समकालीन पंजाबी साहित्य की उत्कृष्ट कृतियों की तलाश

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Saturday, September 11, 2010

आत्मकथा



एक नेत्रहीन लेखक की आत्मकथा

धृतराष्ट्र
डॉ. एस. तरसेम
हिन्दी अनुवाद : सुभाष नीरव
चैप्टर-13

अलीगढ़ से भी रौशनी न मिल सकी

यद्यपि कांगड़ा से नौकरी छोड़ आया था पर जे.बी.टी. हॉयर सेकेंडरी स्कूल के अपने साथी हरीश चन्दर द्वारा बंधाई गई आस के कारण मैं बहुत उत्साह में था। परन्तु अलीगढ़ जाने का प्रोग्राम तो तभी बन सकता था जब हरीश खुद अलीगढ़ में हो। हरीश अलीगढ़ में ग्रीष्म अवकाश के दिनों के अलावा नहीं मिल सकता था। उस समय कांगड़ा पंजाब का हिस्सा होने के कारण गरमी की छुट्टियाँ वहाँ भी पंजाब के मैदानी इलाकों के अनुसार ही होती थीं। मैं उन दिनों एस.डी.हाई स्कूल, मौड़ मंडी में नौकरी करने के कारण गरमी की छुट्टियों की बड़ी बेसब्री से प्रतीक्षा कर रहा था। हालांकि मुझे पता था कि गरमी की छुट्टियों की तनख्वाह नहीं मिलेगी, क्योंकि मैं छुट्टियों से दो महीना पहले ही स्कूल में लगा था, और मेरी यह छुट्टियों की तनख्वाह इस स्कूल में मेरे दस महीने पूरे होने पर ही मिलनी थी। पर आँखों की ज्योति के सामने तनख्वाह का मसला बहुत छोटा था, और फिर अलीगढ़ के किराये भाड़े और अस्पताल का खर्चा जितना भर होना था, उतने भर पैसे मैंने अपनी तनख्वाह में से बचा लिए थे। अस्पताल के खर्च के बारे में मुझे हरीश ने बता रखा था कि वहाँ मरीज का कोई खास खर्च नहीं होता। रहने के लिए ठिकाना हरीश का घर होना था, इसलिए पैसे टके की आवश्यकता मेरे अलीगढ़ जाने में कोई बाधा नहीं थी।
छुट्टियाँ होने के कुछ दिन बाद ही मैं रेल से अलीगढ़ पहुँच गया। जिस तरह हरीश अपने घर की माली हालत के बारे में बताया करता था, वह उसकी कंजूसी के कारण बनी आदत का हिस्सा थी। अलीगढ़ जिस घर में मैं पहुँचा, वह तो बहुत बढ़िया दो मंज़िली हवेली थी। यह हवेली उसके पिता को पाकिस्तान में खोई जायदाद के बदले में अलाट हुई थी। उसके पिता और माँ का सलूक देखकर तो मैं और भी हौसले में आ गया था और सोचता था कि कांगड़ा में हरीश का साथ मेरे लिए वरदान साबित होगा। मेरी आँखों की रोशनी के बारे में हरीश सबकुछ जानता था क्योंकि पहले हम दोनों इकट्ठे रहा करते थे और फिर मेरी माँ के वहाँ पहुँच जाने के कारण उसने मेरी रिहायश के पास ही एक कमरा ले लिया था। रात में तो मैं उसके बग़ैर दो कदम भी नहीं चल सकता था। दिन के समय भी बेशक पढ़ने-लिखने में कोई खास दिक्कत नहीं थी, पर फिर भी उसे पता चल गया था कि मैं स्कूल में स्वयं किताब लेकर नहीं पढ़ाता था, बल्कि किताब कोई विद्यार्थी ही पढ़ा करता था। बाकी अध्यापक भी उन दिनों कक्षा में किताब किसी विद्यार्थी को ही पढ़ने के लिए कहा करते थे और अब भी करते हैं। इसलिए इस 'तू पढ़' वाली जुगत में ही मेरा पर्दा बना हुआ था। घर में अंग्रेजी की किसी किताब या अख़बार पढ़ने के लिए मैं हरीश को ही कहता और सच्चाई मैंने उसे बता दी थी। शायद इसी कारण उसे मेरे साथ अधिक हमदर्दी थी।
इस पहली फेरी के समय अलीगढ़ में मेरा एक हफ्ता लग गया। हरीश ही मेरे साथ रोज़ 'गांधी आई अस्पताल' जाता और साथ लेकर ही मुझे लौटता। अब वहाँ इस अस्पताल के बानी डॉ. मोहन लाल के स्थान पर उसका भाई डॉ. महेश गुप्ता अस्पताल का प्रमुख था। हरीश के कहने सुनने से ही मुझे डॉ. महेश गुप्ता के इलाज की सहूलियत मिल गई थी। जब छह दिन बाद मुझे ऐनक का नया नंबर दिया गया और डॉक्टर ने यह भी हिदायत दी कि यहीं से बनवाकर ले जाऊँ तो मुझे इस तरह लगा मानो मेरे जीवन की राह ही बदल गई हो। इस ऐनक के शीशे बिलकुल सफेद नहीं थे बल्कि हल्के आसमानी रंग के थे। इस ऐनक से धूप में देखने पर भी आँखों पर कोई बोझ नहीं पड़ता था। वैसे भी मेरी पहली ऐनक के स्फेरिकल माइनस साढ़े चार और माइनस पाँच के साथ-साथ कुछ सिलेंड्रीकल नंबर भी पड़ गया था, जिसके कारण दूर की नज़र टैस्ट करने वाले चार्ट की निचली दो पंक्तियों को छोड़कर सारा चार्ट ठीक पढ़ा जाता था। इसके साथ ही पीने के लिए एक दवाई और विटामिन ए और विटामिन ए ई की गोलियाँ भी खाने की हिदायत पर्ची पर लिख दी थी। वापस लौटते समय मैं बहुत हौसले में था। एक तो हरीश के परिवार के स्वभाव के कारण और दूसरा नई ऐनक और खाने-पीने वाली दवा की आस के कारण।
दिसम्बर की छुट्टियों में मैं फिर अकेला ही अलीगढ़ चला गया था। हरीश के चिट्ठी-पत्र वाले लहजे और उसकी मेरी पिछली फेरी के समय की गई सहायता के कारण मैंने अकेले जाने में कोई परेशानी नहीं समझी। पर मुझे चाय पिलाने के बाद बाज़ार जाने के बहाने जब मुझे बैग उठाने संबंधी हरीश ने इशारा किया तो मुझे लगा कि मेरी पिछली किसी गुस्ताखी के कारण उसका विचार पहले से काफी बदला हुआ है। एक घटिया सी धर्मशाला में कमरा दिलवाकर उसने मुझे सवेरे सीधा नौ बजे अस्पताल पहुँचने के लिए कह दिया। मैं सारी रात सो न सका। धर्मशाला से मिला बिस्तरा मैंने सामने रख लिया और रात अपने वाले कम्बल में ही काटी। हालांकि रात में चलने फिरने वाली मुश्किल तो मेरी ज्यों कि त्यों थी और दिन के समय भी नई ऐनक के कारण मुझे काफी फायदा प्रतीत होता था, पर डॉ. महेश गुप्ता की जगह अब मेरा जिस डॉक्टर से वास्ता पड़ा, उसका व्यवहार बिलकुल भी हमदर्दीवाला नहीं था। पहले की तरह सात दिन के बजाय भले ही चार पाँच दिन में मेरा काम निपट गया था, पर पहले वाला हौसला इस फेरी में मुझे नहीं मिला था। हरीश दो बार आकर रस्मी तौर पर पता कर गया था, पर मैंने समझ लिया था कि भविष्य में आने पर मुझे उसके घर जाने की ज़रूरत नहीं। रात को ठहरने और दो तीन समय की रोटी का प्रबंध भी जैसे तैसे हुआ, कर लिया था। इस फेरी से पिछले उत्साह में भी कमी आ गई थी, क्योंकि ऐनक का नंबर वही था और दवाई भी वही खानी थी। लेकिन इस दवाई के खाने से अंधराते के इलाज में कोई प्रगति नहीं हुई थी।
तीसरी बार मैं अपने भान्जे विजय कुमार को संग ले गया। इस समय तक मैं एस.डी. हाई स्कूल, मौड़ मंडी से आर्य हाई स्कूल, रामपुराफूल से होता हुआ एस.डी. हॉयर सेकेंडरी और जे.बी.टी. स्कूल, बठिंडा पहुँच चुका था और अप्रैल की दस छुट्टियों के कारण विजय कुमार भी खाली था। उसके संग होने के कारण मेरे अन्दर रात में चलने-फिरने का कोई डर नहीं रहा था। रहने के लिए अलीगढ़ के आर्य समाज मंदिर में एक कमरा मिल गया था और सोने के लिए हम घर से ही चादरें ले गए थे। विजय को संग ले जाने का एक लाभ यह भी हुआ कि इस बार जिस डॉ. राजिंदर गोगी ने मेरा इलाज किया, उसने मुझे दो महीने के लिए जो कैप्सूल दिए, वे अमेरिका की किसी कंपनी ने बनाए थे। नए इलाज के कारण मुझे आशा की नई किरण नज़र आई। डॉ. गोगी का बर्ताव भी बहुत अच्छा था। पर आते समय जो निराशा हाथ लगी, वह यह थी कि नई ऐनक बनवानी पड़ गई और उस नई ऐनक से भी कोई फायदा नज़र नहीं आया था।
वापस लौटने के बाद जब वे कैप्सूल खत्म हो गए और डॉ. गोगी के भरोसे के कारण कि नई सप्लाई आने पर वे कैप्सूल और मिल जाएंगे, मैं लगातार डॉक्टर साहिब को तीन रजिस्टर्ड पत्र लिख चुका था, पर उनका कोई जवाब नहीं आया था। इसलिए पुन: अलीगढ़ जाने का विचार त्याग दिया।
आखिर, मित्रों के कहने पर मैंने डॉ. धनवंत सिंह को आँखें चैक करवाने का फैसला किया। आँखों के इलाज के क्षेत्र में उस समय पंजाब में डॉ. धनवंत सिंह से बड़ा कोई और डॉक्टर नहीं था। मेरे लिए पटियाला जाना और भी आसान था। सोचा, संग अपनी बहन तारा को भी ले चलूँ, क्योंकि उसकी नज़र भी लगातार कम हो रही थी। रात में चलने-फिरने में उसको भी कुछ मुश्किल आती थी। एक औरत होने के कारण अक्सर रात में उसे बाहर बहुत कम जाना होता था जिससे रात के समय उसे आने वाली दिक्कत का अधिक अहसास नहीं था। डॉ. धनवंत सिंह से पहली बार यह पता चला कि हम दोनों भाई-बहन को एक बीमारी है। इस बीमारी का नाम जो डॉक्टर साहब ने पर्चियों पर लिखा, वह था - रैटेनाईटस पिगमैनटोज़ा। उसने यह भी बताया कि यह विरासती बीमारी है। केस हिस्ट्री नोट करते हुए डॉक्टर साहब ने हमारे ददिहाल और ननिहाल में इस बीमारी के विषय में पूछा था। मुझे ताया मथरा दास की बड़ी बेटी सोमावंती की कम नज़र और सोम नाथ की नेत्रहीनता के बारे में पता था। मैंने यह जानकारी डॉक्टर साहब को दे दी। डॉक्टर साहब का सन्देह बिलुकल ठीक था। उन्होंने जो दवाई लिखकर दी, उसके साथ भी उन्होंने बताया था कि इससे नज़र कम होने की रफ्तार या तो कम हो सकती है या भविष्य में नज़र के कम होने के प्रक्रिया रुक सकती है। डॉक्टर साहब ने यह भी बताया था कि वैसे इस बीमारी का दुनिया में कोई इलाज नहीं है।
बाद में ताया मथरा दास की औलाद में से तीन बेटियों और दो पुत्रों की नेत्रहीनता और हमारे दोनों बहन-भाई की नेत्रहीनता के साथ साथ हमारे बाबा नरैणा मल के भतीजे लाल चंद की एक बेटी की नज़र चले जाने की ख़बर मिली। उन्हीं दिनों में चाचा मनसा राम के लड़के पन्ना लाल की नज़र घटने का पता चला। ताया मथरा दास के सबसे छोटे लड़के से बड़े लड़के रमेश की नज़र कम होने की प्रक्रिया बहुत बाद में आरंभ हुई थी और अब वह मेरे और मेरी बहन की तरह नेत्रहीन है।
डॉ. धनवंत सिंह की दवाई से नज़र घटने की रफ्तार कुछ मद्धम पड़ी या नहीं, इस बारे में मैं कुछ नहीं कह सकता, पर हम दोनों की नज़र घटते घटते इतनी घट गई कि तीस साल की उम्र से पहले पहले ही मेरी नज़र धूप-छांव से कुछ अच्छी थी, पर पढ़ने-लिखने योग्य बिलकुल भी नहीं रही थी। रात में अकेले बाहर आने जाने का सिलसिला बिलकुल ही रुक गया था और अब तो मुझे डॉ. धनवंत सिंह की मद्धम सुर में कही यही बात याद आती रहती है कि यह आँखों का ऐसा नामुराद रोग है जिससे आखिर रोगी अंधा हो जाता है।
डॉ. धनवंत सिंह के पास जाते समय मेरी बहन सर्दी के कारण जो शॉल मेरी भाभी का ले गई थी, वे हम दोनों दुखी बहन भाई वापसी में बस में ही भूल आए थे। हमदर्दी के स्थान पर शॉल के गुम होने पर वापस पर हमारी जो दुर्गत घर में हुई थी, वैसा बर्ताव तो खेत में पड़े किसी गधे के साथ भी न हो। बहन तारा सारी रात रोती रही थी और मुझे भी रात के समय बेचैनी सी लगी रही थी। सोचता था - माँ बाप और बहन भाई तो इस तरह की हालत में दिलासा दिया करते हैं और इलाज के लिए स्वयं आगे आते हैं, पर यहाँ संग जाना तो एक तरफ रहा, सूखी हमदर्दी भी नसीब नहीं हो रही। इस मामले में भाई की चुप सबसे अधिक चुभी। पर कुछ भी ऐसा होना संभव नहीं था जिससे खून का रिश्ता पिघलता। एक बेबस माँ थी जिसका पेट दोनों को देखकर मचता था, पर वह कुछ करने योग्य भी नहीं थी। बेसहारा विधवा औरत या तो आह भर सकती थी, या फिर हमें उदास देखकर आँसू बहा सकती थी। लेकिन माँ के इस दुख ने हमारे दुख को और बढ़ा दिया। डॉ. धनवंत सिह को दिखाने के बाद मैं तो फिरोजपुर के एक डॉ. ग्रोवर को दिखाने गया। दिल्ली के एक डॉक्टर के बारे में सुनकर वहाँ भी गया। मलोट भी एक आयुर्वैदिक इलाज करवाने के लिए तीन चार चक्कर लगाए और बहुत मंहगी दवाई खाई। चण्डीगढ़ के एक होम्योपैथ डॉक्टर के यहाँ भी कई चक्कर लगाए, पर मैं अपनी बहन को कहीं भी अपने साथ लेकर नहीं गया था। सोचता था कि अगर मुझे कुछ फायदा होगा, तभी बहन को उस डॉक्टर के पास लेकर जाऊँगा। हाँ, कपूरथला में एक भला पुरुष आँखों में एक दवाई डाला करता था। हर सातवें दिन उसके पास जाना पड़ता था। घर से अच्छा होने के कारण किसी सन्यासी द्वारा बताया यह नुस्खा वह बिना आँखें देखे ही सब पर इस्तेमाल करता था। पहली बार आँखों में दवाई डालने में मुझे काफी फर्क लगा। मैंने अपनी बहन को भी संग ले जाना आरंभ कर दिया। ताया मथरा दास के सारे टब्बर को भी बता दिया। ताया की दोनों बेटियाँ लीला और कृष्णा देवी ने भी हमारे साथ जाना शुरू कर दिया। पहले महीने जो आस बंधी थी, वह टूटते टूटते आखिर तीसरे महीने पूरी तरह टूट गई। 29-30 साल तक इलाज के लिए जो धक्के खाए, अब कोई कुछ भी कहे जाए, मैं उसकी बात सुन तो लेता हूँ, पर उस पर अमल नहीं करता। सलाह देने वाले तो जोर देकर भीखी में भी दिखाने के लिए कह देते हैं जहाँ मोतियाबिंद के साधारण आपरेशन होते हैं। इन भोले भाले लोगों की हमदर्दी का क्या करें। उनकी बात सुनकर न हँसने योग्य हैं, न रोने योग्य।
चाचा मनसा राम का मुझसे दो वर्ष बड़ा पुत्र पन्ना लाल जो मेरी भांति पूरी तरह नेत्रहीन है, उसे अभी भी बड़ी आस है। हाँ, आस रखना कोई बुरी बात नहीं, पर खुशफ़हमी में रहने का भी कोई लाभ नहीं।
(जारी…)
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2 comments:

मंजुला said...

bahut hi dil ko chu lene wali kahani hai...anuwaad bahut badia hai ..aisa ki unka dard mahsus kiya ja sakta hai

Sanjeet Tripathi said...

us samay ke ilaaz ke halat k varnan se tatkalin halat ka pataa chalaa sath hi ise bhugatne walon ki mansik sthiti ka bhi....

chaliye dekhete hain aage kya hota hai....

shukriya