समकालीन पंजाबी साहित्य की उत्कृष्ट कृतियों की तलाश

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Saturday, July 20, 2013

पंजाबी उपन्यास



''साउथाल'' इंग्लैंड में अवस्थित पंजाबी कथाकार हरजीत अटवाल का यह चौथा उपन्यास है। इससे पूर्व उनके तीन उपन्यास - 'वन वे', 'रेत', और 'सवारी' चर्चित हो चुके हैं। ''साउथाल'' इंग्लैंड में एक शहर का नाम है जहाँ अधिकतर भारत से गए सिक्ख और पंजाबी परिवार बसते हैं। यहाँ अवस्थित पंजाबी परिवारों के जीवन को बेहद बारीकी से रेखांकित करता हरजीत अटवाल का यह उपन्यास इसलिए दिलचस्प और महत्वपूर्ण है क्योंकि इसके माध्यम से हम उन भारतीय लोगों की पीड़ा से रू-ब-रू होते हैं जो काम-धंधे और अधिक धन कमाने की मंशा से अपना वतन छोड़ कर विदेशों में जा बसते हैं और वर्षों वहाँ रहने के बावजूद वहाँ की सभ्यता और संस्कृति का हिस्सा नहीं बन पाते हैं।

साउथाल
हरजीत अटवाल

हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव


46

मनिंदर स्विमिंग गए जगमोहन को अक्सर मिल जाया करती है, पर हैलोसे अधिक कभी कोई बात नहीं होती। जगमोहन को वह बहुत सुन्दर लगती है। जब वह इंग्लैंड आया था तो मनिंदर बहुत छोटी थी। जगमोहन ने कभी सोचा ही नहीं था कि यह बड़ी होकर इतनी सुन्दर निकलेगी। यदि पाला सिंह के परिवार के साथ निकटता न होती तो वह ज़रूर मनिंदर तक दोस्ती के लिए हाथ बढ़ाता। ग्रेवाल के साथ मनिंदर को लेकर बातें करने लगता है। ग्रेवाल पूछता है-
            फिर तुझे दूसरी औरतें हॉन्ट क्यों करने लग जाती हैं!
            जगमोहन सोच में डूब जाता है। कुछ देर बाद बोलता है-
            पता नहीं क्यों ?“
            तेरे मनदीप के साथ संबंध कैसे हैं ?“
            ठीक हैं, पर सर जी, मुझे घर के टूटने से बहुत डर लगता है। घर टूटने से बच्चों पर जो बीतती है, वह बहुत घिनौना है। मैं अक्सर सोचता हूँ कि यदि कहीं कोई गड़बड़ हुई तो मैं मुसीबत झेल लूँगा, किसी न किसी तरह घरवाली के साथ रहे जाऊँगा, पर बच्चों को अकेला नहीं छोड़ूँगा।
            कोई न कोई बात तो मनदीप में अधूरी है जो कि तुझे इन मनिंदरों में, सुखियों में या प्रीतियों में दिखाई देती है।
            शायद मनदीप में साहस की कमी है। वह अपने माता-पिता से ऐसे बँधी हुई है कि उनके बग़ैर कोई फ़ैसला ही नहीं कर सकती। और मुझे ये दूसरी औरतें अपनी मर्ज़ी का करती दिखाई देती हैं। शायद यही कारण हो।          
            जगमोहन बताता है, पर वह ग्रेवाल से यह छिपा जाता है कि एक शक-सा हर वक़्त उसके मन में तैरता रहता है कि शायद मनदीप के मन में कोई दूसरा है। एक तो मनदीप किसी भी बात पर उसका कभी भी अधिक विरोध नहीं करती जैसा कि आम पत्नियाँ किया करती हैं। घर में उसके हर फै़सले को ज्यों का त्यों मान जाती है और दूसरा यह कि सहवास के समय उसकी किसी तरह की सहभागिता नहीं होती जैसे शुरू शुरू में हुआ करती थी। जगमोहन ज़िन्दगी की गाड़ी चलाने के लिए यह सब अपने मन में दबा कर रखता है। इस बारे में वह सोचना भी नहीं चाहता।
            उसको ग्रेवाल की अब आदत-सी पड़ गई है। यदि कुछ दिन उसके साथ बातचीत न हो तो उसको कुछ खोया-खोया-सा लगने लगता है। ग्रेवाल के साथ शायद ऐसा नहीं है। उसको किसी तरफ़ खिसकना हो तो चुपचाप निकल जाता है। अब भी कई दिन हो गए हैं, वह ग्रेवाल को फोन किए जा रहा है। उसकी आन्सरिंग मशीन पर संन्देश छोड़ता है, पर ग्रेवाल की तरफ़ से कोई जवाब नहीं आ रहा। उसको लगता है कि शायद छुट्टियाँ होंगी और वह कहीं निकल गया होगा। शाम को वह उसके घर के आगे से गुज़रता है तो देखता है कि ग्रेवाल की कार हिली हुई है। इसका अर्थ है कि कार इस्तेमाल हुई है। इसका अर्थ कि ग्रेवाल आसपास ही है। शायद, घर में ही हो। ग्रेवाल का वज़न भी तो अधिक है। जगमोहन कई बार कह चुका है कि सर जी, वर्ज़िश किया करो। ज़रा वज़न घटाओ, पर ग्रेवाल हँस देता है। जगमोहन उसके घर की घंटी बजाता है। अंदर की हिलजुल से लगता है कि कोई घर में है। काफ़ी देर बाद ग्रेवाल दरवाज़ा खोलता है। उसका चेहरा उतरा हुआ है मानो बहुत दिनों से बीमार हो। जगमोहन एक़दम प्रश्न करता है-
            सर जी, ठीक तो हो ?...क्या हालत बना रखी है!
            ठीक हूँ, सैटी पर पड़े-पड़े को नींद आ गई थी।
            मैंने बहुत फोन किए, आपने उठाये ही नहीं।
            पहले अंदर आ जा, फिर गिले करना।
            जगमोहन उसके पीछे पीछे अंदर आ जाता है। घर की हालत देखकर कहता है-
            सर जी, कोई सफ़ाई वाली औरत रख लो। सवेरे दो घंटे आकर घर संवार दिया करेगी।
            नहीं यार, ठीक नहीं बैठती। पहले रखी थी। मेरा क्या है, डाल डाल पर डेरा अपना।
            वो तो ठीक है, पर यह जो इधर-उधर बिखेर रखा है, यह भी आपके स्वभाव को सूट नहीं करता।
            यह छोड़ सब, बता चाय पियेगा ?“
            चाय! ज़रा घड़ी देखो, यह भला चाय पीने का समय है ? आओ, ज़रा पब की तरफ़ चलते हैं। मुझे भी बहुत दिन हो गए वहाँ गए। थोड़ा दुनिया में विचरें। आओ देखते हैं कि शनिवार को लोग कैसा बिहेव करते हैं।
            वह चहक़ रहा है। उसकी ओर देखता ग्रेवाल भी अच्छे मूड में आ जाता है। वैसे तो जगमोहन पब में कम ही जाता है, पर कभी कभी घर में बैठे बैठे बोर होने लगे तो चला भी जाता है। ऐसे ही ग्रेवाल भी पब का शौकीन नहीं है, पर कोई कंपनी मिल जाए तो ठीक है। ग्रेवाल कहता है -
            अगर हो सके तो चाय बना। मैंने सवेर का कुछ खाया-पिया नहीं। बस, सोकर वक़्त गुज़ारा है। तब तक मैं तैयार होता हूँ।
            जगमोहन रसोई में जाकर चाय बनाने की तैयारी करने लगता है। वह ग्रेवाल की रसोई से परिचित है। पहले भी कई बार यूँ ही चाय बनाता रहा है। वह फ्रिज खोलकर देखता है। दूध ख़राब हो चुका है। उसकी तारीख़ निकल चुकी है। वह ऊँचे स्वर में कहता है-
            सर जी, अगर चाय पीनी होती है तो दूध तो लाकर रखा करो।
            चल यार, छोड़। पब में चलकर बियर ही पियेंगे।
            कुछ ही देर में ग्रेवाल टाई लगाकर और सूट पहनकर तैयार हो जाता है। बँधी-बँधाई पगड़ी को सिर पर रख लेता है। नई बाँधने का अब समय नहीं। कार में बैठते ही जगमोहन कहता है-
            कोई सेंट इस्तेमाल करते हो ?“
            मैं तो कोई सेंट इस्तेमाल नहीं करता।ग्रेवाल कहता है।
            जगमोहन जे़ब में से सेंट की एक शीशी निकालकर उसके कपड़ों पर छिड़कते हुए कहता है-
            इस्तेमाल क्यों नहीं करते ? लो रखो, इस्तेमाल किया करो। मुझे कहीं से फ्री के सेंट मिल गए थे। जब बाकी तैयारी शिकारियों वाली है तो सेंट की कसर क्यों छोड़ें।
            शिकारी तो भाई तू है, तू लड़कों जैसा है। मेरा अब समय नया शिकार करने का नहीं रहा। चीते की तरह किसी दरख़्त पर टंगा पुराना मांस हाथ लग जाए तो खा लेते हैं, नहीं तो भूखे ही ठीक हैं।
            कहते हुए ग्रेवाल हँसता है। उसके दिल में आता है कि शीला के विषय में जगमोहन से बातचीत साझी करे, पर उससे की नहीं जाती। जब तक मूड बनाता है, तब तक पब आ जाता है।
            द ग्लोस्टरभरा पड़ा है। कई परिचित चेहरे बैठे दिखाई दे रहे हैं। एक बार तो जगमोहन सोचता है कि यहाँ क्यों आए। ग्रेवाल कहता है-
            आज तो पब अर्ली ही भरा पड़ा है।
            सर जी, लोग आपकी तरह अंदर घुसकर नहीं बैठते।
            वे गिलास भरवाते हैं। जगमोहन का दिल करता है कि कुछ पल के लिए पाला सिंह के पास जाकर बैठे, परंतु उसको पता है कि पाला सिंह ग्रेवाल को पसंद नहीं करता और कोई बात कहते हुए भी मिनट नहीं लगाता। पाला सिंह उसकी ओर देखकर मुस्कराता भी है, पर तभी दिलजीत उसको अपने पास आने का इशारा करता है। अब दिलजीत भी काउंसलर बन चुका है। उसका अख़बार नये अक्सबंद हो गया है। उसका काउंसलर बन जाना श्याम भारद्वाज को बहुत चुभता है और श्याम भारद्वाज सहजता से कहने लगता है कि उसकी नज़र तो एम.पी. शिप पर है। दिलजीत उन दोनों से हाथ मिलाता है। बाकी लोगों से भी हैलो-हैलोहोती है। ग्रेवाल दिलजीत को काउंसलर बनने की बधाई देता है। सोहनपाल कहता है-
            ग्रेवाल साहब, आप आओ अब मैदान में। अब अपने काउंसलरों की बहुत ज़रूरत है।
            मैं तो एकबार आकर ही पछता रहा हूँ। तुम लोग जगमोहन को अपने संग ले लो। पॉलटिक्स को यंग ब्लॅड की ज़रूरत है।
            न सर जी, मैं इस मुसीबत में नहीं पड़ता।
            जगमोहन दोनों हाथ इन्कार में हिलाते हुए कहता है।
            उनके बीच भाई सुरिंदर सिंह भी आकर शामिल हो जाता है। पहले वह खालिस्तान का पक्का समर्थक था और अपना सारा ध्यान उस तरफ़ दे रहा था। अब जब कि खालिस्तान का शोर ठंडा पड़ चुका है तो उसके पास करने के लिए कुछ नहीं रहता, इसलिए वह लेबर पार्टी में शामिल हो जाता है। अब काउंसलर के लिए हाथ-पैर मारता घूम रहा है। वह आते ही दिलजीत से कहता है-
            तुम साउथाल के प्रदूषण को लेकर कौन से क़दम उठा रहे हो ?“
            दिलजीत को भाई सुरिंदर सिंह का प्रश्न अच्छा नहीं लग रहा। वह कुछ खीझ जाता है और कहता है-
सिंह जी, किस प्रदूषण की बात करते हो। साउथाल में कोई ऐसा प्रदूषण नहीं जिसका हमें पता न हो।
            ये साली झुंड की झुंड तो लाइटों पर खड़ी होती हैं।
            उसकी बात सुनकर सभी हँसते हैं। सोहनपाल बोलता है-
            इनका इशारा प्रॉस्टीच्युशन की तरफ़ है। इसका हल भाई साहब यह है कि तुम इनके ग्राहक़ बनने बंद कर दो, ये अपने आप ही खड़ा होना बंद कर देंगी।
            एक बार तो ठहाका मच जाता है। भाई सुरिंदर सिंह गुस्से में आकर बोलता है-
            तुझे मैं ऐसा दिखाई देता हूँ ?“
            भाई साहब, मेरी मुराद पूरे साउथाल के लोगों से है जिसमें मैं भी आता हूँ।
            भाई सुरिंदर सिंह का गुस्सा शांत होने लगता है। दिलजीत कहता है-
            यह साउथाल की बड़ी समस्या नहीं है, पर फिर भी पुलिस इस बात से अवेयर है। साउथाल की और बहुत सारी प्रॉब्लम्ज़ हैं। देखो, कूड़ा-कचरा जगह जगह पड़ा है। ट्रैफिक की प्रॉब्लम है। ड्रग भी अब एक प्रॉब्लम है।
            अपने कल्चर को संभालने की भी एक प्रॉब्लम है। अपनी पंजाबी जुबान की भी समस्या है। और भी कितना कुछ है। एक और समस्या है कि साउथाल में फ्लैट पर फ्लैट बनाये जा रहे हैं। दिनोंदिन साउथाल को संकरा किया जा रहा है।
            यह कसूर तो काउंसिल का है जो नक्शे पास करती है।
            नक्शे काउंसिल यूँ ही पास नहीं कर देती, काउंसलरों को चढ़ावा चढ़ता है।उनकी बात सुनता एक अजनबी-सा व्यक्ति जो साथ वाले टेबल पर बैठा है, कहता है।
            नक्शे पास करने वाली बात जगमोहन ने कही है, वह उस व्यक्ति से पूछता है-
            चढ़ावे से आपका क्या मतलब है ?“
            मतलब यह कि ये काउंसलर रिश्वत लेकर नक्शे पास किए जाते हैं। ये देखो, साउथाल ब्राडवे पर थोड़ी-सी जगह पर कितने फ्लैट बनाने की आज्ञा मिल गई। देखो यह कनजस्टिड जगह है। फ्लैटों का मालिक खुद बताता है कि पौंडों का भरा बैग सामने रखा और नक्शा पास हो गया।
            उसके इस इल्ज़ाम पर दिलजीत का चेहरा कुछ अजीब-सा हो जाता है। शायद, इल्ज़ाम लगाने वाले व्यक्ति को पता नहीं कि दिलजीत काउंसलर है। जगमोहन उसका बचाव करते हुए कहता है-
            भाई साहब, यह इल्ज़ाम आप बिना किसी सुबूत के लगा रहे हो।
            नहीं जी, जिस आदमी ने पैसे दिए हैं, उसी के शब्द दोहरा रहा हूँ। बाकी जिन सुबूतों की बात आप करते हैं, जिन लोगों को ये काम करने होते हैं, वे क्या सुबूत छोड़कर जाते हैं!
            एक अन्य व्यक्ति उठते हुए बताने लगता है-
            भाजी, मैं अपने एक काउंसलर के पास गया कि मैं घर को थोड़ा बढ़ाना चाहता हूँ। वो बोला कि नक्शा पास करा दूँगा, पर पाँच सौ पौंड लगेगा। मेरी गवाही लो और जहाँ कहते हो, छाती ठोककर कहूँगा और उस काउंसलर का नाम भी बता दूँगा।
            जगमोहन सोचने लगता है कि इस सबको रोका कैसे जाए। बात बिखर रही है। वह बात बदलने के लिए कहता है-
            आप लोग साउथाल के ट्रैफिक के बारे में तो कोई बात ही नहीं कर रहे।
            जगमोहन के पीछे पीछे सोहनपाल भी स्थिति को संभालने के लिए सुरिंदर सिंह को संबोधित होता है-
            भाई जी, किसी दूसरे नुक्ते पर उंगली रखो कि हम बात कर सकें।
            हमारे बच्चे अपने आप को इंडियन नहीं समझते।
            वे ठीक हैं। वे इंडियन है ही नहीं। वे ब्रिटिश इंडियन हैं।
            भाई जी, ये बच्चे तो शायद अपने आप को इंडियन कह लें, पर इंडिया के कई मुख्यमंत्री तो भारत का संविधान जलाकर भी भारत में मुख्यमंत्री बने फिरते हैं।
            आप इस मुल्क की सियासत को इंडिया की सियासत से नहीं मिला सकते। वहाँ तो पार्लियामेंट के कितने ही मेंबरों पर रेप, मर्डर, डकैती जैसे गंभीर मुक़दमे चल रहे होते हैं और ये लोग देश का कानून बना रहे होते हैं। वहाँ की जनता को भी करप्ट लीडरों की आदत पड़ चुकी है। हमें इस मुल्क में इसके स्टैंडर्ड को मेनटेन करने के लिए यत्नशील होना चाहिए।ग्रेवाल अपने विचार प्रकट करता है।
फिर सोहनपाल बोलने लगता है-
सियासत में पड़ने के लिए तो ज़रूरी बात है कि लोकल समस्याओं से वाकिफ़ होना।
उसका संकेत भाई सुरिंदर सिंह की ओर ही है कि साउथाल के लोगों की कठिनाइयों के बारे में उसकी जानकारी अभी कम है। ग्रेवाल फिर कहता है-
            इस समय इस देश में हमारे पंजाबी लोगों की बहुत बड़ी ज़रूरत अपने कल्चर और अपनी बोली को संभालने की है। गुरुद्वारों पर हमें प्रैशर बनाना चाहिए कि पंजाबी पढ़ाने की ओर ध्यान दें।
            हर वीकएंड पर तो स्कूल लगता है।
            बहुत कम बच्चे ही होते हैं। मैं तो खुद पंजाबी पढ़ाने गुरुद्वारे में जाता रहा हूँ। लोग शौकिया ही बच्चों को भेजते हैं या फिर मजबूरी-सी के साथ। पंजाबी की ज़रूरत महसूस नहीं की जा रही।
            और हमारे मुकाबले मुसलमान देखो, बच्चों को अपनी जुबान कैसे पढ़ाते हैं।
            वे भी अपनी जुबान नहीं पढ़ाते, उर्दू पढ़ाते हैं या फिर कुरान सिखाते हैं।
            पंजाबी के मुद्दई तो मुसलमान भी बहुत बना करते हैं।
            वैसे बस जे़हनी अय्यासी के लिए ही।
            यह ग्रेवाल जी की बात ठीक है। साउथाल को अब तक पंजाबी टाउन डिकलेयर कर दिया जाना था, अगर एक मुसलमान काउंसलर टांग न अड़ाता। बना-बनाया काम उसने ख़राब कर दिया।दिलजीत कहता है।
            साथ वाले ग्रुप में बैठा एक व्यक्ति अपने दिल की बात कहने के उद्देश्य से उनकी तरफ़ घूमते हुए बोलता है-
            मुझे भी अपना एक अनुभव अपने साथ साझा कर लेने दो। मेरे घर के सामने एक पेड़ था। मैंने काउंसिल को बहुत लिखा कि मेरी कार अंदर नहीं आ पाती, इस पेड़ को काट दो, पर मेरी किसी ने नहीं सुनी। मैं दो साल काउंसिल से लड़ा, पर कुछ न बना और हार कर मैंने वो घर ही बेच दिया। एक काउंसलर ने खरीदा मेरा घर, उसने जिसने किसी लालच में आकर पिछले दिनों पार्टी बदली है और उसने महीने के अंदर उस पेड़ का सफ़ाया करवा दिया।
(जारी…)

Tuesday, June 4, 2013

पंजाबी उपन्यास



''साउथाल'' इंग्लैंड में अवस्थित पंजाबी कथाकार हरजीत अटवाल का यह चौथा उपन्यास है। इससे पूर्व उनके तीन उपन्यास - 'वन वे', 'रेत', और 'सवारी' चर्चित हो चुके हैं। ''साउथाल'' इंग्लैंड में एक
शहर का नाम है जहाँ अधिकतर भारत से गए सिक्ख और पंजाबी परिवार बसते हैं। यहाँ अवस्थित पंजाबी परिवारों के जीवन को बेहद बारीकी से रेखांकित करता हरजीत अटवाल का यह उपन्यास इसलिए दिलचस्प और महत्वपूर्ण है क्योंकि इसके माध्यम से हम उन भारतीय लोगों की पीड़ा से रू-ब-रू होते हैं जो काम-धंधे और अधिक धन कमाने की मंशा से अपना वतन छोड़ कर विदेशों में जा बसते हैं और वर्षों वहाँ रहने के बावजूद वहाँ की सभ्यता और संस्कृति का हिस्सा नहीं बन पाते हैं।

साउथाल
हरजीत अटवाल

हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव


पैंतालीस

ग्रेवाल की नौकरी ऐसी है कि छुट्टियाँ ख़ासी हो जाती हैं। वह घूमने-फिरने का शौकीन है और सारी दुनिया घूमा है। इतना घूमा है कि अब मन ऊबा पड़ा है। फिर भी, छुट्टियों में उससे घर में नहीं बैठा जाता। घर के अंदर अकेलापन अब उसको तंग करने लगता है। कभी समय था कि वह सोचता था कि वह कहीं भी उम्र भर का एकांत काट सकता है, पर अब वह अक्सर सोचने लगता है कि कोई साथ हो।
            मित्रों में अब जगमोहन ही उसके निकट है, पर जगमोहन का अपना परिवार है जिसकी उसे देखभाल करनी होती है। कालेज के दोस्त या विद्यार्थी कालेज में ही रह जाते हैं। दोस्त लड़कियाँ तो आती-जाती रहती हैं, पर कोई स्थायी रूप से दोस्त नहीं बन रही। स्थायी दोस्ती में झिझक-हिचक भी तो बहुत होती है। सोचते सोचते कई बार ग्रेवाल हैरान रह जाता है कि एक प्रकार से उसने सारे सामाजिक रिश्ते त्यागे हुए हैं, पर फिर भी सामाजिक बंधनों की उसको बहुत चिंता है। उसके भाइयों की बेटियाँ भी बड़ी हो रही है। कोई ग़लत काम या असामाजिक काम करते समय वे लड़कियाँ खुद-ब-खुद सामने आ खड़ी होती हैं। यद्यपि उसने अपने भाइयों का त्याग किया हुआ है, पर मन में अभी भी कहीं अपनत्व है। उसको भाइयों से यही गुस्सा है कि उसकी इच्छा के बग़ैर ही इतने बड़े कारोबार के मालिक बन बैठे हैं और यदि उसकी इच्छा पूछ भी लेते तो वह कभी इन्कार न करता। वह भाइयों के घर नहीं जाता और न ही उन्हें अपने घर में घुसने देता है, परंतु उनके बच्चे कहीं मिल जाएँ तो पूरे मोह-प्यार से मिलता है।
            कभी कभी उसको औरत की तलब होने लगती है। कभी कभी तो इस तलब को वह बड़ी शिद्दत से महसूस करने लगता है। उसका मन होता है कि कालगर्ल को घर बुला ले। कई बार साउथाल का चक्कर लगाता है। रात में जगह-जगह वेश्याएँ खड़ी होती हैं। सभी एशियन होती हैं। वो भी पंजाबी। कई बार बत्ती पर कार रुकते ही लड़की आकर पूछती है-
            यू फैंसी बिजनेस ?“
            ग्रेवाल मुस्करा देता है। कुछ कहे बग़ैर लड़की की तरफ़ देखता रहता है। तब तक लाइट ग्रीन हो जाती है और वह कार बढ़ा लेता है। कभी वह दाढ़ी रंग लेता है और कभी वैसे ही रहने देता है। छुट्टियों पर जाना हो तो दाढ़ी रंगनी आवश्यक हो जाती है। वहाँ स्त्रियाँ आम मिल जाती हैं। सफ़ेद दाढ़ी देखते ही औरत की मर्द के प्रति नरमी उभर आती है और यह नरमी ग्रेवाल को पसंद नहीं होती। उसको पता है कि वह अभी बूढ़ा नही हुआ है। वह चाहता है कि औरत उसके साथ सख़्ती से ही पेश आए।
            पहले उसको घर में अकेलापन इतना तंग नहीं किया करता था। पिछले दिनों उसने एक किताब पढ़ी है। किताब में एक पंक्ति है कि - जो व्यक्ति रात को कमरे में अकेले सोते हैं, वे दया के पात्र होते हैं।वह अपने शयन-कक्ष में तो क्या, पूरे घर में अकेला सोता है।
            जब से शीला स्पैरो ने इधर आने की बात की है, तब से उसके अंदर एक अजीब-सा चाव है। शीला से उसकी पुरानी मित्रता है। तब से जब शीला ने अभी कविता लिखनी शुरू नहीं की थी। ग्रेवाल उसको प्यार से चिड़िया कहा करता था। शीला उससे विवाह करवाना चाहती थी, पर ग्रेवाल का विवाह किसी रिश्तेदार ने कहीं ओर पक्का किया हुआ था। पिता के मरने के बाद उस रिश्तेदार के काफ़ी अहसान ग्रेवाल के सिर पर थे जिन्हें उतारने के लिए ग्रेवाल को विवाह करवाना ज़रूरी था। विवाह हो गया। वह इंग्लैंड में आ गया। उधर शीला वियोग में कविता लिखने लग गई। शीला ने अंग्रेजी में एम.ए. की और एक कालेज में पढ़ाने लग पड़ी। शीला का विवाह हो गया। वह कविता लिखते लिखते शीला से शीला स्पैरो बन गई। पहले अंग्रेजी में लिखती थी, फिर पंजाबी में भी लिखने लगी। काफ़ी साल तक ग्रेवाल का उससे नाता टूटा रहा। फिर कभी कभी उसका नाम किसी अख़बार में या पत्रिका में पढ़ने को मिल जाता, जहाँ उसकी कविता या कोई लेख छपा होता। उसको शीला का नाम पढ़कर अजीब-सी खुशी होती।
            वह छुट्टियाँ बिताने इंडिया बहुत कम जाता है। इंडिया में उसका कोई है भी नहीं। गाँव में उसका कोई परिचित नहीं रहा कि जिसके संग उठ-बैठ सके। उसके लिए तो पूरा इंडिया ही पराया है। पूरे इंडिया में वह शीला स्पैरो को ही जानता है जो कि अपने पति और एक बेटी के साथ एक यूनिवर्सिटी के किसी कैंपस में रहती है।
            एक बार वास-प्रवासमें शीला की कविताएँ छपती हैं और साथ ही, उसका पता भी  - शीला स्पैरो, अंग्रेजी विभाग, पंजाब यूनिवर्सिटी, चंडीगढ़। वह उसी वक़्त शीला को ख़त लिखने बैठ जाता है। संक्षिप्त-सा बहुअर्थी ख़त लिख मारता है। दो हफ़्ते बाद शीला का जवाब आ जाता है। ख़तों का सिलसिला शुरू हो जाता है। ग्रेवाल को इंडिया अपना-अपना लगने लगता है। उसके लिए इंडिया फिर से बस जाता है। और खुशी की बात यह कि शीला की अपने पति से अलहदगी हो चुकी है। ग्रेवाल की आँखों में कई सपने जाग उठते हैं। वह दौड़ता हुआ भारत पहुँचता है। दिल्ली से सीधा चंडीगढ़। यूनिवर्सिटी और शीला का घर। घर का दरवाज़ा एक जवान लड़की खोलती है। शीला जैसी आँखों और शीला जैसी नाक वाली लड़की। वह भूल ही गया कि वक़्त कितनी तेज़ी से आगे निकल आया है। ग्रेवाल की उतावली ठंडी पड़ जाती है। शीला मिलती है, पर दोनों एक-दूसरे को बाहों में नहीं ले सकते। मोना उनके बीच में है। मोना को भी इतनी समझ नहीं आ रही कि वह उन दोनों के बीच से हट जाए। हो सकता है, वह कुछ गवां देने से डरती हो।
            दो दिन वह शीला के पास रहता है। पहले कुछ नहीं बोलता, पर चलते वक़्त कहता है-
            चल चिड़िया, घर बसायें।
            शीला हँसती है। उसको पता नहीं चलता कि शीला क्यों हँसी है। अपने आप को इस उम्र में चिड़िया कहने पर या फिर घर बसाने की पेशकश पर। वह कहती है-
            घर बसाने के मौसम में तो वह कोई जट्टी-सी पकड़ लाया था कहीं से।
            भला, घर बसाने का भी मौसम होता है ?“
            पश्चिमी समाज में नहीं होता होगा, पर यहाँ होता है। मुझे मोना को डॉक्टरी करवानी है।
            ग्रेवाल कुछ नहीं कहता। चला आता है। पत्रों का सिलसिला जारी रहता है, पर उसको लगता है कि अब पत्र लिखना खोखले हथियार चलाने जैसा ही है। समय गुज़रता जाता है। ग्रेवाल और अधिक अकेला होता जाता है। वह एक बार फिर शीला स्पैरो के पास जाकर कुछ रातें बिता आता है। उसको इंग्लैंड आने का निमंत्रण दे आता है। शीला नहीं आती। वह कहती है कि अभी समय उपयुक्त नहीं है। फिर वह निमंत्रण देने से ऊब जाता है। इंडिया जाना भी अच्छा नहीं लगता। कनेरी आइलैंड पर जवान औरतें घूमा करती हैं। पूरा स्पेन और इटली रंगीनियों से भरा पड़ा है। कभी कभी थाईलैंड के बारे में पढ़ता है और वहाँ जाने की योजनाएँ बनाने लगता है।
            एक दिन शीला का पत्र आता है कि मोना ने डॉक्टरी पूरी कर ली है। वह फोन करके पूछता है-
            चिड़िया, अब क्या ख़याल है ?“
            तुम्हें पता है कि मोना अपने फॉदर की करोड़ों की सम्पत्ति की इकलौती वारिस है। मैं नहीं चाहती कि मेरे कारण मोना के किसी हक़ पर असर पड़े।
            असर कैसे पड़ सकता है ?“
            क्योंकि हमारा अभी तलाक नहीं हुआ।
            मैं तुम्हें विवाह करवाने के लिए नहीं कह रहा, यहाँ आकर मेरे साथ रहने को कह रहा हूँ।
            मैं सोचूँगी।
            ग्रेवाल को कुछ आस बंधने लगती है, पर शीला फिर से चुप्पी धारण कर लेती है। उसके पत्र का उत्तर भी नहीं देती। फोन नंबर भी उसका बदला हुआ है।
            एक वर्ष से भी अधिक समय के बाद शीला का पत्र आता है जिसमें उसने इंग्लैंड आने की इच्छा प्रकट की है। परंतु चिड़िया बनकर नहीं अपितु शीला स्पैरो बनकर। शीला स्पैरो पंजाबी की एक स्थापित कवयित्री। ग्रेवाल के अंदर पुनः उमंगें हिलोरे लेने लगती हैं। ऐसे तो ऐसे ही सही। वह अपने घर को ध्यान से देखने लगता है जहाँ आकर शीला को बैठना, उठना और चलना है। अपने निशान छोड़कर जाने हैं। वह चाहता है कि शीला एक़दम जहाज़ पर चढ़ जाए।
            पर एक़दम जहाज़ पर चढ़ना सरल नहीं है। वीज़ा लेना पड़ेगा। वीजे़ के लिए आने का कारण होना चाहिए। वैसे तो आने का कारण या किसी भी देश में जाने का कारण वहाँ की सैर आदि ही काफ़ी होता है। ग्रेवाल ऐसा ही तो किया करता है। जहाँ भी जाना होता है, वीज़ा की ज़रूरत पड़े तो चुपचाप उस मुल्क की एम्बेसी चला जाता है। परंतु इंडिया में बहुत से लोग ऐसा नहीं करते। उन्हें सीधे वीज़ा लेने जाने में डर लगता है कि कहीं मना ही न हो जाए। ग्रेवाल पूरा ब्यौरा शीला को लिखता है कि उसका वेतन काफ़ी है, उसकी सम्पत्ति भी है, बैंक में पैसे भी हैं। वह दुनिया की सैर के लिए हर प्रकार से योग्य है। उसको इधर से किसी के स्पाँसरशिप की या अन्य बहाने की आवश्यकता नहीं है। लेकिन जो शीला के मन में है, वह ग्रेवाल नहीं समझ पा रहा। शीला, शीला स्पैरो है। यदि कोई लेखक संस्था उसको आमंत्रित करेगी तो उसका मान-सम्मान बढ़ेगा। पंजाबी के कितने ही लेखक और लेखिकायें इंग्लैंड का दौरा करने जाते हैं और उनकी बड़ी बड़ी ख़बरें प्रकाशित होती हैं। सो, वह चाहती है कि उसको कोई साहित्यिक सभा या संस्था आमंत्रित करे तो वह आए और वह सभा-संस्था उसका मान-सम्मान भी करे जिसकी वह हक़़दार है। किसी बड़े साहित्यिक आयोजन की वह अध्यक्षता भी करे, समाचार-पत्रों में उसकी चर्चा हो। उसको अपने साहित्यिक क़द का पता है और उसके अनुसार ही वह इंग्लैंड का दौरा करना चाहती है।
            ग्रेवाल ने परवाना के घर जाकर उससे बात की हुई है। परवाना कहता है कि जब इन गर्मियों में बड़ा समारोह करवाया जाएगा, तब शीला स्पैरो को भी निमंत्रण भेज दिया जाएगा। ग्रेवाल इसी हिसाब से मानसिक तौर पर तैयार हो रहा है। परंतु वह दुबारा परवाना से नहीं मिलता और फोन भी नहीं करता। वह यह समझता है कि परवाना ही संस्था का कर्ताधर्ता है, वह कुछ समय पहले उससे मिलेगा और काम हो जाएगा। वह मई महीने के मध्य में परवाना से मिलता है और कहता है-
            परवाना साहब, कब करवा रहे हो फंक्शन ?“
            इस वर्ष हमारी सभा का फंक्शन कैंसिल हो गया है क्योंकि कैनेडा में मेरे सम्मान में एक बड़ा कार्यक्रम हो रहा है। मुझे तो इसबार वहाँ जाना है। अगले वर्ष देखेंगे।
            ग्रेवाल खड़ा उसकी ओर देखता रह जाता है। वह पूछता है-
            वो जो तुमने शीला स्पैरो को निमंत्रण भेजने का वायदा किया था, उसका क्या होगा ?“
            जी, निमंत्रण पत्र भेज देते हैं। निमंत्रण तो महज़ एक कार्रवाई है, प्रोग्राम करवाना कोई ज़रूरी नहीं।
            ग्रेवाल फोन पर सारी बात शीला को बताता है, पर शीला को इस तरह का निमंत्रण नहीं चाहिए। यदि कोई कार्यक्रम ही नहीं तो वह आकर क्या करेगी।
            शीला का आना मुल्तवी हो जाता है। इस प्रकार कार्यक्रम के रद्द हो जाने पर शीला के अहं को बहुत चोट पहुँचती है। उसको ग्रेवाल पर भी गुस्सा आ रहा है कि उसने पूरी जिम्मेदारी नहीं निभाई। इस तरह अचानक ही फंक्शन कैंसिल होते हैं। उसको इंग्लैंड के लेखक भी बहुत गै़र-जिम्मेदार लगते हैं। उसने यह कभी नहीं सोचा था कि ये लोग इतने अविश्वसनीय भी हो सकते हैं। यह तो शुक्र है कि उसने अभी अधिक तैयारी नहीं की थी। बहुत से लोगों के साथ अपने जाने की बात भी साझी नहीं की। ग्रेवाल के तो हौसले ही पस्त हो जाते हैं। उसकी योजनाएँ बनी-बनाई रह जाती हैं। उसके सपनों पर पानी फिर जाता है। वह तरह तरह के दिलासे देकर अपने दिल को स्थिर करने का यत्न करने लगता है।
            वह वीरवार को कालेज से लौटकर सैटी पर ही पड़ जाता है। वहीं सोया रहता है। अगले दिन शुक्रवार भी दिनभर पड़ा रहता है। शाम को उठकर नहाता है और कार लेकर केन्द्रीय लंदन की ओर निकल जाता है। रेड लाइट एरिये का चक्कर लगता है, पर कहीं कार नहीं रोकता। दो घंटे घूमकर वापस लौट आता है। साउथाल की सड़कों पर भी चक्कर लगाता है। कहीं कोई लड़की खड़ी नहीं मिलती, पता नहीं कहाँ मर गईं सब। वह सोचता है, घर पहुँचकर किसी कॉलगर्ल को फोन करेगा। कुछ वर्ष पहले वह एक पंजाबी लड़की को बुला लिया करता था। घर आकर वह उस कॉलगर्ल का फोन नंबर तलाशने की कोशिश करता है, पर नंबर नहीं मिलता।
            वह शनिवार का पूरा दिन भी सैटी पर ही गुज़ार देता है।
(जारी…)