समकालीन पंजाबी साहित्य की उत्कृष्ट कृतियों की तलाश

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Saturday, May 22, 2010

आत्मकथा



एक नेत्रहीन लेखक की आत्मकथा

धृतराष्ट्र
डॉ. एस. तरसेम
हिन्दी अनुवाद : सुभाष नीरव
चैप्टर-9(प्रथम भाग)

कांगड़ा की नौकरी

बी.एड. की परीक्षा के बाद मैं खाली तो नहीं रहा था। ज्ञानी की दो लड़कियों की ट्यूशन के कारण मैं स्वयं को खाली नहीं समझता था। भाई के मन में था कि अगर पहाड़ों में नौकरी मिल जाए तो अच्छा है। इस बात का पता मुझे उस वक्त चला जब हिमाचल प्रदेश में स्कूल अध्यापक के पदों का विज्ञापन अख़बार में छपा और भाई ने मुझसे अप्लाई करवा दिया। खेते पाली के लक्ष्मण दास मित्तल ने भी मेरे कहने पर अप्लाई कर दिया था। उन दिनों हिमाचल में नौकरी के लिए पंजाबी कम ही जाया करते थे। अन्य प्रान्तों से भी अर्जियाँ न पहुँचीं। इसलिए अध्यापक लगने के लिए वहाँ बी.एड. की शर्त भी ज़रूरी नहीं थी। लक्ष्मण को ज़ोर देकर मैंने ही अप्लाई करवाया था। सोचा था कि इकट्ठा इंटरव्यू पर जाएंगे और यदि रख लिए गए तो एक ही स्कूल में नियुक्ति करवाने की कोशिश करेंगे। अप्लाई करने के कुछ दिन बाद ही इंटरव्यू के लिए शिमला आने का निमंत्रण मिल गया। हम दोनों एक दिन पहले कालका मेल से शिमला पहुँच गए। गाड़ी कई सुरंगों में से गुजरी। जब सुरंग आती तो यात्री खिड़कियों के शीशे बन्द कर लेते। उन दिनों कोयले वाले इंजन हुआ करते थे जिसके कारण धुएं और कोयले के बारीक कणों से हमारा मुँह-सिर भर गया था, पर पहाड़ी दृश्य कमाल के थे। गगरेट से जुआर जाते हुए जिस तरह के पहाड़ आए थे, उन पहाड़ों की अपेक्षा ये पहाड़ अधिक ऊँचे भी थे, हरे-भरे भी और विभिन्न प्रकार के भी। यह विभिन्नता इन पहाड़ों की वनस्पति के कारण थी। लक्ष्मण ने कभी पहाड़ी यात्रा नहीं की थी। मैंने भी जुआर की नौकरी के समय ही पहाड़ों का मुख देखा था, पर शिमला के पहाड़ और जुआर की पहाड़ियाँ, दोनों का कोई मुकाबला नहीं था। जुलाई के महीने के बावजूद शिमला में इतनी भर ठंड थी कि कोट पहनना पड़ा था। तीन दिन शिमला में ठहरना पड़ा। मेरा बी.एड. का सहपाठी सुरिंदर चौधरी वहाँ एस.डी. स्कूल में मास्टर था। वह किसी दोस्त के यहाँ मेहमान था और हम उसके मेहमान जा बने। चौधरी का दोस्त भी और उसकी माँ भी अद्भुत व्यक्तित्व थे। तीन दिन उन्होंने हमें बड़े प्यार से रखा। हमने उनमें से किसी एक के माथे पर भी शिकन नहीं देखी थी। अब भी जब वे याद आ जाते हैं तो मन ही मन उनका शुक्रिया अदा करता रहता हूँ।
पहाड़ी लोगों के भोलेपन की यदि एक घटना साझा कर लूँ तो इसे व्यर्थ न समझना। बात इस तरह हुई कि एक पहाड़िन रोज़ दूध लेकर जाया करती थी। उसके सिर पर मटकी होती थी। जब वह मटकी में से दूध डालने लगी तो माताजी ने कहा-
''आपका दूध पतला है।''
''पानी ज्यादा डल गया होगा।'' पहाड़िन ने सहजता से कह दिया। भोलेपन की इससे अधिक खूबसूरत मिसाल और कौन सी हो सकती है।
इंटरव्यू ऐसी हुई जैसे आई.ए.एस. की हो। हम इन तीन दिनों को पहाड़ों की सैर समझ कर बेआस से लौट आए। हाँ, इन तीन दिनों में शिमला की बरसात, माल रोड की चहल पहल और अमीर सैलानियों की अठखेलियों का जो आनन्द लिया, उसे देखते हुए शिमला यात्रा कोई मंहगी नहीं थी।
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गुरू दत्त ऐंगले वैदिक हॉयर सेकेंडरी स्कूल, कांगड़ा के प्रिंसीपल की ओर से पंजाबी अध्यापक का जो विज्ञापन ट्रिब्यून में छपा, उसके लिए भी भाई ने आवेदन भेजने के लिए कहा। आवेदन बाद में किया, नियुक्ति पत्र पहले आ गया। कांगड़ा का लगभग आधा इलाका जुआर प्रवास के दौरान मेरा देखा हुआ था। बस उसी भरवाईं वाले अड्डे से पकड़नी थी जहाँ कभी जुआर के लिए बस लेने की खातिर परेशान होता रहा था। पर कांगड़ा उस समय पंजाब का एक ज़िला था और दुनिया का एक प्रसिद्ध ऐतिहासिक और भौगोलिक महत्व रखने वाला शहर भी। महाराजा रणजीत सिंह से पहले भी सिक्ख इतिहास में कांगड़ा का उल्लेख मैं पहले पढ़ चुका था। कांगड़ा में आए भूकंप के कारण भी कांगड़ा दुनिया भर में प्रसिद्ध था।
धार्मिक पक्ष से भी कांगड़ा की चर्चा मैंने अपने घर में पहले कई बार सुनी थी। बहुत से हिंदू परिवारों में बच्चे की बाल उतरवाई की रस्म किसी न किसी प्रसिद्ध देवी मंदिर में नवरात्रों के दिनों में करवाई जाती है। हमारे इलाके के बहुत से परिवार ज्वालामुखी या चिंतपुरनी बच्चे का मुंडन करवाते हैं लेकिन ज्वालामुखी की फेरी के दौरान वे कांगड़ा के देवी मंदिर में भी जाते हैं। इन मंदिरों के संबंध में हिंदू परिवारों में एक पौराणिक कथा प्रसिद्ध है। पौराणिक कथा के अनुसार शिवजी की पत्नी पार्वती के मायके में कोई धार्मिक उत्सव था। उत्सव का आरंभ यज्ञ-हवन से होना था। पिता ने पार्वती को उत्सव में इसलिए नहीं बुलाया कि भांग-पोस्त का सेवन करने वाला उसका पति शिव भी साथ आएगा। इसके बावजूद पति के बगैर पार्वती स्वयं उत्सव में पहुँच गई। यज्ञ हवन शुरू हो गया। शिव के अलावा सभी रिश्तेदार उपस्थित थे। पार्वती को इसमें अपना निरादर होता प्रतीत हुआ। उसने हवन की उठती लपटों में छलांग लगा दी। शिव का तीसरा नेत्र सब कुछ देख रहा था। वह तेजी से दौड़े और अर्द्ध-झुलसी पार्वती को हवन की अग्नि में से निकाल कर चल पड़े। पार्वती इतनी झुलस चुकी थी कि उसके शरीर के भिन्न-भिन्न अंग झड़ते चले गए। कहते हैं कि जिस स्थान पर पार्वती का धड़ शरीर से अलग होकर गिरा, वह स्थान कांगड़ा है, जहाँ अब मंदिर में पार्वती के सिर्फ़ धड़ के दर्शन होते हैं। इसको मंदिर में पिंडी कहते हैं।
नवरात्रों के आरंभ होने से पहले हर साल लोग मंदिर के पुजारियों के पास देशी घी जमा करवाते हैं। सारे घी को इकट्ठा करके उसे सौ बार पानी में धोया जाता है और फिर धड़ की शक्ल अर्थात् पिंडी बना ली जाती है। यह पिंडी काफी बड़े आकार की होती है। श्रद्धालू इसके आगे नवरात्रों में माथा टेकते हैं। नवरात्रों के बाद घी की बनी इस पिंडी के टुकड़े करके उन्हें श्रद्धालुओं में बांट दिया जाता है। सौ बार धोने के कारण घी ज़हर बन जाता है, इसलिए यह खाने के काम नहीं आता। कुछ लोग इसे सुरमे की तरह आँखों में डालते हैं। कुछ लोग इसे चर्मरोग की दवाई के रूप में इस्तेमाल करते हैं।
पार्वती के धड़ के गिरने तक की कहानी तो मैंने पहले सुन रखी थी, पर घी की पिंडी और इस मंदिर के पुजारियों और यहाँ के कई स्थलों के बारे में मुझे यहाँ आने के बाद ही पता चला।
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मैं 7 सितम्बर 1963 को दोपहर बाद स्कूल में पहुँचा था। आधी छुट्टी के बाद स्कूल की घंटी बजी थी। लेकिन उन्होंने मुझे सुबह ही उपस्थिति दे दी थी। लगता था मानो मेरे पहुँचने पर प्रिंसीपल को कुछ अधिक ही प्रसन्नता हुई हो। जनता हाई स्कूल, जुआर जैसी आवभगत यद्यपि यहाँ नहीं हुई थी, पर जितना भी सत्कार हुआ, वह कोई कम नहीं था। प्रिंसीपल रतनलाल मिश्रा कुर्सी से उठकर स्वयं बाहर आया और उसने मुझे गले लगाया। मुझे बाद में पता चला कि मेरे प्रति इतना स्नेह जो दिखाया गया है, वह एक तो इसलिए था कि पहले मैं सुखानंद आर्य हाई स्कूल में दो वर्ष से भी अधिक काम कर चुका था। दूसरा यह कि मैं इस इलाके में जुआर में नौकरी कर चुका था। तीसरा कारण यह भी था कि मैं बी.ए., बी.एड. हूँ और ज्ञानी यूनिवर्सिटी में तीसरा स्थान प्राप्त करके पास की थी। जब कि सच्चाई यह थी कि उन दिनों में हाई स्कूल में पंजाबी अध्यापकों के लिए निर्धारित शैक्षणिक योग्यता अर्थात मैट्रिक, ज्ञानी, ओ.टी. रखने वाला भी यहाँ आने को तैयार नहीं था। मैं बी.एड. था और यहाँ आने से पहले अपनी अर्जी में कम से कम 150 रुपये वेतन की मांग की थी जो उन्होंने नियुक्ति पत्र में बिना किसी शर्त के मंजूर कर ली थी। यह बात बाद में पता चली कि मिश्रा जी पक्के आर्य समाजी हैं और मुझे भी आर्य समाजी और हिंदू होने के कारण इतना मोह करते हैं। क्योंकि हिंदू पंजाबी अध्यापक उन दिनों में कांगड़ा और कुल्लू ज़िलों में हाथ में सूरज लिए भी नहीं मिलते थे।
उपस्थित होने के बाद जिस अध्यापक के साथ सबसे पहले मेरा आत्मीय रिश्ता बना वह था साइंस मास्टर जसबीर सिंह। उसके पिता सेवा सिंह वहाँ थानेदार थे। एक तो पंजाबी अध्यापकों की तरह साइंस मास्टरों का भी इस इलाके में नौकरी करने के लिए आना आम नहीं था। साइंस और मैथ के अध्यापकों को तो उन दिनों अपने इलाके में ही अक्सर नौकरी मिल जाया करती थी। जसबीर भी यहाँ कुरूक्षेत्र युनिवर्सिटी की चार वर्षीय बी.एससी., बी.एड. करने के तुरन्त बाद ही स्कूल की ज़रूरत और घर की सहूलियत के कारण आ लगा था। शुद्ध पंजाबी होने के कारण वह इस स्कूल में मेरा पहला मित्र बना। उसने ही मुझे कमरा किराये पर लेकर दिया। स्कूल बन्द होने के बाद शुरू में वह अक्सर मेरे संग घूमने जाया करता। कोई और पंजाबी न होने के कारण हम एक दूसरे का आसरा बन गए थे। कुछ दिनों पश्चात् एक प्राइमरी स्कूल अध्यापक गोपाल सेखड़ी और सोशल स्टडीज़ मास्टर हरीश के साथ भी गहरी दोस्ती हो गई थी। सेखड़ी गुरदासपुरिया पंजाबी था और उसको किसी अच्छे बड़े मिल मालिक की बेटी से इश्क फरमाने के एवज़ में मिल की बढ़िया नौकरी से हाथ धोने पड़े थे और यहाँ वह वक्तकटी के लिए ही आया था। हरीश का पिछोकड़ पाकिस्तानी पंजाब का था और देश विभाजन के बाद उसके माँ-बाप अलीगढ़ आ टिके थे। यू.पी. में उन दिनों बी.ए., बी.एड. अध्यापकों को कोई पूछता नहीं था। हँसते हुए एक दिन उसने स्वयं ही बताया था -
''वहाँ तो यार सोशल स्टडीज़ मास्टर को कोई घास भी नहीं डालता।''
शायद यू.पी. की बेरोजगारी के कारण वह इतनी दूर प्राइवेट स्कूल की नौकरी करने के लिए आया था। जहाँ तक मैं समझता हूँ कि कांगड़ा में मेरी प्रारंभिक दोस्ती में इन तीनों के शामिल होने का कारण हम सबका पंजाबी होना था। बाकी सब अध्यापक पहाड़ी थे या लम्बे समय से यहाँ टिके हुए थे। वैसे भी ये पहाड़ी अध्यापक और विद्यार्थी पंजाबी पढ़ना पसंद नहीं करते थे। इस स्कूल के अध्यापक पंजाबी अध्यापक को कुछ समझते ही नहीं थे। इसलिए मैं प्रारंभिक दिनों में स्कूल में भी और स्कूल से बाहर भी जसबीर और सेखड़ी के साथ ही बातचीत करके दिल लगाने का यत्न कर रहा था। दिल यद्यपि पूरा नहीं लगा था परन्तु भाई को दिल लगने के विषय में एक महीने में तीन पत्र लिख चुका था।
प्रिंसीपल मिश्रा को सांस्कृतिक कार्यक्रमों का अच्छा शौक था। स्टाफ मीटिंग में अक्तूबर माह में सांस्कृतिक कार्यक्रम करने की बात छिड़ी तो मैंने किसी विषय पर डिबेट रखने का सुझाव दे डाला। जो बोले, वही कुंडा खोले। प्रिंसीपल ने मुझे ही सारे कार्यक्रम का इंचार्ज बना दिया। नोटिस लगाने तक मेरे पास दस विद्यार्थियों के नाम आ चुके थे। इनमें से पाँच विद्यार्थियों ने विषय के पक्ष में बोलना था। विषय था- 'विज्ञान मनुष्यता के लिए वरदान है'। शेष पाँच विद्यार्थियों को इसके विरोध में बोलना था। अन्त में, एक अध्यापक कुंदन लाल शर्मा ने विषय के पक्ष में और पीतांबर दास ने विषय के विरोध में बोलना था। मंच संचालन मेरे पास था। वहाँ पंजाबी दूसरी भाषा थी। माध्यम हिन्दी था। इसलिए सारी डिबेट का संचालन भी हिन्दी में करना था। एक हज़ार से अधिक विद्यार्थियों को साठ से अधिक अध्यापकों में से अगर प्रिंसीपल के साथ मंच पर कोई बैठा था तो वह था एक तरफ वाइस प्रिंसीपल साईं दास और दूसरी तरफ मैं स्वयं। यह इस स्कूल में मेरे लिए परीक्षा की पहली घड़ी थी। मैं भयभीत था कि हिन्दी में मंच संचालन करने में मैं सफल भी हो सकूँगा या नहीं, पर जैसे ही मैंने निम्न काव्य पंक्तियों से मंच संचालन आरंभ किया -
दिल को दुखा के और के इतराना छोड़ दे
घावों पे नमक छिड़क के मुस्कराना छोड़ दे
शब्दों के तीर मार कर तड़पाना छोड़ दे
क्या रखा है कुकर्मों में, कोई नेक काम कर
हे मानव ! तू मानव से प्यार कर।

तालियों की गूंज से मेरे भीतर की सारी हीनभावना मानो कहीं उड़ गई हो। इसके पश्चात् जब ''अध्यक्ष महोदय वाइस प्रिंसीपल आदरणीय साईं दास जी, अध्यापक बंधुओ तथा प्रिय विद्यार्थियो...'' के सम्बोधन के साथ ये वाक्य भी बोले- ''हमारे विद्यालय के लिए यह गर्व की बात है कि आज हम एक ऐसे विषय पर तर्क-वितर्क करने जा रहे हैं जिस पर नि:संदेह दो टूक निर्णय तो नहीं हो सकता, मगर संवाद अवश्य रचाया जा सकता है।'' इस प्रकार हिन्दी में बोलते हुए, हिन्दी, पंजाबी, उर्दू के शेर, काव्य-पंक्तियाँ और टिप्पणियों से मैंने मंच पर जिस तरह रंग बांधा, उससे पंजाबी अध्यापक होने के कारण मुझे ज्ञानी जी कहने का सिलसिला धीरे-धीरे बन्द हो गया और उपस्थिति रजिस्टर पर मेरा नाम तरसेम लाल गोयल लिखा होने के कारण सब अध्यापक मुझे गोयल साहब कह कर बुलाने लग पड़े और मेरे लिए यह संबोधन ही विद्यार्थियों में प्रचलित हो गया। यहाँ मैं यह नहीं कहना चाहता कि मुझे ज्ञानी जी कहलवाने में चिढ़ थी या इसमें मेरी हेठी थी, मैं बताना चाहता हूँ कि उस इलाके में पंजाबी अध्यापक रखा जाना कानून की पालना के लिए आवश्यक था और पंजाबी अध्यापक को सत्कार की दृष्टि से नहीं देखा जाता था। उनके लिए गुरुद्वारे का अर्द्ध पढ़ा ग्रंथी और स्कूल का पंजाबी मास्टर दोनों ‘ज्ञानी जी’ थे और दोनों के प्रति उनका आदरभाव ऊपरी ही था।
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स्कूल में सातवी कक्षा से आगे की कक्षाओं को पंजाबी मैं ही पढ़ाता था। किसी कक्षा के दो से कम सेक्सन नहीं थे। मेरे पढ़ाने के ढंग ने केवल विद्यार्थियों को ही नहीं प्रभावित किया था, अपितु अध्यापक और खास तौर पर प्रिंसीपल भी मेरे से बहुत प्रभावित थे। एक महीने में ही मेरा स्थान स्कूल के चार-पाँच प्रमुख अध्यापकों में आ गया था। विचार-विमर्श के लिए प्रिंसीपल अक्सर मुझे बुलाता। मैं मन से यह चाहता था कि मुझे न बुलाया जाए, पर प्रिंसीपल अक्सर टाइम टेबल और अन्य प्रबंधकीय कार्यों के लिए मुझे बुला ही लेता था। स्कूल बन्द होने के बाद मेरी संगत सेखड़ी और जसबीर के साथ होती। सेखड़ी अपने इश्क की कहानी की कोई न कोई तार अवश्य छेड़ बैठता। जसबीर के पास भी लड़कियों की ही बातें हुआ करतीं। मैं चुपचाप सुनता भर रहता। जसबीर अक्सर कहता रहता कि मैं भी अपने इश्क की कहानी सुनाऊँ लेकिन मैं सुनाता तो तब न जब मेरे पास उसकी तरह इन कहानियों का भंडार होता।
एक दिन जसबीर मुझसे बोला- ''जैसे मैं झूठ बोलकर उसे लड़कियों की बातें बताता हूँ, उसी तरह तू भी कोई सुना दिया कर।'' मुझे लगा कि थानेदार का बेटा अब तक ये सारी कहानियाँ सुना कर मुझसे इस तरह की कहानियाँ सुनना चाहता है। मैं पहले से अधिक सचेत हो गया। अगर एक दो ऐसी घटनाएँ बतानी भी थीं तो भी मन ही मन न बताने का फैसला कर लिया।
सबसे बड़ी दिक्कत मुझे रोटी की थी। स्कूल का हॉकी ग्राउंड पार करके शहर की मुख्य सड़क पर आगे जाकर कुछ होटल थे। दो वक्त की रोटी मैं पंडित के एक होटल पर खाया करता। कमरे हालांकि अलग अलग थे, पर मेरे और सेखड़ी के पास चाय बनाने का प्रबंध साझा था। सेखड़ी सवेरे देर से उठता क्योंकि रात में वह पढ़ता रहता था। मैं पौ फटते ही उठकर सैर के लिए चला जाता। शाम को भी सैर को जाता लेकिन दिन छिपने से पहले पहले अपने कमरे में पहुँच जाता। अगर रात में एक दो बार बाहर जाना भी पड़ता तो टार्च संग लेकर जाता। सेखड़ी इतना ज़हीन था कि उसने ढाई हफ्तों में ही यह अंदाजा लगा लिया था कि मुझे रात में पढ़ने-लिखने में ही नहीं, बल्कि चलने-फिरने में भी मुश्किल होती है। लेकिन उसके अन्दर मिल में की गई नौकरी की हेकड़ी भी थी जिसके कारण उसने मुश्किल समय में कभी भी मेरी कोई मदद नहीं की थी।
(जारी…)
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5 comments:

Anonymous said...

swagat.
ranjan zaidi
zaidi.ranjan20@gmail.com

Anonymous said...

thanks. i read it.
--ajmer sidhu
ajmersidhu2007@yahoo.co.in

रूपसिंह चन्देल said...

आत्मकथा में शज प्रवाह है , लेकिन लेखक छोटी-छोटी बाअतों को दर्ज करने के मोह का शिकार हो गया है. उदाहरण के लिए घंटी बजना आदि--- फिर भी उत्सुकता बनी रहती है.

चन्देल

Sanjeet Tripathi said...

is kisht me der se aaya mai, mamuli bato nazar andaz karu to kahani fir se ek naye sire se shuru hoti dikh rahi hai,
agli kisht ki pratiksha...

सुरेश यादव said...

शावाश दीप्ति ,तुम बहुत महत्वपूर्ण कार्य कर रही हो .अनुवाद घर के माद्ध्यम से पंजाबी भाषा के उपन्यास को पढ़ने का सु अवसर प्राप्त हो रहा है .आगे काव्य पुस्तकें भी पढ़ने को मिलेंगीं.बधाई.