समकालीन पंजाबी साहित्य की उत्कृष्ट कृतियों की तलाश

‘अनुवाद घर’ को समकालीन पंजाबी साहित्य की उत्कृष्ट कृतियों की तलाश है। कथा-कहानी, उपन्यास, आत्मकथा, शब्दचित्र आदि से जुड़ी कृतियों का हिंदी अनुवाद हम ‘अनुवाद घर’ पर धारावाहिक प्रकाशित करना चाहते हैं। इच्छुक लेखक, प्रकाशक ‘टर्म्स एंड कंडीशन्स’ जानने के लिए हमें मेल करें। हमारा मेल आई डी है- anuvadghar@gmail.com

Saturday, June 26, 2010

आत्मकथा


एक नेत्रहीन लेखक की आत्मकथा

धृतराष्ट्र
डॉ. एस. तरसेम
हिन्दी अनुवाद : सुभाष नीरव
चैप्टर-10(प्रथम भाग)

तपा वापसी/मौड़ मंडी
वापस आने के लिए न माँ तैयार थी और न सरोज। मेरी जिद्द ने ही यह सबकुछ करवा दिया था कि अच्छी-भली नौकरी को लात मार कर घर लौट रहा था। आगे कौन मेरे लिए कोई दफ्तर खाली था, जहाँ आकर कुर्सी पर बैठ जाना था। भाई का तो कोई डर नहीं था, भाभी का डर ज़रूर था। मुझे तो कांगड़ा भेजा ही इसलिए गया था कि एक तो मैं चार पैसे कमाऊँ और दूसरा सेहत बनाऊँ। मैं पैसों को भी ठोकर मार आया था और पहाड़ों में रहकर सेहत बनाने की सारी संभावनाएं खत्म करके बल्कि बिगड़ी सेहत लेकर लौट रहा था। शाम को भोजन के बाद भाभी के सामने मैंने भाई के हाथ में तीन सौ बीस रुपये रख दिए थे। सरोज और माँ, ऊषा और भाभी के साथ बातें करने में मग्न थीं, पर मैं बिलकुल चुप था, मानो मेरी जीभ को लकवा मार गया हो। पहले से अधिक सेहत कमजोर हो जाने के कारण शायद भाई को मेरा नौकरी छोड़ना गलत न लगा हो, पर उसके चेहरे पर चिंता साफ झलकती थी। मैं भी भाई के पास बरनाला जाकर डॉ. रघबीर प्रकाश या डॉ. हेम राज के पास दिखा आने की बात करने से झिझकता था, लेकिन अचानक खांसी छिड़ जाने पर और एक के बाद एक पाँच-छह छींके आ जाने पर भाई ने स्वयं ही मुझे किसी अच्छे डॉक्टर के पास जाकर दिखलाने के लिए कह दिया।
अगले दिन मैं बरनाला डॉ. हेमराज के पास चला गया। खुद कह कर छाती का एक्सरे करवाया। मेरा ज्ञानी का शार्गिद वहाँ डिस्पेंसर होने के कारण काम भी शीघ्र हो गया और डॉक्टर साहब को उसके द्वारा यह बताने पर कि मैं उसका अध्यापक हूँ, उसने न तो एक्सरे के पैसे लिए और न ही दवाई के। एक्सरे देख कर उसने स्पष्ट बता दिया कि खांसी है, वैसे फेफड़े बिलकुल ठीक हैं। मेरे द्वारा तपेदिक के बारे में पूछने पर डॉक्टर साहब थोड़ा-सा मुस्कराये और मुझे तसल्ली भी दी।
कुछ दिन बाद खांसी और जुकाम ठीक हो गया। दरअसल कांगड़ा की सीलन भरी आबोहवा ने ही मेरी बीमारी बढ़ाई थी। पिछले साल मोगा का पड़ा वहम मेरे दिल में से कहीं एक वर्ष बाद निकल पाया। अब मुझे तसल्ली हो गई थी कि मुझे टी.बी. बिलकुल नहीं है। यह तसल्ली भाई को भी हो गई थी। जो दलीलें टी.बी. के शक के कारण मेरे और मेरे भाई के दिमाग ने घड़ी थीं - जैसे चाचा मनसा राम के लड़के रामकरन की मौत और मेरी बहन सीता का दुखांत, अब उसके उलट दिमाग ने यह सोचना प्रारंभ कर दिया था कि सीता की बीमारी के समय हम सभी बहन-भाइयों ने टी.बी. से बचने के लिए तीन बार बी.सी.जी. के टीके लगवाये हुए हैं। इसलिए टी.बी. होने की कोई गुंजाइश ही नहीं थी।
जनवरी का पिछला हफ्ता, फरवरी और आधा मार्च ट्यूशनों में निकल गया। इसलिए यह महसूस ही नहीं हुआ कि मैं बेरोज़गार हूँ। अप्रैल में वरखा राम शास्त्री का संदेशा आ गया कि मौड़ मंडी के एस.डी. हाई स्कूल में अंग्रेजी के अध्यापक की ज़रूरत है। वरखा राम और मैं आर्य स्कूल में एक साथ रहे थे। उस वक्त उसका भाई बचना राम सातवीं कक्षा में पढ़ता था। बचना राम मुझसे एक साल अंग्रेजी पढ़ा हुआ था। अब वह एस.डी. हाई स्कूल, मौड़ मंडी से मैट्रिक करके फौज में भर्ती हो गया था। लेकिन मेरे द्वारा पढ़ाई गई अंग्रेजी का उसने बहुत प्रचार किया हुआ था। उस प्रचार को और बल देने वाला था- वरखा राम शास्त्री। अप्रैल में उन्होंने मुझे इंटरव्यू के लिए बुला लिया। इंटरव्यू लेने वालों में मास्टर कश्मीरी लाल खुंगर तो थे ही, प्रबंधक कमेटी का प्रधान, मैनेजर, सचिव और खजानची भी थे। किसी अन्य मास्टर को इंटरव्यू में नहीं बिठाया गया था। पद सीनियर इंग्लिश मास्टर का था। इंग्लिश में सवाल पूछने से हैड मास्टर झिझकता था। स्कूल का मैनेजर, मार्किट कमेटी, मौड़ मंडी का मुलाज़िम भी था। उसने प्रश्न किया-
''डू यू रेडी टू टीच इंग्लिश टू सीनियर क्लासिस ?''
मैंनेजर का फ़िकरा व्याकरण के पक्ष से गलत था। इस बात का अहसास मुझे मुख्य अध्यापक के चेहरे से भी हो गया था।
बजाये इसके कि मै मैंनेजर की प्रश्न को ठीक करूँ, मैंने व्याकरण के पक्ष से ठीक उत्तर देने की कोशिश की -
''ऑफ कोर्स, आय एम रेडी टू टीच इंग्लिश टू सीनियर क्लासिस। आय एम फुली कम्पीटेंट टू टीच इंग्लिश, सोशल स्टडीज़ एंड पंजाबी। आय कैन आलसो टीच मैथमेटिक्स।''
''तुम तनख्वाह कितनी लोगे ?'' कमेटी में से किसी ने पूछा। बाद में पता चला कि वह स्कूल कमेटी का ख़जानची है।
''कम से कम 150 रुपये।'' मेरा कोरा जवाब था। अधिक ज़ोर डालने पर मैं 140 रुपये पर सहमत हो गया क्योंकि वरखा राम शास्त्री ने मुझे बता दिया था कि यहाँ सभी बी.ए., बी.एड. 100 या 110 रुपये पर काम करते हैं। सिर्फ़ हिसाब मास्टर कर्म चंद 150 रुपये लेता है। यद्यपि वह मैट्रिक है पर पिछले तीस साल से मैट्रिक तक हिसाब पढ़ाता आ रहा है। सेवा शर्तों में नौकरी छोड़ने या नौकरी से निकालने के लिए एक महीने के अग्रिम नोटिस की बात तय हुई और साथ ही स्कूल के हॉस्टल में मास्टर कर्मचंद के साथ वाले कमरे में मुफ्त रिहाइश की बात। जब प्रधान ने मुझसे कोई और शर्त पूछी तो मैंने एक ही शर्त रखी - ''मैं कमेटी के मैंबर से लेकर प्रधान तक पहले किसी को नमस्ते नहीं करूँगा। इस मंडी में मैं तम्हारे बच्चों का अध्यापक हूँ। इसलिए अगर अध्यापक बच्चों के माँ-बाप में से किसी को नमस्ते बुलाये तो इसका अर्थ है कि कमेटी के मैंबरो के बच्चे अध्यापक को अपना नौकर समझेंगे और अध्यापक से डरेंगे नहीं।''
मुख्य अध्यापक सहित सारी कमेटी ने मेरी यह शर्त भी मान ली। दरअसल यह वरखा दास शास्त्री द्वारा मेरी लिआकत के संबंध में बांधे गुए पुलों का नतीजा था कि मेरी बाढ़ जैसी शर्तें भी कमेटी के पुल के नीचे से सीधे निकल गईं।
मई 1964 में मैं एस.डी. हाई स्कूल, मौड़ मंडी में उपस्थित हो गया। हॉस्टल में कमरा मिलने से इस तरह समझो कि मुझे सरकारी स्कूल के मास्टर के बराबर तनख्वाह मिलने लग पड़ी- 140 रुपये + कमरा। यह किसी तरह सरकारी स्कूल के बी.एड. मास्टर के 166 रुपये से कम नहीं था। वैसे भी मौड़ मंडी, तपा से अधिक दूर नहीं है। उस समय भी और अब भी मौड़ मंडी से तपा जाने के लिए बस द्वारा कसाईआड़ा, कुत्तीवाल और मंडी कलां के रास्ते रामपुरे आ जाता और वहाँ से चार बजे वाली गाड़ी तपा के लिए पकड़ लेता। यह सफ़र किसी भी तरह से डेढ़ घंटे से अधिक नहीं था। हर शनिवार रामपुरे आकर चार बजे वाली गाड़ी मिल ही जाती। सोमवार को देर से आने की बात मैंने पहले ही हैड मास्टर से खोल ली थी।
हॉस्टल में हम पाँच अध्यापक रहते थे - मैथ मास्टर कर्म चंद, साइंस मास्टर बाली साहिब, निरंजण दास शास्त्री, मुल्लां जी और मैं। मास्टर कर्म चंद बठिण्डा का रहने वाला था। मुझसे दस रुपये अधिक तनख्वाह के कारण, बुजुर्ग होने तथा प्रबंधक कमेटी के बहुत सारे मैंबरों का उस्ताद होने के कारण भी उसका रुतबा सेकेंड मास्टर वाला था। सिर्फ़ मैट्रिक पास होने के बावजूद वह दसवीं तक हिसाब पढ़ाने में माहिर था। दसवीं तक अंग्रेजी भी गुजारे लायक पढ़ा लेता था। इसलिए एस.डी. स्कूल की ही नहीं, ख़ालसा हाई स्कूल और सरकारी गर्ल्ज हाई स्कूल की बहुत सी ट्यूशनें उसके पास आतीं। बाली साहिब जिनका पूरा नाम मुझे याद नहीं, बी.एससी., बी.टी. थे। रिटायर्ड होने के कारण सिर्फ़ वक्तकटी के लिए वह यहाँ पर आ टिके थे। ट्यूशनों में उनकी कोई रुचि नहीं थी। कृत्रिम दांतों के कारण भी उन्हें बोलने में कुछ मुश्किल आती थी जिस कारण स्कूल में पढ़ाने के बाद वह ट्यूशन के चक्कर में नहीं पड़ते थे। ट्यूशन के लिए मैंने किसी विद्यार्थी को उनके पास पहुँचते भी नहीं देखा था।
मुल्ला जी प्राइमरी अध्यापक थे। सन् 47 में मुल्तान से विस्थापित होकर सरकारी नौकरी के बाद वह इस स्कूल की प्राइमरी ब्रांच में साठ रुपये महीना पर आ टिके थे। नाम तो उनका कुछ और था, पर पता नहीं उनकी मुल्तानी उप भाषा के कारण या उर्दू-फारसी रंग की जुबान के कारण, क्या अध्यापक और क्या लड़के - सब उन्हें मुल्ला जी कहते थे। हैड मास्टर भी मुल्ला जी कहकर संबोधित करता था। उसके पास एक बकरी थी, जिसे वह कमरे में ही बांध कर रखता था। बकरी के पेशाब और मेंगड़ों के कारण उसके कमरे में अजीब सी गंध आती थी। उसका कोने वाला कमरा होने के कारण इस गंध से मैं बचा रहता। उसके कमरे में मैं कभी गया ही नहीं था, पास से कभी-कभार निकलना पड़ता था।
निरंजण दास शास्त्री अबोहर से आया था। हैड मास्टर कश्मीरी लाल खुंगर फ़ाजिल्का का था जिस कारण वह हैड मास्टर का पुराना परिचित था। वह मेरी उम्र का ही था और था भी मेरी तरह ही अकेला। हम दोनों की रोटी भी साझी ही बनती। रोटी वह बनाता और राशन सारा मेरा होता। पर ब्राह्मण होने के कारण वह जूठे बर्तन नहीं मांजता था, इसलिए बर्तन मुझे मांजने पड़ते थे। शक्करखोरे को शक्कर मिल ही जाती है। इस कारण घरेलू काम में कमजोर तरसेम को रोटी पकाने के लिए शास्त्री मिल गया था। बर्तन मांजने के वक्त भी ट्यूशन पढ़ने वाला कोई न कोई लड़का आ जाता। वह स्वयं ही अक्सर मुझसे बर्तन लेकर उन्हें साफ कर देता। पहले दस-पंद्रह दिन होटल की रोटी को छोड़ कर यह सिलसिला मेरे मौड़ मंडी रहने तक बना रहा।
मौड़ मंडी रहते हुए एक बुरी आदत जो मुझे पड़ गई थी, वह थी - शराब पीने की। मौड़ मंडी का ही एक मास्टर बरजिंदर सिंह अक्सर ही शराब पीता। था शायद वह एफ.ए. फेल, पर स्कूल में वह किसी अच्छे जट्ट का बेटा होने के कारण हवाखोरी के लिए आया करता था। पढ़ाता था खेतीबाड़ी और हमारे हॉस्टल से करीब सौ गज की दूरी पर एक चौबारे में रहा करता था। कुछ घर से लाकर और बाकी तनख्वाह से उसका दारू सिक्के का काम अच्छा चलता था। मैं भी उसकी ढाणी में शामिल हो गया था। अधिक नहीं तो सप्ताह में दो तीन बार जाम टकरा ही जाते। ठेके की देसी दारू - सौंफिया या संतरा लाते। लाने की जिम्मेदारी बरजिंदर सिंह की होती। उसके कुछ अन्य यार-दोस्त भी कई बार आ शामिल होते। फिर एक बोतल तो क्या, दूसरी और फिर तीसरी का सिलसिला चलता। मेरे शराब पीने की जानकारी हालांकि सभी विद्यार्थियों को थी, पर इस कारण विद्यार्थियों के दिल में मेरा मान-सत्कार बिलकुल भी कम नहीं हुआ था। कारण यह था कि मौड़ मंडी के क्या ब्राह्मण, क्या बनिये शराब पीने को बुरा नहीं समझते थे। कहते कहवाते अग्रवाल आढ़तिये भी सब शराब पीते थे। मास्टर कर्म चंद भी रात को ट्यूशन पढ़ाने के बाद दो पैग ज़रूर लगाता, पर वह अकेला पीता था। जब बरजिंदर सिंह मुझे हॉस्टल तक छोड़ने आता तो अक्सर मैं पहले अपने कमरे के बजाय लाला कर्म चंद के कमरे में जाता और मेरा एक ही वाक्य होता और उसका भी एक ही, ''और सुनाओ लाला जी... काटो फूलों पर खेलती है न ?''
''सच बात है, तेरे से कौन सा छिपाव है। बस दो पैग लगाए हैं।'' लाला जी की मुस्कान और 'सच बात है' तकिया कलाम सुनकर मैं अपने कमरे में आ जाता। शास्त्री की पकाई रोटी खाकर चुपचाप पड़ जाता। बरजिंदर सिंह को मैंने यह कह रखा था कि वह मुझे छोड़ कर उल्टे पांव लौट जाया करे क्योंकि शास्त्री हम दोनों के शराब पीने को अच्छा नहीं समझता। हमारा यह समझौता अन्त तक निभा। शास्त्री यह जानकर भी कि मैं शराब पीकर आया हूँ, कुछ न कहता। वैसे अन्दर ही अन्दर अवश्य विष घोलता होगा। इस बात का पता मुझे उससे अगले दिन उसके शराब के विरुद्ध बोलने से लग जाता था। मैं स्वयं भी भीतर ही भीतर शराब छोड़ना चाहता था, पर लाख टालमटोल के बावजूद दूसरे चौथे दिन बरजिंदर सिंह के जाल में फंस ही जाता। शराब छोड़ने का कारण एक यह भी था कि मुझे रात में बरजिंदर के चौबारे से हॉस्टल तक चल कर आना कठिन लगता था। हाँ, अगर स्ट्रीट लाइट होती, फिर तो अधिक कठिनाई नहीं होती थी, पर स्ट्रीट लाइट न होने पर मेरे लिए चलना कठिन हो जाता। हालांकि मुझे दिन में चलने फिरने में कोई मुश्किल नहीं थी, पर रात के समय चलना बड़ा कठिन लगता। यही कारण था कि मैं बरजिंदर के साथ दारू पीने बैठने से पहले हॉस्टल तक छोड़ कर आने की हामी भरवा लेता और वह भी यह कहकर हामी भर लेता कि दिन के समय मैं शेर हूँ और रात के समय बनिये का बनिया। मैं बात को हँसी में टाल देता। लेकिन मैं अपने इस मकसद में कामयाब था कि रात में चल कर आते समय उसे अपनी कम दृष्टि या अंधराते का पता नहीं लगने देता था। मुझे स्वयं भी उस समय नहीं पता था कि मैं अंधराते की बीमारी का शिकार हूँ और मेरी आँखों के रोग की जड़ अंधराता है।
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Sunday, June 20, 2010

पंजाबी उपन्यास


''साउथाल'' इंग्लैंड में अवस्थित पंजाबी कथाकार हरजीत अटवाल का यह चौथा उपन्यास है। इससे पूर्व उनके तीन उपन्यास - 'वन वे', 'रेत', और 'सवारी' चर्चित हो चुके हैं। ''साउथाल'' इंग्लैंड में एक शहर का नाम है जहाँ अधिकतर भारत से गए सिक्ख और पंजाबी परिवार बसते हैं। यहाँ अवस्थित पंजाबी परिवारों के जीवन को बेहद बारीकी से रेखांकित करता हरजीत अटवाल का यह उपन्यास इसलिए दिलचस्प और महत्वपूर्ण है क्योंकि इसके माध्यम से हम उन भारतीय लोगों की पीड़ा से रू-ब-रू होते हैं जो काम-धंधे और अधिक धन कमाने की मंशा से अपना वतन छोड़ कर विदेशों में जा बसते हैं और वर्षों वहाँ रहने के बावजूद वहाँ की सभ्यता और संस्कृति का हिस्सा नहीं बन पाते हैं।

साउथाल
हरजीत अटवाल

हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव

॥छह॥

कारा और प्रदुमण रिश्तेदार हैं और हमउम्र भी। इकट्ठे ही इंग्लैंड आए और इकट्ठे ही रहे। प्रदुमण इंडिया जाते समय अपने घर की कई जिम्मेदारियाँ कारा को सौंप कर गया था। पहले तो प्रायवेट किरायेदार थे, फिर कारा की मार्फत ही उसने घर काउंसल को किराये पर दे दिया था। घर की टूट-फूट की मरम्मत कारा ही करवाता। और भी कोई शिकायत होती तो कारा ही सुनता। प्रदुमण भी मुसीबत के समय कारा के संग खड़ा हो जाता है। कारा भी सोचा करता है कि जिस व्यक्ति के पास एक रिश्तेदार भी संग खड़ा होने वाला हो तो उसे बहुत सारे दोस्तों की ज़रूरत नहीं पड़ती। वैसे कारा के काफ़ी दोस्त हैं। उसकी इधर-उधर लम्बी-चौड़ी जान-पहचान है। उसका बीमे का काम है। कारों की इंश्योरेंस करता है। साउथाल का माना हुआ ब्रोकर है। ग्राहक का क्लेम दिलाने में वह काफ़ी मशहूर है। वह स्वयं क्लेम फॉर्म भरता है और कम्पनी को बार-बार फोन करके ग्राहक को पैसे दिला देता है। उसके इसी व्यवहार के कारण एक बार आया ग्राहक किसी दूसरे ब्रोकर के पास नहीं जाता।
एक दिन शाम को गिलास टकराते हुए कारा कहता है-
''दुम्मणा, इंश्योरेंस का काम शुरू कर ले यार। शुरू में कठिन है, बाद में ठीक है। एक बार पैठ पड़ गई तो फिर सब कुछ ठीक।''
''नहीं कारे। तू यूँ ही दुखी रहने लग पड़ेगा। तेरे क्लाइंट ही तो मेरी ओर दौड़ेंगे।'' कहकर दुम्मण तिरछी नज़र से देखता है।
''नहीं, मेरा कोई कलाइंट नहीं आने वाला तेरी तरफ। मैंने तो मानो उन्हें अफीम चटा रखी है।''
बात करते हुए कारा हँसता है। प्रदुमण कहता है -
''यह काम मेरे वश का नहीं। तुझे तो तेरी बीवी सुरजीत की बहुत मदद है, पढ़ी-लिखी है। पर मेरी ज्ञानो क्या हैल्प करेगी।''
''उस समय तू जल्दी कर गया विवाह के लिए। कहता था- शक्ल मधुबाला जैसी है, पढ़ाई-लिखाई को क्या करना है।''
''उस समय फिर दूर का कहाँ सोचना होता है। वैसे चाहे अनपढ़ थी, पर दुकान में मेरा काफ़ी साथ दिया।''
''दुकान ही ले ले कोई।''
''अब मैं दुकान भी नहीं करना चाहता। पब्लिक डीलिंग मुझे अच्छी नहीं लगती, पर काम तो अब मुझे खोजना ही है। एअरपोर्ट का चक्कर लगाकर आया हूँ। तू भी काम की तलाश करना।''
''एअरपोर्ट वाले यंग ब्लॅड को प्रिफर करते हैं। एअरपोर्ट वाले क्या हर कोई जवान लड़कों को काम देकर खुश हैं। और कुछ नहीं तो मिनी कैब ही कर ले।''
''वह तो आखिरी हथियार है। और फिर टैक्सी खतरनाक भी है। शराबी गाहक चाकू मारने में मिनट भर नहीं लगाते।''
''अंडरग्राउंड वगैरह में नाम दे आ।''
''हाँ, करता हूँ कुछ। पहले तो किराये पर घर या फ्लैट देखें। नोटिस देने के बाद भी अपना घर पता नहीं कब खाली हो।''
''मेरे यहाँ ऐसे ही काम चलाये जाओ।''
''नहीं कारे, अगर हफ्ता-दस दिन की बात होती तो ठीक था, पर यह तो पता नहीं कई महीने ही लग जाएँ। तू तो जानता ही है, काउंसल के कामों के बारे में।''
''घर तो पटेल का खाली पड़ा है, पर वहाँ सेंट्रल हीटिंग नहीं है।''
''इतनी ठंड में हीटिंग के बग़ैर काम नहीं चलेगा।''
''दुम्मणा, अपना यूँ ही काम चलता रहे तो किराया किसलिए देना। यह ठीक है कि इतने बन्दों के लिए यह घर छोटा है, पर जब टाइम ही पास करना हो तो कौन सी बात है।''
प्रदुमण जानता है कि कारा मोह के कारण कह रहा है। वह महसूस करता है कि उसके छह सदस्य आ जाने से कारा के बच्चे खुश नहीं हैं और न ही उसकी पत्नी सुरजीत। वह जानता है कि हर परिवार निजता चाहता है, अपनी एक ओट। हर परिवार क्यों, हर सदस्य की निजी ज़िन्दगी है, किसी के दख़ल को कोई पसंद नहीं करता।
शीघ्र ही उन्हें मार्टन हाउस में दो बैडरूम का फ्लैट किराये पर मिल जाता है। किराया तो इस फ्लैट का पूरे घर जितना ही है, पर वह पूरी तरह फर्निशड है। उन्हें इस घर में कुछ भी लाने की ज़रूरत नहीं। वे तुरन्त मूव हो जाते हैं। काउंसल को उसने घर खाली करने का नोटिस दे दिया है। बच्चे भी फिर से स्कूल जाने लगते हैं। उन्हें पहले वाला ही डौरमर हाई स्कूल मिल जाता है। प्रदुमण स्वयं जाकर हैड मास्टर से मिलता है और सारा इंतज़ाम कर लेता है। दोनों बेटे तो पहले ही हाई स्कूल जाते थे, इंडिया जाने से पहले, पर अब दोनों लड़कियों की उम्र भी हाई स्कूल जाने की हो चुकी है। उन्हें स्कूल में जगह कुछ मुश्किल से मिलती है, पर मिल जाती है। वह चाइल्ड अलाउंस दुबारा शुरू करवाने के लिए भी फॉर्म भर देता है। उन्हें काम ही नहीं मिले, नहीं तो ज़िन्दगी फिर से पटरी पर आ जाती। जो कुछ उनके साथ इंडिया में हुआ है, वो पीछे छूटता जा रहा है। कारा कहता है कि जब तक कोई काम नहीं मिलता, क्यों नहीं वह सोशल सिक्युरिटी से भत्ता ले लेता। लेकिन प्रदुमण का सोचना है कि सरकारी भत्तों से इंसान आलसी हो जाता है और दूसरे पर निर्भर होने लगता है। प्रदुमण को यह मंजूर नहीं है।
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Saturday, June 12, 2010

आत्मकथा



एक नेत्रहीन लेखक की आत्मकथा

धृतराष्ट्र
डॉ. एस. तरसेम
हिन्दी अनुवाद : सुभाष नीरव
चैप्टर-9(शेष भाग)


कांगड़ा की नौकरी

चिट्ठी-पत्तर के माध्यम से यह फैसला हो गया था कि अगले महीने माँ मेरे साथ आएगी। इसलिए मैंने एक कमरा किराये पर ले लिया था जिस पर स्लेटों की छत वाला एक और कमरा बना हुआ था। रसोई, गुसलखाना भी था और इस रैन-बसेरे के साथ वक्त-बेवक्त जंगल-पानी जाने की भी कोई चिंता नहीं थी। बड़ी बात यह थी कि उसके साथ ही हरीश का छोटा-सा कमरा था, किसी साधू की कुटिया जैसा। यह सब कमरे एक बिल्डिंग का हिस्सा थे जिसका मालिक कांगड़े के देवी मंदिर का पुजारी चंदर मुनी था। उसकी अपनी रिहायश भी मेरे वाले कमरे के बिलकुल साथ थी। स्कूल से आते समय शहर की मुख्य सड़क से दायें हाथ सौ एक गज आगे एक गली थी। गली के पीछे से वे सीढ़ियाँ आ जाती थीं जो मंदिर को जाती थीं। मेरे इलाके में इस मंदिर को ‘माता का भवन’ कहते हैं। सीढ़ियों की गिनती तो याद नहीं, तीनेक मिनट चलने के बाद दायें हाथ माता का भवन आता और उससे आगे बीसेक सीढ़ियाँ चढ़कर चंदर मुनी का निवास।
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स्कूल में जो कुछ घटित हुआ, वह ज्यादातर तो चिट्ठियों में लिख दिया था, पर भाई सबकुछ विस्तार से मेरे मुँह से सुनना चाहता था। वह मेरी इस नियुक्ति पर बहुत प्रसन्न था। इसके बावजूद कि वह स्वयं वैष्णव था, उसने विशेष तौर पर मुझे रोज़ दो अंडे खाने की हिदायत दी। यह भी कहा कि अब पीछे पैसा भेजने की चिंता न करना। फल भी खाना और दूध भी पीना। सैर के लिए अवश्य जाते रहना। चीड़ के दरख्तों के बीच से गुजरकर आने वाली हवा बड़ी मुफ़ीद होती है।
बातें करते-करते उसने रामकरन की बात भी छेड़ दी। रामकरन चाचा मनसा राम का सबसे बड़ा लड़का था। उसे टी.बी. हो गई थी। चाचा मनसा राम जो ताया मथरा दास का सबसे छोटा भाई था, उन दिनों हमारे खानदान में सबसे अमीर था। इसलिए उसने रामकरन को कसौली भेज दिया था। शायद यह डॉक्टरों की हिदायत थी या वैद्य-हकीमों की। वह डेढ़ साल कसौली में रहा। कसौली को उन दिनों पंजाबी लोग सबसे बढ़िया सैनीटोरियम समझा करते थे। लेकिन अमीर लोग ही कसौली की हवा-पानी का लाभ उठा सकते थे। आज की तरह टी.बी. के इलाज के लिए पूरी दवाइयाँ नहीं मिला करती थीं इसलिए पहाड़ी हवा-पानी, गद्दियों की भेड़-बकरियों की मेंगड़ों की गंध और चीड़ के दरख्त, ये सब तपेदिक के रोज के कुदरती इलाज समझे जाते थे। मेरे भाई ने भी मेरे लिए पहाड़ों की नौकरी का चयन इसीलिए किया था ताकि मैं तपेदिक के रोग का शिकार होने से बच जाऊँ, क्योंकि इस बीमारी से बहन सीता की मौत का दुख भी अभी हमारे परिवार को भूला नहीं था।
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माँ के साथ मेरी छोटी भतीजी सरोज भी तैयार हो गई। उस समय वह पाँचवी में पढ़ती थी। उसे ले जाकर मैं भी राज़ी था और माँ भी, पर एक चिंता थी मुझे भी और माँ को भी कि अगर इसका मन नहीं लगा तो इसे कौन छोड़ने आएगा। बड़ी मुश्किल से उसे पाँचवी कक्षा में दाख़िला दिलाया। सरकारी प्राइमरी स्कूल की पहाड़िन अध्यापिकाएं पैरों पर पानी नहीं पडने देती थीं। हैड टीचर ने उसके मीडियम की समस्या खड़ी कर दी। आख़िर प्रिंसीपल साहब के दख़ल और टैस्ट लेने के बाद सरोज को दाख़िल कर लिया गया, पर वही समस्या सामने आ गई, जिसका डर था। खाने-पीने की मनमर्जी की चीजों से भी वह न बहलती। हमेशा वापस जाने की रट लगाती रहती। एक दिन कहने लगी-
''डाकखाने वाले भाई मुझे छोड़ आएंगे।''
''ऐसा कर तरसेम, इसे बोरी में बन्द करके डाकखाने वालों को दे आ।'' माँ ने हँस कर कहा।
लेकिन एक महीने के अन्दर-अन्दर उसका मन लगते लगते ऐसा लगा कि मानो वापस लौटने की बात ही भूल गई हो। स्कूल में जो कुछ पढ़ती, उसके बारे में शाम को आकर मुझे बताती। दिसम्बर में उसके नौ-माही इम्तेहान होने थे। एक दिन स्कूल से खाली पीरियड में मैं सरोज के स्कूल चला गया। उसकी अध्यापिका ने जिस खुशी से उसकी प्रशंसा की, मेरा सेरभर लहू बढ़ गया। अध्यापिका का उलाहना प्रशंसा में बदल गया था। वैसे भी मेरे बारे में उसे सेंट हिलडाज़ गर्ल्ज हायर सेकेंडरी स्कूल से पता चल गया था कि मेरे अपने स्कूल में मेरा कितना प्रभाव है। इस लड़कियों के स्कूल के प्रिंसीपल के निमंत्रण पर मैं विद्यार्थियों को सम्बोधित करने गया था। उस स्कूल में अध्यापिका की बेटी भी पढ़ती थी। उस लड़की ने ही मेरे बारे में अपनी माँ को सबकुछ बताया होगा। हैड टीचर की पहली मुलाकात वाला रूखा रवैया मानो अब घी-शक्कर में बदल गया था।
दिसम्बर के टैस्ट में सरोज अपनी कक्षा में प्रथम आई। दूसरे स्थान पर रहने वाली लड़की के नंबर से सरोज के नंबर कहीं अधिक थे। मैं उन दिनों बीमार था। कई दिनों से स्कूल नहीं गया था। सरोज की हैड टीचर और संबंधित अध्यापिका बधाई देने खुद घर आईं।
यहाँ रह कर सबसे अधिक खुश थी मेरी माँ। उसे तो मानो स्वर्ग हाथ लग गया हो। वे सवेरे उठती, नहाती और माता के भवन माथा टेकने चली जाती। जिस माता के भवन पर एक बार आने के लिए मेरी माँ को 30-35 साल पहले गगरेट से खच्चरों पर आना पड़ा था, वह भवन अब घर बैठी भी रोज़ देखती, माता के दर्शन के लिए अव्वल तो सवेरे-शाम दो बार जाती, नहीं तो सवेरे अवश्य जाती, इसमें नागा नहीं होने देती। चंदर मुनी की पत्नी माँ को हाथ जोड़ कर प्रणाम करती। अन्य भोजकियों(पुजारियों) की स्त्रियों से लेकर बच्चे तक माँ को 'माँ जी' कह कर माथा टेकते। माँ इसे अपना धन्यभाग समझती। मेरे जन्म को अपना जीवन सफल मानने वाली बात कहते हुए वह न थकती। मैं माँ को खिझाने के लिए दिन में एक बार अवश्य कहता-
''खाण पींण नूं भोजकी
दुख सहिण नूं दोजकी।''

''न बेटा, फिर भी ब्राह्मण की औलाद हैं ये। इन्हें माड़ा वचन नहीं कहते।'' माँ मुझे नसीहत देते हुए कहती। मुझे माता के भवन के दर्शन करने के लिए भी कहती रहती और मैं माँ को हँस कर यह कह कर टाल जाता-
''माँ, तू रोज़ दो वक्त जाती है। अपना पुण्य आधा-आधा।''
नवरात्रों में दो बार मैं माता के भवन फेरा लगा आया था। देखने यह गया था कि माता की पिंडी घी की कैसे बनी हुई है। सचमुच, वह घी के स्थान पर सफ़ेद दूधिया संगमरमर की पिंडी प्रतीत होती थी। इस तरह का माता का रूप मैंने अन्य किसी मंदिर में नहीं देखा था।
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मेरी आँखों की हालत के बारे में हरीश पूरी तरह जान गया था। पड़ोसी होने के कारण वह अक्सर शाम को मेरे पास आ जाता। मैं उसे सैर के लिए ले जाता। उसके संग सैर करने में मुझे कोई झिझक नहीं थी। अगर अंधेरा भी हो जाता तो भी वह मेरे साथ मेरा सहारा बनकर चलता। छुट्टी के दिन हम किसी न किसी तरफ निकल जाया करते। एक बार महाराजा रणजीत सिंह का किला देखने गए। मुख्य द्वार पर महाराजा रणजीत सिंह के नाम का पत्थर अभी भी लगा हुआ था। वैसे सारा किला ढह चुका था। हमारे हाथ एक पत्ती लग गई। दो जगहों पर हमने पत्ती से काफी गहरा खोदा। एक जगह से गेहूं और दूसरी जगह से चावल निकले। बिलकुल काले मानो जले हुए हों। हमने अंदाजा लगाया कि यहाँ फौजों के लिए किसी वक्त अनाज़ जमा किया गया होगा। किले से आगे दूर तक ठाठें मारता पानी का प्रवाह, मानो कोई समुद्र हो। नहाने के लिए मन हुआ, पर मैं तेज बहते पानी में घुसने से डरता था, इसलिए नहाने का ख्याल त्याग दिया। जलधारा के इस तरह के बहाव, जल कुंड और अनेक अन्य नज़ारे जब भी आकर्षित करते, मैं छुट्टी वाले दिन कभी हरीश के साथ तो कभी जसबीर के साथ चला जाता। हरीश तैरना भी जानता था। इसलिए वह कहीं भी जाकर नहाने से नहीं झिझकता था। अगर मैं नहाता तो बस किनारे बैठकर ही नहाया करता।
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लोग कहते थे कि जैसी ठंड इस बार पड़ी है, वैसी कभी नहीं पड़ी। धर्मशाला के पहाड़ों पर पड़ी बर्फ़ रूई के गोलों जैसी लगती, पर बुखार चढ़ने के कारण मेरा घर से निकलना बन्द हो गया। बुखार के साथ खांसी-जुकाम के कारण कमजोरी दिन-ब-दिन बढ़ती गई। मन करता था यहाँ से भाग जाऊँ। यह बात मुझे कई वर्ष बाद समझ में आई कि सीलन भरा मौसम मेरे मुआफ़िक नहीं आता। लेकिन मैंने तो दिसम्बर में ही नौकरी छोड़ कर घर लौटने का फैसला कर लिया था। प्रिंसीपल और सब सीनियर अध्यापकों का प्यार और सत्कार भी मुझे वहाँ रहने के लिए रोक न सका। भाई को ख़त लिख दिया। उसने उत्तर दिया कि यदि मन उचाट हो गया है तो बेशक नौकरी छोड़ दूँ। लेकिन साथ ही लिखा कि तेरे लिए पहाड़ी आबोहवा अच्छी है। मैं भाई की सारी बात समझ गया था। अपने स्टाफ के अलावा अपने प्रिय मित्र जसबीर और हरीश की नसीहत भी किसी काम न आई। सरोज की अध्यापिकाओं के पास जब उसका सर्टिफिकेट लेने गया तो वे सर्टिफिकेट देने को तैयार नहीं थीं। हैड टीचर उम्र में मुझसे बहुत बड़ी थी। उसने बड़ी बहनों की तरह मुझे बहुत समझाया, पर पता नहीं मेरे दिल में क्या था, मैं जिद्द पर अड़ा रहा। प्रिंसीपल मिश्रा जब मेरी रिलीविंग चिट पर दस्तख्त कर रहा था, उसका गला भर आया। सचमुच उसकी आँखों में से आँसू बह निकले। इस तरह का प्यार ज़िन्दगी में मुझे किसी मुख्य अध्यापक से प्राप्त नहीं हुआ था। पर मैं क्या था, मानो पत्थर बन गया होऊँ। मैं उसके प्यार का मोल नहीं चुका सका। इस बात का पछतावा मुझे अगले स्कूलों में पहुँचकर भी सताता रहा। मुझे एक देवता की कद्र करनी नहीं आई थी। शायद अब वह इस संसार में हैं या नहीं। अगर होंगे तो लगभग सौ बरस के होंगे। उनके प्रति मेरा आदर-सम्मान आखिरी दम तक बना रहेगा और उन्हें स्मरण करते हुए क्षमा याचना की मुद्रा में उस स्कूल को छोड़ने के साल भर बाद एस.डी. हाई स्कूल, मौड़ मंडी छोड़ते समय भी मुझे उनका स्मरण आया था और अक्सर अब भी उसी तरह की मुद्रा में उन क्षणों के दौरान आ जाया करता हूँ जब कभी किसी अफ़सर का व्यवहार अमानवीय अनुभव करता हूँ।
18 जनवरी 1964 को पहली बस पकड़कर तीन बजे वाली गाड़ी से तपा पहुँच गया था। समझो, बुद्धू लौट कर घर आ गया था।
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नवम्बर के दूसरे सप्ताह स्कूल में एक असुखद घटना घटी। बाकी अध्यापकों के लिए यह सरसरी बात थी पर मेरे लिए दुखद। मेरे से अधिक यह दुखद बात पीतांबर दास के लिए थी। वह सीनियर अध्यापकों में से था। तीसरे नंबर पर अध्यापक माया दास के बाद वह अंग्रेजी का सबसे बढ़िया अध्यापक था। उसने कुछ मॉटो बनवाए और बड़ी कक्षाओं में लगवा दिए। ये सब मॉटो मुझे दिखलाकर लगाए गए थे। मैंने उससे कहा था कि यह आर्य समाजियों का स्कूल है, इसलिए ‘Religion is opium for the society’ वाला मॉटो मत लगवा। लेकिन उसने मेरी बात को शायद सरसरी तौर पर लिया हो। ग्यारहवीं कक्षा में यह मॉटो लगवा दिया गया। अगले दिन प्रिंसीपल अर्थ-शास्त्र के घंटे में जब कक्षा में गया, पीरियड तो उसने पूरा पढ़ाया होगा लेकिन पीरियड के तुरन्त पश्चात् पीतांबर दास की पेशी हो गई थी। उसने इस मॉटो को लगाने में मेरा नाम खामख्वाह लगा दिया। जब मुझे बुलाया गया तो मैंने साफ़ कह दिया कि मैंने तो इस मॉटो को लगाने पर पीतांबर दास को रोका था और साथ ही यह भी स्पष्ट कर दिया कि आर्य और सनातम धर्म की संस्थाओं में इस प्रकार के मॉटो पसंद नहीं किए जाते। उस मॉटो को लेकर जो विचार-विमर्श हुआ, उससे प्रिंसीपल के दिल में मेरे ज्ञान के संबंध में जो वृद्धि हुई, मुझे कभी यह महूसस नहीं हुआ कि वह कोई नकारात्मक होगा। पर पीतांबर दास की कच्ची कामरेडी के कारण मैंने उसके साथ मेलजोल बिलकुल ही कम कर दिया। मुझे तपा मंडी के आर्य स्कूल के हैड मास्टर यशपाल भाटिया की आदतों से पता चल गया था कि आर्य समाजी धर्म विरोधी किसी कार्यवाही को बर्दाश्त नहीं करते। मेरी यह बुज़दिली समझो या समय के फेर से आई समझ कि मैंने पीतांबर दास के इस काम का समर्थन नहीं किया था।
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अभी स्कूल में उपस्थित हुए कुछ ही दिन हुए थे कि हिमाचल प्रदेश शिक्षा विभाग का नियुक्ति पत्र भी आ गया। भाई ने डाक से यह नियुक्ति पत्र भेजते हुए लिखा था कि अगर यह स्कूल मंडी के करीब हो तो मैं इस प्राइवेट स्कूल की नौकरी छोड़कर वहाँ चला जाऊँ। मैंने दो दिन का अवकाश लेकर मंडी के लिए बस पकड़ ली। मुझे नहीं मालूम था कि मेरे पहुँचने तक दफ्तर बन्द हो जाएगा। रात मुझे एक होटल में बितानी पड़ी। वैसे रात में रहने के लिए मैं कम्बल और अटैची लेकर गया था। मैं जानता था कि आज वापस लौटना नहीं हो सकेगा। जैसे मुबारकपुर चौकी से कांगड़े के सफ़र में काफी फ़र्क़ था, उससे भी अधिक फ़र्क़ कांगड़ा से मंडी तक के सफ़र में था। पहाड़ों की ऊँचाई, भिन्न-भिन्न प्रकार की वनस्पति और ठंड के कारण जहाँ कांगड़े का अभी पहाड़ी मौसम नहीं लगता था, वहीं बैजनाथ से मंडी तक का सारा सफ़र ऊँची पहाड़ियों, ढलानों, मोड़ों तथा ठंड और सीलन के कारण पूरी तरह पहाड़ी लगता था। जिस होटल में मैं ठहरा, वहाँ एक तिब्बती जोड़ा भी ठहरा हुआ था। बौध धर्म के ये पैरोकार दलाईलामा के साथ तिब्बत से भाग कर भारत आए हुए थे और शरणार्थियों वाली ज़िन्दगी गुजार रहे थे। उनके बताने पर पता चला कि वे धर्मशाला के पास एक स्कूल में रहते हैं। पर रात में जब मैंने उन्हें मांस खाते देखा तो हैरान रह गया। यह मुझे पहले नहीं पता था कि अहिंसावादी बौधी मांस भी खा लेते हैं।
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सवेरे तैयार होकर ज़िला शिक्षा अधिकारी के दफ्तर इस आस से पहुँचा कि वह स्टेशन बदल देगा और मेरी नियुक्ति सुंदर नगर के करीब किसी स्कूल में कर देगा क्योंकि रात में होटल के मालिक ने मुझे बता दिया था कि पांगना यहाँ से 60 मील की दूरी पर है। बस कोई नहीं जाती। माल ढोने-उतारने के लिए ट्रक जाते हैं। आगे कुछ मील पैदल चलकर जाना पड़ता है। इसलिए मैंने रात में अपने मन में निश्चय कर लिया था कि पांगना नहीं जाना है। अफ़सर कोई मुसलमान था। सिर पर सफ़ेद टोपी से वह मुझे कांग्रेसी पंडित प्रतीत हुआ, पर बाहर लगी नाम वाली तख्ती तो झूठ नहीं बोलती थी।
मैंने हाथ जोड़ दिए, पर मेरी समझ में यह नहीं आ रहा था कि उससे किस तरह संबोधित होऊँ। होंठों के फड़कने के सिवाय मैं कुछ और नहीं कह पाया था। अफ़सर ने कुर्सी पर बैठने का इशारा किया और कहा-
''कहाँ से तशरीफ़ लाए हैं ?''
''तपा मंडी, ज़िला संगरूर, पंजाब से।'' साथ ही मैंने शिमला से आया नियुक्ति पत्र सामने रख दिया और विनय की कि मेरी नियुक्ति सुंदर नगर या इसके आसपास कर दी जाए।
''तपा मंडी ! यह वही तपा मंडी है जहाँ के पंडित गोवर्धन दास ही हैं ?''
''जी हाँ।''
''अच्छा ! वहाँ अफीम खूब बिकती है।''
''पहले बिका करती थी, अब नहीं।'' मैंने सच के आस पास रहकर ही जवाब दिया।
मुझे आशा थी कि तपा मंडी के बारे में इतना कुछ जानने वाला अफ़सर मेरी विनती अवश्य मान लेगा, पर उसकी शर्त थी कि पहले मैं हिमाचल प्रदेश सरकार का मुलाज़िम बनूँ और फिर बदली के लिए चिट्ठी-पत्र करूँ। मुलाज़िम बनने का तात्पर्य यह था कि मैं पहले सरकारी हायर सेकेंडरी स्कूल, पांगना जाकर उपस्थित होऊँ। जब तिलों में तेल न दिखाई दिया तो मैं बग़ैर कुछ कहे अपने कागज़ मेज पर से उठाकर दफ्तर से बाहर आ गया। यहाँ आते समय जो खुशी थी, यहाँ से लौटते समय उससे बढ़कर उदासी थी। दो दिहाड़ियाँ बर्बाद हो गई थीं और साठ रुपये भी। भाई को पत्र में सब कुछ लिख दिया और उसे तसल्ली थी कि मैंने जो कुछ किया है, ठीक ही किया है। लक्ष्मण को भी नियुक्ति पत्र आ गया था और था भी मंडी ज़िले का। उसने मेरे आ जाने के बाद ही घर से पैर निकालना था, यह बात भाई के खत से पता चली थी।
तिब्बतियों को मिलकर उनके स्कूल देखने की अभिलाषा जो दिल में थी, वह अक्तूबर की तनख्वाह लेकर पूरी भी कर ली। सबसे बड़ी हैरानी वाली बात यह हुई कि ये तिब्बती बच्चे हिन्दी इतनी सुंदर लिखते थे, मानो मोती पिरोये हों। न ही कांगड़ा में और न ही पंजाब के किसी बच्चे की मैंने इतनी सुंदर लिखावट देखी थी। मैंने अपने मन ही मन अनुमान लगाया कि चीन और तिब्बत की चित्र लिपि होने के कारण सुंदर लिखाई का वरदान इन लोगों को कुदरत की ओर से मिला हुआ है। यह स्कूल धर्मशाला के करीब ही था। इसलिए दिन छिपने से पहले घर लौट आया और फिर इन तिब्बती बच्चों और अध्यापकों को कांगड़ा के करीब एक बहती धारा में नहाते और तैरते देखा, जिन्हें पूरी तरह तैरना नहीं आता था, वे कारों की ट्यूब पहनकर तैर रहे थे। उनकी याददाश्त का कमाल यह था कि उन्होंने मुझे पहचान लिया और मेरे साथ उनकी स्कूल में जो बातें हुई थीं, वे शब्द-दर-शब्द बताने लग पड़े।
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हरीश के पड़ोस में रहने का एक लाभ यह हुआ कि मुझे 'गांधी आई अस्पताल, अलीगढ़' का पता लग गया और उसने मुझे छुट्टियों में अलीगढ़ आने का न्यौता दे दिया। मैंने उसका पूरा पता नोट करके छुट्टियों में अलीगढ़ जाने का फैसला कर लिया।
कांगड़ा में चिट्टी-पत्र का सिलसिला हरीश को छोड़कर अन्य किसी से नहीं था। इसका एक कारण तो यह भी था कि मुझे ग्रीष्म अवकाश में उसके पास अलीगढ़ जाना था जिस कारण मैं उससे राब्ता रखना चाहता था। पर इससे मुझे जो एक लाभ और हुआ, वह था - आठवीं और दसवीं के मेरे सौ प्रतिशत नतीजों की सूचना। उसने चिट्ठी में ही लिखा था कि स्कूल में अब भी मेरा नाम बड़ी इज्ज़त से लिया जाता है और अगर मैं आना चाहूँ तो अब भी प्रिंसीपल बग़ैर किसी अर्जी के मुझे नियुक्ति पत्र भेजने को तयार है।
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जब सर्दी अधिक पड़ने लग पड़ी तो बहुत सारे विद्यार्थी कांगड़ी साथ लाने लग पड़े। कांगड़ी एक प्रकार की छोटी अंगीठी थी जिसे कुम्हार मिट्टी से बनाकर आवा में पकाते थे। उस कांगड़ी में चार-पाँच कोयले रखने की गुंजाइश होती। लुटिया के आकार जैसी इस कांगड़ी को पकड़ने के लिए मिट्टी का कुण्डा लगा होता। बच्चे बेंच पर कांगड़ी रख लेते और हाथ सेंकते रहते। इस तरह की बात मैंने सर्दियों में जुआर में नहीं देखी थी। जुआर में इस तरह की ठण्ड पड़ी भी नहीं थी।
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हमारे कमरे के दायीं ओर एक थानेदार रहता था। पहले वह कांगड़ा के थाने में था और बाद में उसकी बदली धर्मशाला की हो गई थी। लेकिन रिहाइश उसने अभी नहीं बदली थी। माँ के साथ थानेदारनी की थोड़ी-बहुत बोलचाल बनी थी। वैसे उनका पूरा परिवार थानेदारी की हवा में ही उड़ा घूमता था। उसका एक लड़का आठवीं कक्षा में था और लड़की दसवीं में। लड़के को वे राज कहते थे और लड़की को सवरना। वहाँ मेरी रिहाइश के कुछ दिन बाद से ही लड़की अपने भाई को कभी हिसाब और कभी एलजबरे के सवालों पर निशानी लगाकर मेरे पास भेज दिया करती थी और मैं वे सवाल कापी पर हल कर दिया करता था। पाँच सात बार तो मैंने ऐसा किया होगा, पर जब मैंने देखा कि मेरी मेहनत और लियाकत को न थानेदार और न ही उसकी घरवाली कुछ समझते हैं तो मैंने कोई न कोई बहाना लगाकर लड़के को वापस लौटाना आरंभ कर दिया। जो बाप अपने बच्चों के उस्ताद से भी यह आस रखे कि थानेदार होने के कारण वह उसे दुआ-सलाम करे, भला तरसेम जैसा आदमी यह कैसे कर सकता था। वैसे भी पुलिसवालों के साथ मुझे कभी भी अधिक हमदर्दी नहीं रही थी और फिर वह थानेदार जो अपनी बेटी के सवाल हल करवाने के लिए किसी अध्यापक के पास अपने लड़के को भेजता हो, ऐसे शकी मिजाज़ पुलिसिये के साथ तो मैं बात करने को भी तैयार नहीं था। लड़के को छोड़कर मुझे वे पति-पत्नी और बेटी, तीनों ही अकड़बाज लगे। इसीलिए थानेदार ने जब स्वयं आकर उसकी लड़की को उनके कमरे में जाकर ट्यूशन पढ़ाने की बात की तो मैंने स्पष्ट शब्दों में मना कर दिया। लड़की की माँ ने भी मेरी माँ से बार-बार कहा, पर लड़की के माँ-बाप की थानेदारी वाली अकड़ और शकी स्वभाव के चलते मैंने पुन: कोरा जवाब दे दिया।
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पता नहीं क्यों मैं ज्योतिष को विज्ञान समझता आ रहा हूँ। न मेरा लोगों की तरह ईश्वर में भरोसा है, न मैं किसी मंदिर-गुरुद्वारे में जाता हूँ, पर किसी अच्छे ज्योतिष का नाम सुनकर अगर संभव हो तो उसके पास अवश्य जाता हूँ। कांगड़े में गाँव गग्गल में एक ज्योतिष रहता था। असली नाम तो उसका कुछ और ही होगा, पर इलाके में उसे बिधू राम के नाम से जाना जाता था। उसका लड़का हमारे पास ग्याहरवीं कक्षा में पढ़ता था। उसके बुलाने पर मेरा जाना आसान हो गया। जब गया तो उसके बड़े कमरे में कम से कम तीस-चालीस लोग बैठे होंगे। विद्यार्थी होने के कारण उसका बेटा मनीष मुझे अलग कमरे में ले गया और बताया कि उसके पिताजी किसी आवश्यक कार्य से साथ वाले गाँव में गए हुए हैं और उसने अपने पिता को मेरे आने में बारे में बता रखा है। यह ज्योतिषी केवल अपने इलाके में ही प्रसिद्ध नहीं था, डा. राजेन्द्र प्रसाद और पंडित नेहरू जैसे नेता भी उससे मिलने किसी समय आए थे। वह ब्लॉक समिति का चेयरमैन भी था। कहते थे कि उसके पास भृगु संहिता है। आदर-सम्मान तो पहले मनीष ही कर चुका था। पंडित जी आए, मनीष ने मेरी ओर इशारा किया। पंडित जी ने एक बड़ा सा कागज़ों का बंडल खंगाला। मेरे अतीत के बारे में इस प्रकार बताना शुरू कर दिया मानो वे मेरी ज़िन्दगी के चश्मदीद गवाह हों। फिर भविष्य के बारे में बताया, पर जो कुछ भविष्य के विषय में बताया, वह बिलकुल भी सच साबित नहीं हुआ।
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अंदरेटा कांगड़ा के निकट ही था। यहाँ पंजाबी नाटक की नकड़दादी नोरा रिचर्ड का निवास भी था और शोभा सिंह चित्रकार का भी। इसलिए इस पहाड़ी गाँव को देखने की बड़ी हसरत थी। इतवार को जाने का मन बनाया। हरीश ने वायदा करने के बावजूद सेहत खराब होने का बहाना बना दिया। मैं अकेला ही बस में चढ़ गया। अंदरेटे से काफी पहले बस एक हादसे का शिकार हो गई। कई मुसाफ़िरों को कई चोटें आईं। मुझे कोई चोट तो न आई, पर पूरा शरीर मानो कस-सा गया हो। मैंने अंदरेटा जाने का प्रोग्राम त्याग दिया और दो घंटे बाद कांगड़े को आ रही बस में चढ़ गया। पता नहीं, फिर कभी अंदरेटा जाने का सबब ही नहीं बन सका। नोरा रिचर्ड से मिलने का फिर कभी अवसर मिल ही नहीं सका। हाँ, शोभा सिंह चित्रकार से बीस साल बाद पंजाबी यूनिवर्सिटी, पटियाला 1983 में मुलाकात हो गई। कनवोकेशन में उन्हें डॉक्टरेट की डिगरी मिलनी थी और मुझे साहित्यिक उपलब्धियों के लिए गोल्ड मैडल। मिल कर मन तो प्रसन्न हो गया, पर आँखों की रौशनी चले जाने के कारण उनके नूरानी चेहरे के दर्शनों से वंचित रहने का मुझे आज भी अफ़सोस है।
कुछ ऐसी ही घटना योल्ह कैंप देखने जाते समय घटित हुई। चल तो मैं पड़ा, पर अड्डे से ही मुझे वापस बुला लिया गया। मैं यह स्थान इसलिए देखना चाहता था कि यहाँ देश की आज़ादी के बाद भी हमारी अपनी सरकार ने कम्युनिस्ट पार्टी के बहुत सारे नेताओं को काफी समय तक बन्द रखा था। योल्ह कैंप के बारे में या तो आज़ादी से पहले के अंग्रेज अफ़सर या कुछ सजा काटने वाले गोरे जानते थे या इस जेल के बारे में हमारे कुछ बुजुर्ग कामरेड। इन देशभक्त साथियों में से कुछ तो अभी भी जीवित हैं। मैं इस तीर्थ से भी वंचित रह गया।
(जारी…)
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Sunday, June 6, 2010

पंजाबी उपन्यास


''साउथाल'' इंग्लैंड में अवस्थित पंजाबी कथाकार हरजीत अटवाल का यह चौथा उपन्यास है। इससे पूर्व उनके तीन उपन्यास - 'वन वे', 'रेत', और 'सवारी' चर्चित हो चुके हैं। ''साउथाल'' इंग्लैंड में एक शहर का नाम है जहाँ अधिकतर भारत से गए सिक्ख और पंजाबी परिवार बसते हैं। यहाँ अवस्थित पंजाबी परिवारों के जीवन को बेहद बारीकी से रेखांकित करता हरजीत अटवाल का यह उपन्यास इसलिए दिलचस्प और महत्वपूर्ण है क्योंकि इसके माध्यम से हम उन भारतीय लोगों की पीड़ा से रू-ब-रू होते हैं जो काम-धंधे और अधिक धन कमाने की मंशा से अपना वतन छोड़ कर विदेशों में जा बसते हैं और वर्षों वहाँ रहने के बावजूद वहाँ की सभ्यता और संस्कृति का हिस्सा नहीं बन पाते हैं।


साउथाल
हरजीत अटवाल

हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव

॥पाँच॥
अगले दिन भी उतनी ही ठंड है। ज्ञान कौर और प्रदुमण सिंह तैयार होते हैं और भारी वस्त्र पहनकर ब्राडवे की ओर निकल पड़ते हैं। कुछ देर बस की प्रतीक्षा करते हैं, नहीं आती तो पैदल ही चल पड़ते हैं। तीन स्टॉप ही हैं बीच में। करीब पंद्रह मिनट लगते हैं पैदल चलने में। मौसम ठीक हो तो दस मिनट में ही आसानी से पहुँच जाते हैं। उन्होंने बिल्डिंग सोसायटी में से पैसे निकलवाने हैं। हज़ारेक पाउंड खाते में छोड़ रखे हैं और घर का किराया भी इसी खाते में आया करता है।
ब्राडवे पर चलते हुए वे ग्रेवाल एम्पोरियम तक जाते हैं। राजा राज भोज के स्थान पर कंटकी फ्राइड चिकन खुल रहा है। प्रदुमण सिंह ज्ञान कौर को इशारे से बताता है कि यही वह जगह है जहाँ साधू सिंह ने अपनी बेटी का क़त्ल किया था। चलते-चलते प्रदुमण सिंह आसपास देखता जाता है। कोई भी परिचित व्यक्ति नहीं मिल रहा। उसे वहम होने लगता है कि शायद लोग उसे पहचान न रहे हों। उसने इंडिया जाकर कत्थई रंग की पगड़ी जो बांधनी बन्द कर दी थी। अब वह ज़रा हल्के रंग की पगड़ी बांधने लगा है। वह फैसला करता है कि आज ही कत्थई रंग की पगड़ी खरीद लेगा। उन्होंने ब्राडवे पर से कुछ शॉपिंग तो करनी ही है।
ज्ञान कौर ढाई सौ पाउंड बिल्डिंग सोसायटी में से लेती है। वे कारे के पास रहते हुए घर के खर्च में हिस्सा डालना चाहते हैं, इसलिए उन्हें घर के कुछ सामान की शॉपिंग करनी है। उन्हें कुछेक दिन ही रहना है जब तक किराये पर रहने के लिए कोई फ्लैट या घर नहीं मिलता। फिर वे अपना घर खाली करवाने के लिए नोटिस दे देंगे जिसे उन्होंने काउंसल को किराये पर दे रखा है। काउंसल के काम कुछ लम्बे हुआ करते हैं इसलिए पता नहीं कितना समय लगे।
वे शॉपिंग करते हैं। बैग कुछ भारी हो जाते हैं। ज्ञान कौर वहीं से 105 नंबर बस ले लेती है। यह वही बस है जो एअरपोर्ट से आती है। इस बस को एलनबी रोड पर से होकर जाना है। कारे के घर के नज़दीक ही बस-स्टॉप है। प्रदुमण सिंह अख़बारों वाली दुकान से 'वास-परिवास' खरीदता है और लाइटों वाले पब की तरफ चल देता है। पब में बैठकर वह बीयर पीएगा और अख़बार पढ़ेगा। यदि कोई परिचित मिल गया तो काम के बारे में पता करेगा। इस वक्त उसका बड़ा मकसद नौकरी तलाशना है। ज्ञान कौर को भी उसने हिदायत दे रखी है कि जो भी परिचित औरत मिले, उससे वह काम के बारे में पूछताछ अवश्य करे। अपने लिए भी उसने यही सोचा है कि कोई भी परिचित मिले तो उससे काम के विषय में पता करे। वह लाइटों वाले पब में जा घुसता है। सरसरी नज़र से इधर-उधर देखता है। कोई जाना-पहचाना चेहरा दिखाई नहीं देता। अपना गिलास भरवाकर एक तरफ जा बैठता है। उसे बीयर स्वादिष्ट लग रही है, बहुत देर बाद जो पी रहा है। वैसे वह बीयर का कम शौकीन है। पक्की अधिक पसंद करता है। वह घड़ी देखता है। अभी बारह ही बजे हैं। लोग दोपहर में पबों में आते ही कम हैं। उसने दिल्ली में ही अपनी घड़ी ग्रीन'च मीन टाइम से मिला ली थी। वह अपना गिलास खत्म करके उठ खड़ा होता है। सोचता है कि शाम को जान-पहचानवालों को फोन करेगा। बाहर निकलने पर सामने से पाला सिंह आता दिखाई देता है। हमेशा की भांति उसकी मूंछें खड़ी हैं। पाला सिंह उसे देखकर आश्चर्यचकित होकर पूछता है-
''दुम्मणे, तू कब आया ?''
''कल ही।''
''रहेगा कुछ दिन ?''
''हाँ, अब तो रहने ही आया हूँ।''
''एक बार कारा मिला था, कहता था कि तेरा तो दिल लग गया वहाँ पर। मैं सोचता था कि जितने भी आज तक यहाँ से इंडिया सैटिल होने गए हैं, सारे ही बेरंग लिफाफे की तरह वापस लौट आए हैं।''
''पाला सिंह, हालात ही ऐसे बन गए। मैं तो शायद कभी न लौटता।''
प्रदुमण सिंह बताते हुए उदास हो जाता है। पाला सिंह कहता है-
''आ जा, गिलास पिलाता हूँ। तेरे से इंडिया की कोई ख़बर ही सुनते हैं।''
प्रदुमण सिंह कुछ कहे बग़ैर उसके संग फिर से पब में आ जाता है। पाला सिंह दो गिलास भरवा लाता है। प्रदुमण सिंह चीयर्स कहते हुए अपना गिलास उठाता है। किसी समय वह पाला सिंह के साथ काम करता रहा है। वैसे भी मिलते रहते हैं। आगे जगमोहन की भी पाला सिंह से काफी सांझ है। पाला सिंह पूछता है-
''दुम्मणे, सुना इंडिया की कोई बात। ये 'वास-प्रवास' वाला तो बहुत कुछ बताता है कि खून-खराबा बहुत है।''
''हाँ, ऐसा ही है।''
''बताते हैं कि बाबे गाड़ी चढ़ाने में मिनट नहीं लगाते।''
''ऐसा ही है। गाड़ी भी एक्सप्रेस चढ़ाते हैं।''
''तू बच गया ?''
पाला सिंह उससे पूछ कर हँसने लगता है। उसे लगता है कि पाला सिंह उसकी कहानी जानता है। वह अपने बारे में बहुत कुछ बताना नहीं चाहता। लोगों की हमदर्दी उसे अच्छी नहीं लगती। ज्यादा हमदर्दी आदमी को कमज़ोर बनाती है बेशक उसका दिल करता है कि अपनी बात जान-पहचानवालों से साझा करे। वह कहता है-
''मुझसे किसी ने क्या लेना ?''
''भाई दुम्मण, तू ठहरा मायाधारी आदमी। माया की बाबों को सख्त ज़रूरत है। यह 'वास-प्रवास' वाला तो लिखता है कि किसी को माफ़ नहीं करते ये टैरेरिस्ट।''
टैरेरिस्टों के लिए 'बाबे' शब्द ही प्रचलित है। टैरेरिस्ट अपने आप को 'बाबे' या 'खाड़कू' कहलवा कर खुश हैं। यदि कोई अख़बार उनके बारे में क़ातिल शब्द इस्तेमाल करती है तो उस अख़बार के कर्मचारी गाड़ी चढ़ा दिए जाते हैं। पाला सिंह फिर वह सवाल दुहराता है। प्रदुमण सिंह से बात संभाली नहीं जाती, वह कहता है-
''पाला सिंह, मेरा हाल तो उस बुढ़िया जैसा है जिसके आँगन में खुला जवान बैल देखकर किसी ने पूछा था कि यह मारता तो नहीं। इस पर बुढ़िया ने जवाब दिया कि मैं रंडी किसकी की हुई हूँ। सो, मैं भी इन बाबों का भेजा ही वापस आया हूँ।''
''अच्छा ! कैसे हुई यह बात ?''
पाला सिंह के प्रश्न पर प्रदुमण सिंह उधड़ने लगता है-
''बस, वैसे ही जैसे दूसरों के संग होती है। चिट्ठी आई कि बाबे एक लाख रुपया मांगते हैं, तैयार रखो। हमने बात पर ध्यान नहीं दिया। एक दिन आदमी आ गया और दस दिन का टाइम दे गया। हमने अभी भी सीरियसली नहीं लिया।''
''कहने आए आदमी को ढाह लेना था, निकाल देते साले का अतवाद।''
पाला सिंह बात करता हुआ मूंछ को मरोड़ा दे रहा है।
''पाला सिंह, हम कौन सा वहाँ आदमी ढाहने जाते हैं। और फिर अगले पूरी तैयार से आते हैं। लोई की बुक्कल में वे पता नहीं क्या-क्या छिपाये होते हैं, हैंड ग्रिनेड या ए.के. फोरटी सेवन। आदमी फिर आए, बोले- रकम अब दो लाख चाहिए, पंद्रह दिन के अन्दर-अन्दर फगवाड़े के अड्डे पर पहुँचती कर दो, नहीं तो सारा टब्बर खत्म कर देंगे।''
''पुलिस के पास नहीं गए ?''
''गए थे, गए क्यों नहीं... उन्होंने कुर्ता उठाकर दिखा दिया। प्रोटेक्शन देने के बदले पैसे मांगने लग पड़े। जैसे-जैसे दिन बीतते जाते थे, हमारी जान मुट्ठी में आ रही थी और उनके रिमाइंडर पर रिमाइंडर पहुँचने लगे। हम किसी बड़े आतंकवादी से मिले, वो बोला कि तुम्हारे लिए दो लाख क्या मायने रखता है।''
''फिर ?''
''फिर पंद्रहवें दिन हम सब कुछ छोड़ छाड़कर भाग निकले। पहले तो मन नहीं करता था कि ऐसे पीठ दिखाकर भागना तो हतक है, मैंने ज्ञानों को बहुत कहा कि वह बच्चों को लेकर जहाज चढ़ जाए, मैं निबटता हूँ, पर वह मानी नहीं।''
''अपना गाँव, अपना घर छोड़ने में बहुत हतक है दुम्मणा।''
''हतक जैसी हतक ! मैं तो आख़िर तक देखता रहा कि कोई हल निकल आएगा, पर...।''
पाला सिंह और गिलास भरवाने के लिए उठता है पर प्रदुमण सिंह उसे उठने नहीं देता और स्वयं काउंटर पर जा खड़ा होता है। पाला सिंह के साथ बातें करना उसे अच्छा लगता है। उसका मन हल्का हो रहा है। वह बैठते हुए पुन: अपनी बात आरंभ करता है।
''बताई हुई तारीख़ पर वे हमारे गाँव में आए थे और गोलियाँ चलाकर खिड़कियों के शीशे तोड़ गए। लोगों से पता चल गया था कि हम ससुराल में बैठ हैं। वे मेरे ससुराल की तरफ चल पड़े। यह तो भला हो पड़ोसियों का जिन्होंने हमें फोन कर दिया। हम सीधे दिल्ली आ पहुँचे और जहाज पकड़ लिया।''
''ससुराल में कोई नुकसान तो नहीं किया ?''
''नहीं, मेरे बड़े साले की मार-पिटाई ज़रूर की।''
''इसका मतलब जो ये पेपर लिखते हैं, वो झूठ नहीं।''
''हम झूठ कैसे कहें। हम तो भरा-भराया घर छोड़कर आए हैं। मीट का भरा पतीला और बनी बनाई दूसरी सब्जियाँ...।''
बताते हुए प्रदुमण सिंह की आँखें गीली हो उठती हैं। पाला सिंह कह रहा है-
''चल दुम्मणा, मन थोड़ा न कर। ज़िन्दगी में बहुत कुछ देखना पड़ता है। तू तो हिम्मतवाला है, हिम्मत करके यहाँ पहुँच गया।''
''वैसे तो सब ठीक है, हम तो यहाँ आ गए। हमारे पास हल था। पर जो लोग वहाँ रहते हैं, उनके बारे में सोचो।''
''क्या सोचना ? वही सोचेगा जो बाकी दुनिया की सोचता है।''
''पाला सिंह, मैं तो बहुत बच गया। अगर कोई बच्चा ही उठा कर फिरौती मांगते या फिर किसी लड़के को संग मिला लेते तो... बड़ा लड़का तो है भी खुराफाती- सा।''
''चल, वो जाने दुम्मणा, बुरा समय टल गया। औलाद अच्छी हो तो सब कुछ ठीक है। यह देख साधू सिंह के साथ क्या बीती।''
''हाँ, पता लगा था, वहाँ भी अख़बारों में आता रहा।''
''बेटी गंदी निकल गई, पर उस बाप के पुत्त ने भी उफ् नहीं की, टुकड़े कर दिए, दूसरो को भी बता दिया।''
(जारी…)
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