समकालीन पंजाबी साहित्य की उत्कृष्ट कृतियों की तलाश

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Saturday, May 22, 2010

आत्मकथा



एक नेत्रहीन लेखक की आत्मकथा

धृतराष्ट्र
डॉ. एस. तरसेम
हिन्दी अनुवाद : सुभाष नीरव
चैप्टर-9(प्रथम भाग)

कांगड़ा की नौकरी

बी.एड. की परीक्षा के बाद मैं खाली तो नहीं रहा था। ज्ञानी की दो लड़कियों की ट्यूशन के कारण मैं स्वयं को खाली नहीं समझता था। भाई के मन में था कि अगर पहाड़ों में नौकरी मिल जाए तो अच्छा है। इस बात का पता मुझे उस वक्त चला जब हिमाचल प्रदेश में स्कूल अध्यापक के पदों का विज्ञापन अख़बार में छपा और भाई ने मुझसे अप्लाई करवा दिया। खेते पाली के लक्ष्मण दास मित्तल ने भी मेरे कहने पर अप्लाई कर दिया था। उन दिनों हिमाचल में नौकरी के लिए पंजाबी कम ही जाया करते थे। अन्य प्रान्तों से भी अर्जियाँ न पहुँचीं। इसलिए अध्यापक लगने के लिए वहाँ बी.एड. की शर्त भी ज़रूरी नहीं थी। लक्ष्मण को ज़ोर देकर मैंने ही अप्लाई करवाया था। सोचा था कि इकट्ठा इंटरव्यू पर जाएंगे और यदि रख लिए गए तो एक ही स्कूल में नियुक्ति करवाने की कोशिश करेंगे। अप्लाई करने के कुछ दिन बाद ही इंटरव्यू के लिए शिमला आने का निमंत्रण मिल गया। हम दोनों एक दिन पहले कालका मेल से शिमला पहुँच गए। गाड़ी कई सुरंगों में से गुजरी। जब सुरंग आती तो यात्री खिड़कियों के शीशे बन्द कर लेते। उन दिनों कोयले वाले इंजन हुआ करते थे जिसके कारण धुएं और कोयले के बारीक कणों से हमारा मुँह-सिर भर गया था, पर पहाड़ी दृश्य कमाल के थे। गगरेट से जुआर जाते हुए जिस तरह के पहाड़ आए थे, उन पहाड़ों की अपेक्षा ये पहाड़ अधिक ऊँचे भी थे, हरे-भरे भी और विभिन्न प्रकार के भी। यह विभिन्नता इन पहाड़ों की वनस्पति के कारण थी। लक्ष्मण ने कभी पहाड़ी यात्रा नहीं की थी। मैंने भी जुआर की नौकरी के समय ही पहाड़ों का मुख देखा था, पर शिमला के पहाड़ और जुआर की पहाड़ियाँ, दोनों का कोई मुकाबला नहीं था। जुलाई के महीने के बावजूद शिमला में इतनी भर ठंड थी कि कोट पहनना पड़ा था। तीन दिन शिमला में ठहरना पड़ा। मेरा बी.एड. का सहपाठी सुरिंदर चौधरी वहाँ एस.डी. स्कूल में मास्टर था। वह किसी दोस्त के यहाँ मेहमान था और हम उसके मेहमान जा बने। चौधरी का दोस्त भी और उसकी माँ भी अद्भुत व्यक्तित्व थे। तीन दिन उन्होंने हमें बड़े प्यार से रखा। हमने उनमें से किसी एक के माथे पर भी शिकन नहीं देखी थी। अब भी जब वे याद आ जाते हैं तो मन ही मन उनका शुक्रिया अदा करता रहता हूँ।
पहाड़ी लोगों के भोलेपन की यदि एक घटना साझा कर लूँ तो इसे व्यर्थ न समझना। बात इस तरह हुई कि एक पहाड़िन रोज़ दूध लेकर जाया करती थी। उसके सिर पर मटकी होती थी। जब वह मटकी में से दूध डालने लगी तो माताजी ने कहा-
''आपका दूध पतला है।''
''पानी ज्यादा डल गया होगा।'' पहाड़िन ने सहजता से कह दिया। भोलेपन की इससे अधिक खूबसूरत मिसाल और कौन सी हो सकती है।
इंटरव्यू ऐसी हुई जैसे आई.ए.एस. की हो। हम इन तीन दिनों को पहाड़ों की सैर समझ कर बेआस से लौट आए। हाँ, इन तीन दिनों में शिमला की बरसात, माल रोड की चहल पहल और अमीर सैलानियों की अठखेलियों का जो आनन्द लिया, उसे देखते हुए शिमला यात्रा कोई मंहगी नहीं थी।
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गुरू दत्त ऐंगले वैदिक हॉयर सेकेंडरी स्कूल, कांगड़ा के प्रिंसीपल की ओर से पंजाबी अध्यापक का जो विज्ञापन ट्रिब्यून में छपा, उसके लिए भी भाई ने आवेदन भेजने के लिए कहा। आवेदन बाद में किया, नियुक्ति पत्र पहले आ गया। कांगड़ा का लगभग आधा इलाका जुआर प्रवास के दौरान मेरा देखा हुआ था। बस उसी भरवाईं वाले अड्डे से पकड़नी थी जहाँ कभी जुआर के लिए बस लेने की खातिर परेशान होता रहा था। पर कांगड़ा उस समय पंजाब का एक ज़िला था और दुनिया का एक प्रसिद्ध ऐतिहासिक और भौगोलिक महत्व रखने वाला शहर भी। महाराजा रणजीत सिंह से पहले भी सिक्ख इतिहास में कांगड़ा का उल्लेख मैं पहले पढ़ चुका था। कांगड़ा में आए भूकंप के कारण भी कांगड़ा दुनिया भर में प्रसिद्ध था।
धार्मिक पक्ष से भी कांगड़ा की चर्चा मैंने अपने घर में पहले कई बार सुनी थी। बहुत से हिंदू परिवारों में बच्चे की बाल उतरवाई की रस्म किसी न किसी प्रसिद्ध देवी मंदिर में नवरात्रों के दिनों में करवाई जाती है। हमारे इलाके के बहुत से परिवार ज्वालामुखी या चिंतपुरनी बच्चे का मुंडन करवाते हैं लेकिन ज्वालामुखी की फेरी के दौरान वे कांगड़ा के देवी मंदिर में भी जाते हैं। इन मंदिरों के संबंध में हिंदू परिवारों में एक पौराणिक कथा प्रसिद्ध है। पौराणिक कथा के अनुसार शिवजी की पत्नी पार्वती के मायके में कोई धार्मिक उत्सव था। उत्सव का आरंभ यज्ञ-हवन से होना था। पिता ने पार्वती को उत्सव में इसलिए नहीं बुलाया कि भांग-पोस्त का सेवन करने वाला उसका पति शिव भी साथ आएगा। इसके बावजूद पति के बगैर पार्वती स्वयं उत्सव में पहुँच गई। यज्ञ हवन शुरू हो गया। शिव के अलावा सभी रिश्तेदार उपस्थित थे। पार्वती को इसमें अपना निरादर होता प्रतीत हुआ। उसने हवन की उठती लपटों में छलांग लगा दी। शिव का तीसरा नेत्र सब कुछ देख रहा था। वह तेजी से दौड़े और अर्द्ध-झुलसी पार्वती को हवन की अग्नि में से निकाल कर चल पड़े। पार्वती इतनी झुलस चुकी थी कि उसके शरीर के भिन्न-भिन्न अंग झड़ते चले गए। कहते हैं कि जिस स्थान पर पार्वती का धड़ शरीर से अलग होकर गिरा, वह स्थान कांगड़ा है, जहाँ अब मंदिर में पार्वती के सिर्फ़ धड़ के दर्शन होते हैं। इसको मंदिर में पिंडी कहते हैं।
नवरात्रों के आरंभ होने से पहले हर साल लोग मंदिर के पुजारियों के पास देशी घी जमा करवाते हैं। सारे घी को इकट्ठा करके उसे सौ बार पानी में धोया जाता है और फिर धड़ की शक्ल अर्थात् पिंडी बना ली जाती है। यह पिंडी काफी बड़े आकार की होती है। श्रद्धालू इसके आगे नवरात्रों में माथा टेकते हैं। नवरात्रों के बाद घी की बनी इस पिंडी के टुकड़े करके उन्हें श्रद्धालुओं में बांट दिया जाता है। सौ बार धोने के कारण घी ज़हर बन जाता है, इसलिए यह खाने के काम नहीं आता। कुछ लोग इसे सुरमे की तरह आँखों में डालते हैं। कुछ लोग इसे चर्मरोग की दवाई के रूप में इस्तेमाल करते हैं।
पार्वती के धड़ के गिरने तक की कहानी तो मैंने पहले सुन रखी थी, पर घी की पिंडी और इस मंदिर के पुजारियों और यहाँ के कई स्थलों के बारे में मुझे यहाँ आने के बाद ही पता चला।
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मैं 7 सितम्बर 1963 को दोपहर बाद स्कूल में पहुँचा था। आधी छुट्टी के बाद स्कूल की घंटी बजी थी। लेकिन उन्होंने मुझे सुबह ही उपस्थिति दे दी थी। लगता था मानो मेरे पहुँचने पर प्रिंसीपल को कुछ अधिक ही प्रसन्नता हुई हो। जनता हाई स्कूल, जुआर जैसी आवभगत यद्यपि यहाँ नहीं हुई थी, पर जितना भी सत्कार हुआ, वह कोई कम नहीं था। प्रिंसीपल रतनलाल मिश्रा कुर्सी से उठकर स्वयं बाहर आया और उसने मुझे गले लगाया। मुझे बाद में पता चला कि मेरे प्रति इतना स्नेह जो दिखाया गया है, वह एक तो इसलिए था कि पहले मैं सुखानंद आर्य हाई स्कूल में दो वर्ष से भी अधिक काम कर चुका था। दूसरा यह कि मैं इस इलाके में जुआर में नौकरी कर चुका था। तीसरा कारण यह भी था कि मैं बी.ए., बी.एड. हूँ और ज्ञानी यूनिवर्सिटी में तीसरा स्थान प्राप्त करके पास की थी। जब कि सच्चाई यह थी कि उन दिनों में हाई स्कूल में पंजाबी अध्यापकों के लिए निर्धारित शैक्षणिक योग्यता अर्थात मैट्रिक, ज्ञानी, ओ.टी. रखने वाला भी यहाँ आने को तैयार नहीं था। मैं बी.एड. था और यहाँ आने से पहले अपनी अर्जी में कम से कम 150 रुपये वेतन की मांग की थी जो उन्होंने नियुक्ति पत्र में बिना किसी शर्त के मंजूर कर ली थी। यह बात बाद में पता चली कि मिश्रा जी पक्के आर्य समाजी हैं और मुझे भी आर्य समाजी और हिंदू होने के कारण इतना मोह करते हैं। क्योंकि हिंदू पंजाबी अध्यापक उन दिनों में कांगड़ा और कुल्लू ज़िलों में हाथ में सूरज लिए भी नहीं मिलते थे।
उपस्थित होने के बाद जिस अध्यापक के साथ सबसे पहले मेरा आत्मीय रिश्ता बना वह था साइंस मास्टर जसबीर सिंह। उसके पिता सेवा सिंह वहाँ थानेदार थे। एक तो पंजाबी अध्यापकों की तरह साइंस मास्टरों का भी इस इलाके में नौकरी करने के लिए आना आम नहीं था। साइंस और मैथ के अध्यापकों को तो उन दिनों अपने इलाके में ही अक्सर नौकरी मिल जाया करती थी। जसबीर भी यहाँ कुरूक्षेत्र युनिवर्सिटी की चार वर्षीय बी.एससी., बी.एड. करने के तुरन्त बाद ही स्कूल की ज़रूरत और घर की सहूलियत के कारण आ लगा था। शुद्ध पंजाबी होने के कारण वह इस स्कूल में मेरा पहला मित्र बना। उसने ही मुझे कमरा किराये पर लेकर दिया। स्कूल बन्द होने के बाद शुरू में वह अक्सर मेरे संग घूमने जाया करता। कोई और पंजाबी न होने के कारण हम एक दूसरे का आसरा बन गए थे। कुछ दिनों पश्चात् एक प्राइमरी स्कूल अध्यापक गोपाल सेखड़ी और सोशल स्टडीज़ मास्टर हरीश के साथ भी गहरी दोस्ती हो गई थी। सेखड़ी गुरदासपुरिया पंजाबी था और उसको किसी अच्छे बड़े मिल मालिक की बेटी से इश्क फरमाने के एवज़ में मिल की बढ़िया नौकरी से हाथ धोने पड़े थे और यहाँ वह वक्तकटी के लिए ही आया था। हरीश का पिछोकड़ पाकिस्तानी पंजाब का था और देश विभाजन के बाद उसके माँ-बाप अलीगढ़ आ टिके थे। यू.पी. में उन दिनों बी.ए., बी.एड. अध्यापकों को कोई पूछता नहीं था। हँसते हुए एक दिन उसने स्वयं ही बताया था -
''वहाँ तो यार सोशल स्टडीज़ मास्टर को कोई घास भी नहीं डालता।''
शायद यू.पी. की बेरोजगारी के कारण वह इतनी दूर प्राइवेट स्कूल की नौकरी करने के लिए आया था। जहाँ तक मैं समझता हूँ कि कांगड़ा में मेरी प्रारंभिक दोस्ती में इन तीनों के शामिल होने का कारण हम सबका पंजाबी होना था। बाकी सब अध्यापक पहाड़ी थे या लम्बे समय से यहाँ टिके हुए थे। वैसे भी ये पहाड़ी अध्यापक और विद्यार्थी पंजाबी पढ़ना पसंद नहीं करते थे। इस स्कूल के अध्यापक पंजाबी अध्यापक को कुछ समझते ही नहीं थे। इसलिए मैं प्रारंभिक दिनों में स्कूल में भी और स्कूल से बाहर भी जसबीर और सेखड़ी के साथ ही बातचीत करके दिल लगाने का यत्न कर रहा था। दिल यद्यपि पूरा नहीं लगा था परन्तु भाई को दिल लगने के विषय में एक महीने में तीन पत्र लिख चुका था।
प्रिंसीपल मिश्रा को सांस्कृतिक कार्यक्रमों का अच्छा शौक था। स्टाफ मीटिंग में अक्तूबर माह में सांस्कृतिक कार्यक्रम करने की बात छिड़ी तो मैंने किसी विषय पर डिबेट रखने का सुझाव दे डाला। जो बोले, वही कुंडा खोले। प्रिंसीपल ने मुझे ही सारे कार्यक्रम का इंचार्ज बना दिया। नोटिस लगाने तक मेरे पास दस विद्यार्थियों के नाम आ चुके थे। इनमें से पाँच विद्यार्थियों ने विषय के पक्ष में बोलना था। विषय था- 'विज्ञान मनुष्यता के लिए वरदान है'। शेष पाँच विद्यार्थियों को इसके विरोध में बोलना था। अन्त में, एक अध्यापक कुंदन लाल शर्मा ने विषय के पक्ष में और पीतांबर दास ने विषय के विरोध में बोलना था। मंच संचालन मेरे पास था। वहाँ पंजाबी दूसरी भाषा थी। माध्यम हिन्दी था। इसलिए सारी डिबेट का संचालन भी हिन्दी में करना था। एक हज़ार से अधिक विद्यार्थियों को साठ से अधिक अध्यापकों में से अगर प्रिंसीपल के साथ मंच पर कोई बैठा था तो वह था एक तरफ वाइस प्रिंसीपल साईं दास और दूसरी तरफ मैं स्वयं। यह इस स्कूल में मेरे लिए परीक्षा की पहली घड़ी थी। मैं भयभीत था कि हिन्दी में मंच संचालन करने में मैं सफल भी हो सकूँगा या नहीं, पर जैसे ही मैंने निम्न काव्य पंक्तियों से मंच संचालन आरंभ किया -
दिल को दुखा के और के इतराना छोड़ दे
घावों पे नमक छिड़क के मुस्कराना छोड़ दे
शब्दों के तीर मार कर तड़पाना छोड़ दे
क्या रखा है कुकर्मों में, कोई नेक काम कर
हे मानव ! तू मानव से प्यार कर।

तालियों की गूंज से मेरे भीतर की सारी हीनभावना मानो कहीं उड़ गई हो। इसके पश्चात् जब ''अध्यक्ष महोदय वाइस प्रिंसीपल आदरणीय साईं दास जी, अध्यापक बंधुओ तथा प्रिय विद्यार्थियो...'' के सम्बोधन के साथ ये वाक्य भी बोले- ''हमारे विद्यालय के लिए यह गर्व की बात है कि आज हम एक ऐसे विषय पर तर्क-वितर्क करने जा रहे हैं जिस पर नि:संदेह दो टूक निर्णय तो नहीं हो सकता, मगर संवाद अवश्य रचाया जा सकता है।'' इस प्रकार हिन्दी में बोलते हुए, हिन्दी, पंजाबी, उर्दू के शेर, काव्य-पंक्तियाँ और टिप्पणियों से मैंने मंच पर जिस तरह रंग बांधा, उससे पंजाबी अध्यापक होने के कारण मुझे ज्ञानी जी कहने का सिलसिला धीरे-धीरे बन्द हो गया और उपस्थिति रजिस्टर पर मेरा नाम तरसेम लाल गोयल लिखा होने के कारण सब अध्यापक मुझे गोयल साहब कह कर बुलाने लग पड़े और मेरे लिए यह संबोधन ही विद्यार्थियों में प्रचलित हो गया। यहाँ मैं यह नहीं कहना चाहता कि मुझे ज्ञानी जी कहलवाने में चिढ़ थी या इसमें मेरी हेठी थी, मैं बताना चाहता हूँ कि उस इलाके में पंजाबी अध्यापक रखा जाना कानून की पालना के लिए आवश्यक था और पंजाबी अध्यापक को सत्कार की दृष्टि से नहीं देखा जाता था। उनके लिए गुरुद्वारे का अर्द्ध पढ़ा ग्रंथी और स्कूल का पंजाबी मास्टर दोनों ‘ज्ञानी जी’ थे और दोनों के प्रति उनका आदरभाव ऊपरी ही था।
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स्कूल में सातवी कक्षा से आगे की कक्षाओं को पंजाबी मैं ही पढ़ाता था। किसी कक्षा के दो से कम सेक्सन नहीं थे। मेरे पढ़ाने के ढंग ने केवल विद्यार्थियों को ही नहीं प्रभावित किया था, अपितु अध्यापक और खास तौर पर प्रिंसीपल भी मेरे से बहुत प्रभावित थे। एक महीने में ही मेरा स्थान स्कूल के चार-पाँच प्रमुख अध्यापकों में आ गया था। विचार-विमर्श के लिए प्रिंसीपल अक्सर मुझे बुलाता। मैं मन से यह चाहता था कि मुझे न बुलाया जाए, पर प्रिंसीपल अक्सर टाइम टेबल और अन्य प्रबंधकीय कार्यों के लिए मुझे बुला ही लेता था। स्कूल बन्द होने के बाद मेरी संगत सेखड़ी और जसबीर के साथ होती। सेखड़ी अपने इश्क की कहानी की कोई न कोई तार अवश्य छेड़ बैठता। जसबीर के पास भी लड़कियों की ही बातें हुआ करतीं। मैं चुपचाप सुनता भर रहता। जसबीर अक्सर कहता रहता कि मैं भी अपने इश्क की कहानी सुनाऊँ लेकिन मैं सुनाता तो तब न जब मेरे पास उसकी तरह इन कहानियों का भंडार होता।
एक दिन जसबीर मुझसे बोला- ''जैसे मैं झूठ बोलकर उसे लड़कियों की बातें बताता हूँ, उसी तरह तू भी कोई सुना दिया कर।'' मुझे लगा कि थानेदार का बेटा अब तक ये सारी कहानियाँ सुना कर मुझसे इस तरह की कहानियाँ सुनना चाहता है। मैं पहले से अधिक सचेत हो गया। अगर एक दो ऐसी घटनाएँ बतानी भी थीं तो भी मन ही मन न बताने का फैसला कर लिया।
सबसे बड़ी दिक्कत मुझे रोटी की थी। स्कूल का हॉकी ग्राउंड पार करके शहर की मुख्य सड़क पर आगे जाकर कुछ होटल थे। दो वक्त की रोटी मैं पंडित के एक होटल पर खाया करता। कमरे हालांकि अलग अलग थे, पर मेरे और सेखड़ी के पास चाय बनाने का प्रबंध साझा था। सेखड़ी सवेरे देर से उठता क्योंकि रात में वह पढ़ता रहता था। मैं पौ फटते ही उठकर सैर के लिए चला जाता। शाम को भी सैर को जाता लेकिन दिन छिपने से पहले पहले अपने कमरे में पहुँच जाता। अगर रात में एक दो बार बाहर जाना भी पड़ता तो टार्च संग लेकर जाता। सेखड़ी इतना ज़हीन था कि उसने ढाई हफ्तों में ही यह अंदाजा लगा लिया था कि मुझे रात में पढ़ने-लिखने में ही नहीं, बल्कि चलने-फिरने में भी मुश्किल होती है। लेकिन उसके अन्दर मिल में की गई नौकरी की हेकड़ी भी थी जिसके कारण उसने मुश्किल समय में कभी भी मेरी कोई मदद नहीं की थी।
(जारी…)
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Sunday, May 16, 2010

पंजाबी उपन्यास


'साउथाल'' इंग्लैंड में अवस्थित पंजाबी कथाकार हरजीत अटवाल का यह चौथा उपन्यास है। इससे पूर्व उनके तीन उपन्यास - 'वन वे', 'रेत', और 'सवारी' चर्चित हो चुके हैं। ''साउथाल'' इंग्लैंड में एक शहर का नाम है जहाँ अधिकतर भारत से गए सिक्ख और पंजाबी परिवार बसते हैं। यहाँ अवस्थित पंजाबी परिवारों के जीवन को बेहद बारीकी से रेखांकित करता हरजीत अटवाल का यह उपन्यास इसलिए दिलचस्प और महत्वपूर्ण है क्योंकि इसके माध्यम से हम उन भारतीय लोगों की पीड़ा से रू-ब-रू होते हैं जो काम-धंधे और अधिक धन कमाने की मंशा से अपना वतन छोड़ कर विदेशों में जा बसते हैं और वर्षों वहाँ रहने के बावजूद वहाँ की सभ्यता और संस्कृति का हिस्सा नहीं बन पाते हैं।

साउथाल
हरजीत अटवाल
हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव

॥ चार ॥
मकहमे वाले बता रहे हैं कि दर्जा हरारत मनफ़ी पर है। प्रदुमण सिंह का परिवार जहाज़ में निकलते ही ठंड की लपेट में आ जाता है। जहाज़ में तो कुछ महसूस ही नहीं होता। अब एअरपोर्ट के अन्दर वे सब कांप रहे हैं। प्रदुमण सिंह ने दो पैग लगा रखे हैं इसलिए ठीक है, पर ज्ञान कौर और बच्चे ठंड से दुखी हैं। प्रदुमण सिंह सोच रहा है कि ये कभी शुरूआती दिनों में नहीं आए यहाँ। जिन दिनों में हीटिंग का खास प्रबंध नहीं हुआ करता था और ठंड भी बहुत पड़ती थी। एक बार बर्फ़ पड़ती तो पूरा मौसम ही जमी रहती। फिर बच्चे अभी डेढ़-एक साल पहले ही तो इंडिया गए थे, फिर भी इस मौसम को इतना पराया मान रहे हैं।
वे कस्टम से बाहर निकल कर इंतज़ार करती भीड़ में कोई अपना खोजने लगते हैं। कारा अपने लम्बे कद के कारण लोगों के पीछे खड़ा होने के बावजूद प्रदुमण को दिखाई दे जाता है। वह हाथ हिलाकर अपनी हाज़िरी लगवाता है। प्रदुमण एक बार फिर अपने बच्चों की तरफ देखता है। बड़ा राजविंदर बहुत खुश है। वैसे तो सभी इंडिया से ऊबे हुए थे, पर राजविंदर बागी हुआ पड़ा था। यदि उसके हाथ पासपोर्ट आ जाता तो वह पहले ही लौट आता।
कारा प्रदुमण को बांहों में कसकर मिलता है। प्रदुमण उसे यूँ बांहों में कसता है मानो सदियों का बिछड़ा हो। कारा बच्चों को भी जफ्फी डालकर मिलता है। ज्ञान कौर का तो उसे देखकर रोना ही निकल जाता है। कारा ज्ञान कौर से ट्राली पकड़कर उसे धकियाते हुए कार पॉर्क की ओर चल देता है। सब चुप हैं। कोई कुछ नहीं कह पा रहा। आख़िर, कारा ही कहता है-
''ठंड बहुत हो गई, आल आफ सडन बर्फ़ पड़ी और हवा चल पड़ी।''
प्रदुमण हाँ में सिर हिलाता चलता रहता है। कारा फिर पूछता है -
''वहाँ मौसम कैसा है ?''
''मौसम तो ठीक है, हालात ही साले खराब हैं।''
''हाँ, ये अखबारें भी खून-खराबे से भरी पड़ी होती हैं।''
''साली आग लगी पड़ी है। पंजाब तो पहले वाला रहा ही नहीं।''
प्रदुमण बात करता हुआ पगड़ी ठीक करने लगता है। ज्ञान कौर बोलती है-
''कारे, बहुत बुरी लैफ(लाइफ़) है। जीने का कोई हज नहीं वहाँ। मैंने तो यहाँ पहुँचकर इंग्लैंड की धरती को नमस्कार किया है और रब्ब का शुक्र मनाया है कि घर पहुँचे।''
बात करते हुए उसका गला भर आता है। चारों बच्चे आसपास देखते हुए खुश हैं। आपस में हँसी-मजाक भी कर रहे हैं। वे कारे की मर्सडीज़ के पास आ पहुँचते हैं। कारा बूट खोल कर सामान रखने लगता है। सामान अधिक है। फिर बन्दे भी एक कार से अधिक हैं। कार छोटी पड़ रही है। प्रदुमण कहता है-
''तुम चलो, मैं एक सौ पाँच लेकर आ जाता हूँ।''
''दुम्मणे, ख़याल ही नहीं किया, दूसरी कार भी घर पर ही थी और जीतो भी खाली थी। अब फोन करके बुला लेते हैं।''
''किसलिए, उसे क्यों तकलीफ़ देनी है। मुझे क्या राह नहीं मालूम, तू फिक्र न कर, घर के सामने तो एक सौ पाँच जाती है, तुम चलो।''
गाँव से यद्यपि वे खाली हाथ ही चले थे। कपड़े आदि भी दिल्ली आकर ही खरीदे हैं, फिर भी एक बैग से ही सामान काफी हो जाता है। कार में वे मुश्किल से फंस कर बैठते हैं।
प्रदुमण सिंह गले में बैग लटकाये बस-स्टॉप की ओर चल पड़ता है। इतने समय में कुछ भी नहीं बदला। एअरपोर्ट पर होने वाली भीड़ में कुछ वृद्धि हुई है। इतनी ठंड में भी लोग सफ़र करने में गुरेज नहीं कर रहे। प्रदुमण सिंह के बैग में रम की बोतल है। वह टॉयलेट में जाकर बोतल को मुँह लगा लेता है। उसका शरीर टूटा पड़ा है। इतने घंटे का सफ़र और ऊपर से पहली मानसिक तकलीफ़। वह टॉयलेट से बाहर निकल कर आसपास देखता है। उसे सबकुछ प्यारा-प्यारा लग रहा है। यह सारा एअरपोर्ट ही मानो उसका अपना हो। कितने चक्कर लगते रहे हैं उसके इस एअरपोर्ट के। कोई इंडिया से आ रहा है और कोई इंडिया को जा रहा है। साउथाल एअरपोर्ट के नज़दीक होने के कारण मिडलैंड वाले रिश्तेदार उसके पास आकर ही डेरा जमाते थे। वह ज्ञान कौर को दुकान पर खड़ी करके एअरपोर्ट जाने में मिनट लगाता। इंडिया से आए परिचित का फोन जो आ गया होता कि आकर एअरपोर्ट से ले जाओ।
एक सौ पाँच नंबर बस तैयार खड़ी है। वह जेब में हाथ डालता है। कुछ रेजगारी वह संभाल कर लाया है। ड्यूटी फ्री में से कुछ सामान खरीदने के बाद उसमें से भी कुछ बची है। बस का ड्राइवर पंजाबी ही है। प्रदुमण पूछता है-
''एलनबी रोड के कितने पैसे ?''
''सेवेंटी पैंस।''
''बढ़ गए !''
कहता हुआ वह सत्तर पैंस देकर टिकट ले लेता है। वह ऊँची जगह वाली सीट पर बैठता है ताकि आसपास का नज़ारा दिखता रहे। बर्फ़ ने सबकुछ दबा रखा है। कारा बता रहा था कि ठंड के कारण लोगों के घर के पाइप फट रहे हैं। एक पल के लिए तो प्रदुमण को अपने घर के पाइपों की भी चिंता सताती है जिसे काउंसल को किराये पर दे रखा है। बस एअरपोर्ट पीछे छोड़ती जाती है। ग्रेट वैस्ट रोड आ जाती है। बस रुकती है। सवारियाँ उतरती-चढ़ती हैं। उसका कोई परिचित चेहरा नहीं मिलता। उसे आशा है कि कोई न कोई परिचित अवश्य मिल जाएगा। बस बाथरोड से होती हुई साउथाल लेन पर आ जाती है। यहाँ नई लाइटें लगी हैं। प्रदुमण मन ही मन कहता है कि इनकी ज़रूरत थी भी। आगे एम.फोर का पुल और बायीं ओर इंटरनेशनल मार्केट, दायीं तरफ हैल्थ क्लब। प्रदुमण यह सब गौर से देखता जाता है। जैसे लौट कर पहली बार गाँव को गए को महसूस होता है, वैसे ही उसे लग रहा है - साउथाल, अपना साउथाल। उसके मन में ये शब्द बार-बार आ रहे हैं। फिर वह मन ही मन हँसता है - अपना साउथाल, कैसा अपना साउथाल। यह तो तब पता चलेगा जब गोरे पूंछ उठवाएंगे। कभी गाँव भी तो अपना हुआ करता था। गाँव का नाम मुँह में आते ही सब कुछ कसैला हो जाता है, कड़वाहट से भरा हुआ। वह उदास होने लगता है। आगे छोटे से राउंड-अबाउट से बस दायीं ओर वैस्टर्न रोड पर मुड़ जाती है। गाँव की रील अभी भी उसके मन में चल रही है। गाँव का अपना होने का भ्रम था। कितना कुछ खरीदा हुआ है वहाँ- खेत, प्लाट, दुकानें। फिर भी छोड़कर भागना पड़ा। यहाँ से भागकर कहाँ जाएगा वह। भागेगा भी कैसे ? चारों ओर तो समुंदर है। नहर के पुल की चढ़ाई उसकी तंद्रा भंग करती है। नहर ठंड के कारण जमी पड़ी है। यह इतनी सख्त रूप में जमी पड़ी है कि लोग इसे पैदल पार करने का आनन्द ले रहे हैं।
बायीं ओर रविदास गुरुद्वारे की नई इमारत है। आगे दो दुकानें भी नई खुली प्रतीत होती हैं। वैस्टर्न रोड पर भी पहले से अधिक रौनक है। आगे बत्तियाँ हैं। सीधे जाएँ तो बड़ा गुरुद्वारा है-हैवलक रोड वाला। दायें किंग स्ट्रीट और बायें साउथ स्ट्रीट। बस बायें मुड़ती है। सूरज निकल आया है। कहीं कहीं बर्फ़ शीशे की तरह चमक रही है, शीशे की तरह ही सूरज के अक्स की चमक देती हुई। बायीं ओर मंदिर को भी पीला रंग अभी नया किया प्रतीत होता है। दायीं तरफ पॉर्क का घास भी सफेद हुआ पड़ा है। सड़कों के ऊपर की बर्फ़ तो अब कीचड़-सी बनी पड़ी है जैसे बारिश होने पर कच्ची सड़क हो जाया करती है। साउथाल का स्टेशन आ जाता है। वह सोचता है कि पंजाबी में लिखे नाम की स्पेलिंग अभी भी गलत है। 'साउथाल' और 'साउथहाल' लिखा हुआ है। पता नहीं किस अधपढ़ ने यह सुझाया होगा और अभी भी किसी की दृष्टि में यह गलती क्यों नहीं आ रही है। बायें हाथ 'वास-प्रवास' का दफ्तर है। पीला ध्वज झूल रहा है, साथ ही यूनियन जैक भी। दायीं तरफ गुरुद्वारा है। गुरुद्वारे के सामने नंगी औरत की तस्वीर वाला इश्तिहार लगा हुआ है और साथ ही 'देसी हाता' नाम का पब है जिस में कुर्सियाँ, मेज और बियर आदि सबकुछ पंजाबी अंदाज में है। यहाँ रुपये में भी बियर खरीदी जा सकती है। शाम को भारत से आए गवइये का अखाड़ा लगता है। दोपहर को स्ट्रीपीज़ होती है अर्थात नंगा नाच।
आगे चलकर बस खाली हो जाती है पर उतनी ही सवारियाँ फिर चढ़ जाती हैं। ब्राडवे की बत्ती पर बस रुकती नहीं क्योंकि ये ग्रीन हैं। आगे दायें हाथ पर मंदिर के आगे सीमेंट की गऊएं खड़ी कर रखी हैं। जब वह भारत गया था तो सुरिंदर शर्मा नाम का व्यक्ति इन गऊओं का चढ़ावा चढ़ाना चाहता था।
कार्लाइल रोड पर बस ने दायीं ओर मुड़ना है। बायीं ओर जगमोहन का घर है। जगमोहन उस के भाई का दामाद है। उसके साथ भी जगमोहन के अच्छे सम्बन्ध हैं। पहले वह जगमोहन को ही फोन करना चाहता था कि एअरपोर्ट पर आकर ले जाए पर फिर उसने सोचा कि कारा ज्यादा मददगार साबित हो सकता है।
कारा बोतल खोलकर उसका इन्तज़ार कर रहा है। प्रदुमण दरवाजे की घंटी बजाता है तो कारा वहीं उसे ब्रांडी का पैग पेश करता है। ज्ञान कौर और बच्चे चाय पी कर गरम हुए बैठे हैं। लाउन्ज में आता कारा प्रदुमण से कहता है-
''वैलकम बैक टु साउथाल।''
''थैंक्यू कारा, तेरे होते घरवालों की तरह आ बैठे हैं।''
प्रदुमण कारा का धन्यवाद करता है। कारा कहता है-
''दुम्मणे, भाई किसलिए होते हैं। यह तो अगर मैं इंडिया होता, जैसे तेरे पर मुसीबत पड़ी थी, सिरधड़ की बाजी लगाकर तेरी हैल्प करता।''
कारा प्रदुमण के मामा का पुत्र है। वे इकट्ठे ही इंग्लैंड आए थे और सदैव ही करीब-करीब रहते हुए एक दूसरे के काम आते रहे हैं। एक दूसरे के साथ खड़ा होते हैं। प्रदुमण आपबीती उसे धीरे-धीरे बताना चाहता है। वह दो शब्दों में बात खत्म नहीं करना चाहता। अपना पैग खत्म करता हुआ वह कहता है-
''कारे, और यहाँ की खैर-खबर सुना।''
''सब ठीकठाक है। सब चढ़ती कला में है। बस, उधर इंडिया से ही टैरेरिस्टों की वारदातें पढ़ पढ़ कर मन खराब होता रहता है। बाकी सब लोहे जैसा है।''
''ये साधू सिंह की उधर बड़ी चर्चा रही है।''
''हाँ, उसने अपनी लड़की जो काट दी।''
''था तो नहीं ऐसा वो। देखने में शरीफ-सा लगता था।''
''हाँ, फिर बेटी की बदबख्ती झेली नहीं जाती थी, इसके अलावा और कोई चारा भी नहीं था।''
''अब तो न्यूज़ में आया था कि सजा हो गई।''
''हाँ, यह बात बुरी हुई। उम्र कैद हो गई। हम तो सोचते थे कि डाइमेनशन लायबिलिटी के कारण बचाव हो जाएगा। पर जज होस्टाइल हो गया। यहाँ की सिस्टर इनहैंड्ज ने जुलूस जो निकाल दिया।''
''यह क्या बला है ?''
''यह औरतों का एक संगठन बना हुआ है। कहता है कि हमें औरतों के हकों की रक्षा करनी है। ये इकट्ठा होकर अदालत के आगे जुलूस निकालती रहीं इसलिए जज को उम्र कैद की सज़ा करनी ही पड़ी।''
''उम्र कैद तो होनी थी, क़त्ल है आख़िर।''
''हाँ, हम सोचते थे कि मैन स्लाटर में आ जाता तो कुछ रियायत हो जाती और फिर कोई खास गवाह भी नहीं था।''
''सरेआम लड़की को काट दिया और गवाह क्यों नहीं होंगे।''
(जारी…)
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Sunday, May 9, 2010

आत्मकथा



एक नेत्रहीन लेखक की आत्मकथा

धृतराष्ट्र
डॉ. एस. तरसेम
हिन्दी अनुवाद : सुभाष नीरव
चैप्टर-8(शेष भाग)


मैंने भी कॉलेज का मुँह देखा

मन पर जिस बात का बोझ होता है, वह बात आम तौर पर पहले हो जाती है। पढ़ने आए एक विद्यार्थी ने सुनानी तो यहाँ अपने कॉलेज की कहानी थी, पर छेड़ बैठा अपने घर का किस्सा। लेकिन नींव पर ही कुछ खड़ा हो सकता है। नींव के बग़ैर इमारत के बारे में सोचा भी नहीं जा सकता। इस अध्याय के कुछ पृष्ठ तो अगले वृत्तांत की नींव ही समझो।
कालेज में मेरे लिए सब कुछ नया नया ही था। मेरे अन्दर एक हीन भावना भी अवश्य होगी। उसका आधार मेरी विद्या प्राप्ति की पृष्ठभूमि से जा जुड़ता है। जिसने पूरी तरह स्कूल की पढ़ाई का आनन्द भी न उठाया हो, वह कॉलेज के माहौल में इतनी जल्दी कैसे घुल मिल सकता है। सो, पहला महीना मैंने प्रोफेसरों और कुछ विद्यार्थियों से जान-पहचान में ही बिता दिया। कुछ प्रोफेसरों के दिल में आरंभ में मेरे प्रति लगाव इसलिए बढ़ गया था क्योंकि मेरा भाई एक वर्ष पहले ही यहाँ से बी.एड. करके गया था। नरम स्वभाव और सुयोग्य होने के कारण वह सब अध्यापकों की प्रशंसा का पात्र था। वह 36 साल का था जब उसने बी.एड. में दाख़िला लिया था। इसलिए भी सब प्रोफेसर उसका बड़ा सम्मान करते थे। पढ़ने में ही नहीं, वह खेलों और सांस्कृतिक आयोजनों में भी आगे रहता था। वह वॉलीबाल और बैडमिंटन का अच्छा खिलाड़ी था। मंचीय कविता का धनी था। धैर्य के साथ बोलने में उसका मुकाबला कोई प्रोफेसर भी नहीं कर सकता था। अंग्रेजी पर उसकी इतनी पकड़ थी कि अंग्रेजी में लेक्चर देते समय कुछ प्रोफेसर भी उससे झेंपते थे। उस समय बी.एड. की शिक्षा और परीक्षा का माध्यम अंग्रेजी था और अंग्रेजी पढ़ने, लिखने और बोलने में हरबंस लाल गोयल का कोई सानी नहीं था। कुछ भरीपूरी देह और मुझसे ऊँचे कद के कारण भी सभी प्रोफेसर उसका रौब मानते होंगे, पर मैं अपने भाई से बस एक गुण को छोड़ कर शेष सभी में पीछे था। अंग्रेजी मेरी बहुत बढ़िया थी परन्तु भाई जैसी नहीं थी। खिलाड़ी मैं कतई नहीं था। इकहरे शरीर और मोटे शीशे वाली ऐनक के कारण मैं एक साधारण-सा लड़का लगता होऊँगा। हाँ, साहित्यिक सूझबूझ के मामले में मैं अपने भाई से आगे था। पंजाबी के अतिरिक्त मैं अंग्रेजी और हिन्दी में भी साहित्य रचने में समर्थ था, पर भाई की तरह मैं सभी पीरियड में उपस्थित नहीं रह सकता था। भाई तो ट्यूशन पढ़ाने का काम रात के समय भी कर सकता था लेकिन मुझे सारा काम दिन में ही निबटाना पड़ता। इसलिए दोपहर के बाद कताई-बुनाई वाले दो पीरियड में मैं लगातार हाज़िर नहीं हो सकता था। उस समय मुझे सूदां के घर बेवी और उसकी बहन वीना को ट्यूशन पढ़ानी होती थी। सिर्फ़ सप्ताह में एक बार ही कताई-बुनाई से जुड़े प्रैक्टीकल वाले दो पीरियड में शामिल हो पाता था। इन पीरियडों में सभी विद्यार्थियों को गांधी चरखे पर सूत कातना होता था। मैं जिस दिन भी जाता, गांधी चरखा संग लेकर जाता। कातना मुझे बहुत अच्छा आता था। उस दिन प्रेम और मेरा एक अन्य सहपाठी प्रो. अमरनाथ तैश को छेड़ने के लिए मेरी शिकायत लगाते।
''देखो जी, आ गया पूरे हफ्ते बाद पोइट। आपने इसे लाड़ में बिगाड़ रखा है। हम तो खुद अब आगे से प्रैक्टीकल नहीं करेंगे।''
''ओ भई, सुनो तो सही। मैं तरसेम जी को कुछ नहीं कह सकता। लाला जी मेरे समधी हैं।'' तैश साहिब बात को हँसी में खत्म कर देते।
समधी वाली बात तैश साहब ने शुरू में ही निपटा दी थी। उसने सारी क्लास को होंठों पर दो उंगलियाँ रखते हुए बताया था कि उसके दोस्त अमर नाथ की बेटी पुष्पा लाला तरसेम लाल गोयल के भतीजे मास्टर देवराज से ब्याही हुई है। लड़के न तो मेरे से झगड़ा मोल लेना चाहते, और न ही तैश साहिब का विरोध करना चाहते थे। बस, हँसी-ठट्ठे के लिए ही यह नोंक-झोंक करते-रहते। इस बहाने अन्य बहुत से लड़के-लड़कियों को भी गैर-हाज़िर रहने का अवसर मिल जाता।
प्रो. तैश पुराना बी.ए. बी.टी. था और जगराऊँ के प्राइमरी टीचर्स ट्रेनिंग स्कूल का सेवामुक्त अध्यापक था। सारी उम्र उसने 'कताई-बुनाई' का विषय ही पढ़ाया था। कॉलेज में स्पिनिंग एंड वीविंग का विषय पढ़ाने के लिए प्रो. तैश से बढ़ कर दूसरा कोई योग्य मास्टर हो ही नहीं सकता था। क्लास में वह थ्यौरी अंग्रेजी में नहीं पढ़ाता था। अंग्रेजी बोलने का उसका अभ्यास नहीं था। उसने अंग्रेजी में इस विषय पर एक किताब लिखी हुई थी और वह एकमात्र किताब पूरे पंजाब में इस विषय पर मिलती थी। बहुत सरल अंग्रेजी में कपास बोने से लेकर चुगने, बेलने, छांटने, पीसने, कातने के साथ साथ अटेरन और कपड़ा बुनने तक की शिक्षा इस पुस्तक में दर्ज़ थी। इसलिए थ्यौरी में जो विद्यार्थी उपस्थित होते, वे तैश साहिब से या तो बातें सुना करते या उर्दू के शेर। शेर भी बहुत सीधे-सादे तंज़िया किस्म के होते। हँसी-ठट्ठा करने के लिए एक शेर की बार बार फरमाइश करते। तैश साहिब लड़के-लड़कियों को मन बहलाने के लिए वह शेर सुनाते -
धोती ने कहा पाजामे से, हम दोनों बने हैं धागे से
जब एक है रिश्ता दोनों में, तो क्या बनता है भागे से

पाजामे ने कहा धोती से, क्या इतना फ़र्क क़ोई थोड़ा है
कि तुम खुलती हो पीछे को, और मैं खुलता हूँ आगे से।

कपास को बोने से संबंधित एक प्रश्न वार्षिक परीक्षा में अवश्य आता। प्रो. तैश ने उसके बारे में यह आख्यान सबको रटा रखा था-
डड्ड टपूसी कंगणी, डांगो डांग कपाह
खेस दी बुक्कल मार के, छल्लियां विच दी जाह।

इसका अर्थ यह था कि कंगणी के एक बूटे और दूसरे बूटे के बीच मेंढ़क की छलांग जितना फासना होना चाहिए और कपास के पौधों में एक दूसरे के बीच डांग(लाठी) बराबर फासला होना चाहिए। मक्की इस तरह बीजी जानी चाहिए कि खेस की बुक्कल मार कर आदमी छल्लियों के खेत में से आसानी से गुजर सके।
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दूसरा क्राफ्ट था- लैदर वर्क। प्रो. राठौर के पास लैदर वर्क का पीरियड लगता था। मालूम नहीं वह सज्जन व्यक्ति कितना पढ़ा हुआ था, पर था अपने विषय का माहिर और काम करवाने में सख्त भी। मेरे हाथ में कॉलेज का काम करवाते समय लगी चोट की जानकारी उसे थी, लेकिन उसे तो अपना काम पूरा चाहिए था - एक चप्पलों का जोड़ा, एक ऐनक केस, एक बटुआ, एक कोइनकेस और लेडीज़ पर्स। लेडीज़ पर्स तो मैंने अपने भाईवाला ही लाकर दिखा दिया क्योंकि वह घर में संभाल कर रखा हुआ था। हाथ पर लगी गंभीर चोट के कारण दूसरा काम करना मेरे लिए कठिन था। मुझे यह काम करवाने के लिए कामरेड सहदेव लाल का सहारा लेना पड़ा। वह कम्युनिस्ट के तौर पर सारे पंजाब में प्रसिद्ध था। उन दिनों जसवंत सिंह कंवल इस सहदेव लाल का श्रद्धालू हुआ करता था। सहदेव मेरे भाई का मैट्रिक का जमाती था। जानता वह मुझे पहले भी था, पर बी.एड. की ट्रेनिंग के दौरान एक तो विचारात्मक समानता के कारण और दूसरा भाई की मित्रता के कारण मैं उसके बहुत करीब हो गया था। वह उन दिनों क्रिश्चियन जे.बी.टी. स्कूल में अध्यापक था। उसके जे.बी.टी. के स्कूल में भी लैदर वर्क का विषय एक क्रॉफ्ट के तौर पर पढ़ाया जाता था। मैंने कामरेड को अपनी समस्या बताई। उसने लैदर वर्क के टीचर को बुलाया और मेरे दायें हाथ में बंधी पट्टियाँ दिखलाते हुए मदद करने को कहा। उस भद्र पुरुष क्रॉफ्ट अध्यापक ने आवश्यक चमड़ा, चमड़े पर प्रयोग किए जाने वाले रंग और रंग घोलने के लिए स्प्रिट आदि लाने के लिए कहा। चौथे दिन कामरेड स्वयं चमड़े का बना सारा खूबसूरत सामान, बचे हुए रंगों की छोटी-छोटी शीशियाँ और पव्वे में बचा हुआ स्प्रिट लेकर कॉलेज में आ पहुँचा। मामूली-सा लाल रंग स्प्रिट में मिल जाने से पव्वा ऐसा प्रतीत होता था मानो उसमें शराब हो। स्प्रिट की खुशबू तो शराब जैसी होती ही है। सहदेव लाल का यह अहसान कॉलेज में मुझे कम्युनिस्ट के तौर पर प्रसिद्ध करने और कुछ अध्यापकों की आँखों की किरकिरी बनने के लिए काफी था। पता नहीं किसने प्रिंसीपल को जा बताया। प्रिंसीपल के अमानवीय स्वभाव का पता तो मुझे उसी वक्त चल गया था, जब कॉलेज की बेसमेंट में पत्थर उठाते समय मेरा दायां हाथ बहुत भारी पत्थर के नीचे आ गया था और बीच की दो उंगलियाँ बुरी तरह कुचली गई थीं। मैं बेहोश हो गया था। मैं नहीं जानता कब विद्यार्थी मित्र मुझे सायकिल पर बिठाकर किसी डॉक्टर के पास ले गए थे। पट्टी करवाने और अन्य दवा दारू करवाने के पश्चात् जब मुझे वापस घर ले जा रहे थे तो शायद दवाइयों और टीकों के असर के कारण हाथ में अधिक दर्द नहीं हुआ था लेकिन मुझे आँखों से कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा था। मुझे पकड़ कर ही सुरिंदर चौधरी और मदन खोसला ने सीढ़ियों पर चढ़ाया होगा। माँ देख कर चिंतातुर हो उठी थी। चौधरी और खोसला ने साधारण चोट कह कर माँ को हौसला दिया था। बारिश की वजह से नीचे बैठ गई बेसमेंट की छत के भारी पत्थर को उठाकर बाहर निकालने का आदेश प्रिंसीपल ने ही विद्यार्थियों को दिया था परन्तु जब सुरिंदर चौधरी और अन्य विद्यार्थियों ने मेरी चोट के इलाज का खर्च मांगा तो प्रिंसीपल आना कानी करने लगा। मेरे विद्यार्थी साथियों का व्यवहार नम्रतापूर्ण था। अधिक जोर देने पर प्रिंसीपल ने तीस रुपये मंजूर कर दिए। मैं तीस रुपये लेने के लिए तैयार नहीं था। दो सौ रुपये से अधिक इलाज पर लग चुके थे और जो पीड़ा हुई, वह अलग। डॉक्टर की समझदारी और योग्य इलाज के कारण उंगलियाँ किसी हद तक सीधी हो गई थीं और देखने में भी कुछ ठीक ही लगने लगी थीं। पर आज भी अगर इन उंगलियों को गौर से देखो तो ये उस चोट की कहानी धीमे स्वर में बयान कर ही जाती हैं।
इस चोट की घटना का दिल पर लगा जख्म शायद भूल ही जाता यदि कामरेड द्वारा कॉलेज में चमड़े के बने सामान और स्प्रिट का पव्वा लाकर देने वाली घटना के बाद इस जख्म को प्रिंसीपल पुन: न खरोंचता।
प्रिंसीपल द्वारा मुझे दफ्तर में बुला लिया गया। कामरेड सहदेव लाल के कॉलेज में आने के विषय में पूछा गया। एक विद्यार्थी होने के नाते मुझे यह झूठ बोलना पड़ा कि कामरेड अपने घर से मेरा यह सामान देने आया था क्योंकि प्रो. राठौर ने आज यह सामान देखना है। स्प्रिट को शराब समझ कर प्रिंसीपल ने कई सवाल कर दिए। मेरे समझाने पर भी उस मोटी खाल वाले प्रिंसीपल की समझ में यह बात न आई कि स्प्रिट का इस्तेमाल चमड़े के रंगों को घोलने के लिए किया जाता है। यदि वाइस प्रिंसीपल प्रो. आर.पी. गर्ग, अंग्रेजी के प्रो. सूद और लैदर वर्क के प्रो. राठौर मेरी शराफ़त और पव्वे में स्प्रिट वाली बात की तसदीक न करते तो संभव था कि प्रिंसीपल मुझे कॉलेज से मुअत्तल करने का नोटिस निकाल ही देता। बाद में, प्रो. गर्ग की उपस्थिति में चमड़े का सामान किसी दूसरे से बनवाने की सारी कहानी मैंने प्रो. राठौर को बता दी थी। हालांकि राठौर कुछ टेढ़ा व्यक्ति था पर प्रो. गर्ग का लिहाज भी करता था और कॉलेज के काम के कारण मेरे हाथ में लगी चोट की मजबूरी भी समझता था। जिस समय मुझे चोट लगी थी उस वक्त मेरा ध्यान इस बात की ओर नहीं गया था कि चोट लगने के कारण मेरी कमजोर नज़र का होना भी हो सकता है। लेकिन बाद में मैंने अनुमान लगाया कि ऐसा ही था क्योंकि जब सभी लड़कों ने कई क्विंटल के लम्बे-चौड़े पत्थर के नीचे से अपने अपने हाथ निकाल लिए थे तो फिर मेरा हाथ ही क्यों रह गया था। बी.एड. के पेपर होने के समय और बाद में पढ़ाई के समय मेरा यह निश्चय दृढ़ हो गया कि आँखों की रोशनी की कमी के कारण मेरे साथ यह बड़ा हादसा हुआ।
कुछ दिन बाद प्रिंसीपल प्रो. दीपक शर्मा अपनी काली लौ सहित कॉलेज छोड़ कर चला गया था और प्रो. गर्ग कार्यकारी प्रिंसीपल बन गया था। यदि ऐसा न होता तो शायद वह खुंदक में मेरा कोई नुकसान कर ही देता। वैसे मुझे प्रो. गर्ग ने भी समझा दिया था कि मैं कामरेड सहदेव लाल को कॉलेज में न बुलाया करूँ, क्योंकि अगर कोई हड़ताल हो गई तो उसकी सारी जिम्मेदारी मेरे ऊपर आएगी और बी.एड. में इंटरनल असिसटेंट और टीचिंग प्रैक्टिस के नंबर प्रोफेसरों के हाथ में होने के कारण मेरा नुकसान भी हो सकता है।
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प्रो. तैश हफ्ते में एक बार काते हुए और अटेरे हुए सूत को जमा करता था। मैं सौ ग्राम की जगह डेढ-दो सौ ग्राम सूत जमा करवा देता। घर में माँ के लिए एक हफ्ते में डेढ़-दो सौ ग्राम सूत कातना मामूली काम होता। सूत कौन सा बोलता था कि किसका काता हुआ है। तैश साहब को तो सूत चाहिए था। मेरे द्वारा समय से सूत जमा करवाने के कारण वह लड़के-लड़कियों की शिकायत से बचा रहता।
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कॉलेज में मैं कुछ असाधारण करके दिखलाना चाहता था। इसलिए खेलों को छोड़ कर हर गतिविधि में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेता, पर कॉलेज के लीडर विद्यार्थियों वाले दांव-पेंच मुझे नहीं आते थे, क्योंकि कॉलेज का इस प्रकार का अनुभव मेरे पास नहीं था। क्लास शुरू होने से कुछ दिन बाद ही एजूकेशन फोरम के पदों का चुनाव होना था। यह फोरम ही कॉलेज का सबसे प्रभावशाली संगठन था। यद्यपि यह स्टुडेंट यूनियन जैसा प्रैशर ग्रुप तो नहीं था पर विद्यार्थियों की सारी समस्याएँ प्रिंसीपल के पास ले जाने और उन्हें हल करवाने की सारी जिम्मेवारी फोरम की ही थी। इस फोरम के चुनाव के लिए भाषण प्रतियोगिताएँ करवाई गईं। आठ लड़कों और दो लड़कियों ने उस प्रतियोगिता में भाग लिया। मुख्य जज प्रो. कन्हैया लाल कपूर था। मौके पर दिए गए विषय पर ही पाँच मिनट बोलना था। मुझे तसल्ली थी कि मैं ठीक बोला हूँ और आस थी कि अगर पहले नहीं तो दूसरे स्थान पर तो आ ही जाऊँगा। जब प्रो. कपूर प्रतियोगिता का नतीजा सुनाने के लिए स्टेज पर आए तो मेरे भाषण के नुक्तों और भाषा का विशेष तौर पर उन्होंने ज़िक्र किया, पर जब परिणाम सुनाया तो सुरिंदर चौधरी प्रथम, प्राणनाथ और मैं दोनों द्वितीय रहे थे। कॉलेज की नियमावली के अनुसार एक सचिव और दूसरा संयुक्त सचिव चुना जाना था। सुरिंदर चौधरी सचिव बन गया और प्राण नाथ संयुक्त सचिव। चौधरी ने प्रिंसीपल को मनाने की कोशिश की कि दोनों के नंबर बराबर होने के कारण दोनों ही संयुक्त सचिव बनने चाहिएँ, परन्तु प्रिंसीपल दीपक शर्मा तो बा-दलील बात को मानने वाले दिन जन्मा ही नहीं था। इस तरह खूबसूरती से चलाया गया तीर तुक्का बन कर रह गया। प्रिंसीपल की दलील थी कि वर्णमाला के अनुसार 'पी' का स्थान पहला है और 'टी' का बाद में। इसलिए प्राणनाथ ही दूसरे स्थान पर माना जाएगा।
मैगज़ीन के अंग्रेजी और पंजाबी सेक्सन के विद्यार्थी संपादक बनाने के लिए एक लिखित टैस्ट हुआ। दस नंबर का निबंध था और दस नंबर की ग्रामर। टैस्ट में बैठने वाले हम पाँच विद्यार्थी ही थे। एक विद्यार्थी अंग्रेजी का एम.ए. के.बी. राय भी था। वह पहले स्थान पर रहा। मैं एक नंबर के अभाव में दूसरे स्थान पर था। पाँच ईडियम्स टैस्ट में दिए गए थे जिनको वाक्यों में प्रयोग करना था। उनमें से एक ईडियम था- गो ऑफ+(Go Off)A सारे ईडियम वाक्यों में ठीक प्रयोग किए गए थे। अपनी ओर से मैंने यह ईडियम भी ठीक प्रयोग किया गया था - The Gun Went off -(बंदूक चल गई)। यह जल्दबाजी या नज़र की कमी ही हो सकती है कि मैं 'ऑफ़' लिखना भूल गया था और मेरी बंदूक चलते-चलते रह गई थी।
पंजाबी में संपादक बनने की मुझे कोई आस नहीं थी। पंजाबी का प्रोफेसर पहले ही निर्णय कर चुका था, टैस्ट तो यूँ ही दिखावा मात्र था। फिर भी मैं टैस्ट में बैठ गया। बलदेव प्रेमी (अब बलदेव सिंह सड़कनामा) मेरा सहपाठी था। आत्म हमराही भी उन दिनों बी.एड. करता था। हमराही अपने आप को बड़ा कवि समझने के कारण टैस्ट में नहीं बैठा था। बलदेव और मैं दोनों टैस्ट में बैठे थे। संपादक एक महिला को बनाना था, वह बन गई। बलदेव सिंह सहायक संपादक बन गया। इस बात का मुझे अफ़सोस भी कोई नहीं था। प्रोफेसर साहब की खुशी के लिए, जो कुछ हुआ, सब ठीक था। प्रोफेसर साहब का वर्ष अच्छा गुजर गया था और बलदेव की पूंछमारी ने अपना रंग ठीक ही दिखाया था।
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प्रो. आर.पी. गर्ग धुरी का रहने वाला था। प्रो. सूद के ननिहाल मौड़ां थी। मेरी ननिहाल भी मौड़ां थी। गर्ग के साथ एक इलाके के होने तथा भाई की मित्रता तथा सूद के साथ मौसेरी सांझ होने के कारण दोनों से मुझे अच्छी सहायता मिल जाती थी लेकिन प्रोफेसर पराशर मेरे प्रति पता नहीं क्यों सख्त रहने लग पड़ा। शायद स्वयं आर.एस.एस. से संबंधित होने के कारण वह मुझे अच्छा नहीं समझता था। मेरे भाई के दोस्त और मुझे सगे भाइयों की तरह प्यार करने वाले मास्टर चरन दास की कभी मुलाकात प्रो. पराशर से हो गई थी। मास्टर चरन दास ने तो शायद यह भी बताया हो कि मेरा भाई आर.एस.एस. का स्वयं-सेवक है और तरसेम कामरेड है। बस, पराशर के लिए यही सूचना काफी थी। वह मेरी पाठ योजना से लेकर मेरे क्लास में बैठने तक में कमी निकालता रहता। पराशर से एक खतरा था कि वह कहीं मेरे लेक्चर ही कम न कर दे। इसलिए उसकी क्लास में मैं हर हाल में उपस्थित रहता। पर मैथ वाला प्रो. शर्मा, जिसे पता नहीं क्यों 'शिक्षा के सिद्धांत' (Principles of Education) पेपर भी दे दिया गया था, मेरे साथ ज़रूरत से ज्यादा लिहाज रखता। उसने स्वयं मुझे पीरियड से छूट दे रखी थी। मेरे जैसे दो-चार अन्य लड़के-लड़कियों को भी उसने छूट दे रखी थी। छूट पाने वाले हम सभी विद्यार्थी खुश थे और शर्मा जी भी। बरनाला इलाके के हम पाँच विद्यार्थी थे। सत्य भूषण गोयल बरनाले से था। मदन खोसला, हरबंस लाल गोयल और ज्ञान चंद जैन धूरी के थे। मुझे छोड़कर ये सभी विद्यार्थी हॉस्टल में रहा करते थे। लेकिन सत्य भूषण और खोसला कभी-कभार मेरे घर आ जाते। मैं भी उनके कमरे में चला जाता। सत्य भूषण स्टेज पर अच्छा बोल लेता था और खोसला बढ़िया ग़ज़ल कह लेता था। दोनों के साथ मेरी अधिक निकटता का कारण ही उनका साहित्य की ओर झुकाव था। मेरे चोट लगने के समय सुरिंदर चौधरी के अलावा ये दोनों सहपाठी बड़े काम आए थे। सत्य भूषण बाद में एम.ए. करने के बाद किरती कॉलेज, निआल पातड़ा लेक्चरर जा लगा और कॉलेज टेक ओवर हो जाने पर वह सरकारी कॉलेज फ़ाजिल्का से बतौर प्रिंसीपल सेवा-मुक्त हुआ। खोसला ज़हीन और प्रतिभाशाली होने के बावजूद कुछ असुखद घटनाओं का शिकार हो गया और आख़िर ज़िन्दगी से हाथ धो बैठा। बी.एड. कॉलेज के मित्रों में से अधिक निकटता मेरी मदन खोसला के साथ ही थी। उसकी मौत ने मुझे महीनों तक बेचैन किए रखा।
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वार्षिक परीक्षा में मेरे साथ तीन घटनाएँ घटीं। एक तो माँ को भाई के हुक्म के कारण तपा में छोड़ना पड़ा और किराये वाला चौबारा खाली करके मुझे ताया के पोते देस राज के पास लगभग एक महीना रहना पड़ा। दूसरा, पेपर आरंभ होने से तीन दिन पहले मुझे बुखार चढ़ने लग पड़ा। खोसला और सत्य भूषण मुझे गली नंबर दो के डॉक्टर जैन के पास ले गए। डॉ. जैन का पूरा नाम याद नहीं, पर उसने मुझे बड़े ध्यान से देखा। पूरी केस हिस्ट्री ली। दवाई तो उसने दे दी पर अगले दिन मोगे के सिविल अस्पताल पहुँचने के लिए सवेरे दस बजे का समय दे दिया। बाकी बात मुझे बताने की बजाय उसने सत्य भूषण और मदन खोसला को बताई होगी, पर मेरे बार-बार पूछने पर उन्होंने असलीयत नहीं बताई थी।
सिविल अस्पताल में स्क्रीनिंग करवाई गई। प्राइवेट एक्स-रे भी करवाया। एक फेफड़े के खराब होने के बारे में बताने के साथ साथ डॉ. जैन ने मुझे सेहत का पूरा ख्याल करने के लिए कहा। खोसले से बार-बार पूछने पर आख़िर उसने सच सच बता दिया।
''डॉक्टर ने टी.बी. की शंका जतायी थी पर तुझे टी.बी. है नहीं। एक्सरे बिलकुल क्लीअर है।'' खोसला द्वारा हौसला दिये जाने के बावजूद मेरे दिल में यह बात दृढ़ हो गई थी कि मुझे टी.बी. है, पर है अभी पहली स्टेज पर। इस संबंध में मैंने भाई को भी ख़त लिख दिया। मैं अन्दर ही अन्दर पूरी तरह हिल गया था। यह बात मेरे मन में घर कर गई थी कि बहन सीता की मौत 1959 में टी.बी. से ही हुई थी। टी.बी. छूत की बीमारी है। जब बहन सीता को तपा में तपेदिक की रोगी होने के कारण साथ लगने वाले बंत मौड़ां वाले के चौबारे में रखा हुआ था तो मैं भी अधिकतर उसके पास आता-जाता था। संगरूर के करीब घाबदां के सरकारी टी.बी. अस्पताल में पूरी तरह स्वस्थ हो जाने के बाद बहन अपनी ससुराल चली गई थी और उसे तपेदिक ने पुन: घेर दिया था। तब भी मैं प्राय: उसके पास जाता था। तपा से माँ जाती या फिर मैं। इसलिए मेरे अन्दर बीमारी संबंधी डर बैठ जाना स्वाभाविक था।
भाई की बहुत ही हौसला बढ़ाने वाली चिट्ठी आई थी। मक्खन, बादाम और दूध पर जोर देने के लिए कहा था। भाभी के हवाले से भी लिखा था कि उसे मेरी सेहत की बहुत चिंता है। चिट्ठी अंग्रेजी में थी। भाभी वाली सतरें शायद इस प्रकार थीं - Your bhabi is very much worried about your health. She sends you her blessings and prays for your long life and prosperity. But I did not tell any thing to mata ji about your illness. You know about her temperament very well. Moreover, mother is after all mother. भाभी की तसल्ली और भाई की चिंता ने मानो तपते हुए दिल पर ठंडी फुहार का काम किया हो। अगले दिन भाई स्वयं भी आ गया। देस राज की उपस्थिति में वह मुझे तीन सौ रुपये चुपके से दे गया और देस राज से कह गया कि मेरी सेहत का ख्याल रखे। भाई की उपस्थिति में मैं पहली बार जी भर कर रोया होऊँगा। रो कर मन हल्का हो गया था पर लम्बी उम्र भोगने वाला शक का कांटा अन्दर से नहीं निकल सका था।
जैसा कि मैंने पहले भी कहीं बताया है कि किसी भी पेपर में मैंने रात में पढ़ाई नहीं की थी। हाँ, दिन के समय पाँच-छह घंटों से भी ज्यादा पढ़ लेता था। बहुत सारे परचे तो ठीक हो गए थे पर अंग्रेजी और सॉयक्लोजी के पेपर खराब हो गए थे। पता नहीं क्या हुआ, अंग्रेजी के तीन सवाल करने के बाद मुझे उत्तर कापी की लाइनें ही दिखाई देना बंद हो गई। प्रश्न पत्र भी साफ-साफ नहीं पढ़ा जा रहा था। लेकिन मैंने जैसे-तैसे दो सवाल कर दिए थे। लाइनों के ऊपर नीचे होने का कोई ख्याल ही नहीं किया। घबराहट इतनी बढ़ गई थी कि दस-बारह पन्नों पर लिखे जाने वाले सवाल सिर्फ़ तीन-साढ़े तीन पन्नों पर करके लौट आया था। सॉयक्लोजी वाले पेपर के दिन भी मुझे अंत में स्टेटिक्स का सवाल करना था। सवाल स्टैंडर्ड डिवीएशन का था। सवाल पूरी तरह मेरी पकड़ में था पर यहाँ भी आँखें धोखा दे गईं। सवाल बीच में ही रह गया।
बी.ए. तक के कुछ परचों में मेरी आँखें इसी तरह जवाब दे जाया करतीं और मैं बाद वाले सवाल सही ढंग से न कर पाता।
आँखों की रोशनी लगभग खत्म हो गई। मैं अपनी पढ़ाई और परीक्षाओं में आई कमियों का मन ही मन में जब लेखा-जोखा करता हूँ तो मेरी समझ में आता है कि असल में मेरी आँखों की रोशनी तो मैट्रिक से कुछ समय पहले ही कम होनी प्रारंभ हो गई होगी लेकिन सच्चाई का पूरा पता बाइसवें साल में जाकर लगा। इसका पता कैसे चला, यह एक अलग दर्दभरी कहानी है। देस राज के परिवार ने मेरी सेहत का वैसे ही ख्याल रखा जैसे भाई कह कर गया था। देस राज उन दिनों बैंक में काम करता था। उसकी आमदनी कम और खर्चे अधिक थे। उसका बड़ा बेटा सुरिंदर उसके छोटे भाई धर्म चंद के पास दिल्ली में पढ़ता था। शायद सुरिंदर का कुछ पैसे भेजने का सन्देशा आया था। मैंने यह बात सुन ली थी। डेढ़ सौ रुपया मेरे पास बच गया था। मैंने वह डेढ़ सौ रुपया देस राज को देते हुए कहा कि वह इसे सुरिंदर को भेज दे। उसने मना भी किया, पर मैंने तो ये पैसे उसे देने के लिए ही जेब में से निकाले थे और तरीके से देने में भी सफल हो गया था।
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अध्यापन का पहले से ही अनुभव होने के कारण प्रैक्टीकल और अध्यापन निपुणता की परीक्षाओं में कोई कठिनाई नहीं आई। बाहर से आने वाले परीक्षक और हमारे कॉलेज के प्रोफेसर आपसी विचार-विमर्श के साथ ही नंबर लगाते थे। मेरे लिए फायदे की बात यह हुई कि मैं प्रो. पराशर के ग्रुप में नहीं था। इसलिए मुझे कोई खतरा नहीं था।
बी.एड. का परिणाम वही आया जिसकी मुझे आस थी। अंग्रेजी और सॉयक्लोजी में सिर्फ पास होने योग्य ही नंबर थे और शेष सब ठीक था। चलो, कुछ भी था, बी.एड. के बहाने कॉलेज का मुँह मैंने देख लिया था।
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Sunday, May 2, 2010

पंजाबी उपन्यास



''साउथाल'' इंग्लैंड में अवस्थित पंजाबी कथाकार हरजीत अटवाल का यह चौथा उपन्यास है। इससे पूर्व उनके तीन उपन्यास - 'वन वे', 'रेत', और 'सवारी' चर्चित हो चुके हैं। ''साउथाल'' इंग्लैंड में एक शहर का नाम है जहाँ अधिकतर भारत से गए सिक्ख और पंजाबी परिवार बसते हैं। यहाँ अवस्थित पंजाबी परिवारों के जीवन को बेहद बारीकी से रेखांकित करता हरजीत अटवाल का यह उपन्यास इसलिए दिलचस्प और महत्वपूर्ण है क्योंकि इसके माध्यम से हम उन भारतीय लोगों की पीड़ा से रू-ब-रू होते हैं जो काम-धंधे और अधिक धन कमाने की मंशा से अपना वतन छोड़ कर विदेशों में जा बसते हैं और वर्षों वहाँ रहने के बावजूद वहाँ की सभ्यता और संस्कृति का हिस्सा नहीं बन पाते हैं।

साउथाल
हरजीत अटवाल

हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव


॥ तीन ॥

उसके मन में आता है कि राजा राज भोज के सामने से एक चक्कर लगा कर आए। बचपन में वह अंधेरे से बहुत डरा करता था। उसका चाचा उसे जानबूझ कर अंधेरे में ले जाता और बताता कि अंधेरे में डरने-डराने वाली कोई बात शै नहीं है। दौड़ना छोड़ कर वह चलने लगता है। एलेग्जेंडरा रोड से होता हुआ वूलवर्थ के सामने जा निकलता है। ब्राडवे अभी भी व्यस्त है। लोग वैसे ही चल-फिर रहे हैं। समय हालांकि अधिक हो गया है पर अभी भरपूर रोशनी है। वह ब्राडवे से बायीं ओर मुड़ जाता है। राजा राज भोज रेस्टोरेंट के सामने आ खड़ा होता है। रुक कर अच्छी तरह देखता है। वह स्वयं से कहने लगता है कि क्या है यहाँ जो उसे डरा रहा है। कुछ भी नहीं है। उसे लगता है कि उसका मन अब कुछ मजबूत हो रहा है। वह खुश है। वह सोचता है कि साल भर का बिज़नेस खराब हो गया इस रेस्टोरेंट का। बहुत शिखर पर था इसका व्यापार। इसके बन्द हो जाने से दो अन्य नए रेस्टोरेंटों को खुलने का अवसर मिल गया है।
ट्रैफिक लाइट पर स्थित पब जिसे उसका असली नाम भुला कर लाइटों वाला पब कहा जाता है, की ओर देखता हुआ वह बत्ती पार कर लेता है। उसे सिगरेट की तलब हो रही है और बियर की भी। वह गिलास भरवा कर बैठने की जगह तलाशने लगता है। सामने से अंकल पाला सिंह हाथ हिलाता दिखाई देता है। वह उसकी ओर चल देता है। वह चाहता तो नहीं कि पाला सिंह के पास बैठे क्योंकि ऐसा करने पर वह सिगरेट नहीं पी सकेगा। उसके बैठते ही पाला सिंह कहता है -
''जोगिंग करके आया लगता है, पसीने में तर है।''
''हाँ अंकल।''
''मैंने भी वालीबाल खेला है जवानी में, तेरा डैडी भी साथ होता था। क्या हाल है हमारे यार का ?''
''अंकल, भापा जी मौजें मारते हैं, सरपंच बने फिरते हैं।''
''चक्कर नहीं लगाता इधर का ?''
''मानते नहीं, कहते हैं, तुम ही आकर मिल जाया करो, हम यहाँ अपने गाँव में ही ठीक हैं।''
''जग्गे, बात तो उसकी ठीक है, जब वहीं सब ठीक है तो बेगाने मुल्कों में भटकने की क्या ज़रूरत है। देख ले, ज़िन्दगी कितनी कठिन है यहाँ।''
जगमोहन 'हाँ' में सिर हिला कर बियर का बड़ा-सा घूंट भरता हुआ गिलास रख देता है। सिगरेट की तलब बहुत तेज हो रही है। पाला सिंह फिर कहता है-
''जग्गे, कभी घर का चक्कर लगा लिया कर, तेरी अंटी याद करती रहती है।''
''अंकल, आऊँगा किसी दिन।''
कुछ देर बाद पाला सिंह कहता है-
''यह देख, साधू के साथ क्या हुआ। हमारे साथ ही आया था, इक्ट्ठे ही गत्तेवाली फैक्टरी में काम करते रहे हैं, पर वह मर्द का बच्चा निकला, असली मर्द !''
कहते हुए वह मूंछें ऐंठने लगता है। बियर का गिलास खत्म करते हुए फिर कहता है-
''इसी तरह की जाती है इज्ज़त की रखवाली, उफ्फ नहीं की साधू ने...।''
उसने दोनों मूंछें खड़ी कर रखी हैं। जगमोहन के अन्दर कुछ डूबने लगता है। वह जल्दी में अपनी बियर खत्म करके बहाना बनाकर उठ खड़ा होता है और पब से बाहर आकर सिगरेट सुलगा लेता है। दीवार के साथ पीठ टिकाकर लम्बे-लम्बे कश खींचता फिर धीरे-धीरे लेडी मार्गेट की राह पर हो जाता है। वह ऐसे चलता है मानो बहुत थका हुआ हो। बड़ी मुश्किल से घर पहुँचता है। मूड बदलने की कोशिश करता घर में प्रवेश करता है।
मनदीप अधिक कुछ कहे बग़ैर खाना ले आती है। किरन और जीवन को नींद आ रही है। मनदीप उन्हें बैड पर लिटा आती है। वापस आकर कहने लगती है-
''जैग, कल मेरी शॉपिंग करा दो।''
''ब्राडवे पर जाना और ले आना जो लाना है।''
''यहाँ साउथाल ब्राडवे पर थर्ड क्लास माल है। मुझे किसी स्टोर में शॉपिंग करनी है। हंसलो चलें। ब्रैंटक्रास या फिर आक्सफोर्ड स्ट्रीट। यहाँ कोई ढंग की चीज़ मिलनी है, बताओ कब चलें ?''
''कल, परसों जब मर्जी।''
जगमोहन कह रहा है। उसका मन बहस करने को नहीं कर रहा। नहीं तो वक्त बर्बाद करने का गिला करता और बड़े स्टोरों की मंहगाई के बारे में कुछ कहता। मनदीप उसके चुपचाप मान जाने से खुश है। वह फिर कहती है-
''जैग, यू श्योर कि मेरे बाद बच्चों को संभाल लोगे ?''
''क्यों, मुझे क्या है ? इन्हें स्कूल ही भेजना है, खाना हमको मैकडानल्ड है या कंटकी, कपड़े ही रेड्डी करने हैं, डोंट यू वरी।''
बैड पर लेटते ही मनदीप कहती है-
''कहते हैं कि साधू सिंह को सजा नहीं होने वाली।''
''क्यों ?'' गुस्से में बोलता वह उठ कर बैठ जाता है। मनदीप कहने लगती है-
''ओ हो... मैंने तो यूँ ही कहा, आज काम पर बातें हो रही थीं कि कोई गवाह जो नहीं है, उसके ब्वॉय फ्रेण्ड का पता नहीं, किधर भाग गया। रेस्टोरेंट वाले भी कह रहे हैं कि हमें कुछ नहीं पता।''
''पर जब साधू सिंह खुद गिल्टी प्लीड किए जा रहा है।''
''कहते हैं, ऐसे कानून नहीं मानता। हो सकता है उसका माइंड पूरी तरह ठीक न हो शायद।''
''बड़ी वकील बनी हो, आराम से सो जा।''
कहता हुआ जगमोहन सोने की कोशिश करता है। सपने में उसे साधू सिंह मिलता है। ब्राडवे पर उसी रेस्टोरेंट के सामने ही। साधू सिंह जगमोहन का हालचाल पूछते हुए उसकी सलाह लेता है कि इस रेस्टोरेंट का नया नाम क्या रखे क्योंकि यह जगह उसने इसके मालिक से खरीद ली है। ऐसा कहते हुए साधू सिंह पाला सिंह की तरह ही मूंछों को मरोड़ता रहता है। दूसरी तरफ एक पुलिसमैन चला आ रहा है। जगमोहन उसे कुछ कहने के लिए आवाज़ देता है पर उसकी नींद खुल जाती है।
जगमोहन उठकर नीचे लाउन्ज़ में आ जाता है। आज इतवार है। कौन सा काम पर जाना है। उसे नींद उचट जाने की कोई चिन्ता नहीं। वह सैटी पर बैठ जाता है। सुखी उसके सामने स्वीमिंग पूल के फट्टे पर आ खड़ी होती है। पानी में छलांग मारते समय चोर आँखों से उसकी तरफ देखती है। फिर पुल के दूसरी तरफ निकल कर जहाँ हुसैन खड़ा है, एक बार उसकी तरफ टेढ़ी नज़र से देखती है। जगमोहन मन ही मन कहता है, 'सुखी, तू ही समझती होगी कि मुझे तेरे से कोई नफ़रत नहीं थी, बल्कि मैं तो तुझे बहुत पसंद करता था। मेरी आँखों में से तूने पढ़ ही लिया होगा। मैं दूसरों से अलग हूँ।'
वह हुसैन के विषय में सोचता है जो पानी में से निकलती सुखी को देखकर फूला नहीं समाता था और जब सुखी पर कठिन वक्त आया तो छोड़कर भाग गया। बताते हैं कि सबसे पहले हुसैन ही भागा था। फिर ग्राहक और रेस्टोरेंट वाले भी एक तरफ हो गए थे। सुखी अकेली रह गई थी, साधू सिंह की तीन फुटी तलवार के सामने। पता नहीं सुखी उस वक्त क्या सोच रही होगी। फिर उसे गुस्से का भरा साधू सिंह दिखाई देता है। उसे पता चलता है कि सुखी हुसैन के संग बैठी राजा राज भोज में खाना खा रही है। पागल सुखी ! खाना खाने के लिए साउथाल का रेस्टोरेंट ही मिलता है। साधू सिंह रेस्टोरेंट के दरवाजे पर खड़ा है। उसके हाथ में नंगी तलवार देख कर लोग चीखें मारते हुए इधर-उधर भागते हैं। सुखी खड़ी रहती है। वह साधू सिंह की तरफ देखती है, फिर उसकी तलवार की ओर। वह नहीं डरती। बाप से कौन-सी बेटी डरती है। अगर डरती होती तो साधू सिंह उसके मुकाबले बहुत बूढ़ा है, वह अपना बचाव कर सकती है। उसका यह न डरना ही उसका क़त्ल करवा देता है।
(जारी…)