समकालीन पंजाबी साहित्य की उत्कृष्ट कृतियों की तलाश

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Saturday, April 30, 2011

आत्मकथा




एक नेत्रहीन लेखक की आत्मकथा

धृतराष्ट्र
डॉ. एस. तरसेम
हिन्दी अनुवाद : सुभाष नीरव
चैप्टर-20

सरकारी मिडल स्कूल, महिता

मेरा मन धौला से उचाट हो गया था। इसका कारण शायद यहाँ की गंदी राजनीति थी और कुछ अध्यापकों की दोगली भूमिका। वैसे भी मैं घर के करीब महिता में मिडल स्कूल बन जाने के कारण इस अवसर को हाथ से गंवाना नहीं चाहता था। वहाँ मास्टर कैडर के दो पद थे। एक पर ज्ञान चन्द शर्मा पहले ही अपनी बदली करवा कर वहाँ उपस्थित हो चुका था। वह ढिल्लों ग्रुप वाली गवर्नमेंट टीचर्स यूनियन का नेता था। दौड़-भाग करके दूसरे पद पर मैंने अपने आदेश करवा लिए और 5-12-1970 को सरकारी मिडल स्कूल, महिता में हाज़िर हो गया।
शर्मा जी और मुझे, दोनों को ही यह पता था कि मैं उनसे वरिष्ठ हूँ, जिस कारण मेरे न-न करने के बावजूद मुझे मुख्य अध्यापक का चार्ज दे दिया गया।
सरकारी मिडल स्कूल, महिता के बहुत से अध्यापक या तो तपा के थे या फिर नज़दीक के अन्य गाँवों से आते थे। वैसे भी मेरे समय से स्कूल पहुँचने के कारण कोई देर से आने का साहस नहीं करता था। कुछ मिडल क्लासों के अध्यापक ग्रीष्मावकाश के बाद नये नियुक्ति आदेश लेकर आते, क्योंकि इन पदों पर काम करने वाले अध्यापक छुट्टियों से पहले कार्यमुक्त कर दिए जाते थे। चतुर्थ श्रेणी पद पर एक को छोड़कर बाकी किसी कर्मचारी ने स्कूल के वातावरण को खराब नहीं किया था, पर हमारे अध्यापकों में एकता होने के कारण वह दर्ज़ा चार कर्मचारी भी ज्ञानी जैल सिंह के करीबी होने का दावा करने के बावजूद स्वयं ही बदली करवा कर चला गया था। दफ्तर के लिखने-पढ़ने के काम से लेकर कक्षाओं में अंग्रेज़ी और सामाजिक शिक्षा का विषय पढ़ाने के सब काम मैं उसी विधि से ही किया करता था जिस विधि से मैं सरकारी मिडल स्कूल, रूड़ेके कलां में किया करता था। इस प्रकार अपनी बची-खुची नज़र से मैं अपने तरीके से ही वे सब काम ले रहा था जो पूरी निगाह वाला मुख्य अध्यापक ले रहा होता है, लेकिन बदला लेने की नीति के कारण सरकारी हाई स्कूल, सरदूलगढ़ के दूर-दराज की जगह के तबादले के बाद वापसी पर कुछ शक-शुबह होने पर मैंने खुशी-खुशी ज्ञान चन्द शर्मा को मुख्य अध्यापक का चार्ज दे दिया। भीतर से मैं पहले भी मुख्य अध्यापक के इस कंटीले ताज से दुखी था। इससे एक तरफ शर्मा जी खुश थे और दूसरी तरफ मैं। अब शर्मा जी अपनी ड्यूटी डालकर बरनाला या डी.ई.ओ. के दफ्तर कहीं भी जा सकते थे, बेशक वहाँ जाकर दफ्तर का काम करें या फिर टीचर्स यूनियन का, मेरे दिमाग पर कोई बोझ नहीं था। सरकारी हाई स्कूल, तपा में उनके तबादले के बाद मैं फिर से मुख्य अध्यापक बन गया था और उनके स्थान पर तपा मंडी से ही हमारे सभी मंडी वासियों के सम्मान के पात्र नंबरदार शेर सिंह की दोहती और मेरे आदरणीय अध्यापक रछपाल सिंह की भान्जी सतवंत कौर साइंस अध्यापिका के तौर छह महीने के लिए तदर्थ आधार पर आ गई थीं। मेरे दफ्तर का काम पहले की भांति प्राइमरी के टीचर पंडित बाल किशन और मास्टर जनक राज किया करते। मैं और जनक राज प्राइमरी तक एक साथ पढ़े थे। इसलिए हमारे संबंध मुख्य अध्यापक और मातहत वाले न होकर दोस्तों जैसे थे।
एडहॉक पर काम करने वाली दो पंजाबी अध्यापिकाओं के बाद जो यह कामचोर पंजाबी अध्यापक आया था, वह स्कूल के अनुशासनबद्ध वातावरण को देखकर बदली करवा कर चला गया था और मेरा अपना ही मित्र ज्ञानी रघबीर सिंह बदली करवाकर उसके स्थान पर आ गया था। इसलिए ऊपर के सभी कामों की देखभाल में ज्ञानी रघबीर सिंह मेरी जिस प्रकार सहायता किया करता था, उसने मेरी शाख को धक्का नहीं पहुँचाया था, अपितु हमारे प्यार-मुहब्बत के माहौल के कारण स्कूल के हर किस्म के काम में फुर्ती आ गई थी। आठवीं कक्षा की अंग्रेजी कापियों को जांचने-परखने के मेरे काम में सतवंत कौर की वजह से पहले से अधिक नियमितता आ गई थी।
स्कूल के अनुशासन के कारण गाँव के लोग मुझसे बहुत प्रभावित थे। कारण यह भी था कि गाँव का सबसे प्रभावशाली व्यक्ति जंग सिंह और मेरे समय में ही नया बना सरपंच गुरचरन सिंह (जो बाद में ब्लॉक समिति का चेयरमैन भी बन गया था) मेरे बड़े भाई का बहुत सम्मान करते थे। इसलिए गाँव की तरफ से कतई कोई समस्या नहीं थी। जो एक समस्या पैदा हुई, उसका उल्लेख मैं आगे चलकर करूँगा।
सर्दियों का मौसम शुरू होने पर मैं स्कूल में एक घंटा पहले पहुँचता और विद्यार्थियों को अंग्रेज़ी पढ़ाता। ग्रामीण विद्यार्थियों के लिए यह काम बहुत ज़रूरी था। एक सैशन तो नवंबर से फरवरी तक रात को सारे बच्चे साइकिलों पर या पैदल चलकर मेरे घर तपा मंडी पहुँच जाते और मैं उन्हें कम से कम दो घंटे पढ़ाता। मुझे इस काम में कोई कठिनाई इसलिए नहीं थी क्योंकि मेरे मकान के पिछले दो कमरे बिलकुल खाली पड़े थे। मैंने विद्यार्थियों को मेरे घर के लिए गाँव से किसी भी प्रकार की चीज़ लाने की सख्त मनाही कर रखी थी और गाँव में इस बात की धूम थी कि मैं महिता गाँव से गन्ने की पोरी भी अपने घर में घुसने नहीं देता। इसी कारण जंग सिंह ने एक दिन कहा था, ''गोयल साहिब, तुमने तो बड़े गोयल साहिब को भी मात दे दी। तुम गाँव के बच्चों को मुफ्त पढ़ाते हो, अगर दूध की एक आध केनी आ भी जाएगी तो गाँव नंगा तो नहीं हो जाएगा। इतने ज्ञानी महात्मा न बना करो।'' भाई जंग सिंह की प्रशंसा सुनकर मेरा मन भर आया था और मुझे अपने आप पर अन्दर ही अन्दर रश्क होने लग पड़ा था और मैंने कहा था, ''बड़े भाई जीते रहो, तुम्हारे दर्शन ही दूध जैसे हैं।'' भाई जंग सिंह जाते-जाते मेरा कांधा थपथापते हुए हँसता-हँसता दफ्तर में से चला गया था।
..

सन् 1973 की गर्मियों में तपा की लिंक रोड पर से आ रही एक ऊँठ गाड़ी से मेरा एक्सीडेंट हो गया। मेरी बायीं ओर के गले की हड्डी टूट गई थी। उस समय मेरे साथ ज्ञानी रघबीर सिंह भी था और जनक राज और बाल किशन भी। मुझे याद नहीं कि वे कब मुझे मेरे घर तपा ले गए। मेरी ऐनक भी गिर गई थी और आँखों के आगे अँधेरा-सा छा गया था। गले के नीचे के हिस्से को उसी दिन क्रेब की पट्टी से बांध दिया गया था, पर बाहर चलने-फिरने योग्य होने के लिए मुझे एक महीने से अधिक का समय लग गया था। मुझे एक बात की तसल्ली थी कि सभी अध्यापक मेरी खैर-ख़बर लेने आते रहे, यही नहीं बेचारी अध्यापिकाएँ भी कई बार आईं। विद्यार्थी भी और उनके माता-पिता भी। चेयरमैन गुरचरन सिंह भी आया और जंग सिंह भी। ढिल्लों ग्रुप और राणा ग्रुप वाले भी आए। इलाके के सब अध्यापक नेता आए। ज्ञानी रघबीर सिंह तो था ही मेरा अपना, दूसरे अध्यापकों ने भी आर्थिक मदद की पेशकश की। मेरे बार बार रोकने के बावजूद कई विद्यार्थियों के माता-पिता जबरन दूध-घी दे गए। मैं बिस्तर पर पड़ा अक्सर सोचता रहता कि यह सब मेरी मेहनत और मेरी कमाई का फल है। यद्यपि यह कलजुग है (हालांकि मैं हर युग को ही कलजुग समझता हूँ) पर मेहनत रंग तो लाती ही है। मिडल स्कूल के मुख्य अध्यापक की पोस्ट क्या होती है, दस-बारह अध्यापक और ढाई-तीन सौ विद्यार्थी। फिर भी मैंने अपने इस छोटे से परिवार में से जो प्यार हासिल किया, वह एक मिसाल था।
स्वस्थ होने के बाद मैंने पैदल ही स्कूल जाना आरंभ कर दिया। घंटा भर चलकर मैं महिता पहुँच जाता था। सड़क के बिलकुल बायीं तरफ रहता। राह में मुझे बाल किशन भी मिलता और जनक राज भी। पक्खो कलां जाने के लिए तपा मंडी का एक अन्य अध्यापक भी स्कूटर पर मिला करता था। बाल किशन तो बेचारा स्वयं ही बड़ी मुश्किल से जाता था, इसलिए वह यदि मुझे साइकिल पर बैठने के लिए नहीं भी कहता था तो मैं उसकी समस्या को समझता था। जनक राज ज़रूर कहता पर मैंने उसकी दोस्ती का भी जल्दी कोई इम्तिहान नहीं लिया था। जाते समय ठंडे-से मौसम में चलना मेरे लिए एक सैर की तरह था। लौटते वक्त मैं ज्ञानी जी के संग साइकिल पर आता। उन दिनों संयोग से उनकी पत्नी दयावंती की नर्स के तौर पर ड्यूटी भी महिता के हैल्थ सब-सेंटर में लग गई थी। जिस समय हम छुट्टी करते, वही समय दयावंती की छुट्टी का होता। मेन रोड पर जाकर ज्ञानी रघबीर सिंह मुझे बस में चढ़ा देता और पीछे से पैदल चली आ रही दयावंती के आ जाने पर उसे साइकिल पर बिठाकर अपनी रिहाइश वाले गाँव ताजोके की ओर चल पड़ता। यह सिलसिला यही खत्म नहीं हुआ था। जब तक मैं महिता में रहा, ज्ञानी रघबीर सिंह मुझे घर से ले जाता और घर पर छोड़कर जाता रहा। यह कुर्बानी कोई छोटी नहीं थी। उसके इस प्यार और कुर्बानी के कारण हम अब तक दु:ख-सुख में भाइयों जैसा व्यवहार करते हैं।
जिस तीव्रता से मेरी नज़र कम हुई, वह सिलसिला धूप-छांव से भी कुछ नीचे चला गया था। अब निगाह के संबंध में किसी से भी पर्दा नहीं रखा जा सकता था। ऊपर से सितम ज़रीफ़ी यह कि नेत्रहीन व्यक्ति के लिए अब की तरह न तो सरकारी और न ही प्राइवेट नौकरी में आने की कोई सुविधा थी। 1995 के अंगहीनों के लिए तीन प्रतिशत आरक्षण के किसी कानून के विषय में तो तब सोचा भी नहीं जा सकता था। सिर्फ़ स्कूलों या कालेजों में तबला वादक या संगीत अध्यापक की नौकरी के लिए नेत्रहीन को योग्य समझा जाता था। हालांकि पंजाब में और पंजाब से बाहर भी नेत्रहीनों की कुछ संस्थाओं में अध्यापक काम करते थे। पर वे सभी या तो जन्म से अंधे होते या बाद में किसी रोग के कारण उनकी नेत्र ज्योति चले जाने पर किसी अंध-विद्यालय में से ही पढ़े हुए होते। वहाँ ब्रेल लिपि के माध्यम से उन्हें पढ़ाया जाता था। लेकिन मुझे ब्रेल लिपि बिलकुल नहीं आती थी, अब भी नहीं आती। इसलिए मैं अपनी नौकरी को पूरी तरह खतरे में समझता था। अचानक एक खतरे की घंटी बज भी गई। डिप्टी डी.ई.ओ., संगरूर कोई बांसल साहिब होता था। वह था तो हैड मास्टर कैडर का कर्मचारी ही, जिसके कारण वह डिप्टी डी.ई.ओ. तो नहीं लग सकता था परन्तु पता नहीं कैसे उसे ज़िला संगरूर के डी.ई.ओ. राम प्रकाश शर्मा ने अपने पास डिप्टी डी.ई.ओ. लगवा लिया था। रहने वाला वह रामपुरा फूल का था। किसी समय रामपुरा फूल में ही 1963-64 तक लगातार दस-बारह वर्ष राम प्रकाश शर्मा हैड मास्टर रहा था। शायद उस समय के संबंधों के कारण ही बांसल का डिप्टी डी.ई.ओ. बनने का दांव लगा हो। बांसल जिस स्कूल में भी निरीक्षण के लिए जाता, कुछ न कुछ बटोर कर अवश्य लाता। और कुछ नहीं तो स्कूल में लगी सब्जियाँ और गाँव का छोटा-मोटा सामान ही पहुँचाने के लिए किसी मास्टर की ड्यूटी लगा देता। जिस हैड मास्टर अथवा मास्टर को डी.ई.ओ. दफ्तर में कोई जायज़-नाजायज़ काम करवाना होता, वह यह सेवा करने में कोई ढील न करता। उस जमाने में भी और अब भी, किसी दफ्तरी काम को करवाने के लिए इससे सस्ता सौदा और क्या हो सकता था।
यह बांसल महाराज एक दिन मेरे स्कूल में भी आ टपका। शायद अक्तूबर या नवंबर का महीना था। सभी कक्षाएँ बाहर लगी हुई थीं। कमरों के अभाव के कारण प्राइमरी कक्षाएँ तो पहले भी बिल्डिंग के दायीं ओर छायादार दरख्तों के नीचे लगा करती थीं। ऊपर की छठी-सातवीं की कक्षाएँ भी बाहर बैठी थीं। किसी भी बड़ी कक्षा में तीस से अधिक विद्यार्थी नहीं थे। मुख्य अध्यापक की मेज़-कुर्सी भी बाहर ही थी। मेज़ के साथ दो-तीन कुर्सियाँ और भी रखी हुई थीं। बांसल आया। उसके आने की ख़बर होने के साथ ही सेवादार गुरनाम कौर ने मुझे बता दिया। मैंने खड़े होकर डिप्टी डी.ई.ओ. का स्वागत किया। वह कक्षाओं में भी गया। कुछ रजिस्टर भी देखे। उसे कोई भी कमी नज़र नहीं आई थी। अन्त में उसने सुई मेरी कमज़ोर निगाह पर लाकर रोक दी और एक ठंडी-गरम धमकी इस तरह दी - मानो मुझे कह रहा हो कि मैं उसकी नज़र-ए-इनायत पर ही नौकरी कर रहा हूँ। हवलदार निक्का सिंह जिसका घर स्कूल के बिलकुल सामने था, उसके लिए जैसे यह सुनहरी मौका हो। कुछ दिन पूर्व मैंने हवलदार को स्कूल में न आने के लिए बहुत ही शालीन तरीके से कहा था। वह अक्सर अपने किसी पोते या पोती को गोदी में उठाकर वक्त काटने के लिए कभी किसी मास्टर और कभी किसी अन्य के पास घंटों खड़ा रहता। मास्टर इस बात को लेकर बहुत परेशान थे। मुझे तो परेशान होना ही था। वह बेवजह अध्यापकों का वक्त खराब करता था। आधी आधी दिहाड़ी स्कूल में चक्कर लगाता रहता। इस तरह स्कूल में उसके आने-जाने को अध्यापिकाएँ और बड़ी कक्षाओं की लड़कियाँ भी अच्छा नहीं समझती थीं। आख़िर एक दिन मैंने उसे शालीनता से कह ही दिया कि वह अध्यापिकाओं के पास खड़ा होने की बजाय मेरे पास दफ्तर में आकर बैठा करे। हालांकि मैंने यह बहुत प्यार से कहा था, पर इसे भी वह अपनी हतक समझ बैठा था।
हवलदार निक्का सिंह जंग सिंह का बड़ा भाई था। मैंने जंग सिंह से बात की। उसने बड़ी दिलेरी से कहा- ''उसे बेशक बांह से पकड़कर बाहर कर देना, गाँव की तरफ से कोई उलाहना नहीं आएगा।'' जंग सिंह द्वारा यह भरोसा दिलाये जाने पर मैं भी शेर हो गया था और बात निक्का सिंह तक भी पहुँच गई थी। शायद उसी दिन से वह अन्दर ही अन्दर विष घोल रहा हो और मुझे नुकसान पहुँचाने की ताक में हो। बिल्ली के भाग्य में जैसे छिक्का टूटा हो। डिप्टी डी.ई.ओ. बांसल को गेट से बाहर जाते ही उसने रोक लिया। पंद्रह-बीस मिनट दोनों बातें करते रहे। मुझे यह निश्चित हो गया कि मैं अब उनका साझा दुश्मन बन गया हूँ।
करीब पंद्रह दिन बाद डी.ई.ओ. दफ्तर से एक पत्र आया जिसमें मेरे विरुद्ध मेरी नज़र कम होने की किसी शिकायत का हवाला था और मुझे इस संबंध में मेडिकल फिटनेस सर्टिफिकेट पेश करने के लिए कहा गया था। नीचे डिप्टी डी.ई.ओ. हंस राज बांसल के दस्तख़त थे।
मुझे यकीन था कि यह पत्र डी.ई.ओ. राम प्रकाश शर्मा के नोटिस में लाये बगैर ही जारी किया गया था। मैं यह भी समझ गया था कि यह पत्र हवलदार निक्का सिंह की शिकायत पर निकला था। यह तो पता नहीं कि हवलदार निक्का सिंह ने स्वयं ऐसी कोई अर्ज़ी भेजी थी या हंस राज बांसल ने हवलदार साहिब के नाम पर अन्य किसी से यह अर्ज़ी लिखवा ली थी। लेकिन एक बात पक्की थी कि यह अर्ज़ी दोनों की संधि का नतीजा थी। यह बात अलग है कि बहुत से अध्यापक और खास तौर पर ज्ञानी रघबीर सिंह मुझे वहीं डटे रहने के लिए कह रहे थे, परन्तु मेरा मन अब इस स्कूल से उचाट हो चुका था। नज़र की इस कमी के कारण मैं सरकारी स्कूल, तपा मंडी ही जाना चाहता था जिसके गेट से मेरा घर बमुश्किल पचास गज की दूरी पर था। और आँखों की इस हालत में मेरा स्कूल की इस हैडशिप से मन उकता गया था। तपा में जाकर बतौर मास्टर मेरा नंबर तीसरा या चौथा होता। वैसे बाबू पुरषोत्तम दास के वहाँ क्लर्क होने के कारण मुझे किसी किस्म की तंगी नहीं होनी थी। संयोग से सरकारी हाई स्कूल, तपा में पोस्ट भी खाली थी। बरनाला गए बगैर ही बाबू पुरषोत्तम दास ने डा. रघबीर प्रकाश, एम.बी.बी.एस. से मेरे दिमागी और शारीरिक तौर पर स्वस्थ होने का सर्टिफिकेट बनवाकर ला दिया था। डा. रघबीर प्रकाश पहली पैप्सू विधान सभा में कांग्रेस के टिकट पर एम.एल.ए. चुना गया था। वैसे भी वह बड़े सज्जन पुरुष और बढ़िया डॉक्टर के तौर पर पूरे इलाके में प्रसिद्ध था। उसकी इलाके में इतनी इज्ज़त थी कि उसका यह सर्टिफिकेट किसी सिविल सर्जन के सर्टिफिकेट से कम महत्वपूर्ण नहीं था। मैंने पत्र के जवाब के साथ यह सर्टिफिकेट भी लगा कर भेज दिया और साथ ही अपनी बदली की अर्ज़ी भी भेज दी। यद्यपि डी.ई.ओ. राम प्रकाश हमारे समस्त परिवार को अच्छी तरह जानता था और मेरे भाई से वह अच्छी निकटता रखता था, पर बांसल ने पता नहीं उसके कान में क्या फूंक मारी थी कि 1976 की मार्च के पहले दिन ही उसने स्कूल में आकर छापा मारा। उन दिनों अभी गरमी आरंभ नहीं हुई थी। अधिकांश कक्षाएँ बाहर बैठी थीं। मैं भी सातवीं कक्षा को सामाजिक शिक्षा पढ़ा रहा था। आस्ट्रेलिया का नक्शा बोर्ड पर टंगा हुआ था। उस समय एशिया और यूरोप को छोड़कर शेष सभी महाद्वीपों की जानकारी सातवीं कक्षा के सामाजिक शिक्षा के पाठ्यक्रम का हिस्सा थी। दूसरे शब्दों में ये सारे महाद्वीप सातवीं की भूगोल के पाठ्यक्रम में थे और सामाजिक शिक्षा की दूसरी किताब इतिहास की होती थी। मैं नज़र के इतना कम होने के बावजूद भूगोल पढ़ाते समय बच्चों को नक्शा अवश्य दिखाया करता था। कक्षा में दिखाये जाने वाले बड़े नक्शे- एटलस और ग्लोब संबंधी मेरी जानकारी मेरे स्कूल की पढ़ाई के समय से ही अच्छी थी। वैसे भी मुझे जब किसी देश या महाद्वीप का भूगोल पढ़ाना होता तो उसमें भरे रंगों, लकीरों और अन्य निशानियों के विषय में मैं पहले तैयारी करके आता था। शायद यही कारण था कि मुझे कहीं भी घटिया अध्यापक होने का निरादर झेलना नहीं पड़ा था। डी.ई.ओ. ने गुरनाम कौर को भेजकर मुझे बुला लिया था। मुझे स्वयं भी पता चल गया था कि डी.ई.ओ. साहिब आ गए हैं। मैं और अधिक सचेत होकर पढ़ाने लग पड़ा था। शर्मा जी ने मुझसे पूछा, ''क्या तुम्हें मेरे आने का पता लग गया था ?'' ''जी नही।'' मैंने झूठ बोला था। यहाँ मेरा झूठ बोलना ही ठीक था यद्यपि मुझे अध्यापकों की आवाज़ों से सबकुछ पता चल गया था। मेरे द्वारा नक्शा टांगकर पढ़ाने के बारे में और फिर अंग्रेज़ी पढ़ाने के संबंध में शर्मा जी ने कई सवाल किए। मैंने अपने वे सारे तरीके बता दिए जिनको अपना कर मैं पढ़ाता रहा था। शायद पारिवारिक संबंधों के कारण या मेरी मेहनत के कारण, शर्मा जी मुझसे काफ़ी संतुष्ट प्रतीत होते थे। उन्होंने अध्यापक हाज़िरी रजिस्टर से लेकर सभी कक्षाओं के रजिस्टर, फंड और सरकारी कैश बुक - सबकुछ मंगवा लिया। इस काम के लिए मैंने एक अध्यापक को बुला लिया था। वह हर रजिस्टर खोल कर सामने रखता रहा, शर्मा जी यह देखकर हैरान हो गए कि फरवरी 1976 तक के सारे हाज़िरी रजिस्टर और रोकड़ें पूरी थीं। पिछले साल के आडीटरों की कैश बुकों/रोकड़ों पर लगे हुए टिक के निशान देखकर शर्मा जी ने ऑडिट रिपोर्ट के बारे में पूछा। मैंने ऑडिट रिपोर्ट भी पेश कर दी जिसमें लिखा हुआ था कि फंड आदि का हिसाब-किताब सही ढंग से रखा गया है और धन का सदुपयोग किया गया है। यह सबकुछ देखकर शर्मा जी ने फिर सवाल किया, ''क्या तुम्हें मेरे आने का पहले पता चल गया था ?'' ''जी नहीं।'' मैंने जवाब दिया। शर्मा जी ने पुन: प्रश्न किया, ''फिर ये सारे रजिस्टर पहली तारीख़ को कैसे पूरे हो गए ?'' मैंने संक्षेप में बता दिया कि मैं महीने के अन्तिम दिन का आधा समय स्कूल में लगाकर विद्यार्थियों की छुट्टी कर देता हूँ। उसके बाद हम सभी अध्यापक बैठकर हाज़िरी रजिस्टर और कैश बुकें पूरी करते हैं। हर अध्यापक के पास एक फंड की एक कैशबुक है। उसे पूरा करना उसकी ज़िम्मेदारी है। इसी तरह 'अध्यापक हाज़िरी रजिस्टर' में महीने के अन्त में अध्यापकों की छुट्टियाँ नीचे वाले कॉलमों में भर दी जाती हैं। यदि समय से पहले काम खत्म हो जाए तो मैं काम खत्म कर लेने वाले अध्यापक को रोकता नहीं। वैसे कोई अध्यापक जाता नहीं, हम सभी एक साथ ही जाते हैं।
मैंने एक अध्यापक को अपनी अंग्रेज़ी की कापियाँ लेकर आने को कहा, जिनका पूरी तरह से निरीक्षण किया हुआ था। मैंने इस निरीक्षण की पृष्ठभूमि के बारे में भी बताया। शर्मा जी बहुत खुश हुए। आख़िर मैंने साहस करके कह ही दिया, ''शर्मा जी, आप मेरी नज़र के बारे में तो जानते ही हैं। यदि आप मेरी हाई स्कूल, तपा मंडी की बदली करवा दो तो बहुत अच्छा रहेगा। पढ़ाई के संबंध में मुझे लेकर कोई शिकायत भी नहीं मिलेगी।'' मई 1976 में हाई स्कूल, तपा मंडी के मेरी बदली के आदेश हो गए। मैं आदेश लेने के लिए संगरूर गया। बांसल ने अपनी आदत के अनुसार दूध में कांजी घोलने की कोशिश की। कहा- ''पंडित जी, देअर इज़ ऐन इन्कुआरी अगेंस्ट हिम।'' पर पंडित जी ने क्लर्क को बुलाकर मेरी बदली के आदेश देने के लिए कहा और बांसल से ज़रा तल्ख़ लहजे में बोला, ''मुझे पता है, यह इन्कुआरी तो अगले स्कूल में भी जाकर हो सकती है।'' आदेश की कॉपी लेकर मैं 1 जून 1976 को सरकारी हाई स्कूल, तपा में उपस्थित हो गया।
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Sunday, April 10, 2011

पंजाबी उपन्यास


''साउथाल'' इंग्लैंड में अवस्थित पंजाबी कथाकार हरजीत अटवाल का यह चौथा उपन्यास है। इससे पूर्व उनके तीन उपन्यास - 'वन वे', 'रेत', और 'सवारी' चर्चित हो चुके हैं। ''साउथाल'' इंग्लैंड में एक शहर का नाम है जहाँ अधिकतर भारत से गए सिक्ख और पंजाबी परिवार बसते हैं। यहाँ अवस्थित पंजाबी परिवारों के जीवन को बेहद बारीकी से रेखांकित करता हरजीत अटवाल का यह उपन्यास इसलिए दिलचस्प और महत्वपूर्ण है क्योंकि इसके माध्यम से हम उन भारतीय लोगों की पीड़ा से रू-ब-रू होते हैं जो काम-धंधे और अधिक धन कमाने की मंशा से अपना वतन छोड़ कर विदेशों में जा बसते हैं और वर्षों वहाँ रहने के बावजूद वहाँ की सभ्यता और संस्कृति का हिस्सा नहीं बन पाते हैं।


साउथाल

हरजीत अटवाल

हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव

।। बाइस ॥

जितने दिन मेहमान आते रहते हैं, पाला सिंह का दिल लगा रहता है। सारी रस्में ख़त्म होने के बाद वह अकेला रह जाता है। हालांकि मरने से कई सप्ताह पहले नसीब कौर के अस्पताल में रहने के कारण वह अकेला रहा है, पर अब वह कुछ अधिक ही अकेला रह गया महसूस करता है। नसीब कौर का अस्पताल में पड़े रहने का भी आसरा था। फिर वह सोचता है कि वह फ़ौज़ी आदमी है और फ़ौज़ी को कैसा अकेलापन। वह सिर को झटकता है, जैसे ताज़ा हो गया हो। वह अपनी ट्राउज़र और कमीज़ प्रैस करता है और तैयार होने लगता है। हमेशा बनठन कर तैयार रहने की उसकी पहले दिन से ही आदत है। स्वयं अपना बिस्तर बिछाता है और इकट्ठा करता है। अपने कपड़े खुद प्रैस करता है। मशीन में भी आप ही डाल देता है। उसे घर के किसी काम में नसीब कौर की ज़रूरत नहीं है, बस सामने दीखती रहे, यही भूख है। नसीब कौर के लुप्त हो जाने पर यह भूख कभी-कभी ज्यादा तंग करने लगती है।

घर के सारे काम समाप्त करके वह सोच रहा है कि किधर जाए। अधिक देर घर में बैठना उसको अच्छा नहीं लग रहा। किसी के संग बातें करने का मन है उसका। पार्कों में कोई न कोई मिल जाता है। वह सोच रहा है कि वक्त से निपटने के लिए वह किधर जाए। कई बार वह वृद्धाश्रम भी चले जाया करता है, पर उसे लगता है कि यह उसकी मंज़िल नही। वह अभी इतना बूढ़ा नहीं हुआ है कि किसी सहारे की ज़रूरत पड़े। वह किसी ऐसी जगह जाना चाहता है, जहाँ ज़िन्दगी धड़कती है। वह पार्क में ही जाएगा पर सोच रहा है कि पार्क में जाए तो किस पार्क में। स्पाईक्स पार्क और साउथाल पार्क दोनों ही उसके घर से एक जैसी दूरी पर हैं। साउथाल पार्क उसे इसलिए अधिक पसन्द नहीं कि वहाँ शराबी अधिक होते हैं। शराबी उसे इतने बुरे नहीं लगते जितने डिप्रैशन के मरीज़। पूरे साउथाल में अब डिप्रैशन में ग्रसित लोगो की संख्या अब बढ़ रही है। साउथाल पार्क में अधिकतर ऐसे ही लोग होते हैं। फिर भी, वहाँ जाने पर कुछेक बूढ़े गप्पें मारने को मिल ही जाते हैं। वैसे स्पाईक्स पार्क में जाना उसे अच्छा लगता है। लेकिन वहाँ नौजवान तबका ही अधिक होता है जो आपस में बातें करते हुए खीं-खीं करके हँसता रहता है। कई बार उसकी तरह ही प्यारा सिंह, गुलज़ारा सिंह, फतेह मुहम्मद या तरसेम लाल आ जाते हैं। जब कभी भी इकट्ठे हो जाएँ तो अच्छी-खासी गप्प-शप्प हो जाती है। घर से बाहर निकलता है तो बारिश होने लगती है। पार्कों में तो कोई होगा ही नहीं। बर्न रोड से निकल वह लेडी माग्रेट रोड पर आ पड़ता है। यहाँ दुकानों की परेड है जिसमें सुक्खा सिंह का डाकखाना भी है, जहाँ से वह पेंशन लेता है। वहाँ भी सुक्खा सिंह के पास कई बार वह जा खड़ा होता है। डाकखाना तो उसके बहू-बेटा चलाते है। सुक्खा सिंह काउंटर पर बैठा स्वीट्स-चॉकलेट्स बेचता रहता है। पाला सिंह एक तरफ़ टेबल पर बैठा मूँछों को मरोड़े देता फ़ौज़ की बातें सुनाता रहता है। यदि वह सुक्खा सिंह के पास न जाए तो गुरदयाल सिंह के पास किंग मार्केट चला जाया करता है।

लेडी माग्रेट रोड पर पहुँचता है तो उसको एक सौ बीस नंबर बस आती दिखाई देती है। वह जेब में हाथ मारते हुए बस-पास टटोलने लगता है। बस-स्टॉप पर पहुँचता है तो साथ वाले घर का लड़का जो ऊँची-सी पगड़ी बाँधता है, फतेह बुलाता है। यह लड़का उसे रोज़ गुरुद्वारे में मिला करता है, पर वह ज्यादा ध्यान नहीं देता। वह सोच रहा है कि नसीब कौर के अस्पताल में होते समय उसको देखने जाने का ही एक बड़ा काम होता था।

गुरदयाल सिंह उसके गाँव का ही है, दोस्त। इज्ज़त और दुख-सुख का साझी भी। उसकी यह बहुत पुरानी ट्रैवल एजेंसी है। कोई समय था जब 'वास प्रवास' में पूरे पन्ने का उसकी एजेंसी का इश्तिहार आया करता था। अब तो उसका इतना नाम है कि किसी किस्म की मशहूरी की ज़रूरत नहीं। अब वह बॉस की तरह पीछे बैठा करता है, बड़े-से दफ्तर में। आगे उसका बेटा शिवराज और पुत्रवधु बैठते हैं, साथ तीन-चार और काम करने वाले लड़के-लड़कियाँ भी हैं। गुरदयाल सिंह के लड़के ने काम पूरी तरह संभाल रखा है। पढ़ाई में तो वह पिछड़ा हुआ ही था। जब पाला सिंह के लड़के बढ़िया ग्रेडों में अगली क्लासों में होते तो शिवराज बमुश्किल पास हुआ होता। हाई स्कूल के बाद आगे पढ़ने से उसने जवाब दे दिया। पाला सिंह और नसीब कौर उस पर हँसा करते थे, लेकिन शिवराज बिजनेस में होशियार निकला। गुरदयाल सिंह उसे गाँव लेकर गया और गाजे-बाजे के साथ उसका विवाह करके लौटा। बहू भी इतनी लायक मिली कि शिवराज के बराबर बैठ बिजनेस संभालती है। शिवराज पढ़ने में कमज़ोर चल रहा था पर जब शिवराज ने काम संभाल लिया तो सभी हैरान हो गए। शिवराज कितना भी कामयाब हो जाए परन्तु पढ़ाई के बगैर अधूरा है, यह बात पाला सिंह सदैव ही सोचता है। उसे गर्व है कि उसके लड़के बड़ी-बड़ी डिग्रियाँ कर गए हैं।

वह बस में चढ़ जाता है। ड्राइवर को पास दिखा कर बैठ जाता है। बस में कई परिचित चेहरे हैं। बसों में सफ़र करने वालों की भी एक अलग दुनिया है। एक दूसरे के चेहरों से ही वाकिफ़ होते हैं। ये लोग आपस में कोई शब्द साझा न भी करें पर फिर भी एक दूसरे को अपना समझते हैं। उसे बस में सफ़र करना अच्छा लगता है। कार अभी भी घर में खड़ी है। वह बहुत कम इस्तेमाल करता है। वह पैदल चलकर भी खुश रहता है। वह समझता है कि पैदल चलना सेहत के लिए एक अच्छी बात है। कार कभी मनिंदर चला लेती है या अमरदेव। मोहनदेव के पास तो अपनी कार है। नसीब कौर जीवित थी तो वे टैक्सो आदि शॉपिंग के लिए जाया करते थे, पर अब तो वह सीरे वालों के यहाँ से ही आटा वगैरह ले लेता है। वे घर में ही छोड़ जाते हैं। शॉपिंग होती भी कितनी है ! वह अकेला ही है रोटी खाने वाला। बाकी सब तो बाहर ही खा-पी आते हैं। या फिर पीज़ा अथवा अन्य कोई जंक फूड मंगवा लेते हैं। यदि वह कार न भी रखे तो गुजारा हो सकता है लेकिन उसे घर के आगे खड़ी कार अच्छी लगती है। गुरुद्वारे जाना हो तो वह कई बार पैदल ही चला जाता है। मौसम ठीक हो तो बस लेने का क्या फायदा।

वह सीधा गुरदयाल सिंह के दफ्तर में पीछे ही चला जाता है। वह उसको देखकर खुश हो जाता है और कहता है-

''मैं सोचता था कि बैंक किसे भेजूँ, ले तू आ ही गया।''

''ला, बैंक हो आते हैं, यह साथ ही तो बैंक है।'' पाला सिंह कहता है।

गुरदयाल सिंह उसको एक लिफाफा देता है जिसमें पैसे जमा करवाने वाली बुक है और कुछ चैक हैं।

बैंक से फुर्सत पाकर पाला सिंह ढीला-सा होकर बैठ जाता है। गुरदयाल सिंह कहता है-

''बड़े का विवाह कर दे पाला सिंह।''

''अगर वह न मरती तो ब्याह ही देना था, अब तो यह साल ठहरना पड़ेगा।''

''साल भर ठहरने वाली कौन सी बात है, तुझे ज़रूरत तो आज है।''

''लोग क्या कहेंगे ?''

''लोगों को नहीं दीखता कि तुझे घर में एक बहू की ज़रूरत है जो घर संभाले।''

गुरदयाल सिंह कहता है और शीशे में से अपनी बहू को देखने लगता है। वह फिर कहता है-

''अगर लड़की इंडिया से मिल जाए तो क्या कहने हैं।''

''किस्मत की बातें हैं गुरदयाल सिंह। इंडिया वाली भी कम नहीं। पहले ही किसी के साथ सांठ-गांठ कर आती हैं कि पक्की हो जाने के बाद बुला लूँगी... बस किस्मत सही हो तो...।''

''खानदान की लड़की हो तो ऐसा क्यों हो... फिर मोहनदेव में कौन सा नुक्श है। सुन्दर है, जवान है, नौकरी पर है।''

''बात तो तेरी ठीक है, आज बात करूँगा उसके साथ अगर आ गया तो।''

''रोज़ नहीं आता ?''

''कई बार नहीं भी आता, इलफोर्ड से कैसे आए ?''

पाला सिंह कहता है और मन ही मन विवाह के बारे में सोच खुश होने लगता है। साथ ही उसके मन में यह विचार भी उठता है कि इलफोर्ड से आने के लिए बीच में कौन-सा दरिया पड़ता है। यदि आना चाहे तो आ ही सकता है, पर वह इस सोच को स्थगित करता हुआ लड़के के विवाह की योजनाएँ बनाने लगता है। वह इंडिया जाएगा, लड़के का विवाह करेगा। पैसे की मुट्ठियाँ भर भरकर लड़के के ऊपर से फेंकेगा। पूरे गाँव को बारात में ले जाएगा। रिश्तेदारों को बुलाएगा। उसकी बल्ले-बल्ले हो जाएगी। जल्दी ही वह बाबा बन जाएगा। पोते को खिलाएगा। वह मूंछों को मरोड़े देने लगता है। उसकी उम्र तो दादा बनने की कब की हो चुकी है।

वह बस में से उतरता है। ऊँची पगड़ी वाला लड़का उसे फिर मिलता है। उसे याद आता है कि वह सेमा है जो उसको सवेरे गुरुद्वारे में मिलता है। कई बार उसके संग पैदल चलकर भी जाया करता है। वह पूछता है-

''तू भई यंग मैन यहाँ रहता है ?''

''हाँ अंकल जी, काउंसल ने घर दे रखा है मुझे, मेरी मदर भी आ गई थी न।''

''चल, अच्छा हो गया। बस अब टिक कर काम करना। इस मुल्क में काम के बग़ैर कुछ नहीं।''

वह घर पहुँचता है। खाली घर काटने को दौड़ता है। वह मूंछों को मरोड़ा देने लगता है। रसोई में जाकर देखता है। दाल सवेर की बनी पड़ी है। आटा भी गूंधा पड़ा है। पीटा ब्रेड भी है जिसे वह अक्सर रोटियों के बदले खा लेता है। मनिंदर रोटी बना भी देती है पर पाला सिंह को फ़र्क़ नहीं पड़ता। रोटी हो या पीटा ब्रेड।

शाम को जब मनिंदर वापस घर आती है तो वह उसके संग सलाह करता है।

''पुत्त, अगर हम मोहनदेव का विवाह कर दें तो घर का काम संभाल लेगी उसकी वाइफ़।''

''मोहन से पूछो, मैं क्या बता सकती हूँ ?''

''आज आए तो बात करते हैं।''

''आज नहीं, वीकएंड पर आएगा वह।''

सुनकर पाला सिंह खीझ उठता है। सप्ताहांत की प्रतीक्षा करने लगता है। सप्ताहांत आता है। मोहनदेव की कार बाहर आकर रुकती है। वह सबसे 'हैलो' करता हुआ अपने कमरे में चला जाता है। पाला सिंह उसके संग जल्दी बात करना चाहता है। उसे पता है कि थोड़ी देर बाद वह दोस्तों के संग किसी तरफ़ निकल जाएगा। वह मनिंदर को भेजकर मोहनदेव को नीचे लाउंज में बुलाता है। कहता है-

''बेटा, मैं एक ड्रीम देख रहा हूँ।''

''डैड, मॉम की डैथ के बाद ड्रीम देखते हो, अच्छी बात नहीं।''

''ओ कंजर, मैं तो तेरे लिए देखता हूँ।''

''डैड, मेरे हिस्से की ड्रीम मुझे देखने दो।''

कहकर मोहनदेव हँसने लगता है। पाला सिंह भी हँसता है और कहता है-

''यह ड्रीम ज़रूर तेरा है, पर इसमें हिस्सा मेरा भी है।''

''सरप्राइज़ ! ऐसा कौन सा ड्रीम है ?''

''देख, अब तुझे जॉब मिल गई है। अब तू विवाह करवा ले।''

''अभी नहीं डैड, ज़रा ठहर कर। मैं प्रमोशन की वेट कर रहा हूँ।''

''वो वेट भी करता चला, विवाह कौन सा धरा पड़ा है कि कल को ही हो जाएगा। पहले लड़की तलाशेंगे, तू पसन्द करना फिर विवाह की तारीख़ रखेंगे, इंडिया चलेंगे। टाइम तो लग ही जाएगा।''

''इंडिया में विवाह करना है मेरा ?''

''और क्या ?''

''नो वे डैड, मुझे इंडिया नहीं जाना। वह भी विवाह करने। हाँ, छुट्टियों पर जाऊँगा कभी।''

''लड़की पसन्द करने तो जाएगा ही, चल विवाह इधर कर लेंगे।''

''डैड, नो शिटी गर्ल फ्रॉम इंडिया। नो फ्रैशी प्लीज़ !''

मोहनदेव कहता है। पाला सिंह को अपनी मूंछ नीचे सरकती हुई लगती है। वह फिर कहता है-

''न सही इंडिया से, यहाँ की ही ढूँढ़ लेते हैं। बता, किस तरह की लड़की चाहिए तुझे।''

''डैड, तू वरी न कर, मैंने विवाह करना है और लड़की भी मैं फाइंड कर लूँगा।''

(जारी…)

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