समकालीन पंजाबी साहित्य की उत्कृष्ट कृतियों की तलाश

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Sunday, June 6, 2010

पंजाबी उपन्यास


''साउथाल'' इंग्लैंड में अवस्थित पंजाबी कथाकार हरजीत अटवाल का यह चौथा उपन्यास है। इससे पूर्व उनके तीन उपन्यास - 'वन वे', 'रेत', और 'सवारी' चर्चित हो चुके हैं। ''साउथाल'' इंग्लैंड में एक शहर का नाम है जहाँ अधिकतर भारत से गए सिक्ख और पंजाबी परिवार बसते हैं। यहाँ अवस्थित पंजाबी परिवारों के जीवन को बेहद बारीकी से रेखांकित करता हरजीत अटवाल का यह उपन्यास इसलिए दिलचस्प और महत्वपूर्ण है क्योंकि इसके माध्यम से हम उन भारतीय लोगों की पीड़ा से रू-ब-रू होते हैं जो काम-धंधे और अधिक धन कमाने की मंशा से अपना वतन छोड़ कर विदेशों में जा बसते हैं और वर्षों वहाँ रहने के बावजूद वहाँ की सभ्यता और संस्कृति का हिस्सा नहीं बन पाते हैं।


साउथाल
हरजीत अटवाल

हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव

॥पाँच॥
अगले दिन भी उतनी ही ठंड है। ज्ञान कौर और प्रदुमण सिंह तैयार होते हैं और भारी वस्त्र पहनकर ब्राडवे की ओर निकल पड़ते हैं। कुछ देर बस की प्रतीक्षा करते हैं, नहीं आती तो पैदल ही चल पड़ते हैं। तीन स्टॉप ही हैं बीच में। करीब पंद्रह मिनट लगते हैं पैदल चलने में। मौसम ठीक हो तो दस मिनट में ही आसानी से पहुँच जाते हैं। उन्होंने बिल्डिंग सोसायटी में से पैसे निकलवाने हैं। हज़ारेक पाउंड खाते में छोड़ रखे हैं और घर का किराया भी इसी खाते में आया करता है।
ब्राडवे पर चलते हुए वे ग्रेवाल एम्पोरियम तक जाते हैं। राजा राज भोज के स्थान पर कंटकी फ्राइड चिकन खुल रहा है। प्रदुमण सिंह ज्ञान कौर को इशारे से बताता है कि यही वह जगह है जहाँ साधू सिंह ने अपनी बेटी का क़त्ल किया था। चलते-चलते प्रदुमण सिंह आसपास देखता जाता है। कोई भी परिचित व्यक्ति नहीं मिल रहा। उसे वहम होने लगता है कि शायद लोग उसे पहचान न रहे हों। उसने इंडिया जाकर कत्थई रंग की पगड़ी जो बांधनी बन्द कर दी थी। अब वह ज़रा हल्के रंग की पगड़ी बांधने लगा है। वह फैसला करता है कि आज ही कत्थई रंग की पगड़ी खरीद लेगा। उन्होंने ब्राडवे पर से कुछ शॉपिंग तो करनी ही है।
ज्ञान कौर ढाई सौ पाउंड बिल्डिंग सोसायटी में से लेती है। वे कारे के पास रहते हुए घर के खर्च में हिस्सा डालना चाहते हैं, इसलिए उन्हें घर के कुछ सामान की शॉपिंग करनी है। उन्हें कुछेक दिन ही रहना है जब तक किराये पर रहने के लिए कोई फ्लैट या घर नहीं मिलता। फिर वे अपना घर खाली करवाने के लिए नोटिस दे देंगे जिसे उन्होंने काउंसल को किराये पर दे रखा है। काउंसल के काम कुछ लम्बे हुआ करते हैं इसलिए पता नहीं कितना समय लगे।
वे शॉपिंग करते हैं। बैग कुछ भारी हो जाते हैं। ज्ञान कौर वहीं से 105 नंबर बस ले लेती है। यह वही बस है जो एअरपोर्ट से आती है। इस बस को एलनबी रोड पर से होकर जाना है। कारे के घर के नज़दीक ही बस-स्टॉप है। प्रदुमण सिंह अख़बारों वाली दुकान से 'वास-परिवास' खरीदता है और लाइटों वाले पब की तरफ चल देता है। पब में बैठकर वह बीयर पीएगा और अख़बार पढ़ेगा। यदि कोई परिचित मिल गया तो काम के बारे में पता करेगा। इस वक्त उसका बड़ा मकसद नौकरी तलाशना है। ज्ञान कौर को भी उसने हिदायत दे रखी है कि जो भी परिचित औरत मिले, उससे वह काम के बारे में पूछताछ अवश्य करे। अपने लिए भी उसने यही सोचा है कि कोई भी परिचित मिले तो उससे काम के विषय में पता करे। वह लाइटों वाले पब में जा घुसता है। सरसरी नज़र से इधर-उधर देखता है। कोई जाना-पहचाना चेहरा दिखाई नहीं देता। अपना गिलास भरवाकर एक तरफ जा बैठता है। उसे बीयर स्वादिष्ट लग रही है, बहुत देर बाद जो पी रहा है। वैसे वह बीयर का कम शौकीन है। पक्की अधिक पसंद करता है। वह घड़ी देखता है। अभी बारह ही बजे हैं। लोग दोपहर में पबों में आते ही कम हैं। उसने दिल्ली में ही अपनी घड़ी ग्रीन'च मीन टाइम से मिला ली थी। वह अपना गिलास खत्म करके उठ खड़ा होता है। सोचता है कि शाम को जान-पहचानवालों को फोन करेगा। बाहर निकलने पर सामने से पाला सिंह आता दिखाई देता है। हमेशा की भांति उसकी मूंछें खड़ी हैं। पाला सिंह उसे देखकर आश्चर्यचकित होकर पूछता है-
''दुम्मणे, तू कब आया ?''
''कल ही।''
''रहेगा कुछ दिन ?''
''हाँ, अब तो रहने ही आया हूँ।''
''एक बार कारा मिला था, कहता था कि तेरा तो दिल लग गया वहाँ पर। मैं सोचता था कि जितने भी आज तक यहाँ से इंडिया सैटिल होने गए हैं, सारे ही बेरंग लिफाफे की तरह वापस लौट आए हैं।''
''पाला सिंह, हालात ही ऐसे बन गए। मैं तो शायद कभी न लौटता।''
प्रदुमण सिंह बताते हुए उदास हो जाता है। पाला सिंह कहता है-
''आ जा, गिलास पिलाता हूँ। तेरे से इंडिया की कोई ख़बर ही सुनते हैं।''
प्रदुमण सिंह कुछ कहे बग़ैर उसके संग फिर से पब में आ जाता है। पाला सिंह दो गिलास भरवा लाता है। प्रदुमण सिंह चीयर्स कहते हुए अपना गिलास उठाता है। किसी समय वह पाला सिंह के साथ काम करता रहा है। वैसे भी मिलते रहते हैं। आगे जगमोहन की भी पाला सिंह से काफी सांझ है। पाला सिंह पूछता है-
''दुम्मणे, सुना इंडिया की कोई बात। ये 'वास-प्रवास' वाला तो बहुत कुछ बताता है कि खून-खराबा बहुत है।''
''हाँ, ऐसा ही है।''
''बताते हैं कि बाबे गाड़ी चढ़ाने में मिनट नहीं लगाते।''
''ऐसा ही है। गाड़ी भी एक्सप्रेस चढ़ाते हैं।''
''तू बच गया ?''
पाला सिंह उससे पूछ कर हँसने लगता है। उसे लगता है कि पाला सिंह उसकी कहानी जानता है। वह अपने बारे में बहुत कुछ बताना नहीं चाहता। लोगों की हमदर्दी उसे अच्छी नहीं लगती। ज्यादा हमदर्दी आदमी को कमज़ोर बनाती है बेशक उसका दिल करता है कि अपनी बात जान-पहचानवालों से साझा करे। वह कहता है-
''मुझसे किसी ने क्या लेना ?''
''भाई दुम्मण, तू ठहरा मायाधारी आदमी। माया की बाबों को सख्त ज़रूरत है। यह 'वास-प्रवास' वाला तो लिखता है कि किसी को माफ़ नहीं करते ये टैरेरिस्ट।''
टैरेरिस्टों के लिए 'बाबे' शब्द ही प्रचलित है। टैरेरिस्ट अपने आप को 'बाबे' या 'खाड़कू' कहलवा कर खुश हैं। यदि कोई अख़बार उनके बारे में क़ातिल शब्द इस्तेमाल करती है तो उस अख़बार के कर्मचारी गाड़ी चढ़ा दिए जाते हैं। पाला सिंह फिर वह सवाल दुहराता है। प्रदुमण सिंह से बात संभाली नहीं जाती, वह कहता है-
''पाला सिंह, मेरा हाल तो उस बुढ़िया जैसा है जिसके आँगन में खुला जवान बैल देखकर किसी ने पूछा था कि यह मारता तो नहीं। इस पर बुढ़िया ने जवाब दिया कि मैं रंडी किसकी की हुई हूँ। सो, मैं भी इन बाबों का भेजा ही वापस आया हूँ।''
''अच्छा ! कैसे हुई यह बात ?''
पाला सिंह के प्रश्न पर प्रदुमण सिंह उधड़ने लगता है-
''बस, वैसे ही जैसे दूसरों के संग होती है। चिट्ठी आई कि बाबे एक लाख रुपया मांगते हैं, तैयार रखो। हमने बात पर ध्यान नहीं दिया। एक दिन आदमी आ गया और दस दिन का टाइम दे गया। हमने अभी भी सीरियसली नहीं लिया।''
''कहने आए आदमी को ढाह लेना था, निकाल देते साले का अतवाद।''
पाला सिंह बात करता हुआ मूंछ को मरोड़ा दे रहा है।
''पाला सिंह, हम कौन सा वहाँ आदमी ढाहने जाते हैं। और फिर अगले पूरी तैयार से आते हैं। लोई की बुक्कल में वे पता नहीं क्या-क्या छिपाये होते हैं, हैंड ग्रिनेड या ए.के. फोरटी सेवन। आदमी फिर आए, बोले- रकम अब दो लाख चाहिए, पंद्रह दिन के अन्दर-अन्दर फगवाड़े के अड्डे पर पहुँचती कर दो, नहीं तो सारा टब्बर खत्म कर देंगे।''
''पुलिस के पास नहीं गए ?''
''गए थे, गए क्यों नहीं... उन्होंने कुर्ता उठाकर दिखा दिया। प्रोटेक्शन देने के बदले पैसे मांगने लग पड़े। जैसे-जैसे दिन बीतते जाते थे, हमारी जान मुट्ठी में आ रही थी और उनके रिमाइंडर पर रिमाइंडर पहुँचने लगे। हम किसी बड़े आतंकवादी से मिले, वो बोला कि तुम्हारे लिए दो लाख क्या मायने रखता है।''
''फिर ?''
''फिर पंद्रहवें दिन हम सब कुछ छोड़ छाड़कर भाग निकले। पहले तो मन नहीं करता था कि ऐसे पीठ दिखाकर भागना तो हतक है, मैंने ज्ञानों को बहुत कहा कि वह बच्चों को लेकर जहाज चढ़ जाए, मैं निबटता हूँ, पर वह मानी नहीं।''
''अपना गाँव, अपना घर छोड़ने में बहुत हतक है दुम्मणा।''
''हतक जैसी हतक ! मैं तो आख़िर तक देखता रहा कि कोई हल निकल आएगा, पर...।''
पाला सिंह और गिलास भरवाने के लिए उठता है पर प्रदुमण सिंह उसे उठने नहीं देता और स्वयं काउंटर पर जा खड़ा होता है। पाला सिंह के साथ बातें करना उसे अच्छा लगता है। उसका मन हल्का हो रहा है। वह बैठते हुए पुन: अपनी बात आरंभ करता है।
''बताई हुई तारीख़ पर वे हमारे गाँव में आए थे और गोलियाँ चलाकर खिड़कियों के शीशे तोड़ गए। लोगों से पता चल गया था कि हम ससुराल में बैठ हैं। वे मेरे ससुराल की तरफ चल पड़े। यह तो भला हो पड़ोसियों का जिन्होंने हमें फोन कर दिया। हम सीधे दिल्ली आ पहुँचे और जहाज पकड़ लिया।''
''ससुराल में कोई नुकसान तो नहीं किया ?''
''नहीं, मेरे बड़े साले की मार-पिटाई ज़रूर की।''
''इसका मतलब जो ये पेपर लिखते हैं, वो झूठ नहीं।''
''हम झूठ कैसे कहें। हम तो भरा-भराया घर छोड़कर आए हैं। मीट का भरा पतीला और बनी बनाई दूसरी सब्जियाँ...।''
बताते हुए प्रदुमण सिंह की आँखें गीली हो उठती हैं। पाला सिंह कह रहा है-
''चल दुम्मणा, मन थोड़ा न कर। ज़िन्दगी में बहुत कुछ देखना पड़ता है। तू तो हिम्मतवाला है, हिम्मत करके यहाँ पहुँच गया।''
''वैसे तो सब ठीक है, हम तो यहाँ आ गए। हमारे पास हल था। पर जो लोग वहाँ रहते हैं, उनके बारे में सोचो।''
''क्या सोचना ? वही सोचेगा जो बाकी दुनिया की सोचता है।''
''पाला सिंह, मैं तो बहुत बच गया। अगर कोई बच्चा ही उठा कर फिरौती मांगते या फिर किसी लड़के को संग मिला लेते तो... बड़ा लड़का तो है भी खुराफाती- सा।''
''चल, वो जाने दुम्मणा, बुरा समय टल गया। औलाद अच्छी हो तो सब कुछ ठीक है। यह देख साधू सिंह के साथ क्या बीती।''
''हाँ, पता लगा था, वहाँ भी अख़बारों में आता रहा।''
''बेटी गंदी निकल गई, पर उस बाप के पुत्त ने भी उफ् नहीं की, टुकड़े कर दिए, दूसरो को भी बता दिया।''
(जारी…)
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3 comments:

Sanjeet Tripathi said...

hmm, is kisht se bhi tab ke samay ko kafi kuchh samajhne ka mauka mila....

shukriya.....

सुनील गज्जाणी said...

दीप्ती जी ,
सादर प्रणाम !
अनुवाद में ह्हुमे एक अच्छी सामग्री पढने को प्राप्त हो रही है , इस के लिए आप को और श्री अटवाल जी को हार्दिक बधाई ,
सादर

सुनील गज्जाणी said...

अनुवाद के नए कलेवर के लिए भी सम्मानीय दीप्ती में को बधाई ,
सादर