समकालीन पंजाबी साहित्य की उत्कृष्ट कृतियों की तलाश

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Sunday, November 27, 2011

आत्मकथा



एक नेत्रहीन लेखक की आत्मकथा

धृतराष्ट्र
डॉ. एस. तरसेम
हिन्दी अनुवाद : सुभाष नीरव
चैप्टर-24( दूसरा भाग)

मोहब्बत का 'ससा'¹
मैंने अपने लेखकीय नाम स. तरसेम के साथ सिर्फ़ एक लड़की का नाम नहीं जोड़ा था, इस नाम में दो और लड़कियों के नाम का अगला अथवा मध्य का हिस्सा अवश्य है। भारतीय समाज को मैं आरंभ में बहुत कठोर समझता रहा था क्योंकि मेरे दिल में यह बात दृढ़ हो चुकी थी कि यदि मेरा पहला प्रेम परवान नहीं चढ़ा तो उसमें उस लड़की का कोई कसूर नहीं। वह जाति-पाति की लक्ष्मण-रेखा नहीं पा कर सकती थी। संभव है, इसीलिए उसने मेरे प्यार का जवाब देना उचित नहीं समझा हो, पर मेरे भाई की साली की राह में तो कोई रुकावट नहीं थी। बचपन में अक्सर हमारे घर में मेरे भाई की सबसे छोटी साली से मेरे विवाह की बात चलती रहती। जब भाई का बड़ा साला आता तो वह अक्सर ही यह बात करता। बात प्राय: हँसी में टल जाती। मेरा भी भाई की साली में पूरा झुकाव न होने के कारण मेरी दिलचस्पी उन बातों में बहुत कम हुआ करती, लेकिन जब मैं बड़ा हो गया और मेरे पहले प्रेम की केन्द्र-बिंदु मुझसे दूर हो गई तो मेरा झुकाव माला की तरफ हो गया था। उसका पूरा नाम राज माला था। अब जब भी राज माला की मेरे संग विवाह की बात चलती, मेरे कान खड़े हो जाते। मैंने उसे सिर्फ़ एक बार देखा था, उस समय मैं दूसरी कक्षा में पढ़ा करता था और दशहरे का दिन था। मेरा भाई मुझे अपनी ससुराल ले गया था। छोटी सी राज माला को अब मैंने 18-19 वर्ष की समझकर उसकी शक्ल अपने मन में बना रखी थी।
संयोग से जनवरी 1961 के अन्तिम सप्ताह में राज माला तपा आ गई। उसने एफ.ए. अंग्रेजी की परीक्षा देनी थी। उन दिनों उसके माता-पिता हरियाणा के एक बड़े शहर को छोड़कर नज़दीक ही छोटे-से कस्बे में जा बसे थे। यहाँ उनकी साथ वाले किसी गाँव में काफ़ी ज़मीन थी। इसलिए, उसके बड़े भाई की उस शहर में रिहाइश होने के बावजूद उसके माता-पिता और छोटे बहन-भाई उस छोटे-से कस्बे में आ टिके थे। कालेज उन दिनों आम नहीं थे। इसलिए दसवीं और प्रभाकर पास करने के पश्चात माला अंग्रेजी में एफ.ए. करने की तैयारी करने लग पड़ी थी। एक अध्यापक उसे घर में आकर पढ़ा जाता, परन्तु एक ऐसी घटना घटी कि माला ने उस अध्यापक से पढ़ने से इन्कार कर दिया। कारण शायद उसने अपने माता-पिता को बताया हो। मुझे तो बस इतना याद है कि वह एफ.ए. (आजकल प्लस 2) अंग्रेजी पढ़ने के लिए तपा में आई थी। भाई उन दिनों मोगा में बी.एड कर रहा था। मेरी समझ में नहीं आता था कि उसके माता-पिता ने क्या सोचकर उसको तपा में पढ़ने के लिए भेज दिया था। संक्षेप में यह कि माला को अंग्रेजी पढ़ाने की जिम्मेदारी भी मेरे ऊपर आ पड़ी। सच बात तो यह है कि मैं ऊपर से दुखी दिखता था परन्तु भीतर से बहुत खुश था। यदि यही काम किसी अन्य का करना होता तो मैं साफ़ जवाब दे देता।
तपा मंडी के आर्य स्कूल के सभी पीरियड पढ़ाने, सुबह और शाम ट्यूशनें करने, बहन तारा की पढ़ाई के बाद राज माला को पढ़ाकर मैं थकता नहीं था। इस न थकने का कारण माला थी। उसे पढ़ाने के बाद मैं खुद बी.ए. इतिहास की परीक्षा की तैयारी के लिए एक-डेढ़ घंटा रात के ग्यारह बजे के बाद लगाया करता। उस समय तक, दिन में पढ़ने-पढ़ाने में मुझे कोई दिक्कत नहीं आती थी परन्तु रात के समय मैं दीवार या छत से लगी ट्यूब की रोशनी में भी नहीं पढ़ पाता था। यही कारण था कि मैंने छत से अतिरिक्त तार लगाकर 60 वॉट का बल्ब लगा लिया था जो मेरे सिर से तीनेक फुट और मेज़ से चार फुट ऊँचा था। इस तरह पढ़ने-लिखने से आँखें थक तो जातीं, पर कोई मुश्किल नहीं आती थी। वैसे भी, मैं अपनी किताब पढ़ने की बजाय पढ़ने का काम किसी विद्यार्थी से करवाता। इस जुगत से विद्यार्थी का उच्चारण भी शुद्ध हो जाता और मेरी आँखों को भी आराम मिल जाता। बेचारी माला को इस बात का पता नहीं चला था कि रात के समय मैं दूर की रोशनी में पढ़-लिख नहीं सकता हूँ और न ही अँधेरे में चल फिर सकता हूँ। एक दिन झिझकते-झिझकते मैंने माला से पूछ ही लिया, ''जो टीचर तुझे वहाँ पढ़ाता था, उसमें क्या नुक्स था ?''
पहले तो वह चुप रही, पर मेरे बार-बार पूछने पर उसने बता ही दिया, ''उसने एक बार मेरी कॉपी पर लिख दिया था - आई लव यू।''
''फिर ?'' मैं इससे आगे जानना चाहता था।
वह चुप रही और कुछ न बोली।
''यदि मैं तेरी कॉपी पर यह कुछ लिखकर दूँ, फिर ?''
''आप की बात कुछ और है।''
''मेरी बात कैसे कुछ और है ?'' मैंने भी हिंदी में प्रश्न किया और प्रश्न करते समय मेरे अन्दर कोई झिझक भी नहीं थी, क्योंकि पहल उसकी तरफ़ से हुई थी।
''मैंने बोल दिया न कि आपकी बात कुछ और है।''
वो दिन सो वो दिन, उसके बाद मैं उसका ही होकर रह गया था। अब मैं पहले से भी अधिक उसे पढ़ाने लगा। हम कई छोटी-छोटी बातें किया करते। जिस चौबारे में मैं ट्यूशनें पढ़ाया करता, उसी में ही सोता था। जितनी देर मैं नौ-सवा नौ बजे तक ट्यूशनें पढ़ाता रहता, माँ नीचे काम में उलझी रहती और मेरी बहन तारा और माला नीचे पढ़ती रहतीं। इसके बाद पहले आधा-पौना घंटा तारा को और फिर माला को पढ़ाता। माँ की चारपाई बीच में होती। माला भी चौबारे में ही लेटा करती थी। माँ की खाट से दूसरी तरफ मेरी खाट होती। माँ की खाट बीच में होने के कारण मैं पढ़ाने के अलावा माला से बहुत कम बात करता। वह भी कोई बात नहीं करती थी। सवेरे पाँच बजे माँ नीचे नहाने-धोने और पूजा-पाठ करने के लिए चली जाती। माला उठकर पढ़ने लगती और मैं भी।
हम दोनों एक-दूजे की ओर पूरी तरह आकर्षित हो गए थे, पर छोटी-छोटी, अच्छी-अच्छी बातों के अलावा हमारे बीच अन्य कुछ भी नहीं घटा था।
''शादी से पहले कभी किसी को छूना नहीं चाहिए, यह पाप होता है।'' माला ने एक दिन पता नहीं यह बात क्यों कह दी।
''मैंने तो आपको कभी कुछ नहीं कहा। आपके दिमाग में ऐसी बात क्यों आई ?'' मैंने नाराज़गी और मिठास के मिलेजुले लहजे में पूछा।
''आप तो महसूस कर गए, मैंने तो यूँ ही बात की है।'' माला किसी दोषी की भाँति स्पष्टीकरण दे रही थी। साथ ही, वह रो पड़ी थी। मैं डर गया था। कोई बात नहीं, कोई चीत नहीं, यूँ ही कोई पंगा न खड़ा हो जाए। यदि माला ने भाभी को बता दिया तो घर में कोई नया तूफ़ान न खड़ा हो जाए, पर माला ने नीचे जाने से पहले अपनी गलती स्वीकार कर ली थी।
मुहब्बत का यह पाक-पवित्र रिश्ता उसके वापस अपने घर जाने तक बना रहा और वह मुहब्बत आज भी कायम है। जाने से एक रात पहले वह फिर रोने लग पड़ी थी। मैंने उसे भरोसा दिलाया था और अंग्रेजी में कहा था -'अगर विवाह करवाया तो बस मैं तेरे से ही करवाऊँगा।' मैं उसे चूमना चाहता था परन्तु उसकी पवित्रता के वचन को निभाने की खातिर मैं स्वयं ही पीछे हट गया।
मार्च का आख़िरी हफ्ता था या अप्रैल का पहला, भाभी माला को मायके छोड़ने गई। माला मुझे जाते हुए कह गई थी कि उसकी बहन अर्थात मेरी भाभी को मैं ही लेने आऊँ, पर मैं खुलकर अपने भाई या माँ को यह भी नहीं कह सका कि भाभी को लेने मैं जाऊँगा। शायद भाभी खोटे पैसे की तरह खुद ही लौट आई थी।
..


मेरे लेखकीय नाम में 'स' अक्षर के पीछे के जो शब्द अभी तक पाठकों तक नहीं पहुँचे, उनमें आरंभिक 'स' और अन्तिम 'र' के मध्य में एक अक्षर 'व' है जो 'स' के पैरों में पड़ता है। रेवती उसी लड़की के नाम के बीच का 'व' है। यह लड़की 1960-61 में तपा मंडी की नगर पालिका कन्या पाठशाला में अध्यापिका थी। जब उसने मेरे से ज्ञानी की ट्यूशन के लिए पहुँच की, तब तक उसके द्वारा मेरे बारे में की गई कई विरोधी टिप्पणियाँ मेरे तक पहुँच चुकी थीं। मैं 1959 से ही ज्ञानी कक्षाओं को पढ़ा रहा था। इस लड़की के मेरे पास आने से पहले बठिंडा ज़िले के गाँव नथाणे से उसकी एक रिश्तेदार मेरे पास ज्ञानी पढ़ने आया करती थी और वह ज्ञानी पास कर चुकी थी। मेरे बारे में वह जो भी कह चुकी थी, उस संबंध में मैं उसको अहसास करवाना चाहता था।
''लड़का-सा क्या पढ़ाएगा तुम्हें ?'' कहकर मैंने उसे जतला दिया था कि उसने जो मेरे विरुद्ध पहले टिप्पणी की थी, उसकी मुझे जानकारी है। वह पहले बहुत शर्मिन्दा थी और बार बार हाथ जोड़कर ट्यूशन के लिए कह रही थी। ट्यूशन तो मैंने पढ़ानी ही थी। मैं तो उसकी ऐंठ तोड़ना चाहता था, सो तोड़ दी। तय यह हुआ कि मैं उसके किराये पर लिए चौबारे में एक घंटा पढ़ाने के लिए आऊँ। चौबारे की सीढ़ियाँ अनाज मंडी में होने के कारण वह शाम के वक्त आने-जाने में झिझकती थी। मैंने भी अँधेरा होने से पहले पहले घर पहुँचने के हिसाब से जाना आरंभ कर दिया। यह ट्यूशन मैंने इसलिए की थी क्योंकि उस समय मेरे पास कोई अन्य ट्यूशन नहीं थी।
इधर, ज्ञानी की परीक्षाएँ आरंभ हो गई और उधर मुझे जनता हाई स्कूल, जुआर (उस समय पंजाब के ज़िला होशियारपुर में था और अब हिमाचल प्रदेश के ज़िला ऊना में है) का नियुक्ति पत्र मिल गया। जब मैं हाज़िर होने के बाद दीवाली की छुट्टियों में घर आया तो पता नहीं कैसे उसको मेरे घर आने की ख़बर हो गई। वह दीवाली की मिठाई भी लेकर आई और पेपर अच्छा होने की खुशखबरी सुनाने भी। मेरा नया पता भी ले गई।
अभी जुआर पहुँचे मुझे एक सप्ताह ही हुआ था कि रेवती की चिट्ठी मिली। बड़ा आदर और मोह-प्यार था उस चिट्ठी में। किसी लड़की द्वारा मुझे लिखी गई यह पहली चिट्ठी थी, पर पोस्ट कार्ड होने के कारण शक की कोई गुंजाइश नहीं थी। यह एक आदरसूचक ख़त था, कोई प्रेमपत्र नहीं था। मैंने ख़त का जवाब दिया। मैंने भी पोस्ट कार्ड ही लिखा था और ख़त में उसके उजले भविष्य की कामना की थी। हाँ, अन्दर ही अन्दर मैं उसकी ओर कुछ-कुछ आकर्षित हुआ था। उसकी मंशा तो पता नहीं क्या थी, पर मेरा झुकाव उसकी ओर हो गया था।
मैं किसी भ्रम का शिकार भी नहीं हो सकता था। कम से कम मैं शब्दों के भीतरी अर्थों की गहराई तक किसी हद तक पहुँचने योग्य तो हो ही गया था।
रेवती का एक और ख़त आया। मैंने ख़त का जवाब दे दिया। इस प्रकार चिट्ठी-पत्र का सिलसिला चलता रहा। जब माँ मेरे पास जुआर आ गई, मैं रेवती के ख़त माँ को पढ़कर सुनाता। एक ख़त सुनकर माँ कहने लगी-
''तू इस लड़की से विवाह ही करवा ले।'' माँ की बात में जो फराख़दिली थी, वो उस ज़माने की बूढ़ी औरतों में मैंने कम ही देखी है। लड़की, माँ की देखी हुई थी। रंग काला तो नहीं था, ज़रा सांवला था। ऑंखें मोटी थीं और बाकी नक्श मध्यम। वैसे उसके चेहरे पर रौब-दाब बहुत था। मैं तो पहले ही उसकी तरफ़ आकर्षित था, क्योंकि उस समय तक माला की मंगनी हो चुकी थी और उसे तुड़वाने की कई स्कीमें घड़ने के बावजूद मैंने कुछ नहीं किया। बस, दिल वाली बातें दिल में ही रह गई थीं। माँ के कहने पर बात पक्की होने में मदद मिलनी ही थी। लेकिन भाई की मोहर लगे बग़ैर तो कुछ भी नहीं हो सकता था। यहाँ मैं बता दूँ कि 10 दिसम्बर 1961 को राज माला का विवाह हो चुका था। उसका घरवाला आर.बी.आई., दिल्ली में क्लर्क था। मैं इस 10 दिसम्बर वाले दिन भूख-हड़ताल पर रहा, कुछ भी नहीं खाया-पिया। लगता था, जैसे मेरी दुनिया ही उजड़ गई हो। राज माला को मैं बेवफ़ा भी नहीं कह सकता था, क्योंकि मुझे मेरे भाई की लिखी कांता बहन के विवाह पर पढ़ी गई 'शिक्षा' की अन्तिम पंक्ति अच्छी तरह याद थी :-

गोयल गउँओं और धीयाँ दा माण काहदा
जिधर तोरनां, उधर ही जावणा है।

पर कभी-कभी मन में ऐसा ही आता कि राज माला एक बार तो अपनी इच्छा जाहिर करती। आख़िर मैंने उससे वायदा किया था। यदि मैं वायदा तोड़ देता तो उसके मन पर क्या गुजरती। बस, यह घटना थी जिस कारण रेवती के ख़तों ने मुझे उसकी ओर आकर्षित कर दिया। बाद में, वह तपा मंडी छोड़कर अपने गाँव चली गई। चिट्ठी-पत्र का सिलसिला खत्म हो गया।
मेरा विवाह राज माला के विवाह से पूरे पाँच साल बाद हुआ था और रेवती के विवाह के चार साल बाद। राज माला के पति की मधुमेह रोग के कारण आँखों की नज़र चली गई। मेरी नज़र पहले ही जा चुकी थी।
सुखजीत, रेवती और राज- ये तीन लड़कियाँ मेरी ज़िन्दगी में आईं और अभी भी मेरी स्मृतियों में जिन्दा हैं। तीनों का ठौर-ठिकाना मुझे मालूम है। पर मैंने कभी भी उनसे मिलने का यत्न नहीं किया। बस जो किया है, वह यह है कि उनके नाम का कोई न कोई अक्षर अथवा शब्दांग अपने संग जोड़कर मैं 'स्वराज' बन गया। मेरा यह नाम मेरे अलावा या तो कवि गुरदर्शन(स्वर्गीय) को पता था या मरे भान्जे सुदर्शन को। 1982 में जब 'एस'(स) के बारे में स्पष्टीकरण मैंने ट्रिब्यून के पत्रकार पटियाला वाले शेर सिंह गुप्ता को दिया तो भी मैं झूठ ही बोला था। उसने मेरे बताये अनुसार ट्रिब्यून में मेरा जो फ़ीचर लिखा, उसमें 'स्वराज' शब्द का अर्थ 'आज़ादी' से जोड़ा और बताया कि यह नाम 'एस. तरसेम' के 1942 में हुए जन्म के कारण रखा गया है। 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन शुरू हुआ था। यह आंदोलन स्वराज या आज़ादी से संबंधित था।
मेरी पत्नी का नाम सुदर्शना था। इसलिए मेरे कुछ लेखक मित्रों ने यह समझ लिया कि मैंने अपनी पत्नी के नाम वाला पहला अक्षर अपने नाम से जोड़ लिया है। मेरी पत्नी को भी कभी तो यह बात ठीक लगती और कभी वह सोचती कि इस 'स' या 'एस' के पीछे कोई रहस्य है। उसे भी शक था कि 'स' अक्षर किसी लड़की के नाम का पहला अक्षर है। पर मैंने अपने मुँह से कभी यह रहस्य नहीं खोला था। इसलिए यह पर्दा गृहस्थी की गाड़ी चलाने के लिए सहायक ही रहा। अब सवाल पैदा होता है कि स. तरसेम से एस. तरसेम कैसे बना। इसके साथ भी एक छोटी-सी घटना जुड़ी हुई है।
मैंने अपनी एक कहानी 'अकाली पत्रिका' को भेजी। अख़बार ने कहानी छाप तो दी पर स. तरसेम के स्थान पर मेरा नाम एस. तरसेम छाप दिया। मैंने अकाली पत्रिका के संपादक ज्ञानी शादी सिंह को पत्र लिखा। उसने उत्तर में लिखा कि 'स' से आम तौर पर अर्थ 'सरदार' लिया जाता है और किसी गुरसिक्ख के नाम से पहले 'स' सम्मान-सूचक शब्द का पहला गुरमुखी अक्षर है। भला कोई लेखक अपने नाम के आगे यह भूल कैसे कर सकता है। उन्होंने लिखा कि मैं अपने नाम के साथ 'एस' लिखा करूँ। सो, मैं स. तरसेम से एस. तरसेम बन गया।
अब जब मैं केन्द्रीय पंजाबी सभा के झंडे तले पंजाबी माँ-बोली को योग्य स्थान दिलाने के लिए चल रहे संघर्ष के दौरान, शिक्षा संस्थाओं और दफ्तरों द्वारा अंग्रेजी के किए जाने वाले अनावश्यक प्रयोग का विरोध करता हूँ तो कई अड़ियल ज्ञानी मेरे संग इस बात पर ही बहस पड़ते हैं कि मैंने स्वयं अपने नाम के साथ अंग्रेजी का अक्षर 'एस' लगा रखा है। कुछ तो मेरे द्वारा दिए गए स्पष्टीकरण से संतुष्ट हो जाते हैं पर कुछ मेरे स्पष्टीकरण को एक नाटक भी कह देते हैं। कुछ मित्र अभी चिट्ठी-पत्री के समय मेरा नाम स. तरसेम ही लिखते हैं। मुझे इसपर भी कोई एतराज़ नहीं। पर मैं कभी कभी सोचता हूँ कि क्यों न सिर्फ़ तरसेम ही लिखा करूँ। पर अब सुखजीत, रेवती और राज के चेहरे मेरे सामने आ खड़े होते हैं। मैंने उनके नामों के साथ ज़िन्दगी के इतने वर्ष गुजारे हैं। मेरी पत्नी का नाम भी संयोग से 'स' से शुरू होता है। उसकी याद भी इस नाम के साथ जुड़ी है। अब मैं एस. तरसेम नाम से दूर दूर तक जाना जाता हूँ। अब यह नाम ही ठीक है। जिन्हें इस नाम में कुछ गलत लगता है, वे मुझे माफ़ करें। मनुष्य भूलनहार है।
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1-गुरमुखी वर्णमाला का चौथा अक्षर 'स' जिसे 'ससा' कहा जाता है।

(जारी…)
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