समकालीन पंजाबी साहित्य की उत्कृष्ट कृतियों की तलाश

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Sunday, November 21, 2010

पंजाबी उपन्यास


''साउथाल'' इंग्लैंड में अवस्थित पंजाबी कथाकार हरजीत अटवाल का यह चौथा उपन्यास है। इससे पूर्व उनके तीन उपन्यास - 'वन वे', 'रेत', और 'सवारी' चर्चित हो चुके हैं। ''साउथाल'' इंग्लैंड में एक शहर का नाम है जहाँ अधिकतर भारत से गए सिक्ख और पंजाबी परिवार बसते हैं। यहाँ अवस्थित पंजाबी परिवारों के जीवन को बेहद बारीकी से रेखांकित करता हरजीत अटवाल का यह उपन्यास इसलिए दिलचस्प और महत्वपूर्ण है क्योंकि इसके माध्यम से हम उन भारतीय लोगों की पीड़ा से रू-ब-रू होते हैं जो काम-धंधे और अधिक धन कमाने की मंशा से अपना वतन छोड़ कर विदेशों में जा बसते हैं और वर्षों वहाँ रहने के बावजूद वहाँ की सभ्यता और संस्कृति का हिस्सा नहीं बन पाते हैं।

साउथाल
हरजीत अटवाल

हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव

॥ सोलह ॥
नई जगह पर आकर उनका काम बहुत ज्यादा बढ़ जाता है। घर में तो जब चाहे घर का भी काम कर लिया और समोसों का भी, पर अब यहाँ निश्चित समय पर शुरू करके निश्चित समय पर खत्म करना पड़ता है। प्रदुमण सिंह की दौड़धूप भी बहुत बढ़ जाती है। कभी मार्किट जा, कभी आटा ला, कभी समोसे देने जा। यूनिट में भी कोई न कोई काम करवाता रहता है। माल डिलीवर करने गया भी देर से लौटता है। वह स्वयं को थका-थका-सा महसूस करता है। वह सोचता है कि क्यों न राजविंदर को अपने संग काम पर लगाये।
राजविंदर ने स्कूल छोड़ दिया है और काम की तलाश में है। उसे कुकिंग का काम अच्छा नहीं लग रहा। घर में भी जब समोसे पक रहे होते हैं तो वह बाहर निकल जाता है। अब फैक्ट्री जाकर भी अधिक खुश नहीं है। प्रदुमण सिंह ने अपनी यूनिट को फैक्ट्री कहना शुरू कर दिया है। यदि कोई उसका यह फैक्ट्री शब्द सुनकर हैरान होता है तो वह इसका आगे विस्तार करते हुए कहता है कि समोसे बनाने की फैक्ट्री। राजविंदर के न पढ़ सकने का दोष वह अपने सिर लेने लग पड़ता है कि न वह इंडिया जाता और न लड़के के दो साल खराब होते। वह राजविंदर को फैक्ट्री ले जाता है। राजविंदर चला तो जाता है पर किसी काम को हाथ नहीं लगाता। दफ्तर में बैठकर लौट आता है। प्रदुमण सिंह सोचता है कि क्यों न इसको ड्राइविंग टैस्ट पास करा दिया जाए ताकि वह डिलीवरी का काम ही करने लग पड़े।
ज्ञान कौर सवेरे घर की सफाई करके आ जाती है। बलराम और दोनों बेटियाँ उठकर स्कूल चले जाते हैं। सबके पास अपनी-अपनी चाबी है। स्कूल से लौटते ही अपना-अपना बना कर खा लेते हैं। ज्ञान कौर को उनकी अधिक चिंता नहीं होती। उसे बड़े लड़के की फिक्र ज्यादा रहती है। एक दिन वह पति से कहती है-
''क्यों न हम राज का विवाह कर दें, हैल्प हो जाएगी।''
प्रदुमण सिंह हँसने लगता है और कहता है-
''वह तो अभी अट्ठारह का भी नहीं हुआ।''
''तब क्या हुआ, बल्कि बिगड़ेगा भी नहीं।''
''बिगड़कर भी वह किसकी टांग तोड़ देगा। अधिक से अधिक गर्ल-फ्रेंड रख लेगा, इसका कैसा फिक्र ! यह कौन-सा लड़की है।''
''फिर भी सोचो, कोई इंडिया से ले आते हैं।''
''पहले इसे टिककर काम तो करने दे, मुझे तो लगता है, यह कुछ ज्यादा ही निकम्मा निकलेगा। ये जो इनकम सपोर्ट वालों ने इसे चालीस पौंड देने शुरू कर दिए हैं, इसके कारण तो यह बिलकुल ही गया लगता है।''
राजविंदर कार का टैस्ट भी पास कर लेता है, पर फैक्ट्री फिर भी मनमर्जी से ही जाता है। यदि कोई कहे तो बहाना बना देता है। डिलीवरी पर दो-एकबार वह प्रदुमण सिंह के संग जाता है, पर राह में ही लड़कर वापस लौट आता है। आख़िर, प्रदुमण सिंह कुछ कहना ही बन्द कर देता है। ज्ञान कौर पुचकार कर अपने संग ले आती है, पर वह मौका पाते ही यूनिट में से यह कहते हुए निकल जाता है कि तेल की गंध से उसे एलर्जी हो रही है।
बड़ी लड़की सतिंदर और छोटी पवन, दोनों ही छुट्टी वाले दिन यूनिट में आ जाती हैं। काम में भी हाथ बँटाती हैं। छोटा बलराम भी कुछ न कुछ करता रहता है, पर प्रदुमण उन्हें अपनी-अपनी पढ़ाई में लगे रहने के लिए कहता है। वह समझता है कि पढ़ाई ज्यादा ज़रूरी है। काम तो सारी उम्र करना ही करना है।
प्रदुमण अनुभव करने लगता है कि राजविंदर से वह अधिक निकटता नहीं रख सका। जब से वह इंडिया से लौटा है, बच्चों के बीच कभी बैठकर भी नहीं देखा। इंडिया में होते थे तो सारा परिवार शाम की रोटी इकट्ठा बैठकर खाया करते थे। यहाँ उसकी जीवन-शैली ही बदल गई है। अधिकांश समय भाग-दौड़ में ही निकल जाता रहा है। वह फ़ैसला करता है कि वह हर शाम पहले ही भाँति बच्चों के संग बिताया करेगा।
वह फैक्ट्री खोलने का समय सुबह छह बजे का कर लेता है ताकि दोपहर तक काम समाप्त करके शाम को खाली रखा जा सके। सवेरे पाँच बजे उठते और तैयार होते-करते छह बजे से पहले घर से निकलते हैं। रास्ते में अजैब कौर को संग ले लेते हैं और फैक्ट्री खोल लेते हैं। जो समोसे कल के बने रखे होते हैं, उन्हें लेकर प्रदुमण सिंह डिलीवर करने चले जाता है। पीछे से ज्ञान कौर और अजैब कौर अपने काम में लग जाती हैं। दोपहर तक प्रदुमण सिंह लौट आता है। आकर शॉपिंग का काम निपटा लेता है। दो बजे के करीब वे फैक्ट्री बन्द कर देते हैं। यदि कोई काम शेष रह जाता है तो वे फैक्ट्री कुछ और समय के लिए खोले रखते हैं। प्रदुमण सिंह तेजी से हाथ चलाता उनकी मदद करने लगता है ताकि काम जल्द खत्म हो। उसे देखकर अजैब कौर भी तेजी से हाथ चलाने की कोशिश करती है लेकिन वह साठ साल की उम्र पार कर चुकी है, इसलिए वैसी फुर्ती नहीं आती। प्रदुमण सिंह चाहता है कि लड़कियों के स्कूल से लौटने से पहले-पहले वह घर पहुँच जाए।
कैनाल इंडस्ट्रीयल एस्टेट में यूनिटों की लाइनें हैं जैसे कि ए, बी, सी आदि। उनमें फिर यूनिटों की गिनती शुरू होती है। जैसे कि यह यूनिट बी लाइन में नंबर दस है। इसीलिए यह यूनिट दस बी कहलाता है। ग्यारह बी का मालिक टोबी मिल्टन है जो छपाई का काम करता है। प्रदुमण की उससे पहले दिन से ही नहीं बनती। वैन की पार्किंग को लेकर झगड़ा होता रहा है। टोबी मिल्टन के पास तीन गाड़ियाँ हैं। दो वैन और एक कार। यूनिट के सामने दो वैनों की ही जगह है। अतिरिक्त वाहनों के लिए थोड़ा हटकर कार-पार्क है। लेकिन टोबी अपना तीसरा वाहन भी प्रदुमण की जगह में खड़ा कर देता है जिसके कारण झगड़ा होता है। पहले टोबी सोचता है कि प्रदुमण एशियन है और डर जाएगा, पर प्रदुमण लड़ाई पर उतर आता है। टोबी को अपनी कार पार्क में खड़ी करनी पड़ती है। उसके बाद टोबी प्रदुमण को देखते ही मुँह बनाने लगता है और बड़बड़ाते हुए कहता है - पाकि बास्टर्ड ! प्रदुमण उसकी तरफ देखते ही समझ जाता है कि टोबी ने मन में उसे कोई नस्लवादी गाली बकी है। इतने वर्षों से गोरों के संग वास्ता पड़ने के कारण प्रदुमण के लिए उनके मन के अन्दर के नस्लवाद का अंदाजा लगाना आसान हो चुका है। नौ बी यूनिट किसी गोरे का ही है पर उसका बर्ताव नस्लवादी नहीं है। वह प्रदुमण को दूर से देखते ही हाथ हिलाते हुए 'हैलो मिस्टर सिंह' कहने लगता है।
सवेरे प्रदुमण अजैब कौर के घर के आगे कार रोकता है। वह देखता है कि अजैब के पीछे-पीछे ही तीसेक वर्ष की जवान औरत भी बाहर निकलती है। ज्ञान कौर प्रदुमण से कहती है, ''यही है कुलजीत, जिसके बारे में बात की थी।''
''ठीक है, काम करवा कर देख ले, अगर काम पसंद आया तो रख लेना।''
काम कुछ और बढ़ा है और एक और कामवाली की ज़रूरत पड़ रही है। प्रदुमण उन्हें फैक्ट्री पर उतारता है, वैन में समोसे रखकर अपने काम पर निकल जाता है। पहले वह मज़े से फैक्ट्री में से निकला करता था और शाम तक लौट आता था, परन्तु जब से उसने सुबह की शिफ्ट आरंभ की है, उसे समय से निकलना पड़ता है और रूट भी बदलना पड़ता है। सवेरे आठ बजे से नौ बजे तक का समय ट्रैफिक का होता है। पहले वह काम पर नौ बजे निकला करता था लेकिन अब ट्रैफिक में फँसने के डर से 'ए टू ज़ैड' सामने रखकर अपना रूट ऐसा बनाता है कि ट्रैफिक के उलट चले। यानि पहले वह उन दुकानों पर जाए जो जल्दी खुलती हैं। देर से खुलने वाली दुकानों पर जाते वक्त भी वह कोशिश करता है कि वह ट्रैफिक की विपरीत दिशा में जा रहा हो। लंदन के ट्रैफिक को देखते हुए वह सोचने लगता है कि एक बात से तो पीटर ठीक है कि वह अपना माल लंदन से बाहर बेचता है। लंदन में तो वक्त ही बहुत खराब होता है। चार घंटे के काम को आठ घंटे लग जाते हैं।
काम से लौटकर यूनिट में घुसते ही उसकी निगाह कुलजीत पर पड़ती है। इकहरे बदन की खूबसूरत लड़की उसे बहुत प्यारी लगती है। उसे देखते ही उसके मन में लहर-सी दौड़ जाती है। वह पगड़ी का सिरा ठीक करने लगता है। कुलजीत उसकी तरफ देखती है और फिर गर्दन झुकाकर अपने काम में लग जाती है। ज्ञान कौर पति की ओर देख रही है। प्रदुमण सिंह झेंपता-सा ऊपर दफ्तर में चला जाता है। आज सोमवार है। पैसे एकत्र करने का दिन होने के कारण उसे हिसाब-किताब करना होता है। दफ्तर में जाकर वह शीशा देखता है। दाढ़ी में से कुछ सफ़ेद बाल झाँक रहे हैं। कुछ देर खड़े होकर दाढ़ी रंगने के बारे में सोचता रहता है। पहले भी कई बार उसने दाढ़ी रंगने के बारे में सोचा है। लेकिन फिर सोचता है कि अभी इतने बाल सफेद नहीं हुए हैं। परन्तु आज उसे लगता है मानो सफेद वालों की गिनती एकदम बढ़ गई हो। ज्ञान कौन ऊपर आ जाती है। पूछती है-
''हो गई कुलैक्शन ?''
''हाँ, हो गई। यह लड़की काम में कैसी है ?''
''तेज है। वैसे भी बीबी है, अजैब कौर की रिश्तेदार है, इसके पति ने इसे किसी बात पर छोड़ दिया है। बेचारी दुखी है।''
''हम कौन-सा सुखी हैं, तू इसका काम देख।''
बात करते हुए प्रदुमण पत्नी से आँख नहीं मिला रहा। उसे नीरू याद आ रही है। ज्ञान कौर कहती है-
''इस बेचारी की कहानी कुछ और है। इसे इंडिया से ब्याह लाए और अब लड़का और उसके माँ-बाप कहते हैं कि हमें पसन्द नहीं और छोड़ दिया। इसे यहाँ पक्का भी नहीं करवा रहे। कहती थी कि अंकल से सलाह करनी है।''
'अंकल' शब्द उसे क्षणभर के लिए तंग करता है। वह कहता है-
''मेरे से क्या सलाह करनी है ?''
''अपना जगमोहन है न, उसे बहुत जानकारी है ऐसी बातों की।''
''फिर जगमोहन के पास भेजो इसे।''
प्रदुमण ज्ञान कौर की ओर अभी भी नहीं देख रहा। वह कहती है-
''तुम तो यूँ ही भारी हुए जाते हो, अगली ने तो मान से कहा है। तुम बेचारी के साथ बात करके तो देख लो।''
''जा, भेज दे ऊपर।'' वह झट से कहता है।
ज्ञान कौर झिझकती है। उसे कुलजीत को ऊपर भेजने वाली बात पसन्द नहीं है, पर उसने स्वयं ही इतना ज़ोर देकर उसे कुलजीत से बात करने के लिए कहा है।
ज्ञान कौर नीचे उतर जाती है। प्रदुमण सिंह का ध्यान सीढ़ियों की तरफ ही है। वह तो पहले ही कुलजीत से बात करने के लिए मौके की तलाश कर रहा है। ज्ञान कौर उसके लिए रास्ता आसान कर देती है। सीढ़ियों पर ऊपर चढ़ने की 'ठक-ठक' सुनाई देती है। यह 'ठक-ठक' मानो उसके दिल पर बज रही हो। फिर, आहिस्ता से दरवाजा खोलकर कुलजीत अन्दर प्रवेश करती है। 'सतिश्री अकाल' बुलाती है। प्रदुमण सिंह पूछता है-
''क्या नाम है लड़की तेरा ?''
''अंकल जी, कुलजीत।''
''नाम भी सोहणा...तू भी सोहणी... फिर तेरे ससुराल वाले क्यों परेशान हुए घूमते हैं?''
''बस किस्मत की बातें हैं, अंकल जी।''
''किस्मत की कोई बात नहीं, ये लोग जूती की यार है। तू फिक्र न कर, मैं तेरी पूरी मदद करूँगा।''
''अंकल जी, डरती हूँ कि कहीं इंडिया ही न भेज दें।''
''उनके घर का राज है।''
''अंकल जी, अगर मैं लौट गई तो गाँव में बहुत बेइज्ज़ती होगी।''
कहते हुए कुलजीत अपनी आँखें नम कर लेती है। वह कहता है-
''जब तक मैं बैठा हूँ, तुझे कोई इंडिया नहीं भेज सकता, फिक्र न कर।''
सीढ़ियों पर किसी की पदचाप सुनाई देती है। प्रदुमण सिंह समझ जाता है कि ज्ञान कौर ही होगी। कुलजीत का उसके पास अकेले बैठना उससे सहन नहीं हो रहा होगा। ज्ञान कौर अन्दर आती है। प्रदुमण सिंह कुलजीत से सवाल पूछता रहता है-
''किस शहर में रहते हैं तेरे ससुराल वाले ?''
''जी, लूटन।''
''मैं तेरे सास-ससुर से बात करके देखूँ कि कम से कम वो तुझे यहाँ पक्का ही करा दें।''
''हमारे रिश्तेदार उनकी बहुत मिन्नतें कर चुके हैं। वे नहीं चाहते कि मैं इस मुल्क में रहूँ।''
ज्ञान कौर कहने लगती है-
''जी, तुम आज ही जगमोहन से बात करो। मनदीप बताती थी कि शाम के वक्त वह कहीं सलाह देने के लिए बैठा करता है। और फ्री में काम करता है।''
प्रदुमण सिंह कुछ सोचते हुए कहता है-
''तू ही चली जा कुलजीत के साथ जगमोहन के पास।''
''नहीं जी, मैं कहाँ घूमती फिरूँगी।''
''अच्छा, मैं देखता हूँ। अब टाइम भी तो नहीं है।''
प्रदुमण सिंह थोड़ा अनमना-सा होकर कहता है। कुलजीत जाने लगती है। प्रदुमण उसे कहता है-
''ऐ लड़की, तू अब चिंता छोड़ दे, यह चिंता अब हमारी है।''
यह सुनकर कुलजीत का चेहरा खुशी में खिल उठता है। वह चली जाती है तो प्रदुमण सिंह गिला करने के लहजे में पत्नी से कहता है-
''तू जबरन इसे मेरे गले मढ़े जा रही है, मेरे पास भला इतना टाइम कहाँ है कि इसे लिए घूमता फिरूँ।''
''इसे लेकर तुम्हे जाने की क्या ज़रूरत है। जगमोहन को फोन करो, खुद आ जाएगा वो।''
''वो भला कैसे आ जाएगा, अपना वह रिश्ते में जंवाई लगता है।''
''जंवाइयों वाली बू तो है नहीं उसमें।''
''दिखाई ही नहीं देती, अन्दर से पूरा कांटा है वो। तेरे सामने ही है, बड़े भाई की ओर कितनी बार जाता है।''
प्रदुमण थोड़ा खीझकर कहता है ताकि ज्ञान कौर बात को यहीं खत्म कर दे। उसे डर है कि कहीं वह खुद ही जगमोहन को या मनदीप को फोन करने न बैठ जाए। वह तो कुलजीत को खुद लेकर जाना चाहता है। कुलजीत उसके मन में उतरती जा रही है। वह कुलजीत को जीतना चाहता है, उसकी मदद करके। उसे पता है कि जगमोहन कामरेड इकबाल के घर शाम के समय दो घंटे के लिए बैठा करता है। वह सोच रहा है कि सारी बात को कैसे अंजाम दे। सोचते हुए वह दफ्तर में से उठकर नीचे आ जाता है। अजैब कौर समोसे तल रही है। कुलजीत सफाई कर रही है। फैक्ट्री बन्द करने का समय हो रहा है। वह कहता है-
''कुलजीत, मैं आज जगमोहन से मिलता हूँ और तेरे केस के बारे में बात करता हूँ। तू अपने पेपर तैयार रखना, हम मिलकर करते हैं कुछ।''
कुलजीत 'हाँ' में सिर हिलाती है जैसे कह रही हो कि सत्य वचन। फिर वह ज्ञान कौर से पूछता है-
''आज हम कुलजीत को मनदीप की ओर ले जाएँगे, शाम को।''
''मुझे तो काम करना होता है। दूसरे के घर गए टैम लग जाता है। तुम भी वहीं जाना, जहाँ वो बैठा करता है।''
घर आकर प्रदुमण सबसे पहले दाढ़ी रंगता है। टाई लगाकर सूट पहनता है। उसे सूट पहनने का बहुत शौक हुआ करता था। उसके सभी सूट इंडिया ही रह गए हैं। यहाँ आकर एक सूट खरीदा है, पर उसे ढंग से कभी पहन नहीं सका। काम में भी बहुत व्यस्त हो गया है। मेहरून रंग की पगड़ी बाँधकर जब वह ज्ञान कौर के सामने आता है तो वह हैरान होकर पूछती है-
''यह चढ़ाई किधर को ?''
''इतने समय बाद जगमोहन से मिलना है। और फिर वह जंवाई भाई है।''
''पहले तो जग्गे से मिलने के लिए इतनी शौकीनी नहीं की कभी !''
''पहले मेरी हालत ठीक हुआ करती थी, अब इस काम ने जैसे दबा लिया है। कपड़ों में से तेल की गंध आती रहती है।''
वह सोचता है कि अच्छे मौके पर बात सूझ गई, नहीं तो ज्ञान कौर का शक कुलजीत की ओर चला जाता। वह पत्नी से कहता है-
''चल, कुलजीत को फोन कर कि बाहर आ जाए, मैं दो मिनट में पहुँच रहा हूँ।''
वह कार कुलजीत की रिहायश के बाहर रोकते हुए डर रहा है कि अजैब कौर भी कहीं संग ही न तैयार हो जाए, पर कुलजीत अकेली ही बाहर निकलती है। वह कार में बैठे-बैठे ही कार का दरवाजा खोलता है। कुलजीत कमीज़ को पीछे से ठीक करके उसके बराबर आ बैठती है। काले सूट पर सफेद फूल बहुत सज रहे हैं। प्रदुमण सिंह कहता है-
''कुलजीत, तू तो बहुत सोहणी लगती है।''
''थैंक यू, अंकल जी।''
''यह अंकल-अंकल न करा कर। मेरी ओर देख, मैं अंकल लगता हूँ।''
कुलजीत उसकी तरफ देखती है और हँसती है। वह फिर कहता है-
''तू तो हँसती भी बहुत सुन्दर है। ऐसे ही खुश रहा कर, बाकी सारे फिक्र मेरे लिए छोड़ दे।''
''थैंक यू।'' वह नखरे भरे अंदाज में बोलती है।
इकबाल का घर जिसमें जगमोहन ने अपने साथियों के संग बैठना आरंभ किया है, लेडी मार्ग्रेट रोड पर ही है। पैदल जाने के लिए भी दूर नहीं है। लेकिन प्रदुमण का चलकर जाने का कोई इरादा नहीं है। वह कुलजीत से उसके पति और सास के विषय में पूछता है, पर जवाब सुनने में उसकी कोई दिलचस्पी नहीं है। वह तो बात करती कुलजीत को देखते रहना चाहता है।
वह इकबाल के घर के पास जगह ढूँढ़कर कार खड़ी करता है। यहाँ वह पहले भी आ चुका है। कामरेड इकबाल खुद तो हेज़ में रहता है जहाँ उसका दूसरा घर है। इस घर को साझे कामों के लिए इस्तेमाल करता है। काफी समय से यह जगह इसी प्रकार उपयोग में लाई जाती है। कामरेड इकबाल को भी प्रदुमण जानता है। कामरेड इकबाल को तो सारा साउथाल जानता है। इमरजेंसी के समय भारत सरकार के विरुद्ध यहाँ जबरदस्त प्रदर्शन किए गए थे और कामरेड इकबाल उन प्रदर्शनों का नेता हुआ करता था। भारत की हर उथल-पुथल में कामरेड आगे रहे हैं, पर खालिस्तान की लहर चली तो सब चुप हो गए। कई बार प्रदुमण मन ही मन गिला भी करता है। घर के आगे पहुँचता है। घर के बाहर लिखा है – ‘रेड हाउस'। दरवाजा खुला है। अन्दर प्रवेश करते ही आम घरों की तरह रसोई दिखाई देती है। दो लाउंज हैं। एक बायीं ओर और दूसरी दायीं ओर। दोनों में ही कुर्सियाँ इस प्रकार लगी हुई हैं कि दफ्तर की तरह प्रतीत होते हैं। लेकिन अन्दर कोई नहीं है। वे दोनों तरफ जाते हैं जो खाली पड़े हैं। प्रदुमण हैरान होता हुआ कुलजीत से कहता है-
''यह कैसी जगह हुई जहाँ कोई आदमी नहीं है और दरवाजा खुला पड़ा है।''
वे लौटने लगते हैं तो एक बुजुर्ग़-सा व्यक्ति ऊपर से उतरता है। वह प्रदुमण से पूछता है-
''लीगल ऐड वाले लड़कों से मिलना है ?''
''जगमोहन से।''
''वह तो सात बजे आता है, वीक डे में। वीकएंड पर जल्दी आ जाते हैं। तुम बैठकर वेट कर लो।''
वह बताता है। प्रदुमण सिंह समय देखता है। अभी तो छह भी नहीं बजे। वह कुलजीत से कहता है-
''आ जा, चलते हैं। सात बजे आ जाएँगे।''
कुलजीत उसके पीछे चल पड़ती है। वे बाहर निकलकर पुन: कार में बैठ जाते हैं। प्रदुमण सिंह कुलजीत से उसके बारे में छोटे-छोटे सवाल पूछता है। उसके परिवार, उसकी पढ़ाई, उसकी सहेलियों और उसके शौंक के बारे में। कुलजीत हँस हँसकर जवाब दे रही है। प्रदुमण सिंह समझ जाता है कि उसका संदेश कुलजीत तक पहुँच चुका है। उसके मन में लड्डू फूटने लगते हैं।
(जारी…)
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2 comments:

Anonymous said...

Dear Deepti,

Thanks for sending us the episodes of Southhall. Since I have been living abroad for many years. I can relate myself to the book. And I have been to Southhall. I know how it looks like- like mini India in England. The book has described effectively the struggle of immigrants.

Best regards,

Archana Paiunuly

Website: www.archanap.com

Sanjeet Tripathi said...

is kahani aur iski kishton ko padhkar aasaani se kalpana ki ja sakti hai, desh se bahar base bhatrtiyon ko hone wali dikkaton aur unke samay ko samjhne me kafi madad milti hai....

shukriya....

agli kisht ka intejar rahega ab..