समकालीन पंजाबी साहित्य की उत्कृष्ट कृतियों की तलाश

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Sunday, December 25, 2011

आत्मकथा




एक नेत्रहीन लेखक की आत्मकथा

धृतराष्ट्र
डॉ. एस. तरसेम
हिन्दी अनुवाद : सुभाष नीरव
चैप्टर-25(प्रथम भाग)


चूल्हे के साथ स्कूल
नदौण सीनियर सेकेंडरी स्कूल की नौकरी के समय मैं जिस सेवा-मुक्त अध्यापिका के घर में रहा करता था, उसे मैं 'माँ' कहकर बुलाया करता था। उसने एक दिन अपने सख्त और बदज़बान ज़िला शिक्षा अफ़सर के कड़वे शब्दों की बात सुनाई। वह उसके पास अपने तबादले के लिए गई थी। उसके गाँव के करीब कोई स्कूल खुल गया था। उसने डी.ई.ओ. के पास इस नये खुले स्कूल में बदली करने के लिए अर्ज़ी दी और स्वयं पेश होकर भी विनती की। डी.ई.ओ. गुस्से में उछलकर पड़ा, ''बीबी, तेरे चूल्हे के साथ न स्कूल खोल दूँ कोई ?'' प्रत्युत्तर में वृद्ध माता से अपने अफ़सर के सम्मुख ज़बान खोलने का साहस ही नहीं पड़ा और काँपती हुई वह दफ्तर से बाहर निकल आई। अब जब मैं अपनी बदली सरकारी हाई स्कूल, तपा मंडी हो जाने की बात करने लगा हूँ, मुझे उस माँ के साथ घटित यह घटना स्मरण हो आई है। तपा स्कूल में आने से सचमुच मेरे लिए मेरा स्कूल बिलकुल चूल्हे के साथ ही था।
आठ नंबर गली में मेरा मकान था। मेरा यह मकान स्कूल के प्रवेश द्वार से सिर्फ 45-50 ग़ज़ की दूरी पर ही था, समझो चूल्हे के साथ ही। मैं स्कूल बग़ैर किसी की सहायता के पहुँच सकता था। शुरू-शुरू में हुआ भी इस तरह ही। उन दिनों मुझे धूप-छाँव का तो पता चलता था, करीब आए व्यक्ति का चेहरा भी कुछ मेरे मन-मस्तिष्क में बैठ जाता, पर मैं अब लिख-पढ़ बिलकुल नहीं सकता था। जून की पहली तारीख़ थी और वर्ष था 1976 जब मैं इस स्कूल के स्टाफ में शामिल हो गया था। ज़िन्दगी में किसी स्कूल में लगातार यदि बहुत समय मैं टिका था तो वह तपा का यही सरकारी हाई स्कूल था।
इस स्कूल के सभी अध्यापक मेरे जाने-पहचाने थे। हंस राज सिंगला मुख्य अध्यापक था। मेरा भाई उस समय सुखानंद आर्य हाई स्कूल, तपा का मुख्य अध्यापक था। शाम को सिंगला साहिब जब बाज़ार में आते, वह आकर हमारी दुकान पर ही बैठते। इस सरकारी स्कूल के पहले मुख्य अध्यापक आर्य स्कूल के साथ थोड़ा-बहुत टकराव की स्थिति में भी आए होंगे, पर सिंगला साहिब कभी नहीं। इसलिए सिंगला साहिब मेरे लिए बिलकुल अपरिचित नहीं थे।
एक बात और भी थी, सिंगला साहिब का एक साला नेत्रहीन था। वह सरकारी नेत्रहीनों के स्कूल, पानीपत का प्रिंसीपल था। इसलिए सिंगला साहिब के होते हुए मुझे यह डर भी नहीं था कि वह कम नज़र के कारण मुझे किसी तरह से तंग-परेशान करेंगे। हालाँकि मैं जानता था कि एक नेत्रहीन किसी सरकारी स्कूल में इतिहास का लेक्चरर लग चुका है। मुझे यह भी पता था कि कोई कृष्ण कुमार सरकारी राजिंदरा कालेज, बठिंडा में राजनीति शास्त्र का लेक्चरर लगा है। उसका चयन पंजाब पब्लिक सर्विस कमीशन की तरफ़ से हुआ था। मैं भी सामाजिक शिक्षा का अध्यापक था। इस विषय में इतिहास, राजनीति शास्त्र, समाज शास्त्र, अर्थ शास्त्र और भूगोल शामिल होते हैं। भूगोल पढ़ाने के लिए ग्लोब और नक्शे की ज़रूरत पड़ती थी। इन दोनों का संबंध सीधा आँखों की रौशनी से है, पर इस विषय के बहुत से अध्याय कोई भी नेत्रहीन पढ़ा सकता है। पर इस पद पर काम करने वाले हर अध्यापक को दसवीं कक्षा तक अंग्रेजी भी पढ़ानी पड़ सकती थी। मैं पिछले सभी स्कूलों में दसवीं तक अंग्रेजी पढ़ाता आ रहा था और मैंने अंग्रेजी और सामाजिक शिक्षा पढ़ाने का तरीका खोज लिया था।
मैं मुख्य अध्यापक से इतनी भर छूट चाहता था कि वह मुझे छठी कक्षा की अंग्रेजी न दे। कारण यह था कि छठी कक्षा के बच्चों की अक्षरों की पहचान कराने और छोटी और बड़ी अंग्रेजी वर्णमाला को चार लाइनों वाली कॉपी पर लिखने का काम मैं नहीं कर सकता था। न सिंगला साहिब ने और न ही किसी अन्य मास्टर ने मुझे ऐसा टाइम-टेबल देने में कोई नोंक-झोंक की थी जो जज्बात को ठेस पहुँचा सके। आठवीं की अंग्रेजी मुझे इस स्कूल में दो बार पढ़ानी पढ़ी। मुझे ये शब्द लिखते हुए अपार खुशी हो रही है कि एक बार आठवीं की अंग्रेजी में मेरा नतीजा 90 प्रतिशत से अधिक था और अधिकतर विद्यार्थियों के इस विषय में प्रथम श्रेणी के नंबर आए थे। एक विद्यार्थी के 100 में से 80 से भी अधिक। सामाजिक शिक्षा पढ़ाने में भी मुझे कोई कठिनाई नहीं थी। भारत का नक्शा मैं ब्लैक बोर्ड पर अपने हाथ से बना सकता था और स्कूल में पढ़ाते समय सैकड़ों बार बनाया भी होगा। 10वीं की वार्षिक परीक्षा में जो नक्शा भरने के लिए आता था, वह भारत का ही होता था। इस नक्शे में भारत के बड़े शहर, नदियाँ, रेल मार्ग, हवाई मार्ग, घनी आबादी वाले क्षेत्र, कम आबादी वाले क्षेत्र, खनिज पदार्थ, फसलें और औद्योगिक क्षेत्र आदि भरने के लिए कहा जाता। यह सब भरने के लिए मैं अपनी आँखों की ज्योति ठीक होने के समय काफ़ी अभ्यस्त हो चुका था। इसलिए अब भी भारत का नक्शा ब्लैक बोर्ड पर बनाकर समझाने में मुझे कोई झिझक नहीं थी। इस स्कूल में जिस सबसे बढ़िया बात ने अगले पाँच सालों में मेरा जीवन ही बदल कर रख दिया, वह थी -बाबू परषोत्तम दास से बनी सांझ। बाबू परषोत्तम दास सिंगला इस स्कूल में क्लर्क था। मुख्य अध्यापक के बाद स्कूल में क्लर्क की ही सबसे अधिक चलती, कई बार हैड मास्टर से भी अधिक। बाबू परषोत्तम दास के मधुर स्वभाव, फ़राख़दिली, नम्रता और लचीले व्यवहार के कारण सब अध्यापक उसका आदर करते। सिंगला साहिब भी उसका बहुत सम्मान करते। वह ज़िला शिक्षा विभाग मिनिस्ट्रीयल स्टाफ़ एसोसिएशन का नेता भी था। काफ़ी समय तो वह ज़िला संगरूर की इस एसोसिएशन का प्रधान भी रहा। मेरे प्रति उसके पुर-ख़ुलूस रवैये ने स्कूल में कभी भी मुझे कोई कठिनाई नहीं आने दी।
यद्यपि उस समय प्राइमरी कक्षाएँ भी हाई स्कूल का हिस्सा थीं और कुछ प्राइमरी कक्षाएँ इस मुख्य इमारत के एक ओर बनी पुरानी इमारत में लगा करती थीं, पर कुछ कक्षाएँ रेलवे स्टेशन के सामने वाली सराय में लगा करतीं। मैं चौथी कक्षा तक उस सराय वाली बिल्डिंग में ही पढ़ा था और पाँचवी कक्षा के कुछ महीने उस पुरानी बिल्डिंग में जहाँ अब प्राइमरी कक्षाएँ लगती थीं। सरदार भगत सिंह बाली तब सरकारी मिडल स्कूल के मुख्य अध्यापक थे, बहुत अच्छे अध्यापक और बहुत अच्छे खिलाड़ी, शहतूत की छमक जैसा शरीर। सुनहरी फ्रेम वाली ऐनक से वह बड़ी दिलकश शख्शीयत लगते। विद्यार्थियों के साथ हॉकी खेलते समय तो वह मुझे बहुत ही अदभुत-सी शख्शीयत लगते। ऐनक वाले किसी व्यक्ति को मैंने पहली बार हॉकी खेलते देखा था। इस स्कूल में आकर मुझे अपने बचपन की पढ़ाई वाले दिन याद आ गए और दो-तीन बार तो मैंने उस कमरे में भी जाकर देखा था जिस कमरे में मैं पाँचवी कक्षा के दौरान बैठा करता था।
हैड मास्टर हंस राज सिंगला के संग दो-तीन बार सराय वाले स्कूल में भी जाने का अवसर मिला। जब मैं 1958 से 1962 तक कुछ वर्ष आर्य स्कूल में पढ़ाता रहा था, उस समय मुकाबले का स्कूल होने के कारण सब मास्टर सरकारी स्कूल के ख़िलाफ़ पूरा रिकार्ड बजाते, पर मैं इस रिकार्डबाज़ी में कभी शामिल नहीं हुआ था। अब जबकि मैं इस स्कूल में एक अध्यापक के तौर पर आ गया था तो मुझे इस बात की तसल्ली थी कि आर्य स्कूल के कुछ अध्यापकों के पीछे लगकर मैंने अपने इस स्कूल के बारे में कभी कुछ नहीं कहा था।
1964 में कम्युनिस्ट पार्टी में फूट पड़ गई थी। कर्मचारी संगठनों की सरपरस्ती मोटे तौर पर पहले भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी करती थी। फूट के बाद कम्युनिस्ट पार्टी(मार्क्सवादी) के अस्तित्व में आ जाने के कारण धीरे-धीरे कर्मचारी भी दो हिस्सों में बँट गए थे। सी.पी.आई. अर्थात भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी वाले कर्मचारी गुट का नेता पंजाब में रणबीर ढिल्लों था और सी.पी.एम. से संबंधित कर्मचारी फेडरेशन का नेता त्रिलोचन सिंह राणा। पंजाब में कर्मचारियों में से अधिक गिनती अध्यापकों की थी, जिस कारण गवर्नमेंट टीचर्ज़ यूनियन पृथक तौर पर काम करती थी और पंजाब सबार्डीनेट सर्विसिज़ फेडरेशन के एक अंग के रूप में भी। 1968 के बाद कम्युनिस्टों में ही हथियारबंद संघर्ष से इंकलाब लाने वाली पार्टी सी.पी.आई.एम.एल. अस्तित्व में आ गई थी। एम.एल. का अर्थ है- मार्क्सवादी लेनिनवादी। इस पार्टी की नींव बंगाल के नक्सलवाड़ी क्षेत्र में रखी गई थी। इसलिए इससे संबंधित पार्टी सदस्यों या कर्मचारियों को नक्सली भी कहा जाता था। सो, 1968 से अध्यापकों में तीन बड़े ग्रुप बन चुके थे - ढिल्लों ग्रुप, राणा ग्रुप और नक्सली ग्रुप। एक ग्रुप कांग्रेसियों का भी था। असल में, यह सरकारी किस्म का ग्रुप था। कांग्रेस के राज के समय इनका अस्तित्व प्रकट होता। शहरों में आर.एस.एस. या जनसंघ (अब बी.जे.पी.) से संबंधित भी कुछ कर्मचारी थे पर इनका कोई अधिक प्रभाव नहीं था।
सरकारी हाई स्कूल, तपा एक बड़ा स्कूल होने के कारण यहाँ हर धड़े का कोई न कोई छोटा-बड़ा नेता सक्रिय था। मेरा संबंध अब ढिल्लों ग्रुप से था (वैसे मैं सी.पी.आई. की 1964 की दोफाड़ के समय सी.पी.आई.एम. का हमदर्द बन गया था, क्योंकि हमारे ज़िले के सभी बड़े और बुजुर्ग़ कामरेड सी.पी.आई.एम. से जुड़े हुए थे, पर अध्यापकों में सी.पी.आई.एम. से संबंधित फेडरेशन का आर.एस.एस. के साथ अंदरूनी समझौता मुझे कतई मौकापरस्ती प्रतीत होता था और चुभता भी था। वैसे भी अधिकांश नेताओं में कम्युनिस्ट होने की बजाय जट्ट होने की हैंकड़ मेरी मानसिकता को बिलकुल भी नहीं भाती थी। इसलिए 1970 में मैं स्पष्ट तौर पर सी.पी.आई. से जुड़ गया, समझो कर्मचारियों या अध्यापकों में मैं ढिल्लों ग्रुप का समर्थक बन गया)। लेकिन मेरा भाषण वाला जोश कइयों को राणा ग्रुप वाला लगता और कइयों को नक्सलियों वाला। वैसे भी मैं मज़दूरों और कर्मचारियों के संबंध में अलग-अलग खिचड़ी पकाने के स्थान पर एकता के पक्ष में था। बाबू परषोत्तम दास के ढिल्लों ग्रुप के साथ होने की वजह से ढिल्लों ग्रुप का स्कूल में दबदबा था। कारण यह था कि बाबू परषोत्तम दास से कई अध्यापकों को छोटे-मोटे काम लेने होते थे, जिस कारण वे ढिल्लों ग्रुप के पक्षधर होने में ही बेहतरी समझते थे।
ज्ञानी हमीर सिंह इस स्कूल में राणा ग्रुप का लीडर था। वह सी.पी.एम. पक्षधर नहीं था। उसकी पृष्ठभूमि अकाली दल से जाकर जुड़ती थी। कर्मचारियों में बहुत से अकाली पक्षधर अक्सर राणा ग्रुप की ओर ही जाते। सुरजीत सिंह डी.पी.ई. के आने से राणा ग्रुप भी स्कूल में कुछ ज़ोर पकड़ गया था। सुरजीत शहिणा का था और मेरा गाँव शहिणा होने के कारण वह मुझे बुजुर्ग़ों वाला सम्मान देता था। उभरते रूप में नक्सली सिर्फ़ एक ही अध्यापक था और वह था - हरकीरत सिंह, पी.टी.आई.। यहाँ एक जनसंघी भी था, पक्का आर.एस.एस., वह था - हंस राज गुप्ता। उसके पास एल.आई.सी. की एजेंसी होने के कारण सभी उसे बीमा मास्टर कहते थे। अकेला होने के कारण वह जल्दी ही किसी के साथ बहस में नहीं पड़ता था। किसी से बहस में पड़ने के कारण उसके बीमा वाले काम में नुकसान पहुँच सकता था। वैसे गवर्नमेंट टीचर्ज़ यूनियन के चुनाव बाकायदा ब्लॉक प्रधान और ज़िला प्रधान के होने के कारण सभी ग्रुप इस चुनाव में दिलचस्पी लेते। जब मैं तपा मंडी के स्कूल में आ गया था, तब तो चुनाव की सरगरमी ट्रक यूनियन के चुनाव जैसी हो गई थी। झूठा-सच्चा प्रचार भी होता, जिन अध्यापकों के काम रुके पड़े होते, लीडर उनके काम करवाने के लिए रातों-रात दफ्तरों में से काम करवाकर ला देते या काम करवाने का वायदा करते।
(जारी…)

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