समकालीन पंजाबी साहित्य की उत्कृष्ट कृतियों की तलाश

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Sunday, October 30, 2011

आत्मकथा




एक नेत्रहीन लेखक की आत्मकथा

धृतराष्ट्र
डॉ. एस. तरसेम
हिन्दी अनुवाद : सुभाष नीरव
चैप्टर-24(प्रथम भाग)


मोहब्बत का 'ससा'¹
मेरे अपने गाँव के पंडित कपूर चंद के बनाये टेवे में मेरा नाम बिशम्भर दास था। इस नाम की बुनियाद थी मेरी जन्म-राशि। मुझसे बड़ी और मेरे बहन-भाइयों में सबसे छोटी तारा ने मेरा नाम बृज मोहन रखा। राजस्थान से आकर फेरी लगाने वाला और हमारे घर में ठिकाना करने वाला पंडित मसद्दी मुझे बंगाली कहकर बुलाता। बहन सीता का श्वसुर मुझे मौलवी कहता। ताया मथरा दास मुझे तुलसी कहकर बुलाया करता था। पर नानी द्वारा मेरे जन्म वाले दिन ही रखा नाम तरसेम मेरा पक्का नाम बन गया। 'नामों के झुरमुट' शीर्षक अधीन मैंने अपनी बचपन संबंधी आत्मकथा 'कच्ची मिट्टी, पक्का रंग' में अपने नामों के रखे जाने और उनके प्रचलित होने के बारे में विस्तार से उल्लेख किया है। इसलिए मैं उसको दोहराना नहीं चाहता। दोहराने का मुझे हक भी नहीं है।
मैं सातवीं कक्षा में था जब मेरी कविताएँ अख़बारों में छपनी शुरू हो गई थीं। मैं 'तरसेम लाल तुलसी' नाम से कविताएँ अख़बारों को भेजता। ताया मथरा दास द्वारा रखा गया नाम 'तुलसी' समझो मेरा तख़ल्लुस बन गया था। तपा मंडी में सब मुझे 'तुलसी' कहकर ही बुलाया करते थे। कोई मुझे हमारे गोत्र के कारण 'गोयल' भी कहता और मजाक में कोई 'गोलमोल' भी कह देता, पर शारीरिक तौर पर मैं बिलकुल पतला-लम्बा सींख की तरह था। मेरे भाई को तो कोई हरबंस लाल कहकर बुलाता ही नहीं था। सब उसे 'गोयल साहब' कहते। इसलिए 'तरसेम गोयल' या 'तरसेम तुलसी' मेरे दो नाम मैट्रिक पास करने से पहले चलते रहे। नवम्बर 1958 में मैंने ज्ञानी पास कर ली थी, इसलिए अख़बारों में मैं अपना नाम ज्ञानी तरसेम लाल तुलसी लिखकर भेजने लगा, जिस वजह से हमारे इलाके के कुछ लोग मुझे ज्ञानी जी भी कहने लग पड़े। तपा मंडी के आर्य स्कूल में पंजाबी अध्यापक लगने के कारण और कुछ ज्ञानी की ट्यूशनें पढ़ाने के कारण मुझे 'ज्ञानी जी' या 'तुलसी जी' कहकर ही बुलाया जाने लगा। ऐसे सम्बोधनों से मैं कभी खुश भी होता और कभी उदास भी। ज्ञानी शब्द तो मैं बिलकुल ही अपने नाम से मिटा देना चाहता था, पर क्या करूँ। अभी भी यदि मेरे भाई का मित्र मास्टर चरनदास मिल जाए, तो वह मुझे 'ज्ञानी जी' कहकर ही बुलाता है। वैसे मैंने अपने नाम के आगे और पीछे से 'ज्ञानी' और 'तुलसी' उस वक्त हटा दिए थे जब मैं पहली बार करतार सिंह बलगण की पत्रिका में छपा था - सिर्फ़ तरसेम के नाम से। बस, उस समय से मैं 'तरसेम' नाम के अधीन ही अख़बारों और पत्रिकाओं में छपता रहा। उस समय मैं कविता भी लिखा करता था और कहानी भी।
अचानक, तरसेम सिंह के नाम से छपने वाला एक कहानीकार भी अपनी कहानियों के साथ सिर्फ़ 'तरसेम' लिखने लग पड़ा। न तो मुझे उसका ठौर-ठिकाना पता था और न ही उस वक्त मुझे यह समझ थी कि उसका कहीं से पता-ठिकाना लेकर उसे पत्र लिखूँ कि वह अपना नाम बदल ले, क्योंकि 'तरसेम' नाम के अधीन मेरी रचनाएँ उससे पहले छपी थीं।
मैंने न तो किसी से सलाह ली और न ही किसी को बताया। हाँ, कुछ महीने सोचता अवश्य रहा। आख़िर मैंने अपना लेखकीय नाम 'स. तरसेम' रख लिया। तरसेम नाम से कहानियाँ लिखने वाला लेखक भी पता नहीं कहाँ गुम हो गया। मेरे द्वारा 'स. तरसेम' नाम रखने के तुरन्त बाद पता चला कि वह विदेश चला गया है। यह भी ख़बर मिली कि वह आजकल एक मैगज़ीन निकालता है - 'नीलगिरी'। इसलिए उसका नाम भी 'तरसेम नीलगिरी' पड़ गया। लेकिन मैं तो अब स. तरसेम बन चुका था। इस 'स' के बारे में मेरे लेखक दोस्त प्राय: पूछते रहते, पर मैं हँसकर टाल देता। यदि कोई पीछ ही पड़ जाता तो मैं कहता 'स' सीक्रेट है अर्थात गुप्त।
मेरे अन्दर उन दिनों इतना साहस नहीं था कि 'स' की सारी कहानी खोल देता। यह कहानी तो मैंने तब भी नहीं खोली, जब 1990 में मेरी बचपन की आत्मकथा 'कच्ची मिट्टी, पक्का रंग' में मेरे नाम को लेकर एक पूरा अध्याय छपा था। तब भी मैंने यह लिख दिया था, ''स. तरसेम मैं बहुत सोच-समझ कर लिखने लगा था। इसके पीछे तीन कहानियाँ हैं। तीन लड़कियाँ हैं। लड़कियों से हुई मुहब्बतें हैं। पहली मुहब्बत बचपन की मुहब्बत है। इसलिए अब भी मैं यह गीत अक्सर गुनगुनाता रहता हँ :

बचपन की मुहब्बत को
दिल से न जुदा करना
जब याद मेरी आए
मिलने की दुआ करना...

मुहब्बत की शुरूआत मेरे से हुई थी। भला 12-13 साल के लड़के को भी मुहब्बत करने का पता होता है, इस बात की समझ मुझे अभी तक नहीं आई। पर मैं उसको प्यार करता था। अब भी प्यार करता हूँ। अब वह मेरी तरह सेवा-मुक्त ज़िन्दगी बिता रही है। उसके कोई औलाद नहीं। सुना है कि उसने एक बेटी गोद ले रखी है। बहुत सुन्दर थी वह लड़की, मूरत जैसी, मानो ईश्वर ने फुर्सत में बैठ कर घड़ी हो। मेरी बड़ी बहन शीला ने जब उसे एक दिन देखा था, तो कहा था -
''भाई, यह लड़की तो मोरनी जैसी है, जिस घर में जाएगी, घर को सजाकर रख देगी।'' बहन को क्या मालूम था कि मैं उस लड़की को प्यार करता था। बहन को अब भी नहीं पता, किसी को भी नहीं पता। बस, मेरे मित्र कवि गुरदर्शन (स्वर्गीय) को ही मालूम था। अन्य किसी के सम्मुख इस मुहब्बत की मैंने भाप तक नहीं निकाली थी। उस लड़की को गली में 'पीचो-बकरी' खेलने से लेकर मेरे सामने पढ़ती हुई को मैंने सैकड़ों बार निहारा था। वह एक प्राइमरी अध्यापिका की बेटी थी। जब वह प्राइवेट दसवीं करने लगी तो ट्यूशन पढ़ने के लिए मेरे भाई के पास आने लगी। शाम पाँच बजे के बाद वह पढ़ने आया करती। मैं उस समय ज्ञानी कर रहा था। ज्ञानी गुरबचन सिंह तांघी के मालवा ज्ञानी कालेज, रामपुरा फूल में करीब ढाई महीने मैं पढ़ा था। दोपहर 12 बजे की ट्रेन से जाता और शाम पाँच बजे वाली से लौट आता। यदि गाड़ी छूट जाती तो मैं पैदल चल पड़ता। बहुत तेज़ चला करता था उन दिनों। उस लड़की के पढ़कर जाने से पहले पहले मैं घर पहुँच जाया करता था। उन दिनों तो मेरे अन्दर मुहब्बत का सोता निरन्तर फूट रहा था। सिर्फ़ उसके दर्शन-दीदार के लिए मैं तेज़-तेज़ चलकर रामपुरा फूल से घर पहुँचा करता। सीधा कोठे पर चढ़ जाता, जहाँ भाई दो लड़कियों को पढ़ा रहा होता। उनमें ही थी वह हसीन लड़की जो 'स' की बुनियाद थी। उस लड़की ने मार्च 1959 में दसवीं पास की। मैं उन दिनों तपा मंडी के आर्य हाई स्कूल में पंजाबी का अध्यापक लग चुका था। उस लड़की का नाना हमारे घर आया और मेरे भाई से कहने लगा कि अगर तरसेम हमारी लड़की को ज्ञानी करवा दे। मैं समीप बैठा था। अन्दर से मैं बहुत खुश था। ज्ञानी में पंजाब यूनिवर्सिटी में मैं तीसरे स्थान पर रहा था। तांघी साहब ने अपने मालवा कालेज को और अधिक चमकाने के लिए जो इश्तहार छापा, उसका आरंभ कुछ इस प्रकार था :
'केवल ढाई महीने पढ़कर ज्ञानी का विद्यार्थी तरसेम लाल गोयल पंजाब यूनिवर्सिटी की नवम्बर 1958 की परीक्षा में 367 नंबर लेकर तीसरे स्थान पर रहा और प्रथम आने वाले विद्यार्थी से केवल 10 नंबर कम।' यही कारण था कि मेरी प्रसिद्धि दूर तक फैल गई थी।
कुछ 'न-न' करने के बाद आख़िर मैं सहमत हो गया। यह 'न-न' तो यूँ ही एक ड्रामा था। मैं तो अपने पल्ले से चार पैसे खर्च करके भी उसके घर जाने को तैयार था। मैंने अगले दिन से ही बाकायदा उनके घर जाकर उस लड़की को पढ़ाना शुरू कर दिया। एक घंटा पढ़ाने की बात हुई थी और ट्यूशन लेनी थी बीस रुपये महीना। घंटा क्या, कभी डेढ़ घंटा भी लग जाता। दो घंटे भी लग जाते। समय के बीतने का पता ही न चलता। लेकिन एक दिन उसकी माँ ने कहा कि मैं चौबारे की बजाय उसे ड्यौढ़ी में ही पढ़ाया करूँ। मुझे यह मेरा अपमान-सा महसूस हुआ। लगा जैसे उसकी माँ मेरी नीयत पर शक कर रही हो। मुझे यह भी लगा कि शायद उस लड़की ने ही कोई ऐसी बात कह दी हो जिसके कारण उसकी माँ को ऐसा कहना पड़ा हो। मैं अगले दिन पढ़ाने नहीं गया, दूसरे दिन भी नहीं और तीसरे दिन भी नहीं। लड़की का नाना छड़ी खटखटाता मेरे घर आ पहुँचा। मैंने उसे भीतरी बात नहीं बताई थी। बस, कह दिया था कि मेरे पास वक्त नहीं है। पहली कक्षा में वह मेरा अध्यापक रहा था। उसने मुझे बहुत अपनेपन से कहा, ''भई तरसेम, बीच मंझदार में न डुबा लड़की को।''
कुछ तो उसके अध्यापक होने के कारण, कुछ नेत्रहीन होने के कारण और कुछ मेरे अपने दिल का उस लड़की के प्रति आकर्षण होने के कारण, मैं मान गया। लेकिन शर्त यह रखी कि मैं ड्यौढ़ी में नहीं पढ़ाऊँगा।
''लो बताओ, बखेड़ा ड्यौढ़ीवाला था। तूने पहले क्यों नहीं बताया ? बीबी यूँ ही वहमी है। मेरे यार तू कहीं भी बैठकर पढ़ा। बस, कल को आ जाना मेरे वीर।'' मास्टर जी के शब्दों में अपनत्व भी था और अनुनय भी। 'बीबी' शब्द का प्रयोग उसने अपनी बेटी के लिए किया था, दोहती के लिए नहीं। घर में लड़की की माँ को सब 'बीबी' कहा करते थे और अड़ोस-पड़ोस में भैण जी। अगले दिन दोपहर के बाद गया। वैसे ही चौबारा साफ-सफाई किया हुआ, मेरी कुर्सी बिलकुल पहले वाली जगह पर और चारपाई जिस पर लड़की बैठा करती थी, बिलकुल उसी जगह पर।
लड़की इस बात की जिद्द कर रही थी कि मैं उसे तीन दिन न आने का असली कारण बताऊँ। मैंने उसे सबकुछ बता दिया। पीचो-बकरी खेलने वाली उस लड़की के ज्ञानी की पढ़ाई शुरू करने तक की उसके प्रति अपनी सब भावनाएँ टुकड़ों में धीरे-धीरे प्रगट कर दीं। लड़की के चेहरे पर कुछ घबराहट आ गई थी और मैं भी कुछ डर गया था। मैं कौन-सा पोरस था। बात खत्म हुई तो हमने पढ़ाई शुरू कर दी।
पढ़ाई से लड़की का नाना, बीबी और स्वयं लड़की बहुत संतुष्ट थे। ढाई-तीन महीने विवाह जैसे बीत गए। चाय तो वे रोज़ पिलाते ही थे, कभी-कभार रोटी खिलाने के लिए भी वे जिद्द पकड़ लेते थे। मैं रोटी भी खा लेता था। इस सबकुछ में मेरी भावुक सांझ जुड़ी हुई थी।
लड़की ने परीक्षा दी। पेपर अच्छे हो गए। लड़की से अधिक मैं स्वयं उसके नतीजे की प्रतीक्षा करने लगा। जिस दिन उसका नतीजा अख़बार में छपा, मेरी खुशी का ठिकाना नहीं था। ऐसा प्रतीत होता था मानो मैं भी पास हो गया होऊँ। वैसे भी मैं सैर करने के लिए उनके घर के साथ लगती गली में से गुजरा करता और कभी-कभार सिर्फ़ उससे मिलने के लिए मैं उनके घर भी जाता। यह प्यार का सिलसिला मुझे एकतरफा प्रतीत हुआ। उसकी ओर से कोई हुंकारा नहीं था। बेशक एफ़.ए. और बी.ए. की परीक्षाएँ उसने मेरी तरह प्राइवेट ही दी थीं और प्राय: पढ़ाई में भी मेरी सलाह लेती रहती थी, पर मैं जो चाहता था, उस बारे में उसकी ओर से उसका इन्कार ही समझो।
बी.ए. करने के उपरांत तो वह बहुत चालाक हो गई थी। अपने आप को कुछ समझने भी लग पड़ी थी। मैंने उसे पंजाबी में एक लम्बा पत्र लिखा। ज़िन्दगी में यह मेरा पहला प्रेम पत्र था। मैं स्वयं उस पत्र को लेकर उसके घर गया। वह ड्यौढ़ी में नानी के पास बैठकर गरारे कर रही थी। मुझे देखकर उसने लुटिया रख दी और पूरे अदब से नमस्ते कहा। मैंने उसके हाथ में पत्र रख दिया।
''क्या है यह ?'' उसके चेहरे पर लाली छा गई थी, मानो उसका खूब गोरा रंग गुलाबी हो गया हो।
''देख ले।'' मेरी आवाज़ में कंपन ज़रूर होगा। उसने पत्र की पहली पाँच-सात पंक्तियाँ ही पढ़ी होंगी। बड़े धैर्य से बोली-
''बहुत सुन्दर है चिट्ठी यह। मैं इसे अकाली पत्रिका में भेज दूँ।'' वह मजाकिया लहजे में बोल रही थी। उन दिनों में पंजाब में 'अकाली पत्रिका' बहुत प्रसिद्ध अख़बार माना जाता था।
''भेज दे। चाहे ट्रिब्यून में भेज दे।'' मैंने ज़रा खीझकर कहा। (1990 में ट्रिब्यून सिर्फ अंग्रेजी में छपता था और अम्बाला से निकलता था।)
''आप नाराज़ तो नहीं होगे ?'' उसने बड़े नरम लहजे में पूछा।
''नहीं।''
चाय-पानी की रस्मी पूछताछ और मेरी रस्मी तौर पर न-नुकर के बाद मैं घर लौट आया। बस, यह उससे अन्तिम मुलाकात थी जिसके बाद यदि कोई मुलाकात हुई भी, उसमें न मेरी ओर से कोई बात चली और न ही उसकी ओर से।
1994 में वह मालेरकोटला मेरे घर आई। उसका पति उसके संग था। शिष्टाचार के नाते उसकी खातिर-सेवा भी की, पर मेरे दिल में से उसके प्रति प्यार का चश्मा न फूटा, जिसकी शीतलता वर्षों तक मेरी यादों में रची-बसी रही थी। कारण स्पष्ट था कि वह किसी मोह-मुहब्बत के कारण मेरे पास नहीं आई थी, यहाँ एक दफ्तर में उसका कोई काम था और मुझे बा-रसूख व्यक्ति समझकर वह अपने पति के संग मेरे पास आ गई थी। यह वह लड़की थी जिसका नाम 'स' से आरंभ होता था - सुखजीत। अब भी जब वह मुझे याद आती है, उसकी ओर से कोई रिस्पांस न मिलने का दर्द मेरे कलजे में कसक पैदा करता है। मुझे प्यार नहीं किया, न सही। मैंने तो उसे प्यार किया था। अब भी मैं उसे प्यार करता हूँ।
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1-गुरमुखी वर्णमाला का चौथा अक्षर 'स' जिसे 'ससा' कहा जाता है।
(जारी…)
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1 comment:

सुरेश यादव said...

डा.तरसेम की यह आत्मकथा बहुत सादः\गी और ईमानदारी से लिखी जारही है इस लिए विश्वसनीय है .मैं इसे टुकड़ों में ही पढ़ सका हूँ .यह टुकड़ा या अंश बहुत ही सहज है जिसके लिए लेखक के साथ साथ तुम्हें भी बधाई दीप्ति .इसे जारी रखना .