समकालीन पंजाबी साहित्य की उत्कृष्ट कृतियों की तलाश

‘अनुवाद घर’ को समकालीन पंजाबी साहित्य की उत्कृष्ट कृतियों की तलाश है। कथा-कहानी, उपन्यास, आत्मकथा, शब्दचित्र आदि से जुड़ी कृतियों का हिंदी अनुवाद हम ‘अनुवाद घर’ पर धारावाहिक प्रकाशित करना चाहते हैं। इच्छुक लेखक, प्रकाशक ‘टर्म्स एंड कंडीशन्स’ जानने के लिए हमें मेल करें। हमारा मेल आई डी है- anuvadghar@gmail.com

Saturday, April 24, 2010

आत्मकथा



एक नेत्रहीन लेखक की आत्मकथा

धृतराष्ट्र
डॉ. एस. तरसेम
हिन्दी अनुवाद : सुभाष नीरव
चैप्टर-8(प्रथम भाग)


मैंने भी कॉलेज का मुँह देखा

यह बात मैं पहले कह आया हूँ कि स्कूल में मुझे सातवीं कक्षा तक ही पढ़ने का अवसर मिला था और शेष सारी बी.ए. तक की पढ़ाई गिर-पड़ कर ही की थी। कॉलेज का मुँह देखने का शायद अवसर न ही मिलता अगर मास्टर बनने के लिए बी.एड. की ट्रेनिंग आवश्यक न होती। बी.एड. उन दिनों कॉलेज में प्रवेश लेकर ही की जाती थी। पहले इस डिग्री को बी.टी. अर्थात् बैचलर ऑफ टीचिंग कहा जाता था, पर 1959-60 के पश्चात् इस डिग्री का नाम बी.एड. अर्थात् बैचलर ऑफ एजूकेशन पड़ गया था।
तब बी.एड. के दाख़िले के लिए कोई कॉम्पिटिशन नहीं होता था। जिसके पास भी बी.ए. या बी.एस.सी. की डिग्री होती थी, वह किसी बी.एड. कॉलेज में जाकर फॉर्म और फ़ीस भरे और दाख़िला ले ले। मेरे भाई ने 1961 में डी.एम. ट्रेनिंग कॉलेज, मोगा से बी.एड. की थी। मोगा हमारे लिए कोई अनजाना नहीं था। माँ बताया करती थी कि तपा में आने से पहले मोगा में अपनी आढ़त की दुकान थी। मेरे छोटे ताया बाला राम के बड़े बेटे हंसराज ने डी.एम. इंटर कॉलेज, मोगा से ही 1938 में स्कूल में पहले स्थान पर रहकर मैट्रिक पास की थी। मेरे भाई ने भी 1940 में इसी कॉलेज से मैट्रिक पास की थी। वह भी पहले स्थान पर रहा था। अब यह कॉलेज एम.डी.ए.एस. सीनियर सेकेंडरी स्कूल के नाम से चलता है और यहाँ लगे मैरिट बोर्ड पर मैंने हंसराज अग्रवाल और हरबंश लाल गोयल दोनों के नाम 1962 और उसके बाद कई बार पढ़े थे, क्योंकि इस स्कूल में बी.एड. करते समय हमें टीचिंग प्रैक्टिस के लिए जाना पड़ता था। वैसे भी मोगा मेरे लिए पराया नहीं था। मेरा बड़ा ताया जिसे हम 'बाई' कहा करते थे, यहीं रहता था। बाई के बड़े पुत्र विलैती राम के तीन पुत्रों का कारोबार भी मोगे में ही था। मेरी सगी बुआ गणेशी भी मोगे की गली नंबर छह में ब्याही हुई थी। फूफा गुरदयाल मल के बड़े भाई धन्नामल देसी घी वाले की बड़ी दोहती 1960 में ही मेरे सगे भांजे दर्शन लाल से ब्याही गई थी। धन्नामल भिंडरावाला मोगे का सबसे बारसूख व्यक्ति था और उसके पल्ले डाली गई उसकी बड़ी बेटी की लड़की से मेरे भांजे के ब्याहे जाने से भिंडरावालों के अब पायताने की बजाय हम सिरहाने बैठ गए थे। बड़े ताया की छोटी बेटी लीला साधू राम भिंडरावाले को ब्याही हुई थी और वह नगरपालिका का प्रधान रह चुका था। साथ ही, दसेक मील के फासले पर गाँव सल्हीणे मेरी अपनी बहन शीला ब्याही हुई थी जिसका मोगे से इस तरह का रिश्ता था जैसे जट्ट का खेत से होता है। शरीके-कबीले और रिश्तेदारियों के कारण मोगा हमारे लिए भी अपने खेत पर जाने की तरह ही था।
जुआर के स्कूल से हिसाब-किताब नक्की करके जो साढ़े तीन सौ रुपये लेकर मैं आया था, वे भाई ने मुझसे नहीं लिए थे और बी.एड. के दाख़िले के लिए संभाल कर रख लेने के लिए कहा था। दाख़िला भरने और किताबें खरीदने के बाद भी पचास रुपये बच गए थे। दाख़िला भरवाने के लिए फूफा ही संग गया था। पहले दिन रहा भी बुआ के पास ही था। भाई भी बी.एड. करते समय हॉस्टल में ही रहा था, पर रात में रोटी वह बुआ के पास आकर ही खाता था। इसका कारण शायद यह था कि उन दिनों बुआ की बेटी रामो दसवीं में पढ़ती थी। शाम को भाई उसे अंग्रेजी और हिसाब पढ़ाने के लिए आया करता था और रोटी भी खा जाता था। बनियों वाले हिसाब के अनुसार चलें तो यह एक प्रकार का ट्यूशन पढ़ाने का बुआ का अपने भतीजे के साथ एक मौन समझौता था। अब इस प्रकार की ज़रूरत बुआ को नहीं थी। वैसे मेरा स्वभाव बुआ की गुलामी को बर्दाश्त करने वाला भी नहीं था। इसलिए न हॉस्टल और न ही बुआ का घर मेरा आसरा बन सका।
माँ को भी मेरे पास जुआर में रह कर सुख की बुरी आदत पड़ गई थी। मैंने भी सोचा कि अगर माँ को मोगा ले जाऊँ तो कुछ महीनों के लिए साँप भी मरता है और लाठी भी बचती है। माँ और भाभी के बीच की खींचतान कुछ महीने तो खत्म होगी ही, मुझे भी हॉस्टल की कच्ची-पक्की रोटियाँ नहीं खानी पडेंग़ी। अत: जब यह तजवीज़ मैंने भाई और भाभी के समक्ष रखी, दोनों खुश थे। दोनों की खुशी के कारण भिन्न-भिन्न हो सकते हैं। जुआर जाने जैसा माँ को जैसे फिर से चाव चढ़ आया था।
मोगे की गली नंबर दो के सामने एम.डी.ए.एस. हॉयर सेकेंडरी स्कूल के समीप दस रुपये महीना पर एक चौबारा मिल गया। चौबारे के साथ ही सल्हीणे वाली बहन के एक पड़ोसी की रिहायश थी। बुआ के घर जाने में भी दो मिनट से अधिक का समय नहीं लगता था। माँ के लिए इस चौबारे में रह कर मेरी अनुपस्थिति में समय गुजारना कठिन नहीं था। कोई न कोई रिश्तेदार स्त्री उसके पास बैठी ही रहती। माँ के ताया की बेटी हर कौर के लिए तो हमारा चौबारा एक पक्का अड्डा बन गया था।
रोटी खाने-पकाने का मामला तो हल हो गया था, पर राशन, चौबारे का किराया और कॉलेज के अन्य खर्चों का प्रबंध मुझे स्वयं ही करना था। भाई भी यहाँ पर ट्यूशनों के सहारे ही बी.एड. करके गया था। मेरे लिए भी ट्यूशनें करना ज़रूरी था।
ताया के पोते मास्टर देवराज का मोगा के अध्यापकों और विद्यार्थियों में अच्छा रसूख था। वह पहले सनातन धर्म स्कूल में पढ़ाता था और अब मोगे के निकट ही किसी स्कूल में मास्टर था। सनातन धर्म स्कूल का सेकेंड मास्टर रिखी राम, देवराज की बहुत मानता था। दोनों के प्रभाव से मुझे दो ट्यूशनें मिल गई थीं और मिली भी पूरे सेंशन के लिए।
पहली ट्यूशन एक लड़की की थी। वह मोटी लड़की नरम और भोली थी लेकिन अमीरों के बच्चों की भांति लाडली होने के कारण पढ़ने में रुचि नहीं लेती थी। बाप उसका सिर पर नहीं था। ट्यूशन के पैसे उसकी माँ को अपने पुत्रों से पकड़कर कर ही देने होते थे और पैसे देने में उस बूढ़ी के पुत्र बड़े सुस्त थे। लड़की किसी स्कूल में नहीं पढ़ती थी इसलिए दो बजे ही उसे पढ़ाने चला जाता। उसका घर हमारे चौबारे से चारेक फर्लांग के फासले पर था। कभी मैं कॉलेज से सीधा पढ़ाने चला जाता और कभी घर से रोटी खाने के बाद। उसे बड़े लाड़ से पढ़ाना पड़ता। पढ़ने की बजाय वह बातें करने में अधिक रुचि रखती थी, पर मैं उसकी बात सुने बिना ही उसे पढ़ने में लगाये रखता। हालांकि ट्यूशन पढ़ाने के पहले दिन कोई बात तो खुली ही नहीं थी, पर एफ.ए. में पढ़ती दूसरी लड़की मेरा आधे से ज्यादा समय खा जाती। जवाब मैं दो बातों के कारण नहीं दे सकता था। एक तो यह कि वह परिवार मेरी ख़ातिर-सेवा बहुत करता था। मेरी इच्छानुसार रोज़ कुछ ठंडा या गरम पिलाया जाता। चाय के संग कुछ खाने के लिए भी रखा जाता। पूरा परिवार लड़कियों की माँ सहित मुझे हाथ जोड़कर नमस्कार करता। दूसरा यह कि महीना पूरा होने से पहले ही वह वृद्ध माता पचास रुपये घर आकर दे जाती थी। ऐसी ट्यूशन छोड़कर मैं कोई दूसरी झंझट वाली ट्यूशन नहीं करना चाहता था। वैसे भी यह ट्यूशन मास्टर रिखी राम के रसूख से ही मिली थी, नहीं तो बी.एड. के विद्यार्थी के लिए ट्यूशनें कहाँ धरी थीं! अपने विद्यार्थियों की ट्यूशनें तो अधिकतर संबंधित स्कूलों के मास्टर स्वयं ही हथिया लेते थे।
दूसरी ट्यूशन मेरे से दसेक वर्ष बड़े विद्यार्थी की थी। उसका अपना बेटा शायद मसूरी में पढ़ता था। यद्यपि वह हलवाई का काम करता था, पर इस कारोबार में भी वह किसी मिल मालिक से कम नहीं था। पहले तो वह अनपढ़ ही था, पढ़ने-लिखने की लौ उसे कारोबार में आ जाने के बाद ही लगी थी। वह मेरे घर पढ़ने आता। घर में मेरे पास सिर्फ़ दो चारपाइयाँ थीं। मेज-कुर्सी कोई था ही नहीं। इस भद्र पुरुष ने मेरी आर्थिक स्थिति भांप ली थी। इसलिए उसने दो कुर्सियाँ और एक मेज़ मेरी अनुपस्थिति में मेरे चौबारे में भिजवा दीं। मैं उसकी श्रद्धा और सत्कार के सम्मुख कुछ भी नहीं बोल सकता था। मुझसे बड़ी उम्रवाला कोई विद्यार्थी मेरा इतना सत्कार करेगा, इसकी तो मैंने कल्पना भी नहीं की थी। मैं अँधेरा होने से पहले पहले आमतौर पर उसे पढ़ाने का काम समाप्त कर लेता। एफ.ए. अंग्रेजी के इस विद्यार्थी का दिमागी स्तर तो बहुत ऊँचा नहीं था, पर वह परिश्रमी बहुत था। कई बार दिन भी छिप जाता और अँधेरा हो जाता। उसकी इच्छा होती कि मैं उसे और पढ़ाता रहूँ। मैं उसे इन्कार भी नहीं कर सकता था। यद्यपि उसके ऐनक लगी हुई थी और मेरे भी, पर उसे दीवार पर लगी ट्यूब की रोशनी में पढ़ने में कोई मुश्किल नहीं थी। मुझे इस तरह की मुश्किल कई साल से आ रही थी। इसलिए मैंने टेबुल लैम्प का प्रबंध कर लिया था। पंद्रह वॉट के दूधिया बल्ब से मुझे किताब पढ़ने में कोई कठिनाई नहीं होती थी। उसे अधिक समय देने में भी मुझे कोई तकलीफ़ नहीं होती थी। ट्यूशन के पचास रुपये तो वह दिया ही करता था, मेरे छोटे-मोटे दूसरे कई घरेलू काम भी वह करवा दिया करता था। मिट्टी के तेल और बालण से लेकर सारा राशन उसका नौकर ही मेरे घर में पहुँचाता था।
एक और ट्यूशन भी पढ़ाई थी, पर लड़का बहुत शरारती होने के कारण करीब दो महीने बाद मैंने वह ट्यूशन छोड़ दी थी। मेरे लिए दो टयूशनों से प्राप्त होने वाली आय ही बहुत थी। इससे ही न केवल अपने कॉलेज की बकाया फीस, किताबों और कापियों का खर्च चलाया बल्कि चूल्हे का भी और कपड़े-लत्ते का भी खर्च पूरा किया।
किसी समय जब हम मोगा में रहा करते थे और मेरा अभी जन्म भी नहीं हुआ था, बहन कान्ता यहाँ कन्या पाठशाला में पढ़ कर गई थी। मेरी यह विवाहित बहन हमें मिलने मालेर कोटले से मोगा आई थी। उसकी गोद में उस समय उसका छोटा बेटा नन्हा था जिसे आजकल हम अजय कुमार कहते हैं। नन्हें को लिवर का भयानक रोग था, बचने की कोई आस नहीं थी। शायद बहन उसे वैद्य तीर्थराम को दिखाने आई थी। तीर्थराम हमारे जीजा जी साधू राम का मित्र था। दोनों राजनीतिज्ञ थे और गहरे मित्र भी। शायद यही आसरा देखकर बहन आई हो। पाँच दस दिन माँ बेटी ने खूब बातें कीं और दिल हल्का किया। भांजे का रोग यदि कम नहीं हुआ था तो बढ़ा भी नहीं था। कान्ता के मोगा आने की ख़बर सुनकर तारा भी गोदी की दोनों बेटियों को लेकर आ पहुँची और सल्हीणे वाली बहन शीला के तो पैरों में ही था मोगा। तीन बहनें और चौथी माँ और शाम के वक्त मौसी हर कौर की महफिल ! एक ट्यूशन पढ़ाने के अलावा छोटे से इस चौबारे में यह स्त्री कांफ्रेस अक्सर लगती रहती। मैं इसलिए नहीं बोलता था क्योंकि तपा में मैंने अपनी इन बहनों और माँ को कभी खुल कर हँसते हुए नहीं देखा था। यहाँ इन सबको पूरी आज़ादी थी। इनकी पंद्रह अगस्त तो अब जैसे मोगे के इस चौबारे में ही आ गई हो !
(जारी…)
00

Monday, April 19, 2010

पंजाबी उपन्यास



''साउथाल'' इंग्लैंड में अवस्थित पंजाबी कथाकार हरजीत अटवाल का यह चौथा उपन्यास है। इससे पूर्व उनके तीन उपन्यास - 'वन वे', 'रेत', और 'सवारी' चर्चित हो चुके हैं। ''साउथाल'' इंग्लैंड में एक शहर का नाम है जहाँ अधिकतर भारत से गए सिक्ख और पंजाबी परिवार बसते हैं। यहाँ अवस्थित पंजाबी परिवारों के जीवन को बेहद बारीकी से रेखांकित करता हरजीत अटवाल का यह उपन्यास इसलिए दिलचस्प और महत्वपूर्ण है क्योंकि इसके माध्यम से हम उन भारतीय लोगों की पीड़ा से रू-ब-रू होते हैं जो काम-धंधे और अधिक धन कमाने की मंशा से अपना वतन छोड़ कर विदेशों में जा बसते हैं और वर्षों वहाँ रहने के बावजूद वहाँ की सभ्यता और संस्कृति का हिस्सा नहीं बन पाते हैं।

साउथाल
हरजीत अटवाल

हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव

॥ दो॥
वह ट्रेनर कसता हुआ बाहर निकलता है। जेब पर हाथ मारता है। सिगरेट की डिब्बी और लाइटर वह भूला नहीं। कुछेक पाउंड भी दूसरी जेब में हैं। आठ बजे हैं पर अभी सूरज काफी ऊपर है। घर से निकलते ही वह दौड़ने लगता है। हेज़ की ओर जाता नहर का पुल पार करता वह हेज़ वुड्ज़ में आ घुसता है। यह छोटा-सा जंगल सैर करने वालों के लिए ही सुरक्षित रखा हुआ है। यह थोड़ा सघन है जिससे जोगिंग करने वालों को यह बहुत उपयुक्त नहीं बैठता। वह हाथों से टहनियों को इधर-उधर करता हुआ भाग रहा है। इस समय अधिक लोग इधर नहीं हैं, नहीं तो संकरी-सी पगडंडी में चलते हुए लोगों को पार करना कठिन हो जाता है। इन झाड़ियों जिन्हें स्थानीय लोग वुड्ज़ कहते हैं, में से होकर जोगिंग करना उसे इसलिए भी अच्छा लगता है कि आगे जाकर नहर के किनारे पब है जिसकी ‘लागर’ उसे बहुत पसन्द है।
एक तरफ एक दरख्त की जड़ों में कोई लाल-सी चीज़ पड़ी है। दृष्टि पड़ते ही वह एकदम रुक जाता है। क्या है यह ? शायद किसी का टोप, कमीज़ या स्वैटर। इतने तेज रंग तो स्त्रियाँ ही पहनती हैं। सुखी भी लाल रंग का टोप ही पहनती थी। वह एकाएक दौड़ पड़ता है। इतना तेज़ की हाँफने लगता है। मिनटों में ही पब के पास जा पहुँचता है। फिर रुक कर, आगे की ओर झुककर हाथ अपनी जांघों पर रखता है। साँस के साथ साँस मिलने लगता है। वह फिर से सीधा होकर जेब में से डिब्बी निकाल एक सिगरेट सुलगा लेता है। कुछ देर वह लाइटर जला कर उसकी लौ को निहारता रहता है। वह सिगरेट पूरी नहीं पी सकता। अधबीच में ही नीचे फेंक पैर से मसल कर पब में जा घुसता है। लागर का गिलास भरवा कर बाहर एक किनारे लगे बेंच पर आ बैठता है।
उसे स्वयं पर बहुत गुस्सा आता है। लाल रंग का कपड़ा देखकर ही घबरा उठा। बड़ी-बड़ी चीज़ें हज़म कर जाने वाला वह सुखी को नहीं भुला सका था। मनदीप ठीक कहती है कि सुखी के साथ उसका वास्ता ही क्या था। इतना ही कि कुछेक बार उसको उसने स्वीमिंग पूल पर देखा हुआ था। कभी एक शब्द तक साझा नहीं किया था। चुप का रिश्ता ज़रूर था पर ऐसा नहीं कि इतनी देर तक पीछा करे। रिश्ता भी हो तो कोई इस तरह पागल जैसा तो नहीं हो जाता। वह लागर खत्म करके गिलास मेज पर रख चल देता है। वह नहर के ऊपर बना लोहे का पुल पार करते हुए दूसरी ओर नहर की पटरी पर चलने लगता है। नहर के इस ओर साफ़ रास्ता है। चलने वाले या जोगिंग करने वालों के काम तो आता ही है, इसका प्रयोग साइकिल वाले भी किया करते हैं। नहर का पानी बहुत गंदा है। इसकी सफाई का काम बहुत महंगा पड़ेगा इसलिए सरकार सफाई नहीं करवा रही। पिछले दिनों स्थानीय काउंसलरों ने इस नहर को लीज़ पर बेच देने की बात चलाई थी। जगमोहन सोचता है कि क्यों न कुछ मील नहर ही खरीद लूँ। फिर स्वयं ही हँसता है। सामने से आ रही हाउसबोट उसके लिए छोटा-सा हॉर्न बजाती है। वह चालक को हाथ हिलाकर जवाब देता है। बायीं ओर कैनाल इंडस्ट्रीयल एस्टेट की ऊँची बाड़ है। साथ ही कुछ फ्लैट पड़ते हैं और फिर स्पाईकस पॉर्क शुरू हो जाता है। बाड़ तो स्पाईकस पॉर्क और नहर के मध्य भी है पर गुजरने के लिए कुछ रास्ते छोड़े हुए हैं या लोगों ने बना लिए हैं।
जगमोहन पॉर्क में से निकल जाता है। वह अभी भी अपने आप को कोस रहा है कि वह सुखी के इस भूत से छुटकारा क्यों नहीं पा सकता। पॉर्क के चारों ओर भी चलने या जोगिंग के लिए पगडंडी बनी है। वह धीरे-धीरे दौड़ने लगता है। बियर अब तक हज़म हो चुकी है। पॉर्क बहुत बड़ा है। पाँच फुटबाल के मैदान हैं। ऊँची जाली लगाकर तीन ग्राउंड टेनिस के बना रखे हैं। बच्चों के झूले, फूलों का बगीचा और एक मील दौड़ने का ट्रैक भी। अन्दर प्रवेश करते ही बेंच लगे हैं जहाँ बैठकर लोग बातें करते हैं, आराम करते हुए धूप सेंकते हैं। पर इस वक्त कोई नहीं है। नौ बजने वाले हैं। उसे पाला सिंह का ख़याल हो आता है जो अक्सर यहाँ ही होता है और एक बेंच के सामने खड़े होकर लेक्चर देने की तरह बातें करता है। कई लोग ध्यान से सुनते हैं। बातें करते समय वह मूंछों को मरोड़ता रहता है। मूंछों को संवार कर रखना उसकी पुरानी आदत है। शुरू-शुरू में जगमोहन क्लीन शेव्ड हुआ करता था। अंकल पाला सिंह ने कह कर मूंछें रखवाई थीं। जगमोहन ने दाढ़ी बढ़ा ली थी और मूंछें भी, पर मरोड़ा देने लायक नहीं। उसे मूंछों के संग खेलते रहना अच्छा भी नहीं लगता।
(जारी…)
00

Saturday, April 10, 2010

आत्मकथा



‘अनुवाद घर’ के सुधी पाठकों/व्यूअर्स को पहली बार सम्बोधित होते हुए मुझे एक रोमांच की अनुभूति हो रही है और खुश भी हूँ। ‘अनुवाद घर’ की कमान अनुज कुमार जी ने मुझे सौंप दी है। ब्लॉग की दुनिया में यह मेरा पहला कदम है। पर पहले से बने ब्लॉग के कारण मुझे कुछ अतिरिक्त श्रम नहीं करना पड़ा। मेरा प्रयास रहेगा कि जिस उद्देश्यों के लिए ‘अनुवाद घर’ की स्थापना की गई है, उसे मैं ईमानदारी और लगन से पूरा कर सकूँ। इसमें मेरे पिता का मार्गदर्शन तो है ही, आप सभी सुधीजनों का सहयोग और स्नेह भी बहुत महत्व रखता है। अभी फिलहाल पंजाबी की दो कृतियों का हिंदी अनुवाद ही हम ‘अनुवाद घर’ पर धारावाहिक रूप में प्रकाशित कर रहे हैं। मैं चाहूँगी कि कुछ और महत्वपूर्ण और उत्कृष्ट पंजाबी कृतियों का हिंदी अनुवाद ‘अनुवाद घर’ में धारावाहिक रूप से प्रकाशित हो। डा0 एस तरसेम जी की आत्मकथा “धृतराष्ट्र” का प्रकाशन अब माह के हर दूसरे और चौथे शनिवार हुआ करेगा और अटवाल जी के उपन्यास “साउथाल” हर माह के प्रथम और तीसरे रविवार को पोस्ट हुआ करेगा। आपके सुझावों और टिप्पणियों का मैं स्वागत करूँगी।
-दीप्ति नीरव

एक नेत्रहीन लेखक की आत्मकथा

धृतराष्ट्र
डॉ. एस. तरसेम
हिन्दी अनुवाद : सुभाष नीरव
चैप्टर-7(शेष भाग)


जीना पहाड़ों का जीना

जुआर वास के समय सबसे बड़ा लाभ तो यह हुआ कि मुझे जी भरकर साहित्य पढ़ने का अवसर मिला। नानक सिंह, कंवल, गुरबख्श सिंह, सेखों, सुजान सिंह, धीर, विर्क और बहुत सारे अन्य कथा लेखक मैंने यहीं रह कर ही पढ़े। स्कूल की लायब्रेरी में पुस्तकों का भरपूर खजाना था। मैं पाँच-सात किताबें एक साथ लायब्रेरी से निकलवा लाता। दसेक दिन के बाद उन्हें लौटा कर दूसरी ले आता। छुट्टी वाले दिन एक उपन्यास पूरा पढ़ कर उठता। इन सब किताबों के पढ़ने का कारण यह था कि मुझे किसी ने कहा था कि अगर एम.ए. में अच्छे नंबर लेने हैं तो पाठयक्रम में लगे लेखक की सारी किताबें पढ़ो। एम.ए. पंजाबी का सिलेबस मैंने जुलाई-अगस्त में ही खरीद लिया था और अप्रैल 1962 में एम.ए. की परीक्षा भी दे सकता था। पर लेखक की सारी किताबें पढ़ने की दी गई किसी की शिक्षा ने मेरी गाड़ी पटरी से ऐसी उतारी कि मैं एम.ए. पास करने की लकीर पर पुन: अट्ठारह-बीस वर्षों तक न आ सका। हाँ, जुआर में रहकर अस्सी से अधिक पंजाबी की किताबें अवश्य पढ़ लीं। शायद ये किताबें मेरे लेखक बनने में सहायक हुई हों।
00

माँ को आए एक महीना हो चुका था। दिल माँ का भी पूरी तरह लग गया था और मेरा भी। पर भाई के पत्र के कारण जनवरी के किसी दिन मुझे तपा जाना पड़ गया। उधर स्कूल टेक-ओवर करने के संबंध में गुरबचन सिंह दीवाना जुआर पहुँच गया। हैड मास्टर ने उसे मेरे बारे में बताया और माँ के बारे में भी। काम खत्म करके दीवाना साहब घर पहुँच गए। माँ के घुटने छुए। रात को उसके ठहरने का प्रबंध स्कूल में ही किया गया था, पर मोह के कारण उसने माँ के पास ठहरने का ही फैसला सुना दिया। आधा काम समाप्त करके वह अगले दिन चला गया। जब मैं वापस लौटा, माँ ने सारी कहानी सुनाई। राम सिंह ने यह कहानी अपने ढंग से सुनाई। हैड मास्टर और बाकी स्टाफ ने अपने ढंग से। दीवाना साहब के आने से हम माँ-बेटे का मान-सम्मान स्कूल में भी और घर में भी बहुत बढ़ गया था।
जब दीवाना साहब दूसरी बार आए, उसने स्कूल को पहले सरकारी तौर पर सूचना दी हुई थी। राज कुमार कपूर जो बढ़िया मुर्गे बनाने की बातें बहुत बार कर चुका था, उसे हमने शाम को स्कूल में ही रोक लिया। मैं भी घर नहीं गया। माँ को बंते के माध्यम से सन्देशा भेज दिया था। घर की निकाली दारू आ गई। राज कुमार की मुर्गा बनाने की कला भी सिर चढ़ कर बोली। साथ में दीवाना साहब कहते रहे-
''तरसेम, हमने नाजायज़ काम कोई नहीं करके जाना।'' पर अगर सारा नाजायज़ नहीं तो आधा नाजायज़ काम तो दीवाना साहब कर ही गए थे। अगर वह इस तरह न करते तो जनता हाई स्कूल जुआर सरकारी हाई स्कूल न बनता। गरमी की छुट्टियाँ होने से पहले ही स्कूल के टेक-ओवर होने के आदेश आ गए थे। मेरे जैसे अनट्रेंड अध्यापकों को अस्थायी तौर पर नियुक्त किया जाना था, जिसके कारण मैंने नौकरी छोड़ कर बी.एड. करने का फैसला कर लिया था। अब यह कह नहीं सकते कि यह मेरे कारण था या मुख्य अध्यापक और प्रबंधकों की सेवा के कारण था अथवा दीवाना साहब की खुली हुई तबीयत के कारण था कि कम से कम हेम राज शर्मा, सेकेंड मास्टर और राम नाथ शर्मा की पक्की सरकारी नौकरी की नींव टिक गई थी।
00

माँ के आ जाने के बाद मेरे खाने-पीने का सिलसिला इतना बढ़िया हो गया कि दूध-घी खा-पीकर रूह भर गई। किसी की रोक टोक नहीं थी। किसी की निगरानी नहीं थी। मैं मानो मन का मालिक होऊँ। अण्डों की भुर्जी के अलावा हफ्ते में हम एक दो बार आलुओं का कड़ाह भी बनाते। पहाड़ी देसी घी में बने इस कड़ाह का कोई मुकाबला नहीं था। एक बार माँ ने पेठे का कड़ाह बना कर एक और करामात कर दिखाई थी। बात कुछ इस तरह हुई कि राम सिंह के परिवार ने कोई व्रत रखा हुआ था। व्रत में अनाज़ नहीं खाना था। फल वहाँ कोई मिलता ही नहीं था। उन्होंने पेठे के बड़े-बड़े टुकड़े करके उबाल लिए। आधा पौंना सेर के ये उबले हुए टुकड़े उन्होंने माँ को भी दिए। पता नहीं उन्होंने यह पेठा किस तरह खाया। मैंने छोटा सा टुकड़ा मुँह में रख कर देखा, कतई स्वाद नहीं था। माँ को भी स्वाद नहीं लगा। माँ ने इसे उन्हें लौटाया इसलिए नहीं कि कहीं वे बुरा न मान जाएँ। धार्मिक भावनाओं के कारण उसे बाहर फेंकना माँ के लिए कठिन था। माँ ने क्या किया कि पेठे के इन उबले हुए टुकड़ों का सख्त टुकड़ा उतार दिया। पानी अच्छी तरह निचोड़ कर उबला हुआ पेठा कद्दूकश कर लिया। कड़ाही में घी डाल कर कितनी ही देर उसे भूनती रही। आलुओं के कड़ाह से भी अधिक समय लगाया। आलुओं के कड़ाह की तरह ही चीनी डाली। जब प्लेट में यह कड़ाह परोस कर दिया, यह आलुओं के कड़ाह से भी अधिक स्वादिष्ट था। माँ ने छोटी कटोरी में कुछ कड़ाह डाल कर जब हमीरा को दिया और उसने आगे परसाद की तरह आधा-आधा चम्मच सबको बांटा तो सारा टब्बर दंग रह गया। इसके बाद भी माँ ने कई बार पेठे का कड़ाह बनाया होगा। माँ के लिए पेठे का यह कड़ाह बनाना एक ऐसा सफल तर्जुबा साबित हुआ कि उसके बाद से आलुओं की जगह हमारे घर में पेठे का ही कड़ाह बनने लगा।
00

माँ को बंते की माँ ने बताया था कि चिंतपुरनी यहाँ से दस-बारह मील है। उन्हें भी चिंतपुरनी जाना था। माँ पहले ही तैयार थी और मैं भी। उनके कहने पर हम पैदल ही चल पड़े। माँ की बांह कभी कलो पकड़ती, कभी काका। हम सड़क सड़क जाने के बजाय राम सिंह के कहे अनुसार शार्ट कट रास्ते पर चल पड़े थे। अगर उतराई आती तो माँ को लगता कि कहीं वह गिर न पड़े। मुझे यह डर नहीं लगता था। मैं कई बार इन पहाड़ी रास्तों पर आ-जा चुका था। जब चढ़ाई आ जाती तो माँ का साँस फूल जाता। सोटी के सहारे चलने के बावजूद वह थक जाती। कभी रास्ता बहुत तंग होता। दोनों तरफ खड्ड होतीं। डर लगता कि माँ कहीं खड्ड में ही न फिसल जाए। एक स्थान पर राह भी भूल गए थे। छोटे-बड़े गोल-गोल पत्थरों पर चलकर पैर थक गए थे। कहीं कहीं बीच में कोई छोटा-बड़ा चौ आता। हम दोनों माँ-बेटा संभल संभल कर चलते। 'बस, वो आ गया। अब सड़क पर पहुँचने ही वाले हैं' करते-कराते को चार घंटे बीत गए थे। जो रोटी हमें चिंतपुरनी जाकर खानी थी, वह राह में ही एक जगह पानी देख कर खा ली। माँ की हालत को देख कर मैंने निश्चय कर लिया था कि लौटते हुए बस पर आएंगे। भरवाईं वाली सड़क आई तो कहीं जाकर साँस में साँस आई। वहाँ से भी तीन-चार मील तो चलना ही पड़ा होगा और फिर सीढ़ियों का सिलसिला। माता का भवन देखकर माँ ने हाथ जोड़े। सीढ़ियाँ ही सीढ़ियाँ। हमारे जैसे मैदानी बस-मुसाफ़िरों के लिए यह चढ़ाई एवरेस्ट से कम नहीं थी। ''अस्सी चार चौरासी घंटों वाली माता तेरी सदा ही जै...'' के जैकारे सुनने पर माँ के चेहरे पर रौनक आ गई। मेरे अन्दर भी कुछ धार्मिक श्रद्धा जाग पड़ी थी। मेरी यह पहली धार्मिक यात्रा थी। माँ ने बड़ी श्रद्धा से कड़ाही करवायी। भवन (चिंतपुरनी) में छोटी-छोटी घंटियाँ ही घंटियाँ। लोग घंटियाँ भी बजाते और जैकारे भी बुलाते। माँ भी जैकारों में शामिल होती।
''चिंता पूरी करने वाली है सब की। निश्चय लेकर माथा टेकना। तुझसे कुछ नहीं छिपाना माता ने।'' माथा टेकते समय माँ मुझे समझाती रही थी। माँ ने तपा ले जाने के लिए कई खिलौने खरीदे और आमपापड़ भी। लौटते समय वे तो सब उसी राह वापस चले गए, पर मैं और माँ काके को संग लेकर मुबारकपुर चौकी वाली बस चढ़ गए। करीब छह बजे हमें होशियारपुर से आने वाली बस मिल गई और हम लाड़ के बड़े आम के पास बस रुकवा कर उतर गए। काका साथ होने के कारण अंधेरा होने के बावजूद घर पहुँचने में कोई खास दिक्कत नहीं आई। मेरे पास चिंतपुरनी से खरीदी हुई एक मूंठ वाली सोटी भी थी। उसका भी बड़ा सहारा रहा।
माँ लाटां वाली (ज्वालामुखी) भी जाना चाहती थी और कांगड़े भी, पर भाई की चिट्ठी ने माँ के इस प्रोग्राम में विघ्न डाल दिया।
00

जुआर की यादों में गुरदर्शन से हुई दोस्ती के जिक्र के बगैर मेरे जुआर वास का यह अध्याय अधूरा रहेगा। पहले गुरदर्शन दर्शन प्रेमी के नाम से छपा करता था। पटियाला जी.ए.एम.एस. करते समय उसकी मुहब्बत जिस लड़की के साथ हुई, बाद में उसके साथ ही उसका विवाह हो गया था, पर वह दर्शन प्रेमी की जगह गुरदर्शन बन गया था। सरकारी नौकरी मिलने के बाद उसकी पहली नियुक्ति कुहाड़ छन्न में हुई। उसके विषय में मुझे जुआर की डिस्पेंसरी वाले वैद्य ने बताया था। कुहाड़ छन्न जुआर से कोई पाँच-छह मील के फासले पर था। कभी वह जुआर आ जाता और कभी मैं कुहाड़ छन्न चला जाता। कवि के तौर पर उसका अच्छा नाम बन चुका था। लेकिन वह आवश्यकता से अधिक जज्बाती था। इधर-उधर लगाने वाला भी था और कानों का कच्चा भी। यूँ ही हरेक पर भरोसा करना उसकी फितरत थी। उसके पीछे लग कर मैं भी कई ऐसे यार बना बैठा था जो ज़िन्दगी में कभी काम नहीं आए। वह शिव कुमार की तरह बढ़िया गीत लिखता और बढ़िया ढंग से गाता। उसके कहने पर ही मैंने भी कुछ रचनाएं अच्छे परचों में भेजीं। कई बार हम दोनों एक ही पृष्ठ पर छपते। उन दिनों में निरंजन अवतार ने 'त्रिंझण' नाम से एक परचा शुरू किया। हम दोनों अब अधिकांश रचनाएं 'त्रिंझण' में ही भेजा करते। रवीन्द्रनाथ टैगोर के कहानी संग्रह 'काबुली वाला' की कहानियाँ मैंने उसके कहने पर ही पंजाबी में अनुवाद करके 'त्रिंझण' में छपने के लिए भेजीं।
हरबीर भंवर के विवाह का कार्ड गुरदर्शन को आया था। वह मुझे भी संग ले गया। शोभा सिंह आर्टिस्ट के शार्गिद हरबीर भंवर से मिलने के आकर्षण के कारण ही मैं गुरदर्शन की बात मान कर उसके विवाह में शामिल हुआ था। उस समय हरबीर अंदरेटे के पास किसी प्राइमरी स्कूल में अध्यापक था और रोज़ शोभा सिंह के पास आ जाता था।
गुरदर्शन तो शीघ्र ही विवाह में आए हरबीर के दोस्तों में घुलमिल गया, पर उनके खाने-पीने का तरीका मुझे बिलकुल ही नहीं भा रहा था। रात को बारात के ठहरने के कारण बहुत से शराबी अपनी मौज-मस्ती में थे और मैं फंसे हुए कौवे की तरह गुरदर्शन के संग जैसे तैसे वक्त गुजार रहा था। बाद में एक और विवाह में जाने के लिए गुरदर्शन ने मुझे कहा, पर मैं तो पहले ही कानों को हाथ लगा बैठा था।
गुरदर्शन की उस समय की दोस्ती उसके निधन तक निभी। उसके एक के बाद एक पाँच बेटियाँ पैदा हुईं। उसने लड़कियों को पढ़ाने के लिए किसी ऐसे स्थान पर तबादला करवाने के लिए कहा जहाँ लड़कियाँ कालेज में पढ़ सकें। मैंने मास्टर बाबू सिंह से कह कर उसकी बदली आलीके में करवा दी, तपा से बमुश्किल पाँच-छह किलोमीटर दूर। लेकिन यहाँ भी उसके इधर की उधर लगाने वाले स्वभाव ने मेरे और उसके रिश्ते को यदि खत्म नहीं किया तो सीमित अवश्य कर दिया। वहाँ से उसके बठिण्डा में तबादला हो जाने के बाद उड़ती-उड़ती ख़बर मिली कि उसे कैंसर है। कैंसर उसके लिए जानलेवा सिद्ध हुआ। जुआर में बने इस मित्र के भोग में भी मैं सम्मिलित न हो सका। परिवार की भी कोई सहायता नहीं कर सका, इस बात का मुझे सदैव अफ़सोस रहेगा।
00

मार्च से पहले पहले मुझे चार बार तपा जाना पड़ा। दो बार ऐसा हुआ कि बस जुआर की बजाय मुबारकपुर चौकी पर ही रुक गई, नहिरी भी नहीं गई। यहाँ से जुआर ग्यारह मील था। लाड़ दो मील कम होगा, नौ मील समझो। पूरा चाँद धरती पर अपनी दूधिया रोशनी बिखेर रहा था। टार्च भी मेरे पास थी। मुबारकपुर चौकी में ठहरने का भी कोई प्रबंध नहीं था। दायें हाथ में बैग और उसी हाथ में सोटी थामे मैं नहिरी की ओर चल दिया। चलने में कोई कठिनाई नहीं आई। सड़क बिलकुल साफ़ दिख रही थी। नहिरी में रुकने का इरादा भी त्याग दिया। राह में कहीं टार्च भी नहीं जलानी पड़ी थी। मैं लगभग पौंने घंटे में थड़े वाले उस पेड़ के पास पहुँच गया, जहाँ मैं कई बार सैर करते हुए निकल जाया करता था। राह सारा मेरा जाना-पहचाना था। यहाँ से मैंने पगडंडी पकड़ ली और ढलान की तरफ उतर पड़ा। राह में पानी भी आया पर सावधानी से पैर रखते हुए पुन: पगडंडी पर पहुँच गया। जहाँ कोई पेड़ आ जाता, वहाँ मुश्किल ज़रूर आती। चाँदनी पेड़ के पत्तों पर पड़ती और दूर तक पड़ती परछाइयों के कारण राह दिखाई देना बन्द हो जाता। वहाँ मैं टार्च जला लेता। पेड़ों की इस तरह की रुकावट राह में तीन-चार बार तो आई ही होगी, पर नहिरी में रात काटने की बजाय यह मुश्किल मेरा राह रोक न सकी। हाँ, बाघ का डर कभी-कभी बेचैनी ज़रूर पैदा करता। आख़िर ग्यारह बजे से पहले मैं घर पहुँच गया था। राम सिंह का सारा परिवार भी हैरान था और माँ भी। राम सिंह के बताये अनुसार दस-बारह मील का यह सफ़र तो रात में पहाड़ी लोग भी नहीं करते।
लगभग एक महीने बाद मुबारकपुर चौकी पर फिर करीब साढ़े सात बजे चल कर साढ़े दस के आसपास मैं लाड़ पहुँच गया था। उस दिन भी चन्द्रमा के उजाले और टार्च के साथ साथ पिछले अनुभव ने शुरू से अन्त तक मेरा हौसला बनाये रखा। मेरी दिलेरी की यह बात राम सिंह और बंते ने सारे इलाके में घुमा दी थी। हाँ, मुझे भी लगता है कि यह मेरी दिलेरी ही थी कि मैंने अपनी आँखों की रोशनी की कमी के बावजूद दो बार रात में पैदल इतना लम्बा सफ़र तय किया था। इसका लाभ मुझे यह हुआ कि मुझे यह अंदाजा हो गया कि मेरी नज़र रात में कहाँ और कैसे काम करती है।
00
साइंस को छोड़ कर शेष सभी विषयों में पढ़ाने की सामर्थ्य के कारण मैट्रिक की परीक्षाओं में विद्यार्थियों के साथ जाने की मेरी भी डयूटी लगा दी गई। सेंटर जुआर से कोई पन्द्रह किलोमीटर दूर गरली नाम का एक पहाड़ी कस्बा था। गरली ब्यास दरिया के किनारे स्थित था और था भी बड़ा रौनक वाला कस्बा। सराय पहले ही बुक करवा ली गई थी। तीन कमरे विद्यार्थियों के लिए और एक कमरा मेरे लिए था। किशनू रसोइया साथ था। जिस अध्यापक का भी पेपर होता, वह पेपर से एक दिन पहले आता और रात में विद्यार्थियों को घंटा दो घंटा पढ़ाता। जिस विषय के अध्यापक नहीं आ सके थे, उनके पेपर करने का ढंग-तरीका मैंने समझाया। वैसे भी विद्यार्थी आवश्यकता पड़ने पर मेरे पास मेरे कमरे में कुछ न कुछ पूछने के लिए आते ही रहते। सुबह और शाम का समय मैंने ब्यास दरिया के किनारे जाने के लिए निश्चित किया हुआ था। सराय से दरिया डेढ़-दो किलोमीटर की दूरी पर था। दोनों ओर कुछ ऊँचे-ऊँचे दरख्त और हरी-भरी झाड़ियाँ थीं। जब कोई अध्यापक आया होता तो सैर के लिए वह मेरे संग जाता। सेकेंड मास्टर जो मेरे साथ पहले भी काफी खुल चुका था, गरली आकर ब्यास दरिया के किनारे कुछ ऐसा खुला कि जिस बात को मैं अश्लील समझा करता था, वह अब मुझे अश्लील नहीं लगती थी। शाम के वक्त ठंडी हुमकती हवा में उसने चुटकुलों की झड़ी लगा दी। बहुत से चुटकुले जिन्सी संबंधों का कथा रूप थे। हँस-हँस कर मेरी कमर दोहरी हो गई। चुटकुले भी उसने अकबर-बीरबल, महाराजा रणजीत सिंह, गांधी, जिन्ना, सरदार पटेल, मास्टर तारा सिंह, माउंट बेटन और चर्चिल आदि को पात्र बना कर सुनाए। कोई हिसाब का मास्टर चुटकुलों का भी माहिर हो सकता है और अश्लील समझी जाने वाली हास्यरसी घटनाएं असल में अश्लील नहीं समझी जानी चाहिएं, ये दो धारणाएँ मेरे मन में सेकेंड मास्टर के चुटकुलों ने दृढ़ता से बिठा दीं।
परीक्षा के बीस दिन विवाह जैसे व्यतीत हुए। दरिया किनारे की लहरों के ये खूबसूरत नज़ारे आज भी मेरे स्मृति में रचे-बसे हुए हैं।
पता नहीं, यह गरली का मोह था या अपने आप को सबसे अच्छा अध्यापक कहलाने की इच्छा कि परीक्षा समाप्त कर स्कूल पहुँचते ही हैड मास्टर का अगला आदेश भी मान लिया। अगले दिन छोटी कक्षाओं की परीक्षाएं शुरू होनी थीं। साइंस मास्टर दिन की फरलो मारने के बावजूद आते हुए कागज के दो रिम होशियारपुर से नहीं ला सका था। गरली से करीब ऐसी कोई जगह नहीं थी जहाँ कागज मिल सके। गरली जाने की किसी भी अध्यापक ने हामी नहीं भरी। साढ़े नौ के आसपास हम गरली से वापस आए थे। हैड मास्टर ने बड़ी ही विन्रमता से यह काम मेरे जिम्मे लगा दिया था। माँ से मिले हुए भी बीस दिन हो गए थे। फिर भी, पता नहीं क्यों मैं हैड मास्टर को मना नहीं कर सका। अड्डे पर पहुँचा, बस जा चुकी थी। चौदह-पंद्रह मील का रास्ता क्या होता है, यह सोच कर मैं पैदल ही चल पड़ा। दोपहर एक बजे गरली पहुँचा। सराय वाले पंडित जी से मिला। पिछले बीस दिन के बने संबंधों के कारण ही जैसे मैं उसके घर का सदस्य बन गया होऊँ। उसने दोपहर की रोटी खाने के लिए मुझे मना लिया। कागज खरीद कर जब बस अड्डे पर आया, जुआर को जाने वाली बस दसेक मिनट पहले ही जा चुकी थी। शाम वाली बस तभी जाती थी जब सवारियाँ पूरी हों। ठहरने को तो मैं पंडित जी के पास ठहर सकता था पर कंधे पर कागज के रिम रख कर चलना ही उचित समझा। मरी हुई-सी धूप थी, ठंडी हवा थी। साथ में एक पहाड़ी लड़के के मिल जाने के कारण रास्ता मुझे कठिन नहीं लगा। वह लड़का भी वहाँ परीक्षा देकर गया था। मैंने उसे पहचाना नहीं था पर उसने मुझे पहचान लिया था। एक दो वाक्यों के आदान-प्रदान के बाद कागज के रिम अब मेरे कंधे पर नहीं, उस लड़के के कंधे पर थे। बल खाती, कभी हल्की चढाई और कभी उतराई वाली सड़क मानो मेरे पैरों को लग गई हो। आदर-भाव से भरपूर वह लड़का मेरे ना-ना कहने पर भी गाँव रक्कड़ से भी दो-ढाई मील आगे तक कागज उठाये मेरे साथ ही रहा। करीब साढ़े छह बजे तक मैं जुआर स्कूल में पहुँच गया था। हैड मास्टर दफ्तर में बैठा मेरी प्रतीक्षा कर रहा था। जब हैड मास्टर को मैंने सारी कहानी बताई, तो उसने मेरी प्रशंसा करने वाला फार्मूला दोहराना आरंभ कर दिया। सामने से जौंढू हलवाई से पेड़े और चाय मंगवाई और अहसान के नीचे दबा हैड मास्टर खाने-पीने के बाद मेरे साथ ही चल पड़ा और राह में पड़ते अपने घर की ओर मुड़ते हुए हाथ मिला कर कहने लगा-
''ज्ञानी जी, अब आराम करो दो चार दिन घर में। हमने तो माता जी को भी कष्ट दिया, जिस बेटे के साथ वे परदेस में आए हैं, तुम्हें उनकी आँखों से दूर रखा। बस, नौवीं के पंजाबी के पेपर वाले दिन चक्कर मार जाना।''
जब घर पहुँचा, दिन बिलकुल छिप चुका था। माँ सचमुच उदास थी। अगले दिन जो चिट्ठी मिली, उसने हम दोनों को ही गम में डुबा दिया था। ताया के छोटे बेटे हेमराज की मौत हमारे लिए एक बड़ा सदमा थी। माँ तपा जाने के लिए उतावली थी। बंते के हाथ मुख्य अध्यापक को रुक्का भेज कर हम अगले दिन ही तपा के लिए चल पड़े थे।
00

माँ तो तपा में ही रह गई। अभी 'काणां-मकाणां'(मृत्यु के बाद सहानुभूति प्रकट करने की रस्म) जानी थीं। मेरा भी मन था कि मैं भी मकाणों वाले दिन साथ जाऊँ, पर भाई ने जो प्रोग्राम बनाया उसके अनुसार मैं तीसरे दिन जुआर के लिए चल पड़ा। रोटी-पानी का वही पुराना सिलसिला। मैं राशन ला कर दे देता, पकी पकाई रोटी मिलने लग पड़ी। बंता पेपर देकर अपने भाई के पास चला गया। कुछ दिन पश्चात् हमीरा को भी लक्ष्मण आकर ले गया। मेरा राज़दान उप-वैद्य राज कुमार कपूर भी नौकरी छोड़ कर चला गया था। स्कूल भी पेपरों के बाद सुनसान सा हो गया था। बस, इस समय यदि मेरा कोई सहारा था तो वह थीं किताबें। लायब्रेरी की सबसे अधिक पंजाबी की पुस्तकें मैंने मार्च से मई महीने में ही पढीं। कुछ दिन जालंधर बिता कर बंते के लौट आने पर हमारा इधर-उधर घूमने-घुमाने का भी चक्कर बना रहता।
एक बार हम दोनों हमीरा की ससुराल भी गए, पर मैंने जो सोच कर चढ़ाई-उतराई और खाइयों वाला बीस मील का सफ़र तय किया था, उसकी मेहनत मेरे काम न आई। एक रात वहाँ रहे भी। मेहमानों की भांति उन्होंने सेवा भी की, पर इस सेवा का ज़रा भी आनन्द नहीं आया।
00

जून माह से छुट्टियाँ होनी थीं। जुलाई में बी.एड. के दाख़िले होने थे। जुलाई से ही स्कूल 'टेक ओवर' हो जाना था। मुझे अस्थायी तौर पर पंजाबी टीचर की पोस्ट तो मिल सकती थी, पर अनट्रेंड होने के कारण स्थायी नियुक्ति की कोई संभावना नहीं थी। इसलिए बी.एड. में दाख़िला लेने का निश्चय कर मैं नौकरी छोड़ आया लेकिन छुट्टियों का आधा वेतन उन्होंने मुझे शायद दो कारणों से दे दिया। एक तो यह कि मैं उनके बहुत काम आया था और दूसरा यह कि गुरबचन सिंह दीवाना अभी भी उप मंडल शिक्षा अधिकारी था। उससे स्कूल वालों को अभी भी कई काम पड़ने थे। इसलिए वे मुझसे बनाकर रखना चाहते थे।
'जीना पहाड़ों का जीना' - जो गीत मैंने रेडियो पर सुना था, उस ज़िन्दगी का कुछ हिस्सा मैंने भी जीकर देख लिया था, पर जो याद मुझे आज भी उन्मत्त कर देती है और अभी भी मेरे पैर जुआर की ओर जाने को उत्सुक रहते हैं, उसका कारण है - लक्ष्मी की सुन्दरता और हमीरा की मुहब्बत।
मैं तीन बार फिर जुआर गया। उसका उल्लेख आगे करूँगा।
00

कोई ज़रूरी नहीं कि सुन्दर चेहरा ही मनुष्य को याद रहता है और मर्द को किसी सुन्दरी की सूरत। कुछ ऐसे चेहरे भी होते हैं जिनका भोलापन और कलाकारी किसी की ज़िन्दगी का ख़जाना बन जाती है। जुआर में मेरी उपस्थिति के पहले दिन वाला वह काला-सा, छोटे मुँहवाला लड़का जो नहिरी से मेरा सामान उठाकर मुझे स्कूल तक ले गया था, मेरी स्मृतियों में आज तक अंकित है। सेवादारी में उसका कोई मुकाबला नहीं था। पढ़ाई में बहुत अच्छा था और बड़ों की सेवा आदि करने में भी। वह जहाँ भी हो, खूब फले-बसे।
.एक तेली मुसलमान का लड़का था, छठी कक्षा में पढ़ता था। वह कमाल का गाता था। मद्धम कद और चपटे नयन-नक्श वाला वह बच्चू भी मुझे बहुत याद आता है। उसका एक गीत तो मैंने बीस-पच्चीस बार सुना ही होगा और उसके कुछ बोल तो मुझे अभी तक याद हैं :-
दिन चढ़ने जो आ ही गया मुन्नूआं
उठ ना स्कूले वे जाणा
वे मुन्नूआं उठ ना मदरसे वे जाणा।

हौरू तां पढ़-पढ़ अफसर बणि गए
तिंजो करनैल बणाणा
वे मुन्नूआं तिंजो जरनैल बणाणा।

कुछ अन्य पहाड़ी गीत मैंने अपने कांगड़ा और नदौण वास के दौरान लड़के-लड़कियों से सुने, उन गीतों के बारे में आगे बात करूँगा।
00

एक दिन रात में बंते ने जो हरकत की, वह उस समय तो मुझे कुछ अजीब लगी। अपना बिस्तर छोड़कर वह मेरे साथ आ लेटा था और वह चाहता था कि मैं उसके साथ वह सबकुछ करूँ जो लड़के आपस में करते हैं। लेकिन बाद में बी.एड. करते समय मुझे इस हरकत में कुछ भी अजीब या नाजायज़ महसूस नहीं हुआ। चौदह-पंद्रह वर्षीय लड़के को किसी के साथ समलिंगी रिश्ते में बंधने को मनोविज्ञान की पुस्तकों में एक स्वाभाविक रुचि बताया गया था। इस रुचि को कुरुचि में बदलने वाले कुछ बड़ी उम्र के लोगों के संबंध में मैं बहुत कुछ सुन चुका था। इस तरह के एक व्यक्ति से मेरा वास्ता भी पड़ा था पर मैं अपनी कामवासना को इस हद तक काबू में रखने में तो सफल रहा ही कि एक अध्यापक होते हुए किसी बच्चे अथवा किशोर को इस कीचड़ में सनने नहीं दिया। बड़े होकर मुझे यह अहसास हुआ कि ज़िन्दगी में यह भी मेरी एक प्राप्ति है।
जो लोग खच्चर-रेहड़े की सवारी के आदी हो जाते हैं, वे गाड़ी चढ़ना भूल जाते हैं। कई बार जिनकी गाड़ी छूट जाती है, वे फिर खच्चर-रेहड़े की तलाश करते हैं। पर याद रखो कि रेहड़ा रेहड़ा ही होता है और गाड़ी गाड़ी ही। गाड़ी यदि अपनी हो तो फिर बात ही क्या ! गाड़ी भी अगर एक ही ड्राइवर के हाथ में रहे, तभी ठीक है।
00
जब स्कूल के 'टेक ओवर' की बात चली और यह भी पता चला कि अनट्रेंड टीचरों को स्कूल के सरकारी होने पर स्थायी तौर पर नहीं रखा जाएगा तो मेरे अन्दर ट्रेड यूनियन वाला कीड़ा पता नहीं कहाँ से जाग पड़ा कि मैंने ज़िला कांगड़ा और कुल्लू के सभी प्राइवेट स्कलों के कहीं से पते एकत्र किए, कुछ अनट्रेंड अध्यापकों के नामों की सूचियाँ प्राप्त कीं और सबको 'हिली एरिया अनट्रेंड टीचर यूनियन' नामक संस्था बनाने की सूचना पोस्टकार्डों द्वारा दे दी। मीटिंग का दिन भी सुनिश्चित कर दिया। बीस से अधिक अनट्रेंड टीचर आ गए। बाकायदा संस्था का चुनाव कर लिया गया। सरकार से पत्र-व्यवहार का सिलसिला भी शुरू हो गया। अखबारों में ख़बरें भेजीं। उन दिनों में अंग्रेजी ट्रिब्यून, हिंदी का शायद वीर अर्जुन या वीर प्रताप, पंजाबी की अकाली पत्रिका और रणजीत ही चलते थे। सभी अख़बारों में ख़बरें भेजीं। जब ख़बर ट्रिब्यून में लगी तो कुछ और अनट्रेंड अध्यापकों ने भी मुझसे सम्पर्क कायम किया। शायद कुछ पल्ले पड़ भी जाता अगर मैं जनता हाई स्कूल, जुआर की नौकरी न छोड़ता। बाद में पता चला कि मेरे आ जाने के पश्चात् यूनियन अपने आप ही खत्म हो गई थी।
(जारी…)
00

Sunday, April 4, 2010

पंजाबी उपन्यास


''साउथाल'' इंग्लैंड में अवस्थित पंजाबी कथाकार हरजीत अटवाल का यह चौथा उपन्यास है। इससे पूर्व उनके तीन उपन्यास - 'वन वे', 'रेत', और 'सवारी' चर्चित हो चुके हैं। ''साउथाल'' इंग्लैंड में एक शहर का नाम है जहाँ अधिकतर भारत से गए सिक्ख और पंजाबी परिवार बसते हैं। यहाँ अवस्थित पंजाबी परिवारों के जीवन को बेहद बारीकी से रेखांकित करता हरजीत अटवाल का यह उपन्यास इसलिए दिलचस्प और महत्वपूर्ण है क्योंकि इसके माध्यम से हम उन भारतीय लोगों की पीड़ा से रू-ब-रू होते हैं जो काम-धंधे और अधिक धन कमाने की मंशा से अपना वतन छोड़ कर विदेशों में जा बसते हैं और वर्षों वहाँ रहने के बावजूद वहाँ की सभ्यता और संस्कृति का हिस्सा नहीं बन पाते हैं।



साउथाल

हरजीत अटवाल

हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव

॥एक॥

ट्रैफिक हेज़ एंड तक है। ऐसा ही होता है सदैव। फिर आज तो धूप भी कुछ ज्यादा ही है और ऊपर से शनिवार। ब्राडवे पर तो मेला लगा होगा। यहाँ से गुजरना वक्त खराब करने वाली बात है। जगमोहन भी जानता है कि एक घंटा तो आराम से खराब हो जाएगा। वह कार को घर के सामने खड़ा कर पैदल चलकर ही ब्राडवे तक जा सकता है। कुछ देर चलना ही तो पड़ेगा, पर चलने में वह बहुत आलसी है। वैसे भी उसका स्वभाव है कि एक बार बैठ गया तो बैठ गया, फिर उठना उसके लिए कठिन हो जाता है। हाँ, जोगिंग वह मीलों तक कर लेगा। ब्राडवे की तरफ तो वह वैसे भी कभी-कभार ही आया करता है। आज वह इसलिए आ रहा है कि उसे स्काईलिंक वालों से टिकटें उठानी हैं। मनदीप कुछ दिनों के लिए इंडिया जा रही है। वे स्काईलिंक वालों से ही टिकटें लिया करते हैं क्योंकि वे वीज़ा भी लगवा देते हैं। नहीं तो वीज़ा लगवाने के लिए भारतीय हाई कमिश्नर के दफ्तर जाना पड़ता है जो कि केन्द्रीय लंदन में है। एक बार वह और मनदीप गए थे। वहाँ जाना भी किसी मुहिम पर जाने की तरह है। पूरा दिन लग जाता है। बसें, रेलें, टयूबें(अंडर ग्राउंड रेल) पकड़ते जाओ, कार पार्क करने के लिए तो जगह मिलेगी ही नहीं। वक्त भी खराब करो और साथ ही भारतीय ब्यूरोक्रेसी का सामना भी करो। भारतीय हाई कमीशन वाले आपके साथ ऐसा बर्ताव करते हैं मानो आपके ऊपर कोई अहसान कर रहे हों। आपके काम से अधिक उन्हें अपने दोस्तों के साथ फोन पर रात में टेलीविज़न पर देखे प्रोग्राम के बारे में या फिर पाउंड के रेट के बारे में बात करना अधिक ज़रूरी होता है। इस मुल्क में रहते हुए जो कान 'थैंक्यू', 'प्लीज़' या 'सॉरी' सुनने के अभ्यस्त हो जाते हैं उनके लिए 'अबे', 'ओए' या 'क्या कहा तूने' सुनना कठिन हो जाता है। आपकी ऐसे लोगों का सामना करने की सिरदर्दी कुछ ट्रैवल एजेंट थोड़ी-सी फीस से ही दूर कर देते हैं। स्काईलिंक वाले फोन करके बता देते हैं कि टिकट और वीज़ा लगा पासपोर्ट तैयार हुए पड़े हैं। वह टिकट उठाने के लिए ही इस तरफ जा रहा है इसीलिए इस भीड़ में फंसा खड़ा है।
सुखी के क़त्ल के बाद तो वह इधर आता ही नहीं। उसे सुखी दिखाई देने लगती है। स्वीमिंग-पूल के फट्टे पर खड़ी सुखी। फट्टे को दो-तीन बार दबाते हुए पानी में छलांग लगाती सुखी। मछली की तरह फिसलती और फिर स्वीमिंग पूल के दूसरी ओर जा निकलती सुखी। सुखी के क़त्ल के समय पूरे साउथाल ने मुँह में उंगलियाँ डाल ली थीं। इस क़त्ल ने अजीब सा रोमांच पैदा कर दिया था पर किसी ने इस क़त्ल का बुरा नहीं मनाया था। सुखी के क़त्ल को पूरा साउथाल जैसे भी लेता हो, पर वह इसे बहुत गंभीरता से लेता है। उसके अन्दर बहुत कुछ टूट-फूट जाता है। उसकी हालत बीमारों जैसी हो जाती है। एक वर्ष हो चला है इस दुखांत को। अब जाकर वह कुछ संभला है पर यह घटना अभी भी ताज़ी है मानो कल ही घटित हुई हो। अभी भी मनदीप कहने लगती है-
''क्या लगती थी तुम्हारी वो ?... मामे की बेटी ?''
''तू तो पागलों जैसी बात करती है !''
''मैं नहीं, तुम पागलों जैसी बात करते हो, सारा साउथाल, सारी दुनिया थू-थू करती है उस पर, और तुम मुफ्त में ही सुध-बुध गंवाए बैठे हो।''
''मैं सारा शहर नहीं, मैं भीड़ नहीं।''
''मत हो, पर मूड ठीक रखो, तुम्हें पता है, हमें कितनी तकलीफ़ होती है। तुम्हारा खराब मूड पूरे घर का माहौल खराब कर देता है और लड़कों का भी व्यवहार बदल जाता है।''
अब तो वह ठीक है, फिर भी मनदीप नहीं चाहती कि वह ब्राडवे की तरफ जाए और लौट कर अजीब-सी बातें करने लग पड़े। वह जानती है कि जब वह किसी बात के विषय में सोचने लगता है तो सोचता ही चला जाता है। यदि स्काईलिंक के दफ्तर न जाना होता तो उधर जाने के लिए कभी न कहती।
ट्रैफिक आहिस्ता-आहिस्ता रेंगता है। रेडियो पर ट्रैफिक की ख़बरों में ब्राडवे के रॅश के बारे में बार-बार आगाह किया जा रहा है। वैसे भी लोगों को इस रॅश का पता है पर फिर भी आते हैं। यही सड़क आगे ईलिंग को जाती है और उससे आगे केन्द्रीय लंदन को, लेकिन इन गाड़ियों में ईलिंग या केन्द्रीय लंदन को जाने वाले लोग अधिक नहीं होंगे। शायद कोई भी न हो इन बसों के सिवाय। बहुत से लोग तो ईलिंग के लिए परिवर्तित रूट ले लेते हैं। इनमें से कुछ गाड़ियाँ स्थानीय लोगों की होंगी, कुछ इधर किसी काम से आए अथवा शॉपिंग के लिए आए लोगों की होंगी, बाकी तमाशबीन होंगे जो ब्राडवे का नज़ारा देखने के लिए ही आए होंगे। कई तो सिर्फ़ सलवार-सूट या साड़ी अथवा बिंदी वाली स्त्रियों को देखने के लिए आए हो सकते हैं। कुछ जगमोहन जैसे मज़बूरी में फंसे हुए भी। वह वक्त ग़ुजारने के लिए 'वास परवास' को स्टेयरिंग पर रख कर पढ़ने लगता है। 'वास परवास' साउथाल का प्रमुख साप्ताहिक परचा है। जगमोहन इसकी नीतियों से सहमत नहीं है, पर पढ़ता इसे ही है। इसमें स्थानीय और भारत से जुड़ी ख़बरे हुआ करती हैं।
ग्रैंड यूनीयन कैनाल का पुल आ जाता है। इस ऊँची जगह से आगे सड़क पर खड़ी कारों का नज़ारा और भी साफ़ दिखता है। रंग-बिरंगी कारें इकसार जुड़ी खड़ी हैं, खिलौनों की भाँति। जगमोहन मन ही मन सोचता है कि यह नज़ारा भी कौन-सा रोज़-रोज नसीब होता है। हँसता है।
धीरे-धीरे वह सरदार ज्वैलर्स के आगे आ जाता है। इसका मालिक बाहर खड़ा होकर ट्रैफिक देख रहा है बल्कि ताड़ रहा है मानो उसे कहीं जाना हो और ट्रैफिक को देख कर टाल रहा हो। वह सरदार उसका परिचित है। सरदार को गिला है कि ब्राडवे वाली ग्राहकों की भीड़ उस तक नहीं पहुँचती क्योंकि उसकी दुकान मुख्य बाज़ार से ज़रा बाहर की ओर पड़ जाती है। यहाँ तक पहुँचते-पहुँचते ग्राहकों की जेबें हल्की हो जाती हैं।
ट्रैफिक हचकोले खाता हुआ रेंग रहा है। कुछ हचकोलों के बाद स्काईलिंक का दफ्तर दिखाई देने लगता है। वह कार खड़ी करने के लिए जगह तलाशने लगता है। कहीं कुछ भी नहीं। दूर ट्रैफिक वार्डन की फौज़ी रंगी वर्दी दिखाई देने लगती है। ये ट्रैफिक वार्डन मानो जिद्द में आकर टिकट देते हों। मानो तनख्वाह के साथ-साथ इन्हें टिकट देने का भी कमीशन मिलता हो। साउथाल में ये ट्रैफिक वार्डन सबसे अधिक नफ़रत का पात्र बने हुए हैं। कई बार गर्म स्वभाव वाले टिकट मिल जाने पर इन्हें पीट भी देते हैं। वह बायीं तरफ वाली सड़क की ओर मुड़ जाता है। कार खड़ी करने के लिए यहाँ भी जगह नहीं है। स्काईलिंक के दफ्तर में उसका काम तो एक मिनट का ही है, पासपोर्ट और टिकट ही उठाने हैं। वह किसी के घर की ड्राइव-वे के सामने ही कार खड़ी कर दफ्तर की ओर दौड़ता है। हाँफता हुआ वापस लौटता है तो उस घर का व्यक्ति कार निकालने के लिए रुका खड़ा मिलता है। वह आँखें निकाल रहा है, जगमोहन उसे सॉरी-सॉरी कहे जा रहा है। उसे तसल्ली है कि मनदीप का पासपोर्ट और टिकट ले आया है। कार स्टार्ट करता पुन: ब्राडवे के ट्रैफिक के दरिया में शामिल हो जाता है। वह टिकट और पासपोर्ट पर लगे वीज़ा को चैक करता है कि सब ठीक तो है। अब उसे पहले जैसी उतावली नहीं है। उसे अच्छा लग रहा है कि मनदीप इंडिया जा रही है। दोनों बेटे उसके और करीब आएंगे। अंकल पाला सिंह कहता है कि इस मुल्क में पता नहीं किस समय क्या हो जाए। आँख के फेर में घर टूट जाते हैं। बाहर नौकरी करती औरत पता नहीं कब बरगला ली जाए, इसलिए बच्चों को जितना हो सके अपने संग जोड़कर रखो। किसी मित्र की कही एक अन्य बात उसे याद आने लगती है कि औरत अपने बच्चों को फौज़ बना कर पति के खिलाफ़ इस्तेमाल करती है। इसलिए बच्चों पर अपना इतना अनुकूल प्रभाव छोड़ो कि वे तुम्हारे खिलाफ़ न जाएं। यूँ तो उसका मनदीप के साथ रिश्ता किसी हद तक ठीक है, पर फिर भी एक धुकधुकी-सी हर वक्त उसके मन को लगी रहती है।
ब्राडवे पर अब इस्लामिक सेंटर खुल गया है। वह इसे पहलीबार देख रहा है। साथ ही, सिक्ख मिशनरी सेंटर है जो कि कुछ वर्ष पहले खुला था। आगे जा कर दायीं ओर प्रताप खैहरे का रेस्टोरेंट है जिस पर उसने अभी हाल ही में केसरी रंग करवाया है और सामने ही चौधरी मुश्ताक़ अली का हरे रंग वाला रेस्टोरेंट है। लोग कहते हैं कि यही हैं जो साउथाल में छोटे-छोटे लड़ाई-झगड़े करवा रहे हैं। इस समय तो कोई बड़ी समस्या नहीं है, पर बन सकती है। कई गंभीर सोच वाले लोग इसका हल खोजने की कोशिश भी कर रहे हैं, पर जुनूनी इनके हाथ मज़बूत कर रहे हैं।
ब्राडवे के फुट-वे पर कंधे छीलता रॅश है। कुछेक दुकानों के आगे लोग मेजों पर घड़ियाँ सजाए खड़े हैं और ग्राहक झुक झुककर कीमत और माल देख रहे हैं। लोगों के बैठने के लिए कुछ बेंच भी हैं जिनके ऊपर वाइनो-से दिखाई देते लोग हाथों में बियर के डिब्बे लिए बैठे हैं। मिठाई की दुकानों में निकाली जा रही जलेबियाँ खुशूब-सी बिखेर रही हैं। सेंटों से लथपथ स्त्रियों की सुगंध दूर-दूर तक जा रही है। उसे मेले जैसा यह माहौल अच्छा लगता है। सभी देसी चेहरे हैं। गोरा रंग देखने को भी नहीं मिलता। इसीलिए कई अंग्रेज मजाक करते हुए कहने लगते हैं कि साउथाल जाना हो तो पासपोर्ट की ज़रूरी है।
उसकी कार ग्रेवाल इम्पोरियम के सामने आ जाती है। इस शोरूम की अपनी शान है। यद्यपि ब्राडवे पर कपड़े की बहुत सारी दुकाने हैं, पर ग्रेवाल इम्पोरियम के सम्मुख वे कुछ नहीं। एक अन्य मशहूर डलहौज़ी साड़ी स्टोर है, पर उसका भी वह रौब नहीं है। ग्रेवाल इम्पोरियम की ओर ग्राहक खिंचा चला जाता है। इम्पोरियम के साथ ही मुड़ती सड़क पर रामगढ़िया गुरुद्वारा है जिसकी मान्यता आजकल बहुत बढ़ गई है। कोई नई टीम आई है पाठ और कीर्तन करने वालों की। औरतों के झुंड भागते ही जाते हैं। मनदीप के साथ काम करती एक औरत मनदीप को बताती है और मनदीप उसको। भारत की गरम राजनीति का या पंजाब के खराब हालात का इस गुरुद्वारे पर कोई असर नहीं पड़ता। शायद इसका कारण यह हो कि इसकी बागडोर रामगढ़िया बिरादरी के हाथ में है। अगर आपकी जाति तरखाण(बढ़ई)-मिस्त्री नहीं है तो आप इस गुरुद्वारे की कमेटी में शामिल नहीं हो सकते। कुछ भी हो, इस गुरुद्वारे में सब नरमदिल ही हैं जबकि साउथाल के कुछ अन्य गुरुद्वारों में तो आग बरसती है। वैसे अब हालात ठीक हैं, कुछ शांति है। मनदीप का माथा टेकने जाना उसको इतना डरावना नहीं लगता। कभी कभी मनदीप के मन में पैदा हुई श्रद्धा के कारण उसे भय महसूस होने लगता है कि उसकी सिगरेट पीने की आदत के कारण मनदीप घर में ही कोई बखेड़ा ही न खड़ा कर दे, पर अब तक सब ठीक है। कभी-कभार उसकी इस आदत पर मनदीप गिला करते हुए कहती है कि बच्चों पर भी इसका बुरा असर पड़ सकता है। जगमोहन अब बच्चों के सामने सिगरेट नहीं पीता। वह घर में सिगरेट बहुत कम पीता है, अगर तलब उठती है तो बाहर गार्डन में चला जाता है।
आगे राजा राज भोज है। उसके दिल में तार-सी फिर जाती है। सिर भारी-भारी होने लगता है। सुखी फट्टे को दबाती स्वीमिंग पूल में छलांग लगाती है और मछली बनकर दूसरे किनारे पर जा निकलती है। जहाँ हुसैन खड़ा है। हुसैन उसकी तरफ देखकर मुस्कराता है। सुखी पीछे की ओर तैरने लगती है। राजा राज भोज रेस्टोरेंट में सभी तरफ फट्टे लगे हुए हैं। हो सकता है कि पुलिस फिर से खोलने की इजाज़त न दी हो। संभव है सुखी के खून के छींटे अभी भी दीवारों पर हों। काश ! वह किसी तरह देख सकता इन छींटों को। उसे कुछ होने लगता है। उसका दिल करता है कि किसी तरह उड़ कर इस ट्रैफिक को पार कर ले और इस जगह से बहुत दूर चला जाए। वह सोचता है कि घर जाकर मनदीप को नहीं बताएगा कि यह रेस्टोरेंट देखते ही उसके अन्दर कुछ होने लगा था या नहीं, नहीं तो वह कहेगी कि सुखी अभी भी उसके अन्दर बैठी है।
फिर वह सोचने लगता है कि वह तो यूँ ही यह सब दिल को लगाये जाता है जबकि सारा शहर खुश घूमता है। वह गर्दन घुमा कर फट्टे लगे रेस्टोरेंट की तरफ पुन: देखता है, वहाँ कुछ भी नहीं है सिवाय पुराने पड़ चुके फट्टों या घसमैली दीवारों के। सुखी कहीं नहीं है। वह एक ख़बर है। ख़बरों का किसी से लम्बा नाता नहीं होता। फिर इस ख़बर को तो सालभर हो चला है। इतनी देर तो किसी ख़बर को अख़बार या टेलीविज़न वाले भी नहीं इस्तेमाल करते।
वह बत्ती से बायीं ओर मुड़ जाता है। लेडी माग्रेट रोड पर। मंदिर के करीब से गुजरता है। मंदिर का पुजारी मोहन लाल परसों शराब पीते हुए उसके साथ यूँ ही बहसता रहा था। मोहन लाल उससे इमीग्रेशन के बारे में सलाह लेता-लेता अपने इश्कों के विषय में बात करने लग पड़ता है। वह मोहन लाल के बारे में अधिक नहीं सोचता। कार दौड़ा लेता है। यहाँ ट्रैफिक बिलकुल नहीं है। वह जानता है कि मनदीप टिकट देखकर कितना खुश होगी। मनदीन के मम्मी-डैडी पहले ही गए हुए हैं। उन्होंने गाँव में जाकर पाठ रखवाना है इसलिए मनदीप जाने के लिए उतावली है।
मनदीप काम पर से लौट चुकी है। नवकिरण और नवजीवन बैठे कार्टून देख रहे हैं। दोनों ही जुड़वें लगते हैं जबकि किरण जीवन से एकसाल बड़ा है। जगमोहन बिना बोले मनदीप के हाथ में टिकट और पासपोर्ट पकड़ाते हुए दोनों बेटों के बीच में जा बैठता है और उन्हें अपने बदन के साथ कस लेता है। मनदीप कहती है-
''मूड ठीक नहीं लगता।''
''ब्राडवे के ट्रैफिक में फंसा दिया मुझको।''
''तुमसे किसने कहा था उधर से जाओ, घर आ जाते पहले और फिर स्काईलिंक चले जाते।''
''तू तो जानती है, घर आकर मुझसे नहीं निकला जाता।''
''जोगिंग करने जाते हो, उधर निकल जाते।''
''तुझे मालूम है आजकल वे दफ्तर जल्दी बन्द कर जाते हैं। और फिर इंडियन आँखों को जोगिंग अजीब लगती है, जोगिंग करने वाले को मैड कहते हैं।''
कहते हुए जगमोहन हँसता है। मनदीप उसकी तरफ ध्यान से देखती हुई सोचती है कि हँसी पूरी नहीं है, कहीं कुछ छूट गया है उसकी हँसी में। वह उसके करीब बैठते हुए पूछती है-
''जैग, क्या बात है ?... मुझे बताने वाली है।''
बात करती मनदीप उसके कंधे पर हाथ फेरती है। जगमोहन को उसका ऐसा करना अच्छा लगता है। उसके ऐसा करते ही वह बच्चा बन जाता है। वह कहता है-
''नहीं डार्लिंग, कोई बात नहीं।''
''तुम्हारी मर्जी।'' कहते हुए मनदीप उठ कर रसोई में चली जाती है। कुछ देर बाद जगमोहन ज़रा ऊँचे स्वर में कहने लगता है-
''राजा राज भोज अभी भी बन्द है।''
मनदीप लाउन्ज में आती हुई बोलती है-
''तो यह बात है।''
(जारी…)
00