समकालीन पंजाबी साहित्य की उत्कृष्ट कृतियों की तलाश

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Saturday, August 13, 2011

आत्मकथा





एक नेत्रहीन लेखक की आत्मकथा

धृतराष्ट्र
डॉ. एस. तरसेम
हिन्दी अनुवाद : सुभाष नीरव
चैप्टर-22


ठगी-दर-ठगी

चकबंदी होने के बाद गाँव शहणे वाली सारी ज़मीन मेरे बाबा की औलाद ने अपने अपने नाम करवा ली थी। 1953 में बाबा नरैणा मल्ल पूरा हो गया था। उसके बाद ज़मीन का कार-मुख्तयार मेरा चाचा कुलवंत राय था। मन करता तो वह रबी-ख़रीफ अनाज-दाना दे देता, मन करता तो न देता। जहाँ तक मुझे याद है, ख़रीफ की फ़सल का हिस्सा उसने हमें कभी नहीं दिया था। रबी की गेहूं हमें पहुँच जाती थी।
मेरे ताया, पिता और चाचा आपस में चार भाई थे- चमन लाल, बाला राम, लेख राम(मेरे पिता) और चाचा कुलवंत राय। ताया बाला राम प्लेग की बीमारी में मर गया था। उसके दो पुत्र - हंस राज और अमर नाथ थे और एक बेटी थी- सत्या। मेरे ताया चमन लाल (जिसे हम सभी बाई कहा करते थे) और मेरे पिता ने हंसराज को पहले डी.एम. कालेज, मोगा से मैट्रिक करवाई। पढ़ने में वह बहुत होशियार था। माँ बताया करती थी कि फिर उसे लाहौर पढ़ने के लिए भेजा गया, जहाँ उसने बी.ए. के पश्चात एलएल.बी. की। लुधियाना में वकालत शुरू करवाई(उन दिनों शहिणा ज़िला लुधियाना में हुआ करता था और यह इलाका सीधा अंग्रेजों के कब्ज़े में था), पर वकालत न चली। हंसराज स्वभाव का बड़ा खुश्क था। वकालत में लियाकत के साथ साथ जीभ की मिठास भी चाहिए होती है और हाज़िर जवाबी भी। सो, वह बैंक में भर्ती हो गया। छोटा अमर नाथ मोगा वाली दुकान पर बैठ गया। यह दुकान मेरे पिता के चारों भाइयों की सांझी थी। इस दुकान पर चाचा कुलवंत और अमर नाथ बैठा करते थे। गाँव का सारा कारोबार मेरा पिता संभालता था। गाँव वाली बजाजी की दुकान पर बाई बैठता था।
मोगा वाली दुकान पता नहीं कैसे फेल हुई ? माँ के बताये अनुसार चाचा कुलवंत और बाला राम के दोनों लड़कों ने दुकान में घाटा दिखा कर हमारे चाचा कुलवंत के नाम से बैंक के लॉकर में रखा सौ तोले सोना दबा लिया और यह कहकर सोना देने से इन्कार कर दिया कि वह तो घाटा पड़ने के कारण बेच दिया है। असल में, सोना बेचा नहीं था। इस सारी ठगी के पीछे साज़िश गढ़ने वाला हंस राज था। उसकी वकालत लुधियाना में नहीं चली थी। वकालत के दांवपेंच उसने घर में ठगी करने के लिए प्रयोग किए होंगे। मेरे पिता को चाचा कुलवंत राय पर गिला कम था, हंस राज और अमर नाथ पर अधिक। कुलवंत राय बाबा के दूसरे विवाह की औलाद था। इस दूसरे विवाह की औलाद में कुलवंत राय से छोटी बुआ गणेशी थी। हमारे घरों में उसका हुक्मरानों की तरह रौबदाब था। मेरा जहाँ तक अंदाजा है कि मेरे पिता अवश्य भोले पंछी होंगे। गणेशी बुआ पर उसको रब जैसा भरोसा था। यह बात माँ बताया करती थी। लेकिन मेरे अनुमान अनुसार सारी चालाकियों का केन्द्र मेरी बुआ गणेशी ही थी। उसके अपने घर में भी उसकी ही चलती थी और अपने पिता की औलाद पर भी वह अपना हुक्म चलाती थी। दुकान की ठगी में ऊपर-ऊपर से तो वह साझी और निरपेक्ष होने का नाटक खेल गई, पर भीतर से वह दूसरी ओर थी। कुलवंत उसका सगा भाई था। इसलिए बुआ का चाचा कुलवंत राय की ओर झुकाव होने के कारण मेरे पिता पल्ला झाड़कर गाँव आ गए थे। भाई के 1940 में मोगे से ही हंस राज वाले इंटर कालेज से मैट्रिक पास करने और दुकान फेल होने के कारण मेरे पिता के पास खाली हाथ गाँव लौटने के सिवाय अन्य कोई चारा नहीं था। गाँव वाली हवेली जिसमें मेरे माँ बाप रहते थे, वह मेरे पिता ने अलग होकर खुद बनवाई थी, क्योंकि मोगा का कारोबार साझा होने के बावजूद गाँव शहणे के घरों की तकसीम बहुत समय पहले ही हो चुकी थी। इसलिए शहणे वाली हवेली में मेरे ताया-चाचा का कोई दख़ल नहीं था। गाँव आकर मेरे पिता ने कारोबार तो चला लिया, पर उसके संग हुई ठगी का गम उसे अन्दर ही अन्दर खाये जाता था। चाचा कुलवंत और अमर नाथ के विरुद्ध मेरे पिता ने अदालत में दावा कर दिया। बारा नरैणा मल जिसे मैं हद दरजे का मूर्ख समझता हूँ, बिना किसी दलील के कुलवंत के हक में खड़ा था। संभव है कि दूसरे विवाह की औलाद होने के कारण बाबा कुलवंत से झेंपता हो। चाचा कुलवंत और अमर नाथ को मुकदमा हारने का पूरा डर था। इसलिए उन्होंने हमारे पुरोहित मदन लाल को भरोसा दिलाया कि यदि हम मुकदमा वापस ले लें तो वे सोना वापस कर देंगे। मेरा पिता उनकी बातों में आ गया जिसका परिणाम यह निकला कि मुकदमा वापस लेने के बाद चाचा और अमर नाथ दोनों सोना देने से साफ़ मुकर गए। इस बात की शर्मिन्दगी मेरे पिता को तो होनी ही थी, हमारे पुरोहित जी भी बड़े दुखी थे।
तपा मंडी वाला दुकान-अहाता मेरे पिता के नाम था, वैसे था मेरे पिता और उसके तीनों भाइयों का साझा। यह दुकान-अहाता सरकारी बोली में मेरे पिता ने उस वक्त लिया था, जब बाबा की जायदाद का कोई बँटवारा नहीं हुआ था और बाबा की सारी औलाद की रोटी भी एक जगह पर पकती थी। दुकान-अहाता मेरे पिता के नाम होने का पुरोहित जी को पता था। इसलिए उसकी सलाह पर मेरे पिता ने गाँव वाली हवेली को ताला लगाया और तपा वाले दुकान-अहाते पर कब्ज़ा कर लिया। सोने की ठगी के बाद तपा वाले दुकान-अहाते पर कब्ज़ा करना समझो मेरे पिता द्वारा की गई ठगी थी।
बाई चमन लाल को सारी सच्चाई का पता था। इसलिए वह हमारे पक्ष में रहा, बाबा की मौत के पहले भी और पीछे भी। पर जब चकबन्दी होने के बाद शहणे वाली हमारी सारी ज़मीन सरकारी काग़ज़ों में बँट गई तो चाचा कुलवंत के लिए यह बात असहय थी। एक तो इसलिए कि सोना तो खाया-पिया गया और सोने वाली ठगी को चाचा और अमरनाथ दोनों भूल चुके होंगे। दूसरे चाचा कुलवंत का ज़मीन की आमदन के बग़ैर अन्य कोई कारोबार ही नहीं था, जिस कारण तीसरी ठगी रचाने के लिए चाचा कुलवंत और अमर नाथ ने बुआ गणेशी की जा शरण ली। गाँव शहणे में हम पालीके कहलाते थे। पाली राम और घनैया मल दो भाई थे। घनैया मल के आगे दो बेटे थे- गंगा राम और नरैणा मल। हम नरैणा मल की औलाद हैं, पर खानदान का नाम पाली राम के बड़े होने के कारण उसके नाम पर ही चलता था। सोने और जायदाद के मामले में पाली राम की औलाद घनैया मल की औलाद से अधिक नहीं तो आठ-दस गुणा अधिक जायदाद की मालिक थी, सोना भी अधिक और ज़मीन भी।
मेरी होश में मेरे बाबा नरैणा मल के पास जो ज़मीन थी, उसके चार टुकड़े थे। कुएं वाली चार एकड़ और घोड़ियों वाली दो एकड़ थी। कलेर वाली चार एकड़ से कुछ अधिक थी और नीलों वाली पुरानी बंजर चार एकड़ से थोड़ी सी कम। चकबन्दी में घोड़ियों वाली का मूल्य चौदह आने, कुएं वाली का दस आने, कलेर वाली का छह आने और नीलों वाली बंजर ज़मीन का दो आने पड़ा था। इन ज़मीनों के नामों की पृष्ठभूमि का मुझे कुछ भी पता नहीं। बस, कुएं वाली ज़मीन के बारे में सिर्फ़ यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि उसमें कुआँ होने के कारण उसका नाम कुएं वाली ज़मीन पड़ गया होगा। यह कुआँ भी बाई चमन लाल और मेरे पिता ने अपनी जवानी के समय बनवाया था। यह बात माँ बताया करती थी।
यह सारी ज़मीन चौदह-पन्द्रह एकड़ बनती थी। इन चारों टुकड़ों में से चौथा-चौथा हिस्सा मेरे बाबा के चारों बेटों या उनकी औलाद के नाम चढ़ गया था। ऐसा होने से चाचा कुलवंत राय का बेचैन होना स्वाभाविक था। हंस राज और अमर नाथ पहले दिन से ही चाचा के साथ थे और बुआ गणेशी उनकी पीठ पर थी। इसलिए बुआ ने मेरे भाई को यह जतलाने की कोशिश की कि यह ज़मीन के छोटे-छोटे टुकड़े किसी काम नहीं आएँगे, साथ ही तपा वाला दुकान अहाता भी इस बहाने तुम्हारे हिस्से पड़ जाएगा। भाई मान गया। मैं उस समय नाबालिग था। मेरे न चाहते हुए भी मुझे गाँव ले गए। पता नहीं क्यों मुझे बुआ का यह फ़ैसला कतई नहीं जंचा था। लिखत में बाई चमन लाल और हम दोनों भाइयों को दो एकड़ घोड़ियों वाली ज़मीन और चाचा कुलवंत तथा ताया बाला राम की औलाद को कुएं वाली चार एकड़ ज़मीन दी गई। नीलों वाली बंजर भूमि चकबन्दी के विभाजन के अनुसार रख दी गई। कलेर वाली ज़मीन भी चाचा कुलवंत और बाला राम की औलाद के हिस्से डाल दी, क्योंकि यह ज़मीन मेरा बाबा नरैणा मल किसी वक्त चाचा के बेटे केवल कृष्ण के पास गिरवी रख गया था। असल में लिया-दिया कुछ नहीं था। चाचा कुलवंत ने डरा कर यह चार एकड़ से अधिक ज़मीन अपने लड़के के नाम गिरवी करवा ली थी। यह बात हमें बाबा ने उस समय बताई थी जब वह हमारे पास तपा में आकर रहने लग पड़ा था। बँटवारे की इस लिखत के कारण गिरवी वाला काग़ज़ फाड़ कर चाचा कुलवंत, हंस राज और अमर नाथ सुर्खरू हो गए थे। गाँव वाला वाड़ा जो पहले ही हमारे और हंस आदि के नाम था और चकबन्दी में भी वैसे ही चढ़ा दिया गया। तपा वाला दुकान अहाता और गाँव वाली हमारी हवेली हमारे हिस्से और बाकी गाँव वाली सारी रिहाइशी जगहें, जिसका जितना भी कब्ज़ा था, उन सबके हिस्से में डाल दी गईं।
लिखत पर दस्तख़त के समय मेरा मन पूरी तरह बुझा हुआ था। सरकारी तौर पर बांटी गई ज़मीन और गाँव वाली हवेली और तपा वाला दुकान अहाता जो मेरे पिता के नाम ही था, उसका बँटवारा इन काग़ज़ों में डालना और पन्द्रह एकड़ ज़मीन में से सिर्फ़ दो एकड़ से भी कम ज़मीन स्वीकार कर लेना, भला कहाँ की समझदारी थी। यह भाई का डरपोक स्वभाव था या उसका सज्जन होना, या फिर उसे तपा वाले दुकान अहाते पर बाबा की औलाद में से किसी द्वारा दावा करने का डर था कि वह उस लिखत पर दस्तख़त करके मानो संतुष्ट हो गया हो। असल में, एक बार फिर हमारे संग ठगी हो गई थी। हमारे साथ नहीं, असल में यह ठगी मेरे साथ हुई थी। इस बात का अहसास मुझे तब हुआ जब गाँव वाली हवेली बेचकर तपा वाली गिरवी रखी दुकान छुड़वा ली गई थी और फिर 1971 में मेरे भाई ने मेरे साथ बँटवारा करते समय गाँव वाली जायदाद मेरे हिस्से में डाल दी और तपा वाला दुकान अहाता खुद रख लिया।
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तबादला रद्द होने के बाद सरदूलगढ़ से पुन: महिता में 6 अगस्त 1971 को लौट आने के उपरांत वही ताया मथरा दास के मकान में किराये पर रहना और वही किरायेदारी वाली हीनभावना, ससुराल वालों के सामने शर्मिन्दगी, आँखों की रोशनी खत्म होते जाने की चिंता और वही नौकरी से निकाल दिये जाने का दैत्य समान भय। मैं इतना बेचैन रहने लग पड़ा था कि जीने को भी जी नहीं करता था। यह भी कोई ज़िन्दगी है ? आँखें जवाब देती जा रही हैं, भाई का रब जैसा आसरा ठोकर में बदल गया है। सब बहनें और बहनोइये बहरे-गूंगे बन गए हैं। सल्हीणे वाली बहन और बहनोई भाई की तरफ हैं। तपा मंडी में भाई के सब दोस्त-यार या तो भाई के हक में थे या चुप थे। जब इस सब कुछ का अनुभव मुझे होता, मैं काँप जाता।
बँटवारे में मिली ज़मीन जो बेचनी आसान थी, नई लिखत के बाद उसको बेचना भी कठिन हो गया। घोड़ियों वाली ज़मीन में सरकारी काग़ज़ों के अनुसार जैसा कि मैंने पहले बताया है, हम दोनों भाइयों का आधा एकड़ था। अब इस ज़मीन में से नई लिखत के अनुसार एक एकड़ हम दोनों भाइयों का और एक एकड़ बाई चमन लाल का था। बाई चमन लाल की मृत्यु और उससे पहले उसके दोनों पुत्रों की मृत्यु के कारण सारी ज़मीन आगे बाई चमन लाल के पोते और पोतियों के नाम चढ़नी थी और पोते-पोतियों की संख्या थी दस। अब अगर तपा मंडी की गली नंबर 8 में मेरे हिस्से आए प्लाट में सिर ढकने के लिए मुझे दो कमरे बनाने थे तो मेरे लिए गाँव वाली ज़मीन का झंझट खत्म करना ज़रूरी था।
गाँव वाली ज़मीन को बेचने की सबसे बड़ी समस्या यह थी कि बाई चमन लाल के पोते-पोतियों को बरनाला से कैसे लाया जाए। दस लोगों के हिस्से में भला गाँव की इस ज़मीन के बँटवारे में से आना भी क्या था। वैसे भी चार पोतियों ने सिर्फ़ दस्तख़त ही करने थे, पैसे उनके भाइयों ने ले लेने थे। इसलिए उन्हें क्या दिलचस्पी हो सकती थी। हंस राज और अमर नाथ आर्थिक तौर पर भी मजबूत थे और दोनों भाइयों की बनती भी अच्छी थी। इसलिए उन्हें ज़मीन बेचने में कोई दिलचस्पी नहीं थी। वैसे भी, वे पहली मोगा वाली ठगी के कारण बुआ गणेशी के प्रभाव के तले थे और अपनी वाली ज़मीन का कर्ताधर्ता चाचा कुलवंत को बना रखा था। चाचा कुलवंत को तो ज़मीन बेचने में बिलकुल भी कोई दिलचस्पी नहीं थी। उसका तो रोटी भी गाँव की ज़मीन के सिर पर चलती थी।
बुआ गणेशी की नई ठगी ने उसके सगे भाई कुलवंत की रोटी-पानी का पक्का प्रबंध कर दिया था, पर वह यह भूल गई थी कि वह अपने अंधे होते जा रहे भतीजे के साथ कितना बड़ा अन्याय कर रही है। ताया मथरा दास का किरायेदार होना और अपने घर के निर्माण के लिए कोई रास्ता न बनना, यह चिन्ता मुझे और मेरी पत्नी को भीतर तक खाये जाती। ऊपर से सितम यह कि मुझ पर कामरेडी का पूरा ठप्पा लग गया था और यदि मैं टीचर्स यूनियन या कर्मचारी फेडरेशन में न भी काम करता तो भी तपा मंडी के अकड़बाज लाला मेरे ही विरुद्ध रहते। इसलिए एक तो अपनी सोच के कारण और दूसरा तपा मंडी के कुछ धाकड़ ब्लैकिये लालाओं और आवारा कांग्रेसी लीडरों के कारण मेरा टीचर्स यूनियन और कर्मचारी फेडरेशन में काम करना ज़रूरी बन गया था। नक्सली आंदोलन के कारण भी मेरे नक्सली न होने के बावजूद मेरा स्वभाव नक्सलबाड़ियों जैसा था। इसलिए अफ़सर और मंडी के दो मुक्केबाज-से कांग्रेसी लीडर मेरे विरुद्ध थे और फ़र्जी नामों के तहत मेरे विरुद्ध मेरी आँखों की रोशनी कम होने की शिकायत करके मुझे सरकारी नौकरी से निकलवाने की कोशिश में थे। जैसा कि मैंने पहले बताया है कि शिकायतों का यह सिलसिला सरकारी मिडल स्कूल, महिता से ही आरंभ हो गया था। पर मैं इन शिकायतों की अधिक परवाह नहीं करता था। मेरी माँ, बहनों, रिश्तेदारों-संबंधियों और कुछ अन्य समझदार कहलाने वाले मेरे हितैषियों द्वारा शिकायतबाज़ों की मिन्नत-खुशामद करके दिन काटने वाली शिक्षा मुझे एक चक्रव्यूह जैसी लगती।
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बुआ गणेशी के चक्रव्यूह में से निकलने की कोई भी राह नहीं बन रही थी। शहणे वाली ज़मीन को बेचे बग़ैर भाई की ओर से दिए 8 नंबर गली वाले प्लाट में मकान बनाया भी नहीं जा सकता था। सरकारी कर्ज़ा लेने में कम से कम दो-तीन वर्ष लग जाने थे।
एक दिन मेरे मन में जो योजना आई, वह ठगों को ठगने वाली योजना थी। इस योजना को मैं अपनी पत्नी को छोड़कर अन्य किसी से साझा नहीं कर सकता था। बुआ के चक्रव्यूह को तोड़ने के लिए बुआ के घर में दरार डालनी ज़रूरी थी। सोच विचार कर रात के समय इस दरार की सारी गाँठ मैंने अपनी पत्नी के सम्मुख खोल दी।
''वो फिर असली काग़ज़ दे देंगे ?'' सुदर्शना देवी को मेरी बात में अधिक वजन नहीं लगता था।
''साधू अगर पुत्र नहीं देगा, औरत तो नहीं रख लेगा।'' मुझे भी अपनी योजना की सफलता पर पूरा भरोसा था। वैसे भी, मैं ऐसा करने से डरता था जैसे कोई भलामानुष कोई ठगी करते समय डरा करता है। लेकिन, मैंने अपने मन को अन्दर ही अन्दर यह कहकर समझा लिया कि बुआ ने भी हमारे संग ठगी ही करवाई है। यदि मैं ठगी कर लूँगा तो फिर कौन सा विक्रमाजीत का सिंहासन डोल जाएगा। यह सब सोचते हुए मैं अगले दिन मोगे वाली बस में चढ़ गया।
शीला बहन के बड़े बेटे विजय कुमार को बुआ गणेशी के घर जाने के लिए कहा और उसे आधी बात बताकर संग जाने के लिए मना लिया। जब बुआ के घर पहुँचे तो वहाँ बुआ का बेटा वेद प्रकाश घर में मिल गया। उसे जिस ढंग और आदर के साथ मैंने चरण स्पर्श किया, समझो वह फूल कर कुप्पा हो गया। नाक फुलाता हुआ कहने लगा, ''हाँ बता, तेरी निगाह का अब क्या हाल है ?''
मुझे उस दिन उसके शब्दों में पहली बार अपनापन और हमदर्दी झलकी थी।
''वीर जी, निगाह तो समझो ना के बराबर ही है, बस धूप-छांव का पता चलता है।'' मेरी आह निकल आई, मन भी भर आया। कुछ पल मैं कुछ न बोला।
''दिल थोड़ा न कर तरसेम, विपदा तो राजा-रानियों पर भी पड़ती आई है। जिसने विपदा दी है, वह दूर भी करेगा।'' भाभी (वेद प्रकाश की पत्नी) मेज़ पर चाय रखते हुए बोली। यूँ लगता था जैसे वेद प्रकाश और अधिक पसीज गया हो। वह और अधिक हमदर्दी वाली बातें करने लग पड़ा। मैंने उसे अपने आने का कारण बताया। असली शहणे वाली लिखत बुआ के पास ही थी। मैं वो लिखत ही लेने गया था। वेद प्रकाश ने पाँच-सात मिनट के बाद अन्दर कहीं से असली लिखत लाकर मुझे पकड़ा दी और कहा-
''ले, तेरा मेरा धर्म है, मैंने माँ से नहीं पूछा, इसकी नकल करवाकर विजय कुमार के हाथ लौटा देना।'' लिखत लेकर मुझे यूँ लगा मानो मैं कृष्ण की भूमिका निभाने में सफल हो गया होऊँ। कृष्ण ने तो कर्ण से तीर मांगने के बाद एक तीर उसकी इच्छानुसार उसके पास छोड़ दिया था, जिससे उसे अर्जुन को मारना था (महाभारत के अनुसार उस तीर से अर्जुन के स्थान पर युद्धभूमि में तबाही मचा रहे घटोत्कच को ही कर्ण निशाना बना सका और खाली हो गया)। लेकिन मैं तो एक भी तीर बुआ गणेशी के पास छोड़कर नहीं आया था, न असली और न नकली। समझो, शहणे में चाचा कुलवंत, हंसराज और अमर नाथ के साथ बुआ गणेशी की हाज़िरी में हुए समझौते का मुद्दा ही उनके पास नहीं रहने दिया था। यद्यपि नैतिक पक्ष से यह एक ठगी थी, पर हमारे साथ भी बुआ ने ठगी ही की थी, हमारे साथ नहीं बल्कि मेरे साथ।
पत्नी सुदर्शना देवी के हाथ में वह लिखत देते हुए मैंने हँस कर कहा-
''साधू से औरत तो ले आया, देखना अब शायद पुत्र भी हो जाए।'' पर सुदर्शना देवी बहुत डर रही थी। उसे भय था कि कहीं कुलवंत चाचा कोई चोट ही न मार दे या हंस राज जो कि उन दिनों युनाइटिड कमर्शियल बैंक, अमृतसर का एक उच्च अफ़सर था, अपने रसूख से किसी केस में ही न उलझा दे। लेकिन उलाहनों, शिकायतों के अलावा अन्य कुछ भी नहीं हुआ था।
हाँ, चाचा कुलवंत और ताया के इन दोनों पुत्रों के संग हमारी बोलचाल समझो खत्म हो गई। लेकिन आठ-दस साल बाद चाचा कुलवंत के मोगा में आ जाने और उसके पुत्र केवल कृष्ण के स्वभाव में परिवर्तन आ जाने के कारण हमने फिर से आना-जाना आरंभ कर दिया।
असली दस्तावेज़ हाथ लगने के साथ अब वह कुएं वाली और कलेर वाली ज़मीन बेचने योग्य बिलकुल नहीं रहे थे। जो इस समझौते के अनुसार सारी की सारी उनके हिस्से में डाल दी गई थी। पर एक जख्म आज भी मेरे अन्दर चसक रहा है कि की किसने और भुगतनी किसको पड़ीं। थी तो यह भी एक ठगी ही जो मुझे विवश होकर करनी पड़ी थी।
(जारी…)

1 comment:

ashok andrey said...

pehli baar ek netrheen lekhak ki aatmkatha padi is poori katha ki prastutikaram bahut hee sashakt dang se kee gaee hai jo poore samay pathak ko bandhne men saksham bhee hai. poori katha apneaap men bejod hai, mujhe isne padte vakt bandhe rakha.
tersem jee ko tatha aapko badhai deta hoon.