समकालीन पंजाबी साहित्य की उत्कृष्ट कृतियों की तलाश

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Sunday, July 18, 2010

पंजाबी उपन्यास




''साउथाल'' इंग्लैंड में अवस्थित पंजाबी कथाकार हरजीत अटवाल का यह चौथा उपन्यास है। इससे पूर्व उनके तीन उपन्यास - 'वन वे', 'रेत', और 'सवारी' चर्चित हो चुके हैं। ''साउथाल'' इंग्लैंड में एक शहर का नाम है जहाँ अधिकतर भारत से गए सिक्ख और पंजाबी परिवार बसते हैं। यहाँ अवस्थित पंजाबी परिवारों के जीवन को बेहद बारीकी से रेखांकित करता हरजीत अटवाल का यह उपन्यास इसलिए दिलचस्प और महत्वपूर्ण है क्योंकि इसके माध्यम से हम उन भारतीय लोगों की पीड़ा से रू-ब-रू होते हैं जो काम-धंधे और अधिक धन कमाने की मंशा से अपना वतन छोड़ कर विदेशों में जा बसते हैं और वर्षों वहाँ रहने के बावजूद वहाँ की सभ्यता और संस्कृति का हिस्सा नहीं बन पाते हैं।


साउथाल
हरजीत अटवाल
हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव

॥ आठ ॥
सप्ताहांत पर ग्लोस्टर ऐसे ही भरता है। खास तौर पर शनिवार वाले दिन। बैठने के लिए जगह नहीं मिलती। यद्यपि कोई खास संगीत नहीं होता, खास किस्म का खाना आदि नहीं होता, बड़े स्क्रीन वाला टेलीविज़न भी नहीं कि लोग मैच देखने आएँ। लोगों में इस पब का नाम बहुत साफ़-सफ़ाफ है। यह पारिवारिक पब के तौर पर जाना जाता है। पब का अपना बड़ा कार पॉर्क है। इसलिए लोग दूर-दूर से भी आ जाते हैं। हर रंग का आदमी होता है। यह पब साउथाल और ग्रीनफोर्ड के बार्डर पर होने के कारण यहाँ देसी लोगों की बहुतायत नहीं होती बल्कि मिले-जुले लोग होते हैं।
श्याम भारद्वाज का यह पसंदीदा पब है। यहाँ की बीयर से अधिक यह भीड़ उसे अच्छी लगती है। किसी की ओर देखे बग़ैर अपनी अपनी बातों में उलझी भीड़। सप्ताहांत पर वह यहीं आता है। दोस्तों को मिलने के लिए भी यहीं बुला लिया करता है। उसने कुछ जल्दी आकर एक मेज पर कब्ज़ा कर रखा है। बीयर के गिलास भी भरवा लिए हैं। जगमोहन जल्दी ही पहुँच जाता है। उसके पीछे ही गुरचरन। कुछ देर बाद दिलजीत भी हाथ मिलाता आ बैठता है। वह पूछता है-
''श्याम, तूने ऐसी कौन सी खास बात करनी है कि पूरा गैंग ही बुला लिया।''
''अभी सोहनपाल नहीं आया, आ लेने दे उसे भी।''
''भीड़ बढ़ रही है, फिर एक दूसरे की बात भी सुनाई नहीं देगी।''
दिलजीत पत्रकार है। पत्रकारों वाली खुरचने की आदत है उसकी। श्याम कुछ कहने के लिए तैयार हो ही रहा है कि सोहनपाल आ जाता है। सबसे 'हैलो' कहता है। श्याम उसे गिलास की तरफ संकेत करता है। वह चीयर्स कहता हुआ उठा लेता है और फिर कहता है-
''संगत के बैठने के लिए यह स्थान बहुत ठीक नहीं, बात ढंग से नहीं हो सकेगी। किसी दूसरे पब में चलते हैं।''
''पर श्याम को यही जगह पसंद है, चल तू बात शुरू कर।''
जगमोहन पहली बात सभी को और दूसरी बात श्याम भारद्वाज से कहता है। श्याम दोनों हाथों को मलता हुआ बोलना प्रारंभ करता है-
''मैं बहुत दिनों से सोच रहा हूँ कि ईलिंग काउंसल में कई काउंसलर ऐसे हैं जो काउंसलर बनने के बिलकुल काबिल नहीं, अनपढ़ किस्म के लोग।''
''हम क्या अब इन्हें पढ़ाएँ ?''
जगमोहन को सियासत से कोई लगाव नहीं है। वह जानता है कि श्याम कोई सियासी बात ही करेगा। गुरचरन कहने लगता है-
''तू बात तो उसकी पूरी सुन ले।''
''हाँ, मेरा मतलब है कि हम सब पढ़े-लिखे हैं। हम क्यों नहीं काउंसल का चुनाव लड़ते। इन ग्रामीण अनपढों को खदेड़ कर एक तरफ करें।''
''ओ श्याम भाई, ऐसे नहीं किसी को खदेड़ा जा सकता। इन लोगों को कई कई साल लग गए हैं लोगों में अपना नाम बनाने में। तेरे जैसा कोई कल को उठकर कहे कि...''
''मैं कौन सी कल की ही बात कर रहा हूँ। मैं तो लोंग टर्म के बारे में कहता हूँ। अब अपने में से सोहनपाल सियासत में हिस्सा लेता है, पर पीछे रह कर ही। इसे काउंसलर बनाएँ।''
''न भाई, मुझे अगर काउंसलर के लिए खड़ा होना होता तो कई साल पहले ही बन जाता, पर मुझे किंग बनने से किंग मेकर बनने में अधिक मजा दिखाई देता है। और मैं ऐसे ही खुश हूँ।''
''फिर तू हमारे में से किसी को किंग बना, मैं चाहता हूँ कि हम इस चुनाव में हिस्सा लें। क्यों भाई ?''
कहते हुए श्याम भारद्वाज जगमोहन की तरफ देखता है। जगमोहन प्रत्युत्तर में कहता है-
''श्याम, मैं भी इस रेस का घोड़ा नहीं। तुम सब खड़े हो जाओ, मैं पीछे से पूरी सपोर्ट करूँगा।''
जगमोहन के बाद गुरचरन भी हाथ खड़े कर जाता है और दिलजीत को भी कोई दिलचस्पी नहीं। वह पंजाबी के एक साप्ताहिक पत्र का एडिटर है जिसका मालिक राजकुमार मित्तल इसी पत्र को हिंदी में भी निकालता है। हिंदी में 'आईना' और पंजाबी में 'नवे अक्स'। हिंदी के पाठकों की संख्या तो लंदन में यूँ ही न बराबर ही है पर पंजाबी का परचा ठीक बिक जाता है। कहा जाता है कि भारतीय सरकार इसको पूरी मदद दे रही है। साउथाल में से निकलते पंजाबी के बहुत से परचे खालिस्तान की बोली बोलते हैं और उनका मुकाबला करने के लिए भारतीय सरकार राजकुमार मित्तल की किसी न किसी तरह आर्थिक सहायता करती है। दिलजीत कहता है-
''मेरे पास तो टाइम ही नहीं। यह जो मूलवाद की ज़हरीली हवा चली हुई है, इसे रोकने में परचे के माध्यम से जो मैं योगदान दे रहा हूँ, उधर से ही फुरसत नहीं है मेरे पास।''
श्याम भारद्वाज मुंस्कराता है मानो यही सुनना चाहता हो और ठहरी सी आवाज़ में कहता है-
''फिर तुम सब मेरे साथ खड़े होवो, मुझे काउंसलर बनाओ।''
''छोड़ यार श्याम, काउंसलर की भी कोई जॉब है।''
''ठीक है तेरी बात सोहनपाल, पर मेरी निगाह तो इससे भी आगे जाने की है, एम.पी. तक।''
''एम.पी. की पोस्ट पर बड़े बड़े घड़ियाल नज़र टिकाये बैठे हैं। तू इतनी जल्दी क्या कर पाएगा।''
''मैं जल्दी में कुछ करने के लिए कब कहता हूँ, मुझे कोई जल्दी नहीं।''
सभी हाँ में सिर हिलाकर चुप हो जाते हैं। दिलजीत पूछने लगता है-
''किस पार्टी में जाएगा ?''
''लेबर पार्टी का मैं मेंबर हूँ यार।''
''लेबर पार्टी के पास तो पहले ही काउंसलर ज्यादा हुए फिरते हैं।''
''पहले कैंडीडेट तो बने यह।''
''लेबर पार्टी की कैंडीडेसी के लिए भी लोग सड़कों पर घूमते फिरते हैं।''
सोहनपाल कहता है। श्याम भारद्वाज के हौसले पस्त होने लगते हैं। वह फिर कहता है-
''ये यार माणकूं, परदेसी, कंवल जैसे कैसे बन गए ?''
''ये भी बन गए, इसका भी एक प्रोसीज़र है, उसे फौलो करना पड़ेगा।''
''यार सोहनपाल, तू श्याम को इस तरह की बातों से हर्ट अटैक न करवा देना। सीधी तरह बता कि इसे कौन सी सीढ़ियाँ चढ़नी होंगी।''
''प्रोसीज़र यह है कि हर कैंडीडेट को सिलेक्शन कमेटी के सामने जाना पड़ता है। वहाँ जाकर बताना पड़ता है कि उस में काउंसलर बनने की कौन सी योग्यता है, लेक्चर वगैरह तू दे ही लेगा। वहीं पार्टी के सभी मेंबर बैठे होते हैं, उन्हें कन्विंस करना पड़ता है। वोटिंग होती है। जिसकी अधिक वोटें, वह काउंसलर के लिए पार्टी का कैंडीडेट चुना जाता है। यह तो तू जानता ही है कि ईलिंग में लेबर पार्टी का ज़ोर है, लेबर का कैंडीडेट आगे चुना ही जाता है। जद्दोजहद बस कैंडीडेट की नोमिनेशन जीतने की है।''
''श्याम, तेरी बात नहीं बनेगी।''
जगमोहन सोहनपाल की बात सुनकर अपनी राय देता है। श्याम कुछ नहीं बोलता, सोहनपाल फिर कहता है-
''यहाँ ट्रिक यह है कि अधिक से अधिक लोगों को लेबर पार्टी के मेंबर बनाओ और जिस दिन सेलेक्शन हो, सारे मेंबरों को लेकर जाओ। अगर तुम्हारी वोटें अधिक हुईं तो तुम कैंडीडेट भी चुने गए, समझो।''
''यह हेराफेरी नहीं ?''
''नहीं, यह राजनीति है।''
''इसीलिए मैं राजनीति से नफ़रत करता हूँ।''
''जग्गे, नफ़रत वाली इसमें कोई बात नहीं। गोरे कैंडीडेट भी कई बार इसी तरह करते हैं, पर हम तो करते ही ऐसा हैं। यह एक प्रोसीज़र है। असल बात यह है कि जो लोग लोगों में जाकर ज्यादा काम करते हैं, वही आगे आते हैं।''
''लोगों में तो मैं भी जाऊँगा, मेरे बहुत लोग परिचित हैं। मैं सबको पार्टी का मेंबर बना दूँगा। थोड़ी सी तो मेंबरशिप फीस है, मैं दे दिया करूँगा।''
''फीस तो थोड़ी ही होती है पर बहुत ध्यान से चलना पड़ेगा। दूसरे नज़र भी रखते हैं पूरी तरह। यह मेंबरशिप फीस कोई कैंडीडेट नहीं भर सकता।''
सभी सोचने लग जाते हैं। गुरचरन कहता है -
''पहले कभी सोचा ही नहीं था इसके बारे में।''
''कभी किसी फंक्शन में हिस्सा लो तभी तो पता चलेगा, घर से काम पर और काम से पब में। अगर आँख खोलकर रखो कि साउथाल में क्या-क्या हो रहा है तभी तो पता चले। यह देख अपने लोगों ने इसी तरह ही वोटों से पुराना पापूलर गोरा एम.पी. उठाकर वो फेंका।''
''यह तो सरेआम बेईमानी है।''
''बेईमानी नहीं, सियासत है। अगर यह प्रोसीज़र न होता तो यहाँ कभी भी देसी एम.पी. नहीं बनने वाला था।''
''फिर तो नोमिनेशन जीतना सरल ही हुआ।''
''नहीं, इतनी सरल नहीं। गोरे भी यही दांव बरत जाते हैं। और अब तो हमारा वास्ता आगे देसी लोगों के साथ ही है। कारें भर कर तुम लाओगे, वे भी इतने लादकर पहुँचे होंगे।''
श्याम भारद्वाज सबकी बातें सुनता रहता है। फिर सभी को शांत कराते हुए कहता है-
''मैं इस पंगे के लिए तैयार हूँ बशर्ते तुम मेरी मदद करो।''
''हम तेरे साथ हैं पूरी तरह।''
''फिर अधिक से अधिक लोगों को लेबर पार्टी के मेंबर बनाओ मेरे लिए।''
उसकी बात पर कोई नहीं बोलता। फिर जगमोहन कहता है-
''श्याम, हम तेरी वोटें हैं, जहाँ मर्जी भुगता ले। इससे अधिक कुछ नहीं।''
''हाँ भाई श्याम, सौ पाउंड तुझे फंड दे दूँगा।''
''फंड तो लेंगे ही, पर कन्विंसिंग भी करनी होगी।''
फिर वे नोमिनेशन जीतने के बारे में योजनाएँ घड़ते रहे। फिर अचानक श्याम कहता है-
''मुझे एक स्कीम सूझी है।''
''कौन सी ?''
''कि हम एक लीगल ऐड कमेटी बनाएँ और इमीग्रेशन के केस लोगों के मुफ्त में लड़ें, उन्हें स्थायी करवाएँ तो हमारी वोट पक्की।''
श्याम भारद्वाज की बात पर जगमोहन और गुरचरन एक-दूसरे की तरफ देखते हैं। उन दोनों ने भी भारत से श्याम के साथ ही वकालत की है। वे तीनों ही सहपाठी रहे हैं, पर यहाँ आकर वकालत के पेशे में नहीं पड़े। दिलजीत बोलता है-
''यह काम तो तुम्हें बहुत देर पहले करना चाहिए था। इन इमीग्रेशन एडवाइज़रों को न लॉ की समझ है और न अन्य कुछ, भोले भाले लोगों को लूटे जा रहे हैं। यदि तुम यह काम शुरू करो तो कितनों का भला हो जाए।''
जगमोहन और गुरचरन मान जाते हैं। जगमोहन कहता है-
''मैं श्याम के वक्त दो घंटे रोज निकाल सकता हूँ, पब न गए, यह काम कर लिया।''
''ले भई सोहनपाल, अब तेरे जिम्मे एक काम है। तू हमें कोई ऐसा ठिकाना तलाश कर दे जहाँ बैठकर यह काम कर सकें।''
बात करता हुआ श्याम खुश है कि उसकी आज की यह मीटिंग का बुलाना सफल रहा है। सोहनपाल कहता है-
''अपना कामरेड है न इकबाली, जो ग़ज़लें भी लिखता है, उसका ये लेडी मार्गेट रोड वाला घर खाली ही है। ऐसे कामों के लिए ही इस्तेमाल किया जाता है। हम किसी दिन पूछ लेते हैं। फोन का इस्तेमाल करना शायद वहाँ कठिन हो।''
''पूछ फिर उसे किसी वक्त। फिर हम लीफलैट छपवा के ब्रॉडवे पर बाँट देंगे।''
''वह सब तो हो जाएगा, पर इमीग्रेशन लॉ के बारे में पता है कुछ ?''
''बिलकुल, मैं अप-टू-डेट रहता हूँ। मैंने कई केस करवाये भी हैं। इस तरह जग्गे ने भी कइयों को पक्का करवाया है। इसने तो संधू के साथ कुछ देर के काम भी किया था। गुरचरन को हम अपने संग चला लेंगे।''
श्याम खुशी-खुशी बताता है। फिर वह जगमोहन से पूछता है-
''तेरे ड्रामे वाले पंगे का क्या होगा ?''
''ड्रामों में यह कौन सा दिलीप कुमार है !''
''साली उम्र निकल गई, मैंने इसे कहीं ड्रामा खेलते नहीं देखा। हाँ, इसकी बातें बहुत सुनी हैं।''
''यह बातें करके ही स्वाद लेता है। लिए जाने दो, तुम्हारा क्या जाता है।''
''वो सुखी वाले सपने तो अब बन्द हो गए हैं न ?''
वे सब जगमोहन के पीछे पड़ जाते हैं। वह प्रत्युत्तर में कुछ नहीं बोलता और मंद-मंद मुस्कराये जा रहा है।
(जारी…)
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2 comments:

उमेश महादोषी said...

लगता है इंग्लॅण्ड में भी राजनीति भारत से अलग नहीं है! खैर। वहां बसे अपनों की गतिविधियों और जीने के तौर-तरीकों को जानने-समझने की द्रष्टि से अच्छा उपन्यास है । पर क्या ऐसा नहीं लगता जैसे पिछली किस्त में एक कहानी को अधूरा छोड़कर इस किस्त में एक बिलकुल नई कहानी शुरू की गयी हो ?

Sanjeet Tripathi said...

kahani kahi ki bhi ho rahi ho rajneeti ek saman hi lagi.... han ye alag baat hai ki is kisht me aisa lagaa jaise ki ekdam se koi new kahani ka link thamaa diya gaya ho. pichli kishto se samabndh jodna chahiye tha kahi na kahi........