समकालीन पंजाबी साहित्य की उत्कृष्ट कृतियों की तलाश

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Tuesday, June 4, 2013

पंजाबी उपन्यास



''साउथाल'' इंग्लैंड में अवस्थित पंजाबी कथाकार हरजीत अटवाल का यह चौथा उपन्यास है। इससे पूर्व उनके तीन उपन्यास - 'वन वे', 'रेत', और 'सवारी' चर्चित हो चुके हैं। ''साउथाल'' इंग्लैंड में एक
शहर का नाम है जहाँ अधिकतर भारत से गए सिक्ख और पंजाबी परिवार बसते हैं। यहाँ अवस्थित पंजाबी परिवारों के जीवन को बेहद बारीकी से रेखांकित करता हरजीत अटवाल का यह उपन्यास इसलिए दिलचस्प और महत्वपूर्ण है क्योंकि इसके माध्यम से हम उन भारतीय लोगों की पीड़ा से रू-ब-रू होते हैं जो काम-धंधे और अधिक धन कमाने की मंशा से अपना वतन छोड़ कर विदेशों में जा बसते हैं और वर्षों वहाँ रहने के बावजूद वहाँ की सभ्यता और संस्कृति का हिस्सा नहीं बन पाते हैं।

साउथाल
हरजीत अटवाल

हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव


पैंतालीस

ग्रेवाल की नौकरी ऐसी है कि छुट्टियाँ ख़ासी हो जाती हैं। वह घूमने-फिरने का शौकीन है और सारी दुनिया घूमा है। इतना घूमा है कि अब मन ऊबा पड़ा है। फिर भी, छुट्टियों में उससे घर में नहीं बैठा जाता। घर के अंदर अकेलापन अब उसको तंग करने लगता है। कभी समय था कि वह सोचता था कि वह कहीं भी उम्र भर का एकांत काट सकता है, पर अब वह अक्सर सोचने लगता है कि कोई साथ हो।
            मित्रों में अब जगमोहन ही उसके निकट है, पर जगमोहन का अपना परिवार है जिसकी उसे देखभाल करनी होती है। कालेज के दोस्त या विद्यार्थी कालेज में ही रह जाते हैं। दोस्त लड़कियाँ तो आती-जाती रहती हैं, पर कोई स्थायी रूप से दोस्त नहीं बन रही। स्थायी दोस्ती में झिझक-हिचक भी तो बहुत होती है। सोचते सोचते कई बार ग्रेवाल हैरान रह जाता है कि एक प्रकार से उसने सारे सामाजिक रिश्ते त्यागे हुए हैं, पर फिर भी सामाजिक बंधनों की उसको बहुत चिंता है। उसके भाइयों की बेटियाँ भी बड़ी हो रही है। कोई ग़लत काम या असामाजिक काम करते समय वे लड़कियाँ खुद-ब-खुद सामने आ खड़ी होती हैं। यद्यपि उसने अपने भाइयों का त्याग किया हुआ है, पर मन में अभी भी कहीं अपनत्व है। उसको भाइयों से यही गुस्सा है कि उसकी इच्छा के बग़ैर ही इतने बड़े कारोबार के मालिक बन बैठे हैं और यदि उसकी इच्छा पूछ भी लेते तो वह कभी इन्कार न करता। वह भाइयों के घर नहीं जाता और न ही उन्हें अपने घर में घुसने देता है, परंतु उनके बच्चे कहीं मिल जाएँ तो पूरे मोह-प्यार से मिलता है।
            कभी कभी उसको औरत की तलब होने लगती है। कभी कभी तो इस तलब को वह बड़ी शिद्दत से महसूस करने लगता है। उसका मन होता है कि कालगर्ल को घर बुला ले। कई बार साउथाल का चक्कर लगाता है। रात में जगह-जगह वेश्याएँ खड़ी होती हैं। सभी एशियन होती हैं। वो भी पंजाबी। कई बार बत्ती पर कार रुकते ही लड़की आकर पूछती है-
            यू फैंसी बिजनेस ?“
            ग्रेवाल मुस्करा देता है। कुछ कहे बग़ैर लड़की की तरफ़ देखता रहता है। तब तक लाइट ग्रीन हो जाती है और वह कार बढ़ा लेता है। कभी वह दाढ़ी रंग लेता है और कभी वैसे ही रहने देता है। छुट्टियों पर जाना हो तो दाढ़ी रंगनी आवश्यक हो जाती है। वहाँ स्त्रियाँ आम मिल जाती हैं। सफ़ेद दाढ़ी देखते ही औरत की मर्द के प्रति नरमी उभर आती है और यह नरमी ग्रेवाल को पसंद नहीं होती। उसको पता है कि वह अभी बूढ़ा नही हुआ है। वह चाहता है कि औरत उसके साथ सख़्ती से ही पेश आए।
            पहले उसको घर में अकेलापन इतना तंग नहीं किया करता था। पिछले दिनों उसने एक किताब पढ़ी है। किताब में एक पंक्ति है कि - जो व्यक्ति रात को कमरे में अकेले सोते हैं, वे दया के पात्र होते हैं।वह अपने शयन-कक्ष में तो क्या, पूरे घर में अकेला सोता है।
            जब से शीला स्पैरो ने इधर आने की बात की है, तब से उसके अंदर एक अजीब-सा चाव है। शीला से उसकी पुरानी मित्रता है। तब से जब शीला ने अभी कविता लिखनी शुरू नहीं की थी। ग्रेवाल उसको प्यार से चिड़िया कहा करता था। शीला उससे विवाह करवाना चाहती थी, पर ग्रेवाल का विवाह किसी रिश्तेदार ने कहीं ओर पक्का किया हुआ था। पिता के मरने के बाद उस रिश्तेदार के काफ़ी अहसान ग्रेवाल के सिर पर थे जिन्हें उतारने के लिए ग्रेवाल को विवाह करवाना ज़रूरी था। विवाह हो गया। वह इंग्लैंड में आ गया। उधर शीला वियोग में कविता लिखने लग गई। शीला ने अंग्रेजी में एम.ए. की और एक कालेज में पढ़ाने लग पड़ी। शीला का विवाह हो गया। वह कविता लिखते लिखते शीला से शीला स्पैरो बन गई। पहले अंग्रेजी में लिखती थी, फिर पंजाबी में भी लिखने लगी। काफ़ी साल तक ग्रेवाल का उससे नाता टूटा रहा। फिर कभी कभी उसका नाम किसी अख़बार में या पत्रिका में पढ़ने को मिल जाता, जहाँ उसकी कविता या कोई लेख छपा होता। उसको शीला का नाम पढ़कर अजीब-सी खुशी होती।
            वह छुट्टियाँ बिताने इंडिया बहुत कम जाता है। इंडिया में उसका कोई है भी नहीं। गाँव में उसका कोई परिचित नहीं रहा कि जिसके संग उठ-बैठ सके। उसके लिए तो पूरा इंडिया ही पराया है। पूरे इंडिया में वह शीला स्पैरो को ही जानता है जो कि अपने पति और एक बेटी के साथ एक यूनिवर्सिटी के किसी कैंपस में रहती है।
            एक बार वास-प्रवासमें शीला की कविताएँ छपती हैं और साथ ही, उसका पता भी  - शीला स्पैरो, अंग्रेजी विभाग, पंजाब यूनिवर्सिटी, चंडीगढ़। वह उसी वक़्त शीला को ख़त लिखने बैठ जाता है। संक्षिप्त-सा बहुअर्थी ख़त लिख मारता है। दो हफ़्ते बाद शीला का जवाब आ जाता है। ख़तों का सिलसिला शुरू हो जाता है। ग्रेवाल को इंडिया अपना-अपना लगने लगता है। उसके लिए इंडिया फिर से बस जाता है। और खुशी की बात यह कि शीला की अपने पति से अलहदगी हो चुकी है। ग्रेवाल की आँखों में कई सपने जाग उठते हैं। वह दौड़ता हुआ भारत पहुँचता है। दिल्ली से सीधा चंडीगढ़। यूनिवर्सिटी और शीला का घर। घर का दरवाज़ा एक जवान लड़की खोलती है। शीला जैसी आँखों और शीला जैसी नाक वाली लड़की। वह भूल ही गया कि वक़्त कितनी तेज़ी से आगे निकल आया है। ग्रेवाल की उतावली ठंडी पड़ जाती है। शीला मिलती है, पर दोनों एक-दूसरे को बाहों में नहीं ले सकते। मोना उनके बीच में है। मोना को भी इतनी समझ नहीं आ रही कि वह उन दोनों के बीच से हट जाए। हो सकता है, वह कुछ गवां देने से डरती हो।
            दो दिन वह शीला के पास रहता है। पहले कुछ नहीं बोलता, पर चलते वक़्त कहता है-
            चल चिड़िया, घर बसायें।
            शीला हँसती है। उसको पता नहीं चलता कि शीला क्यों हँसी है। अपने आप को इस उम्र में चिड़िया कहने पर या फिर घर बसाने की पेशकश पर। वह कहती है-
            घर बसाने के मौसम में तो वह कोई जट्टी-सी पकड़ लाया था कहीं से।
            भला, घर बसाने का भी मौसम होता है ?“
            पश्चिमी समाज में नहीं होता होगा, पर यहाँ होता है। मुझे मोना को डॉक्टरी करवानी है।
            ग्रेवाल कुछ नहीं कहता। चला आता है। पत्रों का सिलसिला जारी रहता है, पर उसको लगता है कि अब पत्र लिखना खोखले हथियार चलाने जैसा ही है। समय गुज़रता जाता है। ग्रेवाल और अधिक अकेला होता जाता है। वह एक बार फिर शीला स्पैरो के पास जाकर कुछ रातें बिता आता है। उसको इंग्लैंड आने का निमंत्रण दे आता है। शीला नहीं आती। वह कहती है कि अभी समय उपयुक्त नहीं है। फिर वह निमंत्रण देने से ऊब जाता है। इंडिया जाना भी अच्छा नहीं लगता। कनेरी आइलैंड पर जवान औरतें घूमा करती हैं। पूरा स्पेन और इटली रंगीनियों से भरा पड़ा है। कभी कभी थाईलैंड के बारे में पढ़ता है और वहाँ जाने की योजनाएँ बनाने लगता है।
            एक दिन शीला का पत्र आता है कि मोना ने डॉक्टरी पूरी कर ली है। वह फोन करके पूछता है-
            चिड़िया, अब क्या ख़याल है ?“
            तुम्हें पता है कि मोना अपने फॉदर की करोड़ों की सम्पत्ति की इकलौती वारिस है। मैं नहीं चाहती कि मेरे कारण मोना के किसी हक़ पर असर पड़े।
            असर कैसे पड़ सकता है ?“
            क्योंकि हमारा अभी तलाक नहीं हुआ।
            मैं तुम्हें विवाह करवाने के लिए नहीं कह रहा, यहाँ आकर मेरे साथ रहने को कह रहा हूँ।
            मैं सोचूँगी।
            ग्रेवाल को कुछ आस बंधने लगती है, पर शीला फिर से चुप्पी धारण कर लेती है। उसके पत्र का उत्तर भी नहीं देती। फोन नंबर भी उसका बदला हुआ है।
            एक वर्ष से भी अधिक समय के बाद शीला का पत्र आता है जिसमें उसने इंग्लैंड आने की इच्छा प्रकट की है। परंतु चिड़िया बनकर नहीं अपितु शीला स्पैरो बनकर। शीला स्पैरो पंजाबी की एक स्थापित कवयित्री। ग्रेवाल के अंदर पुनः उमंगें हिलोरे लेने लगती हैं। ऐसे तो ऐसे ही सही। वह अपने घर को ध्यान से देखने लगता है जहाँ आकर शीला को बैठना, उठना और चलना है। अपने निशान छोड़कर जाने हैं। वह चाहता है कि शीला एक़दम जहाज़ पर चढ़ जाए।
            पर एक़दम जहाज़ पर चढ़ना सरल नहीं है। वीज़ा लेना पड़ेगा। वीजे़ के लिए आने का कारण होना चाहिए। वैसे तो आने का कारण या किसी भी देश में जाने का कारण वहाँ की सैर आदि ही काफ़ी होता है। ग्रेवाल ऐसा ही तो किया करता है। जहाँ भी जाना होता है, वीज़ा की ज़रूरत पड़े तो चुपचाप उस मुल्क की एम्बेसी चला जाता है। परंतु इंडिया में बहुत से लोग ऐसा नहीं करते। उन्हें सीधे वीज़ा लेने जाने में डर लगता है कि कहीं मना ही न हो जाए। ग्रेवाल पूरा ब्यौरा शीला को लिखता है कि उसका वेतन काफ़ी है, उसकी सम्पत्ति भी है, बैंक में पैसे भी हैं। वह दुनिया की सैर के लिए हर प्रकार से योग्य है। उसको इधर से किसी के स्पाँसरशिप की या अन्य बहाने की आवश्यकता नहीं है। लेकिन जो शीला के मन में है, वह ग्रेवाल नहीं समझ पा रहा। शीला, शीला स्पैरो है। यदि कोई लेखक संस्था उसको आमंत्रित करेगी तो उसका मान-सम्मान बढ़ेगा। पंजाबी के कितने ही लेखक और लेखिकायें इंग्लैंड का दौरा करने जाते हैं और उनकी बड़ी बड़ी ख़बरें प्रकाशित होती हैं। सो, वह चाहती है कि उसको कोई साहित्यिक सभा या संस्था आमंत्रित करे तो वह आए और वह सभा-संस्था उसका मान-सम्मान भी करे जिसकी वह हक़़दार है। किसी बड़े साहित्यिक आयोजन की वह अध्यक्षता भी करे, समाचार-पत्रों में उसकी चर्चा हो। उसको अपने साहित्यिक क़द का पता है और उसके अनुसार ही वह इंग्लैंड का दौरा करना चाहती है।
            ग्रेवाल ने परवाना के घर जाकर उससे बात की हुई है। परवाना कहता है कि जब इन गर्मियों में बड़ा समारोह करवाया जाएगा, तब शीला स्पैरो को भी निमंत्रण भेज दिया जाएगा। ग्रेवाल इसी हिसाब से मानसिक तौर पर तैयार हो रहा है। परंतु वह दुबारा परवाना से नहीं मिलता और फोन भी नहीं करता। वह यह समझता है कि परवाना ही संस्था का कर्ताधर्ता है, वह कुछ समय पहले उससे मिलेगा और काम हो जाएगा। वह मई महीने के मध्य में परवाना से मिलता है और कहता है-
            परवाना साहब, कब करवा रहे हो फंक्शन ?“
            इस वर्ष हमारी सभा का फंक्शन कैंसिल हो गया है क्योंकि कैनेडा में मेरे सम्मान में एक बड़ा कार्यक्रम हो रहा है। मुझे तो इसबार वहाँ जाना है। अगले वर्ष देखेंगे।
            ग्रेवाल खड़ा उसकी ओर देखता रह जाता है। वह पूछता है-
            वो जो तुमने शीला स्पैरो को निमंत्रण भेजने का वायदा किया था, उसका क्या होगा ?“
            जी, निमंत्रण पत्र भेज देते हैं। निमंत्रण तो महज़ एक कार्रवाई है, प्रोग्राम करवाना कोई ज़रूरी नहीं।
            ग्रेवाल फोन पर सारी बात शीला को बताता है, पर शीला को इस तरह का निमंत्रण नहीं चाहिए। यदि कोई कार्यक्रम ही नहीं तो वह आकर क्या करेगी।
            शीला का आना मुल्तवी हो जाता है। इस प्रकार कार्यक्रम के रद्द हो जाने पर शीला के अहं को बहुत चोट पहुँचती है। उसको ग्रेवाल पर भी गुस्सा आ रहा है कि उसने पूरी जिम्मेदारी नहीं निभाई। इस तरह अचानक ही फंक्शन कैंसिल होते हैं। उसको इंग्लैंड के लेखक भी बहुत गै़र-जिम्मेदार लगते हैं। उसने यह कभी नहीं सोचा था कि ये लोग इतने अविश्वसनीय भी हो सकते हैं। यह तो शुक्र है कि उसने अभी अधिक तैयारी नहीं की थी। बहुत से लोगों के साथ अपने जाने की बात भी साझी नहीं की। ग्रेवाल के तो हौसले ही पस्त हो जाते हैं। उसकी योजनाएँ बनी-बनाई रह जाती हैं। उसके सपनों पर पानी फिर जाता है। वह तरह तरह के दिलासे देकर अपने दिल को स्थिर करने का यत्न करने लगता है।
            वह वीरवार को कालेज से लौटकर सैटी पर ही पड़ जाता है। वहीं सोया रहता है। अगले दिन शुक्रवार भी दिनभर पड़ा रहता है। शाम को उठकर नहाता है और कार लेकर केन्द्रीय लंदन की ओर निकल जाता है। रेड लाइट एरिये का चक्कर लगता है, पर कहीं कार नहीं रोकता। दो घंटे घूमकर वापस लौट आता है। साउथाल की सड़कों पर भी चक्कर लगाता है। कहीं कोई लड़की खड़ी नहीं मिलती, पता नहीं कहाँ मर गईं सब। वह सोचता है, घर पहुँचकर किसी कॉलगर्ल को फोन करेगा। कुछ वर्ष पहले वह एक पंजाबी लड़की को बुला लिया करता था। घर आकर वह उस कॉलगर्ल का फोन नंबर तलाशने की कोशिश करता है, पर नंबर नहीं मिलता।
            वह शनिवार का पूरा दिन भी सैटी पर ही गुज़ार देता है।
(जारी…)

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