समकालीन पंजाबी साहित्य की उत्कृष्ट कृतियों की तलाश

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Wednesday, February 23, 2011

पंजाबी उपन्यास


''साउथाल'' इंग्लैंड में अवस्थित पंजाबी कथाकार हरजीत अटवाल का यह चौथा उपन्यास है। इससे पूर्व उनके तीन उपन्यास - 'वन वे', 'रेत', और 'सवारी' चर्चित हो चुके हैं। ''साउथाल'' इंग्लैंड में एक शहर का नाम है जहाँ अधिकतर भारत से गए सिक्ख और पंजाबी परिवार बसते हैं। यहाँ अवस्थित पंजाबी परिवारों के जीवन को बेहद बारीकी से रेखांकित करता हरजीत अटवाल का यह उपन्यास इसलिए दिलचस्प और महत्वपूर्ण है क्योंकि इसके माध्यम से हम उन भारतीय लोगों की पीड़ा से रू-ब-रू होते हैं जो काम-धंधे और अधिक धन कमाने की मंशा से अपना वतन छोड़ कर विदेशों में जा बसते हैं और वर्षों वहाँ रहने के बावजूद वहाँ की सभ्यता और संस्कृति का हिस्सा नहीं बन पाते हैं।

साउथाल
हरजीत अटवाल
हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव

।। बीस ॥
मौसम थोड़ा-सा भी ठीक हो तो साउथाल पॉर्क में लोग आने लगते हैं। धूप की तो लोग प्रतीक्षा करते ही हैं, पर बादल घिरे हों या ठंड हो तो भी लोग इधर आ जाते हैं। बैंच घेर कर बैठ जाते हैं। कई किस्म की टोलियाँ हैं। शराबियों के लिए कई ग्रुप हैं। बियर पीने वाले, व्हिस्की या वोदका वाले या फिर अल्कोहलिक। एक ग्रुप जो नया खड़ा हुआ, उसे सभी ‘ग्रीन रोड गैंग’ कहते हैं। ग्रीन रोड गैंग में किशोर सबका नेता है। उसे गर्व है कि वह सबसे सीनियर है। वह उन दिनों में ही यहाँ आकर बैठने लग पड़ा था जब सिस्टर्स इनहैंड्ज़ का दफ्तर उनकी रोड पर नया-नया खुला था। वह ज़रा-सा पूछने पर बताने लगता है-
''भाजी, औरत बहुत खराब थी मेरी, ये औरतें खराब ही होती हैं। घर मैंने लिया, बच्चे मैंने पाले, काम मैं करता रहा और वह मुफ्त में मालकिन आ बनी। ऊपर से उसकी माँ भी आकर बीच में रहने लग पड़ी। इंडिया से आई थी, वहाँ किसी पार्टी की प्रधान थी, यहाँ आकर मेरे घर की प्रधानगी करने लगी। वह चाहती थी कि काम मैं करूँ और पैसे भेजे वो इंडिया को, अपने निकम्मे बेटे को। बस झगड़ा हो गया। पहले तो बात काबू में ही थी, बीवी इतनी बुरी नहीं थी, माँ ने उसे बिगाड़ दिया। ऊपर से इन इल्लतों ने हमारे रोड पर दफ्तर आ खोला।''
साथ में बैठा अलि बताने लगा-
''ये औरतें आप तो घर में बसीं नहीं, किसी दूसरे को बसने नहीं देना चाहतीं। घर में छोटा-मोटा झगड़ा तो होता ही रहता है। ये जा पहुँचती हैं घर में, और कबाड़ा करके ही लौटती हैं।''
''अरे अलि भाई, इन छुट्टड़ औरतों ने अपनी संख्या भी तो बढ़ानी होती है, इन्हें अपनी जॉब को भी कायम रखना होता है। इकट्ठी होकर चार नारे लगाती हैं, अख़बारों में अपनी फोटो देकर अपने आप को पता नहीं क्या समझने लगती हैं।''
''मैं तो कई बार सोचता हूँ कि इनका दफ्तर ही ढाह दूँ किसी तरह।''
''न ओए, ऐसा मत करना। जगह-जगह कैमरे लगे हुए हैं।''
''क्या कर देंगे। अधिक से अधिक अन्दर ही कर देंगे। अन्दर इस बाहर की ज़िन्दगी से तो अच्छा ही होगा, रोटी तो मिलेगी।''
''दारू नहीं मिलेगी।''
दारू न मिलने वाली बात पर बात करने वाला फिक्रमंद होता हुआ चुप हो जाता है। कोई फिर कह उठता है-
''कहीं से साधू सिंह वाली तलवार ही मिल जाए तो बता दें कि मर्द क्या होता है।''
''यह बताना इतना आसान नहीं है।''
''इस मिंदर को तो यूँ ही घरवाली ने पुलिस से उठवा दिया, यह तो गऊ जैसा बंदा है बेचारा।''
''शायद, इसी कारण उसे उठवा दिया हो। यहाँ की औरतें गऊ जैसे आदमियों को भी पसन्द नहीं करतीं, न।''
हर कोई अपने-अपने विचार रखने लगेगा। किशोर बताएगा-
''जब मुझे घरवाली ने घर से बाहर निकाला तो मैं समझ गया कि यह सिस्टर्स इनहैंड्ज का काम है। एक गुजरातिन-सी बाहर खड़ी होकर मेरी वाइफ़ से बातें जो किया करती थी। जिस दिन मुझे निकाला, मैं सोचता था कि यह अलि रोज़ बीवी को सोधता रहता है, पर यह आराम से घर में बैठा है। और फिर गुरजी की औरत भी तो दूसरे दिन मुँह सुजाए घूमती होती है और यह जॉन भी तो कैथरीन से कम नहीं करता, फिर इन औरतों ने मुझे ही क्यों चुना। मैं उस दिन बोतल लेकर अभी बेंच पर बैठा ही था कि सामने से अलि गर्दन झुकाये चला आता दिखाई दिया। मैंने दो घूंट पिलाकर इसके अस्थिर मन को सहारा दिया, जितनी मदद हो सकती थी, की। दो दिन बाद गुरजी भी आ पहुँचा। फिर जॉन भी आ गया, पर वह हम पंजाबियों से डरता ग्रीनफोर्ड में जा घुसा। वहाँ भी पॉर्क है और पॉर्क में बेंच भी और हमारे जैसे योद्धे भी।''
ग्रीन रोड गैंग में नई भर्ती दिनेश शर्मा की है। दिनेश डाकखाने में क्लर्क रहा है। टाई-सूट पहनने की आदत है। पत्नी से झगड़ा हुआ। घर से निकाला गया। पत्नी ने खर्चे के लिए क्लेम किया तो नौकरी छोड़ आया। पहले टाई लगाकर ही आया करता था। बड़ी अक्ल की बातें किया करता। जैसे नए पागल हुए लोग ज्यादा शोर मचाते हैं, वह कुछ अधिक ही दिखावा करता। शुरू में तो उसे शराब पीनी भी नहीं आती थी। एक बार ही जी भरकर पीता। अब शराब पीना सीख गया है। पॉर्कों में बैठे दिलजलों के शराब पीने के अपने तरीके हैं। थोड़ी-थोड़ी पीना और हर वक्त नशे में रहना, इतने भर नशे में कि अपना आसपास भूला रहे।
साउथाल पॉर्क में एक ग्रुप उन बुर्जुगों का भी है जिनकी पेंशन उनके बेटे या दामाद खाते हैं। वे अन्दर से दुखी हैं पर एक दूसरे को छेड़ने भी लगते हैं। कोई पूछता है-
''बंता सिंह, बर्तन धो आया था ?''
बंता सिंह जवाब दे या न दे, पास में बैठा चिंता सिंह बताने लग पड़ेगा-
''बर्तन धोकर, हूवर करके, बहू के कपड़े प्रैस करके फिर आया है यह।''
''चिंता सिंह, तुझे मजाक सूझता है, तेरी अभी घरवाली है न इसीलिए।''
''घरवाली को मार गोली, तू भी ज़रा तड़ी पकड़ इस गेंदा राम की तरह। अपना फ्लैट ले ले, अपनी पेंशन को अपनी मर्जी से खर्च कर, गवर्मेंट पैसे तुझे देती है ना कि तेरे बहू-बेटे को !''
''पर लोग क्या कहेंगे ?''
''गोली मार यार लोगों को। हम इंडियन लोग लोगों के बारे में ज्यादा सोचते हैं। गोरे हमसे लाख दर्जे अच्छे हैं।''
''गोरे तो हमसे अच्छे हैं ही, न तो उन्हें अपनी औलाद की चिंता होती है और न ही लोगों की।''
''उनकी क्या बात है। न उन्होंने अपने हाथों बेटी ब्याहनी होती है और न बहू लानी होती है। हम तो ऐसी रस्मों में फँसे रहते हैं।''
''यह तो हमारी सोसायटी की सुंदरता है।''
''बस, यही सुंदरता बंता सिंह भुगत रहा है। स्लेवरी जैसी ज़िन्दगी।''
कई लोग भारत की राजनीति को लेकर भी बातें करते हैं बल्कि हर कोई वहाँ की ख़बरें बताने-सुनने के लिए उत्सुक रहता है।
एक दिन गुरनाम आ जाता है। वह पॉर्क के अन्दर प्रवेश करते हुए सोच रहा है कि वह किस ग्रुप में जाए। उसे गेलो और शिन्दा बैठे हुए दिखाई पड़ते हैं। वह उनकी ओर चल पड़ता है। गेलो पूछता है-
''तू किधर रहता है भाई ?''
''बस इधर-उधर ही।''
''यू लुक वैल ! किसी पॉर्क में तो नहीं न बैठता ?''
''नहीं भाई, छोड़ दिया सब।''
सोनू अपना बियर वाला डिब्बा उसे पेश करता है। गुरनाम कहता है-
''नहीं भाई, दिन में नहीं, शाम होने पर ही।''
''अच्छा ! बच गया बच्चू, नहीं तो इन बेंचों पर से वापस लौटकर घर की तरफ कोई नहीं जाता।''
''बस, बच गया ही समझ लो, सामान तो इस तरह तैयार था कि बत्तियों पर खड़े होकर बियर के लिए पैसे मांग रहा होता।''
''कोई साधू-संत मिल गया ?''
''ऐसा ही समझ लो, या कह लो कि अपने आप को पहचान लिया।''
''हमें भी बता यार कोई गुर।''
''कोई बात नहीं, धीरे-धीरे बता दूँगा।'' कहकर गुरनाम हँसता हुआ दूर कहीं देखने लगता है। कामयाबी जैसे उससे हाथ मिला रही है। वह हर वक्त खुश रहता है और आजकल वह घूमता-फिरता रहता है। प्रीती अब घर में ही रहना पसन्द करती है और मुट्ठी भरकर गोलियाँ खाने लग पड़ी है। गुरनाम उसको कहता है कि गोलियाँ सेहत के लिए फायदेमंद हैं। शरीर में संतुलन रखती हैं।
वह सवेरे उठता ही प्रीती से पूछता है-
''आज क्या बनाएगी खाने के लिए ?''
''परांठे बना दूँ ?''
''नहीं, परांठे बनाने नहीं आते तुझे।''
''पूरियाँ-छोले ?''
''वो भी तुझे कहाँ आते हैं, तू दाल-रोटी ही बना ले।''
प्रीती कुछ नहीं कहती। गुरनाम फिर कहता है -
''तू रोटी बनानी क्यों नहीं सीखती ?''
''अब बता, तुझे तो मेरी हर चीज़ बुरी दिखती है। पहले तो नहीं लगती थी।''
''पहले मैं कुछ खाता ही कब था, शराबी रहता था जो मर्जी खिलाती रहती, पता ही कब चलता था।''
प्रीती कुछ बनाती है तो वह उससे कछड़ी पकड़ स्वयं बनाने लगता है। प्रीती बड़बड़ाती हुई एक तरफ बैठ जाती है। गुरनाम खुद बनाकर खाता है और साथ में बच्चों को भी खिलाता है। बच्चे अब गुरनाम के संग अधिक खेलते हैं। कुछ खाना हो तो गुरनाम से ही माँगते हैं। एक दिन वह बड़ी लड़की मीना से कहता है-
''मुझे फील होता है कि तुम्हारी मम्मी टॉयलट जाकर हाथ नहीं धोती।''
उस दिन के बाद से तो बच्चे प्रीती के हाथ की रोटी खाना ही छोड़ देते हैं। प्रीती रोती हुई बच्चों को मनाती घूमती है। उसका सिर दुखता रहता है। समय से पहले ही शशोपंज शुरू हो जाता है जिस कारण और भी उलझनें बढ़ जाती है। उसके कानों में 'सांय-सांय' होने लगती है और सिर हर समय भारी-भारी रहने लगा है। वह डॉक्टर के पास जाती है। डॉक्टर दवाई की मात्रा और बढ़ा देते हैं। कुछ ही महीनों में प्रीती के लिए कितना कुछ बदल जाता है। उसे हर वक्त सोते रहना अच्छा लगता है। कई बार उसका तैयार होने को भी दिल नहीं करता। बाल भी नहीं संवारती।
भूपिंदर इंडिया से लौटकर प्रीती के घर फोन करता है तो गुरनाम प्रत्युत्तर में कहता है-
''देख मिस्टर, यहाँ दोबारा फोन न करना। यह कंजरों का घर नहीं, यहाँ शरीफ लोग रहते हैं।''
''भाई साहब, प्रीती बहुत बढ़िया कलाकार है।''
''तेरी बीवी बुरी कलाकार है ? अगर बुरी है तो उसे मेरे पास भेज, मैं उसे वो सबकुछ सिखा दूँगा जो तुझे नहीं आता... समझ गया कि और समझाऊँ... अगर नहीं समझा तो मैं आकर समझा देता हूँ। मुझे पता है कि तू कहाँ रहता है।''
भूपिंदर के बाद वह सूरज आर्टस वालों को भी फोन करता है और गालियाँ बकते हुए धमकियाँ देता है। सूरज आर्टस वालों का फोन दुबारा तो क्या आता, इधर भूपिंदर भी डर जाता है कि यह तो नई ही मुसीबत गले पड़ गई।
उसके बच्चे जब भी बाहर जाते हैं तो तरह-तरह के प्रश्न करते हैं। वे पूछते हैं-
''डैड, आप मम्मी की एक्टिंग क्यों लाइक नहीं करते ?''
''इसलिए कि मुझे वाहफ़ चाहिए और तुम्हें एक माँ।''
''एक्टिंग करने से क्या हैपन होता है ?''
''उनकी फीलिंग्ज़ मर जाती हैं।''
''हाउ ?''
''एक एक एक्ट्रैस पचास आदमियों के साथ किस करती है। जब वह अपने असली पति के पास पहुँचती है तो वह पत्नी नहीं, किस करने वाली मशीन होती है। उसके अन्दर पत्नी होने का कुदरती मादा, नैचुरल इंस्टिंक्ट मर जाता है। ऐसे ही एक एक्ट्रैस किसी बच्चे को उठाये घूमती हो तो घर आकर तो वह एक मशीन की तरह ही व्यवहार करेगी।''
बच्चों को यह बात क्लिक कर जाती है। वह जाकर माँ के साथ बात करते हैं। गुरनाम वाली दलील देते रहते हैं-
''मम्मी, एक्टिंग का प्रोफेशन बहुत रॉन्ग है, हम नहीं पसन्द करते।''
''तुम्हारा डैडी रॉन्ग है, तुमसे झूठ बोल रहा है। मैं कभी किसी को किस नहीं करती।''
प्रीती गुरनाम से झगड़ते हुए कहती है-
''तू मुझे इतनी बुरी क्यों बना रहा है ?''
''मैं तो इनके सवाल का जवाब दे रहा हूँ।''
''मैं कभी किसी को किस नहीं करती, तू झूठ क्यों कह रहा है।''
''किस का तो एक उदाहरण है, एक औरत किसी पराये मर्द के गले भी लग जाती है तो उसे अपना मर्द यूँ ही लगने लगता है।''
''झूठ है यह।''
''झूठ कैसे है ! तू खुद बता। अगर ड्रामा खेलते हुए तू कितने ही मर्दों के स्पर्श में आएगी तो फिर शाम को तुझे मेरा स्पर्श तो उत्तेजित नहीं करेगा न। पचास स्पर्शों के बाद इक्यावनवाँ स्पर्श क्या मायने रखता है।''
''गुरनाम तू बहुत गलत बोल रहा है, ये किस और बैडरूम के सीन फिल्मों में ही होते हैं, नाटकों में नहीं।''
''क्यों नहीं होते, नाटकों में फिल्मों वाला ही सबकुछ होता है।''
''यह तो करने वाले की इच्छा पर निर्भर है कि कहाँ तक करना है।''
''कला के नाम पर सबकुछ हो रहा है, मर्द-औरतें सबकुछ किए जा रहे हैं।''
''यू शॅट अप!''
कहती हुई प्रीती अपने बैग में से दवाई निकालने लगती है।
(जारी…)
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