यह सोचकर मैं अपने किए पर पछता रहा था। पर सिर झुकाकर जीना भी जैसे मेरी अंतरात्मा को स्वीकार नहीं हो। तब भी और अब भी, मैं कभी भी अपनी कमजोरी के बावजूद झुककर काम नहीं कर सका था।
एस.पी. गुप्ता जैसा कि मैं पहले भी बार बार उल्लेख कर चुका हूँ, इस स्कूल में मेरा सबसे करीबी दोस्त बन चुका था। मैंने उसके संग अपना दिल खंगाला। उसने चार-पाँच गरम गरम गालियाँ पहले तो पुशपति नाथ को निकालीं और फिर सात-आठ प्रिंसीपल पी.सी. गुप्ता को। ''तू परवाह न कर। अगर तू यहाँ रहना चाहता है तो कोई कंजर तेरी ओर झांक भी नहीं सकता। मैं भी यहाँ ऐसे ही लाठी के बल पर नौकरी करता हूँ। तूने देखा नहीं, लाला की कैसे रगड़ाई किया करता हूँ।'' गुप्ता के पास आकर मानो मेरा सेर भर खून बढ़ गया हो। प्रिंसीपल गुप्ता को लाला वह अक्सर तब कहा करता था जब कभी उसने प्रिंसीपल के खिलाफ़ बात करनी होती थी। तब वह यारी-दोस्ती के सारे रिश्ते तोड़ दिया करता था। मैं अभी कुछ भी नहीं बोला था कि गुप्ता फिर बोल पड़ा, ''यह जो बाहमण है न, पुड़पुड़ी नाथ, यह बघियाड़ है बहन... और लाला गीदड़ है... साले के फच्च फच्च गोबर की धार पड़ती नहीं देखी कभी।'' गुप्ता की बकीं गालियों और सुनाए गए श्लोकों से मेरी घबराहट तो खत्म होनी ही थी, मेरी हँसी भी बन्द होने का नाम नहीं ले रही थी। मैंने गुप्ता को सारी अन्दरूनी बात बता दी और अगले दिन गुप्ता ने प्रिंसीपल से बात कर ली। निर्णय यह हुआ कि यदि तरसेम गोयल जाना चाहता है तो किसी भी समय 24 घंटे का नोटिस देकर जा सकता है। वैसे मेरे नियुक्ति पत्र में एक महीने के नोटिस की शर्त लिखी हुई थी। बढ़िया हुए इंटरव्यू के बाद मेरा हौसला और बढ़ गया। मई के पहले हफ्ते नियुक्ति पत्र आ गया। मैंने गुप्ता जी को नियुक्ति पत्र दिखाया। उसने फिर प्रिंसीपल को गाली निकाली और कहा, ''दें इनकी माँ की....'' मैंने गुप्ता जी से यह कहा, ''अब हमें डर तो कोई नहीं रहा, पर प्रिंसीपल से बिगाड़ कर जाने की भी कोई ज़रूरत नहीं।'' इसलिए हम दोनों ने दफ्तर में जाकर अपना फैसला सुना दिया। जब मेरे इस फैसले की भनक कुलवंत राय अग्रवाल को पड़ी तो वह स्वयं स्कूल में आया और प्रिंसीपल से कहने लगा, ''हम इस योग्य लड़के को किसी कीमत पर नहीं छोड़ेंगे... तू तो यूँ पंडित का चमचा है... चौथे दरजे का बणिया, हम बरनाले वाले तेरे जैसे कायर नहीं।'' जब मुझे दफ्तर में बुलाया गया, मैंने स्पष्ट कर दिया, ''चाचा जी, मुझे इससे दुगनी तनख्वाह की सरकारी नौकरी मिल गई है और 44 बंदों में से मेरा तेरह नंबर है।''
''फिर ठीक है। मैं तो समझा था कि बाहमण और इस बनिये ने मिलकर एक और गऊ पर कुल्हाड़ा न चला दिया हो।'' अग्रवाल साहिब का इशारा उस माली की तरफ था, जिसको मार्च के अन्तिम दिन आपरेशन के बाद उसकी निगाह ठीक न बनने के कारण हटा दिया गया था। वह उसकी दृष्टि में पहली गऊ थी और मैं दूसरी, पर चाचा जी को पता नहीं था कि मैं तीखे सींगों वाली गाय हूँ और इन सींगों से बाह्मण का बेड़ा बहा सकती हूँ। वह गले लगाकर चले गए और कह गए कि जाते हुए उनसे मिलकर जाऊँ।
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17 मई की रात मेरे लिए बड़ी हसीन रात थी। जे.बी.टी. के शिक्षार्थियों ने मेरी विदायगी में शानदार डिनर का इन्तज़ाम किया। स्कूल का बड़ा आँगन खूब सजाया गया। रोशनी की गई, स्टेज सजाया गया, सांस्कृतिक कार्यक्रम का प्रबंध भी किया गया। लाउड स्पीकर भी लगाया गया। जे.बी.टी. को पढ़ाने वाले सभी अध्यापकों को भी बुलाया गया। प्रिंसीपल दिल से मेरे इस विदायगी प्रोग्राम से खुश नहीं था, पर वह एस.पी. गुप्ता से बहुत डरता था और मुझसे भी। उसे डर था कि दफ्तर की ओर से इन्कार करने पर कहीं विद्यार्थी बगावत ही न कर बैठें। उसे विद्यार्थियों के संग मेरे सम्बन्धों की अच्छी जानकारी थी। इसलिए वह विदायगी समारोह में शामिल हुआ। उसे मेरी तारीफ़ भी करनी पड़ी। वाइस प्रिंसीपल सेठ ने मेरी तारीफ़ के पुल बांध दिए। एस.पी. गुप्ता को स्टेज पर बोलने का अभ्यास नहीं था, इसलिए वह कुछ नहीं बोला था। लेकिन उसके प्यार की पवित्रता का मैं सदैव ऋणी रहूँगा। बावरे ने मेरी तारीफ़ में कसीदानुमा गीत गाया। और जो भी प्रोग्राम पेश हुआ, हर आइटम में मेरा गुणगाण किया गया था। अपनी इतनी बड़ी कमजोरी के बावजूद विद्यार्थियों की ओर से मेरा यह सम्मान मेरी ज़िन्दगी का अमूल्य खजाना है, बिलकुल वैसे जैसे मौड़ मंडी के विद्यार्थियों ने हैड मास्टर खुंगर के विरोध के बावजूद स्कूल से बाहर मुझे शानदार विदायी पार्टी दी थी। मौड़ मंडी और बठिंडे के मेरे प्यारे विद्यार्थियो ! तुम जहाँ भी हो, खुश रहो। मेरी शुभकामनाएँ तुम्हारे साथ हैं।
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18 मई 1965 को मैं हमेशा हमेशा के लिए प्राइवेट स्कूलों की ज़ालिमाना हुकूमत से मुक्त हो गया था। उन दिनों अभी प्राइवेट स्कूलों में न तो सेवा सुरक्षा के पक्के नियम बने थे और न ही सरकारी स्कूलों के बराबर ग्रेड थे। यहाँ मैं यह लिख दूँ तो इसे अप्रासंगिक न समझना कि 1967 के प्राइवेट स्कूल अध्यापक संघर्ष और जेल भरो आन्दोलन के बाद ही प्राइवेट स्कूलों को पंजाब सरकार ने सरकारी स्कूलों के बराबर ग्रेड और 95 प्रतिशत ग्रांट देने का फैसला किया था।
(जारी…)
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Sunday, August 22, 2010

पंजाबी उपन्यास


''साउथाल'' इंग्लैंड में अवस्थित पंजाबी कथाकार हरजीत अटवाल का यह चौथा उपन्यास है। इससे पूर्व उनके तीन उपन्यास - 'वन वे', 'रेत', और 'सवारी' चर्चित हो चुके हैं।''साउथाल'' इंग्लैंड में एक शहर का नाम है जहाँ अधिकतर भारत से गए सिक्ख और पंजाबी परिवार बसते हैं। यहाँ अवस्थित पंजाबी परिवारों के जीवनको बेहद बारीकी से रेखांकित करता हरजीत अटवाल का यह उपन्यास इसलिए दिलचस्प और महत्वपूर्ण है क्योंकि इसके माध्यम से हम उन भारतीय लोगों की पीड़ा से रू-ब-रू होते हैं जो काम-धंधे और अधिक धन कमाने की मंशा से अपना वतन छोड़ कर विदेशों में जा बसते हैं और वर्षों वहाँ रहने के बावजूद वहाँ की सभ्यता और संस्कृति का हिस्सा नहीं बन पाते हैं।

साउथाल
हरजीत अटवाल
हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव


॥ दस ॥

जब से साधू सिंह को उम्र कैद हुई है, जगमोहन को सुखी का ख़याल आना बहुत कम हो गया है। फिर राजा राज भोज की जगह भी कुछ और ही खुल गया है, पर वह स्विमिंग के लिए फिर से उस तरफ़ नहीं जा सकता। वह जानता है कि उसे अपने लड़कों को तैरने की ट्रैनिंग अवश्य देनी चाहिए, लेकिन उधर जाने का उसका साहस नहीं हो रहा। मनदीप सब समझती है। वह कहती है-
''तुम हेज़ चले जाया करो। वह भी सुन्दर स्विमिंग पूल है। मेरी फ्रैंड के बच्चे वहीं जाते हैं।''
वह कुछ नहीं कहता। उसका मन अभी नहीं बन रहा। उसे यही खुशी है कि सुखी का भूत उसके ऊपर से उतरने लगा है। कुछ ठीक होते ही वह भूपिंदर से भी मिलता है। किसी समय वह भूपिंदर के ड्रामों की रिहर्सलों में हिस्सा लिया करता था। पुन: इस शौक को अपनाना चाहता है। भूपिंदर दो ड्रामे पहले स्टेज कर चुका है। एक फिल्म भी बनाई है पर कामयाबी नहीं मिल रही। भूपिंदर का बड़ा भाई चंडीगढ़ का जाना-पहचाना रंगकर्मी है, पर भूपिंदर उस जितना कद नहीं बना सका। नाटक जगमोहन का ऐसा शौक है कि इसके बग़ैर वह रह सकता है। भूपिंदर अपनी एक्टिंग को लेकर काफ़ी गंभीर है। वह भूपिंदर से फिर मिलता है। भूपिंदर उससे कहता है-
''यार जग्गे, कोई कहानी तलाश कर। कोई टची-सी कहानी। एकदम क्लिक करने वाली।''
वैसे तो भूपिंदर की पूरी टीम है। बीच-बीच में मेंबर शामिल होते, टूटते रहते हैं। रमेश और नाहर अभी हाल ही में जुड़े हैं। जगमोहन के लौट आने पर भूपिंदर काफ़ी उत्साहित है। वह जगमोहन को एक स्क्रिप्ट देते हुए कहता है-
''इसे पढ़ कर देख। इंडिया से आई है। रशियन राइटर की लिखी हुई है। रामायण है। सिर्फ़ दो करेक्टर चाहिएँ - एक राम, एक सीता। वही करेक्टर सीता और लक्ष्मण, राम और सरूपनखा तथा रावण और सीता का रोल निभाएँगे। बिलकुल नई किस्म की, बिलकुल फ्रैश !''
''यह तो ठीक है पर यह फ्रैशनैस साउथाल के लोगों को हज़म भी हो पाएगी।''
''हज़म तो नहीं होगी पर पहले भी हमारी कोई बात इन्हें पसंद आई है कभी। यह तो रिस्क है।''
भूपिंदर इस स्क्रिप्ट पर काम करने के लिए तैयार है। भूपिंदर का भाई कह रहा है कि वह कुछ हट कर करे। जगमोहन कुछ नहीं कह रहा। वह स्क्रिप्ट को गोल करके हाथ में पकड़े रखता है। फिर कुछ देर बाद कहता है-
''उस कामेडी वाले प्रोजेक्ट का क्या हुआ ?''
''पाकिस्तानी स्टेज शो वाले पैर नहीं लगने देते। वैसे एक स्क्रिप्ट है, पंजाबी फैमिलियों में शराब की प्रोबल्मस को लेकर। उसमें भी कामेडी डाली जा सकती है।'' भूपिंदर बताता है।
जगमोहन कुछ देर के लिए उसे मिलकर चलने लगता है। उसे भूपिंदर पर ज्यादा यकीन नहीं हो पा रहा। वह चाहता है कि यदि कुछ करना ही है तो कुछ ऐसा हो कि लोगों को पसंद आए। वह कहता है-
''भूपिंदर, जब कुछ रेडी हुआ और मेरे करने लायक हुआ तो मुझे बुला लेना।''
''ऐसे नहीं भाई। टीम का हिस्सा बनकर रह। काम है या नहीं, कुछ करना है या नहीं, पर साथ तो रह। लगातार मीटिंगें होती रहें, कुछ डिस्कस करते रहें, कुछ न कुछ निकलेगा ही बातों में से। थोड़ा सीरियस हो।''
भूपिंदर चाहता है कि उसकी टीम के सारे मैंबर भरोसे योग्य हों और जगमोहन पर उसे अधिक भरोसा नहीं है।
अगली बार जगमोहन भूपिंदर के घर जाता है तो प्रीती से मुलाकात होती है। वह पहले दिन भूपिंदर के घर आई है। ये सारी रिहर्सलें भूपिंदर अपने घर पर ही किया करता है। घर का खर्च चलाने के लिए भूपिंदर के पास लौंडरी है जिसे उसकी पत्नी चलाती है। पत्नी रणबीर कौर को उसके ड्रामों में कोई दिलचस्पी नहीं अपितु नफ़रत-सी है। वह भूपिंदर को घर का कोई पैसा इस्तेमाल नहीं करने देती। वह घर के फ्रंटरूम में रिहर्सलें ज़रूर कर लेता है, पर किसी अन्य वस्तु को हाथ नहीं लगाने देती। एक फिल्म वह घर पर कर्ज़ा लेकर बना चुका है लेकिन अब रणबीर उसकी कोई बात नहीं सुनती। इसलिए भी भूपिंदर का हाथ हर वक्त पैसे को लेकर तंग रहता है। कई बार नये चेहरों की खोज की ऐड देकर नई फिल्म के लिए पैसे इकट्ठे करने के मन्सूबे भी घड़ने लगता है। वह किसी ऐसी पार्टी की तलाश में है जिसे एक्टिंग का शौक हो और वह रुपया-पैसा खर्च करने में समर्थ भी हो ताकि कोई फिल्म ही बना ले। लेकिन सफलता नहीं मिलती।
जगमोहन पूछता है- ''कोई स्क्रिप्ट फाइनल की ?''
''वो रामायण वाली तो फिर मैंने कैंसिल कर दी। इंडिया फोन किया था, भाजी कहता था कि इस सब्जैक्ट पर काम हो चुका है।''
''फिर ?''
''वो जो कहानी शराब वाली थी, उसमें कुछ कामेडी डाली है, देख ले। अगर टिककर काम करना है तो पिवटल रोल कर ले। एक कहानी इंडिया से आई बेबे के विषय में भी है, उसके लिए कोई करेक्टर मिल जाए तो देख लेंगे।'' कहते हुए वह प्रीती की ओर देखता है। ऊँची-लम्बी प्रीती बेबे तो बिलकुल नहीं दीख रही। वह प्रीती का जगमोहन से परिचय करवाते हुए प्रीती से पूछता है, ''तुम्हारा सी.वी. है ?''
''नहीं, सी.वी. तो मैंने तैयार नहीं किया, पर बहुत सारे ड्रामों में हिस्सा लिया है इंडिया में।''
''यहाँ आकर कुछ किया ?''
''नहीं, यहाँ आकर कुछ नहीं किया। घर और बच्चों से ही फुर्सत नहीं मिली। यह तो किसी सहेली ने आपकी फिल्म देखी थी तो मुझे पता चला।''
''ठीक है, कल अपनी टीम पूरी होनी है। कल एक ड्रामे की रिहर्सल तो हमने शुरू करनी ही है, मैं चाहता हूँ कि तीनेक महीने में ड्रामा तैयार कर लें। गर्मियों में थोड़े शो करें। शराबी वाले प्ले का स्क्रिप्ट तैयार है, रोल भी कल बांट लेते हैं और बाकी सबकुछ भी।''
अगले दिन जगमोहन नहीं जा पाता और फिर वह भूपिंदर के फोन की प्रतीक्षा करने लगता है कि यदि भूपिंदर इस काम को लेकर गंभीर हुआ तो दुबारा फोन कर लेगा, पर उसका कोई फोन नहीं आता। जगमोहन सोचने लगता है कि शायद वह नाराज हो इस बात पर कि वह उसका साथ नहीं दे रहा। दो दिन और गुजर जाते हैं। वह सोचता है, अब भूपिंदर ने रोल बांट लिए होंगे। उसके लिए कुछ नहीं बचा होगा। उसे अपने आप पर गुस्सा भी आता है कि वह भूपिंदर के संग किए करार को निभा क्यों नहीं सका। एक दिन वह भूपिंदर के घर जाता है। उसे प्रीती घर के बाहर प्रतीक्षा करती मिलती है। जगमोहन 'हैलो' कहकर पूछता है, ''बाहर क्यों खड़े हो ?''
''घर में कोई है नहीं।''
जगमोहन स्वयं बेल बजाता है। कोई जवाब नहीं आता। कुछ देर बाद उसकी पत्नी शॉपिंग से लौटती दिखाई देती है। वे उससे भूपिंदर के बारे में पूछते हैं। वह कहती है-
''भूपिंदर तो इंडिया चला गया। किसी प्रोड्यूसर ने बुला लिया, किसी फिल्म में रोल मिल गया है। बस, एकदम बॉलीवुड के लिए रवाना हो गया।''
यह बताते हुए रणबीर कौर घर का दरवाजा खोल कर अन्दर चली जाती है और अन्दर से दरवाजा बन्द कर लेती है। जगमोहन और प्रीती खड़े एक-दूसरे की ओर देखते रह जाते हैं। प्रीती कहती है-
''भाई साहब को कम से कम इन्फोर्म तो करना चाहिए था।''
''वह भी क्या करे। बात नहीं बन पा रही कोई। बहुत हाथ-पैर मार रहा है।''
''आप इसके संग कब से जुड़े हुए हो ?''
''मैं तो कैजुअल सा ही हूँ। कभी टिक नहीं सका। बस, एक उबाल-सा है। मुझे लगता है कि भूपिंदर भी बस शौक पूरे कर रहा है। इसे भी पता है कि कोई फ्यूचर नहीं है इसमें।''
''क्यों नहीं फ्यूचर ! सूरज आर्ट्स वालों को देखो, कहाँ से कहाँ पहुँच गए।''
''सूरज आर्ट्स वालों के पल्ले में भी कुछ है। इधर हम भी खाली और भूपिंदर भी हमें देने योग्य नहीं है।''
''आप सूरज आर्ट्स वालों के पास नहीं गए ?''
''नहीं, मैंने बताया न कि मैं इतना सीरियस नहीं रहा... तुम गए थे ?''
''हाँ, मैंने उन्हें अप्रोच किया था। मैंने बताया कि कालेज के समय शकुन्तला का पार्ट कर चुकी हूँ। उन्होंने बुला भी लिया, पर गुरनाम ने मुझे जाने नहीं दिया। एक बार फिर फोन आया था उनका, पर गुरनाम ने इतना झगड़ा किया कि पूछो मत।''
''इसका मतलब कि तुम्हारे हसबैंड तुमसे एग्री नहीं करते।''
''वो बहुत खिलाफ है, पर मैं सोचती हूँ कि घर बैठी का मेरा टेलेंट व्यर्थ जा रहा है। मैं कन्या महाविद्यालय की ड्रामे की टॉप विद्यार्थिन हूँ, जिस पिच तक आवाज़ को मैं लेकर जा सकती हूँ, दूसरा कोई नहीं ले जा सकता। शकुन्तला का रोल मेरे जैसा अन्य कोई लड़की नहीं कर सकती। मैंने कालेज में बहुत सारे ड्रामे खेले हैं, पर यहाँ आकर...।'' कहते हुए प्रीती आँखें भर लेती है।
जगमोहन कहता है, ''आओ, तुम्हें घर छोड़ दूँ।''
''नहीं, मैं चली जाऊँगी।''
''कहाँ रहते हो ?''
''सुसैक्स रोड पर, पुराने साउथाल।''
''दूर पड़ जाएगा यहाँ से, आओ ज़रा नज़दीक सा उतार दूँगा।'' जगमोहन कहता है। प्रीती उसके संग कार में बैठ जाती है। वह जगमोहन से उसकी पत्नी के विषय में पूछती है।
''आपकी वाइफ़ आपकी एक्टिंग को लेकर कैसा सोचती है ?''
''मैं उसे इतना परेशान नहीं करता। वह काम पर जाती है और थकी हुई लौटती है। मेरे बारे में ज्यादा बॉदर नहीं करती। कितने बच्चे हैं तुम्हारे ?''
''तीन। बड़ी छह की, दूसरी चार की और लड़का अभी दो साल का है।''
''कौन लुक-आफ्टर करता है ?''
''कोई फ्रैंड है मेरी सैंपथाइज़र। उसके पास ही छोड़ कर आई हूँ।''
''तुम्हारा हसबैंड ?''
''उसकी शाम की शिफ्ट है इसलिए तो वक्त निकाल सकी हूँ। नहीं तो वह मुझे कहाँ आने देता।''
बात करते हुए उसका मन भर आता है। जगमोहन आहिस्ता से कहता है-
''सॉरी प्रीती जी, मेरा मतलब तुम्हें हर्ट करने का नहीं था।''
''नहीं, मैं हर्ट नहीं हुई।''
कहकर प्रीती खामोश हो जाती है और बाहर देखने लगती है। जगमोहन भी खामोश है। प्रीती पूछती है-
''भूपिंदर भाई साहब ने कितने प्ले किए हैं ?''
''दो प्ले इसके स्टेज हुए हैं पर चले नहीं। फिल्म पर भी काफी नुकसान करे बैठा है। मेरे हिसाब से तो तुम्हें सूरज आर्ट्स वालों तक अप्रोच करनी चाहिए।''
''करूँगी, ज़रूर करूँगी, गुरनाम को मना लूँ।'' कहते हुए प्रीती चुप हो जाती है। कुछ देर बाद जगमोहन पूछता है-
''तुम्हारे काम का कोई वीडियो है ?''
''हाँ, एक वीडियो है। किसी दिन दिखाऊँगी। जिसने भी देखा, खुश हो गया। मैं तो शान्त होकर बैठ गई थी, यह तो एक दिन सुनीता से मेरी मुलाकात हुई तो उसने ही दुबारा हौसला दिया।''
''सुनीता कौन है ?''
''सुनीता को नहीं जानते ? यह सिस्टर्स इन्हैंड्ज़ की सेक्रेटरी है। सिस्टर्स इन्हैंड्ज को तो जानते हो न ?''
''हाँ, जो संस्था औरतों की समस्याओं की बात करती है।''
''हाँ।''
''यह तो ठीक है कि यह संस्था काफी काम कर रही है, पर सुखी मर्डर केस में कुछ नहीं किया तुमने।''
''क्यों नहीं किया। जब फैसला होना था तो ओल्ड बेली के सामने उन्होंने प्रदर्शन किया था ताकि जज गलत फैसला न कर दे। ज्यूरी को भी सही सोचने के लिए मज़बूर किया।''
''ठीक है, पर लोगों में इस सो काल्ड ऑनर किलिंग के खिलाफ़ जाग्रति लाने के लिए तुम्हारी संस्था कुछ नहीं कर रही।''
''जगमोहन जी, यह काम तो पूरी सोसाइटी का है।''
''सोसाइटी क्या करेगी कुछ, सोसाइटी ने तो सुखी की मौत का अफ़सोस भी नहीं मनाया।''
(जारी…)
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Saturday, August 14, 2010

आत्मकथा


एक नेत्रहीन लेखक की आत्मकथा

धृतराष्ट्र
डॉ. एस. तरसेम
हिन्दी अनुवाद : सुभाष नीरव
चैप्टर-12(प्रथम भाग)

आख़िरी प्रायवेट स्कूल - बठिंडा

आर्य हाई स्कूल, रामपुराफूल से फारिग होकर मैं अगले ही दिन एस.डी. हायर सेकेंडरी एंड जे.बी.टी. स्कूल, बठिंडा में उपस्थित हो गया। यहाँ मैं था तो पंजाबी टीचर पर जे.बी.टी. इंचार्ज और हॉस्टल सुपरिटेंडेंट होने के कारण मेरा रुतबा आम सीनियर स्टाफ से किसी तरह कम नहीं था। इस स्कूल में आने के कई लाभ हुए। एक तो यह कि भाई की नाराजगी, माँ की उदासी और भाभी की 'टें-टें' से बच गया। दूसरे यह कि मौड़ मंडी की तरह ही मुझे स्कूल में ही रहने के लिए कमरा मिल गया, क्योंकि मैं जे.बी.टी. का हॉस्टल सुपरिटेंडेंट बनाया गया था। तीसरा यह कि रिश्तेदारी में फीका पड़ने से भी बच गया क्योंकि रामपुराफूल में बहन के घर रह कर किसी वक्त भी कोई ऐसी घटना घटित हो सकती थी जो मेरी बहन के ससुरालवालों और मेरे बीच दरार का कारण बन सकती थी। हमारे महाजनी रिश्ते-नाते काँच की चूड़ी से भी अधिक नाजुक समझे जाते हैं। अब तो बहुत अंतर आ गया है लेकिन उन दिनों बहन या ससुरालवालों के घर रहना आदमी के लिए बहुत साज़गार नहीं होता था। शायद यह आख्यान हमारे महाजनी परिवारों में अधिक प्रचलित हो कि 'बहन के घर भाई कुत्ता, ससुराल में जमाई कुत्ता'। समझ लो, मैं बहन के घर कुत्ता बनने से बच गया था। ऐसा समझो कि बठिंडा पहुँचकर मैं आज़ाद पंछी बन गया था जबकि रामपुराफूल में घर की रोटी मिलने के बावजूद मुझे बहुत सोच सोच कर चलना पड़ता था।
जे.बी.टी. क्लास में कुल चालीस विद्यार्थी थे। तीन विद्यार्थी ऐसे थे जो वहीं पहले प्राइमरी अध्यापक थे- हरबंस लाल मौंगा, सुखदेव सिंह सिद्धू और ओम प्रकाश वर्मा। हरबंस सिंह मौंगा तो उम्र में भी मुझसे बड़ा था। दाढ़ी-केश से वह लड़का नहीं, पूरा आदमी लगता था। एक अन्य विद्यार्थी भी था जो हरबंस सिंह की तरह काफी बड़ी उम्र का प्रतीत होता था। वह बड़ी नरम और सज्जन तबीअत का विद्यार्थी था पर एक विद्यार्थी था- सुखदेव सिंह धालीवाल। उसकी हरबंस सिंह, सुखदेव सिंह सिद्धू और ओम प्रकाश वर्मा से बनती नहीं थी। ऐसे हॉस्टल में किसी सुपरिटेंडेंट का नियंत्रण स्कूल के लिए एक चैलेंज था। स्कूल का प्रिंसीपल, वाइस प्रिंसीपल एस.पी. गुप्ता और सीनियर साइंस मास्टर कपूर - सब मौंगे, सिद्धू और वर्मा के प्रति नरम व्यवहार रखते थे, क्योंकि वे उनके कुलीग रह चुके थे और जे.बी.टी. पास करने के बाद उनको उसी स्कूल में पुन: लौट आना था। सुखदेव धालीवाल मन से अध्यापकों के इस रवैये से दुखी था। यही कारण था कि पहले वाले सुपरिटेंडेंट को हटा कर मुझे सुपरिटेंडेंट नियुक्त किया गया था।
एक तो मुझमें पढ़ाने के मामले में पूरा आत्मविश्वास था। दूसरा यह कि मैंने हॉस्टल का चार्ज संभालते ही विद्यार्थियों में कुछ नियमों की घोषणा कर दी थी। तीसरे यह कि विद्यार्थियों की हाजिरी आदि का सारा काम मेरे हाथ में था। मैं जे.बी.टी. को सबसे अधिक पीरियड भी पढ़ाता था। इसलिए विद्यार्थियों पर अपना प्रभाव बनाने में शीघ्र ही सफल हो गया था। प्रथम सप्ताह तो मुझे ग्राउंड फ्लोर पर एक छोटा-सा कमरा दिया गया जो हॉस्टल के ग्राउंड फ्लोर की सीढ़ियों के करीब ही था पर वह कमरा बहुत अच्छा नहीं था। इसलिए मैं यह कमरा बदलना चाहता था। उस कमरे में रह कर मैं हॉस्टल सुपरिटेंडेंट नहीं लगता था। हॉस्टल के किसी रसोईये या चौकीदार का तो यह कमरा हो सकता था, परन्तु हॉस्टल सुपरिटेंडेंट का बिलकुल नहीं, क्योंकि उसमें केवल एक चारपाई बिछती थी और उसके आसपास फुट, डेढ़ फुट की जगह बचती थी। मैंने एस.पी. गुप्ता से कहा। गुप्ता जी मुझे प्रिंसीपल पी.सी. गुप्ता के पास ले गए। वाइस-प्रिंसीपल ओ.पी. सेठ को भी वहाँ बुला लिया गया। मैंने अपने पक्ष में दो तर्क दिए। एक तो यह कि उस कमरे में हॉस्टल सुपरिटेंडेंट की रिहायश से विद्यार्थियों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता था और दूसरा यह कि विद्यार्थियों के कमरे फर्स्ट फ्लोर पर हैं, इसलिए विद्यार्थियों की निगरानी के लिए कमरा फर्स्ट फ्लोर पर ही होना चाहिए। विद्यार्थियों के दो दल होने के कारण हॉस्टल सुपरिटेंडेंट के उनके कमरों के करीब रहने की अहमियत सब समझते थे। इस समस्या के बारे में प्रिंसीपल गुप्ता के करीबी साथी मौंगा, सिद्धू और वर्मा जो अब विद्यार्थी थे, पहले ही प्रिंसीपल और सेठ साहब को बता चुके थे। इसलिए अगले ही दिन मुझे फर्स्ट फ्लोर पर एक कमरा दे दिया गया। इसमें दो बिस्तरे भी लग सकते थे, एक मेज और दो कुर्सियों के लिए भी जगह थी। वैसे भी कमरा बहुत अच्छा था और था भी कोने वाला, पर इस कमरे के मिलने पर मुझे ओम प्रकाश वर्मा को संग रखना पड़ा। कारण यह था कि कमरे कम थे। जे.बी.टी. नई नई खुली थी। स्कूल में हॉस्टल की कोई स्थायी व्यवस्था नहीं थी। ये कमरे जो अब हॉस्टल के तौर पर इस्तेमाल किए जा रहे थे, भी खाली होने के कारण स्कूल के लिए वरदान सिद्ध हुए थे। इससे स्कूल की एक तो आमदनी बढ़ गई और दूसरे इससे विद्यार्थियों की कक्षा में नियमित उपस्थिति संभव थी क्योंकि सीढ़ियाँ उतर कर पचासेक गज़ की दूरी पर बायीं ओर जे.बी.टी. का क्लास रूम था। इस स्कूल में मैं दिसम्बर की छुट्टियों से पहले ही उपस्थित हो गया था जिसके कारण प्रिंसीपल की हल्की सी न-नुकर के बाद छुट्टियों के वेतन की अदायगी हो गई थी। असूलन भी इन छुट्टियों को ग्रीष्म अवकाश की भाँति एजूकेशन कोड में वेतन न देने के नियमों में नहीं गिना जाता था। वैसे भी, जे.बी.टी. क्लास की पढ़ाई और हॉस्टल का काम ठीक ठाक चलाने के लिए प्रिंसीपल मुझे किसी बात पर नाराज नहीं करना चाहता था। यद्यपि मैं पंजाबी का अध्यापक था पर सरकारी स्कूलों के पंजाबी अध्यापकों से मेरी तनख्वाह कहीं अधिक थी। उन दिनों सरकारी या प्राइवेट स्कूलों में पंजाबी टीचर के तौर पर लगने के लिए ज्ञानी, ओ.टी. शैक्षिक योग्यता थी। कोई भी मैट्रिक पास सीधे ज्ञानी की परीक्षा दे सकता था और उसके पश्चात् दो महीने में ओ.टी. हो जाती थी। मैंने वाया बठिंडा ही बी.ए. की थी। सामाजिक शिक्षा के मास्टर ईंट उठाओ तो मिल जाते थे। कोई भी प्राइवेट स्कूल सामाजिक शिक्षा मास्टर को 100-125 रुपये से अधिक तनख्वाह नहीं देता था। इसलिए मेरी इस स्कूल में 130 रुपये पर हुई नियुक्ति कोई खराब सौदा नहीं थी। यद्यपि मैं मौड़ मंडी में 140 रुपये लेता था और वहाँ मेरी पोस्ट जैसा कि पहले भी जिक्र कर चुका हूँ, सीनियर इंग्लिश मास्टर की थी और उससे पहले जी.ए.वी. हॉयर सेकेंडरी स्कूल, कांगड़ा में मैं 150 रुपये लेता था और पढ़ाता भी वहाँ पंजाबी था। लेकिन यहाँ मौज यह थी कि हॉस्टल में मुफ्त कमरा मिल गया था। रोटी की कोई चिंता नहीं थी और चौधराहट अलग थी। जैसी सब्ज़ी-भाजी मैं चाहता था, वैसी ही बनती थी। वैसे मैंने विद्यार्थियों की एक 'मैस कमेटी' बना दी थी। यह कोओपरेटिव मैस था। एक रसोईया था। उसका नाम था दुर्गा। दुर्गा बड़ा मृदुभाषी मनुष्य था। आवाज़ भी उसकी स्त्रियों जैसी थी। लड़कों को वह बहुत खुश रखता। यह मंतर कुछ तो उसे पहले ही आता था और कुछ मैंने उसे समझा दिया था कि वह किसी भी विद्यार्थी से टकराव की स्थिति न रखे। अगर कोई समस्या आए तो वह मुझे आकर बताए।
हॉस्टल में दाल-सब्जी एक ही बनती थी। दोपहर को सब्ज़ी और शाम को धुली मूंगी की दाल। सवेरे परांठे बनते थे। जिन लड़कों के पास देशी घी होता था, वे देशी घी कटोरी में डालकर ले आते, दूसरे विद्यार्थी परांठों के साथ मिलने वाले अचार से ही सब्र कर लेते। हँसी-मजाक में एक-दूसरे से छीन-झपट कर भी घी खा जाते, ऊपर से बढ़िया गरम चाय का कप मिलता। डांग जैसी चाय बनती थी और चक्की के पाटों जैसे खस्ता परांठे। घर से भी बढ़िया नाश्ता।
हॉस्टल का प्रबंध बढ़िया देखकर प्रिंसीपल मुझसे बहुत प्रभावित था और प्रबंधक कमेटी भी। वैसे मेरे प्रभाव बनाने में असली भूमिका एस.पी. गुप्ता की थी। कुछ ही दिनों में ओ.पी. सेठ और गुप्ता मेरे संग घुल-मिल गए थे। प्रिंसीपल पी.सी.गुप्ता कैसा प्रिंसीपल था, वह तो बी.ए., बी.टी. था। इसलिए प्रिंसीपल के तौर पर उसकी नियुक्ति एक किस्म की अस्थायी नियुक्ति ही समझो। स्कूल में असल में ओ.पी.सेठ और एस.पी. गुप्ता की ही चलती थी। नतीजा यह निकला कि सत्तर से अधिक अध्यापकों के स्टाफ में मेरा तेहरवाँ नंबर होने के बावजूद मेरी पोजीशन पहले तीन-चार अध्यापकों में गिनी जाने लग पड़ी थी।
स्कूल का प्रधान पंडित पुशपति नाथ था और उप-प्रधान कुलवंत राय अग्रवाल। अग्रवाल साहिब मेरे बी.एड. के सहपाठी बरनाला निवासी सत्य भूषण गोयल के चाचा जी थे। इसलिए मैं उन्हें चाचा जी कह कर ही बुलाता था और वह मुझसे, सत्यभूषण का दोस्त होने के कारण खास स्नेह रखते थे। सनातन धर्म स्कूल, सनातन धर्म सभा, बठिंडा की सरपरस्ती में काम करता था। उस समय सनातन धर्म सभा का प्रधान डा. राम सरूप बांसल था जो मुझे 1959 से भलीभांति जानता था, क्योंकि वह मेरी मालेरकोटला वाली बहन चंद्रकांता की जेठानी का सगा भाई था। इन सभी संबंधों का परिणाम यह निकला कि मैंने स्कूल में आम प्रबंधक कमेटी के सदस्यों से कभी कोई झेंप महसूस नहीं की थी।
स्कूल में पंडित पुशपति नाथ और कुलवंत राय अग्रवाल के अलावा प्रबंधक कमेटी का खजानची भी आया करता था। पंडित जी को तो सब मास्टर दुआ-सलाम करते। कई मास्टर तो दुआ-सलाम करने के लिए दफ्तर में या दफ्तर के पास आते, पर कुछ अध्यापक इस प्रकार की दुआ-सलाम की कोई परवाह नहीं करते थे। खजानची भी आस रखता कि मास्टर उसे दुआ-सलाम करें लेकिन प्रिंसीपल और दो-चार अन्य मास्टरों को छोड़कर कोई उसे नमस्ते बुलाते नहीं देखा गया था। वह यूँ ही कक्षाओं में भी जा घुसता। एक बार वह जे.बी.टी. क्लास में भी आ गया। मैं हिसाब का घंटा ले रहा था। उसने मुझसे चाक पकड़ कर जोड़ करने का नीचे से ऊपर और ऊपर से नीचे का तरीका समझाना आरंभ कर दिया। मैंने कुछ क्षण तो देखा पर फिर मुझे ताव-सा आ गया। इस तरह तो कभी किसी शिक्षा अधिकारी को भी करते नहीं देखा था। मैं क्लास छोड़कर प्रिंसीपल के दफ्तर में चला गया। चार-पाँच मिनट बाद खजानची साहब भी दफ्तर में पहुँच गए। उसने प्रिंसीपल से मेरी शिकायत की कि मैं उसकी उपस्थिति में क्लास छोड़कर आ गया। यह बात मैं पहले भी प्रिंसीपल को बता चुका था। प्रिंसीपल कुछ नहीं बोला था। उसके माथे पर त्यौरियाँ थीं। आखिर सोच-विचार कर बोला, ''मास्टर जी, ये हमारे खजानची हैं, हिसाब में बड़े माहिर हैं, आप इनसे कोई नई बात ही सीखते।''
''पर इस तरह विद्यार्थियों में अध्यापक की क्या इज्ज़त रहेगी ?... अगर कोई भी ऐरा-गैरा कक्षा में आकर टीचर को पढ़ाने के तरीके सिखाने लग जाए।'' मैं ज़रा तल्ख़ी से बोला।
''लो देखो गुप्ता जी, मुझे यह मास्टर ऐरा-गैरा बता रहा है। मैं कोई ऐरा-गैरा हूँ। मैं स्कूल का मालिक हूँ, मालिक।'' वह गुस्से में लाल-पीला हो रहा था और उसके मुँह में से थूक गिर रहा था।
''मालिक को मास्टर बनने की क्या ज़रूरत है खजानची साहिब। आपने खुद ही अपना रुतबा घटाया है।'' अब मैं गुस्से की जगह मसखरी की रौ में आ गया था।
''लो देखो जी, कैसे बोलता है मास्टर।'' खजानची का पारा और चढ़ गया था।
''देखो गुप्ता जी, मुझे कोई मुनीमी नहीं सिखानी है। जे.बी.टी. के विद्यार्थियों को मुझे सिखाना है कि अध्यापक बनने के बाद प्राइमरी के विद्यार्थियों को कैसे पढ़ाना है। खजानची साहब वाला तरीका विशुद्ध मुनीमों वाला तरीका है। वैसे भी किसी कमेटी मेंबर को कक्षा में आकर अध्यापकों के पढ़ाने के काम में दखल नहीं देना चाहिए। अगर कोई कमी-पेशी है तो वह आपके पास आकर बताए।'' मेरी बात में दलील भी थी और मसखरी भी। प्रिंसीपल के सिर पर मानो सौ घड़े पानी उंडल गया हो। उसने बात को खत्म करने के लिए शायद यही उपाय उचित समझा कि वह लाला जी को सम्मान से विदा करें और किसी तरह मुझसे सॉरी फील करवा दें। प्रिंसीपल के इशारे को मैं समझ तो गया था, पर सॉरी शब्द मेरी डिक्शनरी में अभी तक तो कहीं लिखा ही नहीं था। लो, मैं आपको बताता हूँ कि मैंने ज़िन्दगी में न तो पहले और ना ही अब तक कभी सॉरी फील किया है। तल्ख़ी के दौरान तो यह शुभ काम मैंने कभी नहीं किया। खजानची भिनभिनाता हुआ स्कूल में से चला गया। प्रिंसीपल ने सेठ साहिब और गुप्ता जी को बुला लिया। वह चाहता था कि मैं किसी न किसी तरह खजानची के घर जाकर माफी मांग आऊँ। जब उसने यह बात सेठ और गुप्ता के सम्मुख रखी तो सेठ का रोल दोगला था, जैसा कि उसका अक्सर हुआ करता था, पर गुप्ता बिलकुल स्पष्ट था।
''ले सुन, पी.सी. गुप्ता, तरसेम माफी नहीं मांगेगा। वो टूटा-सा बनिया यूँ ही आकर रौब झाड़ता फिरता है। मैं तो कहता हूँ, अच्छा किया इसने। अब साला किसी की कक्षा में नहीं घुसेगा भविष्य में।'' मैं गुप्ता की सपोर्ट से मानो लोहे का बन गया।
दोपहर के बाद पंडित पुशपति नाथ स्कूल में पहुँच गया। चपरासी के हाथ मुझे भी बुलावा आ गया। उसने मुझे बता दिया था कि पंडित जी बहुत घबराये हुए हैं। मैं अपना पूरा पीरियड लेने के बाद दफ्तर में पहुँचा। प्रिंसीपल इस बात पर नाराज लगा कि मैं सन्देशा सुनकर तुरन्त क्यों नहीं आया। मैं पूरा पीरियड पढ़ाने की दलील देकर कुर्सी पर बैठ गया।
''यह तो अच्छी बात है।'' पंडित जी ने मेरे द्वारा पूरा पीरियड पढ़ाकर आने की प्रशंसा की। शायद अब पंडित जी का पारा कुछ उतर भी गया था। मसला खजानची की इज्ज़त या बेइज्ज़ती का था। यह कमेटी का पक्ष हो सकता है, पर यह मसला मेरे लिए अध्यापक की इज्ज़त और बेइज्ज़ती का भी था। पंडित जी के पूछने पर मैंने बात स्पष्ट कर दी कि कोई भी कमेटी मेंबर अगर कक्षा में आकर अध्यापक को तौर-तरीका सिखाने लग जाए तो इसका विद्यार्थियों पर बुरा असर पड़ता है। इस तरह तो सयाना डी.आई. (उस समय ज़िला शिक्षा अधिकारी को डी.आई. अर्थात डिस्ट्रिक इंस्पेक्टर ऑफ स्कूल्ज़ कहते थे।) भी कक्षा में आकर नहीं करता। प्रधान को मेरी बात जंच गई थी लेकिन फिर भी वह चाहता था कि मैं बात को खत्म करने के लिए लाला जी के घर हो आऊँ। मैंने ज़िन्दगी में कभी भी ऐसा काम नहीं किया था। मैंने स्पष्ट कह दिया कि यह काम मुझसे नहीं हो सकेगा। सभी अध्यापक मेरे इस किरदार से खुश थे, क्यों कि खजानची पहले भी कई अध्यापकों के साथ कक्षा में ऐसा व्यवहार करता रहा था।
(जारी…)
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Sunday, August 1, 2010

पंजाबी उपन्यास



''साउथाल'' इंग्लैंड में अवस्थित पंजाबी कथाकार हरजीत अटवाल का यह चौथा उपन्यास है। इससे पूर्व उनके तीन उपन्यास - 'वन वे', 'रेत', और 'सवारी' चर्चित हो चुके हैं। ''साउथाल'' इंग्लैंड में एक शहर का नाम है जहाँ अधिकतर भारत से गए सिक्ख और पंजाबी परिवार बसते हैं। यहाँ अवस्थित पंजाबी परिवारों के जीवन को बेहद बारीकी से रेखांकित करता हरजीत अटवाल का यह उपन्यास इसलिए दिलचस्प और महत्वपूर्ण है क्योंकि इसके माध्यम से हम उन भारतीय लोगों की पीड़ा से रू-ब-रू होते हैं जो काम-धंधे और अधिक धन कमाने की मंशा से अपना वतन छोड़ कर विदेशों में जा बसते हैं और वर्षों वहाँ रहने के बावजूद वहाँ की सभ्यता और संस्कृति का हिस्सा नहीं बन पाते हैं।

साउथाल
हरजीत अटवाल
हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव

॥ नौ॥
जब से साधू सिंह को उम्र कैद हुई है, जगमोहन को सुखी का ख़याल आना बहुत कम हो गया है। फिर राजा राज भोज की जगह भी कुछ और ही खुल गया है, पर वह स्विमिंग के लिए फिर से उस तरफ़ नहीं जा सकता। वह जानता है कि उसे अपने लड़कों को तैरने की ट्रैनिंग अवश्य देनी चाहिए, लेकिन उधर जाने का उसका साहस नहीं हो रहा। मनदीप सब समझती है। वह कहती है-
''तुम हेज़ चले जाया करो। वह भी सुन्दर स्विमिंग पूल है। मेरी फ्रैंड के बच्चे वहीं जाते हैं।''
वह कुछ नहीं कहता। उसका मन अभी नहीं बन रहा। उसे यही खुशी है कि सुखी का भूत उसके ऊपर से उतरने लगा है। कुछ ठीक होते ही वह भूपिंदर से भी मिलता है। किसी समय वह भूपिंदर के ड्रामों की रिहर्सलों में हिस्सा लिया करता था। पुन: इस शौक को अपनाना चाहता है। भूपिंदर दो ड्रामे पहले स्टेज कर चुका है। एक फिल्म भी बनाई है पर कामयाबी नहीं मिल रही। भूपिंदर का बड़ा भाई चंडीगढ़ का जाना-पहचाना रंगकर्मी है, पर भूपिंदर उस जितना कद नहीं बना सका। नाटक जगमोहन का ऐसा शौक है कि इसके बग़ैर वह रह सकता है। भूपिंदर अपनी एक्टिंग को लेकर काफ़ी गंभीर है। वह भूपिंदर से फिर मिलता है। भूपिंदर उससे कहता है-
''यार जग्गे, कोई कहानी तलाश कर। कोई टची-सी कहानी। एकदम क्लिक करने वाली।''
वैसे तो भूपिंदर की पूरी टीम है। बीच-बीच में मेंबर शामिल होते, टूटते रहते हैं। रमेश और नाहर अभी हाल ही में जुड़े हैं। जगमोहन के लौट आने पर भूपिंदर काफ़ी उत्साहित है। वह जगमोहन को एक स्क्रिप्ट देते हुए कहता है-
''इसे पढ़ कर देख। इंडिया से आई है। रशियन राइटर की लिखी हुई है। रामायण है। सिर्फ़ दो करेक्टर चाहिएँ - एक राम, एक सीता। वही करेक्टर सीता और लक्ष्मण, राम और सरूपनखा तथा रावण और सीता का रोल निभाएँगे। बिलकुल नई किस्म की, बिलकुल फ्रैश !''
''यह तो ठीक है पर यह फ्रैशनैस साउथाल के लोगों को हज़म भी हो पाएगी।''
''हज़म तो नहीं होगी पर पहले भी हमारी कोई बात इन्हें पसंद आई है कभी। यह तो रिस्क है।''
भूपिंदर इस स्क्रिप्ट पर काम करने के लिए तैयार है। भूपिंदर का भाई कह रहा है कि वह कुछ हट कर करे। जगमोहन कुछ नहीं कह रहा। वह स्क्रिप्ट को गोल करके हाथ में पकड़े रखता है। फिर कुछ देर बाद कहता है-
''उस कामेडी वाले प्रोजेक्ट का क्या हुआ ?''
''पाकिस्तानी स्टेज शो वाले पैर नहीं लगने देते। वैसे एक स्क्रिप्ट है, पंजाबी फैमिलियों में शराब की प्रोबल्मस को लेकर। उसमें भी कामेडी डाली जा सकती है।'' भूपिंदर बताता है।
जगमोहन कुछ देर के लिए उसे मिलकर चलने लगता है। उसे भूपिंदर पर ज्यादा यकीन नहीं हो पा रहा। वह चाहता है कि यदि कुछ करना ही है तो कुछ ऐसा हो कि लोगों को पसंद आए। वह कहता है-
''भूपिंदर, जब कुछ रेडी हुआ और मेरे करने लायक हुआ तो मुझे बुला लेना।''
''ऐसे नहीं भाई। टीम का हिस्सा बनकर रह। काम है या नहीं, कुछ करना है या नहीं, पर साथ तो रह। लगातार मीटिंगें होती रहें, कुछ डिस्कस करते रहें, कुछ न कुछ निकलेगा ही बातों में से। थोड़ा सीरियस हो।''
भूपिंदर चाहता है कि उसकी टीम के सारे मैंबर भरोसे योग्य हों और जगमोहन पर उसे अधिक भरोसा नहीं है।
अगली बार जगमोहन भूपिंदर के घर जाता है तो प्रीती से मुलाकात होती है। वह पहले दिन भूपिंदर के घर आई है। ये सारी रिहर्सलें भूपिंदर अपने घर पर ही किया करता है। घर का खर्च चलाने के लिए भूपिंदर के पास लौंडरी है जिसे उसकी पत्नी चलाती है। पत्नी रणबीर कौर को उसके ड्रामों में कोई दिलचस्पी नहीं अपितु नफ़रत-सी है। वह भूपिंदर को घर का कोई पैसा इस्तेमाल नहीं करने देती। वह घर के फ्रंटरूम में रिहर्सलें ज़रूर कर लेता है, पर किसी अन्य वस्तु को हाथ नहीं लगाने देती। एक फिल्म वह घर पर कर्ज़ा लेकर बना चुका है लेकिन अब रणबीर उसकी कोई बात नहीं सुनती। इसलिए भी भूपिंदर का हाथ हर वक्त पैसे को लेकर तंग रहता है। कई बार नये चेहरों की खोज की ऐड देकर नई फिल्म के लिए पैसे इकट्ठे करने के मन्सूबे भी घड़ने लगता है। वह किसी ऐसी पार्टी की तलाश में है जिसे एक्टिंग का शौक हो और वह रुपया-पैसा खर्च करने में समर्थ भी हो ताकि कोई फिल्म ही बना ले। लेकिन सफलता नहीं मिलती।
जगमोहन पूछता है- ''कोई स्क्रिप्ट फाइनल की ?''
''वो रामायण वाली तो फिर मैंने कैंसिल कर दी। इंडिया फोन किया था, भाजी कहता था कि इस सब्जैक्ट पर काम हो चुका है।''
''फिर ?''
''वो जो कहानी शराब वाली थी, उसमें कुछ कामेडी डाली है, देख ले। अगर टिककर काम करना है तो पिवटल रोल कर ले। एक कहानी इंडिया से आई बेबे के विषय में भी है, उसके लिए कोई करेक्टर मिल जाए तो देख लेंगे।'' कहते हुए वह प्रीती की ओर देखता है। ऊँची-लम्बी प्रीती बेबे तो बिलकुल नहीं दीख रही। वह प्रीती का जगमोहन से परिचय करवाते हुए प्रीती से पूछता है, ''तुम्हारा सी.वी. है ?''
''नहीं, सी.वी. तो मैंने तैयार नहीं किया, पर बहुत सारे ड्रामों में हिस्सा लिया है इंडिया में।''
''यहाँ आकर कुछ किया ?''
''नहीं, यहाँ आकर कुछ नहीं किया। घर और बच्चों से ही फुर्सत नहीं मिली। यह तो किसी सहेली ने आपकी फिल्म देखी थी तो मुझे पता चला।''
''ठीक है, कल अपनी टीम पूरी होनी है। कल एक ड्रामे की रिहर्सल तो हमने शुरू करनी ही है, मैं चाहता हूँ कि तीनेक महीने में ड्रामा तैयार कर लें। गर्मियों में थोड़े शो करें। शराबी वाले प्ले का स्क्रिप्ट तैयार है, रोल भी कल बांट लेते हैं और बाकी सबकुछ भी।''
अगले दिन जगमोहन नहीं जा पाता और फिर वह भूपिंदर के फोन की प्रतीक्षा करने लगता है कि यदि भूपिंदर इस काम को लेकर गंभीर हुआ तो दुबारा फोन कर लेगा, पर उसका कोई फोन नहीं आता। जगमोहन सोचने लगता है कि शायद वह नाराज हो इस बात पर कि वह उसका साथ नहीं दे रहा। दो दिन और गुजर जाते हैं। वह सोचता है, अब भूपिंदर ने रोल बांट लिए होंगे। उसके लिए कुछ नहीं बचा होगा। उसे अपने आप पर गुस्सा भी आता है कि वह भूपिंदर के संग किए करार को निभा क्यों नहीं सका। एक दिन वह भूपिंदर के घर जाता है। उसे प्रीती घर के बाहर प्रतीक्षा करती मिलती है। जगमोहन 'हैलो' कहकर पूछता है, ''बाहर क्यों खड़े हो ?''
''घर में कोई है नहीं।''
जगमोहन स्वयं बेल बजाता है। कोई जवाब नहीं आता। कुछ देर बाद उसकी पत्नी शॉपिंग से लौटती दिखाई देती है। वे उससे भूपिंदर के बारे में पूछते हैं। वह कहती है-
''भूपिंदर तो इंडिया चला गया। किसी प्रोड्यूसर ने बुला लिया, किसी फिल्म में रोल मिल गया है। बस, एकदम बॉलीवुड के लिए रवाना हो गया।''
यह बताते हुए रणबीर कौर घर का दरवाजा खोल कर अन्दर चली जाती है और अन्दर से दरवाजा बन्द कर लेती है। जगमोहन और प्रीती खड़े एक-दूसरे की ओर देखते रह जाते हैं। प्रीती कहती है-
''भाई साहब को कम से कम इन्फोर्म तो करना चाहिए था।''
''वह भी क्या करे। बात नहीं बन पा रही कोई। बहुत हाथ-पैर मार रहा है।''
''आप इसके संग कब से जुड़े हुए हो ?''
''मैं तो कैजुअल सा ही हूँ। कभी टिक नहीं सका। बस, एक उबाल-सा है। मुझे लगता है कि भूपिंदर भी बस शौक पूरे कर रहा है। इसे भी पता है कि कोई फ्यूचर नहीं है इसमें।''
''क्यों नहीं फ्यूचर ! सूरज आर्ट्स वालों को देखो, कहाँ से कहाँ पहुँच गए।''
''सूरज आर्ट्स वालों के पल्ले में भी कुछ है। इधर हम भी खाली और भूपिंदर भी हमें देने योग्य नहीं है।''
''आप सूरज आर्ट्स वालों के पास नहीं गए ?''
''नहीं, मैंने बताया न कि मैं इतना सीरियस नहीं रहा... तुम गए थे ?''
''हाँ, मैंने उन्हें अप्रोच किया था। मैंने बताया कि कालेज के समय शकुन्तला का पार्ट कर चुकी हूँ। उन्होंने बुला भी लिया, पर गुरनाम ने मुझे जाने नहीं दिया। एक बार फिर फोन आया था उनका, पर गुरनाम ने इतना झगड़ा किया कि पूछो मत।''
''इसका मतलब कि तुम्हारे हसबैंड तुमसे एग्री नहीं करते।''
''वो बहुत खिलाफ है, पर मैं सोचती हूँ कि घर बैठी का मेरा टेलेंट व्यर्थ जा रहा है। मैं कन्या महाविद्यालय की ड्रामे की टॉप विद्यार्थिन हूँ, जिस पिच तक आवाज़ को मैं लेकर जा सकती हूँ, दूसरा कोई नहीं ले जा सकता। शकुन्तला का रोल मेरे जैसा अन्य कोई लड़की नहीं कर सकती। मैंने कालेज में बहुत सारे ड्रामे खेले हैं, पर यहाँ आकर...।'' कहते हुए प्रीती आँखें भर लेती है।
जगमोहन कहता है, ''आओ, तुम्हें घर छोड़ दूँ।''
''नहीं, मैं चली जाऊँगी।''
''कहाँ रहते हो ?''
''सुसैक्स रोड पर, पुराने साउथाल।''
''दूर पड़ जाएगा यहाँ से, आओ ज़रा नज़दीक सा उतार दूँगा।'' जगमोहन कहता है। प्रीती उसके संग कार में बैठ जाती है। वह जगमोहन से उसकी पत्नी के विषय में पूछती है।
''आपकी वाइफ़ आपकी एक्टिंग को लेकर कैसा सोचती है ?''
''मैं उसे इतना परेशान नहीं करता। वह काम पर जाती है और थकी हुई लौटती है। मेरे बारे में ज्यादा बॉदर नहीं करती। कितने बच्चे हैं तुम्हारे ?''
''तीन। बड़ी छह की, दूसरी चार की और लड़का अभी दो साल का है।''
''कौन लुक-आफ्टर करता है ?''
''कोई फ्रैंड है मेरी सैंपथाइज़र। उसके पास ही छोड़ कर आई हूँ।''
''तुम्हारा हसबैंड ?''
''उसकी शाम की शिफ्ट है इसलिए तो वक्त निकाल सकी हूँ। नहीं तो वह मुझे कहाँ आने देता।''
बात करते हुए उसका मन भर आता है। जगमोहन आहिस्ता से कहता है-
''सॉरी प्रीती जी, मेरा मतलब तुम्हें हर्ट करने का नहीं था।''
''नहीं, मैं हर्ट नहीं हुई।''
कहकर प्रीती खामोश हो जाती है और बाहर देखने लगती है। जगमोहन भी खामोश है। प्रीती पूछती है-
''भूपिंदर भाई साहब ने कितने प्ले किए हैं ?''
''दो प्ले इसके स्टेज हुए हैं पर चले नहीं। फिल्म पर भी काफी नुकसान करे बैठा है। मेरे हिसाब से तो तुम्हें सूरज आर्ट्स वालों तक अप्रोच करनी चाहिए।''
''करूँगी, ज़रूर करूँगी, गुरनाम को मना लूँ।'' कहते हुए प्रीती चुप हो जाती है। कुछ देर बाद जगमोहन पूछता है-
''तुम्हारे काम का कोई वीडियो है ?''
''हाँ, एक वीडियो है। किसी दिन दिखाऊँगी। जिसने भी देखा, खुश हो गया। मैं तो शान्त होकर बैठ गई थी, यह तो एक दिन सुनीता से मेरी मुलाकात हुई तो उसने ही दुबारा हौसला दिया।''
''सुनीता कौन है ?''
''सुनीता को नहीं जानते ? यह सिस्टर्स इन्हैंड्ज़ की सेक्रेटरी है। सिस्टर्स इन्हैंड्ज को तो जानते हो न ?''
''हाँ, जो संस्था औरतों की समस्याओं की बात करती है।''
''हाँ।''
''यह तो ठीक है कि यह संस्था काफी काम कर रही है, पर सुखी मर्डर केस में कुछ नहीं किया तुमने।''
''क्यों नहीं किया। जब फैसला होना था तो ओल्ड बेली के सामने उन्होंने प्रदर्शन किया था ताकि जज गलत फैसला न कर दे। ज्यूरी को भी सही सोचने के लिए मज़बूर किया।''
''ठीक है, पर लोगों में इस सो काल्ड ऑनर किलिंग के खिलाफ़ जाग्रति लाने के लिए तुम्हारी संस्था कुछ नहीं कर रही।''
''जगमोहन जी, यह काम तो पूरी सोसाइटी का है।''
''सोसाइटी क्या करेगी कुछ, सोसाइटी ने तो सुखी की मौत का अफ़सोस भी नहीं मनाया।''
(जारी…)
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