समकालीन पंजाबी साहित्य की उत्कृष्ट कृतियों की तलाश

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Saturday, August 14, 2010

आत्मकथा


एक नेत्रहीन लेखक की आत्मकथा

धृतराष्ट्र
डॉ. एस. तरसेम
हिन्दी अनुवाद : सुभाष नीरव
चैप्टर-12(प्रथम भाग)

आख़िरी प्रायवेट स्कूल - बठिंडा

आर्य हाई स्कूल, रामपुराफूल से फारिग होकर मैं अगले ही दिन एस.डी. हायर सेकेंडरी एंड जे.बी.टी. स्कूल, बठिंडा में उपस्थित हो गया। यहाँ मैं था तो पंजाबी टीचर पर जे.बी.टी. इंचार्ज और हॉस्टल सुपरिटेंडेंट होने के कारण मेरा रुतबा आम सीनियर स्टाफ से किसी तरह कम नहीं था। इस स्कूल में आने के कई लाभ हुए। एक तो यह कि भाई की नाराजगी, माँ की उदासी और भाभी की 'टें-टें' से बच गया। दूसरे यह कि मौड़ मंडी की तरह ही मुझे स्कूल में ही रहने के लिए कमरा मिल गया, क्योंकि मैं जे.बी.टी. का हॉस्टल सुपरिटेंडेंट बनाया गया था। तीसरा यह कि रिश्तेदारी में फीका पड़ने से भी बच गया क्योंकि रामपुराफूल में बहन के घर रह कर किसी वक्त भी कोई ऐसी घटना घटित हो सकती थी जो मेरी बहन के ससुरालवालों और मेरे बीच दरार का कारण बन सकती थी। हमारे महाजनी रिश्ते-नाते काँच की चूड़ी से भी अधिक नाजुक समझे जाते हैं। अब तो बहुत अंतर आ गया है लेकिन उन दिनों बहन या ससुरालवालों के घर रहना आदमी के लिए बहुत साज़गार नहीं होता था। शायद यह आख्यान हमारे महाजनी परिवारों में अधिक प्रचलित हो कि 'बहन के घर भाई कुत्ता, ससुराल में जमाई कुत्ता'। समझ लो, मैं बहन के घर कुत्ता बनने से बच गया था। ऐसा समझो कि बठिंडा पहुँचकर मैं आज़ाद पंछी बन गया था जबकि रामपुराफूल में घर की रोटी मिलने के बावजूद मुझे बहुत सोच सोच कर चलना पड़ता था।
जे.बी.टी. क्लास में कुल चालीस विद्यार्थी थे। तीन विद्यार्थी ऐसे थे जो वहीं पहले प्राइमरी अध्यापक थे- हरबंस लाल मौंगा, सुखदेव सिंह सिद्धू और ओम प्रकाश वर्मा। हरबंस सिंह मौंगा तो उम्र में भी मुझसे बड़ा था। दाढ़ी-केश से वह लड़का नहीं, पूरा आदमी लगता था। एक अन्य विद्यार्थी भी था जो हरबंस सिंह की तरह काफी बड़ी उम्र का प्रतीत होता था। वह बड़ी नरम और सज्जन तबीअत का विद्यार्थी था पर एक विद्यार्थी था- सुखदेव सिंह धालीवाल। उसकी हरबंस सिंह, सुखदेव सिंह सिद्धू और ओम प्रकाश वर्मा से बनती नहीं थी। ऐसे हॉस्टल में किसी सुपरिटेंडेंट का नियंत्रण स्कूल के लिए एक चैलेंज था। स्कूल का प्रिंसीपल, वाइस प्रिंसीपल एस.पी. गुप्ता और सीनियर साइंस मास्टर कपूर - सब मौंगे, सिद्धू और वर्मा के प्रति नरम व्यवहार रखते थे, क्योंकि वे उनके कुलीग रह चुके थे और जे.बी.टी. पास करने के बाद उनको उसी स्कूल में पुन: लौट आना था। सुखदेव धालीवाल मन से अध्यापकों के इस रवैये से दुखी था। यही कारण था कि पहले वाले सुपरिटेंडेंट को हटा कर मुझे सुपरिटेंडेंट नियुक्त किया गया था।
एक तो मुझमें पढ़ाने के मामले में पूरा आत्मविश्वास था। दूसरा यह कि मैंने हॉस्टल का चार्ज संभालते ही विद्यार्थियों में कुछ नियमों की घोषणा कर दी थी। तीसरे यह कि विद्यार्थियों की हाजिरी आदि का सारा काम मेरे हाथ में था। मैं जे.बी.टी. को सबसे अधिक पीरियड भी पढ़ाता था। इसलिए विद्यार्थियों पर अपना प्रभाव बनाने में शीघ्र ही सफल हो गया था। प्रथम सप्ताह तो मुझे ग्राउंड फ्लोर पर एक छोटा-सा कमरा दिया गया जो हॉस्टल के ग्राउंड फ्लोर की सीढ़ियों के करीब ही था पर वह कमरा बहुत अच्छा नहीं था। इसलिए मैं यह कमरा बदलना चाहता था। उस कमरे में रह कर मैं हॉस्टल सुपरिटेंडेंट नहीं लगता था। हॉस्टल के किसी रसोईये या चौकीदार का तो यह कमरा हो सकता था, परन्तु हॉस्टल सुपरिटेंडेंट का बिलकुल नहीं, क्योंकि उसमें केवल एक चारपाई बिछती थी और उसके आसपास फुट, डेढ़ फुट की जगह बचती थी। मैंने एस.पी. गुप्ता से कहा। गुप्ता जी मुझे प्रिंसीपल पी.सी. गुप्ता के पास ले गए। वाइस-प्रिंसीपल ओ.पी. सेठ को भी वहाँ बुला लिया गया। मैंने अपने पक्ष में दो तर्क दिए। एक तो यह कि उस कमरे में हॉस्टल सुपरिटेंडेंट की रिहायश से विद्यार्थियों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता था और दूसरा यह कि विद्यार्थियों के कमरे फर्स्ट फ्लोर पर हैं, इसलिए विद्यार्थियों की निगरानी के लिए कमरा फर्स्ट फ्लोर पर ही होना चाहिए। विद्यार्थियों के दो दल होने के कारण हॉस्टल सुपरिटेंडेंट के उनके कमरों के करीब रहने की अहमियत सब समझते थे। इस समस्या के बारे में प्रिंसीपल गुप्ता के करीबी साथी मौंगा, सिद्धू और वर्मा जो अब विद्यार्थी थे, पहले ही प्रिंसीपल और सेठ साहब को बता चुके थे। इसलिए अगले ही दिन मुझे फर्स्ट फ्लोर पर एक कमरा दे दिया गया। इसमें दो बिस्तरे भी लग सकते थे, एक मेज और दो कुर्सियों के लिए भी जगह थी। वैसे भी कमरा बहुत अच्छा था और था भी कोने वाला, पर इस कमरे के मिलने पर मुझे ओम प्रकाश वर्मा को संग रखना पड़ा। कारण यह था कि कमरे कम थे। जे.बी.टी. नई नई खुली थी। स्कूल में हॉस्टल की कोई स्थायी व्यवस्था नहीं थी। ये कमरे जो अब हॉस्टल के तौर पर इस्तेमाल किए जा रहे थे, भी खाली होने के कारण स्कूल के लिए वरदान सिद्ध हुए थे। इससे स्कूल की एक तो आमदनी बढ़ गई और दूसरे इससे विद्यार्थियों की कक्षा में नियमित उपस्थिति संभव थी क्योंकि सीढ़ियाँ उतर कर पचासेक गज़ की दूरी पर बायीं ओर जे.बी.टी. का क्लास रूम था। इस स्कूल में मैं दिसम्बर की छुट्टियों से पहले ही उपस्थित हो गया था जिसके कारण प्रिंसीपल की हल्की सी न-नुकर के बाद छुट्टियों के वेतन की अदायगी हो गई थी। असूलन भी इन छुट्टियों को ग्रीष्म अवकाश की भाँति एजूकेशन कोड में वेतन न देने के नियमों में नहीं गिना जाता था। वैसे भी, जे.बी.टी. क्लास की पढ़ाई और हॉस्टल का काम ठीक ठाक चलाने के लिए प्रिंसीपल मुझे किसी बात पर नाराज नहीं करना चाहता था। यद्यपि मैं पंजाबी का अध्यापक था पर सरकारी स्कूलों के पंजाबी अध्यापकों से मेरी तनख्वाह कहीं अधिक थी। उन दिनों सरकारी या प्राइवेट स्कूलों में पंजाबी टीचर के तौर पर लगने के लिए ज्ञानी, ओ.टी. शैक्षिक योग्यता थी। कोई भी मैट्रिक पास सीधे ज्ञानी की परीक्षा दे सकता था और उसके पश्चात् दो महीने में ओ.टी. हो जाती थी। मैंने वाया बठिंडा ही बी.ए. की थी। सामाजिक शिक्षा के मास्टर ईंट उठाओ तो मिल जाते थे। कोई भी प्राइवेट स्कूल सामाजिक शिक्षा मास्टर को 100-125 रुपये से अधिक तनख्वाह नहीं देता था। इसलिए मेरी इस स्कूल में 130 रुपये पर हुई नियुक्ति कोई खराब सौदा नहीं थी। यद्यपि मैं मौड़ मंडी में 140 रुपये लेता था और वहाँ मेरी पोस्ट जैसा कि पहले भी जिक्र कर चुका हूँ, सीनियर इंग्लिश मास्टर की थी और उससे पहले जी.ए.वी. हॉयर सेकेंडरी स्कूल, कांगड़ा में मैं 150 रुपये लेता था और पढ़ाता भी वहाँ पंजाबी था। लेकिन यहाँ मौज यह थी कि हॉस्टल में मुफ्त कमरा मिल गया था। रोटी की कोई चिंता नहीं थी और चौधराहट अलग थी। जैसी सब्ज़ी-भाजी मैं चाहता था, वैसी ही बनती थी। वैसे मैंने विद्यार्थियों की एक 'मैस कमेटी' बना दी थी। यह कोओपरेटिव मैस था। एक रसोईया था। उसका नाम था दुर्गा। दुर्गा बड़ा मृदुभाषी मनुष्य था। आवाज़ भी उसकी स्त्रियों जैसी थी। लड़कों को वह बहुत खुश रखता। यह मंतर कुछ तो उसे पहले ही आता था और कुछ मैंने उसे समझा दिया था कि वह किसी भी विद्यार्थी से टकराव की स्थिति न रखे। अगर कोई समस्या आए तो वह मुझे आकर बताए।
हॉस्टल में दाल-सब्जी एक ही बनती थी। दोपहर को सब्ज़ी और शाम को धुली मूंगी की दाल। सवेरे परांठे बनते थे। जिन लड़कों के पास देशी घी होता था, वे देशी घी कटोरी में डालकर ले आते, दूसरे विद्यार्थी परांठों के साथ मिलने वाले अचार से ही सब्र कर लेते। हँसी-मजाक में एक-दूसरे से छीन-झपट कर भी घी खा जाते, ऊपर से बढ़िया गरम चाय का कप मिलता। डांग जैसी चाय बनती थी और चक्की के पाटों जैसे खस्ता परांठे। घर से भी बढ़िया नाश्ता।
हॉस्टल का प्रबंध बढ़िया देखकर प्रिंसीपल मुझसे बहुत प्रभावित था और प्रबंधक कमेटी भी। वैसे मेरे प्रभाव बनाने में असली भूमिका एस.पी. गुप्ता की थी। कुछ ही दिनों में ओ.पी. सेठ और गुप्ता मेरे संग घुल-मिल गए थे। प्रिंसीपल पी.सी.गुप्ता कैसा प्रिंसीपल था, वह तो बी.ए., बी.टी. था। इसलिए प्रिंसीपल के तौर पर उसकी नियुक्ति एक किस्म की अस्थायी नियुक्ति ही समझो। स्कूल में असल में ओ.पी.सेठ और एस.पी. गुप्ता की ही चलती थी। नतीजा यह निकला कि सत्तर से अधिक अध्यापकों के स्टाफ में मेरा तेहरवाँ नंबर होने के बावजूद मेरी पोजीशन पहले तीन-चार अध्यापकों में गिनी जाने लग पड़ी थी।
स्कूल का प्रधान पंडित पुशपति नाथ था और उप-प्रधान कुलवंत राय अग्रवाल। अग्रवाल साहिब मेरे बी.एड. के सहपाठी बरनाला निवासी सत्य भूषण गोयल के चाचा जी थे। इसलिए मैं उन्हें चाचा जी कह कर ही बुलाता था और वह मुझसे, सत्यभूषण का दोस्त होने के कारण खास स्नेह रखते थे। सनातन धर्म स्कूल, सनातन धर्म सभा, बठिंडा की सरपरस्ती में काम करता था। उस समय सनातन धर्म सभा का प्रधान डा. राम सरूप बांसल था जो मुझे 1959 से भलीभांति जानता था, क्योंकि वह मेरी मालेरकोटला वाली बहन चंद्रकांता की जेठानी का सगा भाई था। इन सभी संबंधों का परिणाम यह निकला कि मैंने स्कूल में आम प्रबंधक कमेटी के सदस्यों से कभी कोई झेंप महसूस नहीं की थी।
स्कूल में पंडित पुशपति नाथ और कुलवंत राय अग्रवाल के अलावा प्रबंधक कमेटी का खजानची भी आया करता था। पंडित जी को तो सब मास्टर दुआ-सलाम करते। कई मास्टर तो दुआ-सलाम करने के लिए दफ्तर में या दफ्तर के पास आते, पर कुछ अध्यापक इस प्रकार की दुआ-सलाम की कोई परवाह नहीं करते थे। खजानची भी आस रखता कि मास्टर उसे दुआ-सलाम करें लेकिन प्रिंसीपल और दो-चार अन्य मास्टरों को छोड़कर कोई उसे नमस्ते बुलाते नहीं देखा गया था। वह यूँ ही कक्षाओं में भी जा घुसता। एक बार वह जे.बी.टी. क्लास में भी आ गया। मैं हिसाब का घंटा ले रहा था। उसने मुझसे चाक पकड़ कर जोड़ करने का नीचे से ऊपर और ऊपर से नीचे का तरीका समझाना आरंभ कर दिया। मैंने कुछ क्षण तो देखा पर फिर मुझे ताव-सा आ गया। इस तरह तो कभी किसी शिक्षा अधिकारी को भी करते नहीं देखा था। मैं क्लास छोड़कर प्रिंसीपल के दफ्तर में चला गया। चार-पाँच मिनट बाद खजानची साहब भी दफ्तर में पहुँच गए। उसने प्रिंसीपल से मेरी शिकायत की कि मैं उसकी उपस्थिति में क्लास छोड़कर आ गया। यह बात मैं पहले भी प्रिंसीपल को बता चुका था। प्रिंसीपल कुछ नहीं बोला था। उसके माथे पर त्यौरियाँ थीं। आखिर सोच-विचार कर बोला, ''मास्टर जी, ये हमारे खजानची हैं, हिसाब में बड़े माहिर हैं, आप इनसे कोई नई बात ही सीखते।''
''पर इस तरह विद्यार्थियों में अध्यापक की क्या इज्ज़त रहेगी ?... अगर कोई भी ऐरा-गैरा कक्षा में आकर टीचर को पढ़ाने के तरीके सिखाने लग जाए।'' मैं ज़रा तल्ख़ी से बोला।
''लो देखो गुप्ता जी, मुझे यह मास्टर ऐरा-गैरा बता रहा है। मैं कोई ऐरा-गैरा हूँ। मैं स्कूल का मालिक हूँ, मालिक।'' वह गुस्से में लाल-पीला हो रहा था और उसके मुँह में से थूक गिर रहा था।
''मालिक को मास्टर बनने की क्या ज़रूरत है खजानची साहिब। आपने खुद ही अपना रुतबा घटाया है।'' अब मैं गुस्से की जगह मसखरी की रौ में आ गया था।
''लो देखो जी, कैसे बोलता है मास्टर।'' खजानची का पारा और चढ़ गया था।
''देखो गुप्ता जी, मुझे कोई मुनीमी नहीं सिखानी है। जे.बी.टी. के विद्यार्थियों को मुझे सिखाना है कि अध्यापक बनने के बाद प्राइमरी के विद्यार्थियों को कैसे पढ़ाना है। खजानची साहब वाला तरीका विशुद्ध मुनीमों वाला तरीका है। वैसे भी किसी कमेटी मेंबर को कक्षा में आकर अध्यापकों के पढ़ाने के काम में दखल नहीं देना चाहिए। अगर कोई कमी-पेशी है तो वह आपके पास आकर बताए।'' मेरी बात में दलील भी थी और मसखरी भी। प्रिंसीपल के सिर पर मानो सौ घड़े पानी उंडल गया हो। उसने बात को खत्म करने के लिए शायद यही उपाय उचित समझा कि वह लाला जी को सम्मान से विदा करें और किसी तरह मुझसे सॉरी फील करवा दें। प्रिंसीपल के इशारे को मैं समझ तो गया था, पर सॉरी शब्द मेरी डिक्शनरी में अभी तक तो कहीं लिखा ही नहीं था। लो, मैं आपको बताता हूँ कि मैंने ज़िन्दगी में न तो पहले और ना ही अब तक कभी सॉरी फील किया है। तल्ख़ी के दौरान तो यह शुभ काम मैंने कभी नहीं किया। खजानची भिनभिनाता हुआ स्कूल में से चला गया। प्रिंसीपल ने सेठ साहिब और गुप्ता जी को बुला लिया। वह चाहता था कि मैं किसी न किसी तरह खजानची के घर जाकर माफी मांग आऊँ। जब उसने यह बात सेठ और गुप्ता के सम्मुख रखी तो सेठ का रोल दोगला था, जैसा कि उसका अक्सर हुआ करता था, पर गुप्ता बिलकुल स्पष्ट था।
''ले सुन, पी.सी. गुप्ता, तरसेम माफी नहीं मांगेगा। वो टूटा-सा बनिया यूँ ही आकर रौब झाड़ता फिरता है। मैं तो कहता हूँ, अच्छा किया इसने। अब साला किसी की कक्षा में नहीं घुसेगा भविष्य में।'' मैं गुप्ता की सपोर्ट से मानो लोहे का बन गया।
दोपहर के बाद पंडित पुशपति नाथ स्कूल में पहुँच गया। चपरासी के हाथ मुझे भी बुलावा आ गया। उसने मुझे बता दिया था कि पंडित जी बहुत घबराये हुए हैं। मैं अपना पूरा पीरियड लेने के बाद दफ्तर में पहुँचा। प्रिंसीपल इस बात पर नाराज लगा कि मैं सन्देशा सुनकर तुरन्त क्यों नहीं आया। मैं पूरा पीरियड पढ़ाने की दलील देकर कुर्सी पर बैठ गया।
''यह तो अच्छी बात है।'' पंडित जी ने मेरे द्वारा पूरा पीरियड पढ़ाकर आने की प्रशंसा की। शायद अब पंडित जी का पारा कुछ उतर भी गया था। मसला खजानची की इज्ज़त या बेइज्ज़ती का था। यह कमेटी का पक्ष हो सकता है, पर यह मसला मेरे लिए अध्यापक की इज्ज़त और बेइज्ज़ती का भी था। पंडित जी के पूछने पर मैंने बात स्पष्ट कर दी कि कोई भी कमेटी मेंबर अगर कक्षा में आकर अध्यापक को तौर-तरीका सिखाने लग जाए तो इसका विद्यार्थियों पर बुरा असर पड़ता है। इस तरह तो सयाना डी.आई. (उस समय ज़िला शिक्षा अधिकारी को डी.आई. अर्थात डिस्ट्रिक इंस्पेक्टर ऑफ स्कूल्ज़ कहते थे।) भी कक्षा में आकर नहीं करता। प्रधान को मेरी बात जंच गई थी लेकिन फिर भी वह चाहता था कि मैं बात को खत्म करने के लिए लाला जी के घर हो आऊँ। मैंने ज़िन्दगी में कभी भी ऐसा काम नहीं किया था। मैंने स्पष्ट कह दिया कि यह काम मुझसे नहीं हो सकेगा। सभी अध्यापक मेरे इस किरदार से खुश थे, क्यों कि खजानची पहले भी कई अध्यापकों के साथ कक्षा में ऐसा व्यवहार करता रहा था।
(जारी…)
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2 comments:

सुरेश यादव said...

सुभाष नीरव के सरल ,सार्थक और सहज अनुवाद के कारण यह' ध्रतराष्ट्र ' उपन्यास पठनीय लग रहा है .दीप्ति को धन्यवाद.

Sanjeet Tripathi said...

yah akad sahi akad rahi.

swatantrata diwas ki badhai aur shubhkamnayein....