समकालीन पंजाबी साहित्य की उत्कृष्ट कृतियों की तलाश

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Sunday, October 30, 2011

आत्मकथा




एक नेत्रहीन लेखक की आत्मकथा

धृतराष्ट्र
डॉ. एस. तरसेम
हिन्दी अनुवाद : सुभाष नीरव
चैप्टर-24(प्रथम भाग)


मोहब्बत का 'ससा'¹
मेरे अपने गाँव के पंडित कपूर चंद के बनाये टेवे में मेरा नाम बिशम्भर दास था। इस नाम की बुनियाद थी मेरी जन्म-राशि। मुझसे बड़ी और मेरे बहन-भाइयों में सबसे छोटी तारा ने मेरा नाम बृज मोहन रखा। राजस्थान से आकर फेरी लगाने वाला और हमारे घर में ठिकाना करने वाला पंडित मसद्दी मुझे बंगाली कहकर बुलाता। बहन सीता का श्वसुर मुझे मौलवी कहता। ताया मथरा दास मुझे तुलसी कहकर बुलाया करता था। पर नानी द्वारा मेरे जन्म वाले दिन ही रखा नाम तरसेम मेरा पक्का नाम बन गया। 'नामों के झुरमुट' शीर्षक अधीन मैंने अपनी बचपन संबंधी आत्मकथा 'कच्ची मिट्टी, पक्का रंग' में अपने नामों के रखे जाने और उनके प्रचलित होने के बारे में विस्तार से उल्लेख किया है। इसलिए मैं उसको दोहराना नहीं चाहता। दोहराने का मुझे हक भी नहीं है।
मैं सातवीं कक्षा में था जब मेरी कविताएँ अख़बारों में छपनी शुरू हो गई थीं। मैं 'तरसेम लाल तुलसी' नाम से कविताएँ अख़बारों को भेजता। ताया मथरा दास द्वारा रखा गया नाम 'तुलसी' समझो मेरा तख़ल्लुस बन गया था। तपा मंडी में सब मुझे 'तुलसी' कहकर ही बुलाया करते थे। कोई मुझे हमारे गोत्र के कारण 'गोयल' भी कहता और मजाक में कोई 'गोलमोल' भी कह देता, पर शारीरिक तौर पर मैं बिलकुल पतला-लम्बा सींख की तरह था। मेरे भाई को तो कोई हरबंस लाल कहकर बुलाता ही नहीं था। सब उसे 'गोयल साहब' कहते। इसलिए 'तरसेम गोयल' या 'तरसेम तुलसी' मेरे दो नाम मैट्रिक पास करने से पहले चलते रहे। नवम्बर 1958 में मैंने ज्ञानी पास कर ली थी, इसलिए अख़बारों में मैं अपना नाम ज्ञानी तरसेम लाल तुलसी लिखकर भेजने लगा, जिस वजह से हमारे इलाके के कुछ लोग मुझे ज्ञानी जी भी कहने लग पड़े। तपा मंडी के आर्य स्कूल में पंजाबी अध्यापक लगने के कारण और कुछ ज्ञानी की ट्यूशनें पढ़ाने के कारण मुझे 'ज्ञानी जी' या 'तुलसी जी' कहकर ही बुलाया जाने लगा। ऐसे सम्बोधनों से मैं कभी खुश भी होता और कभी उदास भी। ज्ञानी शब्द तो मैं बिलकुल ही अपने नाम से मिटा देना चाहता था, पर क्या करूँ। अभी भी यदि मेरे भाई का मित्र मास्टर चरनदास मिल जाए, तो वह मुझे 'ज्ञानी जी' कहकर ही बुलाता है। वैसे मैंने अपने नाम के आगे और पीछे से 'ज्ञानी' और 'तुलसी' उस वक्त हटा दिए थे जब मैं पहली बार करतार सिंह बलगण की पत्रिका में छपा था - सिर्फ़ तरसेम के नाम से। बस, उस समय से मैं 'तरसेम' नाम के अधीन ही अख़बारों और पत्रिकाओं में छपता रहा। उस समय मैं कविता भी लिखा करता था और कहानी भी।
अचानक, तरसेम सिंह के नाम से छपने वाला एक कहानीकार भी अपनी कहानियों के साथ सिर्फ़ 'तरसेम' लिखने लग पड़ा। न तो मुझे उसका ठौर-ठिकाना पता था और न ही उस वक्त मुझे यह समझ थी कि उसका कहीं से पता-ठिकाना लेकर उसे पत्र लिखूँ कि वह अपना नाम बदल ले, क्योंकि 'तरसेम' नाम के अधीन मेरी रचनाएँ उससे पहले छपी थीं।
मैंने न तो किसी से सलाह ली और न ही किसी को बताया। हाँ, कुछ महीने सोचता अवश्य रहा। आख़िर मैंने अपना लेखकीय नाम 'स. तरसेम' रख लिया। तरसेम नाम से कहानियाँ लिखने वाला लेखक भी पता नहीं कहाँ गुम हो गया। मेरे द्वारा 'स. तरसेम' नाम रखने के तुरन्त बाद पता चला कि वह विदेश चला गया है। यह भी ख़बर मिली कि वह आजकल एक मैगज़ीन निकालता है - 'नीलगिरी'। इसलिए उसका नाम भी 'तरसेम नीलगिरी' पड़ गया। लेकिन मैं तो अब स. तरसेम बन चुका था। इस 'स' के बारे में मेरे लेखक दोस्त प्राय: पूछते रहते, पर मैं हँसकर टाल देता। यदि कोई पीछ ही पड़ जाता तो मैं कहता 'स' सीक्रेट है अर्थात गुप्त।
मेरे अन्दर उन दिनों इतना साहस नहीं था कि 'स' की सारी कहानी खोल देता। यह कहानी तो मैंने तब भी नहीं खोली, जब 1990 में मेरी बचपन की आत्मकथा 'कच्ची मिट्टी, पक्का रंग' में मेरे नाम को लेकर एक पूरा अध्याय छपा था। तब भी मैंने यह लिख दिया था, ''स. तरसेम मैं बहुत सोच-समझ कर लिखने लगा था। इसके पीछे तीन कहानियाँ हैं। तीन लड़कियाँ हैं। लड़कियों से हुई मुहब्बतें हैं। पहली मुहब्बत बचपन की मुहब्बत है। इसलिए अब भी मैं यह गीत अक्सर गुनगुनाता रहता हँ :

बचपन की मुहब्बत को
दिल से न जुदा करना
जब याद मेरी आए
मिलने की दुआ करना...

मुहब्बत की शुरूआत मेरे से हुई थी। भला 12-13 साल के लड़के को भी मुहब्बत करने का पता होता है, इस बात की समझ मुझे अभी तक नहीं आई। पर मैं उसको प्यार करता था। अब भी प्यार करता हूँ। अब वह मेरी तरह सेवा-मुक्त ज़िन्दगी बिता रही है। उसके कोई औलाद नहीं। सुना है कि उसने एक बेटी गोद ले रखी है। बहुत सुन्दर थी वह लड़की, मूरत जैसी, मानो ईश्वर ने फुर्सत में बैठ कर घड़ी हो। मेरी बड़ी बहन शीला ने जब उसे एक दिन देखा था, तो कहा था -
''भाई, यह लड़की तो मोरनी जैसी है, जिस घर में जाएगी, घर को सजाकर रख देगी।'' बहन को क्या मालूम था कि मैं उस लड़की को प्यार करता था। बहन को अब भी नहीं पता, किसी को भी नहीं पता। बस, मेरे मित्र कवि गुरदर्शन (स्वर्गीय) को ही मालूम था। अन्य किसी के सम्मुख इस मुहब्बत की मैंने भाप तक नहीं निकाली थी। उस लड़की को गली में 'पीचो-बकरी' खेलने से लेकर मेरे सामने पढ़ती हुई को मैंने सैकड़ों बार निहारा था। वह एक प्राइमरी अध्यापिका की बेटी थी। जब वह प्राइवेट दसवीं करने लगी तो ट्यूशन पढ़ने के लिए मेरे भाई के पास आने लगी। शाम पाँच बजे के बाद वह पढ़ने आया करती। मैं उस समय ज्ञानी कर रहा था। ज्ञानी गुरबचन सिंह तांघी के मालवा ज्ञानी कालेज, रामपुरा फूल में करीब ढाई महीने मैं पढ़ा था। दोपहर 12 बजे की ट्रेन से जाता और शाम पाँच बजे वाली से लौट आता। यदि गाड़ी छूट जाती तो मैं पैदल चल पड़ता। बहुत तेज़ चला करता था उन दिनों। उस लड़की के पढ़कर जाने से पहले पहले मैं घर पहुँच जाया करता था। उन दिनों तो मेरे अन्दर मुहब्बत का सोता निरन्तर फूट रहा था। सिर्फ़ उसके दर्शन-दीदार के लिए मैं तेज़-तेज़ चलकर रामपुरा फूल से घर पहुँचा करता। सीधा कोठे पर चढ़ जाता, जहाँ भाई दो लड़कियों को पढ़ा रहा होता। उनमें ही थी वह हसीन लड़की जो 'स' की बुनियाद थी। उस लड़की ने मार्च 1959 में दसवीं पास की। मैं उन दिनों तपा मंडी के आर्य हाई स्कूल में पंजाबी का अध्यापक लग चुका था। उस लड़की का नाना हमारे घर आया और मेरे भाई से कहने लगा कि अगर तरसेम हमारी लड़की को ज्ञानी करवा दे। मैं समीप बैठा था। अन्दर से मैं बहुत खुश था। ज्ञानी में पंजाब यूनिवर्सिटी में मैं तीसरे स्थान पर रहा था। तांघी साहब ने अपने मालवा कालेज को और अधिक चमकाने के लिए जो इश्तहार छापा, उसका आरंभ कुछ इस प्रकार था :
'केवल ढाई महीने पढ़कर ज्ञानी का विद्यार्थी तरसेम लाल गोयल पंजाब यूनिवर्सिटी की नवम्बर 1958 की परीक्षा में 367 नंबर लेकर तीसरे स्थान पर रहा और प्रथम आने वाले विद्यार्थी से केवल 10 नंबर कम।' यही कारण था कि मेरी प्रसिद्धि दूर तक फैल गई थी।
कुछ 'न-न' करने के बाद आख़िर मैं सहमत हो गया। यह 'न-न' तो यूँ ही एक ड्रामा था। मैं तो अपने पल्ले से चार पैसे खर्च करके भी उसके घर जाने को तैयार था। मैंने अगले दिन से ही बाकायदा उनके घर जाकर उस लड़की को पढ़ाना शुरू कर दिया। एक घंटा पढ़ाने की बात हुई थी और ट्यूशन लेनी थी बीस रुपये महीना। घंटा क्या, कभी डेढ़ घंटा भी लग जाता। दो घंटे भी लग जाते। समय के बीतने का पता ही न चलता। लेकिन एक दिन उसकी माँ ने कहा कि मैं चौबारे की बजाय उसे ड्यौढ़ी में ही पढ़ाया करूँ। मुझे यह मेरा अपमान-सा महसूस हुआ। लगा जैसे उसकी माँ मेरी नीयत पर शक कर रही हो। मुझे यह भी लगा कि शायद उस लड़की ने ही कोई ऐसी बात कह दी हो जिसके कारण उसकी माँ को ऐसा कहना पड़ा हो। मैं अगले दिन पढ़ाने नहीं गया, दूसरे दिन भी नहीं और तीसरे दिन भी नहीं। लड़की का नाना छड़ी खटखटाता मेरे घर आ पहुँचा। मैंने उसे भीतरी बात नहीं बताई थी। बस, कह दिया था कि मेरे पास वक्त नहीं है। पहली कक्षा में वह मेरा अध्यापक रहा था। उसने मुझे बहुत अपनेपन से कहा, ''भई तरसेम, बीच मंझदार में न डुबा लड़की को।''
कुछ तो उसके अध्यापक होने के कारण, कुछ नेत्रहीन होने के कारण और कुछ मेरे अपने दिल का उस लड़की के प्रति आकर्षण होने के कारण, मैं मान गया। लेकिन शर्त यह रखी कि मैं ड्यौढ़ी में नहीं पढ़ाऊँगा।
''लो बताओ, बखेड़ा ड्यौढ़ीवाला था। तूने पहले क्यों नहीं बताया ? बीबी यूँ ही वहमी है। मेरे यार तू कहीं भी बैठकर पढ़ा। बस, कल को आ जाना मेरे वीर।'' मास्टर जी के शब्दों में अपनत्व भी था और अनुनय भी। 'बीबी' शब्द का प्रयोग उसने अपनी बेटी के लिए किया था, दोहती के लिए नहीं। घर में लड़की की माँ को सब 'बीबी' कहा करते थे और अड़ोस-पड़ोस में भैण जी। अगले दिन दोपहर के बाद गया। वैसे ही चौबारा साफ-सफाई किया हुआ, मेरी कुर्सी बिलकुल पहले वाली जगह पर और चारपाई जिस पर लड़की बैठा करती थी, बिलकुल उसी जगह पर।
लड़की इस बात की जिद्द कर रही थी कि मैं उसे तीन दिन न आने का असली कारण बताऊँ। मैंने उसे सबकुछ बता दिया। पीचो-बकरी खेलने वाली उस लड़की के ज्ञानी की पढ़ाई शुरू करने तक की उसके प्रति अपनी सब भावनाएँ टुकड़ों में धीरे-धीरे प्रगट कर दीं। लड़की के चेहरे पर कुछ घबराहट आ गई थी और मैं भी कुछ डर गया था। मैं कौन-सा पोरस था। बात खत्म हुई तो हमने पढ़ाई शुरू कर दी।
पढ़ाई से लड़की का नाना, बीबी और स्वयं लड़की बहुत संतुष्ट थे। ढाई-तीन महीने विवाह जैसे बीत गए। चाय तो वे रोज़ पिलाते ही थे, कभी-कभार रोटी खिलाने के लिए भी वे जिद्द पकड़ लेते थे। मैं रोटी भी खा लेता था। इस सबकुछ में मेरी भावुक सांझ जुड़ी हुई थी।
लड़की ने परीक्षा दी। पेपर अच्छे हो गए। लड़की से अधिक मैं स्वयं उसके नतीजे की प्रतीक्षा करने लगा। जिस दिन उसका नतीजा अख़बार में छपा, मेरी खुशी का ठिकाना नहीं था। ऐसा प्रतीत होता था मानो मैं भी पास हो गया होऊँ। वैसे भी मैं सैर करने के लिए उनके घर के साथ लगती गली में से गुजरा करता और कभी-कभार सिर्फ़ उससे मिलने के लिए मैं उनके घर भी जाता। यह प्यार का सिलसिला मुझे एकतरफा प्रतीत हुआ। उसकी ओर से कोई हुंकारा नहीं था। बेशक एफ़.ए. और बी.ए. की परीक्षाएँ उसने मेरी तरह प्राइवेट ही दी थीं और प्राय: पढ़ाई में भी मेरी सलाह लेती रहती थी, पर मैं जो चाहता था, उस बारे में उसकी ओर से उसका इन्कार ही समझो।
बी.ए. करने के उपरांत तो वह बहुत चालाक हो गई थी। अपने आप को कुछ समझने भी लग पड़ी थी। मैंने उसे पंजाबी में एक लम्बा पत्र लिखा। ज़िन्दगी में यह मेरा पहला प्रेम पत्र था। मैं स्वयं उस पत्र को लेकर उसके घर गया। वह ड्यौढ़ी में नानी के पास बैठकर गरारे कर रही थी। मुझे देखकर उसने लुटिया रख दी और पूरे अदब से नमस्ते कहा। मैंने उसके हाथ में पत्र रख दिया।
''क्या है यह ?'' उसके चेहरे पर लाली छा गई थी, मानो उसका खूब गोरा रंग गुलाबी हो गया हो।
''देख ले।'' मेरी आवाज़ में कंपन ज़रूर होगा। उसने पत्र की पहली पाँच-सात पंक्तियाँ ही पढ़ी होंगी। बड़े धैर्य से बोली-
''बहुत सुन्दर है चिट्ठी यह। मैं इसे अकाली पत्रिका में भेज दूँ।'' वह मजाकिया लहजे में बोल रही थी। उन दिनों में पंजाब में 'अकाली पत्रिका' बहुत प्रसिद्ध अख़बार माना जाता था।
''भेज दे। चाहे ट्रिब्यून में भेज दे।'' मैंने ज़रा खीझकर कहा। (1990 में ट्रिब्यून सिर्फ अंग्रेजी में छपता था और अम्बाला से निकलता था।)
''आप नाराज़ तो नहीं होगे ?'' उसने बड़े नरम लहजे में पूछा।
''नहीं।''
चाय-पानी की रस्मी पूछताछ और मेरी रस्मी तौर पर न-नुकर के बाद मैं घर लौट आया। बस, यह उससे अन्तिम मुलाकात थी जिसके बाद यदि कोई मुलाकात हुई भी, उसमें न मेरी ओर से कोई बात चली और न ही उसकी ओर से।
1994 में वह मालेरकोटला मेरे घर आई। उसका पति उसके संग था। शिष्टाचार के नाते उसकी खातिर-सेवा भी की, पर मेरे दिल में से उसके प्रति प्यार का चश्मा न फूटा, जिसकी शीतलता वर्षों तक मेरी यादों में रची-बसी रही थी। कारण स्पष्ट था कि वह किसी मोह-मुहब्बत के कारण मेरे पास नहीं आई थी, यहाँ एक दफ्तर में उसका कोई काम था और मुझे बा-रसूख व्यक्ति समझकर वह अपने पति के संग मेरे पास आ गई थी। यह वह लड़की थी जिसका नाम 'स' से आरंभ होता था - सुखजीत। अब भी जब वह मुझे याद आती है, उसकी ओर से कोई रिस्पांस न मिलने का दर्द मेरे कलजे में कसक पैदा करता है। मुझे प्यार नहीं किया, न सही। मैंने तो उसे प्यार किया था। अब भी मैं उसे प्यार करता हूँ।
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1-गुरमुखी वर्णमाला का चौथा अक्षर 'स' जिसे 'ससा' कहा जाता है।
(जारी…)
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Saturday, October 22, 2011

पंजाबी उपन्यास




''साउथाल'' इंग्लैंड में अवस्थित पंजाबी कथाकार हरजीत अटवाल का यह चौथा उपन्यास है। इससे पूर्व उनके तीन उपन्यास - 'वन वे', 'रेत', और 'सवारी' चर्चित हो चुके हैं। ''साउथाल'' इंग्लैंड में एक शहर का नाम है जहाँ अधिकतर भारत से गए सिक्ख और पंजाबी परिवार बसते हैं। यहाँ अवस्थित पंजाबी परिवारों के जीवन को बेहद बारीकी से रेखांकित करता हरजीत अटवाल का यह उपन्यास इसलिए दिलचस्प और महत्वपूर्ण है क्योंकि इसके माध्यम से हम उन भारतीय लोगों की पीड़ा से रू-ब-रू होते हैं जो काम-धंधे और अधिक धन कमाने की मंशा से अपना वतन छोड़ कर विदेशों में जा बसते हैं और वर्षों वहाँ रहने के बावजूद वहाँ की सभ्यता और संस्कृति का हिस्सा नहीं बन पाते हैं।

साउथाल
हरजीत अटवाल
हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव

॥ सत्ताईस ॥

ईलिंग काउंसल के चुनाव आ रहे हैं। सभी पार्टियों ने अपनी पार्टी की ओर से काउंसलर खड़े करने हैं। पहले अपने-अपने उम्मीदवार नामज़द करने हैं। भारद्वाज सक्रिय हो जाता है। सोहनपाल उसके साथ है। जगमोहन और गुरचरन भी हैं। दिलजीत दूर रहता है, राजनीति से एक तरफ। सोहनपाल ने उसके लिए हिलसाइड वार्ड चुना है। यहाँ का काउंसलर प्रीतम फुल्ल अनपढ़-सा व्यक्ति है। लोगों में उसका बड़ा नाम नहीं है। कुछ हेराफेरी से पिछली बार नामज़दगी जीत गया था, वैसे योग्य नहीं है। उसके मुकाबले शाम भारद्वाज ज्यादा पढ़ा-लिखा है और स्पीकर भी बढ़िया है।
हर वार्ड के पार्टी मेंबर्स को उम्मीदवार नामजद करने हैं। वह तारीख़ आ जाती है। शाम भारद्वाज ने अपने बहुत सारे नये मेंबर जो कि इस वार्ड में रहते हैं, लेबर पार्टी में भर्ती किए हैं। मित्रों के साथ वैन गाड़ियाँ भरकर लेबर पार्टी के ऐक्टन वाले दफ्तर में पहुँच जाता हे। सेलेक्शन कमेटी के तीन व्यक्ति हैं। सबसे पहले तो चेयरमैन नये सदस्यों को पार्टी ज्वाइन करने के लिए उनका धन्यवाद करता है, स्वागत करता है और वह इतनी बड़ी उपस्थिति पर हैरान भी होता है। वह अर्जियों को देखते हुए बारी-बारी से संभावित उम्मीदवारों को स्टेज पर बुलाता है। हर व्यक्ति अपना परिचय देता है और बताता है कि वह काउंसलर क्यों बनना चाहता है। सभी अपनी-अपनी सामाजिक और राजनीतिक गतिविधियों पर प्रकाश डालते हुए काउंसलर बनने की अपनी योग्यता के विषय में दावे करते हैं। फिर उपस्थित मेंबर उनसे भाँति-भाँति के प्रश्न पूछते हैं। कुल पांच लोगों की अर्जियां हैं- तीन एशियन और दो गोरों की। एशियनों में से सबसे अधिक प्रभावशाली भाषण मुख्तियार सिंह ग्रेवाल का है। वह कालेज में अध्यापक है। वह साउथाल में बच्चों की पढ़ाई और स्त्रियों के हकों पर ज़ोर देना चाहता है और साथ ही, वह साउथाल में घरों की बढ़ती संख्या से हो रही भीड़-भाड़ से भी चिंतित है। शाम भारद्वाज का भाषण आम मसलों के बारे में है जैसे कि साउथाल की गंदगी, बढ़ता ट्रैफिक और भाईचारे के अच्छे संबंध। इसी प्रकार प्रीतम फुल्ल रटी-रटाई बातें करता है। दोनों गोरे कुछ सही बाते करते हैं पर हाल में गोरों की संख्या कम है।
वोट पड़ते हैं। शाम भारद्वाज को इक्कीस, प्रीतम फुल्ल को उन्नीस, पीटर एंडरसन को सत्तरह, आर्थर मिलर को सोलह और ग्रेवाल को सात वोट पड़ती हैं। शाम भारद्वाज खुश है। वह अभी से ही स्वयं को काउंसलर बना समझ रहा है। लेबर पार्टी के उम्मीदवार ने साउथाल में से तो जीतना ही है। इस पार्टी का ही यहाँ पर ज़ोर है। अधिकांश एशियन लोगों के दिलों में यह बात घर किए बैठी है कि वे मज़दूर क्लास लोग हैं और लेबर पार्टी ही उनके लिए अच्छी है। इसलिए वे सभी लेबर पार्टी को ही वोट डालते हैं। शाम भारद्वाज को लगता है कि वह बस जीता ही जीता। वह अभी से सभी से बधाइयाँ ले रहा है। जगमोहन उसको दूर से हाथ हिलाकर बधाई देता है। प्रीतम फुल्ल अपने साथियों के साथ मुँह लटकाये खड़ा है। कुछेक लोग धीमे स्वर में कह रहे हैं कि यह तो सीधी हेराफेरी है। इस तरह अचानक मेंबरों की गाड़ियाँ भर कर ले आना, ये तो घटिया राजनीति है। प्रीतम फुल्ल को लगता नहीं था कि वह नामजदगी से यूँ हाथ धो बैठेगा।
जगमोहन सब उम्मीदवारों के भाषण ध्यान से परखता है। उसको सबसे बढ़िया बातें ग्रेवाल की लगती हैं। वह एक तरफ खड़ा होकर लोगों की ओर देख रहा है। जगमोहन उसके करीब जाकर उसे सम्बोधित होते हुए कहता है -
''मुझे आपकी बातें बहुत अच्छी लगीं, पर मुझे लगता है, आपने अपना होमवर्क पूरा नहीं किया। यही कारण है कि नॉमीनेशन नहीं मिली।''
ग्रेवाल हँसते हुए कहता है-
''नॉमीनेशन मिलना तो दूर की बात है, ये जो छह-सात वोट पड़े हैं, ये भी लोग धोखे में डाल गए हैं।'' कहकर वह ज़ोर से हँसता है।
जगमोहन कहता है, ''सेलेक्शन का यह तरीका ही गलत है।''
''सेलेक्शन का तरीका तो ठीक है, पर हम लोग हेराफेरी करने से नहीं हटते।''
ग्रेवाल के कहने पर जगमोहन कुछ झेंप-सा जाता है। उसको लगता है कि ग्रेवाल उसके बारे में ही कह रहा है कि वह शाम भारद्वाज की वोट बनकर आया हुआ है। ग्रेवाल पुन: कहता है-
''मैंने तो यह तुर्ज़बा ही किया है, वैसे मेरा फील्ड नहीं है यह।''
''आपका कौन-सा फील्ड है ?''
''मैं युनिवर्सिटी टीचर यूनियन में काम कर रहा हूँ। लोकल पॉलिटिक्स में इन्वोल्व होने के लिए ट्राई किया था, पर मेरे वश की बात नहीं।''
यहीं से जगमोहन का ग्रेवाल से परिचय होता है जो कि जान-पहचान की ओर बढ़ता है। एक दिन वे ईलिंग शॉपिंग सेंटर में मिलते हैं और फिर एक दिन ‘द-ग्लौस्टर’ में। विचारों का आदान-प्रदान होने लगता है। सम्बन्ध दोस्ती में बदलने लगते हैं। वे एक-दूसरे को अपना फोन नंबर देते हैं। ग्रेवाल अपने बारे में बताते हुए कहता है कि एक समय में उसे कविता लिखने का शौक रहा है। वह कामरेड इकबाल को भी भलीभांति जानता है। वह जगमोहन को साउथाल के लेखकों के विषय में कितना कुछ बताता है, परन्तु जगमोहन को इसमें अधिक दिलचस्पी नहीं है। वह 'वास-प्रवास' में से कभी कोई लेखादि पढ़ लेता है, नहीं तो पढ़ने में उसकी अधिक रुचि नहीं है। हाँ, अंग्रेजी की अख़बार वह लगातार पढ़ता है, चाहे कोई भी हाथ में आ जाए। 'द मैन' की मसालेदार ख़बरें तो वह वक्त ग़ुज़ारने के लिए पढ़ा करता है।
एक दिन अंग्रेजी की अख़बार 'द टाइम्ज़' में साउथाल की महिलाओं की संस्था 'सिस्टर्ज इन हैंड्ज़' के बारे में एक आलेख छपता है। ग्रेवाल पढ़ता और एकदम जगमोहन को फोन करता है। कहता है-
''आज का टाइम्ज़ देखा ?''
''नहीं तो।''
''देख फिर और पढ़, इन औरतों के बारे में किसी ने बड़ा लम्बा-चौड़ा आर्टिकल लिख मारा है।''
''अच्छा!''
जगमोहन टाइम्ज़ खरीदता है। ख़बर पढ़कर वह ग्रेवाल को फोन घुमाता है। कहता है -
''सर जी, यह तो किसी ने इनकी कुछ ज्यादा ही फेवर कर दी, वैसे ये इतने के लायक नहीं।''
''मेरा तो दिल कर रहा है कि टाइम्ज़ को लैटर लिखूँ और कहूँ कि किसी संस्था के बारे में लिखने से पहले उसके कामों के बारे में पूरी जांच तो कर लिया करो।''
''बात तो आपकी ठीक है सर जी, ये औरतें काम इतना नहीं करतीं। बस, ख़बरों में रहने के चक्कर में रहती हैं। ऐसे ही टाइम्ज़ का कोई रिपोर्टर फंसा लिया होगा।''
''वैसे तो अखबारवालों को भी सभी कम्युनिटीज़ को प्रतिनिधिता देनी होती है। एशियन स्त्रियों का अन्य कोई संगठन है भी तो नहीं।''
''सर जी, ये सब छोटे-से सर्किल में ही घूमती फिरती है, बस।''
जगमोहन ग्रेवाल को हमेशा 'सर जी' कहकर ही बुलाता है। सर जी मजाक में कहना आरंभ किया था कि इंडियन लोग अंकल के साथ भी जी लगा देते हैं और डैडी के साथ भी और इसी प्रकार सर के साथ भी। जगमोहन हमेशा कहता है कि इंडिया में लोगों को यह भी नहीं पता कि शब्द ‘सिस्टर’ सरनेम के साथ लगाया जाता है कि पहले नाम के साथ। उसने 'सर जी' कहना शुरू किया और अब भी 'सर जी' ही कहा करता है। यही पक्का हो गया है। ग्रेवाल हालांकि उससे अट्ठारह-बीस साल बड़ा है, परन्तु दोस्तों की तरह ही व्यवहार करता है। दोस्तों की भाँति ही खुली बातें कर लिया करता है। एक दिन जगमोहन उसके सम्मुख बैठकर सिगरेट पीने लगता है तो ग्रेवाल कहता है-
''ला यार, मुझे भी लगवा एक।''
जगमोहन को ज़रा-सी हैरानी होती है और पूछता है-
''सर जी, आप भी!''
''नहीं यार, मैं कहाँ। यह तो तुझे देखकर हुड़क-सी जाग पड़ी। कभी पिया करता था, अब मुश्किल से इस आदत से निजात पाई है।''
अब वे प्राय: मिला करते हैं। अधिकतर ग्रेवाल के घर ही बैठते हैं। ग्रेवाल अपने घर में अकेला रहता है। सिस्टर्ज इनहैंड्ज़ उनकी बात में प्राय: उपस्थित रहती हैं। ग्रेवाल जगमोहन से पूछता है -
''तू इस संस्था की ओर इतना फैसिनेटिड क्यूँ है ?''
इसका उत्तर जगमोहन के पास नहीं है। एक दिन उसके मन में कुछ ऐसा आता है कि वह ग्रीन रोड पर पंद्रह नंबर का दरवाजा जा खटखटाता है। उसके मन में है कि सिस्टर्ज इनहैंड्ज़ वाली स्त्रियाँ उतना कुछ नहीं कर रहीं, जितना करने की आवश्यकता है और जितना कुछ वे कर सकती हैं। उन्हें अपना कार्यक्षेत्र और फैलाना चाहिए। एक औरत दरवाज़ा खोलती है। वह कुछ डरी हुई-सी है। वह पूछती है -
''बताओ, मैं क्या कर सकती हूँ आपके लिए ?''
''मुझे कुलविंदर से मिलना है।''
''वह तो है नहीं।''
''वैसे होती तो यहीं है न ?''
''नहीं, अब वह यहाँ नहीं आया करती।''
''और प्रीती ?''
''प्रीती कौन ? मैं नहीं जानती।''
वह औरत न में सिर हिलाती है। जगमोहन तो वहाँ सिर्फ़ कुलविंदर को ही जानता है जो कि उसके पास सलाह लेने आई थी। फिर इधर-उधर ही मिली थी, एक-दो बार। प्रीती का नाम तो अचानक ही उसके मन में आ जाता है। प्रीती ने उसको बताया था कि वह भी इस संस्था से जुड़ी हुई है। प्रीती तो उससे बहुत दिनों से मिली ही नहीं है। उसको कभी-कभी उसकी याद भी आती है। एक बार भूपिंदर से भी उसके बारे में पूछा था। भूपिंदर ने बताया था कि प्रीती का पति उसको नाटकों में काम नहीं करने दे रहा। यह बात तो वह पहले से ही जानता है। अब इसका अर्थ है कि प्रीती का इस संस्था के साथ भी कोई सम्पर्क नहीं है। वह वहाँ से चल पड़ता है। कुछेक कदम ही चलता है तो पीछे से आवाज़ आती है-
''एक्सक्यूज़ मी।''
वह पलटकर देखता है। दरवाजे में एक अन्य औरत खड़ी है। वह पूछती है-
''कोई काम ?''
''नहीं, खास नहीं। कुलविंदर से ही मिलना था।''
''वह तो यहाँ से जा चुकी है। यदि कोई काम है, हमारे करने वाला तो बताओ।''
''नहीं, मैंने टाइम्ज़ में आपकी आर्गनाइजेशन के बारे में लेख पढ़ा है, उसके विषय में ही डिस्कस करना था कुछ।''
''आओ, मेरे साथ करो, मैं यहाँ की कन्वीनर हूँ।''
जगमोहन उसके पीछे-पीछे अन्दर चला जाता है। फ्रंट रूम में कुछ कुर्सियाँ पड़ी हैं। एक बड़ा-सा मेज लगा हुआ है। वह औरत उसको वहाँ बैठने का संकेत करती है और स्वयं भी बैठ जाती है। पूछती है-
''आपने ही वहाँ लीगल एडवाइज़ सेंटर खोल रखा है, लेडी मार्गेट रोड पर।''
''हाँ, पर बन्द करना पड़ा।''
''क्यों ?''
''कोई आता नहीं था।''
''हमने तो आप तक अप्रोच की थी, पर आपने ही मना कर दिया।''
''क्योंकि मैं तो इमीग्रेशन के केस ही करता था, दूसरे लॉ के बारे में मुझे कोई ज्यादा जानकारी नहीं।''
''बताओ, कौन सी बात करनी है?... बॉय द वे, मॉय नेम इज़ लक्ष्मी।''
''आय'एम जगमोहन।''
''आई नो ! बस बात बताओ।''
''मुझे तो यह कहना है कि जितनी आपकी कैपेसिटी है, आप लोग उतना काम नहीं कर रहे।''
''आपने आर्टिकल पढ़ा नहीं ? हमारी उपलब्धियों के बारे में नहीं पढ़ा आपने इस आर्टिकल में ?''
''देखो, इस आर्टिकल का क्या मकसद है या इसके माध्यम से इसका राइटर क्या कहना चाहता है, यह एक अलग सवाल है। मुझे तो यह कहना है कि आप स्त्रियों की मैरीड लाइफ़ की प्रॉब्लम्स को ही कवर कर रहे हो, जब कि स्त्रियों की और भी तकलीफ़ें हैं।''
''फॉर एक्ज़ाम्पिल ?''
''फॉर एक्ज़ाम्पिल... ये जबरदस्ती के विवाह, ये ऑनर किलिंग और इंडिया-पाकिस्तान में औरतों के संग कितनी ज्यादतियाँ हो रही हैं।''
''देखिए, हमारी कैपेसिटी बहुत लिमिटेड है, हमें मालूम हैं, औरतों की बहुत प्रॉब्लम्स हैं, पर इस वक्त बड़ा मसला औरत के ऊपर हो रही वायलेंस का है। भारतीयों में पंजाबी मर्द अपनी पत्नियों के साथ बहुत मारपीट करते रहे हैं, ये लोग शराब पीते हैं और शराब पीकर औरत पर हाथ उठाते हैं। दूसरा हम बुजुर्ग़ औरतों की प्रॉब्लम्स को भी डील करते हैं।''
''यह मैं जानता हूँ, मेरा कहना है कि इस एरिये का विस्तार करो, और काम करो।''
''हमारे पास ग्रांटों की कमी है, फिर भी हमने सुखी क़त्ल कांड में आवाज़ उठाई थी।''
''सिर्फ़ एक प्रदर्शन किया था।''
''और एक प्रदर्शन ही काम कर गया, क़ातिल को सज़ा हो गई। सच तो यह है कि एक प्रदर्शन भी बहुत मुश्किल से हो पाता है। सभी औरतें काम करती हैं और जुलूस में आने के लिए हसबैंड की अनुमति चाहिए। आप शायद हमारी प्रॉब्लम को इस एंगिल से नहीं समझ सकते। अब पिछले दिनों अपने एक पंजाबी व्यक्ति ने किसी से अपने घर को आग लगवा दी जिसमें उसकी तीन बेटियाँ और पत्नी जलकर मर गईं। उसने आग इसलिए लगवाई कि उसकी पत्नी बेटा पैदा करने के काबिल नहीं थी।”
''मुझे पता है इस कहानी के बारे में। मैंने 'वास-प्रवास' में पढ़ा था।''
''हम इस इशू को लेकर जुलूस निकालना चाहती हैं, पर औरतें इकट्ठी नहीं हो रहीं। औरतों को काम पर से लौटकर घर संभालना पड़ता है, बच्चे भी और पति के हुक्म भी सुनने होते हैं। सच बात तो जगमोहन जी यह है कि यह पत्नी शब्द गलत है, असली शब्द तो स्लेव है। जब हम कहते हैं कि वह औरत इस आदमी की पत्नी है, हमें कहना यह चाहिए कि वह औरत इस आदमी की गुलाम है।''
(जारी…)
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