समकालीन पंजाबी साहित्य की उत्कृष्ट कृतियों की तलाश

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Tuesday, December 28, 2010

आत्मकथा



एक नेत्रहीन लेखक की आत्मकथा

धृतराष्ट्र
डॉ. एस. तरसेम
हिन्दी अनुवाद : सुभाष नीरव
चैप्टर-16( दूसरा भाग)


जाए नदौण, आए कौन

मुझे नदौण गए अभी पूरा महीना भी नहीं हुआ था कि मेरा मन हुआ कि मैं जुआर होकर आऊँ। एक रविवार सुबह ही बस पकड़ ली। स्कूल के सामने बस खड़ी होती थी। वहाँ परचून की दुकानवाले और हलवाई ने मुझे पहचान लिया था। स्कूल में सिर्फ़ परसा ही रह गया था। वह वहाँ चौकीदार था। उससे पता चला कि हैड मास्टर हेमराज शर्मा सहित सभी अध्यापकों का यहाँ से तबादला हो गया था, क्लर्क रामनाथ शर्मा का भी। परसे ने चायपानी के लिए ज़ोर डाला और जौंडूमल ने भी। लेकिन मैं राम सिंह के घर 'लाड़' जाने के लिए उतावला था। पता चला कि दौलतराम का अगले हफ्ते विवाह है। दौलतराम, राम सिंह का बड़ा लड़का था, गुरबख्श जिसे मैं बंता कहा करता था, वह फौज में भर्ती हो गया था। लक्ष्मी का अभी तक ब्याह नहीं हुआ था। वह कम से कम 26-27 वर्ष की हो गई होगी। लक्ष्मी सहित सभी ने मुझे गले लगाया मानो दौलत के विवाह की रौनक मेरे पहुँचने से और बढ़ गई हो। मैं जिस कमरे में रहता था, उसमें खड़ा होकर कितनी देर दीवारों, छत और फर्श को निहारता रहा। उस कमरे में भी गया जहाँ मेरी माँ रोटी पकाया करती थी।
वहाँ जुआर में आए-गए के लिए चाय बनाने का रिवाज़ नहीं था। मैं इस बात को जानता था। सो, मैं पानी पीकर काके को साथ लेकर उस चश्मे तक गया जहाँ से हम अक्सर पानी भरा करते थे और आते-जाते उसका पानी पीते थे। पर वापस लौटते हुए जब काके ने मुझे बताया कि हमीरा को टी.बी. हो गई है, मेरे मन को बहुत धक्का लगा। अगले हफ्ते विवाह में भी शामिल हुआ। इस बहाने इस परिवार के सभी रिश्तेदारों से मिल लिया था। सबसे अधिक खुश थे- बंता और हमीरा, पर हमीरा से अधिक खुलकर बात नहीं हो सकी थी। वैसे, पिछली कुछ बातें अवश्य कीं।
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छुट्टियों के बाद लौटे हुए अभी दूसरा ही दिन हुआ था कि उर्मिला आ टपकी। मेरे बताने से पहले ही माँ जी(कुंती की माँ) ने बता दिया था कि तरसेम की मंगनी हो गई है। उस समय तो वह कुछ न बोली, चुप रही मानो पत्थर हो गई हो। मैं सोच रहा था कि इसे क्या हो गया। तीसरे दिन वह ऊपर मेरे कमरे में पहुँच गई और मेरी मंगनी की बात छेड़ दी। मैंने उसे बता दिया कि मेरी मंगनी भी हो गई है और बदली भी शीघ्र हो जाएगी। उसने दो बार अपने माथे पर हाथ मारा और फिर उसकी आँखों से आँसू टपक पड़े। ''बस, ऐसे ही धोखा हुए जाता है।'' वह रो भी रही थी और कुछ न कुछ बोले भी जा रही थी मानो उसका कोई हसीन सपना टूट गया हो। मैं हैरान था कि जब मैंने उसके संग कोई रिश्ता जोड़ा ही नहीं था, वह पागलों की तरह ऐसा क्यों किए जा रही है। मैंने पहले से भी अधिक प्यार और दिलचस्पी से उसे बहलाया और समझाने का यत्न किया कि ये रिश्ते इस तरह नहीं बनते, पर उसके चेहरे पर मैंने वो खुशी कभी न देखी जो छुट्टियों से पहले देखा करता था।
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अब तो बस बदली के आदेश की प्रतीक्षा थी। सितम्बर के महीने के अन्दर-अन्दर आदेश अवश्य आ जाने चाहिए थे, पर पता नहीं क्या बाधा थी कि ये आदेश सितम्बर के अन्तिम सप्ताह में हुए। भाई स्वयं आर्डर लेकर आया क्योंकि मैंने पत्र में लिख दिया था कि आर्डर वह खुद लेकर आए ताकि प्रिंसीपल मुझे रिलीव करने में कोई दिक्कत पैदा न करे। मेरा अन्दाजा बिलकुल ठीक था। यदि भाई स्वयं न आता तो प्रिंसीपल ने न जाने क्या-क्या बहाना बनाना था। मेरे भाई के आने के बावजूद प्रिंसीपल ने मुझे 29 सितम्बर को दोपहर के बाद रिलीव तो कर दिया, पर रिलीविंग चिट पूरे 12 बजे मेरे हाथ में दी।
मैं सामान पहले ही बांध आया था। स्कूल में से केवल कृष्ण और फ़िरोजपुर वाला रमेश शर्मा, माँ जी और मेरा सामान उठाने के लिए सुरिंदर और यशपाल आ गए थे। ठीक चलने के वक्त उर्मिला भी पहुँच गई। वह मेरे साथ शायद कोई बात करना चाहती थी, पर कोई भी बात करना अब संभव नहीं था। फिर भी, उसने मुझसे मेरा पता मांग लिया। बस अड्डे तक मुझे छोड़ने भी आई। इसके बाद वह कभी नहीं मिली। उसके अन्दर मेरे प्रति जो प्यार जागा, वह तो अब समय की धूल में दब चुका होगा, पर वह जहा भी हो, सुखी हो, यही मेरी कामना है।
जुक़ाम तो मुझे पहले ही कई दिनों से चल रहा था। सितम्बर के महीने में मौसम में नमी होने के कारण मुझे अक्सर जुक़ाम हो जाता था। कांगड़ा की नौकरी भी मैंने लगातार जुक़ाम रहने के कारण ही छोड़ी थी। उस दिन जब हम पौने एक बजे वाली बस में बैठे तो बस के बड़ी तेज चलने के बावजूद हमें लुधियाना वाली बस बड़ी मुश्किल से मिली। अगर ड्राइवर परिचित न होता तो शायद वह बस न रोकता। लुधियाना से हम रेल द्वारा सात बजे तपा पहुँच गए थे। 'जाए नदौण, आए कौन ?' इस कहावत को मैंने झूठा साबित कर दिया था।
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सतवीं कक्षा में नदौण के समीप वाली रिआसत के राजा का बेटा मेरे पास पढ़ता था। सचमुच ही वह राजकुमार था। बेहद सुन्दर-सुशील। वह मुझे कई बार महल देखने के लिए कह चुका था। नदौण से महल तीनेक किलोमीटर दूर था। उस जगह को 'अमतर' कहते थे। एक शाम मैं लड़के के संग महल देखने चला गया। बड़ी आवभगत की उन्होंने मेरी। चाँदी के गिलास में दूध पिलाया, पर चाँदी के गिलास मेरे लिए कोई बड़ी बात नहीं थी। चाँदी के बर्तन तो हमारे घर भी बहुत थे- गिलास, लौटा, थाल, कटोरियाँ, चाँदी का हुक्का और घोड़ी का साज़। इसलिए महल की सजावट ने तो मुझे प्रभावित किया पर चाँदी के बर्तनों ने बिलकुल नहीं। हाँ, उस राजकुमार और उसके परिवार की ओर से मिले सत्कार और उनकी विनम्रता ने मुझे बहुत कायल किया, ख़ास तौर पर पहाड़ी राजाओं की सादगी का रंग मैंने पहली बार ही देखा था।
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मैं पंजाबी पाठय-पुस्तक पढ़ाने के लिए प्राय: अच्छे विद्यार्थियों का चयन कर लेता था। यही फार्मूला मैंने नदौण में अपनाया। कॉपी पर काम कलम या जैड़ की निब से करने की आदत भी मैंने कुछ ही दिनों में विद्यार्थियों को डाल दी थी। सामाजिक शिक्षा का पाठ पहले किताब में से पढ़ाकर, उसमें से बनने वाले प्रश्न मैं स्वयं लिखवाता था। पंजाबी और सामाजिक शिक्षा की कॉपियों पर मैं सिर्फ़ हस्ताक्षर ही करता था। एक टिक मारा और हस्ताक्षर कर दिए। हालांकि भाषा अध्यापक के लिए विद्यार्थियों के शब्द-संयोजन को देखना आवश्यक समझा जाता था और यह नियम पंजाबी पर भी लागू होता था, पर यहाँ तो मेरे जैसी पंजाबी पढ़ाने और विशेष रूप से कविताओं के अर्थ करवाने वाला अध्यापक मुझसे पहले कभी कोई आया ही नहीं था। इसलिए कॉपियों को जाँचने के विषय में प्रिंसीपल ने कभी कुछ नहीं पूछा था। अन्य अध्यापकों को भी प्रिंसीपल द्वारा अंग्रेजी की कॉपियों की जाँच के अलावा कभी कुछ कहते नहीं सुना था। रही बात सातवीं कक्षा की अंग्रेजी की, इस काम के लिए मुझे एक होशियार लड़का जिसका नाम यशपाल था, मिल गया था। जी की निब से विद्यार्थियों को अंग्रेजी लिखने के लिए कहता। यशपाल की कॉपी लाल पेन से चैक कर देता, कभी कभार एक दो और होशियार लड़कों की कॉपियाँ भी चैक कर देता। वे आगे बाकी के विद्यार्थियों की कॉपियाँ चैक कर देते और मैं सबकी कॉपियों पर इनीशियल मार कर तारीख़ डाल देता। लब्बोलुआब यह कि यहाँ भी मेरे पढ़ाने का तरीका वही था जसे मैं मोड़ मंडी और बठिंडा के प्राइवेट स्कूलों में पहले पूरी तरह आजमा चुका था। इस प्रकार मुझे अधिक निगाह नहीं लगानी पड़ती थी। वैसे भी मैं विद्यार्थियों की कॉपियों पर दस्तख़त करते समय दरवाजे में कुर्सी डालकर बैठता, जहाँ प्रकाश पूरा होता। इस प्रकार किसी को भी मेरी कमज़ोर निगाह के बारे में पता नहीं लगा था।
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सुबह के समय ब्यास दरिया का लकड़ी का पुल पार करके जंगल-पानी के लिए जाता। गरमी के मौसम के कारण पाँच-साढ़े पाँच बजे तक दिन चढ़ जाता और मुझे अकेले आने-जाने में कोई कठिनाई न होती। नहाने-धोने का काम भी वहीं कर आता। चाय पानी खुद बनाता। पीतल का स्टोव मेरे पास था इसलिए चाय बनाने और रात में दूध गरम करने तक का सारा काम मैं अपने चौबारे में ही कर लेता। आवश्यकतानुसार बिस्कुट, ब्रेड और कुछ नमकीन लाकर रखता। दोपहर की रोटी उसी ढाबे पर ही खाता जिस पर एक-दो अन्य अध्यापक खाते थे। दोपहर की रोटी खाने के लिए हम इकट्ठा ही जाया करते पर शाम की रोटी के लिए मैं पहले चला जाता। अगर मैं टॉर्च लेकर भी रात में जाता तब भी वहाँ यह बात अजीब लगने वाली नहीं थी क्योंकि अंधेरा होने पर कभी कभार ही रोटी खाने मैं निकलता था। ज्यादा अंधेरे में थोड़ी बहुत मुश्किल भी आती, पर रास्ते का अभ्यस्त हो जाने के कारण मैं वापस अपनी मंजिल पर पहुँच ही जाता। कई बार तो अधिक रात हो जाने पर माँ जी मुझे ढाबे पर रोटी खाने के लिए नहीं जाने देती थी। कम से कम दस-पंद्रह बार तो मैंने रात की रोटी माँ जी के हाथ की पकी हुई ही खाई होगी। कुंती भी मुझे भाइयों वाला मोह-प्यार करती। कुछ दिन में ही हम इतने घुल-मिल गए थे कि कुछ भी पराया नहीं लगता था। शायद, माँ जी अपने बेटे वाला सत्कार मुझसे खोजती हों और मैं अपनी माँ वाला प्यार उसमें। हम कितनी कितनी देर स्कूलों में पढ़ाई के प्रबंध और अध्यापकों के किरदार के संबंध में बातें करते रहते। कुंती बेचारी ज्यादा बोलती नहीं थी। उसकी उदासी देखकर मैं कई बार उदास हुआ होऊँगा। कभी-कभी माँ जी कुंती को झिड़कती, कभी पीछे ही पड़ जाती। मुझे माँ जी की यह बात बिलकुल अच्छी नहीं लगती थी। सोचता, यदि कुंती का पति न मरता, बेचारी मायके में क्यों ठोकरें खाती। दूसरे विवाह का रिवाज़ वहाँ भी कम ही था और मेरे अपने इलाके मालवे में भी अक्सर विधवा स्त्रियों को रंडेपा भोगना पड़ता। अधिकांश विधवा स्त्रियाँ भले ही मायके में रहतीं या ससुराल में, उन्हें सिर झुका कर दिन व्यतीत करने पड़ते। ऐसी स्त्रियों के साथ या तो हद से ज्यादा हमदर्दी प्रकट की जाती या फिर उनसे एक दूरी रखी जाती। सुहागिनें विधवाओं के साये से भी दूर रहने का यत्न करतीं। उन दिनों तो ब्याह-शादी में कई शगुनों के अवसर पर किसी विधवा की उपस्थिति को अपशगुन समझा जाता। नव जन्मा बालक विधवा की झोली में तो क्या उसकी परछाईं से भी दूर रखा जाता। विधवा के लिए हार-श्रृंगार वर्जित होता। मांग में सिंदूर, माथे पर बिंदी और अधरों पर सुरखी अगर कोई विधवा लगा लेती तो उसे कंजरी, बेहया और लुच्ची तक कह दिया जाता। कुंती को देखकर मुझे ज्ञानी गुरमुख सिंह मुसाफ़िर (पंजाबी के प्रतिष्ठित अग्रज कथा लेखक) की एक कविता की ये सतरें अक्सर याद आ जातीं -
''होरां लई जहान 'ते लक्ख खुशियाँ, ऐपर मैं तत्ती लई कक्ख नाहीं।
खाणा पीणा, हंडाउंणा वी छड्ड दितै, ऐपर छड्डे जमाने की अक्ख नाहीं।
(दूसरों के लिए दुनिया में लाख खुशियाँ हैं परन्तु मुझ दुखियारी के लिए कुछ नहीं है। खाना, पीना, पहनना भी छोड़ दिया है, पर जमाने की आँख नहीं छोड़ती।)
उपर्युक्त पंक्तियाँ मैंने ज्ञानी करते समय पाठय-क्रम में लगी पुस्तक 'कावि-सुनेहे' में से याद की थीं। कुंती दूसरा हार-श्रृंगार नहीं करती थी पर आँखों में काजल बहुत लगाती थी। उसका रंग गेहुँआ था, दांत अर्धपीले और आँखें मोटी जो काजल से और मोटी दिखाई देतीं। कद में वह नाटी थी। माँ जी के सामने मैंने उसे कभी बोलते नहीं देखा था। माँ जी की अनुपस्थिति में उसके साथ बहुत हमदर्दी प्रकट करता। उसे बहुत समझाता पर मेरे पास उसके बढ़िया जीवन-यापन का कोई हल नहीं था। हाँ, मैंने उसे सगी बहनों से भी अधिक प्यार और सम्मान दिया। अभी मुझे माँ जी के घर रहते हुए हफ्ता भी नहीं हुआ था कि एक लड़की पढ़ने के लिए आ गई। वह माँ जी की सगी भतीजी थी। वह दसवीं में फेल हो चुकी थी। माँ जी की भाभी स्कूल टीचर थी, बहुत सुन्दर, हट्टी-कट्टी। वह भी संग आई थी। माँ जी ने पुरजोर सिफ़ारिश की। मैं इन्कार न कर सका। अगले दिन शाम चार बजे का समय दे दिया। जब वे माँ-बेटी चली गईं, माँ जी ने उलटा रिकार्ड बजाना शुरू कर दिया, '' है तो यह मेरी भतीजी, पर इसके लछण ठीक नहीं। तुम चार-पाँच दिन तो पढ़ाओ, बाद में जैसे भी पीछा छुड़ाना चाहो, छुड़ा लेना।'' माँ जी के इन दो-तीन वाक्यों से मैं सारी बात समझ गया था।
लड़की का नाम उर्मिला था और माँ जी उसे बिमला कहकर बुलाती थीं। अगले दिन वह चार बजे से पाँच-सात मिनट पहले ही आ गई। कुंती ने मुझे नीचे से आवाज़ लगाई। मैं नीचे उतर कर माँ जी के सोने वाले कमरे में चला गया और चारपाई पर पैर लटकाकर बैठ गया। माँ जी बाहर बरामदे में अपने काम में लगी रहीं, कुंती कभी अन्दर तो कभी बाहर। बिमला नीचे फर्श पर बोरी बिछा कर बैठी थी। पहले दिन जो कुछ मैंने उसे लिखवाया और हिसाब के जो सवाल करवाये, उससे लगा, वह पास तो हो सकती है लेकिन वह पढ़ने में अधिक रूचि नहीं ले रही थी। मैंने अगले दिन का उसे काम देकर एक घंटे से भी पहले वापस भेज दिया। इसका कारण यह था कि माँ जी ने अपनी सिफ़ारिश पर खुद काटा मार दिया था, दूसरा मेरी यह एक बेगार थी, तीसरे उस लड़की के मुझे लक्षण ठीक नहीं लगे थे।
दूसरे दिन उसके आने पर फिर मुझे हांक लगाई गई। माँ जी और कुंती बाहर काम कर रही थीं। चारपाई से मेरे पैर नीचे थे, फर्श पर। बिमला ने मेरे पैरों को एक बार नहीं, तीन-चार बार पाँच-सात मिनट के अन्तराल में स्पर्श किया, बिमला नंबर दो की तरह। मुझे उसकी नीयत का का पता चल गया था। जब भी वह मेरे पैर को छूती, पहले वह बाहर देख लेती। कुंती भी दो बार अन्दर का चक्कर लगा चुकी थी। आखिर, उसने मेरे पैर पर हल्की-सी च्यूंटी काटी। अब तो उसकी नीयत पर कोई संदेह ही नहीं रहा था। मैंने पैर ऊपर कर लिए। उसके चले जाने के बाद मैंने माँ जी को बताया कि लड़की की पढ़ने में अधिक दिलचस्पी नहीं है।
उस समय मैं उम्र के तेइसवें साल में था। मैं कोई देवता भी नहीं था। इन्सानों की तरह एक इन्सान था। उन दिनों जवान होने के कारण मेरे अन्दर भी तरंगे उठा करती थीं। जब नदी स्वयं ही प्यासे के पास आए, प्यासे का नदी में से घूंट भरना कितना अस्वाभाविक हो सकता है। पर मैं डरपोक बहुत था। ऐसे मामलों में तो सिरे का डरपोक हूँ। इसलिए मैंने उसकी पहल का कोई जवाब नहीं दिया था। जवाब तो क्या, पैर चारपाई के ऊपर रखकर मैंने उसे निराश ही किया होगा। यह निराशा मैंने उसके चेहरे पर पढ़ भी ली थी। एक हफ्ता लगभग चार-पाँच दिन मैं उसे इसी तरह पढ़ाता रहा। उसे कोई भी ऐसा मौका न मिला कि वह मुझे छू सके।
दूसरे हफ्ते उसने चार नहीं बजने दिए थे कि दबे पांव ऊपर चौबारे में चढ़ आई थी। कोई मेरे पैरों की उंगलियाँ मरोड़ रहा था। देखा, वह तो उर्मिला थी, माँ जी की बिमला। मैं घबराकर चारपाई पर बैठ गया और उससे ऊपर आने के बारे में पूछा।
''बुआ जी हमारे पड़ोसियों के यहाँ बैठे हैं और कुंती नीचे सो रही है।'' वह जैसे सीधे ऊपर आ जाने को लेकर मुझे बेखौफ कर देना चाहती हो। मेरे दो तीन बार कहने पर भी वह नीचे नहीं गई और वहीं चारपाई पर बैठ गई। चारपाई पर बैठने से पहले उसने खिड़की बन्द कर दी। उस खिड़की से केवल कृष्ण की खिड़की साफ दिखाई देती थी और उसकी खिड़की से मेरी खिड़की भी। मुझे यह इसलिए भी मालूम था क्योंकि मैं केवल कृष्ण के घर की इस खिड़की के पास खड़े होकर अपने घर की खिड़की को देख चुका था। जब मुझे यहाँ से उसकी खिड़की दिख सकती थी तो इस खिड़की को वहाँ से कोई भी आसानी से देख सकता था। बिमला को इस बात की पूरी समझ थी। इस काम में मुझे वह बहुत अनुभवी लगी।
मैंने बड़ी मुश्किल से उसे नीचे भेजा, पर जाते-जाते वह कुछ छेड़छाड़ कर ही गई। जब मैं नीचे गया तो उसने मुझे इस तरह 'नमस्ते' की मानो वह मुझे अभी मिली हो। अब मुझे उसका इस क्षेत्र की खिलाड़ी होने में कोई संदेह नहीं रहा था और मैंने अन्दाजा लगा लिया था कि लड़की है तो दिमागवाली, पर इसका दिमाग पढ़ाई-लिखाई की जगह इस तरफ अधिक काम करता है। पाँच-सात दिन बाद उसने मुझे एक पत्र पकड़ाया। वह पत्र किसी ज्ञानचन्द का था। उसने यह पत्र किसे लिखा था, कुछ पता नहीं चलता था, पर था एक आशिक का ख़त और वह आशिक शायद बिमला का ही था। बाद में उसने ज्ञान चन्द से अपने संबंधों की सारी कहानी सुना भी दी थी। अब वह स्थानांतरित होकर अपने इलाके में फगवाड़ा के आसपास कहीं चला गया था।
बिमला कुछ दिन बाद फिर सीधे ऊपर आ धमकी। उस दिन भी माँ जी बाहर थीं और भोली कुंती नीचे सोई पड़ी थी। मैं खुद जाग रहा था, पर उसका ऊपर चले आना आज मुझे अजीब नहीं लगा था। वह अपने आप ही सामने पड़े डिब्बे में से बिस्कुट निकाल कर खाने लगी। मैं उसके इस अपनत्व को क्या कहूँ। बड़ी मुश्किल से कह-सुनकर उसे नीचे भेजा। माँ जी भी आ गईं और उसकी भाभी भी। भाभी ने जब उसकी पढ़ाई के विषय में पूछा तो मैंने बताया कि पास तो यह आसानी से हो सकती है पर पढ़ाई की तरफ ध्यान कम देती है। भाभी का घरवाला अबोहर में कहीं क्लर्क लगा हुआ था। भाभी ने बताया कि अगर यह दसवीं पास कर ले तो इसे जे.बी.टी. में कहीं दाख़िला मिल सकता है। मैंने उसे तो कुछ नहीं कहा, पर मन ही मन बोला कि इसके जे.बी.टी. करने वाले लक्षण दिखाई नहीं देते। यह कैसा रिश्ता था कि न तो मैं उसके जाल से बाहर था, न अन्दर। हाँ, अगर मैं चाहता तो वह सबकुछ कर सकता था, जिसके लिए वह दोनों हाथों से तैयार थी।
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नदौण में रहते हुए मेरा एक और घर में आना-जाना हो गया था। यह वहाँ एकमात्र आर्य समाजी परिवार था। यशपाल मुझे अपने घर ले गया था। इसका कारण यह था कि इस बच्चे को मैंने सातवीं कक्षा का मॉनीटर बना रखा था और हर कक्षा में ही मैं अपने संबंध में जानकारी देते समय यह बताया करता था कि मैंने अधिकांश नौकरी प्राइवेट आर्य स्कूलों में की है और इनमें से एक स्कूल - आर्य स्कूल गुरूदत्त ऐंगले वैदिक हॉयर सेकेंडरी स्कूल, कांगड़ा भी था। उसका भाई सुरिंदर भी नौंवी कक्षा में पढ़ता था और मैं उस कक्षा को पंजाबी पढ़ाता था। उनके कहने पर मैं एक इतवार को सवेरे ही यशपाल के संग हवन पर उनके घर चला गया था। वे आर्य समाजी विधि से हर इतवार हवन किया करते थे। मैं तपा मंडी के आर्य स्कूल के हैड मास्टर यशपाल भाटिया का तो मन से विरोधी था ही, आर्य प्रतिनिधि सभा के इस विचार का भी विरोधी था कि हम सब की मातृभाषा हिंदी है। इस बारे में जो कुछ तपा मंडी के स्कूल में मेरे संग हुआ था, वह मैं पीछे बयान कर चुका हूँ। पर नदौण में उनके घर अपनी इस कड़वाहट के विषय में मैंने कुछ नहीं बताया था। यशपाल और सुरिंदर दोनों का स्कूल में मुझे बहुत सहारा था। इतवार के दिन मैं बिलकुल खाली भी होता था। हवन के विधि-विधान से भी मैं परिचित था और बहुत से मंत्र भी मुझे कंठस्थ थे। हर इतवार यशपाल मुझे ले जाता। इस अवसर पर इन दोनों लड़कों के अलावा उनकी स्कूल में पढ़ती बहनें और माता-पिता भी होते और एक मैं। अन्य कोई नहीं होता था। हवन के पश्चात अच्छा बढ़िया नाश्ता करता और अपने ठिकाने पर पहुँच जाता। यह सिलसिला तब तक चला, जब तक मैंने वहाँ नौकरी की।
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एक लड़का रमेश था। वह किसी गाँव से आता था और पढ़ता था नौंवी कक्षा में। वह मुझे कई बार अपने गाँव ले चलने के लिए कह चुका था, पर कभी जाने का सबब ही नहीं बना था। एक दिन वह चूसने वाले चार आम ले आया। इतना बड़ा चूसने वाला आम मैंने पहले कभी नहीं देखा था। कलमी आमों से भी बड़े-बड़े आम थे, लंगड़े बनारसी आमों जैसे। एक आम चूसकर ही तृप्ति हो जाती थी। मैंने चार दिन में वे चार आम चूसे यानि एक आम रोज़। स्कूल जाने से पहले मैं एक आम को पानी भरे लौटे में रख देता, पानी में वह अक्सर ठंडा भी रहता था। पूरी छुट्टी के बाद मैं वह आम चूसता। ऐसे आम मैंने अपनी ज़िन्दगी में कभी नहीं चूसे। इन आमों में मानो शहद भरा हो। पहले तो मैंने ढीले से आम देखकर नाक अवश्य सिकोड़ा होगा, पर बाद में वे आम मेरी यादों की पिटारी में स्थायी तौर पर अंकित हो गए। अब मैं कह नहीं सकता कि रमेश मुझे आमों के कारण याद है कि आम रमेश के कारण। ऐसा आदर-सम्मान करने वाले बच्चे आजकल कहाँ मिलते हैं।
(जारी…)
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1 comment:

Sanjeet Tripathi said...

kya bat hai, yah kisht to kai rang samete hue hai.....

naye sal ki badhai aur shubhkamnayein