समकालीन पंजाबी साहित्य की उत्कृष्ट कृतियों की तलाश

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Sunday, December 5, 2010

आत्मकथा



एक नेत्रहीन लेखक की आत्मकथा

धृतराष्ट्र
डॉ. एस. तरसेम
हिन्दी अनुवाद : सुभाष नीरव
चैप्टर-16( प्रथम भाग)


जाए नदौण, आए कौन


जब मैं जालंधर से नदौण के लिए चला, सीधी बस कोई नहीं थी। होशियारपुर होकर ही जाना था। होशियारपुर का अड्डा मेरा जाना-पहचाना था। बस का रूट बिलकुल जुआर वाला ही था। फ़र्क़ बस इतना था कि अब जुआर की ओर एक नहीं, अनेक बसें जाती थीं। गगरेट, मुबारकपुर चौकी, अम्ब, नहिरी और जुआर - सात बस-अड्डे मेरे जाने-पहचाने थे। मैं बस में बायीं ओर बैठा था। दूध-चाय वाला जौंढू बस रुकते ही मुझे दिखाई दे गया था, पर बस वहाँ अधिक देर नहीं रुकी थी। उससे आगे का सारा रास्ता बेशक मेरे लिए नया नहीं था, पर बहुत-सा हिस्सा नया था। अड्डे पर मैं बारह बजे से पहले पहुँच गया था, शायद ग्यारह बजे से भी पहले। बस कुछ हलवाइयों की दुकानों और ढाबों के सामने खड़ी होती थी। स्कूल को जाने के लिए रास्ता पूछना ही पड़ा। बाजार में से होता हुआ मैं जहाँ पहुँचा, वहाँ एक बड़ा ग्राउंड था और कुछ लड़के भी ग्राउंड में घूम रहे थे। गेट पर लोहे का एक बोर्ड लगा हुआ था। बोर्ड हिंदी में था - राजकीय उच्चतर माध्यमिक विद्यालय। मैं आगे बढ़ गया। मैंने समझा है तो यह कोई स्कूल ही पर यह सरकारी हायर सेकेंडरी स्कूल नहीं है। अभी दसेक कदम ही बढ़ा होऊँगा, मैंने आते हुए एक लड़के से एक तिहाई पहाड़ी और ज्यादातर मलवई पंजाबी में पूछ ही लिया, ''मुन्नू, हायर सेकेंडरी स्कूल कुथू है ?'' उसने गेट की तरफ इशारा कर दिया जिसे मैं पीछे छोड़ आया था। गेट के अन्दर सीधा जाकर एक बरामदा था और उस गेट के बिलकुल सामने प्रिंसीपल के दफ्तर का दरवाजा था। बाहर नेम-प्लेट लगी हुई थी- चानण राम, प्रिंसीपल। आज्ञा लेकर अन्दर गया और दुआ-सलाम के बाद अपना नियुक्ति पत्र प्रिंसीपल के सामने रख दिया। प्रिंसीपल ने घंटी बजाई, पहले चपरासी आया, फिर क्लर्क। फिर एक और सज्जन आ गए। बातचीत में ज्ञात हुआ कि वह मैथ का लेक्चरार है और सबसे वरिष्ठ होने के कारण वाइस-प्रिंसीपल भी। जब मैंने उपस्थिति रिपोर्ट लिखने के बारे में विनती की तो प्रिंसीपल ने कहा कि यहाँ पोस्ट खाली नहीं है। ''इसका मतलब यह है प्रिंसीपल साहब कि सी.ई.ओ. साहब ने गलत आर्डर कर दिए हैं ?'' मैंने नम्रता के साथ एक प्रश्नकर्ता की भांति पूछा। ''नहीं, आर्डर गलत नहीं है, जिस मास्टर की बदली हुई है, वह जाना नहीं चाहता।'' प्रिंसीपल ने सही बात बता दी। ''क्या उसने खुद अर्जी देकर बदली करवाई है या सरकार ने स्वयं बदली की है ?'' अन्दर से दुखी होने के बावजूद मैंने अपना लहजा नम्र रखा। ''नहीं, उसने स्वयं एप्लीकेशन दी है।'' प्रिंसीपल के स्थान पर क्लर्क बोला। ''फिर तो उसे रिलीव हो जाना चाहिए।'' मैंने विनम्रता का पल्ला अभी भी नहीं छोड़ा था। ''यह देखना प्रिंसीपल का काम है कि उसे रिलीव करना है या नहीं।'' अब वाइस-प्रिंसीपल बोला था। ''फिर मुझे क्या हुक्म है ?'' मैं प्रिंसीपल को मुखातिब होकर बोला। ''जल्दी न करो, कोई न कोई हल निकालते हैं।'' प्रिंसीपल दुविधा में लग रहा था।
पूरी छुट्टी होने में सिर्फ़ एक घंटा रहता था। चाय हालांकि प्रिंसीपल ने मंगवा कर पिला दी थी, पर मैं बहुत उदास था। मैं आते ही प्रिंसीपल के साथ बहस में नहीं पड़ना चाहता था क्योंकि ज़िला कांगड़ा के सभी कस्बों के बारे में मैं परिचित था। नदौण, हमीरपुर, कांगड़ा, परागपुर और धर्मशाला से बढ़िया इस ज़िले में कोई स्टेशन नहीं था। मैं मन ही मन में सोच रहा था कि यदि यहाँ से जवाब मिल गया तो संभव है कि किसी ग्रामीण पहाड़ी स्कूल के आर्डर कर दिए जाएँ, जहाँ बस भी न जाती हो। कांगड़ा ज़िले में ही ऐसे ग्रामीण हाई स्कूलों की मुझे जानकारी थी जहाँ 5-7 किलोमीटर से लेकर 15 किलोमीटर तक पैदल चलना पड़ता था।
पूरी छुट्टी होने से पहले प्रिंसीपल ने मुझे यह कहकर वाइस-प्रिंसीपल के साथ भेज दिया कि कल कोई फैसला कर लेंगे। मेरे अन्दर हौसले वाली बात तो पहले ही नहीं थी। छंटनी के कुल्हाड़े के कारण पहले ही मन पूरी तरह ज़ख्मी था, अब इस नौकरी के लिए भी ज़रूरत से अधिक दबना पड़ रहा था। यह सोचकर मैं अन्दर ही अन्दर जल-भुन रहा था।
डी.पी.आई. के दफ्तर में से सी.ई.ओ., जालंधर को आर्डर करने में मेरी एक सुपरिंटेंडेंट ने मदद की थी। यह सुपरिंटेंडेंट था- धर्म पाल गुप्ता। गुप्ता जी का पूरा उल्लेख तो मैं आगे जाकर करूँगा पर यहाँ उनका जिक्र इसलिए ज़रूरी है, क्योंकि उनके नाम लेने भर से ही मेरा बेड़ा पार हो गया था। मैं अपना बिस्तरा और अटैचीकेस बस-अड्डे पर एक ढाबे वाले के पास रख आया था। दोपहर का खाना खाने वाइस प्रिंसीपल को जाना था। हम दोनों जिस होटल पर पहुँचे, वह मेरे सामान वाले ढाबे से कुछ पहले पड़ता था। खाना खाते समय मैंने डी.पी.आई. दफ्तर में अपने संबंधों की बात कर दी और साथ ही, सी.ई.ओ. दफ्तर के ई.ओ. बंता सिंह की भी। वाइस प्रिंसीपल जिसें मैं अब तक वाइस प्रिंसीपल साहब कह कर बुला रहा था, उसने बताया कि उसका नाम केवल कृष्ण है और हम दोनों हम उम्र हैं, इसलिए मैंने उसे 'केवल कृष्ण जी' कहकर ही बुलाना आरंभ कर दिया। केवल कृष्ण ने गुप्ता जी और बंता सिंह के बारे में मुझसे कुछ और बातें पूछीं, जो मैंने जानबूझ कर बढ़ा-चढ़ाकर बता दीं। केवल कृष्ण ने ढाबे पर रोटी बांध रखी थी जिस कारण उसने रजिस्टर पर एक के स्थान पर दो उपस्थितियाँ दिखला दीं और मुझे पेमेंट करने से रोक दिया। उसके कहने पर ही मैं अपना बिस्तरा और अटैचीकेस उठवा कर उसके कमरे में पहुँच गया।
केवल कृष्ण हमीरपुर का रहने वाला था और मेरे नदौण के थोड़े समय के निवास के दौरान मेरा मित्र बन गया था। नदौण के अध्यापकों में से फ़िरोजपुर का रमेश शर्मा भी बाद में मेरे सबसे करीब रहा। बात बात में मैंने अपने परिवार की सारी पृष्ठभूमि बता दी। धर्म पाल गुप्ता और बंता सिंह से संबंधों की कहानी पहले ही बताने के कारण केवल कृष्ण मेरे साथ कुछ ही घंटों में घुलमिल गया था, जैसे काफी अरसे से परिचित हो। मेरे भाई का मुख्य अध्यापक होना, मेरी भतीजी ऊषा का मैट्रिक की परीक्षा में पंजाब यूनिवर्सिटी में प्रथम आना और मेडिकल की पढ़ाई वज़ीफे से करना और मेरा स्वयं एक लेखक होना आदि सब बातों से केवल कृष्ण जैसे सम्मोहित हो गया हो। ज्ञानी में यूनिवर्सिटी में मेरी तीसरी पोजीशन, एस.डी. सीनियर सेकेंडरी और जे.बी.टी. स्कूल, बठिंडा का हॉस्टल वार्डन और पहले भी जुआर और कांगड़े में नौकरी करने के कारण मेरा अच्छी खासी पहाड़ी बोल लेना और पहाड़ी समझ लेना आदि कुछ और नुक्ते थे, जिनके कारण केवल कृष्ण को मैंने पूरी तरह अपने हक में खड़ा होने के लिए तैयार कर लिया। मैंने तो पहले ही प्रिंसीपल से कोई बहस नहीं की थी। केवल कृष्ण ने मुझे और अधिक सचेत कर दिया कि प्रिंसीपल साहब के साथ बात करते समय मैं नम्रता का पल्ला न छोड़ूँ। मरता क्या न करता, मेरे जैसे बागी स्वभाव के बन्दे को भी मोम बनना पड़ गया था और यह रवैया मैंने तब तक कायम रखा जब तक अगले दिन बदली हुए मास्टर को रिलीव करके मुझसे ज्वाइन नहीं करवा लिया गया। फिर भी इतना लिहाज प्रिंसीपल ने उस मास्टर का रख लिया कि उसे दोपहर बाद रिलीव किया और मुझसे 14 अप्रैल को दोपहर बाद उपस्थिति दर्ज करवाई। इससे मेरे पहले दिन की तनख्वाह तो मर ही गई थी, दूसरे दिन की तनख्वाह पर भी लकीर फिर गई। लेकिन केवल कृष्ण का शुक्रिया अदा करना न मैं उस वक्त भूला था और न भविष्य में भूल सकता हूँ, जिसने मुझे ज्वाइनिंग देने के लिए प्रिंसीपल के सामने मेरी तारीफ़ के पुल बांध दिए थे। प्रिंसीपल पर बड़ा असर यह पड़ा कि मेरा भाई भी मुख्य अध्यापक है और डी.पी.आई. दफ्तर तक मेरी पूरी पहुँच है। ज्ञानी पास होने के कारण मैं विद्यार्थियों को ग्यारहवीं तक पंजाबी पढ़ा सकता हूँ, इस बात ने भी मेरी इस स्कूल में उपस्थिति के लिए राह को आसान किया क्योंकि ज़िला कांगड़ा में अभी भी पंजाबी अध्यापकों की बड़ी कमी थी।
रात को मैं रोटी खाने नहीं गया था। केवल कृष्ण ने बहुत ज़ोर डाला पर मैं सिर दुखने का बहाना लगाकर पड़ा रहा। एक और चारपाई उसने पहले ही मंगा ली थी। मैंने अपना बिस्तरा खोला और बिछा कर पड़ गया। यह बात नहीं कि मुझे रोटी की भूख नहीं थी, पर रात के समय बाज़ार में से गुजरते हुए मेरे अंधराते के बारे में केवल कृष्ण को पता चल जाने का अंदेशा था और यह बात मेरे इस स्कूल में नौकरी करने में विघ्न बन सकती थी। इसलिए मुझे रात में केवल कृष्ण के साथ किसी ढाबे पर रोटी खाने जाने की अपेक्षा भूखा रहकर रात काटने को अधिक तरज़ीह देनी पड़ी। इस तरह पहले भी मैं कई बार अन्य जगहों पर नौकरी के दौरान रात में भूखा सो चुका था। मजबूरी आदमी से क्या कुछ नहीं करवा देती, इस बात का मुझे सदैव अहसास रहा है। लेकिन यह केवल कृष्ण की सुहृदयता और समझदारी थी कि लौटते हुए वह मेरे लिए पेड़े ले आया था। ये पेड़े हम दोनों ने मिलकर खाये। इससे मुझे दो फायदे हुए। एक तो भूख से छुटकारा मिल गया, दूसरा रात में दूध पीने के बाद नींद न आने की गुंजाइश खत्म हो गई। लेकिन पेड़े मैंने हिसाब से ही खाये। मुझे डर था कि कहीं ये पेड़े मुझे दिन चढ़ने से पहले ही रात में जंगल-पानी के लिए उठने को विवश न कर दें। पर ये समझो कि रात भी बढ़िया कट गई और कोई समस्या भी नहीं आई थी। सवेरे दिन चढ़े ब्यास दरिया की तरफ हम जंगल-पानी भी हो आए और नहाने-धोने का काम भी निबट गया।
पहले दिन की मेहमाननवाज़ी के बाद अगले दिन छुट्टी के उपरांत कमरे की तलाश में मेरे साथ रमेश शर्मा भी था और केवल कृष्ण भी। केवल कृष्ण के कमरे से सिर्फ़ पचास गज की दूरी पर मुझे कमरा मिल गया। केवल कृष्ण की सिफारिश के कारण एक सेवा-मुक्त पहाड़ी अध्यापिका ने मुझे अपना एक कमरा दे दिया, सिर्फ़ दस रुपये महीने पर। चारपाई मुझे मकान मालिकन माता जी ने ही दे दी थी। नीचेवाले दो कमरे उस माता जी और उसकी बेटी के पास थे, ऊपरवाला एक बड़ा कमरा मुझे दे दिया गया और उसके साथ वाला कमरा बिलकुल खाली था। अपने कमरे में आकर मैंने राहत की सांस ली।
माँ खुद अध्यापिका रही होने के कारण दूर-दराज नौकरी करने वाले अध्यापकों की मुश्किलों को समझती थी। वह विधवा थी और 28-30 वर्ष की उसकी लड़की, जिसे वह कुंती कहा करती थी, वह भी विधवा थी। माँ का एक ही बेटा था जिसका नाम शायद विजय कुमार विज था। वह विवाहित था और दिल्ली में नौकरी करता था। सो, मुझे किराये पर रखना माँ-बेटी दोनों को किसी भी तरह से मुश्किल नहीं लगा था। पहाड़ी में बातचीत करने के कारण भी मैं माँ-बेटी दोनों को शायद विजय कुमार का रूप ही लगता होऊँगा। अगले रोज़ मैंने घर चिट्ठी भेजकर सारी स्थिति भाई को बता दी। भाई मेरा बहुत जुगाड़ी था। उसने प्रिंसीपल चानण राम को अपने लैटर पैड पर धन्यवाद की ऐसी चिट्ठी लिखी कि चिट्ठी मिलते ही प्रिंसीपल को लगा मानो उसे कुछ मिल गया हो। जब स्टॉफ मीटिंग हुई, प्रिंसीपल ने मेरा और मेरे परिवार का जिक्र किया और बताया कि अब चंडीगढ़ दफ्तर में इस स्कूल का काम इतनी आसानी से रुकने वाला नहीं। टाइम-टेबल तो पहले ही मुझे मेरी मर्जी का दे दिया गया था- नौवीं से ग्यारहवीं कक्षा तक की पंजाबी, आठवीं से सातवीं कक्षा की सामाजिक शिक्षा और सिर्फ़ सातवीं कक्षा की अंग्रेजी। भाई का ख़त आने पर प्रिंसीपल ने और रियायत की भी पेशकश की, पर सबकुछ मेरे मन मुताबिक ही हुआ था। इसलिए मीटिंग में जिन शब्दों में मैंने धन्यवाद किया, उससे मेरे अच्छे वक्ता होने का ऐसा प्रभाव पड़ा कि जल्द ही स्कूल में लिटरेरी क्लब बनाने की योजना बन गई और मुझे उसका प्रोग्राम इंचार्ज बना दिया गया। यह योजना एक अध्यापक आर.एल. भाटिया साहब ने रखी थी जो स्वयं क्लब का कन्वीनर बना। इसलिए मैंने सब कुछ उसकी निगरानी में करने का मन बना लिया था। बाद में, इस क्लब को बनाने के पीछे का असली मकसद भी उजागर हो गया था।
भाटिया साहब की लम्बी छुट्टी लेकर इंग्लैंड जाने की योजना थी। जाने से पहले वह चाहता था कि स्कूल की तरफ से कोई अच्छी विदाई पार्टी हो और ग्रुप फोटो भी खींची जाए। उसकी योजना फलीभूत भी हुई थी। विदायगी पार्टी की जिम्मेदारी एक वरिष्ठ अध्यापक द्वारका दास और मुझे सौंपी गई। बढ़िया विदाई पार्टी भी हुई और ग्रुप फोटो भी खींची गईं। तकरीरों में भाटिया साहब की प्रशंसा के पुल बांधे गए। यही वह चाहता था।
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ग्रीष्मावकाश में मैं घर आ गया था। कुशल-क्षेम का चिट्ठी-पत्र चलते रहने के कारण मुझे घर की हर बात और नदौण में मेरी रिहाइश से लेकर रोटी-पानी और स्कूल में एडजेस्टमेंट के बारे में बहुत कुछ बताने की ज़रूरत नहीं थी। भाई उतावला था कि मेरा विवाह हो जाए। हैल्थ-एजूकेटर की नौकरी के दौरान बड़े अच्छे घरों के रिश्ते आए, पर कोई परवान नहीं चढ़ा। कारण न दान-दहेज का लालच था और न ही लड़की के बहुत ही सुन्दर-सुशील होने की मांग। पता नहीं क्यों बात बनते-बनते टूट जाती थी। संभव है कि कोई पीठ पीछे मेरी कम नज़र की चुगली भी कर देता हो। मेरी निगाह कमजोर अवश्य थी पर आम लोगों में इस प्रकार का प्रचार नहीं हुआ था कि रिश्ते की राह में रुकावट बने। दिन के समय ऐनक लगी होने के कारण ही मेरी नज़र के कम होने का पता लग सकता था। वैसे मैं किसी को इतनी जल्दी सच्चाई का पता नहीं लगने देता था।
मेरी माँ और मेरा भाई ही नहीं, मैं भी चाहता था कि विवाह हो जाए। नज़र लगातार कम हो रही थी। मई 1959 से दोनों तरफ माइनस ढाई के शीशे लगे थे जो अब बढ़कर एक तरफ साढ़े चार और दूसरी ओर साढ़े पाँच हो गए थे। इस स्फेरिकल नंबर के साथ-साथ एक से डेढ़ का सिलेंड्रीकल नंबर भी दोनों ओर जुड़ गया था। इसलिए ये शीशे फ्रेम के साथ-साथ मोटे और बीच में पतले थे। शीशे की मोटाई से शायद कुछ लोग अंदाजा लगा लेते हों कि मेरी नज़र कुछ ज्यादा ही कमजोर है, पर असली बीमारी का तो मुझे भी पिछले वर्ष ही पता चला था। हमारे पड़ोसी किशने जिसकी घरवाली संती को हम सब मामी कहते थे, के छोटे लड़के मोहनलाल ने जोधपुरियों के बरनाला में रहते परिवार को मेरे बारे में बताया था। मोहन की दीवार से हमारी दीवार लगी हुई थी। मोहन के स्वयं भी ऐनक लगी हुई थी। इसलिए मेरा ऐनक लगाना उसे अजीब नहीं लगता होगा। लड़की का पिता लाला कर्ता राम सवेरे सात वाली पहली गाड़ी से ही मुझे देखने आ गया। मैं नहाकर आँगन में सिर में कंघी कर रहा था। वह बाहर से ही नज़र मार कर चला गया और मोहन से बात आगे चलाने के लिए कह गया। साथ ही, यह भी कह गया कि नदौण से तबादला करवाने की जिम्मेदारी उनकी है। तबादला हमारे लिए सबसे बड़ा लालच था क्योंकि पंजाबी प्रान्त बन जाने की घोषणा के कारण 1 अक्तूबर 1966 से नदौण हिमाचल प्रदेश में चला जाना था। अफ़वाह यह थी कि जो कर्मचारी जहाँ हैं, उनका उसी प्रान्त में आबंटन हो जाएगा।
जब यह मालूम किया गया कि जोधपुरियों का वह कौन-सा किला है जिसके सिर पर वह मेरी बदली नदौण से तपा मंडी के आसपास करवाने की गारंटी ले रहे हैं तो शाम को ही पता चल गया कि डी.पी.आई. दफ्तर का सुपरिटेंडेंट धर्मपाल गुप्ता करता राम का सगा बहनोई है। सो, बग़ैर किसी लम्बी-चौड़ी सौदेबाजी के मेरी मंगनी सुदर्शना देवी के साथ बरनाले में हो गई और साथ ही यह बात पक्की की गई कि विवाह बदली होने के पश्चात ही होगा। यह समझ लो कि मेरे दहेज में नदौण से धौले की बदली मिली थी और यह जो कुछ हुआ, अच्छा ही हुआ। शेष मंगनी और विवाह की कहानी अगले किसी अध्याय में पढ़ लेना।
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छुट्टियों में दुविधा का शिकार रहा। कभी मैं खुश हो जाता, कभी दुखी। मैं प्रिंसीपल के सम्मुख जैसे इस स्कूल में हाज़िर होते समय झेंपा था, बदली की गारंटी के कारण उस झेंप के खत्म होने की मुझे खुशी थी। उसने मुझे यूँ ही ज्वाइनिंग के समय भटकाये रखा था। बेडोल से कपड़ों वाला यह प्रिंसीपल न अधिक योग्य था और न ही इन्सानियत के बुनियादी तकाज़ों के प्रति संवेदनशील। जब मैं वापस नदौण पहुँचा, मैं चढ़ती कला में था। अब मैं गुप्ता जी के साथ अपनी रिश्तेदारी की बात छाती तान कर कह सकता था। वहाँ एक मास्टर था, जिसे सभी चौधरी साहब कहते थे। बी.डी.ओ. के पद से वह किसी तरह हटा दिया गया था। इसलिए दुबारा अफ़सर बनने की लालसा उसे तंग करती रहती थी। गुप्ता जी के साथ मेरी रिश्तेदारी की बात जब उसे पता चली, वह मेरे करीब होने का यत्न करने लगा। मेरी बहुत बढ़ा-चढ़ा कर प्रशंसा करने लगा। दरअसल वह चाहता था कि मैं किसी न किसी तरह उसकी विकास विभाग की बी.डी.ओ. की नौकरी के आधार पर उसे डी.पी.आई. के दफ्तर से मुख्य अध्यापक का नियुक्ति पत्र दिला दूँ। मैंने उसे भरोसा दिलाया कि मैं अपने तबादले के बाद उसके लिए यत्न करूँगा।
मकान मालकिन और उसकी बेटी कुंती यह सुनकर बहुत निराश हुईं कि बहुत जल्द मेरी बदली हो जाने वाली है। मैं तो उसके बेटे का हर फर्ज़ पूरा कर रहा था। मेरे कारण उसे अपने बेटे विजय की कमी महसूस नहीं होती थी। कुंती सगी बहनों से भी बढ़ कर सत्कार करती। राखी का त्यौहार आया, कुंती ने सवेरे ही नहाने-धोने के बाद माँ से कहकर मीठे चावल बनवा लिए और राखी बांधने के लिए मुझे नीचे बुला लिया। राखी बांधते समय वह बेहद खुश थी। मैंने बीस रुपये उसे देने चाहे पर उसने नोट नहीं पकडे। मैंने उसकी माँ से कहा कि वह कुंती से कह दे कि बहन-भाई के इस रिश्ते में मेरी ओर से कभी पीठ नहीं दिखाई जाएगी। बीस का नोट तो यूँ ही एक चिह्न है, असली तो बहन-भाई का प्यार ही इस त्यौहार की पवित्रता को बनाता है। 1966 की राखी के उस त्यौहार के बाद भी कुंती हर साल राखी भेजती रही। मैं मनीऑडर से उसे कुछ न कुछ अवश्य भेजता। पत्र भी लिखता, पर पत्र मैं उसकी माँ को लिखता था। हमारा यह सिलसिला 1975-76 तक चलता रहा। इसके बाद कुंती की कभी राखी नहीं आई। जब 1973 के नवरात्रों में मैं और मेरी पत्नी, क्रांति और बॉवी के साथ स्नान के लिए ज्वालामुखी गए, हम नदौण भी गए। मेरे दोनों गंजे बेटों को देखकर माँ और कुंती खुश हो गईं। जब मेरी पत्नी सुदर्शना ने दोनों के चरण छुए, उन्होंने आशीषों से मेरी पत्नी और बच्चों को लाद दिया। हमें कहाँ बिठायें, यह चिन्ता उनके चेहरे पर थी। बढ़िया भोजन तैयार किया गया। हमारी सेवा में कोई कसर शेष नहीं रही थी।
हम आर्य समाजी साबुन वाले मित्र के घर भी गए। उन्हें भी हमें देखकर जैसे बेहद खुशी हुई हो। बेटियाँ दोनों ब्याही गई थीं। छोटी बेटी तो जालंधर के एक बहुत बड़े व्यापारी के घर ब्याही गई थी। सुरिंदर घर पर नहीं था। यशपाल ही अब दुकान का काम संभालता था। अब वह पूरा जवान हो गया था और पहचान में नहीं आता था। वापस लौटने की जल्दी के कारण हम वहाँ करीब घंटाभर ही रुके, पर मुझे इन दोनों परिवारों से मिलकर जो खुशी हुई, वह शब्दों में बयान नहीं की जा सकती।
जब मैं नदौण में पढ़ाया करता था, तब भी मैं दो बार ज्वालामुखी गया था। एक बार पैदल चलकर ही ज्वालामुखी पहुँच गया था, वापस बस पर आया था। ये कैसे संस्कार थे कि मार्क्सवाद का अच्छा-खासा प्रभाव होने के बावजूद मैं ज्वालामुखी मंदिर में गया और शीश निवाया।
(जारी…)

1 comment:

Sanjeet Tripathi said...

"ये कैसे संस्कार थे कि मार्क्सवाद का अच्छा-खासा प्रभाव होने के बावजूद मैं ज्वालामुखी मंदिर में गया और शीश निवाया।"
javab to lekhak sahab ne khud hi apne liye de diya "संस्कार" shabd ka ullekh karte hue...

is kisht me shadi ka jikra aane se utsukta badh gai hai shadi ka pura kissa jan ne ki.. chaliye intejar karte hain...