समकालीन पंजाबी साहित्य की उत्कृष्ट कृतियों की तलाश

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Sunday, October 24, 2010

पंजाबी उपन्यास


''साउथाल'' इंग्लैंड में अवस्थित पंजाबी कथाकार हरजीत अटवाल का यह चौथा उपन्यास है। इससे पूर्व उनके तीन उपन्यास - 'वन वे', 'रेत', और 'सवारी' चर्चित हो चुके हैं। ''साउथाल'' इंग्लैंड में एक शहर का नाम है जहाँ अधिकतर भारत से गए सिक्ख और पंजाबी परिवार बसते हैं। यहाँ अवस्थित पंजाबी परिवारों के जीवन को बेहद बारीकी से रेखांकित करता हरजीत अटवाल का यह उपन्यास इसलिए दिलचस्प और महत्वपूर्ण है क्योंकि इसके माध्यम से हम उन भारतीय लोगों की पीड़ा से रू-ब-रू होते हैं जो काम-धंधे और अधिक धन कमाने की मंशा से अपना वतन छोड़ कर विदेशों में जा बसते हैं और वर्षों वहाँ रहने के बावजूद वहाँ की सभ्यता और संस्कृति का हिस्सा नहीं बन पाते हैं।


साउथाल
हरजीत अटवाल
हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव

॥ चौदह ॥
बेकरी में प्रदुमण सिंह की शिफ्टें हैं। रात की शिफ्ट हो तो ज्ञान कौर को काम पर छोड़ भी आता है और ले भी आता है। कार की ज़रूरत महसूस करता वह कार खरीद लेता है। कार के बग़ैर कुछ नहीं किया जा सकता। बसों में तो समय ही बहुत खराब होता है। फोर्ड की शेअरा कार उसे पसन्द है। फोर्ड की कारों को मजदूर तबका बहुत पसन्द करता है। सस्ती पड़ती हैं। कीमत में भी और मरम्मत में भी। और इंश्योरेंस भी अन्य कारों के मुकाबले कम होती है। ज्ञान कौर को लेने आया वह कई बार फैक्टरी के अन्दर भी चला जाता है। फैक्टरी का मालिक मोटा-सा सरदार है जिसे सभी पीटर कहते हैं। असली नाम तो शायद प्रीतम सिंह हो। वह पीटर से हाथ मिलाता उसका हालचाल पूछने लगता है, पर उसका ध्यान समोसों की तरफ होता है। वह देखना चाहता है कि समोसे कैसे बनाये जाते हैं। इनमें कैसी सामग्री पड़ती है। यह कितने का बेचते होंगे और इन्हें पड़ता कितने का होगा। बेकरी में तो हर वक्त यही सोचता रहता है कि एक ब्रेड इस बेकरी को कितने की पड़ती होगी। उसे ये समोसे उन समोसों से कुछ भिन्न लगते हैं जैसे ज्ञान कौर घर में बनाया करती है।
वह ज्ञान कौर से समोसों के बारे में पूछने लगता है-
''कितने कठिन हैं ये समोसे बनाने ?''
''ले, यह भी कोई काम है। सेम ही है जैसे घर में बनाते हैं। बस थोड़ा-सा फ़र्क़ है। एक जनी आटा गूंध कर पेस्टरी बना लेती है, दो औरतें मसाला तैयार कर लेती हैं, फिर मिलकर इनमें भरते रहते हैं और डैबी तले जाती है। पीटर तो फैक्टरी आता ही कम है। डैबी ही सारा काम चलाती है। एक वो धीरू भाई है, ड्राइवर।''
प्रदुमण धीरू भाई को जा घेरता है।
''भइया, किधर किधर जाते हो ?''
सवाल पूछने से पहले वह अपनी पहचान ज्ञान कौर के पति के रूप में करवा देता है। धीरू भाई बताता है-
''कुछ दुकानों, कुछ स्टोर अलग-अलग जाता रहता हूँ। नई जगह भी ट्राई करता रहता हूँ।''
''कौन कौन से एरिये में जाते हो ?''
''पूरे मिडलसैक्स में जाता हूँ। लंदन में जाने से डरता हूँ, इधर ट्रैफिक बहुत होता है।''
प्रदुमण सोचने लगता है कि लंदन ही तो असली जगह है, माल की खपत के लिए। उसके मन में स्वयं समोसे बनाकर ऐसे ही डिलीवर करने का विचार घूमने लगता है। वह किसी से अधिक परामर्श नहीं करता, पर इस बात का निर्णय कर लेता है कि किसी अन्य के लिए वह अब काम नहीं कर सकता। बेकरी में किसी के हुक्म के तले काम करना उसे बहुत बुरा लग रहा है। समोसों के काम में उसे उम्मीदें बंधने लगी हैं। वह ज्ञान कौर से कुछ समोसे मंगवाता है और उन्हें खोल कर देखता है कि इनमें क्या क्या डाला गया है। थोड़ा चख कर देखता है। इसमें मसाला कुछ अधिक और मिर्च कम है। गोरे लोगों के स्वाद को ध्यान में रखकर ये समोसे बनाये हुए हैं। वह समोसे बनाने का सामान लेकर आता है ताकि बनाकर देखे कि एक समोसा कितने का पड़ेगा। वह पूरे परिवार को ही संग लगा लेता है और कुछ घंटों में ही छह सौ समोसे बना लेता है। एक समोसे को आम समोसे से बड़ा रख कर उसका भार एक सौ चालीस ग्राम कर देता है और फिर हिसाब लगाकर देखता है कि एक समोसा करीब पन्द्रह पैनी का ही पड़ रहा है। आगे दुकानों पर तीस पैंस का जाता है और दुकानदार को आगे इसे पचास पैंस का बेचना है। जो नहीं बिकेंगे, उन्हें वह वापस ले लेगा। भाव के अनुसार पैसे दो और जो न बिके, वह वापस। यह सारी जानकारी वह धीरू भाई से प्राप्त करता है। अगले दिन प्रदुमण जाकर यह छह सौ का छह सौ समोसा दुकानों में रख आता है। कुछ दुकानदार मना करते हैं पर अधिकांश रख लेते हैं। उसका उत्साह दुगना हो जाता है। ज्ञान कौर कहती है-
''यह किराये की जगह, फिर छोटा-सा फ्लैट है, कोई पड़ोसी शिकायत भी कर देता है। कुकिंग की स्मैल दूर तक जाती है।''
''जब कोई शिकायत करेगा तो बन्द कर देंगे, पर तू बना। उतने ही रोज़ बना दे।''
अगले दिन वह और सामान ले आता है। आज उसने मीट वाले समोसे भी बनाने हैं। वे लैंब और चिकन के समोसे तैयार करते हैं। समोसों का आपस में फ़र्क़ रखने के लिए लैंब के समोसों में थोड़ा-सा लाल रंग डाल देता है और चिकन के समोसों में पीला। वह भविष्य के विषय में खुश होता हुआ ज्ञान कौर से कहता है-
''इतना बड़ा लंदन है, मैं तो एक एक दुकान समोसों से भर दूंगा।''
वह अगले दिन समोसे लेकर दुकानों पर जाता है। अधिकांश दुकानों पर समोसे बिके हुए हैं। कुछ समोसे पहले वाली दुकानों पर रख कर कुछ अन्य नई दुकानों पर भी रख देता है। समोसों का नाम तो लंदनवासियों के मनों में पहले ही अंकित हो चुका है, लेकिन बहुत से दुकानदारों को इनके बिकने में यकीन नहीं है। पर जब वह यह कहता है कि न बिकने की सूरत में वह वापस ले लेगा और पैसे भी बिकने के बाद ही लेगा तो दुकान वाले रख लेते हैं। जो इन्हें काउंटर पर रखकर बेचते हैं, उनके तो एकदम से बिक जाते हैं।
एक पड़ोसन ज्ञान कौर से पूछती है-
''सारी रात तुम्हारे घर में कुछ पकने की स्मैल आती रहती है।''
''हमारी रिश्तेदारी में विवाह जो है।''
''अच्छा। ऊपर वाली गोरी कल बड़बड़ा रही थी।''
सुनकर ज्ञान कौर डर जाती है, पर प्रदुमण सिंह खुश है। अगले हफ्ते जब पैसे इकट्ठे करके खर्चा निकालता है तो उसकी बढ़िया तनख्वाह निकल आती है। कुछ दिन और निकलते हैं तो उनका अपना घर खाली हो जाता है। घर की लाउंज को वह समोसों के लिए ही इस्तेमाल करने लगता है।
एक बड़ी-सी कड़ाही ले आता है। खुद भी काम छोड़ देता है और ज्ञान कौर का भी छुड़वा देता है। कुछ दिनों में ही उसे काम करने वाली एक अन्य औरत की ज़रूरत महसूस होने लगती है। दिन में बच्चे स्कूल में होते हैं। शाम को उन्होंने होमवर्क भी करना होता है। ज्ञान कौर को भी घर के अन्य काम निपटाने होते हैं। वह स्वयं तो सवेरे का गया शाम को ही लौटता है। अब उसे वैन खरीदनी पड़ रही है क्योंकि कार में सामान नहीं आ पा रहा है। और फिर कार में से सामान बाहर निकालने में बहुत ज्यादा झुकना पड़ता है जो उसे कुछ कठिन लगता है। वह दिन भर दौड़ता फिरता है, पर इतना खुश है कि थकावट उसके करीब तक नहीं आती। एक दिन घर आता है। ज्ञान कौर और काम पर रखी औरत को काम करते देखता है। फिर वह ज्ञान कौर से कहता है-
''तुझे यह औरत कहाँ से मिली ?''
''कौन ? यह अजैब कौर ?''
''हाँ।''
''क्यों ?''
''यह तो बहुत बूढ़ी है। कोई जवान-सी तलाश कर जो काम करने में तेज हो, काम जल्दी निबटाए।''
''इस बेचारी को हम देते ही क्या हैं।''
''पूरा साउथाल ऐसी बेचारियों से भरा पड़ा है। बहुत सारी इललीगल-सी घूमती फिरती हैं।''
''मुझे तो कोई दिखाई नहीं देती।''
''किसी से पूछताछ करते हैं। मैं इधर-उधर से पता करता हूँ।'' वह कहता है।
जब वह जवान औरत की बात करता है तो उसकी आँखों में चमक पलटे खाने लगती है। उसे मैडम नीरू की याद आने लगती है। कितने दिन हो गए, उसने नीरू को फोन नहीं किया। वह उसी शाम नीरू को फोन करके हालचाल पूछता है। नीरू उससे पूछती है कि पंजाब कब आओगे तो वह उत्तर देता है-
''हालात कुछ ठीक हो जाएँ, मैं चक्कर मारूँगा। तुम्हारे बिना मैडम जी मन बहुत उदास है।''
बात करता वह उदास-सा हो जाता है और उसके मन में एक बेचैनी-सी भी होने लगती है। एक दिन ज्ञान कौर कहती है-
''बच्चे शोर मचाते हैं कि घर में से तेल की बदबू आती है।''
''जहाँ समोसे बनाएँ, वहाँ से फूलों की खुशबू तो आने से रही।''
''मेरा मतलब कोई पीटर जैसी जगह देख लें, घर से ज़रा हटकर।''
''बात तो तेरी ठीक है, पर खर्चे बढ़ जाएँगे। फिर भी देखते हैं कुछ।''
अगली बार घर में घुसता है तो तेल की गंध उसे भी आने लगती है। वह सोचता है कि कोई यूनिट मिल जाए तभी ठीक रहेगा और यूनिट मिलते ही घर में नया पेंट करवा देगा। पेंट करवाने से घर में से आने वाली गंध उड़ जाएगी। वैसे भी किरायेदारों ने घर को हाथ फेरने वाला कर छोड़ा है।
शाम को व्हिस्की का पैग डालकर टेलीविजन के सामने बैठते हुए ज्ञान कौर से कहता है-
''कुब्बे(कुबड़े) को मारी लात और कुब्बे को ठीक बैठ गई। कुब्ब भी सीधा हो गया, इंडिया में बैठे होते तो ये दिन कहाँ देखने थे।''
''वाहेगुरू सभी की ओर देखता है। हमने कौन-सा किसी का बुरा किया था।''
''हाँ, यह तो ठीक है, पर वाहेगुरू ने इतना पंगा डालकर ही हमारी तरफ झांका।''
''कहते हैं वो इम्तिहान भी लेता है।''
''चल उसकी मर्जी, ले ले जितने इम्तिहान लेने हैं।''
वह पैग खत्म करते हुए इस प्रकार कहता है मानो हर संकट के लिए तैयार बैठा हो। वह फिर कहने लगता है-
''गोरों की कहावत है कि जो आदमी चालीस साल तक एस्टैब्लिस हो गया, सो हो गया। उसके बाद नहीं हो सकता। पर मैं उन गोरों की कहावत भी झूठी कर दूँगा।''
''ठीक है, पर बच्चों की तरफ भी ध्यान दो। जब से इस घर में आए हैं, इकट्ठे बैठ कर रोटी नहीं खाई।''
''अब वे कौन से बच्चे हैं। अपने आप को संभाल सकते हैं। और फिर हम यह सब कुछ उन्हीं के लिए तो करते हैं। हाँ, राजविंदर कार का टैस्ट पास कर ले तो मुझे आराम हो जाए।''
''पढ़ने दो अगर पढ़ता है तो।''
''मुझे नहीं लगता। उसके लक्षण पढ़ने वाले नहीं। कभी किताब उठाई उसने ! हर वक्त टेलीविजन में घुसा रहता है।''
दोनों लड़कियाँ पढ़ाई में ठीक चल रही हैं। छोटे बलराम को ट्यूशन रख देने के विषय में प्रदुमण सोचने लगता है। बड़ा वाला राज तो घर में किसी से अधिक बोलता भी नहीं है। जितनी बात पूछ लो, उतने का ही जवाब देता है। कभी कभी बलराम से या लड़कियों से लड़ता ज़रूर है। कभी कभार उसका कोई दोस्त उसके संग घर में आ जाता है। प्रदुमण सिंह को उसके दोस्त अच्छे नहीं लगते। कभी कभी प्रदुमण सिंह का दिल करता है कि राजविंदर को खूब फटकारे, पर फिर वह सोचता है कि ढीठ ही न हो जाए, बिलकुल ही कहना मानने से ही न हट जाए।
कारे की तरफ काफी दिनों से वह नहीं जा सका है और न ही वह आता है। वह ज्ञान कौर से कहता है-
''किसी दिन सुरजीत कौर को फोन ही कर ले। उन्हें कहना कि दोबारा बात ही नहीं पूछी, हैलो तक नहीं कही।''
''किस वक्त करूँ फोन ?''
''शाम को घंटी मार दे कभी।''
''मैं यह भी सोचती हूँ कि वह कहेगी कि इधर आ जाओ, एक साथ बैठ कर रोटी खाएँगे। लेकिन हमारे पास तो जाने के लिए टाइम ही नहीं। और अगर उन्हें बुलाएँ तो बिठाएँगे कहाँ, हमारी सारी लाउंज तो सामान से ही भरी पड़ी है और रसोई में तेल ही तेल हुआ पड़ा है। एक दिन मनदीप का फोन आया था, मैंने अधिक बातचीत के बग़ैर ही रख दिया।''
एक दिन सवेरे-सवेरे डाक देखता है। काउंसल की एक चिट्ठी आई है। खोलता है। नोटिस है कि तुम घर से कोई व्यापार करते हो और गैर-कानूनी कुकिंग कर रहे हो। हम तुम्हारे घर का मुआयना करना चाहते हैं। उन्होंने अपने आने की तारीख़ 12 मार्च दी हुई है। वह परेशान होकर नोटिस को एक तरफ रखता हुआ मन ही मन कहता है-
''यह सामने वाले घर का टौम ही होगा।''
वह कार खड़ी करते समय उससे बहस पड़ा था। शायद उसने ही शिकायत की हो या फिर कोई दूसरा पड़ोसी भी हो सकता है। वह इस बारे में ज्यादा नहीं सोचता। वह जानता है कि समोसे पकाने से उठने वाली गंध से सभी पड़ोसी भी परेशान होते होंगे।
(जारी…)
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