समकालीन पंजाबी साहित्य की उत्कृष्ट कृतियों की तलाश

‘अनुवाद घर’ को समकालीन पंजाबी साहित्य की उत्कृष्ट कृतियों की तलाश है। कथा-कहानी, उपन्यास, आत्मकथा, शब्दचित्र आदि से जुड़ी कृतियों का हिंदी अनुवाद हम ‘अनुवाद घर’ पर धारावाहिक प्रकाशित करना चाहते हैं। इच्छुक लेखक, प्रकाशक ‘टर्म्स एंड कंडीशन्स’ जानने के लिए हमें मेल करें। हमारा मेल आई डी है- anuvadghar@gmail.com

Saturday, January 28, 2012

पंजाबी उपन्यास




''साउथाल'' इंग्लैंड में अवस्थित पंजाबी कथाकार हरजीत अटवाल का यह चौथा उपन्यास है। इससे पूर्व उनके तीन उपन्यास - 'वन वे', 'रेत', और 'सवारी' चर्चित हो चुके हैं। ''साउथाल'' इंग्लैंड में एक शहर का नाम है जहाँ अधिकतर भारत से गए सिक्ख और पंजाबी परिवार बसते हैं। यहाँ अवस्थित पंजाबी परिवारों के जीवन को बेहद बारीकी से रेखांकित करता हरजीत अटवाल का यह उपन्यास इसलिए दिलचस्प और महत्वपूर्ण है क्योंकि इसके माध्यम से हम उन भारतीय लोगों की पीड़ा से रू-ब-रू होते हैं जो काम-धंधे और अधिक धन कमाने की मंशा से अपना वतन छोड़ कर विदेशों में जा बसते हैं और वर्षों वहाँ रहने के बावजूद वहाँ की सभ्यता और संस्कृति का हिस्सा नहीं बन पाते हैं।

साउथाल
हरजीत अटवाल

हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव

।। इकतीस ॥
एक दिन जगमोहन किंग मार्केट में जाता है। आई.डब्ल्यू.ए. के दफ्तर में उसको कोई काम है। काम से फुसरत पाकर वह कार पार्क की ओर जा रहा है कि उसको सामने से प्रीती जाती हुई दिखाई देती है। वह उसकी ओर बढ़ने लगता है। नज़दीक पहुँचकर उसको लगता है कि यह प्रीती नहीं है। वह और अधिक करीब होता है। उसके एकदम करीब पहुँच जाता है। वह औरत भी उसकी ओर देखे जा रही है। जगमोहन पूछता है-
''इज इट यू प्रीती ?''
वह औरत कुछ नहीं बोलती और तेज़ तेज़ चलने लगती है। जगमोहन धीमा हो जाता है बल्कि खड़ा हो जाता है कि किसी औरत के पीछे-पीछे चलते देखकर लोग क्या कहेंगे। औरत प्रीती की तरह ही चल रही है। जगमोहन देखता जा रहा है। वह औरत कुछ आगे जाकर मोड़ पर रुक जाती है और जगमोहन की ओर देखने लगती है। जगमोहन फिर उसके पास पहुँच जाता है। पूछता है-
''प्रीती, तुझे क्या हो गया ?''
''कुछ भी नहीं।''
''तेरी खाली आँखें, खुश्क बाल, चेहरे की चमड़ी भी अजीब सी लगती है। तू ठीक तो है ?''
''मैं बिलकुल ठीक हूँ, तू कैसा है ?''
''मैंने तो तुझसे कई बार मिलना चाहा।''
''यदि चाहा होता तो तुझे पता ही था कि मैं कहाँ रहती हूँ।''
''पर तेरा हसबैंड !... मैं नहीं चाहता था कि तेरे लिए कोई संकट पैदा हो।''
जगमोहन कह रहा है। प्रीती कुछ नहीं बोलती। फिर वह पूछता है-
''घर में तो सब ठीक है न ? तेरे बच्चे ? तेरा पति ?''
''हाँ, सब ठीक है।''
''तेरी एक्टिंग कैसी चल रही है ?''
''एक्टिंग तो मैंने छोड़ दी।''
''क्यों ?''
''एक्टिंग से आदमी की नैचुरल फीलिंग्स फेड-आउट हो जाती हैं।''
''व्हट ?''
''एक्टिंग करते करते आदमी को असल और नकल के फर्क की समझ कम हो जाती है।''
''प्रीती, कैसी बातें कर रही है। एक्टिंग करते हुए तो असल और नकल की पहचान होती है।''
''नहीं, जो असल और नकल में महीन-सा पर्दा होता है, उसकी खासियत खत्म हो जाती है एक्टिंग से।''
''अजीब से विचार बनाए बैठी है तू।''
''नहीं जगमोहन, यह सच है। स्टेज पर एक्टिंग करके घर पहुँचें तो फीलिंग्स में वो आरिजनैल्टी नहीं रहती।''
''कौन बताता है यह सब तुझे ?''
''मेरा हसबैंड।''
''और तू सुनती है ?''
''हाँ, मेरे बच्चे भी उसी की सुनते हैं।''
''तू सब गलत सुने जाती है प्रीती, क्या तू अपने दिल की बात सुननी भूल गई है ?''
''ओ.के. जगमोहन, मैं चलती हूँ। कोई देख लेगा, मेरा हसबैंड गुस्सा होगा, मेरा मजाक उड़ाएगा। मेरे बच्चे मुझ पर हँसेंगे।''
कहती हुई प्रीती चली जाती है। जगमोहन हैरान-सा खड़ा उसको जाते हुए देखता रहता है। उसको याद आता है कि एक बार पहले भी प्रीती को उसने उसी मोड़ पर उतारा था। वह कार पॉर्क में आ जाता है। अपनी कार में बैठ जाता है। कार स्टार्ट भी कर लेता है पर उससे कार आगे बढ़ाई नहीं जाती। वह सोचता जा रहा है कि क्या हो गया प्रीती को। इसका जवाब किसके पास होगा। सिस्टर्स इनहैंड्ज के दफ्तर तो वह जाती ही नहीं। और कौन होगा प्रीती का परिचित जिससे यह सब मालूम कर सके। उसको भूपिंदर का ख़याल आता है। पिछली बार उसने भूपिंदर के साथ फोन पर बात की थी जब उसने उसकी एक हिंदी फिल्म देखी थी। अब भूपिंदर को फिल्मों में छोटे-मोटे रोल मिलने लग पड़े हैं। कारण यह है कि बम्बई के प्रोडयूसर अपनी फिल्मों की शूटिंग लंदन में करने आते हैं और लोकल कलाकारों को भी काम दे देते हैं। भूपिंदर का नाम चल पड़ा है। वह सोचता है कि भूपिंदर को फोन करके देखे और फोन पर ही सबकुछ पूछ ले। परन्तु उसके पास तो जैसे फोन करने का समय ही नहीं है। वह कार को भूपिंदर के घर की तरफ दौड़ा लेता है। भूपिंदर के घर की डोर बेल बजाता है। भूपिंदर ही दरवाज़ा खोलता है। वह उसको अचानक आया देख हैरान होता हुआ पूछता है-
''जग्गे, क्या बात है ? तेरा चेहरा ऐसे क्यों हुआ पड़ा है ?''
''मैं तुझसे कुछ पूछने आया हूँ।''
''क्या ?''
''प्रीती को मिला कभी ?''
''पिछले दिनों एक दिन टैस्को में मिला था, उसका हसबैंड साथ था पर बात क्या है ?''
''तू बता कि प्रीती को क्या हुआ ?''
''अन्दर आ पहले।''
वे दोनों अन्दर जाते हैं। फ्रंट रूम में बैठते हैं। यही वह कमरा है जहाँ कभी रिहर्असलें हुआ करती थीं। जगमोहन बताने लगता है-
''मैं प्रीती की हालत देखकर घबरा गया हूँ, वह तो जैसे मेंटल हो गई है।''
''इतनी बुरी तो मुझे नहीं लगी। हाँ, ऑड-सी ज़रूर हो प्रतीत हुई थी। टैस्को में मैं शॉपिंग करने गया था, उसका पति संग था। उसका पति नहीं चाहता था कि वह ड्रामों में काम करे। उसने एक बार मुझे भी फोन पर गालियाँ निकाली थीं और सूरज आर्ट्स वालों को भी, पर फिर भी मैंने उन्हें बुला लिया। मैंने जितने सवाल पूछे, गुरनाम ने ही उत्तर दिए। प्रीती मेरी ओर टकटकी लगाकर देखती रही थी।''
''भूपिंदर, मेरी तरफ आज वह ऐसे देखती थी जैसे मेरे से कोई गिला कर रही हो।''
''मेरी ओर भी ऐसे ही देखती थी। उसका पति एक्टरों और एक्टिंग को बुरा भला बोलता रहा। उसने एक दो बार हाँ में सिर हिलाया बस।''
''इसका मतलब कि उसका पति उसको लीड कर रहा है, किसी न किसी तरह उसके मन में यह सब डाल रहा है। इसका अर्थ, उसको मिलने की ज़रूरत है। वी शुड मीट हर।''
''यॅस, यू कैन। पर इसके नतीजे उसके लिए बहुत बुरे होंगे। लेकिन तू उसको लेकर चिंता क्यों कर रहा है। तुझे पता है, शी इज़ ए स्ट्रांग वुमैन। वह खुद ही हालात के साथ डील कर लेगी।''
''मुझे तो नहीं लगता कि स्ट्रांग है, मुझे तो हारी हुई लगती है।''
''देख जैग, हम कुछ नहीं कर सकते। हम मसले को उलझा ही सकते हैं।''
भूपिंदर कह रहा है। जगमोहन कहता है -
''सिस्टर्स इनहैंड्ज तो जा सकते हैं उनके पास। मैं अभी उनके दफ्तर जाता हूँ।''
वह ग्रीन रोड पर आता है। सिस्टर्स इनहैंड्ज के दफ्तर में कोई नहीं है। शाम को फिर चक्कर लगाने के बारे में सोचता है, पर उसका चित्त स्थिर नहीं है। वह वहीं कार में बैठकर प्रतीक्षा करने लगता है कि कोई तो आएगा इस दफ्तर में। वह सिगरेट पर सिगरेट फूंक रहा है। इतनी सिगरेटें उसने कभी नहीं पीं। काफ़ी समय तक कार में बैठा रहता है। कोई नहीं आता। विवश होकर वह घर लौट आता है। दोनों बेटे उसके दायें-बायें बैठ जाते हैं जैसे नित्य बैठा करते हैं। उसका उखड़ा हुआ मूड देखकर मनदीप कहती है -
''जाओ, जॉगिंग कर आओ।''
उसकी बात पर जगमोहन हँस पड़ता है। वह जानती है कि यदि कुछ दिन वह जॉगिंग न करें तो उसका स्वभाव चिड़चिड़ा हो जाया करता है। इसलिए मनदीप ने कहा है। वह कहने लगता है-
''यह बात नहीं, यह तो प्रीती का मसला है।''
''कौन-सी प्रीती का ?''
वह पूछती है और जगमोहन पूरी कहानी सुनाता है। मनदीप कहती है-
''तुम्हें तो चुड़ैलें ही चिपटी रहती हैं। ये प्रीती जीते जी आ चिपटी।''
''यह नहीं चिपटती, मैं सारा केस बड़ी चुड़ैलों को दे दूँगा।''
कहकर हँसता है। मनदीप फिर कहती है-
''अगर उसका हसबैंड चाहता है कि वह ड्रामे न खेले तो तुमको ज़रूरी खिलाने हैं। यह तो दूसरे का घर बर्बाद करने वाली बात हुई।''
''यहाँ बात ड्रामों की नहीं है, उसकी हालत की है। वह ऐसी क्यों हो गई, यह है प्रॉब्लम।''
''मैं तो यह जानती हूँ कि तुम कोई न कोई राह जाती मुसीबत ले बैठते हो।''
''मैंने तुझे कहा न कि मुझे प्रीती के बारे में सिस्टर्स इनहैंड्ज के साथ बात करनी है, वे खुद देखेंगी।''
वह ग्रेवाल को फोन घुमाता है। सारी बात उससे करता है। ग्रेवाल कहने लगता है-
''मुझे लगता है कि उसका पति सॉयक्लॉजीकली उसको डोमीनेट करने की कोशिश कर रहा है। हो सकता है, उसके मन में हर वक्त हीन भावना भरने का यत्न करता रहता हो। उसको हर वक्त तुच्छ दिखा रहा हो और उसको यकीन भी दिला दिया हो। और किसी तरह से बच्चे भी अपनी तरफ कर लिए हों।''
(जारी…)

Sunday, January 15, 2012

आत्मकथा


एक नेत्रहीन लेखक की आत्मकथा

धृतराष्ट्र

डॉ. एस. तरसेम

हिन्दी अनुवाद : सुभाष नीरव

चैप्टर-25( दूसरा भाग)

चूल्हे के साथ स्कूल

सरकारी हाई स्कूल, तपा शहिणा ब्लॉक में आता था। शहिणा ब्लॉक में राणा ग्रुप का अकाली पक्षधर और आर.एस.एस. से संबंधित अध्यापकों से समझौता था। इसलिए इस ब्लॉक में से आर.एस.एस. पक्षधर अध्यापक दो बार चुनाव जीता। मगर समझौता तो आख़िर समझौता होता है। राणा ग्रुप को इस समझौते का बहुत फायदा था। लुधियाना ज़िले में ज़िला प्रधान के चुनाव के लिए राणा ग्रुप जिस उम्मीदवार को खड़ा करता, वह भी पूरा आर.एस.एस. का स्वयं सेवक था। दोनों पार्टियों का विचाराधारात्मक स्तर पर कतई कोई मेल नहीं था, अपितु दोनों एक दूसरे के विरोध में खड़ी थीं। इस ज़िले में राणा ग्रुप का उम्मीदवार दो-तीन बार विजयी भी रहा था। गुरदासपुर के एक या दो ब्लॉक-प्रधानों की सीट भी राणा ग्रुप आर.एस.एस. वालों के लिए ही छोड़ता। इससे राणा ग्रुप को एक बड़ा लाभ यह मिलता कि सी.पी.एम. बक्से में पंजाब के सारे आर.एस.एस. पक्षधर अध्यापकों के वोट पड़ जाते। सी.पी.आई. अर्थात ढिल्लों ग्रुप को पहले पहले तो कुछ कांग्रेस पक्षधर अथवा गोल-मोल अध्यापकों की वोटें मिलती रहीं, पर प्रांतीय स्तर पर गवर्नमेंट टीचर्ज़ यूनियन पर राणा ग्रुप का कब्ज़ा हो जाने के कारण वे गोलमोल अध्यापक भी अब राणा ग्रुप की ओर कदम बढ़ाने लग पड़े थे। नक्सली धड़ा जिसका प्रमुख नेता यशपाल था, उसके पास ज़िले की अध्यक्षता तो नहीं थी, पर कई ब्लॉकों पर उनका कब्ज़ा हो गया था। यशपाल रामपुरा फूल से संबंधित होने के कारण शहिणा ब्लॉक और शहिणा ब्लॉक ही नहीं, पूरे संगरूर ज़िले को प्रभावित करता था। इस स्कूल में काम करने वाला पी.टी.आई. हरकीरत सिंह भी यशपाल का ही श्रद्धालू था। एक चुनाव में सुरजीत सिंह डी.पी.ई भी राणा ग्रुप की ओर से खड़ा हुआ था। एक बार शहिणा ब्लॉक में तिकोनी टक्कर में यश ग्रुप का उम्मीदवार जीता था। ऐसे माहौल में मुझे सरकारी हाई स्कूल तपा में एक अध्यापक के तौर पर ही नहीं, वरन एक कर्मचारी नेता के तौर पर भी विचरना था। मेरे लिए अच्छी बात यह हुई कि ड्राइंग मास्टर मेरे कारण ढिल्लों ग्रुप में आ शामिल हुआ था। वह बड़ा धड़ल्लेदार मास्टर था। लड़कों पर भी उसका बहुत दबदबा था। अपने आप को नेता समझने वाले तपा मंडी के चौधरी भी उसके प्रभाव के अधीन थे। हाज़िरी रजिस्टर में हाज़िरी लगवाने से लेकर अन्य छोटे-मोटे कामों में बहुत से अध्यापक मेरी सहायता करते। यहाँ तक कि ज्ञानी हमीर सिंह, सुरजीत सिंह डी.पी.ई. और हरकीरत सिंह - सबसे मेरा प्यार भी था और आपसदारी भी। हम कई बार बहस करते करते अध्यापक गुटों से आगे वामपंथी राजनैतिक पार्टियों की सारी राजनीति खंगाल मारते। एक दूसरे पर दोष भी मढ़ने लग जाते। पर जब हल्ला-गुल्ला खत्म हो जाता, हम फिर से घी-खिचड़ी हो जाते। मज़े की बात तो यह थी कि सुरजीत सिंह और हरकीरत सिंह स्कूल के हर काम के लिए मुझे अपना अग्रणी मानते। हमारी इस तिकड़ी की दोस्ती और प्यार की खुशबू विद्यार्थियों में भी फैल गई थी, अध्यापकों में भी और लोगों में भी। सरकार की हर गलत बात पर हम तीनों ही मिलकर स्टैंड लेते। राणा ग्रुप के सही सोच वाले कई अध्यापक भी दिल से हमारी तरफ होते, लेकिन ग्रुप के अनुशासन के कारण चुप रहते। डी.ई.ओ. के साथ ढिल्लों ग्रुप की अनबन कोई बहुत बढ़िया रूझान नहीं था, क्योंकि आम तौर पर अधिकांश अफ़सरों की अपेक्षा डी.ई.ओ. एक अच्छा अफ़सर था। वह एक लम्बे समय तक सरकारी हाई स्कूल, रामपुरा फूल का हैड मास्टर रहा था और यह कस्बा, ब्लॉक शहिणा के बिलकुल साथ लगता होने के कारण बहुत सारे अध्यापकों के उसके संग निजी संबंध भी थे। पर राणा ग्रुप के लीडर, डी.ई.ओ. और ढिल्लों ग्रुप में बीच इस दरार को बनाये रखने के लिए कोई न कोई जुगत लड़ाते रहते। लेकिन हमारे स्कूल के अध्यापक इस षडयंत्र में शरीक नहीं होते थे।

..

स्कूल में विद्यार्थियों के पढ़ाने के काम में अध्यापक भी मेरे सहायक होते। उनकी इतनी सहायता ही काफ़ी थी कि किसी भी अध्यापक ने न लोगों में और न ही विद्यार्थियों में मेरे विरुद्ध कोई बात की थी। यदि कोई मेरे पढ़ाने के विषय में पूछता भी तो अक्सर मास्टर न केवल मेरे हक में बोलते, अपितु मेरे पढ़ाने के तौर-तरीके की बहुत प्रशंसा भी करते। इस स्कूल में हर कक्षा में से मैंने एक या दो होशियार विद्यार्थियों को अपने संग जोड़ लिया था। अधिक समय तो सुखानंद बस्ती में रहने वाले रिफ्यूजी लक्ष्मण दास का लड़का हुकम चंद मेरे पास रहता। उससे बड़ी उसकी बहन थी जमना। वह दसवीं कक्षा में पढ़ती थी। वह भी हमारे घर आती। घर में वह ऐसे घुलमिल गई थी मानो घर की ही लड़की हो। ये दोनों बहन-भाई मुझको पढ़ने-लिखने का काम भी देते। एक विद्यार्थी बेअंत सिंह था, वह भी क्लास में मेरे संग छाया की तरह रहता। हर शरारती लड़के की हरकत नोट करता और मुझे बता देता। वह दो वर्ष मुझसे पढ़ा था, नौंवी और दसवीं कक्षा में। एक था मेरी साली शीला का बेटा पाली, पढ़ने में वह बहुत होशियार था। उसका असली नाम तो कुछ और ही था, लेकिन सभी उसे पाली कहकर ही बुलाते थे। पाली भी मेरे लिखने-पढ़ने के काम में मदद करता। मेरी किसी कहानी, कविता या ग़ज़ल की नकल भी कर देता। कक्षा में तो वह किसी की आवाज़ भी न निकलने देता था। एक लड़का घडैली से था, ज़रा ठिगना-सा। रंग भी उसका सांवला था। पढ़ने में वह बहुत होशियार था और मैंने उसको कक्षा का मॉनीटर बना रखा था। वह भी मेरे लिए बहुत सहायक सिद्ध हुआ। सहायक तो अन्य विद्यार्थी भी सिद्ध हुए होंगे, पर सबकी सूची देना और उनके मेरे प्रति लगाव की कहानियों का वृतांत पेश करना यहाँ संभव नहीं। इस बात को यदि मैं इन शब्दों में खत्म करूँ कि जो भी कक्षा मुझे पढ़ाने के लिए मिलती, उनमें से आरंभ में ही एक-दो होशियार और सीधे-सरल विद्यार्थी मैं दस-पाँच दिन के निरीक्षण के पश्चात् अपने अधीन कर लेता और उन्हें अपना विश्वासपात्र बनाकर रखता। यह एक किस्म का स्कूल में मेरा गुप्तचर विभाग या यह कह लो कि सी.आई.डी. का महकमा होता जो विद्यार्थियों की गलत हरकतों को मेरे नोटिस में लाता। विद्यार्थियों को मेरी इस जुगत का पता चल गया था, जिसकी वजह से कोई भी मेरी कक्षा में शरारत करने या मुझे धोखा देने की कोशिश नहीं करता था। हुकम चंद तो समझो मेरे इतना करीब हो गया था कि वह स्कूल की हर अच्छी-बुरी बात का ख़याल रखता और उसके बारे में मुझे बताता रहता। इस प्रकार, पूरी तरह नेत्रहीन हो जाने के बावजूद स्कूल में पढ़ाने में कभी मुझे कोई कठिनाई पेश नहीं आई थी। हैड मास्टर साहब भी हमेशा मेरा ख़याल रखते और उन्होंने कभी भी मेरी इज्ज़त में फ़र्क़ नहीं पड़ने दिया था।


तपा मंडी में आने से मुझे कुछ आर्थिक लाभ भी हुआ। मैंने सरकारी नौकरी के दौरान कभी भी अपने स्कूल के विद्यार्थियों की ट्यूशन नहीं की थी, पर ज्ञानी करने वाले विद्यार्थी मेरे पास हर सैशन में आते रहते, विशेष तौर पर लड़कियाँ। बाकी स्कूल के कुछ अध्यापक स्कूल के विद्यार्थियों की भी ट्यूशन करते, पर मैंने कभी एक भी स्कूल विद्यार्थी को ट्यूशन नहीं पढ़ाई थी। शायद, इस कारण भी साथी अध्यापकों से मेरी आत्मीयता बनी रही, क्योंकि ट्यूशन के मामले में मैं उनका प्रतिस्पर्धी नहीं था। ज्ञानी की कक्षा बाकायदा पढ़ाते रहने के कारण मुझे दो लाभ हुए - एक तो चार पैसे आने से हाथ खुला रहता, दूसरा मैं पंजाबी साहित्य से जुड़ता रहता। इसके अतिरिक्त, एक अन्य लाभ भी था। मैं किसी न किसी लड़की या लड़के को अपनी कहानी डिक्टेट करवाने के लिए बुला लिया करता। मेरा यह काम करने के लिए उन विद्यार्थियों ने कभी माथे पर बल नहीं डाला था, क्योंकि कई विद्यार्थियों से मैं ट्यूशन फीस लेता ही नहीं था। दस-बीस दिन यदि महीने से ऊपर हो जाते, मैंने किसी से पैसे नहीं मांगे थे। इस तरह विद्यार्थियों से मेरा संबंध उस तरह के अध्यापकों वाला नहीं था जो ट्यूशन के मामले में बड़े सख्त थे।

इस स्कूल में मैं 30 दिसम्बर 1981 तक रहा। यहीं से मैं लेक्चरर बनकर सरकारी कालेज, मालेरकोटला गया।

यदि हैड मास्टर सिंगला साहब ने मेरे प्रति इतना मोह-प्यार रखा तो मैं भी उसके लिए जान कुर्बान करने तक गया। यहाँ संक्षेप में एक घटना का उल्लेख करना ज़रूरी है। हुआ इस तरह कि 31 मार्च को जब स्कूल का परिणाम निकाला गया तो नौंवी के बहुत से विद्यार्थी फेल हो गए। जो छात्र फेल हुए थे, वे थे भी समझो झंडे के नीचे। अपने फेल होने कारण वे हैड मास्टर को ही समझते थे। नतीजा सुनाने वाले दिन दोपहर के समय जब हैड मास्टर साहब बाहर निकले, उन छात्रों में से दो-तीन छात्रों ने हैड मास्टर पर लाठियों से हमला कर दिया। हैड मास्टर को काफ़ी चोटें आईं। हैड मास्टर पर हुआ यह हमला समूचे अध्यापक वर्ग पर हुआ हमला था। सारे स्टाफ ने उन विद्यार्थियों की गिरफ्तारी के लिए संघर्ष आरंभ कर दिया। इस संघर्ष में मैं सबसे आगे थे। पुलिसवाले लड़कों को पकड़ नहीं रहे थे। उन लड़कों में से एक लड़का पुलिसवाले का बेटा था। वैसे भी, तपा मंडी में जब कर्मचारियों का कभी भी टकराव पैदा होता तो मंडी के लाला लोग मास्टरों के पक्ष में कम ही खड़े होते। आम भोले-भाले लोगों में यह प्रचार किया जाता कि मास्टर तो कामरेड हैं, मास्टरों की तनख्वाहें बहुत हैं, मास्टर पढ़ाते नहीं हैं, मास्टर ट्यूशनें करते हैं, आदि-आदि।

जब विद्यार्थियों पर पुलिस ने हाथ न डाला तो हमने इलाके के अन्य अध्यापकों को शहर में प्रदर्शन करने के लिए आमंत्रण भेज दिया। बहुत बड़ी संख्या में अध्यापक विद्यार्थियों की इस हरकत और सरकार की अध्यापक विरोधी भूमिका के कारण शामिल हुए। इस अनहोनी के विरुद्ध पूरे शहर में से जुलूस निकाला गया और भरपूर रैली की गई। विद्यार्थियों के माता-पिता विद्यार्थियों से माफ़ी मंगवाने के लिए तो तैयार थे, पर उन्हें कोई और सख्त सजा दिलाने के लिए यूँ ही लीपापोती वाली बातें से ही काम निबटाना चाहते थे, जिसके कारण हमने अपने संघर्ष को तहसील स्तर पर शुरू करने के लिए मन बना लिया। उस समय कोई खान साहब बरनाला में ए.एस.पी. था और था भी बहुत ईमानदार अफ़सर। सुना था कि यह ए.एस.पी, डॉ. ज़ाकिर हुसैन का रिश्तेदार है। अध्यापकों से वह बड़े आदर से मिला। मैं उस डेपुटेशन में शामिल था, पर हमारे बैठे-बैठे ही विद्यार्थियों के हक में अकाली नेता करतार सिंह जोशीला आ गया। उन दिनों जोशीला साहब सुरजीत सिंह बरनाला का दाहिना हाथ समझे जाते थे। लेकिन खान साहब की दिलेरी की दाद देना बनता है कि उन्होंने जोशीला साहब को इस तरह शर्मिन्दा किया कि वह पुन: बात करने के लायक नहीं रहा, पर पता नहीं क्या हुआ, सिंगला साहब विद्यार्थियों के माता-पिता से समझौता कर बैठे। सिंगला साहब का भाई प्यारा लाल एस.डी.एम. का रीडर था, संभव है कि उस कारण ही हैड मास्टर को समझौता करना पड़ा हो, लेकिन हम अध्यापकों को इस बात का गर्व है कि सब अध्यापक सिंगला साहब के पीछे थे।

(जारी…)

Sunday, January 8, 2012

पंजाबी उपन्यास


''साउथाल'' इंग्लैंड में अवस्थित पंजाबी कथाकार हरजीत अटवाल का यह चौथा उपन्यास है। इससे पूर्व उनके तीन उपन्यास - 'वन वे', 'रेत', और 'सवारी' चर्चित हो चुके हैं। ''साउथाल'' इंग्लैंड में एक शहर का नाम है जहाँ अधिकतर भारत से गए सिक्ख और पंजाबी परिवार बसते हैं। यहाँ अवस्थित पंजाबी परिवारों के जीवन को बेहद बारीकी से रेखांकित करता हरजीत अटवाल का यह उपन्यास इसलिए दिलचस्प और महत्वपूर्ण है क्योंकि इसके माध्यम से हम उन भारतीय लोगों की पीड़ा से रू-ब-रू होते हैं जो काम-धंधे और अधिक धन कमाने की मंशा से अपना वतन छोड़कर विदेशों में जा बसते हैं और वर्षों वहाँ रहने के बावजूद वहाँ की सभ्यता और संस्कृति का हिस्सा नहीं बन पाते हैं।
साउथालहरजीत अटवाल

हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव

।। तीस ॥
एक शाम ज्ञान कौर कहती है-
''जी, मैं छुट्टी न कर लूँ सवेरे ?''
''क्यों ? सेहत ठीक नहीं ?''
''नहीं, सेहत तो ठीक है। लड़कियों को छुट्टियाँ है अब। मैंने सोचा, उनके साथ बैठकर देख लूँ। उनको घर के कामकाज के बारे में बताऊँ।''
''इन्हें अपने संग ही ले जा फैक्टरी में ही, जो बताना है, वहीं बताती रहना।''
''वहाँ कौन सा घर का काम होता है।''
''चल फिर कर ले छुट्टी, आज मैं भी कहीं नहीं जाऊँगा।''
प्रदुमण सिंह कहता है। वैसे वह नहीं चाहता कि लड़कियाँ फैक्टरी में जाएँ क्योंकि यदि लड़कियाँ वहाँ हों तो उसको स्वयं भी गम्भीर रहना पड़ता है, नहीं तो वह पर्दे में रहकर किसी न किसी औरत से मजाक कर लेता है। दूसरा, मीका और गुरमीत जो ड्राइवर हैं, फैक्टरी में होते हैं और लड़कियों की तरफ आँखें फाड़-फाड़कर देखते रहते हैं। अब वह यह भी नहीं चाहता कि ज्ञान कौर घर में रहे, क्योंकि ज्ञान कौर की अनुपस्थिति में औरतें काम पूरा नहीं करतीं। वह काम करने वालों के संग सख्ती नहीं बरत पाता। कुछेक औरतों के साथ तो उसने वक्त-बेवक्त सम्बन्ध भी बना रखे हैं इसलिए भी सख्ती नहीं बरत पाता।
सम्बन्ध रखने में वह बहुत गहरे नहीं उतरता अब। कुलजीत उसको ब्लैकमेल करना चाहती थी। उसके बाद वह सतर्क हो जाता है। अब वह सम्बन्ध सिर्फ़ विवाहित औरतों के साथ ही जोड़ता है। विवाहित औरतों की भी ज़रूरत अस्थायी होती है, प्रदुमण की ज़रूरत की तरह ही। अब फरीदा उसको बहुत उपयुक्त औरत प्रतीत हो रही है। वह छलांग लगाकर आगे नहीं बढ़ना चाहता। आहिस्ता-आहिस्ता वक्त लगाकर फरीदा के करीब जाना चाहता है। फिर वह ज्ञान कौर को भी किसी प्रकार का शक नहीं पड़ने देना चाहता।
ज्ञान कौर का घर में रहकर भी ध्यान फैक्टरी की तरफ ही है। लेकिन वह अपनी बेटियों के बीच बैठकर खुश है। उनसे रोटी और सब्ज़ी बनवानी है। दोपहर को प्रदुमण सिंह भी रोटी खाने के लिए घर ही आ जाता है। जैसे जैसे बेटियाँ बड़ी हो रही हैं, ज्ञान कौर का मन उनमें ही रहने लगता है। वे घर पर हों तो फोन करके उनका हालचाल पूछती रहती है। बलराम की उसे अधिक चिन्ता नहीं होती। राजविंदर को लेकर सोचने लगती है। लेकिन जब से यह बात तय हुई है कि उसका विवाह कर दिया जाए, तब से उसको कुछ तसल्ली है और लड़के को ब्याहने का चाव-सा चढ़ा हुआ है। उसके इंडिया जाने के बारे में घर में बातें होने लगी हैं।
एक दिन वह प्रदुमण सिंह से पूछती है-
''फिर कितनी देर के लिए इंडिया जाऊँ ?''
''चार हफ्ते के लिए।''
''राजविंदर को साथ ले जाऊँ ?''
''ले जाना, अगर मान जाए तो विवाह भी कर ही देना।''
''तुम्हारे बिना ही ?''
''बाकी सब वहीं हैं। तेरे भाई हैं, देख लेना, जैसे तुझे अच्छा लगे।''
''फिर मेरे बगैर यहाँ काम कैसे चलेगा ?''
''इसका तरीका यह है कि एक औरत को फोरलेडी बना दे। सारी जिम्मेदारी उसको दे दे। उसकी थोड़ी पैनी बढ़ा दे, देखना खुद काम करेगी। बड़ी फैक्टरियों में ऐसा ही होता है।''
उस रात राजविंदर घर आता है तो ज्ञान कौर बैठी उसका इंतज़ार कर रही होती है। वह पूछता है-
''क्यों मॉम, तू सोई नहीं अभी ?''
''जिसका बेटा यूँ घूमता फिर रहा हो, माँ कैसे हो जाएगी ?''
''माँ, तू रोज सोती है, आज क्या हो गया ?''
''मुझे तेरी चिन्ता है।''
''आई डोंट थिंक सो। अगर मेरी चिन्ता हो तो मुझे मनी क्यों नहीं देती ?''
''मनी तू जितनी चाहे ले ले, पर फिजूल खर्च के लिए नहीं।''
''खर्च तो खर्च होता है मॉम, फिजूल का मुझे नहीं पता।''
''चल, हम इंडिया चलें क्रिसमस पर।''
''इंडिया ? नो, नैवर।''
''क्यों ? अपना मुल्क है।''
''नहीं, मेरा कंट्री ये है। आय'एम ब्रिटिश।''
''पर तेरे डैडी का और मेरा देश इंडिया ही है।''
''तभी तो डैडी को किल करना चाहते थे वहाँ के लोग। मैं नहीं जाता इंडिया।''
''पर वो टाइम बीत गया, अब वहाँ सब ठीक है।''
''नहीं, मुझे नहीं जाना, तू जाना है तो जा। डैडी जाए, नॉट मी।''
''फिर तेरा विवाह कैसे करेंगे ?''
''व्हट विवाह ?''
''तू विवाह नहीं करवाएगा ?''
''वॉय ?''
''तेरी उम्र हो गई है, तू अकेला घूमता फिरता है, तेरी वाइफ़ होगी तो तेरी फिक्र करेगी, तू उसका फिक्र करेगा।''
''लुक मॉम, पहले डैड भी ऐसी रबिश बातें करता था, मैं विवाह लाइक नहीं करता। मेरे पर प्रैशर नहीं डालना, नहीं तो मैं घर से चला जाऊँगा। किसी फ्रैंड के साथ रहने लग पड़ूँगा।'' राजविंदर कहता है।
ज्ञान कौर के हाथ-पैर फूलने लगते हैं कि लड़का कहीं सचमुच ही घर से न चला जाए और कहीं बाहर रहने लग पड़े। वह प्यार से उसको समझाते हुए कहती है-
''न बाबा, मत करवा विवाह। मैं तो तेरे फायदे के लिए ही कहती थी।''
राजविंदर अपने कमरे में चला जाता है। ज्ञान कौर भी थकी टांगों से सीढ़ियाँ चढ़कर अपने कमरे में जा पड़ती है। प्रदुमण सिंह अभी जाग रहा है। ज्ञान कौर कहती है-
''लड़का नहीं मानता, कहता है घर से चला जाऊँगा।''
''जाने दे अगर जाता है।''
''लोग क्या कहेंगे कि इन्होंने लड़का घर से निकाल दिया।''
''लड़का ही है, कौन सा लड़की है।''
प्रदुमण सिंह कहता है और सोने की कोशिश करता है। उसको नींद नहीं आती। बहुत देर तक करवटें बदलता रहता है। ज्ञान कौर को भी बड़ी मुश्किल से नींद आती है। सवेरे उठते ही प्रदुमण सिंह पत्नी से कहता है-
''देख, इसको लेकर सोचने में टाइम खराब न कर, बलराम के बारे में सोच। उसको ब्याह दें, फिर लड़कियों की तरफ ध्यान दें।''
''पहले भी यह बात कितनी बार सोच चुके हैं, पर करना आसान नहीं।''
''छोड़ इस बात को, सारा दिन मूड खराब रहेगा।''
कहते हुए प्रदुमण सिंह फरीदा के बारे में सोचने लगता है। फरीदा काम पर आती है। उसने रोज़ नया सूट पहना होता है। बालों में चिड़ियाँ बना रखी होती हैं। वह प्रदुमण सिंह के पास से गुजरते समय धीमी चाल में हो जाती है ताकि अच्छी तरह देख सके। प्रदुमण सिंह भी थोड़ा बन ठनकर रहने लग पड़ा है। वह सवेरे ही ज्ञान कौर से कह देता है-
''कपड़े ज़रा अच्छी तरह से प्रैस कर देना, आज बैंक मैनेजर से मिलने जाना है।''
उसको इस तरह रोज़ ही किसी न किसी से मिलने जाना होता है या फिर कोई उसको मिलने आ रहा होता है। पगड़ी भी रोज़ बदलने लग पड़ा है। पहले कत्थई रंग की ही पहना करता था, पर अब पगड़ियों का रंग बदलता रहता है। एक दिन शिन्दर कौर पूछती है-
''अंकल जी, सुल्ली से पहले बात करके पगड़ी बांधा करते हो ?''
शिन्दर कभी-कभी उसके साथ बाहर चले जाया करती है। वह उससे लड़ भी पड़ती है कि इतनी औरतों के साथ एक ही समय में उसने वास्ता क्यों रखा हुआ है। प्रदुमण सिंह कहता है-
''क्यों, तू यह बात क्यों कहती है ?''
''जिस रंग की आपने पगड़ी बांधी होती है, वह उसी रंग का सूट पहनकर आती है।''
''नहीं, ऐसी तो कोई बात नहीं।'' कहकर प्रदुमण सिंह फरीदा के बारे में सोचने लगता है। फिर वह डर भी जाता है कि अभी तो कुछ घटित भी नहीं हुआ और खबर पहले ही फैल गई। फरीदा दफ्तर में मुस्कराती हुई दाख़िल होती है, कहती है-
''सरदार जी, आप तो मुझे बदनाम कर छोड़ोगे ?''
''क्यों, क्या बात हो गई ?''
''औरतें कहती हैं कि सरदार की पगड़ी और मेरे सूट का रंग एक होसी।''
''यह तो कोई दिल की दिल को राह होगी।''
''हाय अल्ला ! बन्द करो यह राह ! मेरे मियाँ को पता चल गया तो वह हमें जान से मार देगा। अगर आपकी सरदारनी को पता चल गया तो मेरे बाल नोंच लेगी।''
''फरीदा, तू बहुत सुन्दर है। तेरी हर अदा खूबसूरत है। मैं तुझ अकेली को मिलना चाहता हूँ, घर से कितने बजे निकलती हो ?''
''यही पन्द्रह मिनट का तो रास्ता होसी।''
''कल तू एक घंटा देर से आना, मैं तुझे राह में मिलूँगा।''
''न सरदार जी न, परमात्मा का नाम लो। मैं ऐसा न कर सां।''
''तू तो न कर, पर मैं तो कर सां... कल सवेरे साढ़े छह बजे मैं रोड के कार्नर पर मिलूँगा।''
''नहीं जी, वहाँ नहीं, आपने मिलना है तो लेडी मार्गेट रोड पर खड़े होना।''
(जारी…)