समकालीन पंजाबी साहित्य की उत्कृष्ट कृतियों की तलाश

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Sunday, November 21, 2010

पंजाबी उपन्यास


''साउथाल'' इंग्लैंड में अवस्थित पंजाबी कथाकार हरजीत अटवाल का यह चौथा उपन्यास है। इससे पूर्व उनके तीन उपन्यास - 'वन वे', 'रेत', और 'सवारी' चर्चित हो चुके हैं। ''साउथाल'' इंग्लैंड में एक शहर का नाम है जहाँ अधिकतर भारत से गए सिक्ख और पंजाबी परिवार बसते हैं। यहाँ अवस्थित पंजाबी परिवारों के जीवन को बेहद बारीकी से रेखांकित करता हरजीत अटवाल का यह उपन्यास इसलिए दिलचस्प और महत्वपूर्ण है क्योंकि इसके माध्यम से हम उन भारतीय लोगों की पीड़ा से रू-ब-रू होते हैं जो काम-धंधे और अधिक धन कमाने की मंशा से अपना वतन छोड़ कर विदेशों में जा बसते हैं और वर्षों वहाँ रहने के बावजूद वहाँ की सभ्यता और संस्कृति का हिस्सा नहीं बन पाते हैं।

साउथाल
हरजीत अटवाल

हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव

॥ सोलह ॥
नई जगह पर आकर उनका काम बहुत ज्यादा बढ़ जाता है। घर में तो जब चाहे घर का भी काम कर लिया और समोसों का भी, पर अब यहाँ निश्चित समय पर शुरू करके निश्चित समय पर खत्म करना पड़ता है। प्रदुमण सिंह की दौड़धूप भी बहुत बढ़ जाती है। कभी मार्किट जा, कभी आटा ला, कभी समोसे देने जा। यूनिट में भी कोई न कोई काम करवाता रहता है। माल डिलीवर करने गया भी देर से लौटता है। वह स्वयं को थका-थका-सा महसूस करता है। वह सोचता है कि क्यों न राजविंदर को अपने संग काम पर लगाये।
राजविंदर ने स्कूल छोड़ दिया है और काम की तलाश में है। उसे कुकिंग का काम अच्छा नहीं लग रहा। घर में भी जब समोसे पक रहे होते हैं तो वह बाहर निकल जाता है। अब फैक्ट्री जाकर भी अधिक खुश नहीं है। प्रदुमण सिंह ने अपनी यूनिट को फैक्ट्री कहना शुरू कर दिया है। यदि कोई उसका यह फैक्ट्री शब्द सुनकर हैरान होता है तो वह इसका आगे विस्तार करते हुए कहता है कि समोसे बनाने की फैक्ट्री। राजविंदर के न पढ़ सकने का दोष वह अपने सिर लेने लग पड़ता है कि न वह इंडिया जाता और न लड़के के दो साल खराब होते। वह राजविंदर को फैक्ट्री ले जाता है। राजविंदर चला तो जाता है पर किसी काम को हाथ नहीं लगाता। दफ्तर में बैठकर लौट आता है। प्रदुमण सिंह सोचता है कि क्यों न इसको ड्राइविंग टैस्ट पास करा दिया जाए ताकि वह डिलीवरी का काम ही करने लग पड़े।
ज्ञान कौर सवेरे घर की सफाई करके आ जाती है। बलराम और दोनों बेटियाँ उठकर स्कूल चले जाते हैं। सबके पास अपनी-अपनी चाबी है। स्कूल से लौटते ही अपना-अपना बना कर खा लेते हैं। ज्ञान कौर को उनकी अधिक चिंता नहीं होती। उसे बड़े लड़के की फिक्र ज्यादा रहती है। एक दिन वह पति से कहती है-
''क्यों न हम राज का विवाह कर दें, हैल्प हो जाएगी।''
प्रदुमण सिंह हँसने लगता है और कहता है-
''वह तो अभी अट्ठारह का भी नहीं हुआ।''
''तब क्या हुआ, बल्कि बिगड़ेगा भी नहीं।''
''बिगड़कर भी वह किसकी टांग तोड़ देगा। अधिक से अधिक गर्ल-फ्रेंड रख लेगा, इसका कैसा फिक्र ! यह कौन-सा लड़की है।''
''फिर भी सोचो, कोई इंडिया से ले आते हैं।''
''पहले इसे टिककर काम तो करने दे, मुझे तो लगता है, यह कुछ ज्यादा ही निकम्मा निकलेगा। ये जो इनकम सपोर्ट वालों ने इसे चालीस पौंड देने शुरू कर दिए हैं, इसके कारण तो यह बिलकुल ही गया लगता है।''
राजविंदर कार का टैस्ट भी पास कर लेता है, पर फैक्ट्री फिर भी मनमर्जी से ही जाता है। यदि कोई कहे तो बहाना बना देता है। डिलीवरी पर दो-एकबार वह प्रदुमण सिंह के संग जाता है, पर राह में ही लड़कर वापस लौट आता है। आख़िर, प्रदुमण सिंह कुछ कहना ही बन्द कर देता है। ज्ञान कौर पुचकार कर अपने संग ले आती है, पर वह मौका पाते ही यूनिट में से यह कहते हुए निकल जाता है कि तेल की गंध से उसे एलर्जी हो रही है।
बड़ी लड़की सतिंदर और छोटी पवन, दोनों ही छुट्टी वाले दिन यूनिट में आ जाती हैं। काम में भी हाथ बँटाती हैं। छोटा बलराम भी कुछ न कुछ करता रहता है, पर प्रदुमण उन्हें अपनी-अपनी पढ़ाई में लगे रहने के लिए कहता है। वह समझता है कि पढ़ाई ज्यादा ज़रूरी है। काम तो सारी उम्र करना ही करना है।
प्रदुमण अनुभव करने लगता है कि राजविंदर से वह अधिक निकटता नहीं रख सका। जब से वह इंडिया से लौटा है, बच्चों के बीच कभी बैठकर भी नहीं देखा। इंडिया में होते थे तो सारा परिवार शाम की रोटी इकट्ठा बैठकर खाया करते थे। यहाँ उसकी जीवन-शैली ही बदल गई है। अधिकांश समय भाग-दौड़ में ही निकल जाता रहा है। वह फ़ैसला करता है कि वह हर शाम पहले ही भाँति बच्चों के संग बिताया करेगा।
वह फैक्ट्री खोलने का समय सुबह छह बजे का कर लेता है ताकि दोपहर तक काम समाप्त करके शाम को खाली रखा जा सके। सवेरे पाँच बजे उठते और तैयार होते-करते छह बजे से पहले घर से निकलते हैं। रास्ते में अजैब कौर को संग ले लेते हैं और फैक्ट्री खोल लेते हैं। जो समोसे कल के बने रखे होते हैं, उन्हें लेकर प्रदुमण सिंह डिलीवर करने चले जाता है। पीछे से ज्ञान कौर और अजैब कौर अपने काम में लग जाती हैं। दोपहर तक प्रदुमण सिंह लौट आता है। आकर शॉपिंग का काम निपटा लेता है। दो बजे के करीब वे फैक्ट्री बन्द कर देते हैं। यदि कोई काम शेष रह जाता है तो वे फैक्ट्री कुछ और समय के लिए खोले रखते हैं। प्रदुमण सिंह तेजी से हाथ चलाता उनकी मदद करने लगता है ताकि काम जल्द खत्म हो। उसे देखकर अजैब कौर भी तेजी से हाथ चलाने की कोशिश करती है लेकिन वह साठ साल की उम्र पार कर चुकी है, इसलिए वैसी फुर्ती नहीं आती। प्रदुमण सिंह चाहता है कि लड़कियों के स्कूल से लौटने से पहले-पहले वह घर पहुँच जाए।
कैनाल इंडस्ट्रीयल एस्टेट में यूनिटों की लाइनें हैं जैसे कि ए, बी, सी आदि। उनमें फिर यूनिटों की गिनती शुरू होती है। जैसे कि यह यूनिट बी लाइन में नंबर दस है। इसीलिए यह यूनिट दस बी कहलाता है। ग्यारह बी का मालिक टोबी मिल्टन है जो छपाई का काम करता है। प्रदुमण की उससे पहले दिन से ही नहीं बनती। वैन की पार्किंग को लेकर झगड़ा होता रहा है। टोबी मिल्टन के पास तीन गाड़ियाँ हैं। दो वैन और एक कार। यूनिट के सामने दो वैनों की ही जगह है। अतिरिक्त वाहनों के लिए थोड़ा हटकर कार-पार्क है। लेकिन टोबी अपना तीसरा वाहन भी प्रदुमण की जगह में खड़ा कर देता है जिसके कारण झगड़ा होता है। पहले टोबी सोचता है कि प्रदुमण एशियन है और डर जाएगा, पर प्रदुमण लड़ाई पर उतर आता है। टोबी को अपनी कार पार्क में खड़ी करनी पड़ती है। उसके बाद टोबी प्रदुमण को देखते ही मुँह बनाने लगता है और बड़बड़ाते हुए कहता है - पाकि बास्टर्ड ! प्रदुमण उसकी तरफ देखते ही समझ जाता है कि टोबी ने मन में उसे कोई नस्लवादी गाली बकी है। इतने वर्षों से गोरों के संग वास्ता पड़ने के कारण प्रदुमण के लिए उनके मन के अन्दर के नस्लवाद का अंदाजा लगाना आसान हो चुका है। नौ बी यूनिट किसी गोरे का ही है पर उसका बर्ताव नस्लवादी नहीं है। वह प्रदुमण को दूर से देखते ही हाथ हिलाते हुए 'हैलो मिस्टर सिंह' कहने लगता है।
सवेरे प्रदुमण अजैब कौर के घर के आगे कार रोकता है। वह देखता है कि अजैब के पीछे-पीछे ही तीसेक वर्ष की जवान औरत भी बाहर निकलती है। ज्ञान कौर प्रदुमण से कहती है, ''यही है कुलजीत, जिसके बारे में बात की थी।''
''ठीक है, काम करवा कर देख ले, अगर काम पसंद आया तो रख लेना।''
काम कुछ और बढ़ा है और एक और कामवाली की ज़रूरत पड़ रही है। प्रदुमण उन्हें फैक्ट्री पर उतारता है, वैन में समोसे रखकर अपने काम पर निकल जाता है। पहले वह मज़े से फैक्ट्री में से निकला करता था और शाम तक लौट आता था, परन्तु जब से उसने सुबह की शिफ्ट आरंभ की है, उसे समय से निकलना पड़ता है और रूट भी बदलना पड़ता है। सवेरे आठ बजे से नौ बजे तक का समय ट्रैफिक का होता है। पहले वह काम पर नौ बजे निकला करता था लेकिन अब ट्रैफिक में फँसने के डर से 'ए टू ज़ैड' सामने रखकर अपना रूट ऐसा बनाता है कि ट्रैफिक के उलट चले। यानि पहले वह उन दुकानों पर जाए जो जल्दी खुलती हैं। देर से खुलने वाली दुकानों पर जाते वक्त भी वह कोशिश करता है कि वह ट्रैफिक की विपरीत दिशा में जा रहा हो। लंदन के ट्रैफिक को देखते हुए वह सोचने लगता है कि एक बात से तो पीटर ठीक है कि वह अपना माल लंदन से बाहर बेचता है। लंदन में तो वक्त ही बहुत खराब होता है। चार घंटे के काम को आठ घंटे लग जाते हैं।
काम से लौटकर यूनिट में घुसते ही उसकी निगाह कुलजीत पर पड़ती है। इकहरे बदन की खूबसूरत लड़की उसे बहुत प्यारी लगती है। उसे देखते ही उसके मन में लहर-सी दौड़ जाती है। वह पगड़ी का सिरा ठीक करने लगता है। कुलजीत उसकी तरफ देखती है और फिर गर्दन झुकाकर अपने काम में लग जाती है। ज्ञान कौर पति की ओर देख रही है। प्रदुमण सिंह झेंपता-सा ऊपर दफ्तर में चला जाता है। आज सोमवार है। पैसे एकत्र करने का दिन होने के कारण उसे हिसाब-किताब करना होता है। दफ्तर में जाकर वह शीशा देखता है। दाढ़ी में से कुछ सफ़ेद बाल झाँक रहे हैं। कुछ देर खड़े होकर दाढ़ी रंगने के बारे में सोचता रहता है। पहले भी कई बार उसने दाढ़ी रंगने के बारे में सोचा है। लेकिन फिर सोचता है कि अभी इतने बाल सफेद नहीं हुए हैं। परन्तु आज उसे लगता है मानो सफेद वालों की गिनती एकदम बढ़ गई हो। ज्ञान कौन ऊपर आ जाती है। पूछती है-
''हो गई कुलैक्शन ?''
''हाँ, हो गई। यह लड़की काम में कैसी है ?''
''तेज है। वैसे भी बीबी है, अजैब कौर की रिश्तेदार है, इसके पति ने इसे किसी बात पर छोड़ दिया है। बेचारी दुखी है।''
''हम कौन-सा सुखी हैं, तू इसका काम देख।''
बात करते हुए प्रदुमण पत्नी से आँख नहीं मिला रहा। उसे नीरू याद आ रही है। ज्ञान कौर कहती है-
''इस बेचारी की कहानी कुछ और है। इसे इंडिया से ब्याह लाए और अब लड़का और उसके माँ-बाप कहते हैं कि हमें पसन्द नहीं और छोड़ दिया। इसे यहाँ पक्का भी नहीं करवा रहे। कहती थी कि अंकल से सलाह करनी है।''
'अंकल' शब्द उसे क्षणभर के लिए तंग करता है। वह कहता है-
''मेरे से क्या सलाह करनी है ?''
''अपना जगमोहन है न, उसे बहुत जानकारी है ऐसी बातों की।''
''फिर जगमोहन के पास भेजो इसे।''
प्रदुमण ज्ञान कौर की ओर अभी भी नहीं देख रहा। वह कहती है-
''तुम तो यूँ ही भारी हुए जाते हो, अगली ने तो मान से कहा है। तुम बेचारी के साथ बात करके तो देख लो।''
''जा, भेज दे ऊपर।'' वह झट से कहता है।
ज्ञान कौर झिझकती है। उसे कुलजीत को ऊपर भेजने वाली बात पसन्द नहीं है, पर उसने स्वयं ही इतना ज़ोर देकर उसे कुलजीत से बात करने के लिए कहा है।
ज्ञान कौर नीचे उतर जाती है। प्रदुमण सिंह का ध्यान सीढ़ियों की तरफ ही है। वह तो पहले ही कुलजीत से बात करने के लिए मौके की तलाश कर रहा है। ज्ञान कौर उसके लिए रास्ता आसान कर देती है। सीढ़ियों पर ऊपर चढ़ने की 'ठक-ठक' सुनाई देती है। यह 'ठक-ठक' मानो उसके दिल पर बज रही हो। फिर, आहिस्ता से दरवाजा खोलकर कुलजीत अन्दर प्रवेश करती है। 'सतिश्री अकाल' बुलाती है। प्रदुमण सिंह पूछता है-
''क्या नाम है लड़की तेरा ?''
''अंकल जी, कुलजीत।''
''नाम भी सोहणा...तू भी सोहणी... फिर तेरे ससुराल वाले क्यों परेशान हुए घूमते हैं?''
''बस किस्मत की बातें हैं, अंकल जी।''
''किस्मत की कोई बात नहीं, ये लोग जूती की यार है। तू फिक्र न कर, मैं तेरी पूरी मदद करूँगा।''
''अंकल जी, डरती हूँ कि कहीं इंडिया ही न भेज दें।''
''उनके घर का राज है।''
''अंकल जी, अगर मैं लौट गई तो गाँव में बहुत बेइज्ज़ती होगी।''
कहते हुए कुलजीत अपनी आँखें नम कर लेती है। वह कहता है-
''जब तक मैं बैठा हूँ, तुझे कोई इंडिया नहीं भेज सकता, फिक्र न कर।''
सीढ़ियों पर किसी की पदचाप सुनाई देती है। प्रदुमण सिंह समझ जाता है कि ज्ञान कौर ही होगी। कुलजीत का उसके पास अकेले बैठना उससे सहन नहीं हो रहा होगा। ज्ञान कौर अन्दर आती है। प्रदुमण सिंह कुलजीत से सवाल पूछता रहता है-
''किस शहर में रहते हैं तेरे ससुराल वाले ?''
''जी, लूटन।''
''मैं तेरे सास-ससुर से बात करके देखूँ कि कम से कम वो तुझे यहाँ पक्का ही करा दें।''
''हमारे रिश्तेदार उनकी बहुत मिन्नतें कर चुके हैं। वे नहीं चाहते कि मैं इस मुल्क में रहूँ।''
ज्ञान कौर कहने लगती है-
''जी, तुम आज ही जगमोहन से बात करो। मनदीप बताती थी कि शाम के वक्त वह कहीं सलाह देने के लिए बैठा करता है। और फ्री में काम करता है।''
प्रदुमण सिंह कुछ सोचते हुए कहता है-
''तू ही चली जा कुलजीत के साथ जगमोहन के पास।''
''नहीं जी, मैं कहाँ घूमती फिरूँगी।''
''अच्छा, मैं देखता हूँ। अब टाइम भी तो नहीं है।''
प्रदुमण सिंह थोड़ा अनमना-सा होकर कहता है। कुलजीत जाने लगती है। प्रदुमण उसे कहता है-
''ऐ लड़की, तू अब चिंता छोड़ दे, यह चिंता अब हमारी है।''
यह सुनकर कुलजीत का चेहरा खुशी में खिल उठता है। वह चली जाती है तो प्रदुमण सिंह गिला करने के लहजे में पत्नी से कहता है-
''तू जबरन इसे मेरे गले मढ़े जा रही है, मेरे पास भला इतना टाइम कहाँ है कि इसे लिए घूमता फिरूँ।''
''इसे लेकर तुम्हे जाने की क्या ज़रूरत है। जगमोहन को फोन करो, खुद आ जाएगा वो।''
''वो भला कैसे आ जाएगा, अपना वह रिश्ते में जंवाई लगता है।''
''जंवाइयों वाली बू तो है नहीं उसमें।''
''दिखाई ही नहीं देती, अन्दर से पूरा कांटा है वो। तेरे सामने ही है, बड़े भाई की ओर कितनी बार जाता है।''
प्रदुमण थोड़ा खीझकर कहता है ताकि ज्ञान कौर बात को यहीं खत्म कर दे। उसे डर है कि कहीं वह खुद ही जगमोहन को या मनदीप को फोन करने न बैठ जाए। वह तो कुलजीत को खुद लेकर जाना चाहता है। कुलजीत उसके मन में उतरती जा रही है। वह कुलजीत को जीतना चाहता है, उसकी मदद करके। उसे पता है कि जगमोहन कामरेड इकबाल के घर शाम के समय दो घंटे के लिए बैठा करता है। वह सोच रहा है कि सारी बात को कैसे अंजाम दे। सोचते हुए वह दफ्तर में से उठकर नीचे आ जाता है। अजैब कौर समोसे तल रही है। कुलजीत सफाई कर रही है। फैक्ट्री बन्द करने का समय हो रहा है। वह कहता है-
''कुलजीत, मैं आज जगमोहन से मिलता हूँ और तेरे केस के बारे में बात करता हूँ। तू अपने पेपर तैयार रखना, हम मिलकर करते हैं कुछ।''
कुलजीत 'हाँ' में सिर हिलाती है जैसे कह रही हो कि सत्य वचन। फिर वह ज्ञान कौर से पूछता है-
''आज हम कुलजीत को मनदीप की ओर ले जाएँगे, शाम को।''
''मुझे तो काम करना होता है। दूसरे के घर गए टैम लग जाता है। तुम भी वहीं जाना, जहाँ वो बैठा करता है।''
घर आकर प्रदुमण सबसे पहले दाढ़ी रंगता है। टाई लगाकर सूट पहनता है। उसे सूट पहनने का बहुत शौक हुआ करता था। उसके सभी सूट इंडिया ही रह गए हैं। यहाँ आकर एक सूट खरीदा है, पर उसे ढंग से कभी पहन नहीं सका। काम में भी बहुत व्यस्त हो गया है। मेहरून रंग की पगड़ी बाँधकर जब वह ज्ञान कौर के सामने आता है तो वह हैरान होकर पूछती है-
''यह चढ़ाई किधर को ?''
''इतने समय बाद जगमोहन से मिलना है। और फिर वह जंवाई भाई है।''
''पहले तो जग्गे से मिलने के लिए इतनी शौकीनी नहीं की कभी !''
''पहले मेरी हालत ठीक हुआ करती थी, अब इस काम ने जैसे दबा लिया है। कपड़ों में से तेल की गंध आती रहती है।''
वह सोचता है कि अच्छे मौके पर बात सूझ गई, नहीं तो ज्ञान कौर का शक कुलजीत की ओर चला जाता। वह पत्नी से कहता है-
''चल, कुलजीत को फोन कर कि बाहर आ जाए, मैं दो मिनट में पहुँच रहा हूँ।''
वह कार कुलजीत की रिहायश के बाहर रोकते हुए डर रहा है कि अजैब कौर भी कहीं संग ही न तैयार हो जाए, पर कुलजीत अकेली ही बाहर निकलती है। वह कार में बैठे-बैठे ही कार का दरवाजा खोलता है। कुलजीत कमीज़ को पीछे से ठीक करके उसके बराबर आ बैठती है। काले सूट पर सफेद फूल बहुत सज रहे हैं। प्रदुमण सिंह कहता है-
''कुलजीत, तू तो बहुत सोहणी लगती है।''
''थैंक यू, अंकल जी।''
''यह अंकल-अंकल न करा कर। मेरी ओर देख, मैं अंकल लगता हूँ।''
कुलजीत उसकी तरफ देखती है और हँसती है। वह फिर कहता है-
''तू तो हँसती भी बहुत सुन्दर है। ऐसे ही खुश रहा कर, बाकी सारे फिक्र मेरे लिए छोड़ दे।''
''थैंक यू।'' वह नखरे भरे अंदाज में बोलती है।
इकबाल का घर जिसमें जगमोहन ने अपने साथियों के संग बैठना आरंभ किया है, लेडी मार्ग्रेट रोड पर ही है। पैदल जाने के लिए भी दूर नहीं है। लेकिन प्रदुमण का चलकर जाने का कोई इरादा नहीं है। वह कुलजीत से उसके पति और सास के विषय में पूछता है, पर जवाब सुनने में उसकी कोई दिलचस्पी नहीं है। वह तो बात करती कुलजीत को देखते रहना चाहता है।
वह इकबाल के घर के पास जगह ढूँढ़कर कार खड़ी करता है। यहाँ वह पहले भी आ चुका है। कामरेड इकबाल खुद तो हेज़ में रहता है जहाँ उसका दूसरा घर है। इस घर को साझे कामों के लिए इस्तेमाल करता है। काफी समय से यह जगह इसी प्रकार उपयोग में लाई जाती है। कामरेड इकबाल को भी प्रदुमण जानता है। कामरेड इकबाल को तो सारा साउथाल जानता है। इमरजेंसी के समय भारत सरकार के विरुद्ध यहाँ जबरदस्त प्रदर्शन किए गए थे और कामरेड इकबाल उन प्रदर्शनों का नेता हुआ करता था। भारत की हर उथल-पुथल में कामरेड आगे रहे हैं, पर खालिस्तान की लहर चली तो सब चुप हो गए। कई बार प्रदुमण मन ही मन गिला भी करता है। घर के आगे पहुँचता है। घर के बाहर लिखा है – ‘रेड हाउस'। दरवाजा खुला है। अन्दर प्रवेश करते ही आम घरों की तरह रसोई दिखाई देती है। दो लाउंज हैं। एक बायीं ओर और दूसरी दायीं ओर। दोनों में ही कुर्सियाँ इस प्रकार लगी हुई हैं कि दफ्तर की तरह प्रतीत होते हैं। लेकिन अन्दर कोई नहीं है। वे दोनों तरफ जाते हैं जो खाली पड़े हैं। प्रदुमण हैरान होता हुआ कुलजीत से कहता है-
''यह कैसी जगह हुई जहाँ कोई आदमी नहीं है और दरवाजा खुला पड़ा है।''
वे लौटने लगते हैं तो एक बुजुर्ग़-सा व्यक्ति ऊपर से उतरता है। वह प्रदुमण से पूछता है-
''लीगल ऐड वाले लड़कों से मिलना है ?''
''जगमोहन से।''
''वह तो सात बजे आता है, वीक डे में। वीकएंड पर जल्दी आ जाते हैं। तुम बैठकर वेट कर लो।''
वह बताता है। प्रदुमण सिंह समय देखता है। अभी तो छह भी नहीं बजे। वह कुलजीत से कहता है-
''आ जा, चलते हैं। सात बजे आ जाएँगे।''
कुलजीत उसके पीछे चल पड़ती है। वे बाहर निकलकर पुन: कार में बैठ जाते हैं। प्रदुमण सिंह कुलजीत से उसके बारे में छोटे-छोटे सवाल पूछता है। उसके परिवार, उसकी पढ़ाई, उसकी सहेलियों और उसके शौंक के बारे में। कुलजीत हँस हँसकर जवाब दे रही है। प्रदुमण सिंह समझ जाता है कि उसका संदेश कुलजीत तक पहुँच चुका है। उसके मन में लड्डू फूटने लगते हैं।
(जारी…)
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Saturday, November 13, 2010

आत्मकथा



एक नेत्रहीन लेखक की आत्मकथा

धृतराष्ट्र
डॉ. एस. तरसेम
हिन्दी अनुवाद : सुभाष नीरव
चैप्टर-15( तीसरा भाग)

नया महकमा, नये अनुभव

जनवरी 1966 में उड़ती उड़ती ख़बर मिली कि सब ब्लॉक एक्सटेंशन एजूकेटरों की छटनी की जा रही है। इसके दो कारण थे - एक तो यह कि सैनेटरी इंस्पेक्टरों के लिए उन दिनों तरक्की का कोई चैनल नहीं था। उनकी मांग थी कि कम से कम एक पोस्ट ऊपर उनकी प्रमोशन होनी चाहिए। एक अफ़वाह यह थी कि ये एजूकेटर जनता में परिवार नियोजन का प्रभाव डालने में सफल नहीं हुए थे। मैंने डॉ. जैन से कहा कि वह बहन जी से मालूम करके बताएँ कि हमारा क्या हो रहा है। जैसे मैंने पहले भी उल्लेख किया है कि उस समय की स्वास्थ मंत्री ओम प्रभा जैन उनकी बहन थी। डॉ. जैन ने चार-पाँच दिन बाद मुझे बुलाकर बताया कि छटनी के आदेश जारी हो चुके हैं। 28 फरवरी 1966 को सभी एजूकेटरों का फारिग कर दिया जाना है।
हमने अपने भविष्य को सुरक्षित रखने के लिए एक मीटिंग बुलाई। हरचेत सिंह, जो पी.एच.सी., कौली(पटियाला) में काम करता था, उसके और मेरे उद्यम से ही यह मीटिंग रखी गई थी। पटियाला में यह मीटिंग की गई। छंटनी के आदेश के वापस होने का तो अब सवाल ही पैदा नहीं होता था, इसलिए हमने एस.एस.एस. बोर्ड के चेअरमैन को मिलने का निर्णय किया। हमारी हलचल का परिणाम यह निकला कि छंटनी के नोटिस की तारीख़ एक महीना और बढ़ा दी गई। इस तरह 31 मार्च 1966 को सभी हैल्थ एजूकेटर हटा दिए जाने थे। बोर्ड से अभी हम मिले भी नहीं थे कि हमारे सबसे जूनियर ऑडीटरों के पदों पर चयन कर लिया गया। ग्रेड था - 80-5-120 का। पर इन पदों पर भी सरकार ने नियुक्तियाँ न करने का फैसला ले लिया था। यह सूचना, बोर्ड के दफ्तर में न होने के कारण ही यह आदेश हुए थे।
बहुत से एजूकेटर 150 के मूल वेतन की नौकरी छोड़कर 80 रुपये के मूल वेतन की नौकरी स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं थे, लेकिन कुछेक तैयार थे। शायद वे सोचते होंगे- भागते चोर की लंगोटी ही सही। हम एक डेपुटेशन की शक्ल में बोर्ड के चेअरमैन सरदार उजागर सिंह से मिले। उसने मुझे पहचान लिया था क्योंकि मैंने पहले भी उसके साथ खुल कर बातें की हुई थीं। इसलिए मुझे उसके साथ बात करने में कोई झिझक महसूस नहीं हुई थी। उन दिनों पंजाब में कुछ नायब तहसीलदारों और पंचायत अफ़सरों के पद रिक्त पड़े थे। इन रिक्त पदों की संख्या 44 से अधिक थी। नायब तहसीलदारों के पद का ग्रेड हैल्थ एजूकेटर वाला ही था और पंचायत अफ़सरों के पद का ग्रेड उससे कम था लेकिन अफ़सर वाली पूंछ पीछे लगी होने के कारण सभी हैल्थ एजूकेटर पंचायत अफ़सर बनने के लिए भी तैयार थे। जब मैं इस संबंध में चेअरमैन साहब से विनती की तो वह हँसकर कहने लगे, ''काका जी, तुम किस दुनिया में रहते हो? नायब तहसीलदारों के पद क्या तुम्हारे लिए हैं?'' ''फिर जी आप हमें पंचायत अफ़सर लगा दो।'' मैंने पुन: बड़ी विनम्रता से कहा। वह फिर हँस कर बोले, ''ये पोस्टें भी तुम्हारे लिए नहीं हैं।'' जब कोई भी तीर चलता न दिखाई दिया तो मैंने कहा, ''हममें से तीन बी.ए., बी.एड भी हैं।'' ''हाँ, यह काम की बात की न। मास्टर लगना है ?'' मैंने ''हाँ'' में सिर हिला दिया। त्रिलोक सिंह बिलगे से था और एक महिला कुलजीत कौर थी जिसके गाँव का नाम अब मुझे याद नहीं। चेअरमैन साहब ने सुपरिटेंडेंट भनोट साहब को बुलाया और हमसे अर्जियाँ लेने के लिए कहा। हम तीनों के सामाजिक शिक्षा के अध्यापकों के पद पर आदेश करके डायरेक्टर, शिक्षा विभाग, पंजाब को भेज दिए गए और आदेश की एक प्रति हमें भी दे दी गई। गुरचरन सिंह जो उस समय हरपालपुर (पटियाला) में हैल्थ एजूकेटर था, मालूम नहीं डिप्टी सुपरिटेंडेंट (जेल) के आदेश कैसे ले आया। शेष सभी के आदेश 60-4-100 वाले ग्रेड की पोस्ट पर कर दिए गए। वे आसमान से गिरकर यदि खजूर में अटक जाते तो शायद स्वीकार कर लेते, पर उनमें से अधिकांश तो यूँ समझते थे मानो उन्हें ज़मीन पर पटक दिया गया हो। कुछ ने बेबसी में वह पोस्ट स्वीकार कर ली तो कुछ ने इसे अपना अपमान समझकर बेकार रहना उचित समझा।
31 मार्च 1966 को दोपहर के बाद मुझे सेवा-विमुक्त कर दिया गया। डा. अवतार सिंह की बदली हो चुकी थी। इसलिए इंचार्ज था- वेद प्रकाश फार्मासिस्ट। उसने मुझे स्मरण दिलाया कि मेरे आठ महीनों के टी.ए. बिल जो सी.एम.ओ. के दफ्तर में पड़े थे, मुझे उनका पता करना चाहिए। रकम आठ सौ के लगभग थी। मेरे तीन वेतनों से भी अधिक। सी.एम.ओ. के बाबू और रोकड़ के दफ्तरी से वेद प्रकाश ने ही बात की। नब्बे रुपये में सौदा हो गया और मुझे हैल्थ एजूकेटर के पद से विमुक्त होने के कुछ दिन के भीतर ही सारी रकम का भुगतान हो गया।
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शतराणे से रिलीव होना उस समय तो मेरे लिए दुखदायी घड़ी थी। मैं इस बात से भी दुखी था कि किसी ने मुझसे अभी तक विदायगी पार्टी की बात भी नहीं की थी। जिसके स्थान पर मैं यहाँ नियुक्त हुआ था, उसे कितने मान-सम्मान से विदायगी पार्टी दी गई थी। उसे याद करके मेरा मन भर आया। फिर मेरे मन ने पलटा खाया कि वह सिर्फ़ उसकी विदायगी पार्टी नहीं थी, मेरी स्वागत पार्टी भी थी। और फिर उस समय पार्टी के पीछे एक निश्च्छल इन्सान डा. अवतार था। इस वेद प्रकाश फार्मासिस्ट को क्या मालूम कि विदा हो रहे साथी को कैसे विदा किया जाता है। इसे तो घर घर जाकर टीके लगाने, पैसे बटारने और ज़मीन खरीदने के बारे में ही पता है। उस समय मेरे दिमाग में यह बात भी नहीं थी कि मेरे टी.ए. बिल पास करवाने वाला यह वेद प्रकाश ही था, बेशक बिल पास करवाने के लिए मुझे अपनी ज़िन्दगी में पहली बार बाबुओं की मुट्ठी गरम करनी पड़ी थी। मैं अभी रिलीविंग चिट बनवा ही रहा था कि दविंदर कौर ने दरियाई मल की दुकान से चाय पानी मंगवा कर दूसरे कमरे में रख दिया था। यद्यपि हम छह-सात कर्मचारी ही उपस्थित थे, पर दविंदर कौर के चेहरे पर बहुत उदासी थी मानो उसका कोई सगा भाई उसे छोड़कर जा रहा हो। मन उसका भी भर आया था और मेरा भी। दर्शन सिंह संधू और शुक्ला भी बहुत उदास थे। मेरी यह प्यारी बहन और दोनों मित्र मुझे बहुत याद आते हैं। 1979 में पता चला था कि शुक्ला की मृत्यु हो गई है। यह सुनकर मैं बहुत दुखी हुआ था। उसके सभी भाई एक एक करके चले गए थे। बस, वह अकेला ही माँ का इकलौता सहारा था। जब भी मैं पटियाला गया, मैंने उसकी माँ से मिलने का यत्न किया लेकिन उसका पूरा पता न होने के कारण मैं उस बेसहारा विधवा माँ से दुख साझा करने का अवसर प्राप्त नहीं कर सका।
दर्शन सिंह संधू की बदली पटियाला में राजेन्द्र अस्पताल में हो गई थी। किसी ने बताया था कि उसकी टांग और बांह का ऑपरेशन किया गया था और अब वह पहले से ठीक चल-फिर लेता है। लेकिन जब मैं एक दिन उसे अस्पताल में मिलने गया, वह छुट्टी पर था। लड़की होने के कारण मैंने दविंदर कौर को कभी भी मिलने का यत्न नहीं किया। सोचता था कि माँ और भाई क्या सोचेंगे। विवाह के बाद तो ऐसा करना और भी कठिन था। लेकिन वे मेरे प्यारे साथी और प्यारी बहनें जिन्होंने मुझे भरे मन से विदा किया था, उनके चेहरे अभी भी कभी-कभार मेरी आँखों के आगे आ जाते हैं।
विदायगी के बाद अगले दिन हमें तपा के लिए चलना था। संधू और शुक्ला की माँएँ तो उदास थी हीं, राज राणी भी बेहद उदास थी। बख्शी की आँखों में आँसू थे। सेवा सिंह मेरा सामान चढ़ाने के लिए बस-अड्डे पर आया हुआ था। दोबारा शतराणे अस्पताल में 1997 में गया था, पूरे 32 साल बाद। बस, वहाँ से गुजरा था। उस दिन छुट्टी होने के कारण अस्पताल में कोई नहीं था। दरियाई मल और बख्शी के परिवार में भी कोई नहीं मिला था। मेरे समय का कोई भी कर्मचारी वहाँ नहीं था। जो दाई और चौकीदार मुझे मिले भी, वे भी अजनबी की तरह मिले।
शतराणे बस-अड्डे पर हमारी रिहायश इस तरह थी जैसे खानाबदोश रहते हों। कमरे बेशक पक्के थे पर ईंट-बाले की छतें और कीकर के दरवाजों वाले ये कमरे बिलकुल भी जंचते नहीं थे। लेकिन फिर भी हमारे दिन त्यौहार की तरह गुजरे थे। हम पाँच कमरों में चार घर बसते थे। दाल-भाजी की सांझ तो थी ही, अन्य दुख-सुख भी साझे थे। गर्मियों में हम बाहर सोया करते थे। सबके साथ-साथ बिस्तर लगे होते थे। शुक्ला बीड़ी पिया करता था। बीड़ी वह बुझने ही नहीं देता था। बीड़ी पीते समय वह खांसता भी था। 1965 की हिंद-पाक लड़ाई की सब ख़बरें और ब्लैक आउट के सब दृश्य मैंने शतराणा में ही देखे थे। ब्लैक आउट के कारण दिन छिपने से पहले ही रोटी-सब्जी बनाकर सब खाली हो जाते थे। कोई दीया-बत्ती नहीं जलता था। शुक्ला जब बीड़ी लगाता, सब उसके पीछे पड़ जाते। सबसे ज्यादा ऊँचा-नीचा उसकी माँ ही बोलती, पर वह दोनों हाथ बीड़ी के ऊपर रखकर बीड़ी के सुट्टे मारता रहता। बीड़ी सुलगाने के समय भी वह कोशिश करता कि रोशनी बाहर न जाए, पर दियासलाई की लौ बाहर चली ही जाती थी। ऊँचा-नीचा उसे सुनना ही पड़ता। आख़िर यह सब कुछ हँसी में ही खत्म होता।
मेरी तनख्वाह भी सबसे अधिक थी और रुतबा भी बड़ा था। इसलिए संधू की माँ भी और शुक्ला की माँ भी बात बात में अपने बेटों की तनख्वाह और छोटे ओहदे को लेकर कलपती रहतीं। मुझे लगता जैसे वे मेरी माँ को सुना सुनाकर बातें कर रही हों। हमारे सभी के बिस्तर पास-पास होने के कारण अक्सर एक-दूजे की बात सुनाई दे ही जाती। लेकिन मेरी माँ तो माला फेरने में मगन होती, उस पर इनकी बातों का कोई असर न होता। मुझ पर इस तरह की बातों का असर इसलिए नहीं होता था क्योंकि मैं औरतों के चुगली दरबार की विषय-वस्तु के बारे में जानता था।
हैल्थ एजूकेटर के पद से विमुक्त होने के बाद अध्यापक के पद पर उपस्थित होने के लिए मुझे दो पड़ावों में से गुजरना था। उस समय अभी हरियाणा पंजाब से अलग नहीं हुआ था और कुल्लू और कांगड़ा ज़िले भी पंजाब में ही थे। एस.एस.एस. बोर्ड ने मेरे आदेश में कुल्लू और कांगड़ा ज़िले में मेरी नियुक्ति की सिफारिश की थी जिसकी वजह से मुझे डी.पी.आई के दफ्तर से आदेश लेकर मंडल शिक्षा अधिकारी, जालंधर से कांगड़ा या कुल्लू के किसी स्टेशन के आदेश प्राप्त करने की हिदायत हुई थी। इस इधर-उधर जाने में अप्रैल का महीना आरंभ हो गया था। मैं 1963-64 में कांगड़ा में प्राइवेट स्कूल में काम कर चुका था और उससे पहले भी एक पहाड़ी गाँव जुआर में। इसलिए मुझे कांगड़ा ज़िला के सब बड़े गाँवों और कस्बों की जानकारी थी। बाहर लगी खाली पदों की सूची पर सरकारी हायर सेकेंडरी स्कूल, नदौण में भी सामाजिक शिक्षा अध्यापक की पोस्ट खाली दिखाई गई थी। मैं हालांकि नदौण कभी गया नहीं था पर दसवीं की परीक्षा के समय 1962 में मेरी ड्यूटी विद्यार्थियों के साथ गरली की लगा दी गई थी। गरली एक छोटा-सा कस्बा था जो उस समय ज़िला होशियारपुर की तहसील ऊना का आख़िरी स्टेशन था या शायद ज़िला कांगड़ा का पहला स्टेशन। यहाँ ये नदौण दसेक किलोमीटर के फासले पर था। जब 1962 में मार्च के महीने में दो बार पैदल गरली से वापस जुआर आ रहा था, उस समय नदौण को जाने वाली पक्की सड़क मेरी देखी हुई थी और उधर से आने वाले ठंडी हवाओं की याद मेरे अन्दर अभी भी ताज़ा थी। इसलिए मैं फॉर्म में नदौण भरकर दे दिया। उसी दिन मेरे आदेश हो गए। आदेश में नौकरी पर उपस्थित होने से पहले सी.एम.ओ., धर्मशाला से मेडिकल फिटनेस सर्टिफिकेट लेने की हिदायत थी। उस समय ज़िला तो कांगड़ा था पर ज़िले के सारे दफ्तर धर्मशाला में थे।
मेडिकल फिटनेस सर्टिफिकेट की हिदायत पढ़कर मैं पूरी तरह हिल गया था। हिला हुआ तो मैं पहले ही था, अधिक ग्रेड की पोस्ट से कम ग्रेड की पोस्ट पर लगने के कारण और दूसरा इसलिए कि जिस इलाके को मैं सीले वायुमंडल के कारण छोड़कर गया था, मैं उसी इलाके में पुन: जाने के लिए मजबूर था। लेकिन फिर से मेडिकल फिटनेस सर्टिफिकेट लेने वाली हिदायत तो असल में मेरे लिए बहुत डरावनी और कंपा देने वाली थी। पिछले बरस ही संगरूर से जिस तरह बड़ी कठिनाई से मेडिकल फिटनेस सर्टिफिकेट लिया था, उसके बारे में मैं जानता था या मेरा भाई। संगरूर तो मेरा अपना इलाका था, ऊपर से डॉ. नरेश की मेहरबानी हो गई थी, पर धर्मशाला का तो मुझे कोई परिन्दा भी नहीं जानता था।
सोचते-सोचते आख़िर दिमाग काम कर ही गया। पिछले मेडिकल सर्टिफिकेट की सत्यापित प्रति मेरे पास थी। शायद यह सर्टिफिकेट ही काम आ जाए, यह सोच कर मैंने चिक उठाई और ई.ओ. के कमरे में घुस गया। ई.ओ. अर्थात अमला अफ़सर, जैसा कि बाहर तख्ती लगी हुई थी, कोई बंता सिंह था। सफ़ेद दाढ़ीवाला यह बेहद भला पुरुष प्रतीत होता था। मैंने डरते हुए कहा, ''सर, मैं रिट्रैंच्ड इम्प्लाई हूँ। पिछले साल मई में ही मेरा मेडिकल हुआ था।'' मेडिकल फिटनेस सर्टिफिकेट की नकल मैंने उसकी मेज पर रखते हुए कहा। ''फिर तुम्हें मेडिकल करवाने की कोई ज़रूरत नहीं। अर्जी लिखो, मैं अभी आर्डर कर देता हूँ।'' ई.ओ. साहब मुझे रब से कम नहीं लग रहा था। अर्जी लिखने का तरीका मुझे आता था। सारी उम्र अर्जियाँ लिखने में ही बीती थी। मैंने मंडल शिक्षा अधिकारी, जालंधर को सम्बोधित करते हुए प्रार्थना पत्र लिख लिया। ई.ओ. साहब ने अर्जी मार्क की और मुझे सुपरिटेंडेंट साहब के पास भेज दिया। शाम पाँच बजे से पहले मुझे मेडिकल फिटनेस सर्टिफिकेट की छूट देते हुए प्रिंसीपल, सरकारी हायर सेकेंडरी स्कूल, नदौण के नाम पत्र बनाकर दे दिया गया। मेरी जान में जान आई। यह तो याद नहीं कि मैं जालंधर में कहाँ ठहरा, पर ठहरा मैं जालंधर में ही था। सी.ई.ओ. दफ्तर का एक चपरासी नदौण के किसी करीबी गाँव का रहने वाला था। उसने मुझे नदौण जाने के लिए जो रास्ता बताया, वह मैं पहले ही जानता था। यह वही रास्ता था, जिस अड्डे से होशियारपुर जाकर मैं कभी जुआर या कांगड़ा की बस पकड़ा करता था। इसलिए वापस तपा जाने की कोई आवश्यकता नहीं थी। गुजारे लायक सामान मेरे पास था और यहाँ से सवेरे जल्दी चलकर मैं दोपहर से पहले हाज़िर हो सकता था। डूबते को तिनके के सहारे वाली बात थी। एक दिन की तनख्वाह और समय से हाज़िर होने के लालच के कारण मेरा जालंधर में ठहरना ही ठीक था।
(जारी…)
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Sunday, November 7, 2010

पंजाबी उपन्यास


''साउथाल'' इंग्लैंड में अवस्थित पंजाबी कथाकार हरजीत अटवाल का यह चौथा उपन्यास है। इससे पूर्व उनके तीन उपन्यास - 'वन वे', 'रेत', और 'सवारी' चर्चित हो चुके हैं। ''साउथाल'' इंग्लैंड में एक शहर का नाम है जहाँ अधिकतर भारत से गए सिक्ख और पंजाबी परिवार बसते हैं। यहाँ अवस्थित पंजाबी परिवारों के जीवन को बेहद बारीकी से रेखांकित करता हरजीत अटवाल का यह उपन्यास इसलिए दिलचस्प और महत्वपूर्ण है क्योंकि इसके माध्यम से हम उन भारतीय लोगों की पीड़ा से रू-ब-रू होते हैं जो काम-धंधे और अधिक धन कमाने की मंशा से अपना वतन छोड़ कर विदेशों में जा बसते हैं और वर्षों वहाँ रहने के बावजूद वहाँ की सभ्यता और संस्कृति का हिस्सा नहीं बन पाते हैं।

साउथाल
हरजीत अटवाल
हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव

॥ पन्द्रह ॥
प्रदुमूण समोसे बनाने के लिए ऐसी जगह की तलाश आरंभ कर देता है जो कि कानूनी तौर पर सही हो। व्यापारिक कुकिंग करने के लिए काउंसल से मंजूरी लेनी पड़ती है। काउंसल का स्वास्थ्य विभाग बताता है कि कुकिंग वाली जगह कैसी हो और उस में कौन कौन से उपकरण लगे हों। सब कुछ उनकी कानूनी मांग के अनुसार ही सही हो तभी पास करते हैं। इसके अलावा और बहुत कुछ झंझट होते हैं। वह पहले ही सही तरीके से काम आरंभ करना चाहता है ताकि बाद में कोई चक्कर न पड़े। वह ऐसी जगह की तलाश के लिए एक एस्टेट एजेंट से परामर्श करता है। इंडस्ट्रीयल एरिया में कोई यूनिट ही ठीक रहेगा। कई यूनिट किराये पर लगे हुए हैं। ऐक्टन, वैंबली, ईलिंग में तो काफ़ी यूनिट हैं। कुछेक जगहें दुकानों के पीछे भी मिल रही हैं, जहाँ समोसे तैयार किए जा सकते हैं। लेकिन वह चाहता है कि साउथाल में ही हो। घर के नज़दीक हो और साउथाल में कामगार स्त्रियाँ भी सरलता से मिल जाती हैं जो कि सस्ती भी होती हैं। कैनाल रोड पर कैनाल इंडस्ट्रीयल एस्टेट है। वहाँ अनेक यूनिटें हैं। छोटी भी और बड़ी भी। इतनी बड़ी भी कि फैक्ट्री लगी हुई हैं। वहाँ एक यूनिट मिल रहा है जहाँ पहले केक बना करते थे। अब बन्द पड़ी है पर इसका किराया बहुत है। प्रदुमण सिंह हिसाब लगाकर देखता है कि यह तो बहुत महंगा पड़ेगा। वह तलाश जारी रखता है। पुराने साउथाल के इंडस्ट्रीय एरिये का भी चक्कर लगाता है परन्तु मनपसंद कुछ भी नहीं मिल रहा। ऊपर से, काउंसल वालों की घर चैक करने की तारीख करीब आ रही है। उसकी चिंता बढ़ रही है।
विलम्ब होते होते 12 मार्च आ जाती है। आज काउंसल के प्रतिनिधियों ने आना है। किसी पड़ोसी की शिकायत पर उसके घर का मुआयना करना है। लेकिन वह इसके लिए तैयार नहीं है। उधर, यूनिट आदि मिल नहीं रही। वे सवेरे ही घर में ताला लगाकर निकल जाते हैं ताकि कोई आए तो खुद ही घंटी बजा बजाकर लौट जाए। बच्चों को भी जल्दी भेज देते हैं और कामवाली को भी नहीं बुलाते। एक दिन माल तैयार नहीं होगा तो न सही, कम से कम जुर्माने से तो बच जाएँगे। शाम को जब घर लौटते हैं तो लैटर-बॉक्स में फेंका गया एक सख्त-सा चेतावनी पत्र मिलता है। काउंसल वाले परेशान होकर लौट गए हैं। एक और तारीख़ दे गए हैं जो कि नज़दीक की ही है।
वह कैनाल इंडस्ट्रीयल एस्टेट के मैनेजर हैनरी के पास जाता है। हैनरी की लम्बी घनी मूंछें और भारी भरकम आवाज़ उसका स्वागत करती हैं। वह दस बी नंबर किराये पर ले लेता है। खास लिखा-पढ़ी नहीं है। एक फॉर्म ही भरना है। घर के अथवा किसी अन्य जायदाद के मालिक होने का सुबूत देना है और फिर दो महीने का किराया। एक महीने का डिपोजिट के तौर पर और एक महीने का एडवांस। सारी कार्रवाई निपटा कर हैनरी उसे दस बी यूनिट की चाबियाँ पकड़ा कर मूंछों में मुस्कराता हुआ हाथ मिलाता है। प्रदुमण अधिक खुश नहीं है। आठ सौ पौंड महीने का किराया है और दो सौ पौंड जनरल रेट। ये हजार पौंड महीने का अधिक निकालना पड़ेगा। वह मन को तसल्ली देने के लिए सोचता है कि समोसे की कीमत बढ़ा देगा। जब वह यूनिट को खोलता है तो अधिक किराये का दुख कम होने लगता है। जगह काफ़ी है। समोसे बनाने के लिए दो मेज पड़े हैं। दो भट्ठियाँ भी हैं। स्टील के दो बड़े मेज भी हैं। यूनिट के ऊपर एक मंज़िल बनाकर दफ्तर बनाये हुए हैं और स्टाफ के बैठने के लिए एक कमरा भी है। प्रदुमण भट्ठियों और कैनपी पर धुऑं निकालने के लिए लगे पंखों से अधिक खुश नहीं है। लेकिन काम चलाया जा सकता है। एकदम काम चलाने के लिए यह सब ठीक है। सो, वह सोचता है कि आहिस्ता-आहिस्ता सब कुछ नया लगवा लेगा, एक बार काम चलता हो जाए।
ब्रॉडवे से लेडी मार्ग्रेट रोड पर पड़कर कार्लाईल रोड वाला राउंड अबाउट पार करके बाये हाथ पर पॉर्क रोड है। यह रोड स्पाईक्स पॉर्क के दूसरी तरफ जाकर जुड़ती है और इसमें से ही बायीं ओर को कैनाल रोड मुड़ती है जो कि रुआइसलिप रोड को भी जा मिलती है। कैनाल रोड पर ही यह कैनाल इंडस्ट्रीयल एस्टेट है। इस एस्टेट के दूसरी तरफ ग्रैंड यूनियन कैनाल है। यह बहुत पुरानी एस्टेट है हालांकि इमारतें गिराकर नई बना दी गई हैं। जिन दिनों में लंदन की माल ढुलाई नहरों द्वारा हुआ करती थी, उन दिनों की ही है यह इंडस्ट्रीयल एस्टेट। पुराने नक्शों में भी यह नाम पढ़ने को मिल जाता है। वैसे तो लेडी मार्ग्रेट से अन्य कई सड़कें भी कैनाल रोड पर निकलती हैं, पर वे सब छोटी सड़कें हैं। पॉर्क रोड और फिर कैनाल रोड बड़ी सड़कें हैं जहाँ से लॉरी भी निकलती है और अन्य ट्रैफिक भी काफ़ी हो जाता है। प्रदुमण सिंह का घर इस यूनिट से दसेक मिनट की पैदल दूरी पर स्थित है। उसकी रोड, हारटली रोड पॉर्क रोड से सीधा ही आकर मिलती है।
अधिक किराये वाला कांटा यद्यपि अभी भी चुभ रहा है, पर प्रदुमण अब खुश है। वह ज्ञान कौर को लाकर नई जगह दिखलाता है तो वह तुरन्त कह उठती है-
''इतनी जगह हमने क्या करनी है !''
''काम बढ़ाएँगे। अगर सबकुछ ठीकठाक रहा तो यह जगह भी छोटी पड़ जाएगी, तू देखती जा।''
वे यूनिट में सामान ले जाना आरंभ कर देते हैं और आते सोमवार को वहीं काम शुरू कर देते हैं। बूढ़ी अजैब कौर भी वहीं आने लगती है। घर में दस तारीख़ से पहले ही डेकोरेटर को काम पर लगा देता है। पेपर पेंट करा कर घर को एकदम नया-नकोर बना देता है। काउंसल वाले मुआयना करके लौट जाते है। प्रदुमण मन ही मन हँसता है -साँप तो निकल गया अब लकीर को क्या पीटेंगे !
(जारी…)
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