समकालीन पंजाबी साहित्य की उत्कृष्ट कृतियों की तलाश

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Saturday, October 30, 2010

आत्मकथा



एक नेत्रहीन लेखक की आत्मकथा

धृतराष्ट्र
डॉ. एस. तरसेम
हिन्दी अनुवाद : सुभाष नीरव
चैप्टर-15( दूसरा भाग)

नया महकमा, नये अनुभव

स्वास्थ विभाग में रोमांस की भरमार देखने को मिली। स्कूलों में यह काम कम था। मैंने तो जिस भी प्राइवेट स्कूल में काम किया, उनमें से किसी में भी कोई अध्यापिका नहीं थी। पढ़ने वाली लड़कियों की संख्या भी बहुत कम होती थी। बड़ी कक्षाओं की लड़कियों की क्लास या तो अलग लगती या अध्यापकों के साथ उन्हें बातचीत का अवसर कम मिलता। इस सम्बन्ध में मेरे संग जो पहले घटित हुआ है, वह मैं पीछे बता चुका हूँ।
हैल्थ सेंटर में तो लीला ही निराली थी। डॉ. अवतार सिंह स्वयं तो बहुत सज्जन थे। फार्मासिस्ट वेद प्रकाश भी इस मामले में पाक-साफ़ था, वह तो बस पैसे का बेटा था। स्त्रियों की ओर उसका कोई ध्यान नहीं था। एक दो को छोड़कर दोनों सैनेटरी इंस्पेक्टर, सर्वेलैंस वर्कर और सी.एम.ओ. दफ्तर में से आने वाले अफ़सरों के साथ आने वाले ड्राइवर- ये सब नर्सों पर आँख रखते। किसी के अगर कोई नर्स काबू में न आती तो वह किसी दाई के साथ रोमांस के चक्कर में पड़ जाते। यहाँ तक कि चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी भी इस काम में पीछे नहीं थे। चौकीदार सेवा सिंह बुजुर्ग़ था, बहुत सयाना था, बेहद गम्भीर। पहले ड्राइवर बाबू राम भी किसी हद तक इस चक्कर से मुक्त था। जंग सिंह को इस कुत्ते काम की जगह वेद प्रकाश से काम सीखने में अधिक दिलचस्पी थी। नर्सों में पी.एच.सी. हैडक्वार्टर की नर्स की तरफ किसी को झांकने का साहस नहीं था। उसका नखरा ऊँचा था या वह यूँ ही शरीफ थी। पर दोनों सैनेटरी इंस्पेक्टर यह कहा करते थे कि वह डॉक्टर से कम किसी से बात नहीं करती। हैडक्वाटर पर एक दाई शान्ति देवी थी। वह शतराणे की ही रहने वाली थी। उसकी ओर भी कोई आँख उठाकर नहीं देखता था। एक दाई थी अमर कौर। सब उसे अमरो कहकर बुलाते थे। वह मेकअप करने के बाद भी अच्छी नहीं लगती थी।
सैनेटरी इंस्पेक्टर सरबजीत का दुखान्त सबसे बड़ा था। मेरे पहुँचने से कई महीने पहले वहाँ जो एल.एच.वी. काम कर रही थी, सरबजीत उसे लेकर अपनी प्रेम कहानी जबरन सबको सुनाने लग पड़ता, पर वह लड़की जिसका नाम शायद दविंदर कौर था, बिलकुल चुपचाप अपने काम में मगन रहती। सरबजीत कई बहाने लगाकर उसे बुलाने की कोशिश करता पर वह मतलब की ही बात करती और उसके करीब आने में कोई न कोई बहाना लगाकर इधर-उधर चली जाती। करीब तीन महीने बाद दविंदर ने सारी कहानी मुझे बता दी। उसका पिता जब उसे यहाँ नौकरी पर छोड़कर गया था तो वह सरबजीत के साथ-साथ कुछ अन्य कर्मचारियों को दविंदर का ख़याल रखने के लिए कह गया था। लेकिन सरदार साहब को क्या पता था कि इस तरह कहने से कोई मर्द मजनूं भी बन सकता है और उसकी बेटी पर अपना कब्ज़ा जता सकता है। सरबजीत अपना क्लेम दविंदर पर बनाने के लिए पिछली लम्बी-चौड़ी घटनाओं की तफ़सील देता। उनमें से बहुत-सी घटनाएँ उसकी गलतफहमी का परिणाम थीं। सरबजीत जाति का आहलुवालिया था और दविंदर कौर जट्टों की बेटी थी। इसलिए दविंदर के माता-पिता को यह बात बिलकुल भी स्वीकार नहीं थी कि उनकी बेटी किसी दूसरी जाति में ब्याही जाए। जब तक मैं शतराणे में रहा, सरबजीत और उस लड़की में तनाव बना रहा। मैंने सरबजीत को समझाने का बड़ा प्रयास किया, पर उसने मेरी एक बात न मानी। मैंने उसे यह भी कहा, ''वह लड़की तो तेरे साथ बोलने तक को तैयार नहीं और तू उसके संग विवाह करवाने को मछली की तरह तड़प रहा है। वो कहती है- थड़े पर न चढ़ना, तू कहता है- पूरा तेली हूँ। ऐसे कोई बातें बना करती हैं। यह कोई गुड्डे-गुड़िया का खेल है।'' पर सरबजीत था निरा चिकना घड़ा, उस पर बूंद पड़ी न पड़ी, एक बराबर थी।
जिस नर्स या वर्कर की कोई बात चलती, उसकी कहानी अक्सर हैडक्वार्टर पर पहुँच जाती। मैं सब-सेंटर में भी जाया करता था। नर्सें और दाइयाँ मेरा बहुत आदर किया करती थीं। मब्बी सब-सेंटर वाली नर्स शादीशुदा थी और उसका पति उसके पास पहरेदारों की तरह रहता था। घग्गा सब-सेंटर वाली एक नर्स को कुछ महीने पहले दो बदमाश उठाकर ले गए थे, यह कहकर कि उनमें से एक की घरवाली को बच्चा होना है। उन्होंने उस बेचारी नर्स को रात भर बहुत परेशान किया। खानेवाल और मोमिआं सब-सेंटरों की नर्सें मेरे उपस्थित होने के बाद आई थीं और थी भी बिलकुल नईं। एक नर्स और भी थी हैडक्वार्टर पर, फरीदकोट ज़िले की। मेरे शतराणा में निवास के दौरान कोई न कोई बात किसी के बारे में सुनने को मिल ही जाती, पर मैं अपने दिल से इस कीचड़ से बाहर रहने की ही कोशिश करता रहता।
सब-सेंटर की जब भी कोई नर्स शतराणे आती, वह मेरे या संधू के कमरे में भी आ जाती। पटियाला वाली एक नर्स जो खानेवाल सब-सेंटर में काम करती थी, वह तो अल्मारी में पड़े डिब्बे भी खंगालने लग पड़ती। अल्मारी के कपाट नहीं थे। मेरी माँ बड़ी सख्त नज़रों से देखती, खास तौर पर जब वह मेरा शेव वाला डिब्बा खोलकर क्रीम आदि मुँह पर मलने लगती। ऐसी हरकत उसने दो-चार बार मेरी उपस्थिति में भी की थी और एक बार मेरी अनुपस्थिति में भी। मेरी माँ उसे कहती तो कुछ नहीं थी पर उसकी इस हरकत को देखकर उसने चाय-पानी पूछना बन्द कर दिया था। माँ मुझे समझाती कि मैं कहीं इस लड़की के चक्कर में न फंस जाऊँ। माँ की चक्कर वाली बात अपनी जगह पर ठीक सिद्ध हुई। वह नर्स एक सर्वेलैंस वर्कर के साथ निकटता के संबंध बना चुकी थी और इस बारे में मुझे उस वर्कर ने बता दिया था। इसी कारण वह चाहती थी कि मैं उससे हँसकर बात किया करूँ और इस बात को ढकी रहने दूँ। मैं तो किसी की भी बात आगे-पीछे नहीं करता था। इस हमाम में तो अधिकांश नंगे ही थे। आख़िर मैं इस नर्स के चक्रव्यूह में समझो आ ही गया। यह तीसरी बिमला थी जिसने मुझे अपने व्यूह में लेने की कोशिश की।
एक बार उसे मेरे दौरे का पता था। वह पटियाला से आकर पातड़ां बस अड्डे पर खड़ी थी। मैं साइकिल पर था। पातड़ां में उसे मेरे ठिकाने का पता था। वहाँ आकर मैं एक अखबार वाले या एक हलवाई की दुकान पर पाँच-सात मिनट बैठा करता था। उसने मुझे नमस्ते की और इस तरह मुस्कराई जैसे उसे बहुत कुछ मिल गया हो। टूर के बारे में पहले ही पता होने के कारण वह जानती थी कि मैं खानेवाल होकर आगे भूतगढ़ जाऊँगा। खानेवाल उस दिनों कोई बस नहीं जाया करती थी और मैं उसे साइकिल के पीछे बिठाने से इन्कार नहीं कर सकता था। वैसे भी मैं आख़िर मर्द था। एक सुन्दर लड़की इस तरह निकटता बनाने की कोशिश करे, उस जाल से भला मैं कैसे बच सकता था।
पातड़ां से कुछ आगे जाकर उसने वो हरकतें शुरू कर दीं, जिसकी मुझे इतनी जल्दी उम्मीद नहीं थी। मेरी पीठ पर वह अपनी उंगलियाँ फिराने लगी। पहले जब मैंने उसे रोका तो उसका जवाब था कि मुझे भ्रम हुआ है, पर जब मैंने पीछे की ओर अपना हाथ किया तो उसने मेरा हाथ पकड़ लिया। मैं सड़क के दोनों तरफ भी देख रहा था और सामने भी। शायद वह इस बात से चौकस थी। उसने मुझे कहा कि वह इतनी पागल नहीं कि राही के होते कोई शरारत करे। शरारत करने वाली बात उसने अपने मुँह से मान ली थी।
गाँव आने से कुछ गज़ पहले मैंने उसे साइकिल से उतार दिया था। मैं उसके सब-सेंटर पहुँच गया था। जिस घर में यह सब-सेंटर था, वह एक हॉकी के खिलाड़ी का घर था जो अब ज़िन्दगी की शाम बिता रहा था। मैं पहले भी उससे दो बार मिल चुका था, जिस कारण मेरा वहाँ पहुँचना कोई परायी बात नहीं थी। कुछ मिनट बाद बिमला भी पहुँच गई। उसने मुझे नमस्ते कहा और इस तरह प्रकट किया कि पहले वह मुझे मिली ही नहीं। ''लड़की, गोयल साहब ने तेरी गैर-हाज़िरी लगा देनी थी। टैम से आया कर। ये अफ़सर अच्छे हैं। हमारे ज़माने में तो अफ़सर आँख फड़कने नहीं देते थे। और फिर बच्ची, ड्यूटी ड्यूटी होती है।'' बुजुर्ग़, बुजुर्ग़ों वाली नसीहत दे रहा था और वह इस तरह खड़ी थी मानो सचमुच उससे बहुत बड़ी गलती हो गई हो। उसे हर किस्म का नाटक रचना आता था।
परिवार नियोजन के जिन दो केसों को हमने 'कन्विंस' करने जाना था, चाय पीने के बाद हम दोनों उस तरफ चल दिए। राह में प्रोग्राम यह बना कि भूतगढ़ की वापसी के बाद रात मैं उसके पास ठहरूँ। हालांकि मैं अपनी माँ को भी कह आया था और संधू को भी कि अगर भूतगढ़ से वापस नहीं लौटा गया तो अगले दिन सवेरे आऊँगा। शतराणे से भूतगढ़ 18-20 किलोमीटर दूर था और जोगेवाल से सात-आठ किलोमीटर की दूरी पर।
दोपहर की रोटी खाकर मैं अपने टूर के लिए तैयार हो गया। सरदार साहब ने स्वयं ही कह दिया कि लौटते समय मैं उनके पास रात में रुकूँ। इसलिए मेरा वहाँ रात में रुकना और आसान हो गया।
दिन छिपने से पहले मैं खानेवाल आ गया था। अंधराते के कारण मैं कभी भी बाहर अकेला दिन छिपने के बाद नहीं रहा था। यह घर भी मेरा देखा-परखा था। रोटी खाने के बाद बैठक में मेरा बिस्तर लगा दिया गया। अगर दूसरी चारपाई डालते तो सामने दरवाजा था। सर्दी होने के कारण सरदार साहब अपनी सबात में पड़ गए और जिस बैठक में मेरा बिस्तर लगाया गया था, वह असल में बिमला का कमरा था। वहीं अल्मारी में कुछ दवाइयाँ, कंडोम की डिब्बियाँ और उसका अपना बहुत-कुछ छोटा-मोटा सामान पड़ा था। सरदार साहब और मैं देर रात तक बातें करते रहे। वह अपनी खेल जीवन की और मैं अपने साहित्यिक और पारिवारिक जीवन की बातें करता रहा। उन दिनों मैंने साहित्य लिखना और पढ़ना बहुत कम किया हुआ था। बिमला ने सवेरे उठकर मुझसे माफी मांगी कि वह रात में नहीं आ सकी। साथ ही, उसका कारण भी बताया। मैं भी ऐसे माहौल में उससे कोई आस नहीं रखता था। मुझे अपनी इज्ज़त प्यारी थी, बहुत प्यारी। वैसे भी पहल उसकी थी, मेरी नहीं थी। लेकिन हम दोनों आपस में इतना खुल गए कि मैंने उसे अपनी माँ की भावनाओं से परिचित करवा दिया था। इसलिए वह जब भी दुबारा मेरे कमरे में आई, उसने किसी चीज़ को हाथ नहीं लगाया था। आकर मेरी माँ के साथ काम करवाती। मेरी माँ को वह कभी रोटी पकाने न देती। दो बार तो वह मेरी माँ के और मेरे कपड़े भी धो गई थी। पर मैंने कभी भी दुबारा खानेवाल रात नहीं बिताई थी। उसे भरोसा भी दे दिया था कि उसकी धर्म चन्द के साथ जो बातचीत है, मैं किसी को नहीं बताऊँगा। शायद वह यही चाहती थी। सी.एम.ओ. का एक ड्राइवर और हमारे दफ्तर के बाऊ जी एक नर्स जिसका नाम शायद पाल था, के साथ कई बार हैल्थ सेंटर के गैराज में ही मोर्चा लगा लेते। वे सबकुछ मुझे बता देते और संधू साहब ने इस यज्ञ में आहुति डालने की पेशकश भी की, पर मुझे पाल किसी भी तरह से अच्छी नहीं लगती थी। बिमला की अगर उस सर्वेलैंस वर्कर से बातचीत न होती तो शायद मैं उसकी ओर हाथ बढ़ाता।
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जैसा कि मैं पहले बता चुका हूँ, मेरा मुख्य काम परिवार नियोजन के प्रचार-प्रसार और उसकी सफलता से जुड़ा हुआ था। सिविल अस्पतालों, हैल्थ सेंटरों और सब-सेंटरों में कंडोम उन दिनों भी मुफ्त दिए जाते थे और अब भी। लेने वालों की कोई पड़ताल नहीं की जाती थी। अक्सर विवाहित स्त्री-पुरुष ही कंडोम लेने आते। इस तरह का जितना अधिक सामान लगता, उतना ठीक था पर असली ज़ोर इस काम पर दिया जाता था कि अधिक से अधिक नसबंदी और नलबंदी के ऑपरेशन करवाए जाएँ। उन दिनों में आज के कॉपर-टी की की तरह जो गर्भ-निरोधक उपाय इस्तेमाल किए जाते थे, उसे आई.यू.सी.डी. अर्थात इंटरा यूटरिन कांट्रासैप्टिव डिवाइश या आम भाषा में इसे लूप रखना भी कहा जाता था। कंडोम कितने भी लगते, उन्हें कर्मचारी की सफलता का पैमाना नहीं समझा जाता था। ओरल पिल्ज़ उन दिनों अभी प्रचलन में नहीं आई थीं। सबसे अधिक अहमियत नसबंदी को दी जाती थी। जिसमें मर्द का ऑपरेशन किया जाता जिससे उसके सीमन में से स्पर्म आने बन्द हो जाते थे। मर्द के स्पर्म और स्त्री के ओवम के मेल से औरत गर्भ धारण करती है। नसबंदी को छोटा ऑपरेशन समझा जाता था और हर सरकारी एम.बी.बी.एस. डॉक्टर को इस ऑपरेशन को करने की बाकायदा शिक्षा दी जाती थी। इस ऑपरेशन के लिए पोस्ट ग्रेज्यूएशन डिग्री अर्थात एम.एस. (सर्जन) की ज़रूरत नहीं थी। अब भी नसबंदी करने के लिए एम.बी.बी.एस. डॉक्टर योग्य समझे जाते हैं। नलबंदी औरत का मेजर ऑपरेशन है। यह ऑपरेशन पोस्ट ग्रज्यूएट सर्जन या स्त्री रोगों की विशेषज्ञ एम.डी. डॉक्टर करते थे, उन दिनों भी और अब भी। इसलिए सरकार की ओर से हमें हिदायत थी कि हम नसबंदी और नलबंदी पर ही ज़ोर दें। इन दोनों ऑपरेशनों को आबादी घटाने या रोकने का पक्का काम समझा जाता है। नसबंदी के कैम्प हैल्थ-सेंटर या सिविल अस्पताल में दो-तीन महीने बाद लगते ही रहते थे। जब तारीख सुनिश्चित हो जाती, हम पूरी तरह इस ओर जुट जाते। सब कर्मचारी- खासतौर पर नर्सें, एल.एच.वी., सैनेटरी इंस्पेक्टर, डॉक्टर और सबसे अधिक हैल्थ एजूकेटर व्यस्त हो जाते। हर कर्मचारी के लिए कोटा तय कर दिया जाता। हैल्थ एजूकेटर के लिए यद्यपि कोटा कुछ नहीं था पर कैम्प की सफलता की सारी जिम्मेदारी उसके सिर पर होती क्योंकि वह सारे ब्लॉक में एकमात्र कर्मचारी माना जाता था जिसके जिम्मे पूरा परिवार नियोजन का काम होता था। मुझे अच्छी तरह स्मरण है कि मेरे शतराणे में नौकरी के दौरान एक नसबंदी ऑपरेशन कैम्प समाणा और एक शतराणा में लगा था। केस लाने, उन्हें पैसे देने और जीपों पर बिठाकर उन्हें घर तक छोड़ कर आना, यह सारा काम मेरी निगरानी में हुआ था। लोगों को समझाने के लिए पंचायतों, बी.डी.ओ. स्टॉफ और पटवारी आदि सबकी मदद ली जाती थी। कैम्प की कामयाबी के लिए फिरकी की तरह घूमना पड़ता था। कम से कम एक हफ्ता तक सिर खुजलाने की भी फुर्सत नहीं होती थी। ऊपर से बड़े अफ़सरों की चेतावनियाँ सुननी पड़तीं और नीचे से अपने विभाग की भी तथा अन्य विभागों के उलाहने भी सुनने को मिलते। ऑपरेशन करने के लिए बाहर से आने वाले डॉक्टरों के चाय-पानी और उनके मान-सम्मान के प्रति भी चौकस रहने की मेरी ही जिम्मेदारी थी। शतराणा वाले कैम्प में हमने कोटा पूरा कर लिया था। कारण यह था कि शतराणे के आस पास हमारे चार सब-सेंटर थे। नर्सों ने अपनी जगह भागदौड़ की और बाकी कर्मचारियों ने अपनी जगह। मैंने अपने विभाग के कर्मचारियों को यह प्रकट करने की कोशिश की कि मेरा काम सिर्फ़ प्रचार-प्रसार करना है, केस लाना उन कर्मचारियों की ड्यूटी है जिनका इलाज के किसी न किसी क्षेत्र से संबंध है। हालांकि मैं अन्दर से समझता था कि कम काम होने से, सी.एम.ओ. और राज्य स्तर के अफ़सरों की ओर से खिंचाई मेरी ही होनी है।
समाणा ब्लॉक में लाल तिकोन के प्रचार में कोई कसर नहीं छोड़ी गई थी, पर सिविल अस्पताल समाणा में लगे नसबंदी के कैम्प ने हमारा नाक में दम कर दिया था। बड़ी कठिनाई से 11 केस तैयार किए थे। दो केस ऐसे आए कि ऑपरेशन करवाते समय बिफर गए। ये दोनों केस मैंने तैयार किए थे। उनमें से एक व्यक्ति ऐसा था जो घर से यह सोच कर आया था कि उसने ऑपरेशन करवाना ही नही। उसे काफी समय से खांसी थी और उसने खांसी की दवाई लेने के लिए ही जीप का फायदा उठाया था। मैंने भी उससे खांसी की दवाई देने का वायदा किया था पर उसने आते ही पर्ची बनवाने और खांसी की दवा लेने की रट लगा दी। मैं उसकी चालाकी समझ न सका। मैंने उसे गोलियाँ भी दिला दीं और उसका अधिया खांसी की दवाई से भी भरवा दिया। इस दवाई को उन दिनों चौदह नंबर मिक्सचर कहा करते थे। दवाई लेते ही वह गेट से बाहर निकल गया। हमने उसे राह में जाकर घेर लिया पर किसी को मज़बूर तो नहीं किया जा सकता था। उसने नहीं मानना था और न ही वह माना। हमें ठग कर ये गया, वो गया। मुझे बहुत निराशा हुई।
दूसरे केस में ऑपरेशन करवाने वाला सरदार कहे जा रहा था कि वह रोमां की बेअदबी नहीं होने देगा। मुझे इस भाषा की समझ थी। मैंने डॉ. जैन को सारी बात समझाई। डॉक्टर साहब ने उसे भरोसा दिलाया कि उस का ऑपरेशन बाल काटे बिना ही कर दिया जाएगा। मुझे नहीं पता कि वह ऑपरेशन कैसे किया गया, पर ऑपरेशन हो गया था और मरीज़ संतुष्ट था।
दोनों कैम्पों के बाद मैंने लगभग हर मरीज़ के घर घर जाकर उनकी जानकारी ली। समय से टांके कटवाने का प्रबंध किया। जिन केसों को और दवाई की ज़रूरत थी, उन्हें और दवाई उपलब्ध करवाई। यहाँ तक कि इन मरीज़ों के परिवार की ख़ैर-ख़बर भी पूछी। जब नसबंदी केस करवाने वाला कोई पुन: मिलता, मैं दौड़कर उसके साथ बात करने लगता। घर-परिवार की खैर-ख़बर पूछता।
तीसरा कैम्प जो बहुत ही सफल रहा, वह था शतराणे का लूप कैम्प। इस कैम्प में तीन लेडी डॉक्टरों को बुलाया गया था, पर केसों की तो जैसे बाढ़ ही आ गई हो। दोपहर से कुछ समय पहले पटियाला में सन्देशा भेज कर दो और लेडी डॉक्टरों को बुलाया गया। पाँच सौ से अधिक लूप फिट किए गए। ज़िला पटियाला में ही नहीं, इस कैम्प की धूम सारे पंजाब में पड़ गई थी। कैम्प वाले दिन एक चक्कर और पड़ गया। मेरे बहन तारा जनेपे के लिए आई हुई थी। पहले उसके दो बेटियाँ थीं। दूसरा मेरे जीजा जी का स्वभाव कुछ सख्त होने के कारण हमें यह डर था कि अगर फिर लड़की हो गई तो बहन का जीना तो इस घर में कठिन हो जाएगा। तारा को दोपहर से कुछ समय पहले तकलीफ़ हुई थी। आई तो वह इसलिए थी कि अस्पताल में डिलीवरी में कोई कठिनाई नहीं आएगी, पर उस दिन कैम्प के कारण अस्पताल में तिल रखने की जगह नहीं थी। हाँ, पाँच लेडी डॉक्टर और एक दर्जन नर्सें अवश्य उपस्थित थीं। जीपें चीलों की भांति घूम रही थीं। हैल्थ सेंटर के नज़दीक दवाई की कोई दूकान नहीं थी और पिचुरिटी के इंजेक्शन की ज़रूरत थी। यह इंजेक्शन हैल्थ-सेंटर में भी नहीं था। मैं स्वयं टीका लेने के लिए पातड़ां की तरफ जाने की तैयारी कर ही रहा था कि शमशेर सिंह ड्राइवर वाली जीप आ गई। मेरे बताने पर वह कहने लगा, ''वाह गोयल साहब, हम किसलिए हैं ?'' पर्ची लेकर उसने जीप पीछे मोड़ ली और बीस मिनट में टीका उसने मेरे हाथ में ला थमाया। मब्बी वाली नर्स जो बहुत अनुभव वाली थी और शान्ति दाई को डॉक्टर ने पहले ही घर भेज दिया था। टीका लगाया, आधे-पौने घंटे बाद काका जी ने अवतार लिया। आस पड़ोस में भी और सारे अस्पताल में भी खुशी की लहर दौड़ गई। डॉक्टर साहब कहते रहे, ''भई आज तो गोयल साहब का दिन है। कैम्प की शानदार कामयाबी और बहन जी के बेटा, भई बस कमाल हो गया।'' चारों ओर से बधाई ही बधाई की आवाज़ें सुनाई दे रही थीं। बाहर से आए स्टाफ को मिठाई खिलाने का काम पता नहीं किसने किया। पाँच-साढ़े पाँच तक सारा काम निपट गया। दिन छिपने से पहले गवैयों की एक टोली पता नहीं कहाँ से आ गई। सड़क के दूसरी तरफ नाचने-गाने का सिलसिला शुरू हो गया। संधू, शुक्ला, दरियाई मल, बख्शी - सबके परिवार इस तरह खुश थे मानो खुशी उनके घर ही आई हो। ऊपर का सारा काम दरियाई मल की घरवाली राज राणी ने संभाला हुआ था। मेरे लिए शतराणे की नौकरी के दौरान यह सबसे अधिक खुशी का दिन था- 29 अक्तूबर 1965 । अब इस काके का नाम अनुपम कुमार है, रामपुरा फूल में उसकी दवाइयों की दुकान इतनी बढ़िया चलती है कि सारा परिवार खुश है।
अनीता और बबली बेटा होने पर उछलती घूम रही थीं। बबली की शान जैसे बढ़ गई हो। उसके बाद ही लड़के का जन्म हुआ था। बबली का असली नाम अचला था। मेरी बड़ी बहन चन्द्रकांता के दोनों लड़कों के नाम भी 'अ' पर थे- आदर्श और अनूप। इसीलिए मेरी इस छोटी बहन तारा ने भी अपनी दोनों बेटियों के नाम भी 'अ' पर ही रखे हुए थे। हमने इसीलिए इस काके का नाम रखा - अनुपम। हमारे लिए इसके जन्म एक अनुपम घटना थी। हमारी तो बहन की इस बेटे के जन्म से ही कद्र बढ़नी थी। सचमुच इसका फ़र्क भी पड़ा। उन दिनों टेलिफोन आम नहीं होते थे। सो, मैंने तपा मंडी में अपने भाई और रामपुराफूल में जीजा जी को पत्र लिख दिए। शायद दो चिट्ठियाँ और लिखीं- एक मालेरकोटले और दूसरी सल्हीणे। मालेरकोटले तारा से बड़ी चन्द्रकांता रहती थी और सल्हीणे में बड़ी बहन शीला।
मदल लाल जी कुछ दिनों बाद आए। उनके पास घी की पीपी थी, चार सेर घी से भरी हुई पीपी। एक बादाम की गिरियों का भरा हुआ लिफाफा था और बहुत कुछ छोटा-मोटा सामान और था। बहन के ससुराल में पंजीरी बनाने वाला कोई भी नहीं था। बेचारी दादी सास तो पूरी तरह अपने योग्य भी नहीं थी। इसलिए जीजा जी सूखा सामान ही ले आए थे। वे जानते थे कि मेरी माँ स्वयं किसी बहन को बुलाकर पंजीरी बनवा लेगी। हम खुद भी चार सेर घी ले आए थे। उस दिनों शतराणे के इलाके में पाँच रुपये सेर घी मिलता था और मिलता भी बिलकुल खरा था।
मैंने कभी भी मदन लाल जी को इतना खुश नहीं देखा था। हालांकि हमारे इस कमरे की तुलना जीजा जी के बढ़िया लेंटर वाले मकान से नहीं की जा सकती थी, कहाँ राजा भोज और कहाँ कंगला तेली। पर फिर भी जीजा जी ने उस कमरे में चारपाई पर बैठ कर ही नाश्ता किया और दोपहर की रोटी भी खाई और जिस तरह की खुशी उनके चेहरे पर झलकती थी, उसका कोई पारावार नहीं था।
(जारी…)
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Sunday, October 24, 2010

पंजाबी उपन्यास


''साउथाल'' इंग्लैंड में अवस्थित पंजाबी कथाकार हरजीत अटवाल का यह चौथा उपन्यास है। इससे पूर्व उनके तीन उपन्यास - 'वन वे', 'रेत', और 'सवारी' चर्चित हो चुके हैं। ''साउथाल'' इंग्लैंड में एक शहर का नाम है जहाँ अधिकतर भारत से गए सिक्ख और पंजाबी परिवार बसते हैं। यहाँ अवस्थित पंजाबी परिवारों के जीवन को बेहद बारीकी से रेखांकित करता हरजीत अटवाल का यह उपन्यास इसलिए दिलचस्प और महत्वपूर्ण है क्योंकि इसके माध्यम से हम उन भारतीय लोगों की पीड़ा से रू-ब-रू होते हैं जो काम-धंधे और अधिक धन कमाने की मंशा से अपना वतन छोड़ कर विदेशों में जा बसते हैं और वर्षों वहाँ रहने के बावजूद वहाँ की सभ्यता और संस्कृति का हिस्सा नहीं बन पाते हैं।


साउथाल
हरजीत अटवाल
हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव

॥ चौदह ॥
बेकरी में प्रदुमण सिंह की शिफ्टें हैं। रात की शिफ्ट हो तो ज्ञान कौर को काम पर छोड़ भी आता है और ले भी आता है। कार की ज़रूरत महसूस करता वह कार खरीद लेता है। कार के बग़ैर कुछ नहीं किया जा सकता। बसों में तो समय ही बहुत खराब होता है। फोर्ड की शेअरा कार उसे पसन्द है। फोर्ड की कारों को मजदूर तबका बहुत पसन्द करता है। सस्ती पड़ती हैं। कीमत में भी और मरम्मत में भी। और इंश्योरेंस भी अन्य कारों के मुकाबले कम होती है। ज्ञान कौर को लेने आया वह कई बार फैक्टरी के अन्दर भी चला जाता है। फैक्टरी का मालिक मोटा-सा सरदार है जिसे सभी पीटर कहते हैं। असली नाम तो शायद प्रीतम सिंह हो। वह पीटर से हाथ मिलाता उसका हालचाल पूछने लगता है, पर उसका ध्यान समोसों की तरफ होता है। वह देखना चाहता है कि समोसे कैसे बनाये जाते हैं। इनमें कैसी सामग्री पड़ती है। यह कितने का बेचते होंगे और इन्हें पड़ता कितने का होगा। बेकरी में तो हर वक्त यही सोचता रहता है कि एक ब्रेड इस बेकरी को कितने की पड़ती होगी। उसे ये समोसे उन समोसों से कुछ भिन्न लगते हैं जैसे ज्ञान कौर घर में बनाया करती है।
वह ज्ञान कौर से समोसों के बारे में पूछने लगता है-
''कितने कठिन हैं ये समोसे बनाने ?''
''ले, यह भी कोई काम है। सेम ही है जैसे घर में बनाते हैं। बस थोड़ा-सा फ़र्क़ है। एक जनी आटा गूंध कर पेस्टरी बना लेती है, दो औरतें मसाला तैयार कर लेती हैं, फिर मिलकर इनमें भरते रहते हैं और डैबी तले जाती है। पीटर तो फैक्टरी आता ही कम है। डैबी ही सारा काम चलाती है। एक वो धीरू भाई है, ड्राइवर।''
प्रदुमण धीरू भाई को जा घेरता है।
''भइया, किधर किधर जाते हो ?''
सवाल पूछने से पहले वह अपनी पहचान ज्ञान कौर के पति के रूप में करवा देता है। धीरू भाई बताता है-
''कुछ दुकानों, कुछ स्टोर अलग-अलग जाता रहता हूँ। नई जगह भी ट्राई करता रहता हूँ।''
''कौन कौन से एरिये में जाते हो ?''
''पूरे मिडलसैक्स में जाता हूँ। लंदन में जाने से डरता हूँ, इधर ट्रैफिक बहुत होता है।''
प्रदुमण सोचने लगता है कि लंदन ही तो असली जगह है, माल की खपत के लिए। उसके मन में स्वयं समोसे बनाकर ऐसे ही डिलीवर करने का विचार घूमने लगता है। वह किसी से अधिक परामर्श नहीं करता, पर इस बात का निर्णय कर लेता है कि किसी अन्य के लिए वह अब काम नहीं कर सकता। बेकरी में किसी के हुक्म के तले काम करना उसे बहुत बुरा लग रहा है। समोसों के काम में उसे उम्मीदें बंधने लगी हैं। वह ज्ञान कौर से कुछ समोसे मंगवाता है और उन्हें खोल कर देखता है कि इनमें क्या क्या डाला गया है। थोड़ा चख कर देखता है। इसमें मसाला कुछ अधिक और मिर्च कम है। गोरे लोगों के स्वाद को ध्यान में रखकर ये समोसे बनाये हुए हैं। वह समोसे बनाने का सामान लेकर आता है ताकि बनाकर देखे कि एक समोसा कितने का पड़ेगा। वह पूरे परिवार को ही संग लगा लेता है और कुछ घंटों में ही छह सौ समोसे बना लेता है। एक समोसे को आम समोसे से बड़ा रख कर उसका भार एक सौ चालीस ग्राम कर देता है और फिर हिसाब लगाकर देखता है कि एक समोसा करीब पन्द्रह पैनी का ही पड़ रहा है। आगे दुकानों पर तीस पैंस का जाता है और दुकानदार को आगे इसे पचास पैंस का बेचना है। जो नहीं बिकेंगे, उन्हें वह वापस ले लेगा। भाव के अनुसार पैसे दो और जो न बिके, वह वापस। यह सारी जानकारी वह धीरू भाई से प्राप्त करता है। अगले दिन प्रदुमण जाकर यह छह सौ का छह सौ समोसा दुकानों में रख आता है। कुछ दुकानदार मना करते हैं पर अधिकांश रख लेते हैं। उसका उत्साह दुगना हो जाता है। ज्ञान कौर कहती है-
''यह किराये की जगह, फिर छोटा-सा फ्लैट है, कोई पड़ोसी शिकायत भी कर देता है। कुकिंग की स्मैल दूर तक जाती है।''
''जब कोई शिकायत करेगा तो बन्द कर देंगे, पर तू बना। उतने ही रोज़ बना दे।''
अगले दिन वह और सामान ले आता है। आज उसने मीट वाले समोसे भी बनाने हैं। वे लैंब और चिकन के समोसे तैयार करते हैं। समोसों का आपस में फ़र्क़ रखने के लिए लैंब के समोसों में थोड़ा-सा लाल रंग डाल देता है और चिकन के समोसों में पीला। वह भविष्य के विषय में खुश होता हुआ ज्ञान कौर से कहता है-
''इतना बड़ा लंदन है, मैं तो एक एक दुकान समोसों से भर दूंगा।''
वह अगले दिन समोसे लेकर दुकानों पर जाता है। अधिकांश दुकानों पर समोसे बिके हुए हैं। कुछ समोसे पहले वाली दुकानों पर रख कर कुछ अन्य नई दुकानों पर भी रख देता है। समोसों का नाम तो लंदनवासियों के मनों में पहले ही अंकित हो चुका है, लेकिन बहुत से दुकानदारों को इनके बिकने में यकीन नहीं है। पर जब वह यह कहता है कि न बिकने की सूरत में वह वापस ले लेगा और पैसे भी बिकने के बाद ही लेगा तो दुकान वाले रख लेते हैं। जो इन्हें काउंटर पर रखकर बेचते हैं, उनके तो एकदम से बिक जाते हैं।
एक पड़ोसन ज्ञान कौर से पूछती है-
''सारी रात तुम्हारे घर में कुछ पकने की स्मैल आती रहती है।''
''हमारी रिश्तेदारी में विवाह जो है।''
''अच्छा। ऊपर वाली गोरी कल बड़बड़ा रही थी।''
सुनकर ज्ञान कौर डर जाती है, पर प्रदुमण सिंह खुश है। अगले हफ्ते जब पैसे इकट्ठे करके खर्चा निकालता है तो उसकी बढ़िया तनख्वाह निकल आती है। कुछ दिन और निकलते हैं तो उनका अपना घर खाली हो जाता है। घर की लाउंज को वह समोसों के लिए ही इस्तेमाल करने लगता है।
एक बड़ी-सी कड़ाही ले आता है। खुद भी काम छोड़ देता है और ज्ञान कौर का भी छुड़वा देता है। कुछ दिनों में ही उसे काम करने वाली एक अन्य औरत की ज़रूरत महसूस होने लगती है। दिन में बच्चे स्कूल में होते हैं। शाम को उन्होंने होमवर्क भी करना होता है। ज्ञान कौर को भी घर के अन्य काम निपटाने होते हैं। वह स्वयं तो सवेरे का गया शाम को ही लौटता है। अब उसे वैन खरीदनी पड़ रही है क्योंकि कार में सामान नहीं आ पा रहा है। और फिर कार में से सामान बाहर निकालने में बहुत ज्यादा झुकना पड़ता है जो उसे कुछ कठिन लगता है। वह दिन भर दौड़ता फिरता है, पर इतना खुश है कि थकावट उसके करीब तक नहीं आती। एक दिन घर आता है। ज्ञान कौर और काम पर रखी औरत को काम करते देखता है। फिर वह ज्ञान कौर से कहता है-
''तुझे यह औरत कहाँ से मिली ?''
''कौन ? यह अजैब कौर ?''
''हाँ।''
''क्यों ?''
''यह तो बहुत बूढ़ी है। कोई जवान-सी तलाश कर जो काम करने में तेज हो, काम जल्दी निबटाए।''
''इस बेचारी को हम देते ही क्या हैं।''
''पूरा साउथाल ऐसी बेचारियों से भरा पड़ा है। बहुत सारी इललीगल-सी घूमती फिरती हैं।''
''मुझे तो कोई दिखाई नहीं देती।''
''किसी से पूछताछ करते हैं। मैं इधर-उधर से पता करता हूँ।'' वह कहता है।
जब वह जवान औरत की बात करता है तो उसकी आँखों में चमक पलटे खाने लगती है। उसे मैडम नीरू की याद आने लगती है। कितने दिन हो गए, उसने नीरू को फोन नहीं किया। वह उसी शाम नीरू को फोन करके हालचाल पूछता है। नीरू उससे पूछती है कि पंजाब कब आओगे तो वह उत्तर देता है-
''हालात कुछ ठीक हो जाएँ, मैं चक्कर मारूँगा। तुम्हारे बिना मैडम जी मन बहुत उदास है।''
बात करता वह उदास-सा हो जाता है और उसके मन में एक बेचैनी-सी भी होने लगती है। एक दिन ज्ञान कौर कहती है-
''बच्चे शोर मचाते हैं कि घर में से तेल की बदबू आती है।''
''जहाँ समोसे बनाएँ, वहाँ से फूलों की खुशबू तो आने से रही।''
''मेरा मतलब कोई पीटर जैसी जगह देख लें, घर से ज़रा हटकर।''
''बात तो तेरी ठीक है, पर खर्चे बढ़ जाएँगे। फिर भी देखते हैं कुछ।''
अगली बार घर में घुसता है तो तेल की गंध उसे भी आने लगती है। वह सोचता है कि कोई यूनिट मिल जाए तभी ठीक रहेगा और यूनिट मिलते ही घर में नया पेंट करवा देगा। पेंट करवाने से घर में से आने वाली गंध उड़ जाएगी। वैसे भी किरायेदारों ने घर को हाथ फेरने वाला कर छोड़ा है।
शाम को व्हिस्की का पैग डालकर टेलीविजन के सामने बैठते हुए ज्ञान कौर से कहता है-
''कुब्बे(कुबड़े) को मारी लात और कुब्बे को ठीक बैठ गई। कुब्ब भी सीधा हो गया, इंडिया में बैठे होते तो ये दिन कहाँ देखने थे।''
''वाहेगुरू सभी की ओर देखता है। हमने कौन-सा किसी का बुरा किया था।''
''हाँ, यह तो ठीक है, पर वाहेगुरू ने इतना पंगा डालकर ही हमारी तरफ झांका।''
''कहते हैं वो इम्तिहान भी लेता है।''
''चल उसकी मर्जी, ले ले जितने इम्तिहान लेने हैं।''
वह पैग खत्म करते हुए इस प्रकार कहता है मानो हर संकट के लिए तैयार बैठा हो। वह फिर कहने लगता है-
''गोरों की कहावत है कि जो आदमी चालीस साल तक एस्टैब्लिस हो गया, सो हो गया। उसके बाद नहीं हो सकता। पर मैं उन गोरों की कहावत भी झूठी कर दूँगा।''
''ठीक है, पर बच्चों की तरफ भी ध्यान दो। जब से इस घर में आए हैं, इकट्ठे बैठ कर रोटी नहीं खाई।''
''अब वे कौन से बच्चे हैं। अपने आप को संभाल सकते हैं। और फिर हम यह सब कुछ उन्हीं के लिए तो करते हैं। हाँ, राजविंदर कार का टैस्ट पास कर ले तो मुझे आराम हो जाए।''
''पढ़ने दो अगर पढ़ता है तो।''
''मुझे नहीं लगता। उसके लक्षण पढ़ने वाले नहीं। कभी किताब उठाई उसने ! हर वक्त टेलीविजन में घुसा रहता है।''
दोनों लड़कियाँ पढ़ाई में ठीक चल रही हैं। छोटे बलराम को ट्यूशन रख देने के विषय में प्रदुमण सोचने लगता है। बड़ा वाला राज तो घर में किसी से अधिक बोलता भी नहीं है। जितनी बात पूछ लो, उतने का ही जवाब देता है। कभी कभी बलराम से या लड़कियों से लड़ता ज़रूर है। कभी कभार उसका कोई दोस्त उसके संग घर में आ जाता है। प्रदुमण सिंह को उसके दोस्त अच्छे नहीं लगते। कभी कभी प्रदुमण सिंह का दिल करता है कि राजविंदर को खूब फटकारे, पर फिर वह सोचता है कि ढीठ ही न हो जाए, बिलकुल ही कहना मानने से ही न हट जाए।
कारे की तरफ काफी दिनों से वह नहीं जा सका है और न ही वह आता है। वह ज्ञान कौर से कहता है-
''किसी दिन सुरजीत कौर को फोन ही कर ले। उन्हें कहना कि दोबारा बात ही नहीं पूछी, हैलो तक नहीं कही।''
''किस वक्त करूँ फोन ?''
''शाम को घंटी मार दे कभी।''
''मैं यह भी सोचती हूँ कि वह कहेगी कि इधर आ जाओ, एक साथ बैठ कर रोटी खाएँगे। लेकिन हमारे पास तो जाने के लिए टाइम ही नहीं। और अगर उन्हें बुलाएँ तो बिठाएँगे कहाँ, हमारी सारी लाउंज तो सामान से ही भरी पड़ी है और रसोई में तेल ही तेल हुआ पड़ा है। एक दिन मनदीप का फोन आया था, मैंने अधिक बातचीत के बग़ैर ही रख दिया।''
एक दिन सवेरे-सवेरे डाक देखता है। काउंसल की एक चिट्ठी आई है। खोलता है। नोटिस है कि तुम घर से कोई व्यापार करते हो और गैर-कानूनी कुकिंग कर रहे हो। हम तुम्हारे घर का मुआयना करना चाहते हैं। उन्होंने अपने आने की तारीख़ 12 मार्च दी हुई है। वह परेशान होकर नोटिस को एक तरफ रखता हुआ मन ही मन कहता है-
''यह सामने वाले घर का टौम ही होगा।''
वह कार खड़ी करते समय उससे बहस पड़ा था। शायद उसने ही शिकायत की हो या फिर कोई दूसरा पड़ोसी भी हो सकता है। वह इस बारे में ज्यादा नहीं सोचता। वह जानता है कि समोसे पकाने से उठने वाली गंध से सभी पड़ोसी भी परेशान होते होंगे।
(जारी…)
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Saturday, October 16, 2010

आत्मकथा



एक नेत्रहीन लेखक की आत्मकथा

धृतराष्ट्र
डॉ. एस. तरसेम
हिन्दी अनुवाद : सुभाष नीरव
चैप्टर-15(प्रथम भाग)

नया महकमा, नये अनुभव

ब्लॉक एक्सटेंशन एजूकेटर की सेवाएँ पंजाब सरकार ने 1964 में विशुद्ध रूप से परिवार नियोजन के प्रचार और प्रसार के लिए आरंभ की थीं। पहले कुछ ब्लॉकों में अस्थायी तौर पर नियुक्तियाँ की गईं। उस समय प्राय: हर ब्लॉक में एक प्राइमरी हैल्थ सेंटर होता था। ब्लॉक एक्सटेंशन एजूकेटर की नियुक्ति हैल्थ सेंटर में हुआ करती थी और उसका कार्यक्षेत्र पूरे का पूरा ब्लॉक होता था जिसमें ग्रामीण क्षेत्र के साथ-साथ शहरी क्षेत्र भी शामिल होता था। उस समय प्राइमरी हैल्थ सेंटर अर्थात पी.एच.सी. में अक्सर एक डॉक्टर का पद होता था, जिसे मेडिकल अफसर कहते थे, जिसकी शैक्षिक योग्यता कम से कम एम.बी.बी.एस. होती थी। एक पी.एच.सी. में एक फार्मेसिस्ट होता था। पुराने फार्मेसिस्ट तो सिर्फ मैट्रिक पढ़कर ही लगे हुए थे और अनुभव ही उनकी व्यवसायिक योग्यता बन गई थी। फिर मैट्रिक के बाद एक वर्ष का डी. फार्मेसी का कोर्स करके फार्मेसिस्ट की भर्ती होने लगी। डॉक्टर अक्सर नज़दीक के गांवों से हैल्थ सेंटर में आए मरीजों को देखने का काम करते थे और फार्मेसिस्ट दवाई देने का। फार्मेसिस्ट कुछ तरल दवाइयाँ भी डिस्पेंसरी में तैयार किया करते थे जिन्हें डिस्पेंसरी में बड़ी-बड़ी बोतलों में रखा जाता था। जिन्हें बोतलों से बीकर में डालकर फिर उसे मरीजों की शीशियों में डाला जाता। फार्मेसिस्ट को आम लोग कम्पाउंडर या डिस्पेंसर भी कहते थे, पर कम्पाउंडर शब्द अधिक प्रचलित था। उसकी सहायता के लिए चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी मरहम-पट्टी और टीके आदि लगाने का काम किया करते। यद्यपि यह उनकी ड्यूटी का हिस्सा नहीं था लेकिन कुछ चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी इस काम को सीख लेते थे। इस प्रकार लोगों में उनकी भी अच्छी पैठ बन जाती थी। उनमें से कुछ तो करीब के किसी गांव में रिहाइश रख लेते और प्रैक्टिस भी करते। पी.एच.सी. में एक एल.एच.वी. अर्थात लेडी हैल्थ विजिटर की पोस्ट तब भी थी और अब भी है। एक या दो ए.एन.एम. अर्थात एक्ज़िलरी नर्स मिडवाइफ की पोस्टें होतीं और एक या दो दाइयों की। पी.एच.सी. के अधीन ब्लॉक में आबादी के अनुसार आठ या दस सब-सेंटर होते थे। हर सब-सेंटर में एक ए.एन.एम. और एक ट्रेंड दाई की पोस्ट थी। इन सब-सेंटरों की पड़ताल का काम मेडिकल आफीसर स्वयं भी करता और एल.एच.वी. भी।
उन दिनों भारत सरकार यह समझती थी कि मलेरिया पर नियंत्रण पा लिया गया है। इसलिए कौमी मलेरिया समाप्ति मुहिम आरंभ कर दी गई थी और हर घर के बाहर मलेरिया वर्कर जिन्हें उन दिनों सर्वेलैंस वर्कर कहा करते थे, काले ब्रश से दरवाजे पर एन.एम.ई.पी. लिख कर नीचे चार लम्बवत लकीरें खींच देते थे। एन.एम.ई.पी. का अर्थ है - नेशनल मलेरिया इरैडिकेशन प्रोग्राम अर्थात राष्ट्रीय मलेरिया उन्मूलन कार्यक्रम। हर ब्लॉक में आठ से दस वर्कर होते थे जिनमें गांव को बांटने का काम पी.एच.सी. के मेडिकल आफीसर द्वारा किया जाता था। ये वर्कर घर घर जाकर खैर-खबर लेते। लोग समझने भी लगे थे कि ये बुखार की गोलियाँ देने वाले कर्मचारी हैं लेकिन गांवों में वर्करों को सभी डॉक्टर ही कहते। ये वर्कर बुखार वाले मरीज की प्राय: बीचवाली उंगली पर सुई चुभो कर काँच के एक टुकड़े पर खून का कतरा गिराते और बड़ी निपुणता से उस खून की बूँद को स्लाइड के बड़े हिस्में में बिछाकर मरीज का नंबर भी लिख देते। वही नंबर वे अपने रिकार्ड में मरीज के पूरे पते सहित दर्ज क़र देते। मरीज को क्लोरोपीन की चार गोलियाँ देते और साथ ही दूध आदि पीने की हिदायत भी करते। सब-सेंटर में काम करने वाली ए.एन.एम. अर्थात नर्स जहाँ औरतों और खासतौर पर जच्चा औरतों को आयरन और बी काम्पलैक्स की गोलियाँ देती, वहीं मलेरिये की स्लाइडें बनाने का काम भी करती। इन स्लाइडों को वह उस इलाके के मलेरिया वर्कर के हाथ पी.एच.सी. में पहुँचा देती। इन तीन दवाइयों के अलावा यह नर्स गांव में अपना प्रभाव बनाने के लिए या तो अपने पास से या फिर हैल्थ सेंटर में से दर्द, खांसी-जुकाम आदि के इलाज के लिए दवाइयाँ ले जाती, मरहम-पट्टी का काम भी करती। नर्से और दाइयाँ गर्भवती स्त्रियों के घर घर जाकर देखभाल की ड्यूटी भी निभातीं। बच्चे के जन्म से लेकर जच्चा के चलने-फिरने तक यह ड्यूटी नर्स और दाई की होती, खास तौर पर दाई की। जो नर्सें और दाइयाँ अच्छा काम करतीं, गांव वाले उन्हें सब्ज़ी-भाजी और दूध आदि तो दिया ही करते थे, कुछ नर्सें और दाइयाँ तो नगद-नारायण और सूट-साड़ी आदि भी लेने में सफल हो जातीं।
एक पोस्ट टी.बी. अर्थात तपेदिक वर्कर की भी आ गई थी। उसका काम सारे ब्लॉक में टी.बी. के केस खोजना होता था और उनके लिए दवाई का इंतज़ाम करवाना होता था। टी.बी. के मरीज को पूरे इलाज के लिए दवाई पी.एच.सी या सिविल अस्पताल में से मुफ्त प्रदान की जाती थी। यह टी.बी. वर्कर मैट्रिक के साथ-साथ दो साल की ट्रेनिंग के पश्चात् नियुक्त किया जाता था। थूक या बलगम के सैंपल लेना इस वर्कर की जिम्मेदारी थी। ये सैंपल भी मलेरिया की भांति काँच की स्लाइडों पर ही लिए जाते। पी.एच.सी. में एक एल.टी. अर्थात लैबॉटरी टेक्नीशियन होता था जिसका काम मलेरिया और टी.बी. की स्लाइडें देखना होता था। वह एक रसायन से इन स्लाइडों को स्टेन करता, फिर माइक्रो स्कोप से स्लाइड देखता। जिस स्लाइड में टी.बी. या मलेरिया के कीटाणु होते, उससे संबंधित रिकार्ड में वह 'पी' अर्थात पोज़ीटिव लिख देता। दूसरे शब्दों में 'पी' का अर्थ होता कि मरीज़ मलेरिया या टी.बी. के रोग का शिकार है। बहुत सी स्लाइडें 'एन' अर्थात नेगेटिव होतीं। दूसरे शब्दों में इस स्लाइड से संबंधित व्यक्ति को मलेरिया या तपेदिक नहीं है।
यदि किसी ब्लॉक में कोई बड़ा कस्बा या शहर पड़ता था तो वहाँ प्राय: एक सिविल अस्पताल भी होता था। पी.एच.सी. शतराणा ज़िला पटियाला के समाणा ब्लॉक में पड़ता था। समाणा एक बड़ा कस्बा है। यह वही समाणा है जो इतिहास में बंदा बहादुर की वीरता और शक्ति प्रदर्शन से भी संबंधित है और हीर-रांझा की लोक गाथा से भी।
मेरी पोस्ट को अक्सर पी.एच.सी. शतराणा और सिविल अस्पताल के सभी कर्मचारी ब्लॉक हैल्थ एजूकेटर कहते और मुझे इस पर एतराज़ भी क्या हो सकता था। मेरा काम गांव-गांव जाकर परिवार नियोजन और स्वास्थ्य सेवाओं के संबंध में लोगों को जाग्रत करना था। मुझे अपने पूरे महीने का टूर प्रोग्राम पहले ही बना कर एम.ओ., पी.एच.सी. को देना होता था और इसकी एक प्रति सी.एम.ओ. अथवा सिविल सर्जन पटियाला को भी भेजनी होती थी ताकि ज़िले या स्टेट का कोई भी स्वास्थ्य अधिकारी मेरे काम का निरीक्षण कर सके, अगवाई कर सके और मेरे साथ सम्पर्क रख सके। कभी कभी मैं अपना टूर डॉ.अवतार सिंह के साथ भी बना लेता क्योंकि एम.ओ. को सफ़ेद रंग की जीप मिली होती थी। ये जीपें यूनिसेफ की ओर से ब्लॉकों के लिए आई थीं। प्रसूता स्त्रियों और मलेरिये के इलाज के लिए भी सब दवाइयाँ यूनिसेफ की तरफ से मुहैया होती थीं, शायद अब भी होती हों।
नज़दीक के टूर के लिए मैंने नया साइकिल खरीद लिया था। खाने-पीने के प्रबंध के लिए माँ आ गई थी। एक क्लर्क के आ जाने से उसकी माँ भी उसके संग आ गई थी। क्लर्क था- दर्शन सिंह संधू। पोलियो के कारण उसका दायाँ हिस्सा पूरी तरह काम नहीं करता था। आवाज़ में भी कुछ फर्क़ था। इसलिए उसके लिए भी अपनी माँ को संग लाना ही बेहतर था। हमारे देखा देखी एल.टी. अर्थात लैबॉटरी टेक्नीशियन ठाकुर दास शुक्ला भी अपनी माँ को ले आया था। इस तरह दरियाई मल की चाय की दुकान के साथ बने कमरों में से अगले तीन कमरे भी एक एक करके हमने ले लिए थे। हम तीनों की आपस में बनती भी बहुत थी। दरियाई मल और बख्शी के साथ भी हम घुलमिल कर रहते।
ग्रेड के हिसाब से मेरी पोस्ट पी.एच.सी. में दूसरे नंबर पर थी। उसके बाद एल.एच.वी., फिर सेनेटरी इंस्पेक्टर और फिर फार्मेसिस्ट का ग्रेड था। ए.एन.एम. का ग्रेड उससे कुछ कम था, एल.टी. का ग्रेड शायद फार्मेसिस्ट के बराबर था। दाइयाँ चतुर्थ श्रेणी में आती थीं। सेनेटरी इंस्पेक्टर मलेरिया वर्करों का काम चैक करते, एल.एच.वी. सब-सेंटर और पी.एच.सी. में नर्सों और दाइयों के काम की देखभाल करती। डॉक्टर किसी को भी चैक कर सकता था। लेकिन मेरा काम किसी को चैक करना नहीं था। डॉक्टर साहब ने वर्करों और नर्सों में मेरा ऐसा प्रभाव बना दिया था कि मेरी ड्यूटी में निगरानी और निरीक्षण का काम भी जोड़ दिया गया था।
समाणा ब्लॉक शायद पंजाब के बड़े ब्लॉकों में से एक था। उस समय इसके अन्तर्गत 150 से भी अधिक गांव थे। खनौरी से आगे जाकर शेरगढ़ से लेकर यह ब्लॉक समाणे से आगे गांव ढैंठल और दूसरी तरफ कोई 22 किलोमीटर की दूरी पर गांव राजेवास तक फैला हुआ था। भाखड़ा नहर के दूसरी तरफ के बहुत सारे गांव भी इस ब्लॉक के अधीन थे। सिविल अस्पताल, समाणा, पी.एच.सी. शतराणा की अपेक्षा बिल्डिंग और मेडिकल सेवाओं के मामले में बेहतर था। यहाँ मरीज़ों को दाख़िल करने का पूरा प्रबंध था। मर्दों के नसबंदी और औरतों के नलबंदी के आपरेशन करने के लिए भी शतराणे की अपेक्षा सिविल अस्पताल, समाणा को ही तरजीह दी जाती थी। सिविल अस्पताल का डॉ. जैन उस समय की स्वास्थ्य मंत्री ओम प्रभा जैन का भाई था, पर था वह भला व्यक्ति। जब कभी मैं परिवार नियोजन के संबंध में सिविल अस्पताल जाता तो डॉ. जैन बड़े ही प्यार और सत्कार से मिलता। वहाँ का फार्मेसिस्ट देश राज था जो समाणा का रहने वाला था और अग्रवाल होने के कारण वह मुझे अधिक नज़दीक समझता था। मेडिकल लीगल केसों और प्रैक्टिस में से उसने लाखों रुपये कमाकर एक कारखाना भी लगा लिया था। एक दो बार तो वह मुझे अस्पताल की बजाय अपने कारखाने पर ही मिला था। पी.एच.सी., शतराणा वाला फार्मेसिस्ट वेद प्रकाश शर्मा भी समाणा का ही रहने वाला था। यहाँ उसका एक अपना पुश्तैनी घर था। प्रैक्टिस करने में वह देश राज का भी गुरू था। उसने गांव पैंद में उस समय बीस किल्ले से भी ज्यादा ज़मीन बना ली थी। लेकिन मैंने न तो डॉ. अवतार सिंह को और न ही डॉ. जैन को किसी से पैसा लेते देखा था, न ही सुना था।
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एक महीने में अभी स्वास्थ्य विभाग की थोड़ी-बहुत समझ आई थी। न परिवार नियोजन के बारे में, न स्वास्थ्य सेवाओं के बारे में, न रोगों के बारे में ओर न ही दवाइयों के बारे में कोई खास ज्ञान था। शायद इसलिए नये भर्ती किए गए हैल्थ-एजूकेटरों को ट्रेनिंग देने के लिए चण्डीगढ़ बुला लिया गया। यह याद नहीं कि ट्रेनिंग दो सप्ताह चली या चार सप्ताह लेकिन ट्रेनिंग के दौरान सिर खुजलाने की फुर्सत भी नहीं मिलती थी। ट्रेनिंग का इंचार्ज डॉ. सोहन सिंह था। वह उस समय पंजाब की स्वास्थ्य सेवाओं का सहायक निदेशक था। यह वही डॉ. सोहन सिंह है जो काले दिनों में खाड़कुओं का नायक बनकर उभरा। यह बात समझ से बाहर है कि डॉ. सोहन सिंह पूरा गुरसिख और अगर खाड़कु विरोधी शब्दावली में कहा जाए तो वह कट्टर सिख और पक्का खालिस्तानी था। उसका बेटा उस समय पंजाब सरकार का आई.ए.एस. अफसर था जिसे बाद में पंजाबी यूनिवर्सिटी का उप-कुलपति बना दिया गया था। पंजाब सरकार के प्रिंसीपल सचिव के तौर पर तो वह बड़ा सज्जन प्रतीत होता था। मुझे एस.एस. रे के गवर्नरी राज के समय नेत्रहीनों की समस्याओं के संबंध में बोपाराय साहिब को कई बार मिलने का अवसर मिला था पर उप-कुलपति बनकर उसने जिस तरह की मनमर्जियाँ की, उसके कारण वह पंजाबी लेखकों और अच्छे शिक्षा शास्त्रियों के नज़र में गिर गया। लेकिन बाद में अपनी ईमानदारी और मेहनत के कारण यूनिवर्सिटी में भी और बाहर भी वह अपना प्रभाव बनाने में सफल हो गया था, क्योंकि उसे कांग्रेसी कैप्टन सरकार ने लगाया था जिस कारण अकाली-बी.जे.पी. सरकार उसे अपनी राह का कांटा समझती थी। आखिर उसने स्वयं इस्तीफा दे कर अपने स्वाभिमान को बचा लिया था।
चण्डीगढ़ के 16 सेक्टर की एक बिल्डिंग में हमारी क्लास लगा करती थी। रोज़ सुबह नौ बजे क्लास लगती, स्कूलों की भांति दोपहर को एक घंटे की छुट्टी होती और फिर शाम को पांच बजे तक क्लास। क्लास में हम 44 हैल्थ एजूकेटर थे, 42 मर्द और 2 औरतें। पहली क्लास डॉ. सोहन सिंह की ही होती थी। उसका मुख्य भाषण जनसंख्या और परिवार नियोजन के भिन्न-भिन्न विषयों से संबंधित होता। भारत और चीन की बढ़ रही आबादी के कारणों को लेकर हनुमान की पूंछ की तरह आबादी के बढ़ने के सब आंकड़े एक एक करके बताए गए। डॉ. सोहन सिंह के अलावा अन्य डॉक्टर भी क्लास लेने आते। आम बीमारियों के बारे में भी लेक्चर दिए गए और बीमारियों के इलाज के संबंध में भी। विशेषतौर पर तपेदिक, मलेरिया, चेचक, काली खांसी, चर्मरोग तथा अन्य छूत की बीमारियों के संबंध में बड़ी भरपूर जानकारी दी गई। संयुक्त राष्ट्र संघ और उसकी एजेंसी यूनीसेफ और विश्व स्वास्थ संघ द्वारा पुस्तकों, दवाइयों और मेडिकल से संबंधित औजारों और आवाजाही साधनों के संबंध में दी गई सहायता पर भी कुछ लेक्चर दिए गए। हाईजन,फिज़ियोलॉजी और अनाटोमी संबंधी भी कुछ लेक्चर हुए। हमारे परिवार में से मेरे भान्जे डॉ. सुरिंदर और मेरी बड़ी भतीजी ऊषा के डाक्टरी शिक्षा से जुड़े होने के कारण मुझे इन में से कुछ बातों का पहले ही पता था और कुछ बातें मैं विशेषतौर पर समझने की कोशिश कर रहा था। वैद संत हरिकिशन सिंह उग्गे वाले मेरी अच्छी मदद करते थे। उन्होंने मुझे आयुर्वैद की कुछ किताबें भी पढ़ने को दी थीं। 1959 में वह पैप्सू आयुर्वैदिक बोर्ड के सीनियर मेंबर थे और सरकारी आयुर्वैदिक मेडिकल कालेज, पटियाला के आचार्या अमर नाथ के बहुत करीबी थे। वह जानते थे कि मैं आगे कालेज पढ़ने योग्य नहीं हूँ, क्योंकि उन दिनों पचास-साठ रुपये प्रति महीना से कम कालेज की पढ़ाई का खर्च नहीं था। उन्होंने बहुत जोर लगाया कि मैं मैट्रिक करने के बाद आयुर्वैदिक कालेज में दाखिला ले लूँ। उस समय अब की बी.ए. एम.एस. को जी.ए. एम.एस. कहते थे और जी.ए.एम.एस. की परीक्षा आयुर्वैदिक बोर्ड लिया करता था। यह परीक्षा ऐसी ही थी जैसी एलोपैथी की एम.बी.बी.एस. की परीक्षा होती है। जी.ए.एम.एस करने के बाद तुरन्त रजिस्ट्रेशन हो जाती और अक्सर सरकारी आयुर्वैदिक डिस्पेंसरी में वैद के तौर पर नियुक्ति भी हो जाती। वैद का ग्रेड 80-5-120 था। वैद को 120 रुपये मिला करते। अब इस पोस्ट पर काम करने वाले का ग्रेड एम.बी.बी.एस. डॉक्टर के ग्रेड के लगभग बराबर है। एम.बी.बी.एस. डॉक्टर को सरकारी अस्पतालों या स्वास्थ्य केन्द्रों में मेडिकल अफसर कहा जाता है और जी.ए.एम.एस या बी.ए.एम.एस. शैक्षिक योग्यता वाले अब वैद नहीं, अपने आप को डॉक्टर लिखते हैं और इनकी पोस्ट को आयुर्वैदिक मेडिकल अफसर कहा जाता है। लेकिन उस समय यह पढ़ाई मुझे पसंद नहीं आई थी। हाँ, वैद जी जो संत भी थे, उनके प्रभाव के कारण कुछ आयुर्वैदिक पुस्तकें शौकिया पढ़ ली थीं और कुछ आयुर्वैदिक दवाइयों का ज्ञान भी हासिल कर लिया था। यह शौक और ज्ञान शतराणे की सेवा के दौरान मेरे बहुत काम आया।
ट्रेनिंग के तीसरे-चौथे दिन डॉ. सोहन सिंह ने एक आदेश जारी कर दिया कि सभी लोग कल परिवार नियोजन पर करीब दस पृष्ठों का लेख लिख कर लाएँ। अधिकांश हैल्थ एजूकेटर तो सरकारी हॉस्टल में रहते थे लेकिन मैं अपने निकटवर्ती अमर नाथ कोटले वाले के बड़े लड़के लाल चन्द के पास रहता था। वह उस दौरान पंजाब यूनिवर्सिटी में पी.एचडी. करने के बाद एम.फार्मा को पढ़ाता था और यूनिवर्सिटी में डॉ. एल.सी. गर्ग के नाम से प्रसिद्ध था। उसका पेशा भी एक प्रकार से स्वास्थ शिक्षा से संबंधित था। इसलिए जो कुछ हमें बताया जाता, मैं शाम के समय लाल चन्द को अवश्य बताता। वह कुछ और बताकर मेरे ज्ञान की वृद्धि करता। उस शाम भी मैं बातें करते हुए भूल ही गया कि दसेक पन्नों का लेख लिखना है। जब 16 सेक्टर में पहुँचा और डॉ. सोहन सिंह के दर्शन हुए तो तुरन्त याद आ गया। डॉ. सोहन सिंह से डर भी बहुत लगता था। वह तो हमें इस तरह डाँट देता था जैसे स्कूल के बच्चों को मास्टर। वह वहाँ हमारा अध्यापक ही नहीं था, हमारा अफ़सर भी था।
अच्छी बात यह हुई कि सिर्फ़ दो ही हैल्थ एजूकेटर लेख लिखकर लाए थे। पहले मैं सबसे आगे बैठता था, उस दिन मैं सबसे पीछे जा बैठा। अभी वे डॉक्टर साहब लेख चैक ही कर रहे थे कि मेरी खोपड़ी काम कर गई। मैंने पाँच-सात मिनट में ही परिवार नियोजन पर छह पंक्तियाँ लिख मारीं। छंदों का मुझे पहले ही अच्छा ज्ञान था और इस तरह की मैं सैकड़ों कविताएँ पहले लिख चुका था। जब मेरी बारी आई तो भय के बावजूद मैंने कहा कि मैंने तो एक छोटी-सी कविता लिखी है। डॉक्टर साहब ने कविता सुनाने के लिए कह दिया। मंच पर कविता सुनाने का तो मुझे अच्छा अभ्यास था। उस ज़माने के किसी मंचीय कवि से मैं कम नहीं था। मैंने कविता पढ़नी शुरू की-
जिवें मंजे उते वड़ियां टुकियां ने
ओडा वडडा तां साडा परिवार समझो
फुटबाल दी पूरी ही टीम समझो
छोटे वड्डियां दी वड्डी डार समझो।
मापे लग्गे बनाण जुआक ऐंदा
भांडे चक्क ते जिवें घुमियार समझो।
भज्जे फिरन जुआक इह इयुं दसण
हुंदे ऊठ जिवें बे-महार समझो।
कहि के ऐस नूं लीला भगवान वाली
ऐंवे रब विचारे नूं भंडदे ने
तिन साल विच हुंदे ने चार निआणे
होर दे दे भगवान तों मंगदे ने।

कविता सुनकर डॉ. सोहन सिंह ने कहा, ''इट् इज ए वैरी गुड कविता।'' मेरी साँस में साँस आई। मन की बेचैनी कम हो गई। डॉक्टर साहब ने पूछा, ''तुमने पहले भी कभी कविता लिखी है ?'' ''जी हाँ। मैंने सैकड़ों कविताएँ लिखी हैं। सैकड़ों ही छपी भी होंगी।'' मैं यह सब बताते समय और अधिक चौड़ा हो गया होऊँगा। मेरे बहुत से साथी मेरी इस प्राप्ति पर कुछ परेशान लग रहे थे। यह बात मुझे दोपहर की छुट्टी के समय पता चली। कुछ मुझे मिरासी कह रहे थे और कुछेक ने तो मुझे डॉ. सोहन सिंह का चमचा भी बना दिया था जबकि इसमें मिरासियों वाली कोई बात नहीं थी और न ही चमचागिरी वाली। मुझे तो चमचागिरी की कला सारी उम्र ही नहीं आ सकी। दरअसल, छह-छह फुट के कद वालों और दाढ़ी-मूंछें चढ़ा कर रखने वालों को इस कमजोर से लड़के की तारीफ़ उनके मन को भाई नहीं थी। उन दिनों मैं बहुत दुबला-पतला था। मेरे ऐनक लगी हुई थी। अगर बहुत बुरी नहीं लगती थीं तो मोटे शीशों वाली यह ऐनक अच्छी भी नहीं लगती थी। मुझे स्वयं इस ऐनक से अपने आप में हीनता महसूस होती और कुछ कमी भी प्रतीत होती। ट्रेनिंग पूरी हुई, बहुत कुछ नया सीखा। परिवार नियोजन, स्वास्थ्य शिक्षा, बीमारियों से संबंधित और कुछ अन्य किताबें लेकर मैं एक ट्रेंड हैल्थ एजूकेटर के तौर पर पुन: पी.एच.सी., शतराणा में आ उपस्थित हुआ था। हालांकि सरबजीत तो पहले भी कुछ नहीं कहता था, पर सैनेटरी इंस्पेक्टर सहगल अवश्य मुझे विभाग पर बोझ बताया करता था। मेरे सम्मुख वह टेढ़े-मेढ़े ढंग से कहता और मेरी पीठ पीछे वह खूब चुगली दरबार लगाया करता। किसी हद तक वह ठीक भी था। सारे हैल्थ एजूकेटर साधारण ग्रेज्यूट थे, स्वास्थ शिक्षा की उनके पास कोई ट्रेनिंग नहीं थी। यद्यपि कुछ सूबों में हैल्थ एजूकेटरों के एक एक साल के कोर्स थे, पर हम सब हैल्थ एजूकेटर तो बिना किसी ट्रेनिंग के ही भर्ती कर लिए गए थे। कुछ किताबों में से पढ़ा, कुछ ट्रेनिंग के दौरान के नोट्स काम आए। दवाइयों का ज्ञान कुछ तो मैंने वेदप्रकाश फार्मासिस्ट से ले लिया और कुछ डॉ. जगन नाथ से। डॉ. जगन नाथ तपा मंडी में पुराना आर.एम.पी. था। कम्पाउंडर की नौकरी छोड़कर उसने मेडिकल स्टोर खोला हुआ था। उसकी प्रैक्टिस बहुत बढ़िया चलती थी। मैंने उस पर एक अहसान भी किया हुआ था। जब एक इतवार मैं तपा पहुँचा और दवाइयों के विषय में डॉ. जगन नाथ से पूछा, उसने तीन-चार घंटों में ही मुझे मिक्सचर्ज में प्रयोग आने वाले सभी रसायन और उनकी मात्रा, आम बीमारियों में इस्तेमाल में आने वाली सभी दवाइयों और उनको देने का ढंग तथा मात्रा आदि सब कुछ लिख कर दे दिया। चण्डीगढ़ से मिले नोट्स और किताबें डॉ. जगन नाथ के बताये सब नुस्खे और दवाइयाँ और वैद संत हरिकिशन सिंह की आयुर्वैदिक शिक्षा से मैं इतना भर जानकार हो गया था कि सारे पैरा मेडिकल स्टाफ को आगे लगा सकता था और हुआ भी ऐसा ही।
पी.एच.सी. शतराणा में डॉक्टर के बाद इंचार्ज के तौर पर फार्मासिस्ट काम मैं करता। सहगल अक्सर मुझे छेड़ता कि डॉक्टर साहब अपनी गैर-हाज़िरी में तुम्हें इंचार्ज बना कर जाएँ। मैं इंचार्ज के चक्कर में इसलिए नहीं पड़ना चाहता था क्योंकि उस कारण बाकी सारे स्टाफ से किसी न किसी समय बिगड़ने की शंका रहती थी। मैं तो अपने काम से मतलब रखना चाहता था और रखा भी। यदि मेरा टूर किसी बड़े गाँव का होता जैसे घग्गा, ककराला, गाजेवास, मोमिया आदि का तो मैं पहले या तो गाँव के सरपंच को ख़त लिख देता या फिर स्कूल के हैड मास्टर को। बड़े गाँव के हाई स्कूल में अक्सर मैं सुबह की सभा से पाँच-सात मिनट पहले पहुँच जाता। वहाँ मैं अध्यापकों और विद्यार्थियों को स्वास्थ रक्षा, सफाई और आम रोगों से बचने के उपायों पर लेक्चर देता। प्राय: स्कूल का मुख्य अध्यापक या मुख्य अध्यापिका मुझे डॉक्टर साहब कहकर बुलाते। सरकारी कागजों में मेरा नाम तरसेम लाल गोयल था जिस कारण स्वास्थ विभाग के कर्मचारी मुझे गोयल साहब कहकर बुलाते। जिस स्कूल में मुझे लेक्चर देना होता, उस क्षेत्र का मलेरिया वर्कर वहाँ पहुँचा होता। सब-सेंटर होने की सूरत में मैं ए.एन.एम. को सन्देशा दे देता, वह महिला भी मेरे बताये गए स्थान पर पहुँच जाती। सीधा परिवार नियोजन पर भाषण अभी बहुत से लोगों पर असर नहीं करता था। इसलिए मैं अपने भाषण को वाया सेहत और सफाई के माध्यम से पेश करता। इस ढंग से लोगों पर प्रभाव भी अच्छा पड़ता था और मेरी योग्यता का सिक्का भी जम जाता था। मैंने परिवार नियोजन के शतराणे और समाणे में लगने वाले सभी कैम्पों में पहले यही गुर प्रयोग किए थे। शतराणे में लगने वाले कैम्प के दौरान मैं शतराणे के आसपास के गाँवों का दौरा करता और समाणे में लगने वाले कैम्प के समय समाणे के गाँवों में घूमता। कैम्प के दिनों में कुछ दिन पी.एच.सी. की जीप भी मिल जाती। जब डॉक्टर साहब का किसी सब-सेंटर का दौरा होता तो वह खुद मुझे अपने संग ले जाते। मैंने स्वास्थ विभाग की नौकरी के दौरान इतनी अक्ल अवश्य बरती कि अपना लम्बा और दूर का दौरा उस गाँव का रखता, जहाँ बस जाया करती थी। नज़दीक के दौरे के लिए मैं साइकिल का प्रयोग करता। इससे एक लाभ यह था कि मेरे सफ़र खर्च का बिल अच्छा-खासा बन जाता। साढ़े तीन रुपये उस समय दिहाड़ी भत्ता मिलता था। किलोमीटर के हिसाब से आने-जाने के पैसे अलग मिलते। पूरी दिहाड़ी तभी मिलती यदि टूर 12 घंटों से अधिक का होता या रात बाहर बितानी होती। रात बाहर गुजारने से डेढ़ दिहाड़ी का भत्ता मिल सकता था। इस मामले में मैं कोई दूध का धुला नहीं था। हालांकि टूर पर जाते समय मुझे हैल्थ सेंटर में हाज़िरी लगाकर जाना पड़ता लेकिन हाज़िरी लगाने में मुझे कोई कठिनाई नहीं थी। क्लर्क दर्शन संधू का रिहायशी कमरा मेरे कमरे के बिलकुल साथ था। शाम को लौटते समय वह रजिस्टर संग ले आता था। मैं वहीं हाज़िरी लगाकर टूर पर चला जाता था। टूर से लौटते समय मुझे किसी से हाज़िरी सर्टिफिकेट लेने की ज़रूरत नहीं थी। इसलिए टूर पर जाने और लौटने का जो समय मैं लिख देता था, डॉक्टर साहब उसे ही सही मान लेते थे। मुझसे पहले जो महिला अस्थायी तौर पर काम करती थी, सुना था कि वह टूर पर कम ही जाती थी लेकिन मैं टूर इतनी आसानी से मिस नहीं करता था। हाँ, कहीं नाइट स्टे दिखा देता, कहीं आने का समय बढ़ा कर लिख देता। इस तरह यात्रा भत्ते के 40-50 रुपये अधिक बन जाते थे। बस पर मेरा खर्च अक्सर 20-30 रुपये ही होता, क्योंकि मैंने महीने के महीने कभी बिल नहीं बनाया था। इसलिए 20-30 रुपये मेरी जेब से खर्च होते। बिल बनाने का मुझे हिसाब तो आता था पर सी.एम.ओ. पटियाला के दफ्तर का बिल बाबू और खजाने वाला बाबू या चपरासी तब तक बिल पास नहीं करते थे, जब तक उनकी जेब गरम न कर दी जाती। मुझे अभी ऐसा काम करना नहीं आया था।
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Sunday, October 10, 2010

पंजाबी उपन्यास



''साउथाल'' इंग्लैंड में अवस्थित पंजाबी कथाकार हरजीत अटवाल का यह चौथा उपन्यास है। इससे पूर्व उनके तीन उपन्यास - 'वन वे', 'रेत', और 'सवारी' चर्चित हो चुके हैं। ''साउथाल'' इंग्लैंड में एक शहर का नाम है जहाँ अधिकतर भारत से गए सिक्ख और पंजाबी परिवार बसते हैं। यहाँ अवस्थित पंजाबी परिवारों के जीवन को बेहद बारीकी से रेखांकित करता हरजीत अटवाल का यह उपन्यास इसलिए दिलचस्प और महत्वपूर्ण है क्योंकि इसके माध्यम से हम उन भारतीय लोगों की पीड़ा से रू-ब-रू होते हैं जो काम-धंधे और अधिक धन कमाने की मंशा से अपना वतन छोड़ कर विदेशों में जा बसते हैं और वर्षों वहाँ रहने के बावजूद वहाँ की सभ्यता और संस्कृति का हिस्सा नहीं बन पाते हैं।

साउथाल
हरजीत अटवाल
हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव

॥ तेरह ॥

गुरनाम के घर से चले जाने पर प्रीती खुश है कि अब वह जो चाहे कर सकेगी। अपने अन्दर बैठे कलाकार को बाहर ला सकेगी। अपनी एक अलग पहचान बना सकेगी। ऐसा सोचकर उसे लगता है जैसे एक नई ज़िन्दगी बांहें पसारे उसकी प्रतीक्षा कर रही है। नये राह उसके सामने बिछे पड़े हैं। लेकिन ज़िन्दगी का सच जल्द ही सामने आने लगता है। शीघ्र ही उसे घर के खर्चों की चिंता सताने लगती है। घर में गुरनाम ही काम करता है। प्रीती ने तो कभी काम किया ही नहीं है। ऊपर से दो बच्चे हैं और फिर गुरनाम उससे काम करवा कर खुश भी नहीं है। गुरनाम द्वारा पुराना घर लिया होने के कारण उसकी किस्त भी अधिक नहीं है। बच्चे भी अभी छोटे ही हैं, सो अकेले गुरनाम की तनख्वाह से ही गुजारा चले जा रहा है। अब प्रीती के पास कुछ भी नहीं है। जो चार पाउंड जमा हैं वे भी गुरनाम के नाम ही हैं। बच्चों का चाईल्ड अलाउंस प्रीती के नाम वाले अकाउंट में आता है, पर उससे घर का खर्च पूरा नहीं हो रहा। अगर वह सोशल सिक्युरिटी के पास जाती है तो वे भी एकदम से कुछ नहीं देने वाले। कई कई हफ्ते लग जाते हैं। ऐसे ही गुरनाम से कानूनी तौर पर खर्चा लेने में भी कई महीने लग जाएँगे। कुछ भी जल्दी नहीं हो सकता और प्रीती को पैसे की ज़रूरत अब है। हर बात को समय लगना है और बच्चों को चीजें आज चाहिएँ। ऐसे इंतज़ार करते हुए तो भूखे मरने की नौबत आ सकती है। मौसी जीतो एक-दो बार कुछ मदद कर देती है पर उसकी भी अपनी सीमाएँ हैं और गुरनाम को घर से निकाले जाने पर अंकल बहुत गुस्से में है। यही कारण है कि मौसी को भी प्रीती से मेलजोल कुछ कम करना पड़ता है। उसकी दो-एक सहेलियाँ भी मदद करती हैं पर उनके अपने मसले भी हैं। वह सोच रही है कि यदि जगमोहन का फोन वगैरह होता तो उससे ही कोई मदद मांगती, बेशक कुछ घंटों का ही परिचय है, पर मरती कुछ न कुछ तो करती। वह भूपिंदर के घर फोन करती है, वह अभी इंडिया से वापस नहीं लौटा है। सिस्टर्ज़ इनहैंड्ज़ के दफ्तर भी जाती है। सुनीता कंधे उचका कर कह देती है कि वे किसी प्रकार की आर्थिक मदद करने में असमर्थ हैं। इंग्लैंड में जितने भर रिश्तेदार हैं, वे सब गुरनाम के ही हैं। वह कभी गुरनाम की शिकायत करे तो रिश्तेदार गुरनाम का ही पक्ष लेते हैं। तीन हफ्तों में ही प्रीती की हालत बहुत खस्ता हो जाती है। एक दिन तो घर में बच्चों के खाने के लिए कुछ नहीं होता और बच्चे उल्टा पिता को याद करके माँ को बुरा-भला कहने लगते हैं। गुरनाम बेशक पति अच्छा न हो, पर पिता के तौर पर वह बहुत अच्छा पिता है। अपने बच्चों पर जान छिड़कता है।
एक दिन वह मौसी जीतो से कहती है-
''मौसी, मेरे कुछ गहने ही बिकवा दे। जब तक किसी तरफ से कोई इंतज़ाम नहीं होता, तब तक बच्चों का पेट तो भरूँ।''
''किसी सुनार के पास ले जा।''
''मैं गई थी, वे कुछ नहीं देते। यहाँ सोना सस्ता ही बहुत है और घर की वस्तुएँ इतनी मंहगी हैं कि मेरे गहनों से मुश्किल से हफ्ताभर ही गुजारा हो।''
''प्रीती, इन मर्दों के साथ भी गुजारा नहीं और इनके बगैर भी गुजारा नहीं होता। मैं तो कहती हूँ कि तू गुरनाम से सुलह कर ले।''
प्रीती गर्दन झुकाकर सोच में गुम बैठी रहती है और कुछ नहीं बोलती।
गुरनाम घर से निकलता तो ऐसे है जैसे दुबारा मुड़कर इधर नहीं देखेगा, पर शीघ्र ही परेशान हो जाता है। वह अपने एक दोस्त मेजर के पास शरण लेता है। मेजर को तो गुरनाम के उसके घर में रहने पर कोई एतराज नहीं है, पर उसकी पत्नी का रुख गुरनाम को ठीक नहीं लग रहा। दो दिन वहाँ रहकर वह एक अन्य मित्र शिन्दे के पास रहने लगता है जो कि अकेला रहता है। उसके पास एक छोटा-सा कमरा है जिसमें एक गंदा-सा बैड पड़ा है। गुरनाम के घर में पूरी सफाई होती है। प्रीती घर को बहुत साफ रखती है। गुरनाम को शिन्दे का यह कमरा पसन्द नहीं है, पर वह शराब पीकर शिन्दे के साथ ही पड़ जाता है। उसने काम पर से बीमारी के आधार पर छुट्टी ली हुई है। शिन्दा भी काम से खाली है। वे दोनों साउथाल पॉर्क में जा बैठते हैं जहाँ शराबियों के झुंड बैठे पता नहीं किन सलाहों में खोये रहते हैं। पॉर्क में नहीं तो वे किसी पब में जा बैठते हैं, लेकिन इस ज़िन्दगी का वह आदी नहीं है। कुछ दिन बाद जब वह अपने आप में लौटता है तो सोचने लगता है कि अब क्या करे। उसने ऐसी अलहदगी पहले भी देखी हुई है जब वह अपनी पहली पत्नी से अलग हुआ था। लेकिन उस वक्त उसके बच्चे नहीं थे। अब उसे अपने तीनों बच्चे याद आ रहे हैं। वह सोचता है कि कुछ भी हो, प्रीती के हाथों उसे हार नहीं माननी चाहिए। सबसे पहले तो उसे रहने के लिए कोई बढ़िया-सा कमरा खोजना चाहिए, फिर काम पर जाना आरंभ कर देना चाहिए। जब वक्त होगा तो बच्चों से भी मिल लेगा, पर प्रीती के लिए उसकी ज़िन्दगी में कोई जगह नहीं होगी।
प्रीती पर उसे बहुत गुस्सा है। एक्टिंग सीखने की उसकी जिद्द ने बात को कहाँ तक पहुँचा दिया है। इतने वर्षों की जिद्द को वह पकड़े बैठी है। प्रीती को वह प्यार करता है। उसकी कोई भी जिद्द पूरी कर सकता है, पर यह एक्टिंग वाली नहीं। उसने इतनी बार उसे समझाया है, पर वह समझ ही नहीं रही। अब छोटी-सी बात पर पुलिस बुला ली और उसे घर से बाहर निकाल दिया। उस घर में से जिसे उसने अपने खून-पसीने की कमाई से बनाया है और प्रीती ने उसमें एक पाउंड का भी हिस्सा नहीं डाला। प्रीती को तो यहाँ आकर किसी प्रकार की मेहनत करनी ही नहीं पड़ी। उसने प्रीती को एक दिन भी काम पर नहीं भेजा। कोई दूसरा होता तो दूसरे दिन ही झोला थमा कर काम पर भेज देता। फिर अपने आप करती रहती एक्टिंग। सवेर से शाम तक काम करने वाली औरतों को तो सिर खुजलाने की फुर्सत नहीं मिलती, एक्टिंग की तो बात दूर है। वह सोचता बहुत रहता है पर कर कुछ नहीं पाता। न काम पर जाना हो पा रहा है और न ही कोई साफ जगह पर कमरा ही मिल पा रहा है। सवेरे उठकर वह और उसका दोस्त साइडर की बोतलें खरीदते हैं और पॉर्क में जा बैठते हैं। कई कई दिन वे शेव ही नहीं करता। हफ्ता भर बिना नहाये ही निकल जाता है। उसे महसूस होता है कि उसके हाथ काँपने लग पड़े हैं। वह भयभीत सा सोचता है कि वह ऐल्कोहलिक हो गया है। यदि नहीं हुआ तो जल्दी हो जाएगा। वह चाहता है कि इस स्थिति में से किसी न किसी तरह निकले, नहीं तो वह यूँ ही खत्म हो जाएगा और प्रीती दूर खड़ी हँस रही होगी। इस तरह उसके बच्चों का भविष्य धुंधला हो जाएगा, पर शराब उसकी सारी सोच पर हावी रहती है।
एक दिन लच्छू अंकल घूमता-घूमाता साउथाल पॉर्क की ओर आ जाता है। घर से काफी दूर होने के कारण वह इस पॉर्क में नहीं आया करता। उस दिन वह पॉर्क एवेन्यू वाले गुरुद्वारे में किसी रिश्तेदार की ओर से रखवाये गए पाठ के भोग पर आया तो दिन अच्छा होने पर पॉर्क की तरफ हो लिया। एक ढाणी में बैठा गुरनाम उसे दिखाई दे जाता है। साइडर की बोतल उसके हाथ में है। अंकल लच्छू सोचता है कि यह तो गया काम से, जल्द ही ऐल्कोहलिक होकर मर जाएगा। वह तेजी से गुरनाम की ओर बढ़ता है। गुरनाम अंकल को देखता है और उठकर उसके पास आते हुए पूछता है-
''अंकल, किधर घूम रहे हो ?''
''यंग मैन, मैं तो जिधर घूमता हूँ, घूम रहा हूँ पर तू बता, यह तूने क्या हाल बना लिया अपना ? क्या करने लगा है तू अपने आप को ?''
''कुछ नहीं अंकल, टाइम पास कर रहा हूँ, छुट्टियाँ जो हैं।''
''चल आ जा, पब में बैठकर बातें करते हैं।''
वे दोनों साथ-साथ चलते हुए पब में आ जाते हैं। अंकल लच्छू गिलास भरवा कर लाता है। वह कहने लगता है-
''मैं तो तुझे उस दिन का खोजता फिरता हूँ।''
''देख अंकल, मैं उसकी इस जिद्द के साथ किसी किस्म का समझौता नहीं कर सकता था। मैं अपने आप को पूरा मर्द समझता हूँ।''
''मैं तुझे किसी किस्म के समझौते के लिए नहीं कहता, पर मुझे तो गिला यह है कि तुझे घर क्यों छोड़ना था। घर तो आदमी का बेस होता है। दूसरे को मजबूर करो घर से जाने के लिए।''
''पर अंकल, इस मुल्क का कानून उलट है।''
''पर कानून को हम हाथ में ले ही क्यों ! मारपीट करने की क्या ज़रूरत है। तू तो पढ़ा-लिखा है।''
''पर अंकल, जिस काम से मैं उसे रोकता हूँ, वह उससे रुकती ही नहीं।''
''औरत रुका नहीं करती। आई पर आ जाए तो कभी नहीं रुकती। औरत और मक्खी को जहाँ से रोको, वे वहीं बैठेंगी। सियाने कहा करते हैं, अगर घी सीधी उंगली से न निकले, तो टेढ़ी कर लो। तू घर चल, तुझे कुछ दांव मैं बताऊँगा।''
''घर जाना मेरे लिए इतना आसान नहीं।''
''आसान या मुश्किल बाद की बात है। अक्ल की बात यह है कि इतनी देर औरत को अकेला नहीं छोड़ा करते। अगर उसे रोने के लिए कांधा मिल गया तो तू गया सदा के लिए। तेरा घर भी जाएगा और बच्चे भी। अभी मौका है, संभाल जाकर। यह साउथाल तो टुच्चों लोगों से भरा पड़ा है। यहाँ तो लोग ऐसी ही अकेली औरत को खोजते फिरते हैं। खासतौर पर पाकिस्तानी। और जो ये फौजी हैं, पक्के होने के लिए ये भी औरतें खोजते घूमते हैं।''
गुरनाम उसकी बातें बड़े ध्यानपूर्वक सुनता है। उसकी बातें सच प्रतीत हो रही हैं, पर वह कहता है-
''अंकल, अब तो जो होना था, हो गया। मैं अब पीछे नहीं मुड़ सकता। उसने जो करना है, करे, फौजी के संग जाए या काले चोर के साथ।''
''यह बात नहीं गुरनाम कि वह किसके संग जाए क्योंकि ऐसे वह सहजता से जाने वाली नहीं। लेकिन इस वक्त वह टूटी पड़ी है, रुपये-पैसे से भी और मानसिक तौर पर भी। इस वक्त समय है कि सुलह कर ले। और फिर अपने बच्चों के बारे में सोच।''
बच्चों के देखने के लिए वह और ज्यादा तड़फ उठता है। बाहर की दुनिया उसने अब देख ली है। कुछ सोचता हुआ वह कहता है-
''वह आकर मुझे सॉरी बोले तो मैं सोच सकता हूँ।''
''ऐसे नहीं, देख गलती तेरी भी है और उसकी भी। मैं तेरी मौसी से बात करके तुम्हारी सुलह करवाता हूँ। तू हमारी तरफ आ जाना। उसे बुला लेंगे। हम तुम दोनों को समझाएँगे, सब ठीक हो जाएगा। बाकी जो उसके ड्रामों का ड्रामा है, अव्वल तो उसे अब तक अक्ल आ गई होगी, नहीं तो तरीका मैं तुझे बता दूँगा। देखना, सब ठीक हो जाएगा।''
''वह कैसे ठीक हो जाएगा, अंकल ?''
''उसे सोध कर। और उसे सोधने का तरीका मैं तुझे बताऊँगा।''
''वह कैसे अंकल ? कौन सा तरीका ?''
''सारी बातें न पूछ। तू सुलह के लिए तैयार हो जा।''
''फिर भी कोई हिंट तो दो।''
''तुझे पता है कि सर्कस वाले शेर को कैसे काबू में करते हैं ? वे उसे मारते-पीटते बिलकुल नहीं।''
''फिर क्या करते हैं ?''
''मार पीट से शेर नहीं मानता। शेर क्या, अन्य कई जानवर भी नहीं मानते। कई औरतें भी नहीं। इनके लिए सर्कसवालों ने एक दूसरा तरीका निकाला हुआ है। वे शेर के कानों में व्हिसिल बजाने लगते हैं। इतनी ज़ोर ज़ोर से, इतनी बार व्हिसिल बजाते हैं कि शेर ऊब जाता है।''
''यानी कि शेर को दूसरे ढंग से टॉर्चर किया जाता है।''
''इसे टॉर्चर करना नहीं कहते यंगमैन, सोधना कहते हैं और कैसे सोधना है, यह मैं तुझे सिखाऊँगा। जो काम मैं नहीं कर सका, वह तू करेगा।''
(जारी…)
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