समकालीन पंजाबी साहित्य की उत्कृष्ट कृतियों की तलाश

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Saturday, September 25, 2010

आत्मकथा



एक नेत्रहीन लेखक की आत्मकथा

धृतराष्ट्र
डॉ. एस. तरसेम
हिन्दी अनुवाद : सुभाष नीरव
चैप्टर-14

दैत्य जैसा विघ्न

स्वास्थ्य विभाग में ब्लॉक एक्सटेंशन एजूकेटर के नियुक्ति पत्र मिलने के बाद पहला काम था मेडिकल फिटनेस सर्टिफिकेट लेना। मेरी नियुक्ति पटियाला ज़िला के प्राइमरी हैल्थ सेंटर, शतराणे की हुई थी, पर मेडिकल करवाना था सी.एम.ओ. अर्थात चीफ मेडिकल आफीसर सिविल सर्जन संगरूर से। सिविल सर्जन था डॉ. एच.एस. ढिल्लों। सुना था कि डॉ. ढिल्लों किसी समय मुख्य मंत्री प्रताप सिंह कैरो का निजी डॉक्टर हुआ करता था। इसलिए ऐसे अफसर के पास पहुँच निकलाना कोई सरल काम नहीं था। मेरे भाई को भी पता था और मुझे भी कि मेडिकल करवाने में विघ्न आ सकता है। विघ्न भी आँखों का। बात हुई भी वैसी ही। हालांकि मेरे भाई ने तपा के पी.एच.सी. अर्थात प्राइमरी हैल्थ सेंटर, तपा मंडी के मेडिकल अफसर डॉ. नरेश को मेरे संग भेज दिया था और वह सिविल सर्जन को मेरे बारे में कह भी आया था, पर विघ्न आखिर पड़ ही गया। सिविल अस्पताल, संगरूर से लैबोरेट्री के सारे टैस्टों की रिपोर्ट ठीक मिली। स्क्रीनिंग वाले ने भी एक फेफड़े से संबंधित छोटी सी अड़चन लगाने के बाद आखिर रिपोर्ट ठीक कर दी थी। अब रह गया था आँखों का टैस्ट जो सिविल सर्जन के दफ्तर में होना था। बरामदे में एक चार्ट लगा हुआ था जिसे बीस फुट की दूरी से पढ़ना था। आँखों के टैस्ट के लिए यही उसूल अब भी है। मैंने ऐनक सहित दायीं आँख से अन्तिम पंक्ति को छोड़कर सभी पंक्तियाँ पढ़ दी थीं। बायीं आँख से ऐनक के बावजूद अन्तिम दो पंक्तियाँ बिलकुल न पढ़ सका और उनसे ऊपर वाली पंक्ति कुछ धुंधली नज़र आती थी। तीसरी श्रेणी के कर्मचारियों के लिए आँखों की इतनी रोशनी मेडिकल फिटनेस के लिए उन दिनों भी काफ़ी समझी जाती थी, और अब भी काफ़ी समझी जाती है। बरामदे में चार्ट लगा होने के कारण मुझे चार्ट पढ़ने में कोई कठिनाई पेश न आई। सुबह का समय था, रोशनी पूरी थी। अगर कमरे में चार्ट लगा होता तो शायद कोई मुश्किल आती। डॉक्टर साहब ने मेडिकल फिटनेस सर्टिफिकेट भरने के लिए बाबू को आदेश दे दिया, पर बाबू ने कहा, ''साब, यह चार्ट तो पढ़वा कर देख लें।'' यह नज़दीक की नज़र टैस्ट करने के लिए चार्ट था। चार्ट अंग्रेजी में था। अंग्रेजी पढ़ने में मुझे कोई दिक्कत नहीं थी लेकिन एक आँख से नीचे की तीन लाइनें और दूसरी से दो लाइनें नहीं पढ़ी जा सकीं। यह काम डॉक्टर की जगह बाबू ने किया था। बाबू ने जो नोट दिया, उसने मुझे पूरी तरह चक्कर में डाल दिया। पर डॉक्टर साहब ने मुझे यह कहकर वापस लौटा दिया कि मैं दोबारा टैस्ट करके नई ऐनक लगवाऊँ।
मैं बहुत उदास था। घर पहुँचकर जब मैंने बताया तो भाई और भी अधिक उदास हो गया। डॉक्टर नरेश से सलाह-मशविरा किया। आख़िर आँखों के एक डॉक्टर के परामर्श के बाद नज़दीक की नज़र टैस्ट करवाई गई और दूर की भी। जिस तरह के शीशे उसने बताये, वे न बठिंडा में मिलते थे, न पटियाला में। डॉक्टर ने कहा कि यह ऐनक दिल्ली से बनेगी। मैं और मेरा भाई रात की गाड़ी दिल्ली के लिए चढ़ गए। ऐनक तो बन गई पर उससे नज़दीक की नज़र की समस्या हल न हुई।
मैं दिल्ली जाते और वहाँ से लौटते हुए यही सोचता रहा कि इस तरह ज़िन्दगी कैसे कटेगी। दूर की नज़र की तो अधिक चिंता नहीं थी, पर नज़दीक की नज़र की बहुत चिंता थी। अंधराते के कारण रात के समय भी आँख से बहुत परेशानी हो रही थी। लेकिन उस वक्त आँखों की असली बीमारी का कुछ भी पता नहीं था। आखिर, उसी डॉ. नरेश को संग ले जाकर हम पुन: संगरूर सिविल सर्जन के दफ्तर पहुँच गए। भाई के एक सफल और आदर्श मुख्य अध्यापक होने की धूम पूरे ज़िला संगरूर में थी। डॉ. ढिल्लों ने भी मेरे भाई का नाम सुन रखा था। डॉ. नरेश ने बताया कि नई ऐनक तो लगवाई है पर अभी इस पर करीब की नज़र टिकी नहीं है।
डॉक्टर साहब ने मेरी दोनों ऐनकें देखीं। नज़दीक की नज़र चैक किए बिना उसने मेरी फाइल मंगवाई और 'करेक्टिड विद ग्लासिज़' लिखकर उसने बाबू को मेडिकल फिटनेस सर्टिफिकेट तैयार करने का हुक्म दे दिया। बाबू ने सी.एम.ओ. साहब का हुक्म सुन लिया, पर यूँ लगता था मानो अन्दर से वह बहुत दुखी हो। उसने मुझे इशारे से अपने कमरे में बुला लिया। कहने लगा-
''जा, जा कर नई ऐनक लेकर आ।''
''दोनों ऐनकें तो सी.एम.ओ. साहब के मेज पर पड़ी हैं। बाबू जी, मुझे डॉक्टर साहब से बहुत डर लगता है। आप ही ले आओ तो अच्छा है।'' मैंने विनम्रता से कहा।
''फिर सर्टिफिकेट आज तो नहीं मिल सकता।''
''फिर कब मिलेगा जी ?''
''मैं कह नहीं सकता।'' बाबू के हर लफ्ज़ में तल्खी थी।
मुझे लगा मानो बाबू का चलाया पहला तीर तुक्का सफल न होने के कारण उसके अन्दर की चुभन उसे मेरे प्रति बदज़न कर रही थी। इसलिए मैं बाबू के साथ किसी और बहस में न पड़ने की बजाय सी.एम.ओ. साहब के दफ्तर की ओर चल पड़ा।
''कहाँ चले हो ?''
''जी, ऐनकें लेने।''
पता नहीं बाबू डर गया था या उसके अन्दर सद्भावना जाग्रत हो उठी थी कि उसने फटाफट सर्टिफिकेट तैयार करना शुरू कर दिया। हाथ से वह सर्टिफिकेट भरता रहा और मुँह से बड़बड़ाता रहा था।
उस समय तक मैंने कभी न तो किसी बाबू को रिश्वत दी थी और न ही किसी के आगे गिड़गिड़ाया था। मैं समझ गया था कि पहले नज़दीक की ऐनक वाला चार्ट पढ़वाकर जो समस्या उसने खड़ी कर दी थी, उसका मकसद सौ, दो सौ रुपये झाड़ने से अधिक कुछ नहीं था, क्योंकि उन दिनों में दो सौ रुपया भी एक बड़ी रकम हुआ करती थी- क्लर्क की महीने भर की तनख्वाह ! जिस पोस्ट पर मुझे लगना था, उसकी एक महीने की तनख्वाह और नए नियुक्त हुए डॉक्टर की कम से कम 25 दिन की तनख्वाह। लेकिन मेरी ओर से उसके साथ सौदा करने की बजाय दिल्ली से ऐनकें बनवाकर लाने और सी.एम.ओ. साहब की मेहरबानी के कारण उसका बुना हुआ सारा जाल छिन्न-भिन्न हो गया था। मैं उसकी बात समझने के बावजूद उसके जाल में नहीं फंस रहा था। यदि वह मेरा सर्टिफिकेट भरने का काम न करता तो संभव है कि मैं बाबू के साथ हुई बाचचीत सी.एम.ओ. साहब के सामने उगल देता। इसका शायद मुझे नुकसान भी हो सकता था। इसलिए मैं मीठा बनकर भी यह काम निकाल लेना चाहता था। बाबू पर आए गुस्से को मैं अन्दर ही अन्दर पी गया था। बाबू ने भी तिलों में तेल न देखकर मेडिकल फिटनेस सर्टिफिकेट की तीन प्रतियाँ बनाकर सी.एम.ओ. साहब के मेज पर जा रखीं।
मेरे लिए सी.एम.ओ. साहिब भगवान बनकर आए थे। यदि अड़ जाते तो मैं किसी योग्य नहीं रहता। सर्टिफिकेट देते समय सी.एम.ओ. साहिब ने डॉक्टर से भी हाथ मिलाया और मेरे भाई से भी। मेरे मन को राहत तो मिल गई थी पर खुश बिलकुल नहीं था। दृष्टि के कम होने की चिंता ने मेरे अन्दर जो डर बिठा दिया था, उस कारण मैं ज़िन्दगी में कई प्राप्तियों से वंचित रहा हूँ। इस दर्द भरी कहानी को मैं आगे साथ-साथ बयान करता रहूँगा।
जब हम वापस तपा लौट रहे थे तो विजय जैसा अहसास दिल में कोई नहीं था। अब मेरे दिमाग में आ रहा था कि मैं कक्षा में पाठ्य पुस्तक पढ़ने से क्यों कतराता था। बी.एड. के बाद मैंने जिस भी स्कूल में पढ़ाया, कभी भी किताब स्वयं नहीं पढ़ी थी, विद्यार्थियों से ही पढ़वाता था। ब्लैक बोर्ड पर कुछ लिख तो अवश्य देता था लेकिन विद्यार्थियों की कापियों का निरीक्षण बहुत कम करता था। वैसे भी मैं विद्यार्थियों को कलम से लिखकर लाने के लिए कहा करता। उस जमाने के विद्यार्थी भले विद्यार्थी थे, अध्यापक के हुक्म को ईश्वर का हुक्म मानते थे। खुली लाइनों वाली कापियों पर कलम से लिखे हुए को पढ़ने में मुझे अधिक कठिनाई नहीं होती थी। कांगड़ा और बठिंडा में मैंने पंजाबी पढ़ाई थी, मौड़ मंडी में अंग्रेजी और सामाजिक शिक्षा, अंग्रेजी लिखने के लिए मैं 'ज़ैड' का निब इस्तेमाल करने के लिए कहता। किसी भी विद्यार्थी ने हुक्म अदूली नहीं की थी। इसलिए एक दो कापियाँ जो भी जांचता, मोटी लिखाई होने के कारण पढ़ने में मुझे कोई दिक्कत न होती। हालांकि कलम और जैड़ के निब से लिखने का रिवाज़ सुखानंद आर्य हाई स्कूल, तपा में आम था और शायद अन्य स्कूलों में भी हो, पर मैं पक्के तौर पर नहीं कह सकता कि विद्यार्थियों को इस तरह करने के लिए मैं उसी रिवाज के कारण कहता था या अपनी सुविधा के लिए।
मोर्चा फतह करने के बाद भी हम दोनों भाई बहुत खुश नहीं थे पर सरकारी नौकरी और वह भी अच्छी तनख्वाह वाली नौकरी। साथ ही लिखने-पढ़ने से भी छुटकारा, यह मेरे लिए तसल्ली वाली बात तो थी ही, मेरे भाई के लिए भी अधिक संतुष्टि वाली बात थी।
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27 मई 1965 को मैं दोपहर से पहले प्राइमरी हैल्थ सेंटर, शतराणा पहुँच गया। वहाँ का एम.ओ. (मेडिकल आफ़ीसर) डॉ. अवतार सिंह, डॉ. नरेश का सहपाठी था और डॉक्टर साहब ने बताया था कि डॉ. अवतार को भी कविता लिखने का शौक है। उसने डॉ. अवतार सिंह के नाम मुझे चिट्ठी भी दी थी। संगरूर से शतराणे की सीधी बस मिल गई। मन में खुशी भी थी, घबराहट भी और बहुत कुछ और भी। इसका एक मात्र कारण था- मेरी नज़र का कम होना, खास तौर पर रात में चलने-फिरने की समस्या। मुझे पता था कि मेरी नौकरी दफ्तर में बैठने वाली नहीं, गांवों में जाकर लोगों से सम्पर्क करने वाली है। इस बात का डर था कि कहीं रात को ही किसी गांव में जाने की ज़रूरत न पड़ जाए। लेकिन पहले तो ड्यूटी पर हाज़िर होने की बात थी।
पी.एच.सी. शतराणा पातड़ां-नरवाणा-जींद सड़क पर स्थित था। गांव सड़क के बायें हाथ पर अन्दर की तरफ दो-ढाई किलोमीटर की दूरी पर था, भाखड़ा नहर का पुल पार करके। इस इलाके से अपरिचित होने की बात मैंने ड्राइवर को बता दी थी और यह भी बता दिया था कि मैं यहाँ अस्पताल में स्थायी नौकरी पर हाज़िर होने के लिए आया हूँ। उसने जब मेरी तनख्वाह के बारे में पूछा तो उसने अंदाजा लगाया होगा कि मैं डॉक्टर हूँ। इसलिए उसने मुझे डॉक्टर साहिब कहकर ही बुलाना आरंभ कर दिया। पहले तो मुझे इस शब्द 'डॉक्टर साहिब' का सम्बोधन पराया सा लगा लेकिन यह बात मेरे हक में पूरी उतरती थी। पी.एच.सी. के बिलकुल सामने ड्राइवर ने बस रोक दी। ''वो है डॉक्टर साहिब आपका अस्पताल।'' ड्राइवर ने अपने बायें हाथ की कनिष्ठिका(छोटी उंगली) से संकेत करते हुए कहा। मेरा गर्मियों का बिस्तरा और एक अटैची कंडक्टर और एक सवारी ने स्वयं पकड़कर उतारा। ''ले भाई, डॉक्टर साहब को अस्पताल छोड़ कर आ।'' कंडक्टर ने सवारी से कहा और उस अधेड़ से सरदार ने मेरा बिस्तरा और अटैची उठा लिया। अस्पताल के सिर्फ़ पाँच कमरे थे। चार दायीं ओर और एक बायीं ओर। बीच में बरामदा था। मैंने सरदार साहब का धन्यवाद किया जिसने मेरा बिस्तर और अटैचीकेस उठाया था। बायीं ओर दूसरा कमरा मेडिकल आफ़ीसर का था और पहला कमरा क्लर्क का। मैं पहले कमरे में घुस गया। कुर्सी पर बैठे जिस शख्स से पहली बार हाथ मिलाने का अवसर मिला उसने अपना परिचय सरबजीत सिकंद, सैनेटरी इंस्पेक्टर के रूप में करवाया। मैंने अटैची खोलकर अपनी ज्वायनिंग रिपोर्ट की दो कापियाँ उसके सामने रख दीं। वह मुझे साथ वाले कमरे में डॉ. अवतार सिंह के पास ले गया और मेरी ज्वायनिंग रिपोर्ट की दोनों कापियाँ उसके सामने रख दीं। हैल्थ सेंटर में मेरे नियुक्ति पत्र की एक प्रति पहले ही पहुँच चुकी थी, इसलिए डॉक्टर साहब को मेरे आने पर कोई हैरानी नहीं हुई थी। मैंने डॉ. अवतार सिंह को डॉ. नरेश की चिट्ठी भी दी। उसके चेहरे पर रौनक आ गई। मैंने डॉक्टर साहब की कविता 'जूती' का जिक्र किया जिसके विषय में मुझे डॉ. नरेश ने बताया था कि उसकी यह कविता कॉलेज में बहुत मकबूल हुई थी। डॉ. अवतार सिंह के चेहरे पर रौनक जैसे दुगनी-चौगुनी हो उठी हो।
पूरे अस्पताल को पाँच-सात मिनट में ही यह पता चल गया कि एक रैगुलर हैल्थ एजूकेटर आ गया है। ब्लॉक एक्सटेंशन एजूकेटर को वहाँ हैल्थ एजूकेटर कहकर बुलाया जाता था। इस पोस्ट पर अस्थायी तौर पर एक महिला काम कर रही थी। डॉक्टर साहब ने उसे बुलाया और मेरे बारे में बताने के बाद सरबजीत सिकंद से कहा कि वह उस महिला की रिलीविंग चिट तैयार कर दे। ''यह अन्न-जल का मसला है बीबी।'' डॉक्टर साहिब जैसे मुक्त हो रही महिला को ढाढ़स बंधा रहे थे। सचमुच महिला उदास थी। मैंने भी अनुभव किया कि मैं किसी को हटाकर रोजगार प्राप्त कर रहा हूँ। लेकिन ये सब अस्थायी भावनाएँ थीं। नौकरी में मैंने पहले भी कई बार अनेक लोगों को रिलीव होते और उपस्थित होते देखा था। आँखों में आँसू भी देखे थे और चेहरों पर मुस्कान भी। सन् 1965 की 27 मई थी, पंडित जवाहर लाल नेहरू की पहली बरसी। परन्तु उस दिन छुट्टी नहीं थी। इसलिए यह उपस्थित होने की तारीख़ मेरे मन-मस्तिष्क में कहीं गहरे अंकित हो रखी है।
चाय और रोटी का प्रबंध पता नहीं डॉक्टर साहब ने करवाया या सरबजीत ने, पर मुझे तसल्ली थी कि मैं ठीक स्थान पर पहुँच गया हूँ। अस्पताल गांव के बाहर की तरफ था। अस्पताल की तरफ ही कुछ दूरी पर चाय की एक दुकान थी। वह मिठाई भी रखता था। दुकान के साथ ही उनकी रिहाइश भी थी। बिलकुल उनके सामने सड़क के दूसरी तरफ पाँच-सात कमरे बने हुए थे, लेकिन डॉक्टर साहब शतराणा गांव में रहते थे। फार्मिस्ट वेद प्रकाश शर्मा करीब दो किलोमीटर के फासले पर अस्पताल के दूसरी तरफ पड़ने वाले गांव पैंद में रहते थे। सभी कर्मचारी नज़दीक के ही किसी न किसी गांव में रहते थे। अस्पताल के पास किसी की भी रिहाइश नहीं थी। सिर्फ़ सेवा सिंह चौकीदार ही अपनी ड्यूटी के कारण अस्पताल के दायीं ओर के अन्तिम कमरे में रहता था।
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मैंने अभी अपनी रिहाइश के लिए फैसला नहीं किया था कि शतराणा गांव में रहूँ या पैंद में। पातड़ां में भी जा सकता था जो छह-सात किलोमीटर के फासले पर था और वहाँ रौनक-मेला भी अच्छा था। जब मैं बस से शतराणा पहुँचा, पातड़ां रास्ते में पड़ा था। शतराणा से आगे खनौरी था, वह भी अच्छा कस्बा था, बिलकुल भाखड़ा और घग्गर नदी के पास बसा हुआ। लेकिन मैं अस्पताल के नज़दीक ही कहीं रहना चाहता था। जंग सिंह जो था तो चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी, पर वह वेद प्रकाश के साथ डिस्पेंसरी में काम करता था और चारों तरफ उसका अच्छा रसूख था। दोपहर के बाद उसने मुझे दो कमरे दिखलाये जो अस्पताल की तरफ चायवाले की दुकान से लगे दो कमरों के पीछे की ओर पड़ते थे। पहले दो कमरों में चायवाले का परिवार था, एक में बड़ा देशराज रहता था और दूसरे में छोटा बख्शी। देशराज जिसे दरियाई मल भी कहते थे, के दो जवान लड़के भी थे और बीवी भी। बख्शी बेचारा छड़ा था। यह बात मुझे बाद में पता चली थी। उसके छड़े रहने की कहानी मैंने आहिस्ता आहिस्ता सुन ली थी। यहाँ एक कमरा मुझे पसंद आ गया। हालांकि यह कमरा काम चलाऊ था, पर अस्पताल के करीब होने के कारण और साथ में एक परिवार के बसे होने के कारण मुझे यह कमरा ठीक लगा क्योंकि मुझे अपनी माँ को लेकर आना था। सो, मैंने दस रूपये महीना पर कमरा पक्का कर लिया।
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शाम को हैल्थ एजूकेटर महिला की विदाई पार्टी थी और मुझे दी जा रही स्वागत पार्टी भी, जैसा चाहे समझ लो। पार्टी का प्रबंध डॉक्टर साहब के निवास पर किया गया। वह शतराणा में एक ऐसे मकान में रहते थे जिसे एक पुरानी हवेली कहा जा सकता था। पहले दरवाजा, फिर आँगन के बाद तीन कमरे। दायीं ओर सीढ़ियाँ थीं। यहाँ चौबारे में डॉक्टर साहब की रिहाइश थी। मैं एक अन्य सैनेटरी इंस्पेक्टर सहगल की साइकिल के पीछे बैठकर डॉक्टर साहब के निवास पर पहुँचा था। पार्टी में फार्मेसिस्ट भी था, एल.एच.वी. था, और दो सैनेटरी इंस्पेक्टर भी थे। एक ए.एन.एम., दो दाइयाँ और दो दर्जा चार कर्मचारी। डॉक्टर साहब की परियों जैसी पत्नी और राजकुमारों जैसे करीब पाँच बरस के राजू को मिलकर तो मुझे ऐसा महसूस हुआ कि डॉक्टर अवतार सिंह तो बड़ा ही खुशकिस्मत अफसर है, जिसे ऐसा परिवार नसीब हुआ है। डॉक्टर साहब की पत्नी ने जिस तरह मेरा स्वागत किया, वह मेरी ज़िन्दगी का एक अविस्मरणीय पल है। नम्रता की पुंज यह स्त्री अपने हाथों से प्लेटें रख रही थी, चाय सर्व कर रही थी और उसके चेहरे पर संजीदगी भी थी और शगुफ्तगी भी।
अपना अपना परिचय देने के बाद पता चला कि एल.एच.वी. श्रीमती दविंदर कौर है, ए.एन.एम. प्रेम लता है, शांती और अमर कौर दाइयाँ हैं। इसके अलावा, चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी ओम प्रकाश था और विदा हो रही महिला का नाम शायद निर्मला था। वैसे मैं उसके नाम के बारे में निश्चयपूर्वक नहीं कह सकता। डॉक्टर साहब ने बताया कि यह महिला एम.ए. पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन है। उसकी शैक्षिक योग्यता सुनकर मैं थोड़ा सिकुड़ गया था। उस समय मैं सिर्फ़ बी.ए., बी.एड. था, पर चाय पार्टी के बाद जब सुनने-सुनाने का दौर चला तो डॉक्टर साहब ने अपनी लम्बी कविता 'जूती' सुनाई। उससे पहले डॉक्टर साहब ने मेरे शायर होने के बारे में बताते हुए मुझे भी कुछ सुनाने के लिए जोर डाला। मैंने बचपन में नेहरू जी की प्राप्तियों के विषय में एक कविता लिखी थी जिसे सुनाने से पूर्व मैंने उसकी पृष्ठभूमि बताई। इस कविता के बाद मैंने दो बंद पंडित जी की मृत्यु पर लिखी कविता के भी सुनाए। डॉक्टर साहब की कविता के लिए मेरी फरमाइश भी थी और कर्मचारियों की भी। उनकी कविता अच्छी थी, सादी और प्रभावशाली। बाद में, अधिक जोर डालने पर मैंने दो कविताएँ और सुनाईं। किसी और ने शायद कुछ नहीं सुनाया था। सरबजीत ने विदा हो रही महिला की प्रशंसा में कुछ शब्द कहे और साथ ही मेरा स्वागत भी किया। डॉक्टर साहब ने उस महिला और मेरे बारे में संक्षेप में कुछ कहा था। जैसे कि मुझे बोलने का अच्छा अनुभव था, विदा हो रही महिला की कार्य कुशलता संबंधी डॉक्टर साहब और सरबजीत के भाषणों के आधार पर मैंने अपना भाषण कुछ इस तरह पेश किया कि मेरी भाषण कला, मेरी कविता से भी आगे निकल गई। अपने बारे में बोलते हुए मैंने स्वयं को नौसिखिया बताते हुए सबसे कुछ न कुछ सीखने का यकीन दिलाया और आशा व्यक्त की कि डॉक्टर साहब की सरपरस्ती और शेष कर्मचारियों की सहायता से धीरे धीरे मैं अपनी ड्यूटी निभाने में सफल हो जाऊँगा।
हम कमरे के बाहर आँगन में बैठे थे, उन दिनों शतराणा में बिजली नहीं आई थी। एक ग्लोब लैम्प पड़ा था और एक तरफ एक लालटेन टंगी हुई थी।
डॉक्टर साहब ने रस्मी तौर पर रात में उनके पास ही रहने के लिए कहा, पर मैं पहले दिन ही अपनी कमजोरी को अपने अफसर के सामने खोलना नहीं चाहता था। वैसे भी मुझे सहगल साहब के साथ अस्पताल तक चले जाना था। लालटेन संग होने के कारण सीढ़ियाँ उतरने और दरवाजे में से निकल कर साइकिल तक जाने में मुझे कोई खास दिक्कत नहीं आई थी। समझो, मेरी कमजोरी पर पर्दा पड़ा रह गया था। सहगल मुझे चौकीदार के कमरे तक छोड़ते समय संग चलने की सलाह दे रहा था। मैंने उसका शुक्रिया अदा किया और चौकीदार के पास रहने को ही वरीयता दी।
सेवा सिंह ने रोटी के लिए सलाह नहीं दी थी, दिल से कहा था, पर रोटी की मुझे भूख नहीं थी। उसने अपनी चारपाई के पास ही मेरी चारपाई बिछा दी थी। मेरे सिर पर से जैसे एक भारी बोझ उतर गया हो। दिन के समय मुझे कहीं भी आने जाने में कोई दिक्कत नहीं थी। लिखने-पढ़ने मे मैं माहिर था। वैसे भी अस्पताल में मेरे लिए कोई खास पेपर वर्क नहीं था, जिस रजिस्टर पर मैंने अपनी उपस्थिति दर्ज़ की, उससे मुझे पता चल गया था कि उस रजिस्टर पर ही रोज सवेरे आकर हाज़िरी लगानी है। यह कोई खास काम नहीं था।
नींद ऐसी आई कि पौ-फटे के समय ही आँख खुली। सेवा सिंह मुझे पातड़ां की तरफ जंगल-पानी के लिए ले गया। शायद रास्ते में पानी का कोई सोता था। हम सूरज चढ़ने से पाँच-सात मिनट बाद ही लौट कर कमरे में आ गए थे। नहाने धोने के बाद मैं नाश्ते के लिए स्वयं बख्शी की दुकान पर चला गया। अस्पताल से इस दुकान का सिर्फ़ दो मिनट का ही तो रास्ता था। सेवा सिंह ने हालांकि मुझे नाश्ते के लिए कहा था पर मैं उस पर कोई बोझ नहीं बनना चाहता था और न ही मुझे अभी उसके स्वभाव की जानकारी थी। इसलिए चाय के लिए कुछ शकरपारे और एक मट्ठी खाकर मैं कुछ शकरपारे और एक मट्ठी सेवा सिंह के लिए ले आया था। सेवा सिंह की आँखों में खुशी थी। कहने को तो उसने कहा कि क्यों तकलीफ़ की, पर शायद उसे यह पता चल गया था कि स्वभाव के तौर पर मैं खुले दिलवाला हूँ, बड़े-छोटे में कोई अन्तर नहीं समझता। सेवा सिंह के साथ मेरा यह प्यार आख़िरी दिन तक रहा।
(जारी…)
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Sunday, September 19, 2010

पंजाबी उपन्यास



''साउथाल'' इंग्लैंड में अवस्थित पंजाबी कथाकार हरजीत अटवाल का यह चौथा उपन्यास है। इससे पूर्व उनके तीन उपन्यास - 'वन वे', 'रेत', और 'सवारी' चर्चित हो चुके हैं। ''साउथाल'' इंग्लैंड में एक शहर का नाम है जहाँ अधिकतर भारत से गए सिक्ख और पंजाबी परिवार बसते हैं। यहाँ अवस्थित पंजाबी परिवारों के जीवन को बेहद बारीकी से रेखांकित करता हरजीत अटवाल का यह उपन्यास इसलिए दिलचस्प और महत्वपूर्ण है क्योंकि इसके माध्यम से हम उन भारतीय लोगों की पीड़ा से रू-ब-रू होते हैं जो काम-धंधे और अधिक धन कमाने की मंशा से अपना वतन छोड़ कर विदेशों में जा बसते हैं और वर्षों वहाँ रहने के बावजूद वहाँ की सभ्यता और संस्कृति का हिस्सा नहीं बन पाते हैं।
साउथाल
हरजीत अटवाल
हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव

॥ बारह ॥

प्रीती कार में से इधर-उधर देखती है और फिर एकदम उतर जाती है। जगमोहन भी कार दौड़ा ले जाता है। प्रीती जाती हुई कार को देखते हुए मन ही मन कह रही है - ''पगला, बॉय-बॉय भी नहीं करके गया।'' जैसे ही कार मोड़ मुड़ती है, वह सुसैक्स रोड पर तेज कदमों से चलने लगती है। वह सोच रही है कि जगमोहन को पहली मुलाकात में ही इतनी बातें नहीं बतानी चाहिए थीं। मर्द औरत की कमजोरी का लाभ उठाने में देर नहीं करता। सभी मर्द एक-से ही होते हैं। उसे याद है कि जब गुरनाम ने उसे पीट डाला था तो सामने वाले घर का पाकिस्तानी बहुत ही हमदर्दी दिखाने लगा था। उसके मन का एक कोना यह भी कह रहा है कि कोई उसकी बात को सुनने वाला भी हो। कोई उसका हमदर्द हो। कोई प्यार से पेश आए। उसके सपनों की कद्र करे। गुरनाम ने तो सदैव उसकी उपेक्षा ही की है। किसी के साथ बात साझा करने पर ही उसका सन्देश पहुँचेगा। ऐसा सोचते हुए उसको जगमोहन के संग दिल की बातें साझा कर लेना अच्छा लगता है।
वह बच्चों को जीतो मौसी के घर से लेने के लिए उसके दरवाजे की घंटी बजाती है। मौसी बच्चों को दरवाजे में ही लाकर धीमी आवाज़ में कहती है-
''तेरा अंकल घर में ही है।''
प्रीती जानती है कि अंकल को भी गुरनाम की भाँति उसकी यह एक्टिंग वाली बात पसन्द नहीं है। इसीलिए अंकल प्रीती को पसन्द नहीं करता, पर मौसी जीतो उसकी सहेली की तरह है। गुरनाम की सारी चोटों को वह सहलाते हुए सलाह देने लगती है-
''क्यों इतनी मार खाती है, यह नाइन-नाइन-नाइन किसलिए है। एक बार डायल कर दे, फिर देखना, कैसे सीधा होता है। अपने अंकल की ओर ही देख ले। तेरे अंकल ने भी बहुत अति कर रखी थी, एक झटके में सीधा हो गया। ये मर्द सोचते हैं कि हम सिर्फ़ डरावा ही देती हैं। इसने मेरा मुँह सुजा दिया था, मैंने पुलिस बुला ली। फिर लगा मिन्नतें करने। यह उस समय की बात है, जब बच्चे छोटे हुआ करते थे। अभी भी जब आँखें दिखाता है तो मैं कह देती हूँ कि मुझे नाइन-नाइन-नाइन डायल करना आता है। फिर क्या, मूत की झाग की तरह बैठ जाता है। ये मर्द लोग भी डरपोकों को ही डराते हैं।''
''यह बात तो मुझे सिस्टर्ज इनहैंड्ज़ वाली भी कहती हैं। पर नहीं मौसी, मेरा बाप क्या कहेगा कि लड़की ने दामाद पर पुलिस बुला ली।''
प्रीती जीतो की बात पर ध्यान नहीं देती। उसे अपना बसा-बसाया घर अच्छा लगता है। उसके बसते हुए घर में ही उसके माता-पिता की इज्ज़त है। कुछ समय पहले उसने सिस्टर्ज़ इनहैंड्ज़ वाली सुनीता के साथ बात की थी तो वह उसे पुलिस के पास भेजने को बहुत उतावली हो उठी थी। लेकिन पुलिसवाला हल उसे पसन्द नहीं है। गुरनाम को उसका सिस्टर्ज़ इनहैंड्ज़ की सुनीता से मिलना-जुलना अच्छा तो नहीं लगता, पर वह उसे रोकता नहीं। असल में, गुरनाम उसे किसी बात पर भी नहीं रोका करता। बस, उसे एक्टिंग वाली बात पसन्द नहीं है।
गुरनाम प्रीती पर हाथ तो शुरू के दिनों में ही उठा लेता है जब प्रीती एक्टिंग को रोजगार के तौर पर अपनाने के लिए कहती है। गुरनाम ठांय-से थप्पड़ मारते हुए कहता है-
''मुझे वाइफ़ चाहिए, कंजरी नहीं।''
जब कि विवाह से पहले प्रीती के पिता ने बता भी दिया था कि लड़की नाटक खेलने में अभिरूचि रखती है। गुरनाम चुप रहा था। कान लपेट रखे थे। दुहाजू होने के कारण डरता भी था कि पता नहीं, विवाह हो भी कि नहीं, प्रीती जैसी सुन्दर लड़की हाथ से क्यों गंवाई जाए। उन दिनों में प्रीती इंग्लैंड में नई थी। कोई परिचित भी नहीं था। इसलिए थप्पड़ खाकर खामोश रह गई थी और अपने शौक को भूल गई थी। अन्दर घुसकर रो-रोकर मन हल्का कर लिया था। फिर मीना आ गई, फिर टीना और दीपू। इतने समय तक प्रीती ने एक्टिंग की बात कभी नहीं की थी।
घर में वैसे देसी मैग़जीन्स आते रहते हैं जिनमें ऐसे विज्ञापन होते हैं कि किसी नाटक या फिल्म के लिए नये चेहरे की आवश्यकता है या फिर किसी एक्टिंग स्कूल में दाख़िला खुला होने की सूचना दी गई होती है। वह ऐसे विज्ञापनों को बहुत ललचाई नज़रों से पढ़ा करती है। एक्टिंग का कीड़ा उसके दिमाग में बड़ी तेजी से घूमने लगता है। एक बार वह किसी एक्टिंग स्कूल को फोन कर बैठती है और स्कूल वाले एप्लीकेशन फॉर्म और अन्य लिटरेचर भेज देते हैं। गुरनाम को जब पता चलता है तो वह फिर प्रीती को पीट देता है। पड़ोसन जीतो मौसी भी उसको बहुत समझाती है कि छोड़ यह ड्रामों के झंझट को। यदि गुरनाम को ड्रामे अच्छे नहीं लगते तो न इनके विषय में सोच और न ही अपना अपमान करवा। बात करते करते पुलिस को बुला लेने का भी परामर्श दे जाती है।
प्रीती को किसी से भूपिंदर के बारे में जानकारी मिलती है कि वह ड्रामे तैयार करता है। वह सोचती है कि जाकर तो देखे कि वहाँ ड्रामे कैसे तैयार करवाये जाते हैं। उसे गुरनाम की मार-कुटाई का ख़याल भी आता है पर गुरनाम की शाम की शिफ्ट है। दो बजे काम पर जाता है और रात दस बजे काम से लौटता है। बच्चे संभालने के लिए जीतो मौसी है ही। मौसी ही हर दुख-सुख में उसको सहारा देती है। वह भूपिंदर के ड्रामे में काम करने को लेकर मौसी से सलाह-मशवरा करती है। मौसी गुरनाम के बुरे स्वभाव के बारे में चेतावनी देती हुई उसे उत्साहित करने लगती है। मौसी को ड्रामों की कोई समझ नहीं, पर उसे अन्दर ही अन्दर प्रीती का विद्रोह की ओर बढ़ना अच्छा लगता है। मौसी के अपने सारे बच्चे विवाह करवाकर अपने अपने घर जा चुके हैं। घर में वह और उसका पति लच्छू ही रहते हैं। लच्छू प्रीती को बिलकुल पसन्द नहीं करता, पर बच्चों से प्यार करता है। उनका घर में आना उसे अच्छा लगता है। जीतो अपने पति को यह नहीं बताती कि प्रीती ड्रामे खेलने के चक्कर में है।
भूपिंदर के पास जाते समय प्रीती कुछ भी सोच सकने में असमर्थ है। एक अजीब सा पागलपन सवार है उसके मन पर। वह सोचती रहती है कि वह अपने इरादे की बहुत मजबूत है। कालेज के दिनों में जहाँ वह अड़ जाती थी, कोई उसे वहाँ से हिला नहीं सकता था। कई बार संगी-साथियों के साथ उसका पंगा पड़ जाया करता था। अब जब उसका दिल फिर से अभिनय की ओर जाने को हो रहा है तो कोई उसे नहीं रोक सकता। लेकिन साथ ही उसे यह भी पता है कि गुरनाम एक डांट मारेगा और वह आराम से बैठ जाएगी और उसके आगे कुछ भी नहीं कर सकेगी। वह यह भी नहीं सोच रही कि एक दिन तो गुरनाम को पता चलेगा ही। एक बात उसके मन के किसी कोने में पड़ी है कि जब गुरनाम उसका काम देखेगा तो वह ज़रूर पसन्द करेगा। फिर सब कुछ ठीक हो जाएगा। एक बात और भी उसके मन में है जो सुनीता भी कहती है और मौसी जीतो भी कि गुरनाम को पुलिस की धमकी दे, जो आज तक वह नहीं दे पाई। मौसी के घर से बच्चों को लेकर अपने घर में घुसते हुए वह सोचती है कि इतना बड़ा रिस्क लेकर जाती भी है, पर सब कुछ निष्फल रह जाता है भूपिंदर के इंडिया चले जाने के कारण। वैसे उसे भूपिंदर के काम करने का ढंग बहुत अच्छा भी नहीं लगता। भूपिंदर अपने बारे में ही बहुत सोचता है। उसे बाकी टीम की अधिक चिंता नहीं है। जब जब वह उसके घर गई है, वहाँ कोई खास रिहर्सल नहीं हो सकी। उसने गिनती के ही संवाद बोले होंगे, लेकिन उसे इतने भर से ही अथाह तसल्ली मिलती है। उसे इस बात का भी अफ़सोस है कि जगमोहन उससे फिर से मिलने का वायदा करके भी नहीं जाता। न टेलीफोन नंबर, न कुछ अन्य। पता नहीं मिलने का सबब बनेगा कि नहीं।
भूपिंदर की ड्रामा टीम में शामिल होने की कोशिश उसका हौसला बढ़ा देती है। कुछ समय बाद प्रीती फिर सूरज आर्टस वालों से अप्वाइंटमेंट ले लेती है। वह उनसे कहती है कि वे उसे कोई न कोई रोल दें। वह यह भी जानती है कि इसका नतीजा क्या निकलेगा, फिर भी स्वयं को रोक नहीं पाती। सूरज आर्टस वाले कहते हैं कि जब ज़रूरत होगी, वे उसे फोन करेंगे। सूरज आर्टस वालों को जब ज़रूरत पड़ती है तो वे प्रीती को फोन करते हैं। फोन गुरनाम उठा लेता है। फिर वही कुछ होता है, जिसका डर होता है। इस बार गुरनाम प्रीतो को इतना मारता है कि वह बिस्तर पर से उठने लायक भी नहीं रहती। इस मार-पिटाई के दौरान ही बड़ी बेटी पुलिस को फोन कर देती है। पुलिस गुरनाम को पकड़ कर ले जाती है। प्रीती सिस्टर्ज इनहैंड्ज़ की शरण लेती है। वे प्रीती का केस अपने हाथ में ले लेती हैं। वे प्रीती को अस्पताल ले जाकर गुरनाम के ख़िलाफ़ केस को बड़ा करने की कोशिश करने लगती हैं। गुरनाम का यह पहला केस होने के कारण उसे कचेहरी की ओर से कुछ जुर्माना होता है और प्रताड़ना भी दी जाती है, साथ ही घर से सौ गज दूर रहने का आदेश भी। सिस्टर्ज़ इनहैंड्ज़ इस केस को मीडिया के माध्यम से खूब उछालती हैं। वे गवर्नमेंट की ओर से मिलती ग्रांट की एवज में दिखाना चाहती हैं कि वे बहुत काम कर रही हैं। प्रीती को लगता है कि वह अब आज़ाद हो गई है। इंडिया में बैठे माँ-बाप को वह स्वयं ही धीरे-धीरे समझा लेगी।
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Saturday, September 11, 2010

आत्मकथा



एक नेत्रहीन लेखक की आत्मकथा

धृतराष्ट्र
डॉ. एस. तरसेम
हिन्दी अनुवाद : सुभाष नीरव
चैप्टर-13

अलीगढ़ से भी रौशनी न मिल सकी

यद्यपि कांगड़ा से नौकरी छोड़ आया था पर जे.बी.टी. हॉयर सेकेंडरी स्कूल के अपने साथी हरीश चन्दर द्वारा बंधाई गई आस के कारण मैं बहुत उत्साह में था। परन्तु अलीगढ़ जाने का प्रोग्राम तो तभी बन सकता था जब हरीश खुद अलीगढ़ में हो। हरीश अलीगढ़ में ग्रीष्म अवकाश के दिनों के अलावा नहीं मिल सकता था। उस समय कांगड़ा पंजाब का हिस्सा होने के कारण गरमी की छुट्टियाँ वहाँ भी पंजाब के मैदानी इलाकों के अनुसार ही होती थीं। मैं उन दिनों एस.डी.हाई स्कूल, मौड़ मंडी में नौकरी करने के कारण गरमी की छुट्टियों की बड़ी बेसब्री से प्रतीक्षा कर रहा था। हालांकि मुझे पता था कि गरमी की छुट्टियों की तनख्वाह नहीं मिलेगी, क्योंकि मैं छुट्टियों से दो महीना पहले ही स्कूल में लगा था, और मेरी यह छुट्टियों की तनख्वाह इस स्कूल में मेरे दस महीने पूरे होने पर ही मिलनी थी। पर आँखों की ज्योति के सामने तनख्वाह का मसला बहुत छोटा था, और फिर अलीगढ़ के किराये भाड़े और अस्पताल का खर्चा जितना भर होना था, उतने भर पैसे मैंने अपनी तनख्वाह में से बचा लिए थे। अस्पताल के खर्च के बारे में मुझे हरीश ने बता रखा था कि वहाँ मरीज का कोई खास खर्च नहीं होता। रहने के लिए ठिकाना हरीश का घर होना था, इसलिए पैसे टके की आवश्यकता मेरे अलीगढ़ जाने में कोई बाधा नहीं थी।
छुट्टियाँ होने के कुछ दिन बाद ही मैं रेल से अलीगढ़ पहुँच गया। जिस तरह हरीश अपने घर की माली हालत के बारे में बताया करता था, वह उसकी कंजूसी के कारण बनी आदत का हिस्सा थी। अलीगढ़ जिस घर में मैं पहुँचा, वह तो बहुत बढ़िया दो मंज़िली हवेली थी। यह हवेली उसके पिता को पाकिस्तान में खोई जायदाद के बदले में अलाट हुई थी। उसके पिता और माँ का सलूक देखकर तो मैं और भी हौसले में आ गया था और सोचता था कि कांगड़ा में हरीश का साथ मेरे लिए वरदान साबित होगा। मेरी आँखों की रोशनी के बारे में हरीश सबकुछ जानता था क्योंकि पहले हम दोनों इकट्ठे रहा करते थे और फिर मेरी माँ के वहाँ पहुँच जाने के कारण उसने मेरी रिहायश के पास ही एक कमरा ले लिया था। रात में तो मैं उसके बग़ैर दो कदम भी नहीं चल सकता था। दिन के समय भी बेशक पढ़ने-लिखने में कोई खास दिक्कत नहीं थी, पर फिर भी उसे पता चल गया था कि मैं स्कूल में स्वयं किताब लेकर नहीं पढ़ाता था, बल्कि किताब कोई विद्यार्थी ही पढ़ा करता था। बाकी अध्यापक भी उन दिनों कक्षा में किताब किसी विद्यार्थी को ही पढ़ने के लिए कहा करते थे और अब भी करते हैं। इसलिए इस 'तू पढ़' वाली जुगत में ही मेरा पर्दा बना हुआ था। घर में अंग्रेजी की किसी किताब या अख़बार पढ़ने के लिए मैं हरीश को ही कहता और सच्चाई मैंने उसे बता दी थी। शायद इसी कारण उसे मेरे साथ अधिक हमदर्दी थी।
इस पहली फेरी के समय अलीगढ़ में मेरा एक हफ्ता लग गया। हरीश ही मेरे साथ रोज़ 'गांधी आई अस्पताल' जाता और साथ लेकर ही मुझे लौटता। अब वहाँ इस अस्पताल के बानी डॉ. मोहन लाल के स्थान पर उसका भाई डॉ. महेश गुप्ता अस्पताल का प्रमुख था। हरीश के कहने सुनने से ही मुझे डॉ. महेश गुप्ता के इलाज की सहूलियत मिल गई थी। जब छह दिन बाद मुझे ऐनक का नया नंबर दिया गया और डॉक्टर ने यह भी हिदायत दी कि यहीं से बनवाकर ले जाऊँ तो मुझे इस तरह लगा मानो मेरे जीवन की राह ही बदल गई हो। इस ऐनक के शीशे बिलकुल सफेद नहीं थे बल्कि हल्के आसमानी रंग के थे। इस ऐनक से धूप में देखने पर भी आँखों पर कोई बोझ नहीं पड़ता था। वैसे भी मेरी पहली ऐनक के स्फेरिकल माइनस साढ़े चार और माइनस पाँच के साथ-साथ कुछ सिलेंड्रीकल नंबर भी पड़ गया था, जिसके कारण दूर की नज़र टैस्ट करने वाले चार्ट की निचली दो पंक्तियों को छोड़कर सारा चार्ट ठीक पढ़ा जाता था। इसके साथ ही पीने के लिए एक दवाई और विटामिन ए और विटामिन ए ई की गोलियाँ भी खाने की हिदायत पर्ची पर लिख दी थी। वापस लौटते समय मैं बहुत हौसले में था। एक तो हरीश के परिवार के स्वभाव के कारण और दूसरा नई ऐनक और खाने-पीने वाली दवा की आस के कारण।
दिसम्बर की छुट्टियों में मैं फिर अकेला ही अलीगढ़ चला गया था। हरीश के चिट्ठी-पत्र वाले लहजे और उसकी मेरी पिछली फेरी के समय की गई सहायता के कारण मैंने अकेले जाने में कोई परेशानी नहीं समझी। पर मुझे चाय पिलाने के बाद बाज़ार जाने के बहाने जब मुझे बैग उठाने संबंधी हरीश ने इशारा किया तो मुझे लगा कि मेरी पिछली किसी गुस्ताखी के कारण उसका विचार पहले से काफी बदला हुआ है। एक घटिया सी धर्मशाला में कमरा दिलवाकर उसने मुझे सवेरे सीधा नौ बजे अस्पताल पहुँचने के लिए कह दिया। मैं सारी रात सो न सका। धर्मशाला से मिला बिस्तरा मैंने सामने रख लिया और रात अपने वाले कम्बल में ही काटी। हालांकि रात में चलने फिरने वाली मुश्किल तो मेरी ज्यों कि त्यों थी और दिन के समय भी नई ऐनक के कारण मुझे काफी फायदा प्रतीत होता था, पर डॉ. महेश गुप्ता की जगह अब मेरा जिस डॉक्टर से वास्ता पड़ा, उसका व्यवहार बिलकुल भी हमदर्दीवाला नहीं था। पहले की तरह सात दिन के बजाय भले ही चार पाँच दिन में मेरा काम निपट गया था, पर पहले वाला हौसला इस फेरी में मुझे नहीं मिला था। हरीश दो बार आकर रस्मी तौर पर पता कर गया था, पर मैंने समझ लिया था कि भविष्य में आने पर मुझे उसके घर जाने की ज़रूरत नहीं। रात को ठहरने और दो तीन समय की रोटी का प्रबंध भी जैसे तैसे हुआ, कर लिया था। इस फेरी से पिछले उत्साह में भी कमी आ गई थी, क्योंकि ऐनक का नंबर वही था और दवाई भी वही खानी थी। लेकिन इस दवाई के खाने से अंधराते के इलाज में कोई प्रगति नहीं हुई थी।
तीसरी बार मैं अपने भान्जे विजय कुमार को संग ले गया। इस समय तक मैं एस.डी. हाई स्कूल, मौड़ मंडी से आर्य हाई स्कूल, रामपुराफूल से होता हुआ एस.डी. हॉयर सेकेंडरी और जे.बी.टी. स्कूल, बठिंडा पहुँच चुका था और अप्रैल की दस छुट्टियों के कारण विजय कुमार भी खाली था। उसके संग होने के कारण मेरे अन्दर रात में चलने-फिरने का कोई डर नहीं रहा था। रहने के लिए अलीगढ़ के आर्य समाज मंदिर में एक कमरा मिल गया था और सोने के लिए हम घर से ही चादरें ले गए थे। विजय को संग ले जाने का एक लाभ यह भी हुआ कि इस बार जिस डॉ. राजिंदर गोगी ने मेरा इलाज किया, उसने मुझे दो महीने के लिए जो कैप्सूल दिए, वे अमेरिका की किसी कंपनी ने बनाए थे। नए इलाज के कारण मुझे आशा की नई किरण नज़र आई। डॉ. गोगी का बर्ताव भी बहुत अच्छा था। पर आते समय जो निराशा हाथ लगी, वह यह थी कि नई ऐनक बनवानी पड़ गई और उस नई ऐनक से भी कोई फायदा नज़र नहीं आया था।
वापस लौटने के बाद जब वे कैप्सूल खत्म हो गए और डॉ. गोगी के भरोसे के कारण कि नई सप्लाई आने पर वे कैप्सूल और मिल जाएंगे, मैं लगातार डॉक्टर साहिब को तीन रजिस्टर्ड पत्र लिख चुका था, पर उनका कोई जवाब नहीं आया था। इसलिए पुन: अलीगढ़ जाने का विचार त्याग दिया।
आखिर, मित्रों के कहने पर मैंने डॉ. धनवंत सिंह को आँखें चैक करवाने का फैसला किया। आँखों के इलाज के क्षेत्र में उस समय पंजाब में डॉ. धनवंत सिंह से बड़ा कोई और डॉक्टर नहीं था। मेरे लिए पटियाला जाना और भी आसान था। सोचा, संग अपनी बहन तारा को भी ले चलूँ, क्योंकि उसकी नज़र भी लगातार कम हो रही थी। रात में चलने-फिरने में उसको भी कुछ मुश्किल आती थी। एक औरत होने के कारण अक्सर रात में उसे बाहर बहुत कम जाना होता था जिससे रात के समय उसे आने वाली दिक्कत का अधिक अहसास नहीं था। डॉ. धनवंत सिंह से पहली बार यह पता चला कि हम दोनों भाई-बहन को एक बीमारी है। इस बीमारी का नाम जो डॉक्टर साहब ने पर्चियों पर लिखा, वह था - रैटेनाईटस पिगमैनटोज़ा। उसने यह भी बताया कि यह विरासती बीमारी है। केस हिस्ट्री नोट करते हुए डॉक्टर साहब ने हमारे ददिहाल और ननिहाल में इस बीमारी के विषय में पूछा था। मुझे ताया मथरा दास की बड़ी बेटी सोमावंती की कम नज़र और सोम नाथ की नेत्रहीनता के बारे में पता था। मैंने यह जानकारी डॉक्टर साहब को दे दी। डॉक्टर साहब का सन्देह बिलुकल ठीक था। उन्होंने जो दवाई लिखकर दी, उसके साथ भी उन्होंने बताया था कि इससे नज़र कम होने की रफ्तार या तो कम हो सकती है या भविष्य में नज़र के कम होने के प्रक्रिया रुक सकती है। डॉक्टर साहब ने यह भी बताया था कि वैसे इस बीमारी का दुनिया में कोई इलाज नहीं है।
बाद में ताया मथरा दास की औलाद में से तीन बेटियों और दो पुत्रों की नेत्रहीनता और हमारे दोनों बहन-भाई की नेत्रहीनता के साथ साथ हमारे बाबा नरैणा मल के भतीजे लाल चंद की एक बेटी की नज़र चले जाने की ख़बर मिली। उन्हीं दिनों में चाचा मनसा राम के लड़के पन्ना लाल की नज़र घटने का पता चला। ताया मथरा दास के सबसे छोटे लड़के से बड़े लड़के रमेश की नज़र कम होने की प्रक्रिया बहुत बाद में आरंभ हुई थी और अब वह मेरे और मेरी बहन की तरह नेत्रहीन है।
डॉ. धनवंत सिंह की दवाई से नज़र घटने की रफ्तार कुछ मद्धम पड़ी या नहीं, इस बारे में मैं कुछ नहीं कह सकता, पर हम दोनों की नज़र घटते घटते इतनी घट गई कि तीस साल की उम्र से पहले पहले ही मेरी नज़र धूप-छांव से कुछ अच्छी थी, पर पढ़ने-लिखने योग्य बिलकुल भी नहीं रही थी। रात में अकेले बाहर आने जाने का सिलसिला बिलकुल ही रुक गया था और अब तो मुझे डॉ. धनवंत सिंह की मद्धम सुर में कही यही बात याद आती रहती है कि यह आँखों का ऐसा नामुराद रोग है जिससे आखिर रोगी अंधा हो जाता है।
डॉ. धनवंत सिंह के पास जाते समय मेरी बहन सर्दी के कारण जो शॉल मेरी भाभी का ले गई थी, वे हम दोनों दुखी बहन भाई वापसी में बस में ही भूल आए थे। हमदर्दी के स्थान पर शॉल के गुम होने पर वापस पर हमारी जो दुर्गत घर में हुई थी, वैसा बर्ताव तो खेत में पड़े किसी गधे के साथ भी न हो। बहन तारा सारी रात रोती रही थी और मुझे भी रात के समय बेचैनी सी लगी रही थी। सोचता था - माँ बाप और बहन भाई तो इस तरह की हालत में दिलासा दिया करते हैं और इलाज के लिए स्वयं आगे आते हैं, पर यहाँ संग जाना तो एक तरफ रहा, सूखी हमदर्दी भी नसीब नहीं हो रही। इस मामले में भाई की चुप सबसे अधिक चुभी। पर कुछ भी ऐसा होना संभव नहीं था जिससे खून का रिश्ता पिघलता। एक बेबस माँ थी जिसका पेट दोनों को देखकर मचता था, पर वह कुछ करने योग्य भी नहीं थी। बेसहारा विधवा औरत या तो आह भर सकती थी, या फिर हमें उदास देखकर आँसू बहा सकती थी। लेकिन माँ के इस दुख ने हमारे दुख को और बढ़ा दिया। डॉ. धनवंत सिह को दिखाने के बाद मैं तो फिरोजपुर के एक डॉ. ग्रोवर को दिखाने गया। दिल्ली के एक डॉक्टर के बारे में सुनकर वहाँ भी गया। मलोट भी एक आयुर्वैदिक इलाज करवाने के लिए तीन चार चक्कर लगाए और बहुत मंहगी दवाई खाई। चण्डीगढ़ के एक होम्योपैथ डॉक्टर के यहाँ भी कई चक्कर लगाए, पर मैं अपनी बहन को कहीं भी अपने साथ लेकर नहीं गया था। सोचता था कि अगर मुझे कुछ फायदा होगा, तभी बहन को उस डॉक्टर के पास लेकर जाऊँगा। हाँ, कपूरथला में एक भला पुरुष आँखों में एक दवाई डाला करता था। हर सातवें दिन उसके पास जाना पड़ता था। घर से अच्छा होने के कारण किसी सन्यासी द्वारा बताया यह नुस्खा वह बिना आँखें देखे ही सब पर इस्तेमाल करता था। पहली बार आँखों में दवाई डालने में मुझे काफी फर्क लगा। मैंने अपनी बहन को भी संग ले जाना आरंभ कर दिया। ताया मथरा दास के सारे टब्बर को भी बता दिया। ताया की दोनों बेटियाँ लीला और कृष्णा देवी ने भी हमारे साथ जाना शुरू कर दिया। पहले महीने जो आस बंधी थी, वह टूटते टूटते आखिर तीसरे महीने पूरी तरह टूट गई। 29-30 साल तक इलाज के लिए जो धक्के खाए, अब कोई कुछ भी कहे जाए, मैं उसकी बात सुन तो लेता हूँ, पर उस पर अमल नहीं करता। सलाह देने वाले तो जोर देकर भीखी में भी दिखाने के लिए कह देते हैं जहाँ मोतियाबिंद के साधारण आपरेशन होते हैं। इन भोले भाले लोगों की हमदर्दी का क्या करें। उनकी बात सुनकर न हँसने योग्य हैं, न रोने योग्य।
चाचा मनसा राम का मुझसे दो वर्ष बड़ा पुत्र पन्ना लाल जो मेरी भांति पूरी तरह नेत्रहीन है, उसे अभी भी बड़ी आस है। हाँ, आस रखना कोई बुरी बात नहीं, पर खुशफ़हमी में रहने का भी कोई लाभ नहीं।
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Sunday, September 5, 2010

पंजाबी उपन्यास


''साउथाल'' इंग्लैंड में अवस्थित पंजाबी कथाकार हरजीत अटवाल का यह चौथा उपन्यास है। इससे पूर्व उनके तीन उपन्यास - 'वन वे', 'रेत', और 'सवारी' चर्चित हो चुके हैं। ''साउथाल'' इंग्लैंड में एक शहर का नाम है जहाँ अधिकतर भारत से गए सिक्ख और पंजाबी परिवार बसते हैं। यहाँ अवस्थित पंजाबी परिवारों के जीवन को बेहद बारीकी से रेखांकित करता हरजीत अटवाल का यह उपन्यास इसलिए दिलचस्प और महत्वपूर्ण है क्योंकि इसके माध्यम से हम उन भारतीय लोगों की पीड़ा से रू-ब-रू होते हैं जो काम-धंधे और अधिक धन कमाने की मंशा से अपना वतन छोड़ कर विदेशों में जा बसते हैं और वर्षों वहाँ रहने के बावजूद वहाँ की सभ्यता और संस्कृति का हिस्सा नहीं बन पाते हैं।

साउथाल
हरजीत अटवाल
हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव

॥ ग्यारह ॥
एक दिन कारा उसके घर आता है। कहता है-
''अच्छा यार, तू काम पर लगा। मिलने से भी गया। कभी पब में ही बैठें, घर में तो बुढ़ियों के सामने कोई बात ही नहीं होती।''
''चल आ, तुझे गिलास पिला देता हूँ।''
जैकेट पहनता हुआ प्रदुमण सिंह उसके संग चल पड़ता है। दोनों कार में आ बैठते हैं। प्रदुमण कहता है-
''चल, जहाँ चलना है। गिलास पियेंगे। सच में कई दिन हो गए हमें एक साथ बैठे हुए।''
कारा कंटीनेंटल होटल की तरफ कार का रुख कर लेता है। प्रदुमण जानता है कि कारा का स्टैंडर्ड ज़रा ऊँचा है। वह आम लोगों वाले पबों में कम ही जाया करता है। कारा पूछता है-
''कैसे, अब तो सब ठीक है न ?''
''हाँ, दोनों को जॉब मिल गई है। बच्चों के मन में जितना इंडिया रजिस्टर्ड हुआ था, उतर चुका है। बस, साला यह बड़ा वाला पढ़ाई छोड़ने को घूमता है।''
''चलो फिर, किसी कोर्स में डाल दो।''
''देखते हैं, तू सुना, काम कैसा है ?''
''पहले वाली बात नहीं रही। कम्पीटीशन बहुत है। साले थोड़ी-थोड़ी कुटेशन ही दिए जाते हैं। पता नहीं कैसे सरवाइव करते हैं। मैं तो सोचता हूँ अगर कोई बड़ा ढंग का बिजनेस मिल जाए तो सब बदल दूँ।''
''और तू तो मुझे इधर खींचता फिरता है।''
''नए बन्दे के लिए ठीक है, मेरे अब ओवर हैड्ज़ भी बहुत हैं।''
वे होटल की बार में पहुँच जाते हैं। कारा लागर के दो गिलास भरवा लाता है। प्रदुमण पूछता है-
''तेरे पास वो जो लिली काम किया करती थी, है कि छोड़ गई ?''
''सुरजीत कौर को पता चल गया था, उसने हटा दी।''
''देखा न, पढ़ी-लिखी औरत का घाटा। अब कोई और ?''
''हैं एक दो, तू तो जानता ही है कि औरत के बग़ैर कहाँ रहा जाता है।''
''रैगुलर है कि चालू माल है ?''
''एक तो चलताऊ काम है, गोरी है। कभी कभी होटल में बुला लेता हूँ और एक है रैगुलर भी, पर अब ध्यान रखना पड़ता है। बच्चे बराबर के हो चले हैं।''
''यह तो है ही। और फिर तूने बहुत इन्जाय किया है, मैं तो दुकान में ही फंसा रहा।''
''वहाँ इंडिया में कैसे है ?''
कारा सवाल पूछता है। प्रदुमण सोचने लगता है कि इसका क्या उत्तर दे। मास्टरनी वाली बात कैसे बताये। उसे पता है कि कारा औरतों का शौकीन है और अपने बारे में कई बार बढ़ा-चढ़ाकर भी बात कर जाता है। जवाब में कभी कभी प्रदुमण भी गप्प मारने लगता है। कारे के सवाल पर थोड़ा सोचते हुए वह कहता है, ''कारे, इन टैरेरिस्टों ने बहुत धोखा किया मेरे साथ, मेरी बहुत ही खूबसूरत ज़िन्दगी तहस-नहस करके रख दी। अब तो मैं यह भी सोचता हूँ कि एक लाख दे भी देता तो कौन सा पहाड़ गिरने लगा था।''
वह बीयर का घूंट भरने के लिए रुक कर फिर कहता है-
''मैंने जी.टी. रोड पर जगह ले ली थी। टायरों की एजेंसी के लिए पैसे जमा करवाने थे जल्द ही। पेट्रोल पम्प की भी बात चल रही थी, एक होटल के बारे में भी सोच रहा था मैं। मैंने तो यह तय कर लिया था कि ज्ञान कौर और बच्चों को वापस भेज दूँ और खुद वहीं रहूँ। एक बात बाबों ने अच्छी कर दी, अगर काम फैलाने के बाद वे तंग करते तो न कारोबार छोड़ जा सकता था और न वहाँ रहा जा सकता था। लाइफ़ बहुत कठिन हो जाती। चलो, जो हो गया, अच्छा ही हुआ।''
''मेरा सवाल यह नहीं, तेरी भूरी पगड़ी पर भी कोई मरी ?''
''हाँ, मरी थी एक। फगवाड़े प्रीत नगर रहती थी। इन बच्चों की इंग्लिश टीचर थी। वह घूमने फिरने की शौकीन थी और हम घुमाने-फिराने के।''
''सुन्दर थी ?''
''हाँ, सुन्दर थी। ठीक थी। हसबैंड उसका आर्मी में था, नेवी में। मेरे साथ राजस्थान देखने गई थी। कुछ ज्यादा ही मोह करने लगी थी।''
''तेरा कि तेरी जेब का ?''
''शायद जेब का भी करती हो, यह गिव एंड टेक तो है ही, पर वह बहुत अच्छी औरत है। छोड़ने वाली नहीं। जब मैं चलने से पहले मिलने गया तो बहुत रोई, मेरा मन भी खराब कर दिया था। और मेरी भी सुन ले, जब से आया हूँ, उसे फोन भी नहीं कर सका।''
''उसे तेरी सिच्युएशन का पता भी था ?''
''हाँ, मैंने बताया था। उसने तो रहने के लिए अपना घर दिया था और इमरजैंसी में वहाँ आ जाने के लिए भी कहा था।''
''अब कैसे करना है ?''
''किस बारे में ?''
''तूने तो अब जल्दी जाना नहीं इंडिया को, मेरे से इंट्रोडक्शन करा दे, मैं अगले महीने जा रहा हूँ।''
''देख भाई, बातें साझी और औरत अपनी अपनी।''

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