समकालीन पंजाबी साहित्य की उत्कृष्ट कृतियों की तलाश

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Thursday, January 27, 2011

पंजाबी उपन्यास


''साउथाल'' इंग्लैंड में अवस्थित पंजाबी कथाकार हरजीत अटवाल का यह चौथा उपन्यास है। इससे पूर्व उनके तीन उपन्यास - 'वन वे', 'रेत', और 'सवारी' चर्चित हो चुके हैं। ''साउथाल'' इंग्लैंड में एक शहर का नाम है जहाँ अधिकतर भारत से गए सिक्ख और पंजाबी परिवार बसते हैं। यहाँ अवस्थित पंजाबी परिवारों के जीवन को बेहद बारीकी से रेखांकित करता हरजीत अटवाल का यह उपन्यास इसलिए दिलचस्प और महत्वपूर्ण है क्योंकि इसके माध्यम से हम उन भारतीय लोगों की पीड़ा से रू-ब-रू होते हैं जो काम-धंधे और अधिक धन कमाने की मंशा से अपना वतन छोड़ कर विदेशों में जा बसते हैं और वर्षों वहाँ रहने के बावजूद वहाँ की सभ्यता और संस्कृति का हिस्सा नहीं बन पाते हैं।

साउथाल
हरजीत अटवाल
हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव

।। उन्नीस ॥
एक दिन सिस्टर्स इनहैंड्ज़ के दफ्तर से कुलविंदर नाम की लड़की रेड हाउस आती है। वह जगमोहन से पूछती है-
''आप फ्री लीगल एड दे रहे हो, कोर्ट में भी जाते हो ?''
''नहीं, हम तो सिर्फ़ एडवाइज़ ही देते हैं या अपील करते हैं।''
''हमारे दफ्तर में आपका लीफ़लैट पड़ा तो मैंने सोचा कि हम भी आपकी मदद ले लें।''
''आपकी मदद के लिए मैं तैयार हूँ, पर हम सिर्फ़ इमीग्रेशन के केस ही करते हैं। हम फुल फ्लैज वकील नहीं हैं, सिर्फ़ एडवाइज़र हैं। हाँ, अगर कोई इमीग्रेशन से संबंधित केस हो तो आ जाना। वैसे मुझे आपकी एक बात अच्छी भी लगती है कि और सारे काम छोड़कर आप संस्था चला रहे हो।''
''बस, एक खब्त-सी ही है।''
वे दोनों हल्का-सा हँसते हैं। कुछ सोचते हुए वह पूछता है-
''एक प्रीती नाम की लड़की आपके साथ हुआ करती थी।''
''हमारी मेंबर आती-जाती रहती हैं, किसी की काम की मज़बूरी हो जाती है और किसी की फैमिली की। मुझे किसी प्रीती के बारे में कुछ नहीं पता।''
कुलविंदर के जाने के बाद वह प्रीती के विषय में सोचने लगता है। उसने दोबारा कभी प्रीती को नहीं देखा। वैसे तो कहती थी कि अपने काम की वीडियो देगी, पर जाती हुए ऐसी उपेक्षा करके गई कि जैसे दोबारा मिलना ही न हो। टेलीफोन नंबर तो क्या देना था। वह सोचता है कि प्रीती को भी उसकी तरह एक्टिंग की ख़ब्त-सी ही होगी। वह अधिक गम्भीर नहीं होगी या फिर घरवाले ने आने पर रोक लगा दी होगी। जगमोहन को अब यह कानूनी सलाह देने में आनन्द आने लगा है।
शाम भारद्वाज अब रेड हाउस में बहुत कम आता है। गुरचरन भी नहीं आता, पर जगमोहन हर रोज़ छह बजे से लेकर आठ बजे तक आ बैठता है। कभी-कभी उसे लगता है कि वह अकेला रह गया है, पर उसका हौसला बुलन्द रहता है। कामरेड इकबाल आता है तो पूछने लगता है-
''जग्गे, कितने केस हैं तेरे पास ?''
''पाँचेक हैं इस वक्त। थे तो ज्यादा पर लोग अपनी फाइलें उठाकर ले गए।''
''इन लोगों को पैसे दिए बग़ैर तसल्ली जो नहीं होती।''
''यह उनकी मर्जी है, हमने तो जब तक लोग आते हैं, दुकानदारी खोलकर रखनी है।''
''तुम्हारा मौकापरस्त नेता कहाँ गया ?''
''पत्रा बांच गया।''
''मैं एक बात बताऊँ, हम हर क्षेत्र में ही लीडरशिप के हाथों मार खाते हैं, तुम्हारा नेता भी लीडर बनने को फिरता है। ये लोग हथेली पर सरसों जमाना चाहते हैं।''
कामरेड शाम भारद्वाज के बारे में बात कर रहा है। यद्यपि काम उनके पास अधिक नहीं है पर उनका नाम चल पड़ा है। पिछले छह महीने ही काम ठीक चलता है, पर अब वह बात नहीं है। अब सलाह लेने वाले बहुत आते हैं। सलाह लेने वाले भी वो जिनके केस कहीं और चल रहे होते हैं। वे बस मन की तसल्ली के लिए ही आ जाते हैं। मनदीप कहने लगती है-
''अगर कुछ और नहीं तो आराम से घर बैठो।''
''ख़ब्त-सी सवार हो गई अब तो मुझे।''
वह हँसता हुआ कहता है। मनदीप फिर मजाकिया लहजे में कहती है-
''ड्रामों का भूत तो अब काबू में लगता है।''
''मैं भूपिंदर का इंतज़ार कर रहा हूँ। बस, जिन्न बोतल से बाहर आया देख।''
वह कहता है, पर सोचने लगता है कि यह जिन्न कहीं भी नहीं पहुँचा सकता। यह उसकी एक महज ख़ब्त है और ख़ब्त कभी जुनून नहीं बन सकी। उस दिन कुलविंदर भी यही कहती है कि 'सिस्टर्स इन हैंड्ज़' के लिए काम करना भी एक ख़ब्त ही है। जगमोहन पूछता है कि ह्यूमन राइट्स की कोई किताब भी पढ़ते हो। इसपर वह कहती है कि ज़िन्दगी की किताब पढ़ती हूँ। बस, औरतों के दु:ख में शरीक होने का शौक है। वह सोचता है कि निरे शौक अच्छे नहीं होते, कुछ दृढ़-निश्चय करके करना होता है, पर हो नहीं पाता।
एक दिन कामरेड इकबाल के साथ एक गोल पगड़ी वाला आदमी आता है मानो कोई धर्म-प्रचारक हो। संग एक औरत भी है। कामरेड कहता है-
''यह भैरों सिंह है और यह इनकी मिसेज। यहाँ तबला सिखाया करेंगे। इन्होंने रहना भी ऊपर ही है।''
जगमोहन पहले खुश होता है और फिर उदास हो जाता है। कामरेड भैरों सिंह को उसका कमरा दिखाकर जगमोहन के पास आकर कहता है-
''तेरे काम में कोई ख़लल नहीं पैदा होगा, तू दरवाजा बन्द रखा करना। तुझे तो फायदा ही होगा कि बिना अधिक कोशिश के तू तबला सीख सकता है।''
''कामरेड, कोई साज़ सीखने को तो मेरा दिल करता है पर तबला नहीं। अगर हो सकता है तो कोई दूसरा संगीत मास्टर लाओ जो किसी खास साज़ को सिखाए। तबला तो गुरुद्वारे में बच्चे भी सीखते रहते हैं।''
कामरेड बोलता नहीं। वह जगमोहन की तरफ बुरी-सी नज़र से देखता हुआ रसोई में जा घुसता है जहाँ भैरों सिंह की पत्नी चाय बनाने लगती है। कामरेड उसके संग घी-खिचड़ी होकर बातें कर रहा है। उस दिन के बाद कामरेड का इस तरफ का चक्कर बढ़ जाता है। जगमोहन जब भी आए, वह उसे यहीं मिलता है। इसी तरह हँस-हँसकर भैरों सिंह की पत्नी से बातें कर रहा होता है।
एक शाम, एक औरत अन्दर आती है। संग उसके करीब आठ साल का लड़का है। वह कुछ बोले बग़ैर कुर्सी पर बैठ जाती है मानो बहुत थकी हुई हो। जगमोहन सोचने लगता है कि यदि इस लड़के का जन्म यहाँ हुआ है तो इसे यहाँ स्थायी होने में कोई मुश्किल नहीं आनी चाहिए। कुछ पल साँस लेकर वह पूछती है-
''आप शाम भारद्वाज हो ?''
''नहीं, मैं वो नहीं।''
''फिर आप कामरेड हो ?''
''नहीं, मैं वो भी नहीं। बताओ क्या काम है? मैं तुम्हारी क्या मदद कर सकता हूँ।''
''आप लीगल हैल्प देते हो ?''
''बिलकुल। बताओ।''
''मुझे मंदिर में किसी ने बताया कि कामरेड के घर में शाम भारद्वाज बैठता है।''
''हाँ-हाँ, तुम अपनी प्रॉब्लम बताओ, यदि मैं कुछ कर सकता होऊँगा तो...।''
''यह मेरा सन है, दस का हो चला है। मैं अकेली होती तो शायद इतना परेशान न होती। बताओ आप मेरी कितनी मदद कर सकते हो ?''
''हम फ्री लीगल एडवाइस दे सकते हैं।''
जगमोहन बताता है। वह औरत एकदम चुप हो जाती है। होंठ ऐसे कस लेती है जैसे दुबारा बोलना ही न हो। जगमोहन पुन: पूछता है-
''तुम अपनी प्रॉब्लम बताओ। तुम्हारी सारी बात सीक्रेट रखी जाएगी।''
''मैं पति की सताई हुई घर छोड़कर एक दुकान पर काम करने लगी थी। दुकान का मालिक मुसलमान है, मुझे गलत राह पर चलाना चाहता है। मुझे हैल्प चाहिए। मैं गुरुद्वारे भी गई थी।''
''बताओ, हम इसमें क्या कर सकते हैं ?''
''मैं मंदिर भी गई थी। वहीं से इस जगह का पता चला। मेरे रहने का कोई इंतज़ाम कर दो, आपका भला होगा।''
''क्या नाम है तुम्हारा ?''
''बॉबी... बलविंदर।''
''बॉबी जी, हम फ्री एडवाइस दे सकते हैं। हम गवर्नमेंट का कोई हिस्सा नहीं, दोस्तों की चैरिटिबल एसोसिएशन ही है। रहने की तो हमें खुद प्रॉब्लम है।''
''देखो, मुझे फ्री एडवाइस नहीं चाहिए, एक्मोडेशन चाहिए। एडवाइस के लिए तो गवर्नमेंट के भी जगह-जगह ब्यूरो हैं।''
''तुम्हारा यह काम हम नहीं कर सकते। तुम्हें सिस्टर्स इनहैंड्ज़ के दफ्तर जाना चाहिए था, ये साथ ही रोड पर तो है।''
''वहाँ सारी खुदगर्ज औरतें बैठी हैं जो अपने बारे में ही सोच रही हैं। इतनी बड़ी जगह है, एक रात के लिए कमरा नहीं दे सकतीं। मैं हो आई हूँ वहाँ भी, तभी तो यह टाइम हो गया।''
''बॉबी जी, इस मामले में मैं तुम्हारी कोई मदद नहीं कर सकता।''
''प्लीज़ करो कुछ। इन्सानियत के नाते। मैं अकेली औरत, बेगाना मुल्क, साथ मेरे यह बच्चा, बताओ कहाँ जाऊँगी। मैं साउथाल आई थी कि यहाँ सारे अपने लोग रहते हैं।''
''कौन से इलाके में रहते हो तुम ?''
''नॉर्थ में।''
''फिर उधर ही अक्मोडेशन की काउंसिल में ट्राई करना चाहिए था।''
''देखो मिस्टर, मैं ज्यादा सलाहें नहीं मांगती, मदद मांगती हूँ।''
''बॉबी जी, पन्द्रह-बीस पौंड मैं तुम्हें दे सकता हूँ, बस।''
''पैसे तो मेरे पास हैं, कल डाकखाने में से और भी मिल जाएँगे। मेरा मसला तो यह है कि आज की रात कहाँ रहूँ ? एक तो रात और ऊपर से यह मौसम।''
जगमोहन सोच में डूब जाता है। वह उसी समय कामरेड इकबाल को फोन करके बॉबी के वहाँ एक रात रहने के बारे में पूछता है तो आगे से कामरेड गुस्से में ना कर देता है। बॉबी समझ जाती है और रोने लगती है। उसे रोता देख उसका बेटा भी रोने लगता है। जगमोहन के दिल में कुछ होने लगता है। वह अपने घर फोन करता है।
''मनी, यहाँ दफ्तर में एक औरत आई है, रात रहना चाहती है। साथ में उसका बेटा भी है।''
''कोई ड्रामों वाली है ?''
''नहीं, कोई पुअर वुमैन है। सम फैमिली प्रॉब्लम।''
''आई डोंट नो... मेरी दाल जल रही है।''
कह कर वह फोन रख देती है। बॉबी कहती है-
''मुझे एक बार अपने घर ले चलो, मैं बहन जी को मना लूँगी।''
जगमोहन अनमने मन से बोलता है-
''यदि मेरी वाइफ़ ने मना कर दिया तो मैं जिम्मेदार नही होऊँगा।''
''आप मुझे एक बार उसके पास ले चलो।'' वह पूरे यकीन से कह रही है।
मनदीप बॉबी की तरफ गौर से देखती है। वह जगमोहन के पीछे गले में बैग लटकाये लड़के की उंगली पकड़ कर खड़ी है। मनदीप को लगता है कि मानो कोई उसे लूटने आया हो। वह बॉबी की 'हैलो' का ठंडा-सा उत्तर देकर रसोई में जा घुसती है। जगमोहन बॉबी और लड़के को लाउंज में बिठाकर मनदीप के पीछे किचन में चला जाता है। कहता है-
''लुक डार्लिंग, यह मेरी प्रॉब्लम नहीं।''
''अब चुड़ैलें घर में भी आने लग पड़ीं।''
''देख, मुझे गुनाहगार न बना। चल, इसे गुरुद्वारे में छोड़ आएँ।''
मनदीप चुप है। जगमोहन उसकी चुप से डर रहा है। उनके पीछे ही बॉबी आ खड़ी होती है। वह मनदीप से कहती है-
''बहन जी, मैं सवेरे ही चली जाऊँगी। मुझे नहीं पता था कि साउथाल में भी कोई अपना नहीं। मैं तो गटर में गिरने से बचती आ गई थी।''
मनदीप बॉबी की तरफ ध्यान से देखती है। उसका गोल भोला-सा चेहरा उसे इतना खतरनाक नहीं लग रहा। उसका लड़का भी उसके पीछे ही खड़ा है, छिपता हुआ-सा जैसे कोई अपराधी हो। मनदीप को वह अपने बेटों जैसा ही दिखाई देता है। वह लड़के को अपनी ओर बुलाती है। उसके सिर पर हाथ फेरते हुए पूछती है-
''व्हट्'स योर नेम ?''
लड़का चुप है। बॉबी कहती है-
''से वरुण।''
लड़का अभी भी चुप है। मनदीप कहती है-
''मैं तुम्हारा बैड लगा देती हूँ।''
जगमोहन, जीवन और किरन के बीच टेलीविज़न के सामने जा बैठता है। आज उसका दिल एक बियर पीने के लिए या एक पैग लगाने के लिए कर रहा है। बॉबी वाली कहानी ने कुछ ही क्षणों में उसको दिमागी तौर पर थका दिया है। उसने कभी भी इतना प्रैशर नहीं लिया। उसे बॉबी से सहानुभूति भी है। उसके चेहरे से ही दिखता है कि वह ढेर सारी मुश्किलों का मुकाबला कर रही है। मनदीप के भय से वह बॉबी को घर में लाने से डरता था। उसके और मनदीप के बीच निचली तहों में कुछ भी हो, पर वह किसी भी कीमत पर अपनी गृहस्थी में गड़बड़ पैदा करने में पहल नहीं करना चाहता।
वह उठता है। अल्मारी में से व्हिस्की की बोतल उठाता है। आधा गिलास भर लेता है। पानी डालने के लिए रसोई में जाता है। बॉबी पतीले में कड़छी घुमा रही है। मनदीप ऊपर बैडरूम में है। जगमोहन बॉबी को हाथ में पकड़े व्हिस्की के पैग के बारे में पूछना चाहता है। उसे पता है कि भारतीय औरत को शराब आदि पेश करना सभ्यता के तौर पर बहुत गलत है। फिर भी वह अपने पैग की ओर इशारा करते हुए पूछता है-
''बॉबी जी, यह लोगे कि वाइन या कुछ और ?''
''व्हिस्की ही लूँगी।'' वह उसके हाथ में पकड़े गिलास की तरफ देखते हुए बोलती है। जगमोहन थोड़ा-सा हैरान होता हुआ व्हिस्की में पानी मिलाने लगता है। बॉबी उसे रोकते हुए कहती है-
''नहीं, नीट ही चलेगी। पानी से वीक हो जाती है।''
(जारी…)
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2 comments:

Anonymous said...

प्रिय दीप्ति जी,
आप एक बहुत अच्छा काम कर रही...। अनुवाद देकर आप हिन्दी साहित्य को एक
अन्य भाषा की रचना से परिचित करा कर उसे और समृद्ध ही कर रही...। मेरी
बधाई...।
समय मिले तो कभी मेरे ब्लॉग पर भी आइए...खुशी होगी मुझे...।
www.priyankakedastavez.blogspot.com

सदभावी ,
प्रियंका
priyanka.gupta.knpr@gmail.com

रूपसिंह चन्देल said...

हरजीत अटवाल का उपन्यास बहुत अच्छा चल रहा है. नीरव ने बहुत आकर्षक अनुवाद प्रस्तुत किया है. कोई भी इसके समाप्त होने के बाद ब्लॉग पर ही इसे पूरा पढ़ सकता है. यह बहुत ही उम्दा सोच है.

बधाई,

चन्देल