समकालीन पंजाबी साहित्य की उत्कृष्ट कृतियों की तलाश

‘अनुवाद घर’ को समकालीन पंजाबी साहित्य की उत्कृष्ट कृतियों की तलाश है। कथा-कहानी, उपन्यास, आत्मकथा, शब्दचित्र आदि से जुड़ी कृतियों का हिंदी अनुवाद हम ‘अनुवाद घर’ पर धारावाहिक प्रकाशित करना चाहते हैं। इच्छुक लेखक, प्रकाशक ‘टर्म्स एंड कंडीशन्स’ जानने के लिए हमें मेल करें। हमारा मेल आई डी है- anuvadghar@gmail.com

Sunday, February 6, 2011

आत्मकथा



एक नेत्रहीन लेखक की आत्मकथा

धृतराष्ट्र
डॉ. एस. तरसेम
हिन्दी अनुवाद : सुभाष नीरव
चैप्टर-18

विवाह और विवाह के बाद

धौला में मेरा स्थानांतरण हो जाने के बाद बिचौलिये ने विवाह की तारीख़ निकलवाने के लिए मेरे भाई को कई बार कहा था। अन्दर ही अन्दर मेरा भाई भी विवाह के लिए बहुत उतावला था पर अपनी इस उतावली को वह बिचौलिये के सम्मुख बिलकुल भी प्रगट नहीं कर सकता था। विवाह साये के मामले में मेरे भाई को सारी तपा मंडी भी मानती थी और रिश्तेदार भी। वह मेरे विवाह में जल्दबाजी न दिखाकर बरनाला वालों से अपनी कमजोरी को ढके रखना चाहता था। हालांकि विवाह के तुरन्त बाद बातों-बातों में मेरी पत्नी ने मुझे बता दिया था-
''हमें किसी ने आपकी नज़र के बारे में शक डाल दिया था। मेरा छोटा चाचा आपको स्कूल में देखने गया। आप अंग्रेजी का अख़बार पढ़े रहे थे। अख़बार के पन्ने कई बार उलट-पुलट कर आपको पढ़ते वे कितने देर तक देखते रहे। उन्हें लगा कि यूँ ही किसी ने भाँजी मारी है।''
उस वक्त मुझे कुछ याद आया कि दफ्तर के बाहर सुबह के समय एक दिन जो नत्तियों वाला लाला आया था, वह चाचा बसंत लाल ही था, बिलकुल चाचा बसंत लाल। मेरी याददाश्त ने सुदर्शना की बात की तभी पुष्टि कर दी, उसके सामने नहीं, मेरे अपने मन में। उन दिनों में दिन के समय और खास तौर पर जब बाहर बैठा होता, मैं किसी भी चीज़ या व्यक्ति को कम से कम पचास-साठ फुट की दूरी से तो अच्छी तरह पहचान ही सकता था, शायद कुछ इससे भी ज्यादा। अगर कहीं बसंत लाल रात के समय आता तो भाँजी मारने वाले की बात सच साबित हो जाती और हमारे विवाह का लगन ठंडा पड़ जाता। पर जैसे मेरी माँ कहा करती थी कि संजोग ज़ोरावर होते हैं, यह संजोग के ज़ोरावर होने वाली बात ही थी कि सुदर्शना देवी को मेरी पत्नी बनने या मुझे उसका पति बनने का सौभाग्य प्राप्त हो ही गया। वैसे यदि यह रिश्ता टूट भी जाता तो कोई और हो जाता, क्योंकि मेरी नज़र की हालत उस समय इतनी खराब नहीं हुई थी कि कोई भाँजी मार हर बार सफल हो जाता।
मेरा मंगना जैसा कि मैं पहले भी बता चुका हूँ, गर्मियों की छुट्टियों में हुआ था और नदौण से तपा के नज़दीक मेरा तबादला करवाने की जिम्मेदारी बरनाले वालों की थी। उन्होंने अपनी जिम्मेदारी पूरी कर दी थी। सो, हम किसी भी तरह से मुकर नहीं सकते थे। भाँजी मारने वाला कोई हमारे पास भी आया था और भाँजी थी भी सही, पर यदि भाँजी मार न भी आता तो लड़की देखने तो जाना ही था मेरी बहन चन्द्रकांता ने। मुझे बता दिया गया था कि लड़की कुछ भारी है। आँखें मोटी हैं पर नाक कुछ चपटा-सा है। भाई उसके मोटापे को उसकी कदकाठी में बदलकर उसकी इस कमी को एक गुण बनाकर पेश कर रहा था। कह रहा था कि मुँह बिलकुल गोल है, रंग गोरा सेव जैसा। लड़की देखने बहन के साथ भाई और भाभी भी गए थे। मैं भी जाना चाहता था, पर वे मुझे लेकर नहीं गए थे। भाई छोटी से छोटी बात को भी ज्यादा बारीकी से देखने और अक्ल की बारीक से बारीक छननी में से छानकर काम करने का आदी था। उसे भय था कि कहीं मेरी नज़र के कमजोर होने की बात लड़की वालों को मालूम न हो जाए। दिन के समय तो बेशक मुझे चलने-फिरने से लेकर कमरे में बैठने-उठने और किसी को देखने-परखने में कोई मुश्किल नहीं थी लेकिन भाई पता नहीं क्यों कोई खतरा मोल नहीं लेना चाहता था। उन दिनों में लड़के आम तौर पर लड़कियों को देखने जाने लग पड़े थे। मेरे न जाने पर शायद शक पड़ने पर लाला बसंत लाल मुझे धौले के स्कूल में देखने गया था। वैसे 1960-61 में मैं अपने ससुराल के घर के बिलकुल सामने एक चौबारा किराये पर लेकर रहा करता था जिसकी खिड़कियाँ हंडिआये बाजार की तरफ खुलती थीं। जैसा कि मैं पहले भी कहीं बता चुका हूँ कि वहाँ अपनी रोजी-रोटी के लिए 'बुद्धिमान' और 'ज्ञानी' की कक्षाएँ पढ़ाने के लिए एक अकेडमी खोली हुई थी- 'मालवा ज्ञानी कालेज' नाम से। उनके घर से आगे से तो मैं पचास बार निकला होऊँगा क्योंकि सदर बाजार या फरवाही बाजार में जाने के लिए उनके घर के सामने से ही निकला करता था। लेकिन उनके परिवार के किसी भी सदस्य के चेहरे संबंधी मेरे स्मृति-पटल पर कुछ भी अंकित नहीं हो रखा था। मेरा विवाह क्या था ? बनियों के लड़कों की तरह मेरा भी सौदा हुआ था। बारह-पंद्रह हजार रुपया उन्होंने विवाह पर लगाना था और मेरी बदली का तोहफ़ा अलग से था। इकत्तीस सौ रुपया उन्होंने शगुन का मेरी झोली में डालना था। जब मेरे भाई-भाभी और बहन लड़की देखने गए थे, तब उन्होंने जो शगुन वगैरह करना था, वह कोई बड़े शाहूकारों जैसा नहीं था। मेरी माँ के लिए तो इतनी तसल्ली ही थी कि मेरा विवाह हो रहा है। जितने भर पैसे उन्होंने नगद मेरी झोली में डालने थे, उससे हजार, दो हजार और ज्यादा लगाकर मेरा विवाह हो जाना था। घर में न माँ की चलती थी और न मेरी, बस भाभी सिरमौर थी। अब तो अन्दर ही अन्दर भाई भी उससे डरता था।
विवाह के लिए जो कपड़े बनवाये गए, वे मेरे दूल्हा होने की हैसियत में मेरे भाई और भतीजों से अलग नहीं थे। अमृतसर ताया मथरा दास के दो पुत्र बलदेव कृष्ण और सतपाल उस समय ओ.सी.एम. वूलन मिल में काम करते थे। वहाँ से पूरा थान गरम सूटों के लिए लाया गया, वह भी बहुत सस्ता। सस्ता इसलिए मिल गया, क्योंकि बढ़िया गरम कपड़ा होने के बावजूद उसमें कोई ऐसा नुक्स था जो आम ग्राहक को पता नहीं चलता था, पर कपड़े के व्यापारी उसे रिजैक्टिड माल के रेट में लेकर जाते थे। एक गरम कोट-पेंट का कपड़ा और खरीदा गया। यह सूट मेरे वास्ते था और था भी बढ़िया। गरम कोट-पेंट, कमीज और बूट अक्सर उस समय भी और अब भी ससुराल वालों की तरफ से लड़के को दिए जाते हैं और इसे दूल्हे की पोशाक कहा करते हैं। यह पोशाक ससुराल वालों की तरफ से होने के कारण इसके बिल की अदायगी भी बरनाले वालों ने करनी थी। इसलिए बढ़िया शर्ट भी ससुराल वालों के खाते में से मिली और बूट भी। बाकी गरम कोट पेंट जो घरवालों ने बनवा कर दिया, उसके साथ का ही गरम सूट मेरे भाई का भी था और मेरे दोनों भतीजों -सुरेश और नरेश का भी। दो हल्की नीली पापलीन की कमीजें मेरी थीं और वैसे ही कमीजें मेरे भाई और भतीजों की। मुझे जो कुर्ता-पायजामा रात के समय पहने के लिए सिलवा कर दिया गया, उसमें पायजामा फांटेदार था और कुर्ता पापलीन का था। आज जो कॉटन के कपड़े बड़े मंहगे हैं और टेरीकोट को छोड़ कर बड़े लोग इन्हें अधिक पसन्द करते हैं, उन दिनों इतने मंहगे नहीं थे। देने-लेने, विवाह-साये में उच्च और मध्य श्रेणियों के लोग कमीज भी टेरीकोट की सिलवाते थे और पतलूनें भी। मेरी सिर्फ ससुराल वालों की तरफ से दी जाने वाली पोशाक में ही शर्ट बढ़िया टेरीकोट की थी, जिसका जिक्र मैं पहले कर चुका हूँ।
जैसा कि हमें तपा मंडी के इलाके में अच्छा मध्य श्रेणी का परिवार समझा जाता था, उस मुताबिक विवाह के लिए मेरे ये बनवाये गए कपड़े वाकई घटिया थे। पहले मैं कभी टाई नहीं लगाता था, क्योंकि ज़िन्दगी में अभी तक गरम सूट नसीब ही नहीं हुआ था। सिर्फ़ एक बार ऐसा कोट बनवाया था जिसके साथ टाई लग सके। बाकी दो वार जो कोट बनवाये थे, वे बन्द गले के गांधी मार्का कोट थे। पहला ऐसा कोट मुझे उस समय मिला, जब बहन कांता के ससुराल वालों ने मुझे गरम सूट का कपड़ा दिया था, जिसमें मेरा कोट-पतलून बनना था। पर तपा मंडी में इस कपड़े की योजना ऐसी बनी कि इसके बंद गले के दो कोट बनवाये गए - एक मेरे भाई का और दूसरा मेरा। इसलिए विवाह के समय किसी के दिमाग में यह आया ही नहीं कि कम से कम घोड़ी के समय और रात में पहनने वाले सूट के साथ टाई की भी ज़रूरत है। वैसे भी जो दर्जी कपड़े सिलने के लिए घर बुलाया गया था, उसने सबकी कमीजों के कॉलर पुराने टाइप के बना दिए। उन कॉलरों के साथ ऊपर वाला बटन बन्द करके टाई नहीं लग सकती थी।
घोड़ी से दो दिन पूर्व बुआ गणेशी आ गई थी। घोड़ी वाले दिन सारी बहनें भी आ गईं। उस समय मलेरकोटले वाली बहन चंद्रकांता के साथ बहन शीला की बेटी बावी को भी बुलाया गया था, क्योंकि वह मेरी बहन की देवरानी भी थी। इसलिए गुज्जर लाल जीजा जी के साथ बावी का पति धरम पाल भी आया था। वैसे मेरी अन्य विवाहित भांजी को नहीं बुलाया गया था। धरमपाल के साथ मोदियों का लड़का था और था भी पूरा शौकीन ! वह उन दिनों रिश्तेदारी में आते-समय जब भी सूट पहनता था, टाई भी लगाया करता था।
उन दिनों में लड़कों की शादी के समय भी घर में हलवाई बिठाया जाता था। अगर लड़की के विवाह के समय हलवाई सात दिन काम करता तो लड़के के विवाह के समय तीन-चार दिन। बनियों के घरों में लड़के के विवाह के समय अधिकतर मिठाई बांटने वाली ही तैयार की जाती- लड्डू, जलेबियाँ, शक्करपारे, बालूशाही, मीठी पकौड़ियाँ और बेसन की बर्फी। कुछ बर्फी खोये की भी बनाई जाती ताकि विवाह से पहले या बाद में आए-गए मेहमान के सामने रखी जा सके। नमकीन मट्ठियाँ और बेसन की भुजिया भी तैयार की जाती। घोड़ीवाले दिन उन दिनों जो पाँच रुपये देकर जाते, उनको एक सेर मिठाई लिफाफे में डालकर भेजी जाती और जो दो रुपये देकर जाते, उनको आधा सेर। मिठाई आजकल की तरह डिब्बों में नहीं दी जाती थी, खाकी लिफाफों में डालकर घर-घर भेजी जाती। लिफाफे में ज्यादा लड्डू होते, दो बालूशाही, दो बर्फी के टुकड़े और बाकी लिफाफा शक्करपारों और मीठी पकौड़ियों से भर दिया जाता। यह मिठाई घोड़ी से एक दिन पहले तक या घोड़ी वाले दिन दोपहर तक बनाकर हलवाई विदा हो जाता। मेरे विवाह के समय भी इसी तरह ही हुआ था।
घोड़ी से दो दिन पहले भाई के चेहरे पर पहले वाली रौनक नहीं थी। घोड़ीवाले दिन भी वह बहुत उदास था। आए-गए का स्वागत करते हुए वह जल्द पता नहीं लगने देता था कि वह अन्दर से उदास है। बिचौले ने जो कुछ किया, उसका पता मुझे दो महीने बाद लगा था। बिचौले की ठगी के कारण वह उदास था। ठगी समझो, बेबसी समझो, पर बिचौले की गलती ही भाई की उदासी का कारण थी। 'खट्ट' पर बिचौले की यह गलती हमारी बेइज्ज़ती का कारण भी बनी। वैसे भी बिचौले की गलती के कारण मेरा भाई मेरे ससुराल वालों के आगे झेंपकर बात करता रहा। इस कहानी का मुझे बाद में पता चला। अफ़सोस यह था कि गलती बिचौले की थी, पर हमारी आर्थिक हालत जो असल में ही नंगों वाली थी, के बारे में मेरे ससुरालवालों को पहले ही अंदाजा हो गया। यही मेरे भाई की उदासी का सबसे बड़ा कारण था।
आजकल की तरह न मूवी बनती थी, न आर्केस्ट्रा वाले लाये जाते। किसी किसी विवाह में फोटोग्राफर अवश्य जाया करता, लेकिन वह भी अच्छे घरों के विवाह में। पहले बड़े लोग विवाह में नकलची बुलाया करते या कभी मुजरे का इन्तज़ाम करते। उन दिनों जो लड़के वाले बारात के साथ मुजरे का प्रबंध करते, वे बड़े सम्पन्न घर माने जाते। लेकिन मेरे विवाह तक नकलचियों और मुजरों की प्रथा समाप्त हो चुकी थी। 1954-55 के बाद मैंने किसी विवाह में नकलचियों या मुजरों का होना नहीं देखा था। हाँ, लड़के वाले सेहरा छपवाते। पहले वह सेहरा घोड़ी पर पढ़ा जाता या गाया जाता, फिर वही सेहरा फेरों के समय पढ़ा जाता। लड़की वालों की तरफ से लड़कियाँ 'शिक्षा' पढ़तीं। कुछ घर 'शिक्षा' छपवा लेते और कुछ नहीं भी छपवाते। मेरे विवाह के समय हमने सेहरा छपवाया था। शीशे में मढ़वाया भी था। सेहरा मैंने खुद ही लिखा था और गाया था संत राम उदासी ने। संत राम उदासी का हमारे घर में 1960 से आना-जाना था, जिस कारण उसे बुलाना कोई कठिन काम नहीं था।
मेरे विवाह के समय बारात लड़की वालों के यहाँ दो दिन रहा करती थी। उससे कुछ वर्ष पहले तो तीन दिन भी रहा करती थी। घोड़ी रात में होती। सवेरे बारात चलती। मेरी बारात क्योंकि तपा से बनराला जानी थी, इसलिए जल्दबाजी की कोई आवश्यकता नहीं थी।
बारात के लिए एक बस की गई और एक कार। मंडी के सभी जाने-माने लाला बारात में शामिल थे। नगर पालिका का प्रधान प्यारे लाल अग्रवाल (वित्त राज्य मंत्री पवन कुमार बांसल का पिता), मुख्य मंत्री दरबारा सिंह की मूंछ का बाल कांग्रेसी नेता गिरधारी लाल बांसल और मेरे भाई के बहुत निकटवर्ती दोस्त और मुझे अपने भाइयों की तरह प्यार करने वाले मास्टर चरन दास, प्रकाश चंद वकील और दोनों चौधरियों का एक एक मेंबर भी बारात में गया था।
बारात से पहले घोड़ीवाली रात का दृश्य भी ज़रा देख लो। हालांकि विवाह वाला घर होने के कारण जगह-जगह लगी ट्यूबों और बल्बों से यूँ लगता था मानो दिन चढ़ा हो पर इस तरह रौशनी में मुझे दिन जैसा ही अहसास हो रहा था। घोड़ी से पहले रंग लगाया गया, बटना भी मला गया, गर्म पानी से नहलाया भी गया, पर घर में वह खुशी नहीं थी जो लड़के वालों के घर में होनी चाहिए थी। जब हल्दी से लिखे दीवार के छापे के आगे मुझे लाल गदैले पर बिठाया गया, सुरमा मेरी भाभी ने डालना था और डाला भी उसने ही। भाभी ने खीण-खाप(कमखाब/ज़री) का सूट पहना हुआ था। वह सूट यदि आज बनवाना हो तो कम से कम दो लाख का बने। सारा ही सोने की तारों के जाल से बना हुआ था। उस समय तो मेरी भाभी के पास पहनने के लिए सोना भी बहुत था। विवाह में वही सबसे अधिक जचती थी और उसकी ही चलती थी। गीत भी गाये गए, दोहे भी पर जब मेरे कपड़े पहनाने लगे तो पापलीन का कमीज देखकर मालेरकोटले और रामपुराफूल वाले जीजा जी बहुत हैरान हुए। पापलीन का सादा-सा कमीज था और साथ लगाने के लिए टाई नहीं थी। टाई उस कमीज के कालरों के साथ लग भी नहीं सकती थी। धरमपाल ने फटाफट अपना अटैची खोला। अपनी टैरीकोट की बढ़िया कमीज निकाली और साथ में, मैचिंग करती टाई। घर में सभी को पता चल गया था जिस कारण मेरी बहनें उदास भी थीं, पर और किसी को यह पता नहीं चला था कि दामाद की कमीज और टाई लगा कर लाड़ा घोड़ी पर चढ़ेगा। सूट चाहे जैसा भी था, पर कमीज-टाई के साथ अच्छा फब रहा था और मैं अवश्य लाड़ा लगने लग पड़ा होऊँगा।
जब बरनाला बारात पहुँची तो डी.पी.आई, पंजाब के दफ्तर का वही सुपरिटेंडेंट धरमपाल गुप्ता बड़े-बड़े गेंदे के फूलों का हार लिए आगे खड़ा था। उसने मुझे कार में से उतरने से पहले ही वे हार पहना दिया। मैंने रात में लाड़े वाली पगड़ी और सेहरा नहीं पहन रखा था। मुझे बरनाला में इस रूप में जाते समय बड़ी शर्म लगती थी। सैकड़ों लोग तो पहले ही वहाँ मेरे परिचित थे। उनके सामने लाड़े वाला यह अजीब-सा रूप मुझे अच्छा नहीं लगता था। इसलिए लाड़े के रूप में मेरी पहचान इसी हार से हो रही थी। सदर बाज़ार में से जब कार निकली, मैंने प्रीतम सिंह राही की दुकान की तरफ देखा, वह वहाँ नहीं था। मेरे अन्य लेखक मित्र जिनमें राम सरूप अणखी और संत राम उदासी के नाम मुझे विशेष तौर पर याद हैं, मुझे इसी राह पर ही मिले थे। कार सदर बाज़ार में रुक गई थी। बाजे वाले भी वहीं रुक गए थे। बायीं ओर एक गली में घुस कर अस्सी-नब्बे फीट आगे हम दायीं ओर वाली गली में मुड़ गए। मैं सबसे आगे था और बाकी बारात पीछे-पीछे। एक, दो, तीन - तीन घर छोड़कर चौथा घर मेरी ससुराल वालों का था और यहीं आवभगत का सारा प्रोग्राम था। लड़कियाँ गीतों और मसखरियों के साथ मीठे व्यंग्य कर रही थीं। मेरे रूप की माला पिरोई जा रही थी। उनमें से एक दोहा मुझे याद है -
जीजा तेरे रूप दी, माला लवां परो।
विच परोवां लालड़ियाँ, जगमग जगमग हो।
यह दोहा पहले भी मैंने बीस बार सुना हुआ था। स्वागत करने वालों की भी कोई कमी नहीं थी और सेवा में भी जयपुरियों ने कोई कमी नहीं छोड़ी थी।
चाय-पानी के बाद बारात हंडियाया बाज़ार की अग्रवाल धर्मशाला में चली गई। दोपहर की रोटी, रात के खाने और फिर आधी रात को फेरे हुए। फेरों का समय उन दिनों पंडितों से निकलवाया जाता था। अब भी हिंदू, पंडितों से ही फेरों का समय निकलवाते हैं। सरबाला होने के कारण फेरों के समय मेरे बड़े भतीजे सुरेश ने मेरे संग बैठना था, पर वह भगत तो शाम की रोटी खाकर धर्मशाला में ही सो गया था। बहुत से बाराती भी या तो धर्मशाला में ही सो गए थे या अपने रिश्तेदारों के घर चले गए थे। कुछ बाराती दोपहर की रोटी खाकर पहले ही तपा वापस चले गए थे। फेरों पर सिर्फ़ ताया मथरा दास था, चाचा कुलवंत था, मेरे भाई ने तो होना ही था। सभी दामाद भी फेरों के समय मौजूद थे। मेरे भान्जों में से सुदर्शन और विजय भी साथ थे और शायद कैलाश भी। उधर लड़की वालों की तरफ से भी गिनती के मेहमान फेरों पर उपस्थित थे। मेरे धर्म पिता लाला कर्ता राम के ननिहाल से बील्हे वाले सभी हाज़िर थे। चाचा बसंत लाल फेरों पर उनकी ओर से कर्ताधर्ता था और हमारी तरफ से ताया मथरा दास। मेरी अंदरूनी हीनभावना के बावजूद फेरों का काम ठीकठाक निबट गया था और मेरा भाई ऐसा महसूस करता था मानो जंग जीत ली हो।
वापस डेरे जाने से पहले मुझे अन्दर वाले कमरे में ले गए, जहाँ फेरे हुए थे। यह मेरे ससुराल वालों का दूसरा घर था, जहाँ वे कितना ही समय मेरे विवाह के बाद भी इस घर में पूरे परिवार के साथ टिके रहे। मेरा श्वसुर लाला कर्ता राम, बड़ा चाचा हंस राज और छोटा बसंत लाल - तीनों भाइयों का परिवार इस मकान में रहता था। छह कमरे नीचे थे और चार ऊपर चौबारे पर। उस समय मेरी पत्नी के दादा जी लाला नराता राम भी जीवित थे और दादी जी भी। कुल मिलाकर 22 जने इस घर में रहते थे। एक जगह रोटी पकती थी और विवाह के बाद उनके इत्तफ़ाक को देखकर मैं बड़ा हैरान भी था और खुश भी।
हाँ, मैं बता रहा था कि मुझे फेरों के पश्चात लड़कियों के झुरमुट के बीच बैठना पड़ गया। कहें- छंद सुना। कोई कहे- जीजा कविता बहुत सुन्दर लिखता है। कोई कहे- स्कूल में लड़कों को पीटता बहुत है। जैसी टेढ़ी-मेढ़ी मसखरी किसी को सूझती थी या मजाक सूझता था, वे करती रहीं। मेरे बूट भी छिपा दिए गए। लेकिन छंद सुनने के लिए लड़कियाँ जिद्द नहीं छोड़ रही थीं। छंद के बाद ही लड़कियों से छुटकारा मिलना था। लड़कियाँ क्या थीं, निरी आफतें ! पर विवाह में ही लाड़े के साथ लड़कियाँ ऐसा करती हैं, यह मुझे पता था। कई लाड़ों को तो खुद भी अश्लील सांकेतिक बातें करते हुए सुना था और सालियों के झुरमुट में से भी इस तरह की बातें मैंने सुन रखी थीं। पर मैं अपने शरीफ स्वभाव की सूरत को बनाये रखना चाहता था। इसलिए मैंने यह छंद सुनाया-
छंद परागा छंद परागा, छंद परागा डोलणा
माता जी ने आखिया सी, बहुता नहीं बोलणा।

छंद सुनाने के बाद जिस विवाहित लड़की ने लड़कियों के इस झुंड को एक तरफ किया, वह मुझे बड़ी सियानी और प्यारी लड़की लगी। अगले दिन खट्ट की रस्म के समय पता लगा कि यह मेरी बड़ी साली रक्षा देवी थी और नगर काउंसिल, धनौले के प्रधान बनारसी दास के छोटे भाई देव राज से ब्याही हुई थी। देव राज उन दिनों में नगर काउंसिल, नरवाणे म्युनिसिपल इंजीनियर लगा हुआ था। जब गुप्ता जी ने मेरे गले में हार डाला था, उस समय देव राज भी साथ ही था और गुप्ता जी ने उसका परिचय बारात के स्वागत के समय ही करवा दिया था। स्वयं गुप्ता जी के परिचय की ज़रूरत नहीं थी, उन्हें भी पता था और मुझे भी। मास्टर का नियुक्ति पत्र दिलाने के समय प्यारे लाल गर्ग मुझे उनके पास ही तो लेकर गया था। वह एक किस्म से मेरे मुक्ति दाता थे। यदि उस समय नदौण से मेरी बदली न करवाते, शायद मैं सारी उम्र पहाड़ों में ही फंसा रहता। संभव है कि नज़ले-जुकाम की बीमारी वहाँ के सीले मौसम के कारण किसी अन्य घातक बीमारी में बदल जाती और बाद में नज़र के तेजी से कम होते जाने के कारण मैं दुखी होकर पहाड़ों की नौकरी छोड़ ही आता। दुबारा सरकारी नौकरी किसने दिलवानी थी। इसलिए मैं धर्मपाल गुप्ता जी का अहसानमंद वाला अहसास हमेशा अपने अन्दर अब तक पाले बैठा हूँ। जैसा कि मैं पहले लिख चुका हूँ, तबादले की शर्त मंगनी की बाकी शर्तों के साथ खोली गई थी, पर हम अपनी तरफ से कई बातों में कमज़ोर थे। इसलिए संभव है कि बदली न होने पर भी यह रिश्ता सिरे लग जाता।
सवेर की चाय और मिठाई मेरे ससुरालवालों की तरफ से डेरे पर ही आ गई थी। शायद, तपा के दो लड़के वहाँ ब्याहे होने के कारण उनके ससुराल वालों में से एक के ससुरालवाले चाय और मिठाई लेकर आए थे। दूसरे के ससुराल वाले रात को दूध पिला गए थे। दोपहर की रोटी के साथ ही 'खट्ट' की रस्म का प्रोग्राम शुरू हो गया था। बनियों के विवाह में 'खट्ट' बड़ी महत्वपूर्ण रस्म समझी जाती है। नये बने दामाद को सजे हुए पलंग पर बिठाया जाता है। दोनों पक्षों के महत्वपूर्ण मेहमान खट्ट में उपस्थित होते हैं। दोनों ओर के दामाद तो कम से कम अवश्य ही उपस्थित होते हैं। दोनों ओर के चौधरी भी हाज़िर होते हैं। लड़की के मायके वालों की तरफ से दी जाने वाली नगदी, इसी अवसर पर दी जाती है। वर पक्ष के सबसे बुजुर्ग़ व्यक्ति को चौकी पर बिठाकर उसके गले में पहने हुए अंगोछे या तौलिये में दात डाली जाती है। पहले दात के रूप में चांदी के कम से कम 101 रुपये हुआ करते थे, फिर चांदी के रुपये की जगह दूसरे रुपये चल पड़े। ये रुपये कन्या पक्ष का कोई बूढ़ा-बुजुर्ग़ वर-पक्ष के बड़े-बुजुर्ग़ की झोली में डालता है। दात से पहले कांसे के छन्ने में घोले गए रोले में हाथ डुबो कर कन्या पक्ष का बुजुर्ग़ चौकी पर बैठे वर पक्ष के बुजुर्ग़ की पीठ पर दायें हाथ का लाल रंग का निशान लगाता है, जिसे 'थापा' कहते हैं। हमारी ओर से ताया मथरा दास सबसे बड़ा था। इसलिए उसे चौकी पर बिठाया गया। उधर से शायद थापा लगाने वाला था, मेरी बन चुकी पत्नी का बाबा लाला नराता राम। फिर रोले वाले गीले हाथ से ताया मथरा दास की दाढ़ी भी रंगी गई और चाचा कुलवंत की भी। ताया और चाचा ने भी उनके बुजुर्ग़ों की दाढ़ियाँ रंगी। यह बड़ी खुशगवार रस्म थी। लड़कियों ने कई निन्दाजनक अश्लील किस्म के वाक्य भी बोले और खट्ट के महत्व को उजागर करने वाले गीत भी गाये। मेरे दायें हाथ में अंगूठी पहनाने की रस्म चाचा बसंत लाल ने की थी और घड़ी बांधने की रस्म लाला करता राम ने, जिन्हें बाद में मैं सारी उम्र 'बाई जी' कहकर ही बुलाता रहा। इससे पहले मुझे टीका किया गया था अर्थात माथे पर रोले का टीका और कच्चे चावल लगाये गए थे। उसके बाद ही दोनों परिवारों के दामादों का टीका हुआ। हमारी तरफ से टीका करने की रस्म ताया मथरा दास ने निभाई और दूसरी ओर से शायद चाचा बसंत लाल ने। पर जो बात मैं बड़े ध्यान से देख रहा था, वह घटित नहीं हुई थी। भाई को सब कुछ पहले से ही ज्ञात होने के कारण वह न हैरान था, न परेशान। खट्ट के बाद विदायगी से कुछ समय पहले मेरे श्वसुर परिवार के सब रिश्तेदारों ने मुझे कुर्सी पर बिठा कर मेरा टीका किया। उनमें से सबसे पहला टीका करने वाली थी- दादी जी। माथे पर रोला फिर कुछ चावल के दाने और फिर साथ ही दो या पाँच का एक नोट मेरे हाथ में पकड़ाया गया। सभी रिश्तेदारों ने इसी तरह किया। कुल 33 रुपये हो गए थे। चाचा बसंत लाल ने दो रुपये और डाल कर रकम के गिनती को शगुन भरपूर बना दिया था। 35 रुपये अब बहुत छोटी-सी रकम लगती है। अब तो सौ से कम कोई टीका करता ही नहीं। पाँच सौ और एक हज़ार के टीके भी होते हैं। हमारे जैसे मध्यम श्रेणी के परिवार में इन टीकों की राशि आजकल चार-पाँच हज़ार हो जाती है और बड़े घरों में पंद्रह-बीस हज़ार से लेकर लाख, डेढ़ लाख रुपये तक। जैसे जैसे ज्ञान बढ़ा है और रौशनी बढ़ी है, देखा जाए तो असल में अंधेरा ही बढ़ा है। लेन-देन बढ़ा है, दहेज बढ़ा है, लड़के का बाकायदा सौदा होता है। बेशक ड्रामा यह रचा जाता है कि लेना-देना कुछ नहीं। मुट्ठी चावल की उबाल कर फेरे डलवा दो, पर जब दहेज की सूची बनती है तो मध्यम परिवार में पाँच-दस लाख तक और अमीरों में चालीस-पचास लाख से लेकर सौदा करोड़ तक पहुँच जाता है। सौदा मेरा भी हुआ था, पर मेरी खुली बोली नहीं लगाई गई थी। जो लाला जी कह गए थे, भाई ने सत्य वचन कह कर मान लिया था।
विदायगी के बाद घर के मुख्य द्वार के बाहर मेरी पत्नी से मेंहदी भरे हाथों के निशान लगवाये गए। मैं यह रस्म अन्य विवाहों में भी देख चुका था पर अपने विवाह के समय यह रस्म देखकर इसके अर्थ समझना चाहता था। लोकधारा के अनुसार लड़की के हाथों के निशान घर को हँसता-बसता देखने के प्रतीक हैं। विदायगी के समय उनका सारा परिवार बहुत रो रहा था और मेरा भी मन भर आया था। हमारा भी अपनी बहनों को विदा करते समय इसी प्रकार मन भर आता था और सचमुच मेरी पत्नी और उसके नाते-रिश्तेदारों का मन भर आना, मोह की तांत का प्रतीक ही तो था।
घर आए तो लड़कियों ने द्वार रोक लिया। पानी वारा गया, पर मेरी जेब में लड़कियों को देने के लिए उन 35 रुपयों के अलावा और कुछ नहीं था। भाई ने पता नहीं कैसे और क्या देकर लड़कियों को शान्त किया। जो 35 रुपये मेरे पास थे, मैंने वे भी रात में भाई के आगे रख दिए। पहले तो उसने कहा, ''कोई नहीं, ये तो तू रख।'' पर बाद में कहने लगा, ''अच्छा, ला पकड़ा।'' मैंने वे 35 रुपये भाई को दे दिए। अब मेरी जेब में एक भी रुपया नहीं था। लेकिन मुझे रुपये के न होने का अफ़सोस नहीं था। अफ़सोस इस बात का था कि मजबूत कदकाठी और थोड़ी-सी भारी बताकर जिस तरह का नक्शा मेरे सामने रखा गया था, दर्शना देवी उससे कहीं अधिक मोटी थी। लेकिन अपनी कमजोरी और नदौण से हुई बदली के मद्देनज़र मैं सब कुछ अन्दर ही अन्दर पी गया। वह पत्नी कैसी साबित हुई ? यह कहानी संक्षेप में इस प्रकार है-
हालाँकि सुदर्शना मैट्रिक पास भी नहीं थी, पर घरेलू काम में माहिर थी। रसोई से लेकर सिलाई-कढ़ाई और बुनाई के कामों तक। स्वभाव की सीधी-सादी थी और थी भी नर्म दिल। जल्दी ही उसने अपने आप को मेरे मुताबिक ढाल लिया था और मैं भी किसी हद तक कबीलदार बन गया था। मेरी उम्मीद से बढ़कर बात यह हुई कि वह स्टेज पर अच्छा बोलने भी लग पड़ी थी और 'पंजाब स्त्री सभा' की सक्रिय कारकुन भी बन गई थी। पर पहले मधुमेय रोग जो बाद में बढ़कर किडनी की खराबी तक पहुँच गया था, उसकी ज़िन्दगी के लिए घातक सिद्ध हुआ। आँखों की ज्योति उसकी भी काफी कम थी। अन्तर सिर्फ़ इतना था कि उसे रात में पढ़ने-लिखने और चलने-फिरने में कोई मुश्किल नहीं आती थी, जबकि मैं रात में कहीं भी अकेला नहीं जा सकता था और मेरी आँखों की बीमारी मुझे नेत्रहीनता की ओर ले जा रही थी। सुदर्शना ने मुझे कभी भी मेरी कम नज़र के बारे में कोई चुभने वाली बात नहीं की थी। जहाँ वह स्त्री सभा के कार्यक्रमों में दिल्ली, कुरूक्षेत्र और अयोध्या तक गई, वहीं बड़ी-बड़ी कान्फ्रेंसों और समारोहों में भी मेरे संग मद्रास और पटना तक गई। दिल्ली की दसवीं पंजाबी लेखक कान्फ्रेंस की कामयाबी में उसका बड़ा योगदान था।
बच्चों की देखरेख सब सुदर्शना ने ही की। स्वयं उसने अन्य लड़कियों की भांति अपने मायके से कभी कुछ नहीं मांगा था और न ही इसने मायके जाकर मेरे घर की आर्थिक स्थिति के बारे में कभी कुछ बताया था। माँ की, मेरी बहनों की और मेरी तो वह अपने मायके में जाकर तारीफ़ ही किया करती जिससे जोधपुरियों के दिल में हमारे प्रति सम्मान बढ़ गया था। बाई जी और चाचा बसंत लाल को भी उसने ही बताया था कि सट्टे में घाटा पड़ जाने के कारण बिचौला झूठ बोलकर जो 3100 रुपया ले गया था, छह महीने बीत जाने के बाद भी उसने नहीं लौटाया था। इससे उसके मायके वालों के दिल में हमारी आर्थिक कमजोरी के विषय में जो तस्वीर विवाह से पहले बनी थी, वह साफ हो गई थी।
सुदर्शना की एक खास बात यह थी कि उसने अपने मायके वालों में से किसी को भी मेरे भाई के विरुद्ध एक शब्द भी नहीं बोलने दिया था। खराब से खराब आर्थिक स्थिति में भी वह न तो स्वयं लड़खड़ाई और न मुझे ही लड़खड़ाने दिया। बच्चों को पढ़ाते समय कभी अगर गहने बेचने पड़े, उसने हँसकर निकालकर दे दिए। तपा मंडी की गली नंबर 8 में जो मकान बना तो उसके निर्माण में उसने स्वयं मज़दूरों की तरह काम किया। उसका मोटापा और मेरा अंधापन हमारे दोनों के लिए अब कोई अर्थ नहीं रखता था।
सुदर्शना के स्वभाव और त्याग के बारे में यदि और लिखना हो तो पूरी एक किताब बन सकती है। पर संक्षेप में ये शब्द ही काफी हैं।
(जारी…)
00

No comments: