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Saturday, June 26, 2010

आत्मकथा


एक नेत्रहीन लेखक की आत्मकथा

धृतराष्ट्र
डॉ. एस. तरसेम
हिन्दी अनुवाद : सुभाष नीरव
चैप्टर-10(प्रथम भाग)

तपा वापसी/मौड़ मंडी
वापस आने के लिए न माँ तैयार थी और न सरोज। मेरी जिद्द ने ही यह सबकुछ करवा दिया था कि अच्छी-भली नौकरी को लात मार कर घर लौट रहा था। आगे कौन मेरे लिए कोई दफ्तर खाली था, जहाँ आकर कुर्सी पर बैठ जाना था। भाई का तो कोई डर नहीं था, भाभी का डर ज़रूर था। मुझे तो कांगड़ा भेजा ही इसलिए गया था कि एक तो मैं चार पैसे कमाऊँ और दूसरा सेहत बनाऊँ। मैं पैसों को भी ठोकर मार आया था और पहाड़ों में रहकर सेहत बनाने की सारी संभावनाएं खत्म करके बल्कि बिगड़ी सेहत लेकर लौट रहा था। शाम को भोजन के बाद भाभी के सामने मैंने भाई के हाथ में तीन सौ बीस रुपये रख दिए थे। सरोज और माँ, ऊषा और भाभी के साथ बातें करने में मग्न थीं, पर मैं बिलकुल चुप था, मानो मेरी जीभ को लकवा मार गया हो। पहले से अधिक सेहत कमजोर हो जाने के कारण शायद भाई को मेरा नौकरी छोड़ना गलत न लगा हो, पर उसके चेहरे पर चिंता साफ झलकती थी। मैं भी भाई के पास बरनाला जाकर डॉ. रघबीर प्रकाश या डॉ. हेम राज के पास दिखा आने की बात करने से झिझकता था, लेकिन अचानक खांसी छिड़ जाने पर और एक के बाद एक पाँच-छह छींके आ जाने पर भाई ने स्वयं ही मुझे किसी अच्छे डॉक्टर के पास जाकर दिखलाने के लिए कह दिया।
अगले दिन मैं बरनाला डॉ. हेमराज के पास चला गया। खुद कह कर छाती का एक्सरे करवाया। मेरा ज्ञानी का शार्गिद वहाँ डिस्पेंसर होने के कारण काम भी शीघ्र हो गया और डॉक्टर साहब को उसके द्वारा यह बताने पर कि मैं उसका अध्यापक हूँ, उसने न तो एक्सरे के पैसे लिए और न ही दवाई के। एक्सरे देख कर उसने स्पष्ट बता दिया कि खांसी है, वैसे फेफड़े बिलकुल ठीक हैं। मेरे द्वारा तपेदिक के बारे में पूछने पर डॉक्टर साहब थोड़ा-सा मुस्कराये और मुझे तसल्ली भी दी।
कुछ दिन बाद खांसी और जुकाम ठीक हो गया। दरअसल कांगड़ा की सीलन भरी आबोहवा ने ही मेरी बीमारी बढ़ाई थी। पिछले साल मोगा का पड़ा वहम मेरे दिल में से कहीं एक वर्ष बाद निकल पाया। अब मुझे तसल्ली हो गई थी कि मुझे टी.बी. बिलकुल नहीं है। यह तसल्ली भाई को भी हो गई थी। जो दलीलें टी.बी. के शक के कारण मेरे और मेरे भाई के दिमाग ने घड़ी थीं - जैसे चाचा मनसा राम के लड़के रामकरन की मौत और मेरी बहन सीता का दुखांत, अब उसके उलट दिमाग ने यह सोचना प्रारंभ कर दिया था कि सीता की बीमारी के समय हम सभी बहन-भाइयों ने टी.बी. से बचने के लिए तीन बार बी.सी.जी. के टीके लगवाये हुए हैं। इसलिए टी.बी. होने की कोई गुंजाइश ही नहीं थी।
जनवरी का पिछला हफ्ता, फरवरी और आधा मार्च ट्यूशनों में निकल गया। इसलिए यह महसूस ही नहीं हुआ कि मैं बेरोज़गार हूँ। अप्रैल में वरखा राम शास्त्री का संदेशा आ गया कि मौड़ मंडी के एस.डी. हाई स्कूल में अंग्रेजी के अध्यापक की ज़रूरत है। वरखा राम और मैं आर्य स्कूल में एक साथ रहे थे। उस वक्त उसका भाई बचना राम सातवीं कक्षा में पढ़ता था। बचना राम मुझसे एक साल अंग्रेजी पढ़ा हुआ था। अब वह एस.डी. हाई स्कूल, मौड़ मंडी से मैट्रिक करके फौज में भर्ती हो गया था। लेकिन मेरे द्वारा पढ़ाई गई अंग्रेजी का उसने बहुत प्रचार किया हुआ था। उस प्रचार को और बल देने वाला था- वरखा राम शास्त्री। अप्रैल में उन्होंने मुझे इंटरव्यू के लिए बुला लिया। इंटरव्यू लेने वालों में मास्टर कश्मीरी लाल खुंगर तो थे ही, प्रबंधक कमेटी का प्रधान, मैनेजर, सचिव और खजानची भी थे। किसी अन्य मास्टर को इंटरव्यू में नहीं बिठाया गया था। पद सीनियर इंग्लिश मास्टर का था। इंग्लिश में सवाल पूछने से हैड मास्टर झिझकता था। स्कूल का मैनेजर, मार्किट कमेटी, मौड़ मंडी का मुलाज़िम भी था। उसने प्रश्न किया-
''डू यू रेडी टू टीच इंग्लिश टू सीनियर क्लासिस ?''
मैंनेजर का फ़िकरा व्याकरण के पक्ष से गलत था। इस बात का अहसास मुझे मुख्य अध्यापक के चेहरे से भी हो गया था।
बजाये इसके कि मै मैंनेजर की प्रश्न को ठीक करूँ, मैंने व्याकरण के पक्ष से ठीक उत्तर देने की कोशिश की -
''ऑफ कोर्स, आय एम रेडी टू टीच इंग्लिश टू सीनियर क्लासिस। आय एम फुली कम्पीटेंट टू टीच इंग्लिश, सोशल स्टडीज़ एंड पंजाबी। आय कैन आलसो टीच मैथमेटिक्स।''
''तुम तनख्वाह कितनी लोगे ?'' कमेटी में से किसी ने पूछा। बाद में पता चला कि वह स्कूल कमेटी का ख़जानची है।
''कम से कम 150 रुपये।'' मेरा कोरा जवाब था। अधिक ज़ोर डालने पर मैं 140 रुपये पर सहमत हो गया क्योंकि वरखा राम शास्त्री ने मुझे बता दिया था कि यहाँ सभी बी.ए., बी.एड. 100 या 110 रुपये पर काम करते हैं। सिर्फ़ हिसाब मास्टर कर्म चंद 150 रुपये लेता है। यद्यपि वह मैट्रिक है पर पिछले तीस साल से मैट्रिक तक हिसाब पढ़ाता आ रहा है। सेवा शर्तों में नौकरी छोड़ने या नौकरी से निकालने के लिए एक महीने के अग्रिम नोटिस की बात तय हुई और साथ ही स्कूल के हॉस्टल में मास्टर कर्मचंद के साथ वाले कमरे में मुफ्त रिहाइश की बात। जब प्रधान ने मुझसे कोई और शर्त पूछी तो मैंने एक ही शर्त रखी - ''मैं कमेटी के मैंबर से लेकर प्रधान तक पहले किसी को नमस्ते नहीं करूँगा। इस मंडी में मैं तम्हारे बच्चों का अध्यापक हूँ। इसलिए अगर अध्यापक बच्चों के माँ-बाप में से किसी को नमस्ते बुलाये तो इसका अर्थ है कि कमेटी के मैंबरो के बच्चे अध्यापक को अपना नौकर समझेंगे और अध्यापक से डरेंगे नहीं।''
मुख्य अध्यापक सहित सारी कमेटी ने मेरी यह शर्त भी मान ली। दरअसल यह वरखा दास शास्त्री द्वारा मेरी लिआकत के संबंध में बांधे गुए पुलों का नतीजा था कि मेरी बाढ़ जैसी शर्तें भी कमेटी के पुल के नीचे से सीधे निकल गईं।
मई 1964 में मैं एस.डी. हाई स्कूल, मौड़ मंडी में उपस्थित हो गया। हॉस्टल में कमरा मिलने से इस तरह समझो कि मुझे सरकारी स्कूल के मास्टर के बराबर तनख्वाह मिलने लग पड़ी- 140 रुपये + कमरा। यह किसी तरह सरकारी स्कूल के बी.एड. मास्टर के 166 रुपये से कम नहीं था। वैसे भी मौड़ मंडी, तपा से अधिक दूर नहीं है। उस समय भी और अब भी मौड़ मंडी से तपा जाने के लिए बस द्वारा कसाईआड़ा, कुत्तीवाल और मंडी कलां के रास्ते रामपुरे आ जाता और वहाँ से चार बजे वाली गाड़ी तपा के लिए पकड़ लेता। यह सफ़र किसी भी तरह से डेढ़ घंटे से अधिक नहीं था। हर शनिवार रामपुरे आकर चार बजे वाली गाड़ी मिल ही जाती। सोमवार को देर से आने की बात मैंने पहले ही हैड मास्टर से खोल ली थी।
हॉस्टल में हम पाँच अध्यापक रहते थे - मैथ मास्टर कर्म चंद, साइंस मास्टर बाली साहिब, निरंजण दास शास्त्री, मुल्लां जी और मैं। मास्टर कर्म चंद बठिण्डा का रहने वाला था। मुझसे दस रुपये अधिक तनख्वाह के कारण, बुजुर्ग होने तथा प्रबंधक कमेटी के बहुत सारे मैंबरों का उस्ताद होने के कारण भी उसका रुतबा सेकेंड मास्टर वाला था। सिर्फ़ मैट्रिक पास होने के बावजूद वह दसवीं तक हिसाब पढ़ाने में माहिर था। दसवीं तक अंग्रेजी भी गुजारे लायक पढ़ा लेता था। इसलिए एस.डी. स्कूल की ही नहीं, ख़ालसा हाई स्कूल और सरकारी गर्ल्ज हाई स्कूल की बहुत सी ट्यूशनें उसके पास आतीं। बाली साहिब जिनका पूरा नाम मुझे याद नहीं, बी.एससी., बी.टी. थे। रिटायर्ड होने के कारण सिर्फ़ वक्तकटी के लिए वह यहाँ पर आ टिके थे। ट्यूशनों में उनकी कोई रुचि नहीं थी। कृत्रिम दांतों के कारण भी उन्हें बोलने में कुछ मुश्किल आती थी जिस कारण स्कूल में पढ़ाने के बाद वह ट्यूशन के चक्कर में नहीं पड़ते थे। ट्यूशन के लिए मैंने किसी विद्यार्थी को उनके पास पहुँचते भी नहीं देखा था।
मुल्ला जी प्राइमरी अध्यापक थे। सन् 47 में मुल्तान से विस्थापित होकर सरकारी नौकरी के बाद वह इस स्कूल की प्राइमरी ब्रांच में साठ रुपये महीना पर आ टिके थे। नाम तो उनका कुछ और था, पर पता नहीं उनकी मुल्तानी उप भाषा के कारण या उर्दू-फारसी रंग की जुबान के कारण, क्या अध्यापक और क्या लड़के - सब उन्हें मुल्ला जी कहते थे। हैड मास्टर भी मुल्ला जी कहकर संबोधित करता था। उसके पास एक बकरी थी, जिसे वह कमरे में ही बांध कर रखता था। बकरी के पेशाब और मेंगड़ों के कारण उसके कमरे में अजीब सी गंध आती थी। उसका कोने वाला कमरा होने के कारण इस गंध से मैं बचा रहता। उसके कमरे में मैं कभी गया ही नहीं था, पास से कभी-कभार निकलना पड़ता था।
निरंजण दास शास्त्री अबोहर से आया था। हैड मास्टर कश्मीरी लाल खुंगर फ़ाजिल्का का था जिस कारण वह हैड मास्टर का पुराना परिचित था। वह मेरी उम्र का ही था और था भी मेरी तरह ही अकेला। हम दोनों की रोटी भी साझी ही बनती। रोटी वह बनाता और राशन सारा मेरा होता। पर ब्राह्मण होने के कारण वह जूठे बर्तन नहीं मांजता था, इसलिए बर्तन मुझे मांजने पड़ते थे। शक्करखोरे को शक्कर मिल ही जाती है। इस कारण घरेलू काम में कमजोर तरसेम को रोटी पकाने के लिए शास्त्री मिल गया था। बर्तन मांजने के वक्त भी ट्यूशन पढ़ने वाला कोई न कोई लड़का आ जाता। वह स्वयं ही अक्सर मुझसे बर्तन लेकर उन्हें साफ कर देता। पहले दस-पंद्रह दिन होटल की रोटी को छोड़ कर यह सिलसिला मेरे मौड़ मंडी रहने तक बना रहा।
मौड़ मंडी रहते हुए एक बुरी आदत जो मुझे पड़ गई थी, वह थी - शराब पीने की। मौड़ मंडी का ही एक मास्टर बरजिंदर सिंह अक्सर ही शराब पीता। था शायद वह एफ.ए. फेल, पर स्कूल में वह किसी अच्छे जट्ट का बेटा होने के कारण हवाखोरी के लिए आया करता था। पढ़ाता था खेतीबाड़ी और हमारे हॉस्टल से करीब सौ गज की दूरी पर एक चौबारे में रहा करता था। कुछ घर से लाकर और बाकी तनख्वाह से उसका दारू सिक्के का काम अच्छा चलता था। मैं भी उसकी ढाणी में शामिल हो गया था। अधिक नहीं तो सप्ताह में दो तीन बार जाम टकरा ही जाते। ठेके की देसी दारू - सौंफिया या संतरा लाते। लाने की जिम्मेदारी बरजिंदर सिंह की होती। उसके कुछ अन्य यार-दोस्त भी कई बार आ शामिल होते। फिर एक बोतल तो क्या, दूसरी और फिर तीसरी का सिलसिला चलता। मेरे शराब पीने की जानकारी हालांकि सभी विद्यार्थियों को थी, पर इस कारण विद्यार्थियों के दिल में मेरा मान-सत्कार बिलकुल भी कम नहीं हुआ था। कारण यह था कि मौड़ मंडी के क्या ब्राह्मण, क्या बनिये शराब पीने को बुरा नहीं समझते थे। कहते कहवाते अग्रवाल आढ़तिये भी सब शराब पीते थे। मास्टर कर्म चंद भी रात को ट्यूशन पढ़ाने के बाद दो पैग ज़रूर लगाता, पर वह अकेला पीता था। जब बरजिंदर सिंह मुझे हॉस्टल तक छोड़ने आता तो अक्सर मैं पहले अपने कमरे के बजाय लाला कर्म चंद के कमरे में जाता और मेरा एक ही वाक्य होता और उसका भी एक ही, ''और सुनाओ लाला जी... काटो फूलों पर खेलती है न ?''
''सच बात है, तेरे से कौन सा छिपाव है। बस दो पैग लगाए हैं।'' लाला जी की मुस्कान और 'सच बात है' तकिया कलाम सुनकर मैं अपने कमरे में आ जाता। शास्त्री की पकाई रोटी खाकर चुपचाप पड़ जाता। बरजिंदर सिंह को मैंने यह कह रखा था कि वह मुझे छोड़ कर उल्टे पांव लौट जाया करे क्योंकि शास्त्री हम दोनों के शराब पीने को अच्छा नहीं समझता। हमारा यह समझौता अन्त तक निभा। शास्त्री यह जानकर भी कि मैं शराब पीकर आया हूँ, कुछ न कहता। वैसे अन्दर ही अन्दर अवश्य विष घोलता होगा। इस बात का पता मुझे उससे अगले दिन उसके शराब के विरुद्ध बोलने से लग जाता था। मैं स्वयं भी भीतर ही भीतर शराब छोड़ना चाहता था, पर लाख टालमटोल के बावजूद दूसरे चौथे दिन बरजिंदर सिंह के जाल में फंस ही जाता। शराब छोड़ने का कारण एक यह भी था कि मुझे रात में बरजिंदर के चौबारे से हॉस्टल तक चल कर आना कठिन लगता था। हाँ, अगर स्ट्रीट लाइट होती, फिर तो अधिक कठिनाई नहीं होती थी, पर स्ट्रीट लाइट न होने पर मेरे लिए चलना कठिन हो जाता। हालांकि मुझे दिन में चलने फिरने में कोई मुश्किल नहीं थी, पर रात के समय चलना बड़ा कठिन लगता। यही कारण था कि मैं बरजिंदर के साथ दारू पीने बैठने से पहले हॉस्टल तक छोड़ कर आने की हामी भरवा लेता और वह भी यह कहकर हामी भर लेता कि दिन के समय मैं शेर हूँ और रात के समय बनिये का बनिया। मैं बात को हँसी में टाल देता। लेकिन मैं अपने इस मकसद में कामयाब था कि रात में चल कर आते समय उसे अपनी कम दृष्टि या अंधराते का पता नहीं लगने देता था। मुझे स्वयं भी उस समय नहीं पता था कि मैं अंधराते की बीमारी का शिकार हूँ और मेरी आँखों के रोग की जड़ अंधराता है।
(जारी…)
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3 comments:

Sanjeet Tripathi said...

mastar sahab har jagah jugaad bana lene me mahir hain aapke, chahe jaha bhi posting rahi ho,
padh raha hu, agli kisht ki pratikshha hai...

Anonymous said...

Thanks deeptiji. good duty.
ajmer sidhu
ajmersidhu2007@yahoo.co.in

उमेश महादोषी said...

ध्रतराष्ट्र का यह अंश प्रभावशाली है । कभी समय निकालकर पिछले अंश भी पडूंगा। आत्मकथा निश्चय ही लेखक को समझने का प्रभावपूर्ण माध्यम है । हमें किसी व्यक्तित्व को उसके द्रष्टिकोण से भी समझने की कोशिश करनी चाहिए।