समकालीन पंजाबी साहित्य की उत्कृष्ट कृतियों की तलाश

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Saturday, July 10, 2010

आत्मकथा



एक नेत्रहीन लेखक की आत्मकथा

धृतराष्ट्र
डॉ. एस. तरसेम
हिन्दी अनुवाद : सुभाष नीरव
चैप्टर-10(शेष भाग)


तपा वापसी/मौड़ मंडी

छुट्टियों के बाद लाला कर्म चंद की ट्यूशनों की दुकानदारी का पहला दौर शुरू हो गया था। अंग्रेजी की ट्यूशन के लिए लाला कर्म चंद मेरे नाम की सिफ़ारिश करता। विद्यार्थी स्वयं भी मेरे पढ़ाने के तरीके को देखकर मेरे पास खिंचे आ रहे थे। दसवीं कक्षा के दोनों सेक्शन को मैं सामाजिक शिक्षा पढ़ाता था और नौवीं कक्षा के एक ही सेक्शन जिसमें सत्तर विद्यार्थी थे, को अंग्रेजी। आठवीं कक्षा के एक सेक्शन को अंग्रेजी पढ़ाना भी मेरे पास था। हैड मास्टर खुंगर के पास दसवीं के दोनों सेक्शन अंग्रेजी के थे। वह कभी पीरियड नहीं छोड़ता था और न कभी किसी अध्यापक को छोड़ने देता था। लेकिन उसे अंग्रेजी का कोई सफल अध्यापक नहीं कहा जा सकता। वह विद्यार्थियों को रट्टा लगवाता था। रोज़ दसवीं के दोनों सेक्शनों के विद्यार्थियों को अंग्रेजी का एक आधा लेख, कहानी या पत्र(कम्पोजिशन) याद करने के लिए कहता और अगले दिन लिखवाता। मूल्यांकन और निरीक्षण के लिए वह कापियाँ हम चारों बी.एड. के अध्यापकों में बांट देता। मेरे हिस्से भी 12 से 15 कापियाँ आतीं। मास्टर महिंदर सिंह और राधा कृष्ण बड़े ध्यान से कापियाँ देखते। जिस गाईड में से विद्यार्थियों ने रट्टा लगाकर वह कम्पोजिशन लिखी होती, पहले उसमें से उससे संबंधित कम्पोजिशन पढ़ते। अपने स्तर पर वह बड़े ध्यान से हैड मास्टर की यह बेगार करते। दोनों हैड मास्टर से थर-थर कांपते।
मेरे पास आठवीं और नौवीं की अंग्रेजी होने के कारण मेरा अपना कापियाँ जाँचने का काम ही काफी होता। मुझे वह काम भी पहाड़ लगता। मैं जो लिखने का काम विद्यार्थियों को देता, उस काम का तौर-तरीका हैड मास्टर से बिलकुल भिन्न था। मैं पाठ्य पुस्तकों के अलावा अधिक ज़ोर पंजाबी से अंग्रेजी ट्रांसलेशन और ग्रामर पर देता। विद्यार्थियों को ज़ैड के निब से लिखने के लिए कहता। स्याही भी बहुत गहरी इस्तेमाल करने की पक्की हिदायत दे रखी थी। हालांकि अंग्रेजी 'जी' के निब से लिखने का प्रचलन था, पर 'ज़ैड' का निब मोटा होने के कारण अक्षर मोटे मोटे लिखे जाते। इस प्रकार मुझे कापियाँ जाँचने में सुविधा होती। कापियाँ भी मैं सिर्फ दो या तीन होशियार विद्यार्थियों की देखता और शेष कापियाँ होशियार विद्यार्थी देखा करते। मैं सिर्फ़ हस्ताक्षर करके नीचे तारीख़ डाल देता। विद्यार्थियों की सहायता भी मैं इसलिए लेता था क्योंकि इतनी कापियाँ मैं देख ही नहीं सकता था। मैं तो पाँच-सात कापियाँ भी बड़ी मुश्किल से देख पाता। पाँच-सात कापियाँ जाँचने के बाद ही मेरी आँखों के आगे भंबू तारे से घूमने लगते। किताब का एक आधा पन्ना पढ़ना भी मेरे लिए कठिन था। कक्षा में पाठ्य पुस्तक मैं स्वयं नहीं पढ़ता था, विद्यार्थियों से पढ़वाता था। मैं सिर्फ़ कठिन शब्दों के अर्थ बताता। वाक्य पूरा होने पर अंग्रेजी वाक्य की पंजाबी कर देता। मेरे अन्दर आत्मविश्वास होने के कारण विद्यार्थियों को इस बात का पता ही नहीं चलता था कि मैं विद्यार्थियों को किताब पढ़ने के लिए इसलिए कहता हूँ क्योंकि मुझे स्वयं किताब पढ़ना मुश्किल लगता है। अंग्रेजी की किताब पढ़ने के लिए मैं होशियार विद्यार्थियों को ही कहता। यदि किसी शब्द का विद्यार्थी सही उच्चारण नहीं कर पाते, तो मैं किसी अन्य विद्यार्थी का रोल नंबर बोलकर उस हिज्जे को बताने के लिए कहता और फिर मैं उस शब्द का सही उच्चारण बताता। उस शब्द को दो या तीन बार दोहरवाता। इस प्रकार पढ़ने में ढीले विद्यार्थियों को भी मेरे पढ़ाने का यह ढंग अच्छा लगता। कई बार मैं पूरे का पूरा वाक्य विद्यार्थी के पढ़ने के बाद बोलता। इस प्रकार मैंने अपनी इस कमज़ोरी को छिपा कर अपनी योग्यता में बदल लिया था। हैड मास्टर की कापियों को जाँचने का काम ही था जो बाद में जाकर मुख्य अध्यापक और मेरे बीच टकराव का कारण बना। मैं बमुश्किल जैसे तैसे मुख्य अध्यापक की कापियों को जाँचता। अभी इस काम को एक सप्ताह भी नहीं हुआ था कि हैड मास्टर और मेरे बीच टक्कर शुरू हो गई। हैड मास्टर ने जो शब्द-जोड़ विद्यार्थियों को बताये थे, मैंने कुछ विद्यार्थियों की कापियों में काटकर ठीक कर दिए। शायद शब्द 'अनटिल' और 'टिल' थे। मैंने 'एल' और 'डबल एल' का इन शब्दों में ठीक प्रयोग के बारे में विद्यार्थियों को अपनी सामाजिक शिक्षा की कक्षा में भी बताया। दो विद्यार्थियों ने हैड मास्टर के लिखवाए शब्द-जोड़ दिखाए। अगर मैं हैड मास्टर के शब्द-जोड़ों को ठीक कहता तो मेरा अपमान होना था और अगर मैं गलत कहता तो इसमें हैड मास्टर का अपमान था। मैंने डिक्शनरी मंगवा ली। मेरे शब्द जोड़ सही थे। विद्यार्थियों ने यह कहकर टाल दिया कि हैड मास्टर साहब ने तो ठीक ही लिखवाए होंगे, विद्यार्थियों की जल्दबाजी में ही यह गलती हो गई होगी। हैड मास्टर द्वारा शब्द-जोड़ों की कुछ और गलतियाँ भी हुई थीं। इस संबंध में मैंने विद्यार्थियों को कुछ खास शब्दों के शब्द जोड़ों के बारे में समझाया। दसवीं कक्षा के विद्यार्थियों में की गई मेरी बात हैड मास्टर तक पहुँच गई। हैड मास्टर ने मेरे पास कापियाँ भेजने का सिलसिला बन्द कर दिया, पर मेरे से नाराज रहने लग पड़ा। मालूम नहीं उसे किसी ने क्या पट्टी पढ़ाई कि वह मुझे हैड मास्टर के पद का दावेदार समझने लग पड़ा जब कि मैं अपनी शारीरिक स्थिति के कारण हैड मास्टर के पद के लिए कतई योग्य नहीं था। मैं जानता था कि प्राइवेट स्कूल के हैड मास्टर को तो पता नहीं कब, किस वक्त प्रधान, मैनेजर या कोई अन्य सदस्य घर में बुला ले। एक तो मुझे अपने स्वभाव के कारण प्रबंधक कमेटी के मैंबरों की खुशामद करनी नहीं आती थी और दूसरा, वक्त बेवक्त खास तौर पर रात के समय किसी मैंबर के घर जाना कठिन लगता था। इसलिए हैड मास्टर बनने के बारे में तो मैंने कभी सपने में भी नहीं सोचा था। अगर हैड मास्टर ही बनना होता तो मुझे रामा मंडी के एक स्कूल में आने के लिए सन्देशा आ चुका था। वहाँ भी मेरे किसी प्रशसंक ने मेरी योग्यता के पुल बांध दिए थे, जिस कारण वहाँ की कमेटी के मैंबर मुझे ले जाने के लिए उतावले थे।
हैड मास्टर ओछे हथियारों पर उतर आया था। एक के बाद दूसरी और दूसरी के बाद तीसरी मेरी जवाब तलबी की गई। आख़िर मुझे चार्जशीट कर दिया गया। हॉस्टल खाली करने का आदेश जारी कर दिया गया। बात सारे विद्यार्थियों में भी फैल गई और मंडी में भी। विद्यार्थियों ने हड़ताल कर दी। बहुत सारे विद्यार्थियों ने सच्चाई अपने घरवालों को जा बताई। प्रधान का बेटा सुभाष नौवीं कक्षा में पढ़ता था। महावीर दल का कैप्टन होने के कारण सभी उसे कैप्टन साहब कहते थे। वैसे शायद उसका नाम दीवान चंद था। हैड मास्टर कमेटी को मेरी सेवाओं को बर्खास्त करने के लिए ज़ोर डाल रहा था। मैं भी ऐसे माहौल में स्कूल में रहना नहीं चाहता था। लाला कर्म चंद की मार्फत मुझे एक महीने की पेशगी तनख्वाह देकर बरतरफ़ करने की कोशिश की गई। लेकिन गर्मियों की छुट्टियों की तनख्वाह जो मुझे नियमानुसार दस महीने की सेवा पूरी होने पर मिलनी थी, अदा करने की हठ की। आठ महीने तो मैं इस स्कूल में नौकरी कर ही चुका था। इसलिए मुझे जबरन स्कूल से निकालते समय छुट्टियों की तनख्वाह मांगना मेरा हक था। बात यहाँ तक पहुँच गई थी कि कमेटी के कुछ मैंबर महीने दो महीने बाद हैड मास्टर को स्कूल में से निकालकर मुझे हैड मास्टर बनाने की पेशकश करने लग पड़े थे, लेकिन मुझे यह छिपा हुआ खेल खेलना मंजूर नहीं था। जैसा कि मैं पहले ही बता चुका हूँ, मैं किसी भी तरह से किसी प्राइवेट स्कूल के हैड मास्टर के योग्य ही नहीं था।
विद्यार्थियों के मेरे साथ लगाव, पंजाब प्राइवेट स्कूल टीचर्स यूनियन के सचिव केवल कृष्ण टंडन की धमकी और लोगों के बीच बढ़ रहे मेरे रसूख को देख कर हैड मास्टर और कमेटी के प्रधान व मैनेजर ने मेरी शर्तों पर मुझे मुक्त कर दिया।
मौड़ मंडी के लोगों और विद्यार्थियों की तरफ से जो प्यार और सम्मान मुझे मिला, उसकी कोई मिसाल नहीं। हैड मास्टर के विरोध के बावजूद विद्यार्थियों ने मुझे शानदार विदाई पार्टी दी। उन्होंने इस पार्टी में अध्यापकों को भी आमंत्रित किया। हैड मास्टर से डर कर कोई भी अध्यापक इस पार्टी में शामिल नहीं हुआ। मुझे तसल्ली थी कि लोग मेरे साथ हैं। मध्य श्रेणी का होने के कारण अध्यापकों का विदाई पार्टी में न आना, मुझे चुभा नहीं था क्योंकि मुझे वर्गीय चरित्र की समझ थी।
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मौड़ मंडी आकर एक लाभ यह हुआ था कि मेरा साहित्यिक शौक जाग्रत हो उठा था। यहाँ आते ही जसवंत सिंह आज़ाद से मेरी मुलाकात हो गई। बहुत ही मध्यम कद और अच्छी-खासी शख्सियत के मालिक साहित्य सभा, मौड़ मंडी के प्रधान थे - जसवंत सिंह आज़ाद। मेरे आने पर उनके अन्दर और उनके मेल मिलाप से मेरे भीतर सोई हुई कविता फिर से जाग उठी थी। और तो बहुत कुछ याद नहीं, बस इतना अवश्य याद है कि जब पंडित जवाहर लाल नेहरू का 27 मई को निधन हुआ था, हम दोनों ने ही मर्सिये लिखे थे -
रोको रे कोई रथ सूरज का
रोको रे कोई चक्कर समय का
रोक दो घड़ियों की सुइयाँ
रोको रे कोई मई सत्ताइस।

बस, ये सतरें याद हैं, बाकी कविता न किसी की डायरी में है, कहीं छपी थी या नहीं, यह भी कुछ याद नहीं। कम्युनिस्ट होने के बावजूद मैं नेहरू का बड़ा सम्मान करता था। वैसे भी मैं नेहरू समय की कांग्रेस के साथ कम्युनिस्टों के अंधे विरोध को मैं उचित नहीं समझता था। पर पता नहीं कि यह इलाके के कम्युनिस्ट नेताओं का प्रभाव था कि 1964 की कम्युनिस्ट के दोफाड़ के समय मैं मार्क्सवादी पार्टी का हमदर्द बन गया था।
(जारी…)
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2 comments:

उमेश महादोषी said...

यह अंश बेहद प्रेरणादायी है।

Sanjeet Tripathi said...

shukriya ise padhwane ke liye, itni kishtein padhne ke baad ab to is aatmkatha ke aisa judaav ho gaya hai ki kisi hafte agar link milne me der si ho jaye to apne aap se batein karni padhti hai ki yar ab tak link nahi mila, kya hua hoga agli kisht me....... bahut bahut shukriya,
vaise sach kahu to is pure upanyas ko mai print versn me ek sath padhna jyada pasand karunga, kynki chhape hue akksharo ko apni sahuliyat se padhna ek alag hi sukh deta hai.......

chaliye fir se agli kisht ki pratikshaa me....