समकालीन पंजाबी साहित्य की उत्कृष्ट कृतियों की तलाश

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Monday, January 20, 2014

पंजाबी उपन्यास



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'साउथाल'' इंग्लैंड में अवस्थित पंजाबी कथाकार हरजीत अटवाल का यह चौथा उपन्यास है। इससे पूर्व उनके तीन उपन्यास - 'वन वे', 'रेत', और 'सवारी' चर्चित हो चुके हैं। ''साउथाल'' इंग्लैंड में एक
शहर का नाम है जहाँ अधिकतर भारत से गए सिक्ख और पंजाबी परिवार बसते हैं। यहाँ अवस्थित पंजाबी परिवारों के जीवन को बेहद बारीकी से रेखांकित करता हरजीत अटवाल का यह उपन्यास इसलिए दिलचस्प और महत्वपूर्ण है क्योंकि इसके माध्यम से हम उन भारतीय लोगों की पीड़ा से रू-ब-रू होते हैं जो काम-धंधे और अधिक धन कमाने की मंशा से अपना वतन छोड़ कर विदेशों में जा बसते हैं और वर्षों वहाँ रहने के बावजूद वहाँ की सभ्यता और संस्कृति का हिस्सा नहीं बन पाते हैं।


साउथाल
हरजीत अटवाल

हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव

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होटल में घाटा पड़ते ही कारा अपना दुःख प्रदुमण सिंह से साझा करने पहुँचता है। अधिक खुशी या अधिक ग़मी वह प्रदुमण सिंह के साथ ही साझी करता है और प्रदुमण सिंह उसके साथ। दोनों को ही पता है कि कठिन समय में वे एक-दूसरे के साथ खड़े होंगे। दोनों को एक-दूसरे पर भरोसा है। यद्यपि दिलों में कुछ ईष्र्या भी है, ख़ास तौर पर कारे के दिल में क्योंकि प्रदुमण सिंह जल्दी ही इस मुकाम पर पहुँच गया है। वह मन ही मन कहता है - साला समोसेबाज़ कहीं का।
      प्रदुमण सिंह बलराम के लिए लड़की तलाशने लगा था तो सबसे पहले कारे को ही फोन किया था और फिर जब लड़की छोड़कर चली जाती है तो भी कारे के पास ही सीधा जाता है। सतिंदर के लिए भी लड़का बताने की बात उसने कारे के साथ की है। रिश्ते की बात चल रही है। लड़का-लड़की एक दूसरे को पसंद कर चुके हैं। कुछेक ऊपर की बातें तय करनी अभी शेष हैं जैसे कि दान-दहेज या फिर बारात की संख्या और विवाह की तारीख़।
      होटल में घाटा पड़ने पर वह सीधा प्रदुमण सिंह के पास जाता है। कहता है-
      दुम्मण, दो लाख का घाटा झेला नहीं जा रहा।
      चल, तेरा तो एक लाख ही है।
      एक लाख कम होता है ? दो घर आ जाते हैं साउथाल में।
      अब हौसला रख कारे, कोई रोग न लगा बैठना।
      रोग को तो मैं लग जाऊँगा, मैं बड़ी सख़्त जान हूँ। तू तो जानता ही है दुम्मण, बड़ी से बड़ी मुसीबत से मैं नहीं घबराता, पर ये दो लाख साला... पूरा किए बग़ैर मुझे भी चैन नहीं आने वाला। बस, यही है कि कैसे पूरा किया जाए।
      अफीम मंगा ले इंडिया से।प्रदुमण सिंह हँसते हुए कहता है।
      तू तो मखौल करता है। कानून के साथ हमें सीधा पंगा नहीं लेना, पर सीधी उंगली से घी भी नहीं निकलेगा।
      कारे के दिमाग में हर समय यही बात रहने लगी है कि यह घाटा कैसे पूरा करना है। उस दिन अपने एक अन्य मित्र गुरपाल सिंह को गुरुद्वारे में जाकर मिलता है। अभी कल ही वास-प्रवासमें उसकी फोटो छपी है। कबड्डी की किसी संस्था का वह अध्यक्ष चुना गया है। कारा कहता है-
      गुरपाल, बधाई हो। कहीं अध्यक्ष बनते हो, कहीं सेक्रेटरी।
      कैसा अध्यक्ष यार। जूतियों का घर है। लोग कहते हैं कि हम पैसे खाए जाते हैं, प्लेयरों के नाम पर कबूतर उड़ाये जाते हैं।
      पिछले कुछ समय से लोगों को इंग्लैंड में ग़ैर-कानूनी तौर पर घुसाये जाने को अख़बारों वाले कबूतर उड़ानाकहने लगे हैं। कारा कहता है-
      कुछ न कुछ तो होगा ही, लोग यूँ ही तो नहीं कहते। आग लगेगी तो धुआँ तो निकलेगा ही।
      शुरू शुरू में लोगों ने बहुत लोगों को इधर बुला लिया। अब हाई कमिश्नर बहुत सर्तक हो गया है।
      कितने पैसे मिल जाते थे एक आदमी के पीछे ?“
      पता नहीं कारे, जो यह काम करते रहे हैं, वही जानते होंगे।
      इन्फरमेशन तो होगी तेरे पास भी। मैं कौन-सा अख़बार वाला या पुलिस वाला आदमी हूँ, मैं तो अपनी नॉलेज़ के लिए पूछ रहा हूँ।
      एक आदमी का पाँच हज़ार पौंड। सोलह प्लेयरों के लिए अप्लाई करो। उस में से आठ सही और आठ कबूतर।
      अब अवसर कम हो गए क्या ?“
      अवसर तो कम नहीं हुए, पर हल्ला बहुत होने लगा है।
      गुरपाल, कभी शाम को मिल यार, बैठकर बातें करेंगे। बहुत देर हो गई बियर का गिलास पिये।
      कारा प्यार जतलाने लगता है। गुरपाल सिंह कहता है-
      हाँ कारे, तू अब बड़ा बिजनेसमैन है, हमें कहाँ मिलता है।
      कारा उस शाम ही उसको पब में ले जाता है और होटल में हुए घाटे के बारे में बताता है। साथ ही लोगों को इधर घुसाने के कारोबार के बारे में और जानकारी लेनी चाहता है ताकि पड़े घाटे को किसी तरह पूरा किया जा सके। गुरपाल सिंह कहता है-
      कारे, कबड्डी तो अब इस बात से बदनाम हो गई। इसबार लड़कियों की टीम मंगवा ली। एक मैच ही खेला और सारी ही दौड़ गईं। अगले मैच के समय हम सीटियाँ मारते रह गए।
      तुम्हें क्या, तुम्हारे तो पैसे हरे हो गए।
      वो तो ठीक है, पर बदनामी भी तो होती है।
      मुझे बता, मैं भी ऐसा ही काम करूँ।
      तू भी कर ले। कोयलों की दलाली वाला काम है। मैंने तो तौबा कर ली ऐसे काम से। यह अकेले बंदे का काम नहीं, टीम वर्क है। पैसों के कई हिस्सेदार बन जाते हैं। बदनामी सामने खड़ी मिलती है और हिस्सेदार चुपचाप ही मलाई खाए जाते हैं।
      कारा चुपचाप सुन रहा है और साथ ही साथ स्थिति को तौले जा रहा है कि कितनी लाभप्रद हो सकती है यह योजना। गुरपाल सिंह एक गिलास और पी कर और अधिक खुलने लगता है। वह कह रहा है-
      अब तो और कई रास्ते हैं एक्स-प्लेयर करने के लिए। जैसे हॉकी की टीम मंगवाओ, फुटबाल या भंगड़े की या किसी गाने वाले को ही बुला लो। ये पाकिस्तान तो गाने वालों के बहाने रंडियों को ही इधर घुसाये जाते हैं।
      रंडियों से क्या करवाएँगे। पहले ही यहाँ क्या कम है!
      मुजरा करवाते हैं, देखा नहीं कभी। जो कुछ हीरामंडी, लाहौर में होता है, वही सब यहाँ करवाते हैं। ख़ैर, अगर तुझे कुछ करना है तो कोई नया कोना खंगाल। फुटबाल की टीम नहीं आई यहाँ कभी। पाकिस्तान से कबड्डी की टीम नहीं आई अभी, पर अपने संग कुछ लोग जोड़ने पड़ेंगे।
      एक आदमी के पीछे कितना बच जाएगा ?“
      पाँच सौ। अगर हिस्सेदार कम हों तो अधिक से अधिक हज़ार पौंड।
      न भई गुरपाल सिंह, यह तो बहुत थोड़ा है। मुझे तो दो लाख चाहिए। पाँच सौ बंदा घुसाऊँ तो ही पूरा होगा।
      कारा सोचता है कि वह वही काम करे जिसमें उसका अनुभव हो। वह कार लेकर इधर-उधर घूमता रहता है। दफ़्तर का काम तो अब सुरजीत कौर संभाल ही लेती है। जतिंदरपाल भी मदद के लिए आ जाता है। यदि बेटी को छुट्टियाँ हों तो वह भी दफ़्तर में आ बैठती है। कारे ने बचपन से ही उनको क्लाइंटों की फाइलें देखने के काम में लगाया हुआ है और कारोबार की प्रारंभिक बातें जतिंदर और परमीत अच्छी तरह समझते हैं। अब कंप्यूटर आने से तो और अधिक सुविधा हो गई है। क्लाइंट के और वाहन के डिटेल ही फीड करने होते हैं, कुटेशन अपने आप आ जाती हैं। उनमें से जो चाहे चुन लो।
      एक दिन बैठे बैठे उसको सूझ जाता है कि वह क्या करे। वह दौड़ा-दौड़ा मनीष के पास जाता है। कहता है-
      भैया, ज्ञान हो गया कि क्या किया जाए।
      क्या मतलब ?“
      यही कि दो लाख वापस आए।
      कैसे ?“    
      एक डमी इंश्योरेंस कंपनी खोली जाए, बड़ी कारों की सस्ती इंश्योरेंस।
      मनीष समझते हुए भी पूछता है-
      कितने परसेंट लोग क्लेम फॉर्म भरते हैं ?“
      पाँच परसेंट।कहक़र कारा सोचने लगता है और कहता है, “बस, एक प्रॉब्लम है।
      क्या ?“
      बैंक में अकाउंट खुलवाने की।
      वो कोई प्रॉब्लम नहीं। इसे मेरे ऊपर छोड़ो। किसी भी नाम का अकाउंट खुलवा सकता हूँ। कुछ ओवर ड्राफ्ट का इंतज़ाम भी कर लूँगा।
      वे बैठकर सारी स्कीम घड़ लेते हैं। सेंट्रल लंडन में एक छोटा-सा चैबारा पते के लिए किराये पर ले लेते हैं। वैस्टर्न यूनाइटिड इंश्योरेंसके नाम की बीमा कंपनी बनाकर उसके नाम पर अख़बारों में इश्तहार दे देते हैं कि मर्सडीज़, जैगुअर, रोल्ज़ रुआइस, बैंटले जैसी विभिन्न कारों की इंश्योरेंस आधी कीमत पर की जाएगी। किराये वाले कमरे को सिर्फ़ पते के लिए इस्तेमाल करते हैं जहाँ पत्रों को आना है। केन्द्रीय लंदन का पता ही अपनी कीमत रखता है। एक फोन लगवा लेते हैं, पर इस फोन को आगे मनीष की दुकान के एक फोन के साथ री-डायरेक्ट कर लेते हैं। मनीष की दुकान के पीछे बने एक कमरे में कारा अपना दफ़्तर बना लेता है। यहाँ वह अपना एक कंप्युटर लाकर रख लेता है। ब्रतानिया की राष्ट्रीय अख़बारों में विज्ञापन देते हैं। बड़ी कार की इंश्योरेंस की कीमत इतनी कम बताते हैं कि ग्राहक़ खिंचे चले आते हैं। शीघ्र ही, उनका काम चल निकलता है। कारे को इस काम में इतनी महारत हासिल है कि ग्राहक़ उस पर पूरा यकीन कर लेता है। चैक आने लगते हैं। चैक बैंक में रखकर साथ साथ कैश करवाते जाते हैं। शीघ्र ही दो-तीन चैक रोज़ के ही पहुँचने लगते हैं। छोटे छोटे कुछ क्लेम आते हैं जो कि कारों के मालिक किसी एक्सीडेंट में हुई अपनी कार के नुकसान होने पर करते हैं। ये क्लेम वे दे देते हैं। एक बड़ा क्लेम भी आ जाता है कार की मरम्मत का, अंदाज़न ख़र्चा पाँच हज़ार पाउंड का है। कारा सोच में पड़ जाता है कि क्या करे। वह क्लेम को लटकाने लगता है। उसको डर है कि कहीं क्लाइंट उसकी कंपनी पर केस न कर दे। जब तक कारों के बीमों के और चैक आ जाते हैं और वह उस क्लाइंट को पाँच हज़ार का चैक भेज देता है। कारे को यह सारे काम करने आते हैं। कारे का फुर्तीलापन देख मनीष बहुत खुश है, पर वह कहने लगता है-
      राय, जिस दिन घाटा पूरा हो गया, ये सब बंद कर देंगे। मुझे तो साला डर लगता है।
      फिक्र मत कर भैया।कारा उसे हौसला देता है।
      एक दिन उनके द्वारा इंश्योरेंस की बैंटले गाड़ी एक बड़े हादसे का शिकार हो जाती है जिसमें कार तबाह हो जाती है और कार में एक सवार व्यक्ति की मौत भी हो जाती है। यह लाखों पाउंड का क्लेम होगा। कारा सब देखता हुआ मनीष को कहता है-
      भैया, पैक अप करने का वक़्त आ गया।
      दो लाख तो पूरा नहीं हुआ।
      नियर एनफ़। और आगे गए तो मर जाएँगे।
      इस इंश्योरेंस कंपनी को वहीं बंद कर देते हैं। किराये वाला कमरा छोड़ देते हैं। टेलीफोन कटवा देते हैं। उनके होटल में पड़ा घाटा काफ़ी हद तक पूरा हो चुका है। कुछ महीने वे चुप रहते हैं। कहीं से कोई ख़बर नहीं निकलती। उनके पते पर आई डाक वापस जा रही है। कारों के मालिक हाथ मलते रहे जाते हैं। अख़बार में एक छोटी-सी ख़बर इस डमी इंश्योरेंस कंपनी के बारे में छपती है, बस। कारा व्हिस्की के घूंट भरता अपनी होशियारी पर गर्व करने लगता है। कभी कभी उसका दिल करता है कि अपनी इस चतुराई के बारे में किसी से बात करे। दूसरा व्यक्ति उसकी हिम्मत की दाद दे और उसकी प्रशंसा करे। परंतु वह डरता है कि लोग उसको धोखेबाज़ कहने लगेंगे। उसका दिल चाहता है कि प्रदुमण सिंह को ही बताए कि जो इतना बड़ा घाटा पड़ा था, वह उसने पूरा कर लिया है, पर उसने तो प्रदुमण सिंह की मर्सडीज़ की भी इंश्योरेंस की हुई है और पूरे पैसे लिए हुए हैं। वह चुप रहता है। मनीष पटेल संग बैठे तो ज़रूर इस बारे में बातें करके हँस लिया करता है।
      वह अपने दफ़्तर में वापस जाने लगता है तो उसको यह काम बहुत छोटा लगता है। बड़े बड़े चैक ग्राहक़ों के आते तो हैं, पर उसका उनमें से कमीशन के तौर पर कुछ फीसदी हिस्सा ही होता है। जिसमें से उसने स्टाफ का वेतन निकालना होता है। और भी पचास तरह के बिल होते हैं। उसको बड़े चैक देखने की आदत पड़ गई है जो उसके अपने हों।
      एक दिन हबीब मुहम्मद का फोन उसको आता है। हबीब मुहम्मद शेयर ब्रोकर है। उसकी मार्फ़त कारा कभी कभी शेयर खरीदा करता है। एक दिन हबीब उसको फोन करके शेयर खरीदने की सलाह देते हुए कहता है-
      सरदार जी, गैस के शेयर खरीद लो। डाउन हो गए हैं। इससे ज्यादा डाउन नहीं होंगे, खरीद लो।
      हबीब, तू किसी समय मुझे मिल।
      कारा को पता है कि हबीब चालू बंदा है। हबीब उसको मिलता है। कारा कहने लगता है-
      मियाँ, जुआ खेलने में मेरी दिलचस्पी नहीं। कोई पैसे आने की गारंटी दिखाई देती हो तो खरीद लूँ।
      सरदार जी, ये शेयर तो ज़रूर बढ़ेंगे। श्योरली बढ़ेंगे। गारंटी है।
      हबीब, तेरे पास शेयरों के सर्टिफिकेट हैं ?“
      क्यों ?“
      अगर हैं तो दिखा ज़रा।
      हबीब ब्रीफकेस में से कुछ सर्टिफिकेट निकालकर दिखाता है। कारा पूछता है-
      ये असली हैं या नकली ?“
      सरदार जी, ये कौन-सा नोट हैं जो असली-नकली होंगे। ये तो कंप्युटर में से निकले पेपर हैं।
      अगर तू मुझे शेयर बेचकर नकली सर्टिफिकेट दे जाए तो मैं क्या कर सकता हूँ ?“
      रिकार्ड तो कंपनी में होगा।
      और तेरी कंपनी भी तेरी ही होगी, मियाँ।
      कारा कहक़र पूरे ग़ौर से उसकी तरफ़ देखने लगता है। हबीब कहता है-
      सरदार जी, इरादे ठीक नहीं लगते।
      कारा हँसता है। हबीब भी हँसने लगता है। हबीब फिर कहता है-
      सरदार जी, कंपनी यूँ ही नहीं बन जाती। रजिस्टर होती है।
      मियाँ, कल मैंने एफ़.टी. में देखा कि पैट्रोलियम की कोई दस कंपनियाँ हैं।
      वो तो हैं जी।
      फिर एक कंपनी अपनी भी तो हो सकती है।
      सरदार जी, कंपनी किसी नाम पर रजिस्टर होती है। बैंक में अकाउंट वगैरह... और फिर एक दफ़्तर।
      मियाँ, तू बता तेरा असली नाम क्या है ? पुलिटिकल स्टे पर तू है, यहाँ न तेरी बीवी है, न बच्चे। छलांग लगाएगा और अमेरिका, कैनेडा जा घुसेगा।
      सरदार जी, आप मुझे अंदर करवाने पर तुल गए हो।... मिलाओ फिर हाथ।
 (जारी…)

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