समकालीन पंजाबी साहित्य की उत्कृष्ट कृतियों की तलाश

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Sunday, May 16, 2010

पंजाबी उपन्यास


'साउथाल'' इंग्लैंड में अवस्थित पंजाबी कथाकार हरजीत अटवाल का यह चौथा उपन्यास है। इससे पूर्व उनके तीन उपन्यास - 'वन वे', 'रेत', और 'सवारी' चर्चित हो चुके हैं। ''साउथाल'' इंग्लैंड में एक शहर का नाम है जहाँ अधिकतर भारत से गए सिक्ख और पंजाबी परिवार बसते हैं। यहाँ अवस्थित पंजाबी परिवारों के जीवन को बेहद बारीकी से रेखांकित करता हरजीत अटवाल का यह उपन्यास इसलिए दिलचस्प और महत्वपूर्ण है क्योंकि इसके माध्यम से हम उन भारतीय लोगों की पीड़ा से रू-ब-रू होते हैं जो काम-धंधे और अधिक धन कमाने की मंशा से अपना वतन छोड़ कर विदेशों में जा बसते हैं और वर्षों वहाँ रहने के बावजूद वहाँ की सभ्यता और संस्कृति का हिस्सा नहीं बन पाते हैं।

साउथाल
हरजीत अटवाल
हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव

॥ चार ॥
मकहमे वाले बता रहे हैं कि दर्जा हरारत मनफ़ी पर है। प्रदुमण सिंह का परिवार जहाज़ में निकलते ही ठंड की लपेट में आ जाता है। जहाज़ में तो कुछ महसूस ही नहीं होता। अब एअरपोर्ट के अन्दर वे सब कांप रहे हैं। प्रदुमण सिंह ने दो पैग लगा रखे हैं इसलिए ठीक है, पर ज्ञान कौर और बच्चे ठंड से दुखी हैं। प्रदुमण सिंह सोच रहा है कि ये कभी शुरूआती दिनों में नहीं आए यहाँ। जिन दिनों में हीटिंग का खास प्रबंध नहीं हुआ करता था और ठंड भी बहुत पड़ती थी। एक बार बर्फ़ पड़ती तो पूरा मौसम ही जमी रहती। फिर बच्चे अभी डेढ़-एक साल पहले ही तो इंडिया गए थे, फिर भी इस मौसम को इतना पराया मान रहे हैं।
वे कस्टम से बाहर निकल कर इंतज़ार करती भीड़ में कोई अपना खोजने लगते हैं। कारा अपने लम्बे कद के कारण लोगों के पीछे खड़ा होने के बावजूद प्रदुमण को दिखाई दे जाता है। वह हाथ हिलाकर अपनी हाज़िरी लगवाता है। प्रदुमण एक बार फिर अपने बच्चों की तरफ देखता है। बड़ा राजविंदर बहुत खुश है। वैसे तो सभी इंडिया से ऊबे हुए थे, पर राजविंदर बागी हुआ पड़ा था। यदि उसके हाथ पासपोर्ट आ जाता तो वह पहले ही लौट आता।
कारा प्रदुमण को बांहों में कसकर मिलता है। प्रदुमण उसे यूँ बांहों में कसता है मानो सदियों का बिछड़ा हो। कारा बच्चों को भी जफ्फी डालकर मिलता है। ज्ञान कौर का तो उसे देखकर रोना ही निकल जाता है। कारा ज्ञान कौर से ट्राली पकड़कर उसे धकियाते हुए कार पॉर्क की ओर चल देता है। सब चुप हैं। कोई कुछ नहीं कह पा रहा। आख़िर, कारा ही कहता है-
''ठंड बहुत हो गई, आल आफ सडन बर्फ़ पड़ी और हवा चल पड़ी।''
प्रदुमण हाँ में सिर हिलाता चलता रहता है। कारा फिर पूछता है -
''वहाँ मौसम कैसा है ?''
''मौसम तो ठीक है, हालात ही साले खराब हैं।''
''हाँ, ये अखबारें भी खून-खराबे से भरी पड़ी होती हैं।''
''साली आग लगी पड़ी है। पंजाब तो पहले वाला रहा ही नहीं।''
प्रदुमण बात करता हुआ पगड़ी ठीक करने लगता है। ज्ञान कौर बोलती है-
''कारे, बहुत बुरी लैफ(लाइफ़) है। जीने का कोई हज नहीं वहाँ। मैंने तो यहाँ पहुँचकर इंग्लैंड की धरती को नमस्कार किया है और रब्ब का शुक्र मनाया है कि घर पहुँचे।''
बात करते हुए उसका गला भर आता है। चारों बच्चे आसपास देखते हुए खुश हैं। आपस में हँसी-मजाक भी कर रहे हैं। वे कारे की मर्सडीज़ के पास आ पहुँचते हैं। कारा बूट खोल कर सामान रखने लगता है। सामान अधिक है। फिर बन्दे भी एक कार से अधिक हैं। कार छोटी पड़ रही है। प्रदुमण कहता है-
''तुम चलो, मैं एक सौ पाँच लेकर आ जाता हूँ।''
''दुम्मणे, ख़याल ही नहीं किया, दूसरी कार भी घर पर ही थी और जीतो भी खाली थी। अब फोन करके बुला लेते हैं।''
''किसलिए, उसे क्यों तकलीफ़ देनी है। मुझे क्या राह नहीं मालूम, तू फिक्र न कर, घर के सामने तो एक सौ पाँच जाती है, तुम चलो।''
गाँव से यद्यपि वे खाली हाथ ही चले थे। कपड़े आदि भी दिल्ली आकर ही खरीदे हैं, फिर भी एक बैग से ही सामान काफी हो जाता है। कार में वे मुश्किल से फंस कर बैठते हैं।
प्रदुमण सिंह गले में बैग लटकाये बस-स्टॉप की ओर चल पड़ता है। इतने समय में कुछ भी नहीं बदला। एअरपोर्ट पर होने वाली भीड़ में कुछ वृद्धि हुई है। इतनी ठंड में भी लोग सफ़र करने में गुरेज नहीं कर रहे। प्रदुमण सिंह के बैग में रम की बोतल है। वह टॉयलेट में जाकर बोतल को मुँह लगा लेता है। उसका शरीर टूटा पड़ा है। इतने घंटे का सफ़र और ऊपर से पहली मानसिक तकलीफ़। वह टॉयलेट से बाहर निकल कर आसपास देखता है। उसे सबकुछ प्यारा-प्यारा लग रहा है। यह सारा एअरपोर्ट ही मानो उसका अपना हो। कितने चक्कर लगते रहे हैं उसके इस एअरपोर्ट के। कोई इंडिया से आ रहा है और कोई इंडिया को जा रहा है। साउथाल एअरपोर्ट के नज़दीक होने के कारण मिडलैंड वाले रिश्तेदार उसके पास आकर ही डेरा जमाते थे। वह ज्ञान कौर को दुकान पर खड़ी करके एअरपोर्ट जाने में मिनट लगाता। इंडिया से आए परिचित का फोन जो आ गया होता कि आकर एअरपोर्ट से ले जाओ।
एक सौ पाँच नंबर बस तैयार खड़ी है। वह जेब में हाथ डालता है। कुछ रेजगारी वह संभाल कर लाया है। ड्यूटी फ्री में से कुछ सामान खरीदने के बाद उसमें से भी कुछ बची है। बस का ड्राइवर पंजाबी ही है। प्रदुमण पूछता है-
''एलनबी रोड के कितने पैसे ?''
''सेवेंटी पैंस।''
''बढ़ गए !''
कहता हुआ वह सत्तर पैंस देकर टिकट ले लेता है। वह ऊँची जगह वाली सीट पर बैठता है ताकि आसपास का नज़ारा दिखता रहे। बर्फ़ ने सबकुछ दबा रखा है। कारा बता रहा था कि ठंड के कारण लोगों के घर के पाइप फट रहे हैं। एक पल के लिए तो प्रदुमण को अपने घर के पाइपों की भी चिंता सताती है जिसे काउंसल को किराये पर दे रखा है। बस एअरपोर्ट पीछे छोड़ती जाती है। ग्रेट वैस्ट रोड आ जाती है। बस रुकती है। सवारियाँ उतरती-चढ़ती हैं। उसका कोई परिचित चेहरा नहीं मिलता। उसे आशा है कि कोई न कोई परिचित अवश्य मिल जाएगा। बस बाथरोड से होती हुई साउथाल लेन पर आ जाती है। यहाँ नई लाइटें लगी हैं। प्रदुमण मन ही मन कहता है कि इनकी ज़रूरत थी भी। आगे एम.फोर का पुल और बायीं ओर इंटरनेशनल मार्केट, दायीं तरफ हैल्थ क्लब। प्रदुमण यह सब गौर से देखता जाता है। जैसे लौट कर पहली बार गाँव को गए को महसूस होता है, वैसे ही उसे लग रहा है - साउथाल, अपना साउथाल। उसके मन में ये शब्द बार-बार आ रहे हैं। फिर वह मन ही मन हँसता है - अपना साउथाल, कैसा अपना साउथाल। यह तो तब पता चलेगा जब गोरे पूंछ उठवाएंगे। कभी गाँव भी तो अपना हुआ करता था। गाँव का नाम मुँह में आते ही सब कुछ कसैला हो जाता है, कड़वाहट से भरा हुआ। वह उदास होने लगता है। आगे छोटे से राउंड-अबाउट से बस दायीं ओर वैस्टर्न रोड पर मुड़ जाती है। गाँव की रील अभी भी उसके मन में चल रही है। गाँव का अपना होने का भ्रम था। कितना कुछ खरीदा हुआ है वहाँ- खेत, प्लाट, दुकानें। फिर भी छोड़कर भागना पड़ा। यहाँ से भागकर कहाँ जाएगा वह। भागेगा भी कैसे ? चारों ओर तो समुंदर है। नहर के पुल की चढ़ाई उसकी तंद्रा भंग करती है। नहर ठंड के कारण जमी पड़ी है। यह इतनी सख्त रूप में जमी पड़ी है कि लोग इसे पैदल पार करने का आनन्द ले रहे हैं।
बायीं ओर रविदास गुरुद्वारे की नई इमारत है। आगे दो दुकानें भी नई खुली प्रतीत होती हैं। वैस्टर्न रोड पर भी पहले से अधिक रौनक है। आगे बत्तियाँ हैं। सीधे जाएँ तो बड़ा गुरुद्वारा है-हैवलक रोड वाला। दायें किंग स्ट्रीट और बायें साउथ स्ट्रीट। बस बायें मुड़ती है। सूरज निकल आया है। कहीं कहीं बर्फ़ शीशे की तरह चमक रही है, शीशे की तरह ही सूरज के अक्स की चमक देती हुई। बायीं ओर मंदिर को भी पीला रंग अभी नया किया प्रतीत होता है। दायीं तरफ पॉर्क का घास भी सफेद हुआ पड़ा है। सड़कों के ऊपर की बर्फ़ तो अब कीचड़-सी बनी पड़ी है जैसे बारिश होने पर कच्ची सड़क हो जाया करती है। साउथाल का स्टेशन आ जाता है। वह सोचता है कि पंजाबी में लिखे नाम की स्पेलिंग अभी भी गलत है। 'साउथाल' और 'साउथहाल' लिखा हुआ है। पता नहीं किस अधपढ़ ने यह सुझाया होगा और अभी भी किसी की दृष्टि में यह गलती क्यों नहीं आ रही है। बायें हाथ 'वास-प्रवास' का दफ्तर है। पीला ध्वज झूल रहा है, साथ ही यूनियन जैक भी। दायीं तरफ गुरुद्वारा है। गुरुद्वारे के सामने नंगी औरत की तस्वीर वाला इश्तिहार लगा हुआ है और साथ ही 'देसी हाता' नाम का पब है जिस में कुर्सियाँ, मेज और बियर आदि सबकुछ पंजाबी अंदाज में है। यहाँ रुपये में भी बियर खरीदी जा सकती है। शाम को भारत से आए गवइये का अखाड़ा लगता है। दोपहर को स्ट्रीपीज़ होती है अर्थात नंगा नाच।
आगे चलकर बस खाली हो जाती है पर उतनी ही सवारियाँ फिर चढ़ जाती हैं। ब्राडवे की बत्ती पर बस रुकती नहीं क्योंकि ये ग्रीन हैं। आगे दायें हाथ पर मंदिर के आगे सीमेंट की गऊएं खड़ी कर रखी हैं। जब वह भारत गया था तो सुरिंदर शर्मा नाम का व्यक्ति इन गऊओं का चढ़ावा चढ़ाना चाहता था।
कार्लाइल रोड पर बस ने दायीं ओर मुड़ना है। बायीं ओर जगमोहन का घर है। जगमोहन उस के भाई का दामाद है। उसके साथ भी जगमोहन के अच्छे सम्बन्ध हैं। पहले वह जगमोहन को ही फोन करना चाहता था कि एअरपोर्ट पर आकर ले जाए पर फिर उसने सोचा कि कारा ज्यादा मददगार साबित हो सकता है।
कारा बोतल खोलकर उसका इन्तज़ार कर रहा है। प्रदुमण दरवाजे की घंटी बजाता है तो कारा वहीं उसे ब्रांडी का पैग पेश करता है। ज्ञान कौर और बच्चे चाय पी कर गरम हुए बैठे हैं। लाउन्ज में आता कारा प्रदुमण से कहता है-
''वैलकम बैक टु साउथाल।''
''थैंक्यू कारा, तेरे होते घरवालों की तरह आ बैठे हैं।''
प्रदुमण कारा का धन्यवाद करता है। कारा कहता है-
''दुम्मणे, भाई किसलिए होते हैं। यह तो अगर मैं इंडिया होता, जैसे तेरे पर मुसीबत पड़ी थी, सिरधड़ की बाजी लगाकर तेरी हैल्प करता।''
कारा प्रदुमण के मामा का पुत्र है। वे इकट्ठे ही इंग्लैंड आए थे और सदैव ही करीब-करीब रहते हुए एक दूसरे के काम आते रहे हैं। एक दूसरे के साथ खड़ा होते हैं। प्रदुमण आपबीती उसे धीरे-धीरे बताना चाहता है। वह दो शब्दों में बात खत्म नहीं करना चाहता। अपना पैग खत्म करता हुआ वह कहता है-
''कारे, और यहाँ की खैर-खबर सुना।''
''सब ठीकठाक है। सब चढ़ती कला में है। बस, उधर इंडिया से ही टैरेरिस्टों की वारदातें पढ़ पढ़ कर मन खराब होता रहता है। बाकी सब लोहे जैसा है।''
''ये साधू सिंह की उधर बड़ी चर्चा रही है।''
''हाँ, उसने अपनी लड़की जो काट दी।''
''था तो नहीं ऐसा वो। देखने में शरीफ-सा लगता था।''
''हाँ, फिर बेटी की बदबख्ती झेली नहीं जाती थी, इसके अलावा और कोई चारा भी नहीं था।''
''अब तो न्यूज़ में आया था कि सजा हो गई।''
''हाँ, यह बात बुरी हुई। उम्र कैद हो गई। हम तो सोचते थे कि डाइमेनशन लायबिलिटी के कारण बचाव हो जाएगा। पर जज होस्टाइल हो गया। यहाँ की सिस्टर इनहैंड्ज ने जुलूस जो निकाल दिया।''
''यह क्या बला है ?''
''यह औरतों का एक संगठन बना हुआ है। कहता है कि हमें औरतों के हकों की रक्षा करनी है। ये इकट्ठा होकर अदालत के आगे जुलूस निकालती रहीं इसलिए जज को उम्र कैद की सज़ा करनी ही पड़ी।''
''उम्र कैद तो होनी थी, क़त्ल है आख़िर।''
''हाँ, हम सोचते थे कि मैन स्लाटर में आ जाता तो कुछ रियायत हो जाती और फिर कोई खास गवाह भी नहीं था।''
''सरेआम लड़की को काट दिया और गवाह क्यों नहीं होंगे।''
(जारी…)
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3 comments:

जाकिर अली रजनीश said...

आपके इस प्रयास को सलाम करता हूँ।

Sanjeet Tripathi said...

hmm shukriya ise padhwane ke liye, aap sabki mehnat ka shukrana

sgajjani@gamil.com said...

harjeet atwal ssab aur Regarding dipti mem ka bahut bahut aabhar ki hume hindustan baithe ingland ke vaatavaran dikha rahe hai ,
sadhuwad