समकालीन पंजाबी साहित्य की उत्कृष्ट कृतियों की तलाश

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Saturday, July 24, 2010

आत्मकथा


एक नेत्रहीन लेखक की आत्मकथा

धृतराष्ट्र
डॉ. एस. तरसेम
हिन्दी अनुवाद : सुभाष नीरव
चैप्टर-11

आर्य हाई स्कूल, रामपुराफूल

मैं जानता था कि एस.डी.हाई स्कूल, मौड़ मंडी का हैड मास्टर कश्मीरी लाल खुंगर मुझे स्कूल में टिकने नहीं देगा। इसलिए मैंने दूसरी नौकरी की तलाश में हाथ-पैर मारने आरंभ कर दिए थे। आर्य हाई स्कूल, रामपुराफूल के मैनेजर ने मुझे दसवीं तक मैथ पढ़ाने के लिए मास्टर कैडर की पोस्ट पर रखने की पेशकश की। मैंने उसे यह सब कुछ बता दिया था कि मैं मौड़ मंडी छोड़ कर क्यों आ रहा हूँ। अच्छरू राम का घर मेरी बहन तारा के घर के बिलकुल सामने था। मेरे जीजा मदन लाल उन दिनों में गुड़गांव के कस्बे पलवल में बी.डी.पी.ओ. दफ्तर में अकाउंटेंट थे। नौकरी करने से पहले वह रामपुराफूल में गणित और अंग्रेजी की ट्यूशनें किया करते थे। बी.ए. मैथ ए-बी कोर्स होने के कारण उनकी मैथ पर बहुत पकड़ थी। मेरे भाई को आर्य हाई स्कूल, तपा में हैड मास्टर नियुक्त हुए तीन वर्ष से भी अधिक समय हो गया था और बी.ए. में मैथ न पढ़ा होने के बावजूद वह एक लम्बे समय से मैट्रिक तक की कक्षाओं में मैथ पढ़ाता था। मेरी इस पृष्ठभूमि का अच्छरू राम को पता था। इसलिए वह मुझे स्कूल में मैथ के पद पर लाने के लिए मुझसे अधिक उतावला था। मैं भी मौड़ मंडी छोड़कर किसी अन्य स्कूल में लगना चाहता था ताकि माँ और भाई की नाराजगी से बच सकूँ। माँ और भाई यद्यपि मुझे कहते तो कुछ नहीं थे, पर अन्दर ही अन्दर मुझे पंगेबाज ज़रूर समझते थे। माँ तो हमेशा यही अक्ल देती रहती- ‘मीठा बोलें, झुककर चलें, पल्ले से कुछ न दें।’ मैं उसकी इस बात पर अमल भी करता था। मीठा बोलता, विनम्र रहता, पर फिर भी पता नहीं मेरा कहीं न कहीं, किसी न किसी से पंगा अवश्य पड़ ही जाता। हैड मास्टर खुंगर के साथ पड़े पंगे के पीछे न तो मेरी ज़ुबान का कड़वापन था और न ही हैंकड़बाजी।
यद्यपि मैथ पढ़ाना मुझे अंग्रेजी और सामाजिक शिक्षा से कुछ कठिन लगता था लेकिन गले पड़ा ढोल बजाना ही था। इससे माँ भी खुश थी और भाई उससे भी अधिक। मैथ पढ़ाना मेरे लिए इसलिए कठिन नहीं था कि मुझे यह विषय पढ़ाना नहीं आता था। मैंने तपा के आर्य स्कूल में नौकरी के दौरान भी मैथ पढ़ाया था और मैथ की ट्यूशनें भी की थीं। मैथ तो अब सिर्फ़ इसलिए कठिन लगता था, क्योंकि दसवीं के मैथ का कुछ हिस्सा पहले घर से देखकर जाना पड़ता। दिसम्बर का महीना चल रहा था। इन दिनों दसवीं के गणित, एलजबरे और ज्योमेट्री के अन्तिम भाग का सिलेबस चल रहा था। इस हिस्से को पढ़ाने के लिए पहले घर से तैयारी करके जाना ज़रूरी था। दूसरा यह कि सभी कक्षाओं में ब्लैक बोर्ड का प्रयोग करना आवश्यक था। चाक का गर्दा मेरे लिए बहुत नुकसानदेह था। अगर मैं स्वयं भी डस्टर से बोर्ड साफ न करता और यह काम विद्यार्थियों से करवाता तो भी बोर्ड के निकट खड़े होने के कारण चाक का गर्दा मुझे चढ़ता था। इस तरह जुकाम हो जाता। कभी कभी तो आँख और नाक से बहता पानी दुखी कर देता। विद्यार्थियों के सामने मेरी इस हालत से कक्षा पर मेरी पकड़ ढीली होने का खतरा था। पर सबसे बड़ा विघ्न था - मेरी नज़र का कम होना। इस सब कुछ के बावजूद मैं आर्य हाई स्कूल, रामपुराफूल के मैथ मास्टर के तौर पर हाज़िर हो गया था।
हालांकि माँ और भाई यह चाहते थे कि मैं रोज़ सुबह सात बजे की गाड़ी तपा से पकड़कर जाऊँ और दोपहर बाद चार बजे वाली गाड़ी पर वापस लौट आया करूँ। बीसेक रुपये का तीन महीने का रेल का पास बनता था। सौ रुपये भाई को देकर बाकी बचे बीस रुपये मेरे जेब खर्च के लिए बहुत थे। पर तारा बहन की समस्या के सामने भाई को मेरा रामपुराफूल रहना बिलकुल ठीक लगा। स्कूल बिलकुल घर के साथ था। घंटी बजने पर ही घर से चलता। आधी छुट्टी में घर आकर रोटी खाता और पूरी छुट्टी होने पर हाज़िरी लगाई और घर आ गया।
मेरे पढ़ाने से विद्यार्थी बहुत संतुष्ट थे। हैड मास्टर कोई देव राज या जगन नाथ नाम का मेरी ही शैक्षिक योग्यता वाला और मेरे से चार वर्ष बड़ा भद्र पुरुष था। उसको सरकारी स्कूल में बतौर मास्टर नियुक्ति पत्र मिला हुआ था। इसलिए उसे स्कूल के कामों में अधिक रुचि नहीं थी। स्कूल का मुखिया असल में एक पंजाबी टीचर ही समझो। वह स्कूल के मैनेजर अच्छरू राम के बहुत निकट था। निकट कहा तो बहुत कहा, वह मैनेजर का चमचा था। जिस मास्टर ने ज्ञानी को खुश कर लिया, समझो उसे पढ़ाने के लिए ज़रूरत नहीं। स्कूल घर के बहुत करीब होने के कारण मैनेजर भी अक्सर स्कूल में घंटे दो घंटे बैठा रहता। स्कूल की निगरानी भी हो जाती और मैनेजर का वक्त भी अच्छा गुजर जाता। मुफ्त में स्कूल के दोनों अख़बार पढ़ जाता। शायद दुआ-सलाम करवाने की भी उसकी इच्छा पूरी हो जाती हो।
इस स्कूल में मुझे मैनेजर के सामने आ जाने पर उसको सलाम करना पड़ता। यह काम मुझे बहुत मुश्किल लगता। उसका स्कूल में आना कतई न भाता। हैड मास्टर द्वारा भीतरी बात बताने पर तो मैनेजर मुझे ज़हर जैसा लगता। किसी मान्यता प्राप्त स्कूल के मैनेजर के घर का सारा खर्च भी स्कूल से चलता हो, यह बात मेरे मन को कैसे भा सकती थी। पर मैं इस भ्रष्टाचार का कर भी क्या सकता था। बस, अन्दर ही अन्दर कुढ़ता रहता।
आर्य स्कूल में मैंने महीना भी पूरा नहीं किया था कि तीन ऐसी घटनाएँ घटित हो गईं जिससे मेरी अंतरात्मा बुरी तरह खरोंची गई।
पहली घटना एक विद्यार्थी से संबंधित थी। नौवीं कक्षा का वह विद्यार्थी मेरे से कद में ऊँचा और शरीर से भारी था। वह ओवरकोट पहन कर आता और सिर पर फौजियों वाली टोपी पहनता। सर्दियों के कारण मुझे उसका यह पहरावा बिलकुल नहीं चुभता था। लेकिन जो बात सबसे अधिक चुभती, वह यह थी कि वह रोज़ कक्षा में देर से आता। साथ वाले किसी कमज़ोर साथी को ज़रूर छेड़ता रहता। सभी विद्यार्थी उसे गोप साहिब कहते। मैं भी इस गोप साहिब की अनुशासनहीनता से तंग था। आख़िर, चार-पाँच दिन देखने के बाद मैंने उसे क्लास से बाहर निकाल दिया। विद्यार्थियों ने मुझे उसकी कई बदमाशियों के बारे में बताया और हैड मास्टर ने भी कहा कि मुझे इस तरह नहीं करना चाहिए था। हैड मास्टर साहब की राय थी कि अब भी विद्यार्थियों के हाथ सन्देशा भेज कर उसे बुला लिया जाए। एक बदमाश विद्यार्थी के सम्मुख एक ईमानदार अध्यापक झुके, मुझे यह स्वीकार नहीं था। एक विद्यार्थी ने बताया कि गोप छुरा लिए घूमता है। मैंने उस विद्यार्थी से कहा कि चाहे वह बन्दूक लिए घूमता हो, जब तक वह लिखत रूप में माफ़ी नहीं मांगेगा, उसे कक्षा में बैठने नहीं दिया जाएगा। विद्यार्थियों ने सारी बात गोप के माँ-बाप तक पहुँचा दी। उसका बाप स्वयं माफ़ी मांगने आया। सारा स्टाफ चाहता था कि बात जैसे तैसे रफा-दफा हो जाए। पर बेटे की गलती पर पिता की माफ़ी वाली बात मुझे जंची नहीं थी। मैंने उसके पिता को समझाया कि यदि यह लड़का अभी भी न सुधरा तो भविष्य में तुम्हारे सिर के लिए मुसीबत बन जाएगा। मैंने यह बात किसी गुस्से में नहीं, वरन धैर्य के साथ कही थी। पता नहीं, उसके माँ-बाप ने गोप को कैसे मनाया, उसने अगले दिन लिखित रूप में माफ़ी मांग ली थी। इस बात का अन्य विद्यार्थियों पर भी बहुत अच्छा प्रभाव पड़ा। बड़ी कक्षाओं के विद्यार्थी अब मेरे से ही नहीं, बल्कि सभी अध्यापकों की शर्म करने लग पड़े थे। बाबू अच्छरू राम को भी मेरा यह स्टैंड अच्छा लगा था। अब गोप आँख में नहीं चुभता था।
उन दिनों बहन सीता के घर मैं सिर्फ़ एक बार ही गया। बहन सीता की मौत को छह साल होने जा रहे थे। उसकी एक के बाद एक तीन लड़कियाँ थीं। बस लड़कियों का मोह खींचता था। और उस घर में मेरा था भी क्या ? जिस तरह हमारे साथ बहन सीता के ससुराल वालों का सलूक था, उसको याद करके तो उस गली में जाने को भी आत्मा नहीं मानती थी। पर भान्जियों के होते टूटा भी नहीं जा सकता था। इसलिए खून का रिश्ता मुझे उनके घर ले गया था। इधर बहन तारा के ससुराल वालों से भी हम पूरी तरह सुखी नहीं थे।
एक तो मेरी तरह बहन तारा की दृष्टि भी तेजी से कम हो रही थी, ऊपर से अपने पति मदन लाल के सख्त स्वभाव के कारण डर-डर कर दिन व्यतीत करती थी। उन दिनों वह बी.ए. पास थी और पूरे इलाके के गाँवों और कस्बों में लड़कियों का बी.ए. कर जाना कोई छोटी बात नहीं थी। मैंने अपनी बहन तारा की सुविधा के कारण ही उसके घर में रहना शुरू किया था। वह गैस सिलेंडरों का ज़माना नहीं था। कस्बों में या तो चूल्हा जलाया जाता या फिर पक्के कोयलों की अंगीठी। महीने से कम समय में मुझे दो तीन बार गली में रख कर लकड़ियाँ पाड़नी पड़ीं, अंगीठी के लिए छोटे छोटे टुकड़े करने पड़े। तपा में ऐसा काम करने में संकोच नहीं था पर यहाँ बहन के घर, बल्कि एक स्कूल मास्टर होने के कारण झिझक-सी थी। सोचता था कि यदि किसी लड़के ने देख लिया तो वह क्या सोचेगा ? एक दिन आटा पिसाने के लिए बोरी अभी बाहर निकाल कर रखी ही थी कि मेरा एक विद्यार्थी आ गया। कपड़ों से वह अच्छे घर का लड़का लगता था। मैं उसे जानता भी नहीं था पर उसने सत्कार में मुझे गेहूं की भरी हुई बोरी उठाने नहीं दी थी। आटे की मशीन बिलकुल नज़दीक थी। आटा पिसा कर वह स्वयं घर छोड़ गया। बड़ी मुश्किल से मैंने उसे पिसाई के पैसे दिए। घर में पता नहीं, बेचारे ने ऐसा काम किया भी होगा या नहीं, पर मुझे ऐसा लगा मानो वह बिना मांगे गुरू दक्षिणा दे गया हो।
सबसे कठिन काम जो इन दिनों मुझे करना पड़ा, वह था रात के समय रेलवे स्टेशन पर अपने जीजा मदन लाल जी को गाड़ी चढ़ा कर आने का। सर्दी का बिस्तरा और कुछ सामान बिस्तरबंद में पैक था। मैं स्टेशन जाने के लिए किसी भी तरह से इन्कार नहीं कर सकता था। न यह कह सकता था कि रात में मुझे अंधराते के कारण आने-जाने में दिक्कत आती है। ऐसा करने से तो बात बहुत बिगड़ सकती थी। मेरी आँखों की बीमारी की राह सीधी मेरी बहन की तरफ जाती और ऐसा करने से बहन तारा को छोड़ने तक की नौबत आ सकती थी। हम दोनों बहन-भाई के अच्छे नसीबों से सबब यह बना कि स्टेशन पर जाने के लिए दसेक साल का एक लड़का तैयार हो गया। शायद यह मदन लाल जी का भतीजा था या उनके बिलकुल सामने के घर वाली मौसी परमेशरी का पोता था। परमेशरी और मेरी माँ सगे मामा-बुआ की बेटियाँ थीं।
पहले बिस्तरा कंधे पर उठाया, आधे रास्ते पहुँचकर मैंने बिस्तरा सिर पर रख लिया। अगर कोई झिझक थी तो बस यही कि कोई स्कूल का लड़का न देख ले। रेलवे का माल गोदाम पार करके छह फुट ऊँचे प्लेटफॉर्म से छलांग लगाई, प्लेटफॉर्म पर पड़ा बिस्तरा कंधे पर रखा, रेलवे लाइनों को पार किया और टिकट खिड़की के पास जा खड़े हुए। रेलवे प्लेटफॉर्म पर पूरी रौशनी थी। यहाँ चलने-फिरने में मुझे कोई दिक्कत महसूस नहीं होती थी। मदन लाल जी को दुआ-सलाम करने और गाड़ी के चलने के बाद उस लड़के के साथ उसी रास्ते वापस घर पहुँच गया। लगता था जैसे मनों बोझ सिर पर से उतर गया हो। इतना हल्का-फुल्का महसूस कर रहा था जैसे पुलिस अफ़सर को विदा करने के बाद कोई सिपाही महसूस कर रहा होता है।
लड़का शायद मेरी बांह पकड़ कर अपने आप को सुरक्षित महसूस कर रहा हो, पर उससे अधिक सुरक्षित मैं अपने आप को महसूस कर रहा था। कहीं कहीं स्ट्रीट लाइट का न होना भी इस लड़के के कारण महसूस नहीं हुआ था। भवजल पार करने की यह घटना मेरे स्थायी जख्म का वह अहसास है जिसे सुखदायी मल्हम-पट्टी जैसा मान सकते हैं। बहन के घर किसी चीज़ की कमी नहीं थी। घर में बहन की दादी सास थी जिसे सभी बेबे कहते थे। मैं भी उस वृद्धा को बेबे ही कहता था। रोज़ शाम को उसका बिस्तरा झाड़कर बिछाया करता। दस-पंद्रह मिनट उसके हाथ-पैर भी दबा देता। उसके सिरहाने पानी की लुटिया भी रख आता। आते हुए उसके ऊपर अच्छी तरह रजाई देकर पूछता-
''बेबे जाऊँ ?'' बेबे सौ-सौ आशीषों से मुझे लाद देती। यहाँ रहकर मुझे पता चला कि इन घरों में औरतों की कोई कद्र नहीं। दादी या माँ को भी इस घर के मर्द कुछ नहीं समझते। बेबे के पास बैठने से यह भी पता चला कि यह परिवार अमीर होने के कारण अपनी बहुओं के मायके वालों की कोई खास कद्र नहीं करता था।
अभी महीना पूरा भी नहीं हुआ था कि मेरे इस स्कूल में से भी विदा होने के आसार बन गए। मुझे मैनेजर ने अभी नियुक्ति पत्र नहीं दिया था। जब मैं नियुक्ति पत्र की बात करता, मैनेजर टाल जाता। मुझे दाल में कुछ काला लगा। मैनेजर के साथ होती बातों से पता चला कि दाल में काला नहीं, यह तो सारी दाल ही काली है। मेरे बार बार नियुक्ति पत्र मांगने का परिणाम यह निकला कि उसने जो पत्र मुझे दिया, उसमें मेरी नियुक्ति 28 फरवरी 1965 तक की गई थी। पढ़ते ही मेरे तन-बदन में आग लग गई। ऐसा धोखा मेरे संग पहली बार हुआ था। मैंने मैनेजर साहब को बड़े तैश में कहा -
''मार्च-अप्रैल में मैं कहाँ जाऊँगा। मार्च में परीक्षाएं होती हैं और अप्रैल में दाख़िले। इन दोनों महीनों में तो ट्यूशनों का भी कोई स्कोप नहीं। अगर मुझे पहले मालूम होता कि आपने मेरे साथ फ्राड ही करना है, मैं ज्वाइन ही नहीं करता।'' बाबू अच्छरू राम पूरा खिलाड़ी था। वह गुस्से में नहीं आया था। लगता था कि वह मुझसे कुछ डरता भी था। बड़े धैर्य से कहने लगा-
''तुम क्या चाहते हो ?''
''वह अप्वाइंटमेंट जिसमें वन मंथ नोटिस ऑन बोथ साइड्ज़ का प्रोविजन हो।'' मेरा जवाब था।
''अब मसला कैसे हल होगा ?'' वह छिपे हुए शिकारी की तरह स्वयं दाव पर प्रतीत हुआ।
''मैं कल घर में सलाह करके बताऊँगां।'' यह कहकर मैं अगले दिन बठिंडा चला गया और स्कूल में छुट्टी भेज दी। एस.डी. हॉयर सेकेंडरी और जे.बी.टी. स्कूल में सीनियर क्लासों और जे.बी.टी. क्लासों को पढ़ाने के लिए पंजाबी टीचर की आवश्यकता थी और हॉस्टल वार्डन की भी। उनसे मेरा सौदा तय हो गया। मेरी शर्तों पर उन्होंने मुझे नियुक्ति पत्र दे दिया और मैं दो दिन के अन्दर-अन्दर ज्वाइन करने का वायदा करके बाबू अच्छरू राम से जाकर मिला।
मानो दोनों धड़े तैयार हों। वह हटाने को और मैं हटने को। मैंने बाबू अच्छरू राम से स्पष्ट कह दिया या तो मेरी इच्छानुसार नियुक्ति पत्र दो, या फिर मेरा हिसाब कर दो। वह पहले ही जैसे हिसाब करने को तैयार बैठा हो। बाईसेक दिन की तनख्वाह लेकर मैंने सारी कहानी आकर भाई को बता दी। भाई को इस बात की पृष्ठभूमि का पहले ही पता था। अच्छरू राम को पहले दिन मिलने से लेकर दो हफ्तों के अन्दर-अन्दर उसको मेरे विरोध में एक सूचना तो मौड़ मंडी से मिल गई और दूसरी हमारे ही शुभचिंतक मास्टर चरन दास से। मौड़ मंडी वाली सूचना का सारतत्व यह था कि मैं विद्यार्थियों को भड़काता हूँ और उनको ऐसी राह लगाता हूँ कि किसी के विरुद्ध भी हड़ताल करवा सकता हूँ। जैसा कि मैंने पहले भी मोगा बी.एड. करते समय की कहानी में बताया है कि मास्टर चरन दास जो आर.एस.एस. से संबंधित होने के कारण मेरे भाई और हमारे सारे रिश्तेदारों से अच्छा मेलजोल रखता था और आर.एस.एस के कारण बाबू अच्छरू राम के नज़दीक था, अचानक मैनेजर साहब को मिला। मेरे बारे में पूछने पर मास्टर चरन दास ने मेरी पूरी प्रशंसा की और साथ ही कह दिया कि मैं पक्का कामरेड हूँ। कामरेड किसी कट्टरपंथी आर.एस.एस को तो क्या, राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के साधारण वर्कर को न तो पहले भाता था और न अब भाता है। यह पृष्ठभूमि थी बाबू अच्छरू राम के उस नियुक्ति पत्र की जो उसने 28 फरवरी 1965 तक का दिया था।
भाई को भी मेरे आर्य हाई स्कूल, रामपुराफूल छोड़ने पर कोई अफ़सोस नहीं हुआ था। वह खुद अच्छरू राम से नफ़रत करता था। दूसरा यह कि मैंने कहीं भी नियुक्ति पत्र लेते समय अभी तक भाई का ज़ोर नहीं लगने दिया था। इसका कारण केवल मेरी योग्यता ही नहीं थी, बल्कि उस समय बेरोज़गारी के हालात का कारण भी रहा होगा। उस समय आज जैसा बुरा हाल नहीं था। अगर यह कहूँ कि हाल अच्छा था तो भी ठीक नहीं।
(जारी…)
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6 comments:

honesty project democracy said...

अच्छी विचारणीय रचना ...

Anonymous said...

दीप्ति जी,
अनुवाद घर लगातार देख रहा हूं।
बहुत ही अच्‍छा प्रयास है।
navyavesh NAVRAHI
navrahi@gmail.com

Subhash Rai said...

Subhash jee aur Deepti jee, aap ka yah prayaas bahut sarahneey hai. bhaarateey bhaashao men bahut kuchh likhaa ja rahaa hai, par ek doosare ko samyak anuvaad ke abhaav men upalabdh nahee ho pataa. Subhash Neerav jaisa sahity saadhak agar anuvaad karataa hai, to ham aashvast ho sakate hain ki mool rachanaa kke saath nyaay ho sakegaa aur anuvaad jyaada arthpoorn tareeke se hamaare pas pahunchegaa. bahut saaree shubhkaamanaaye.

रूपसिंह चन्देल said...

आत्मकथा में भाषा की सहजता और प्रवाहमयता उसे आगे पढ़ने के लिए उत्साहित करती है. एक अच्छी आत्मकथा और सुन्दर अनुवाद.

चन्देल

Sanjeet Tripathi said...

shahar se bahar rahne ke karan der se padha ye kishht. muaafi chaahta hu.

lekin kahani apni natural rawani ke saath aage badh rahi hai...yaa yun kahu ki beh rahi hai, upnyas ke shaabd uske bhaav ke saath mano behte hain......

chaliye ji ab agli kisht ki pratikshha karte hain...

उमेश महादोषी said...

कुछ बातें तो ऐसी लग रही हैं जैसे हाल-फ़िलहाल में ही घटी हों.......जैसे अपने साथ.........खुद्दारी के साथ इन बातों का जन्म-जन्मान्तर का रिश्ता होता है शायद........