समकालीन पंजाबी साहित्य की उत्कृष्ट कृतियों की तलाश

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Saturday, July 24, 2010

आत्मकथा


एक नेत्रहीन लेखक की आत्मकथा

धृतराष्ट्र
डॉ. एस. तरसेम
हिन्दी अनुवाद : सुभाष नीरव
चैप्टर-11

आर्य हाई स्कूल, रामपुराफूल

मैं जानता था कि एस.डी.हाई स्कूल, मौड़ मंडी का हैड मास्टर कश्मीरी लाल खुंगर मुझे स्कूल में टिकने नहीं देगा। इसलिए मैंने दूसरी नौकरी की तलाश में हाथ-पैर मारने आरंभ कर दिए थे। आर्य हाई स्कूल, रामपुराफूल के मैनेजर ने मुझे दसवीं तक मैथ पढ़ाने के लिए मास्टर कैडर की पोस्ट पर रखने की पेशकश की। मैंने उसे यह सब कुछ बता दिया था कि मैं मौड़ मंडी छोड़ कर क्यों आ रहा हूँ। अच्छरू राम का घर मेरी बहन तारा के घर के बिलकुल सामने था। मेरे जीजा मदन लाल उन दिनों में गुड़गांव के कस्बे पलवल में बी.डी.पी.ओ. दफ्तर में अकाउंटेंट थे। नौकरी करने से पहले वह रामपुराफूल में गणित और अंग्रेजी की ट्यूशनें किया करते थे। बी.ए. मैथ ए-बी कोर्स होने के कारण उनकी मैथ पर बहुत पकड़ थी। मेरे भाई को आर्य हाई स्कूल, तपा में हैड मास्टर नियुक्त हुए तीन वर्ष से भी अधिक समय हो गया था और बी.ए. में मैथ न पढ़ा होने के बावजूद वह एक लम्बे समय से मैट्रिक तक की कक्षाओं में मैथ पढ़ाता था। मेरी इस पृष्ठभूमि का अच्छरू राम को पता था। इसलिए वह मुझे स्कूल में मैथ के पद पर लाने के लिए मुझसे अधिक उतावला था। मैं भी मौड़ मंडी छोड़कर किसी अन्य स्कूल में लगना चाहता था ताकि माँ और भाई की नाराजगी से बच सकूँ। माँ और भाई यद्यपि मुझे कहते तो कुछ नहीं थे, पर अन्दर ही अन्दर मुझे पंगेबाज ज़रूर समझते थे। माँ तो हमेशा यही अक्ल देती रहती- ‘मीठा बोलें, झुककर चलें, पल्ले से कुछ न दें।’ मैं उसकी इस बात पर अमल भी करता था। मीठा बोलता, विनम्र रहता, पर फिर भी पता नहीं मेरा कहीं न कहीं, किसी न किसी से पंगा अवश्य पड़ ही जाता। हैड मास्टर खुंगर के साथ पड़े पंगे के पीछे न तो मेरी ज़ुबान का कड़वापन था और न ही हैंकड़बाजी।
यद्यपि मैथ पढ़ाना मुझे अंग्रेजी और सामाजिक शिक्षा से कुछ कठिन लगता था लेकिन गले पड़ा ढोल बजाना ही था। इससे माँ भी खुश थी और भाई उससे भी अधिक। मैथ पढ़ाना मेरे लिए इसलिए कठिन नहीं था कि मुझे यह विषय पढ़ाना नहीं आता था। मैंने तपा के आर्य स्कूल में नौकरी के दौरान भी मैथ पढ़ाया था और मैथ की ट्यूशनें भी की थीं। मैथ तो अब सिर्फ़ इसलिए कठिन लगता था, क्योंकि दसवीं के मैथ का कुछ हिस्सा पहले घर से देखकर जाना पड़ता। दिसम्बर का महीना चल रहा था। इन दिनों दसवीं के गणित, एलजबरे और ज्योमेट्री के अन्तिम भाग का सिलेबस चल रहा था। इस हिस्से को पढ़ाने के लिए पहले घर से तैयारी करके जाना ज़रूरी था। दूसरा यह कि सभी कक्षाओं में ब्लैक बोर्ड का प्रयोग करना आवश्यक था। चाक का गर्दा मेरे लिए बहुत नुकसानदेह था। अगर मैं स्वयं भी डस्टर से बोर्ड साफ न करता और यह काम विद्यार्थियों से करवाता तो भी बोर्ड के निकट खड़े होने के कारण चाक का गर्दा मुझे चढ़ता था। इस तरह जुकाम हो जाता। कभी कभी तो आँख और नाक से बहता पानी दुखी कर देता। विद्यार्थियों के सामने मेरी इस हालत से कक्षा पर मेरी पकड़ ढीली होने का खतरा था। पर सबसे बड़ा विघ्न था - मेरी नज़र का कम होना। इस सब कुछ के बावजूद मैं आर्य हाई स्कूल, रामपुराफूल के मैथ मास्टर के तौर पर हाज़िर हो गया था।
हालांकि माँ और भाई यह चाहते थे कि मैं रोज़ सुबह सात बजे की गाड़ी तपा से पकड़कर जाऊँ और दोपहर बाद चार बजे वाली गाड़ी पर वापस लौट आया करूँ। बीसेक रुपये का तीन महीने का रेल का पास बनता था। सौ रुपये भाई को देकर बाकी बचे बीस रुपये मेरे जेब खर्च के लिए बहुत थे। पर तारा बहन की समस्या के सामने भाई को मेरा रामपुराफूल रहना बिलकुल ठीक लगा। स्कूल बिलकुल घर के साथ था। घंटी बजने पर ही घर से चलता। आधी छुट्टी में घर आकर रोटी खाता और पूरी छुट्टी होने पर हाज़िरी लगाई और घर आ गया।
मेरे पढ़ाने से विद्यार्थी बहुत संतुष्ट थे। हैड मास्टर कोई देव राज या जगन नाथ नाम का मेरी ही शैक्षिक योग्यता वाला और मेरे से चार वर्ष बड़ा भद्र पुरुष था। उसको सरकारी स्कूल में बतौर मास्टर नियुक्ति पत्र मिला हुआ था। इसलिए उसे स्कूल के कामों में अधिक रुचि नहीं थी। स्कूल का मुखिया असल में एक पंजाबी टीचर ही समझो। वह स्कूल के मैनेजर अच्छरू राम के बहुत निकट था। निकट कहा तो बहुत कहा, वह मैनेजर का चमचा था। जिस मास्टर ने ज्ञानी को खुश कर लिया, समझो उसे पढ़ाने के लिए ज़रूरत नहीं। स्कूल घर के बहुत करीब होने के कारण मैनेजर भी अक्सर स्कूल में घंटे दो घंटे बैठा रहता। स्कूल की निगरानी भी हो जाती और मैनेजर का वक्त भी अच्छा गुजर जाता। मुफ्त में स्कूल के दोनों अख़बार पढ़ जाता। शायद दुआ-सलाम करवाने की भी उसकी इच्छा पूरी हो जाती हो।
इस स्कूल में मुझे मैनेजर के सामने आ जाने पर उसको सलाम करना पड़ता। यह काम मुझे बहुत मुश्किल लगता। उसका स्कूल में आना कतई न भाता। हैड मास्टर द्वारा भीतरी बात बताने पर तो मैनेजर मुझे ज़हर जैसा लगता। किसी मान्यता प्राप्त स्कूल के मैनेजर के घर का सारा खर्च भी स्कूल से चलता हो, यह बात मेरे मन को कैसे भा सकती थी। पर मैं इस भ्रष्टाचार का कर भी क्या सकता था। बस, अन्दर ही अन्दर कुढ़ता रहता।
आर्य स्कूल में मैंने महीना भी पूरा नहीं किया था कि तीन ऐसी घटनाएँ घटित हो गईं जिससे मेरी अंतरात्मा बुरी तरह खरोंची गई।
पहली घटना एक विद्यार्थी से संबंधित थी। नौवीं कक्षा का वह विद्यार्थी मेरे से कद में ऊँचा और शरीर से भारी था। वह ओवरकोट पहन कर आता और सिर पर फौजियों वाली टोपी पहनता। सर्दियों के कारण मुझे उसका यह पहरावा बिलकुल नहीं चुभता था। लेकिन जो बात सबसे अधिक चुभती, वह यह थी कि वह रोज़ कक्षा में देर से आता। साथ वाले किसी कमज़ोर साथी को ज़रूर छेड़ता रहता। सभी विद्यार्थी उसे गोप साहिब कहते। मैं भी इस गोप साहिब की अनुशासनहीनता से तंग था। आख़िर, चार-पाँच दिन देखने के बाद मैंने उसे क्लास से बाहर निकाल दिया। विद्यार्थियों ने मुझे उसकी कई बदमाशियों के बारे में बताया और हैड मास्टर ने भी कहा कि मुझे इस तरह नहीं करना चाहिए था। हैड मास्टर साहब की राय थी कि अब भी विद्यार्थियों के हाथ सन्देशा भेज कर उसे बुला लिया जाए। एक बदमाश विद्यार्थी के सम्मुख एक ईमानदार अध्यापक झुके, मुझे यह स्वीकार नहीं था। एक विद्यार्थी ने बताया कि गोप छुरा लिए घूमता है। मैंने उस विद्यार्थी से कहा कि चाहे वह बन्दूक लिए घूमता हो, जब तक वह लिखत रूप में माफ़ी नहीं मांगेगा, उसे कक्षा में बैठने नहीं दिया जाएगा। विद्यार्थियों ने सारी बात गोप के माँ-बाप तक पहुँचा दी। उसका बाप स्वयं माफ़ी मांगने आया। सारा स्टाफ चाहता था कि बात जैसे तैसे रफा-दफा हो जाए। पर बेटे की गलती पर पिता की माफ़ी वाली बात मुझे जंची नहीं थी। मैंने उसके पिता को समझाया कि यदि यह लड़का अभी भी न सुधरा तो भविष्य में तुम्हारे सिर के लिए मुसीबत बन जाएगा। मैंने यह बात किसी गुस्से में नहीं, वरन धैर्य के साथ कही थी। पता नहीं, उसके माँ-बाप ने गोप को कैसे मनाया, उसने अगले दिन लिखित रूप में माफ़ी मांग ली थी। इस बात का अन्य विद्यार्थियों पर भी बहुत अच्छा प्रभाव पड़ा। बड़ी कक्षाओं के विद्यार्थी अब मेरे से ही नहीं, बल्कि सभी अध्यापकों की शर्म करने लग पड़े थे। बाबू अच्छरू राम को भी मेरा यह स्टैंड अच्छा लगा था। अब गोप आँख में नहीं चुभता था।
उन दिनों बहन सीता के घर मैं सिर्फ़ एक बार ही गया। बहन सीता की मौत को छह साल होने जा रहे थे। उसकी एक के बाद एक तीन लड़कियाँ थीं। बस लड़कियों का मोह खींचता था। और उस घर में मेरा था भी क्या ? जिस तरह हमारे साथ बहन सीता के ससुराल वालों का सलूक था, उसको याद करके तो उस गली में जाने को भी आत्मा नहीं मानती थी। पर भान्जियों के होते टूटा भी नहीं जा सकता था। इसलिए खून का रिश्ता मुझे उनके घर ले गया था। इधर बहन तारा के ससुराल वालों से भी हम पूरी तरह सुखी नहीं थे।
एक तो मेरी तरह बहन तारा की दृष्टि भी तेजी से कम हो रही थी, ऊपर से अपने पति मदन लाल के सख्त स्वभाव के कारण डर-डर कर दिन व्यतीत करती थी। उन दिनों वह बी.ए. पास थी और पूरे इलाके के गाँवों और कस्बों में लड़कियों का बी.ए. कर जाना कोई छोटी बात नहीं थी। मैंने अपनी बहन तारा की सुविधा के कारण ही उसके घर में रहना शुरू किया था। वह गैस सिलेंडरों का ज़माना नहीं था। कस्बों में या तो चूल्हा जलाया जाता या फिर पक्के कोयलों की अंगीठी। महीने से कम समय में मुझे दो तीन बार गली में रख कर लकड़ियाँ पाड़नी पड़ीं, अंगीठी के लिए छोटे छोटे टुकड़े करने पड़े। तपा में ऐसा काम करने में संकोच नहीं था पर यहाँ बहन के घर, बल्कि एक स्कूल मास्टर होने के कारण झिझक-सी थी। सोचता था कि यदि किसी लड़के ने देख लिया तो वह क्या सोचेगा ? एक दिन आटा पिसाने के लिए बोरी अभी बाहर निकाल कर रखी ही थी कि मेरा एक विद्यार्थी आ गया। कपड़ों से वह अच्छे घर का लड़का लगता था। मैं उसे जानता भी नहीं था पर उसने सत्कार में मुझे गेहूं की भरी हुई बोरी उठाने नहीं दी थी। आटे की मशीन बिलकुल नज़दीक थी। आटा पिसा कर वह स्वयं घर छोड़ गया। बड़ी मुश्किल से मैंने उसे पिसाई के पैसे दिए। घर में पता नहीं, बेचारे ने ऐसा काम किया भी होगा या नहीं, पर मुझे ऐसा लगा मानो वह बिना मांगे गुरू दक्षिणा दे गया हो।
सबसे कठिन काम जो इन दिनों मुझे करना पड़ा, वह था रात के समय रेलवे स्टेशन पर अपने जीजा मदन लाल जी को गाड़ी चढ़ा कर आने का। सर्दी का बिस्तरा और कुछ सामान बिस्तरबंद में पैक था। मैं स्टेशन जाने के लिए किसी भी तरह से इन्कार नहीं कर सकता था। न यह कह सकता था कि रात में मुझे अंधराते के कारण आने-जाने में दिक्कत आती है। ऐसा करने से तो बात बहुत बिगड़ सकती थी। मेरी आँखों की बीमारी की राह सीधी मेरी बहन की तरफ जाती और ऐसा करने से बहन तारा को छोड़ने तक की नौबत आ सकती थी। हम दोनों बहन-भाई के अच्छे नसीबों से सबब यह बना कि स्टेशन पर जाने के लिए दसेक साल का एक लड़का तैयार हो गया। शायद यह मदन लाल जी का भतीजा था या उनके बिलकुल सामने के घर वाली मौसी परमेशरी का पोता था। परमेशरी और मेरी माँ सगे मामा-बुआ की बेटियाँ थीं।
पहले बिस्तरा कंधे पर उठाया, आधे रास्ते पहुँचकर मैंने बिस्तरा सिर पर रख लिया। अगर कोई झिझक थी तो बस यही कि कोई स्कूल का लड़का न देख ले। रेलवे का माल गोदाम पार करके छह फुट ऊँचे प्लेटफॉर्म से छलांग लगाई, प्लेटफॉर्म पर पड़ा बिस्तरा कंधे पर रखा, रेलवे लाइनों को पार किया और टिकट खिड़की के पास जा खड़े हुए। रेलवे प्लेटफॉर्म पर पूरी रौशनी थी। यहाँ चलने-फिरने में मुझे कोई दिक्कत महसूस नहीं होती थी। मदन लाल जी को दुआ-सलाम करने और गाड़ी के चलने के बाद उस लड़के के साथ उसी रास्ते वापस घर पहुँच गया। लगता था जैसे मनों बोझ सिर पर से उतर गया हो। इतना हल्का-फुल्का महसूस कर रहा था जैसे पुलिस अफ़सर को विदा करने के बाद कोई सिपाही महसूस कर रहा होता है।
लड़का शायद मेरी बांह पकड़ कर अपने आप को सुरक्षित महसूस कर रहा हो, पर उससे अधिक सुरक्षित मैं अपने आप को महसूस कर रहा था। कहीं कहीं स्ट्रीट लाइट का न होना भी इस लड़के के कारण महसूस नहीं हुआ था। भवजल पार करने की यह घटना मेरे स्थायी जख्म का वह अहसास है जिसे सुखदायी मल्हम-पट्टी जैसा मान सकते हैं। बहन के घर किसी चीज़ की कमी नहीं थी। घर में बहन की दादी सास थी जिसे सभी बेबे कहते थे। मैं भी उस वृद्धा को बेबे ही कहता था। रोज़ शाम को उसका बिस्तरा झाड़कर बिछाया करता। दस-पंद्रह मिनट उसके हाथ-पैर भी दबा देता। उसके सिरहाने पानी की लुटिया भी रख आता। आते हुए उसके ऊपर अच्छी तरह रजाई देकर पूछता-
''बेबे जाऊँ ?'' बेबे सौ-सौ आशीषों से मुझे लाद देती। यहाँ रहकर मुझे पता चला कि इन घरों में औरतों की कोई कद्र नहीं। दादी या माँ को भी इस घर के मर्द कुछ नहीं समझते। बेबे के पास बैठने से यह भी पता चला कि यह परिवार अमीर होने के कारण अपनी बहुओं के मायके वालों की कोई खास कद्र नहीं करता था।
अभी महीना पूरा भी नहीं हुआ था कि मेरे इस स्कूल में से भी विदा होने के आसार बन गए। मुझे मैनेजर ने अभी नियुक्ति पत्र नहीं दिया था। जब मैं नियुक्ति पत्र की बात करता, मैनेजर टाल जाता। मुझे दाल में कुछ काला लगा। मैनेजर के साथ होती बातों से पता चला कि दाल में काला नहीं, यह तो सारी दाल ही काली है। मेरे बार बार नियुक्ति पत्र मांगने का परिणाम यह निकला कि उसने जो पत्र मुझे दिया, उसमें मेरी नियुक्ति 28 फरवरी 1965 तक की गई थी। पढ़ते ही मेरे तन-बदन में आग लग गई। ऐसा धोखा मेरे संग पहली बार हुआ था। मैंने मैनेजर साहब को बड़े तैश में कहा -
''मार्च-अप्रैल में मैं कहाँ जाऊँगा। मार्च में परीक्षाएं होती हैं और अप्रैल में दाख़िले। इन दोनों महीनों में तो ट्यूशनों का भी कोई स्कोप नहीं। अगर मुझे पहले मालूम होता कि आपने मेरे साथ फ्राड ही करना है, मैं ज्वाइन ही नहीं करता।'' बाबू अच्छरू राम पूरा खिलाड़ी था। वह गुस्से में नहीं आया था। लगता था कि वह मुझसे कुछ डरता भी था। बड़े धैर्य से कहने लगा-
''तुम क्या चाहते हो ?''
''वह अप्वाइंटमेंट जिसमें वन मंथ नोटिस ऑन बोथ साइड्ज़ का प्रोविजन हो।'' मेरा जवाब था।
''अब मसला कैसे हल होगा ?'' वह छिपे हुए शिकारी की तरह स्वयं दाव पर प्रतीत हुआ।
''मैं कल घर में सलाह करके बताऊँगां।'' यह कहकर मैं अगले दिन बठिंडा चला गया और स्कूल में छुट्टी भेज दी। एस.डी. हॉयर सेकेंडरी और जे.बी.टी. स्कूल में सीनियर क्लासों और जे.बी.टी. क्लासों को पढ़ाने के लिए पंजाबी टीचर की आवश्यकता थी और हॉस्टल वार्डन की भी। उनसे मेरा सौदा तय हो गया। मेरी शर्तों पर उन्होंने मुझे नियुक्ति पत्र दे दिया और मैं दो दिन के अन्दर-अन्दर ज्वाइन करने का वायदा करके बाबू अच्छरू राम से जाकर मिला।
मानो दोनों धड़े तैयार हों। वह हटाने को और मैं हटने को। मैंने बाबू अच्छरू राम से स्पष्ट कह दिया या तो मेरी इच्छानुसार नियुक्ति पत्र दो, या फिर मेरा हिसाब कर दो। वह पहले ही जैसे हिसाब करने को तैयार बैठा हो। बाईसेक दिन की तनख्वाह लेकर मैंने सारी कहानी आकर भाई को बता दी। भाई को इस बात की पृष्ठभूमि का पहले ही पता था। अच्छरू राम को पहले दिन मिलने से लेकर दो हफ्तों के अन्दर-अन्दर उसको मेरे विरोध में एक सूचना तो मौड़ मंडी से मिल गई और दूसरी हमारे ही शुभचिंतक मास्टर चरन दास से। मौड़ मंडी वाली सूचना का सारतत्व यह था कि मैं विद्यार्थियों को भड़काता हूँ और उनको ऐसी राह लगाता हूँ कि किसी के विरुद्ध भी हड़ताल करवा सकता हूँ। जैसा कि मैंने पहले भी मोगा बी.एड. करते समय की कहानी में बताया है कि मास्टर चरन दास जो आर.एस.एस. से संबंधित होने के कारण मेरे भाई और हमारे सारे रिश्तेदारों से अच्छा मेलजोल रखता था और आर.एस.एस के कारण बाबू अच्छरू राम के नज़दीक था, अचानक मैनेजर साहब को मिला। मेरे बारे में पूछने पर मास्टर चरन दास ने मेरी पूरी प्रशंसा की और साथ ही कह दिया कि मैं पक्का कामरेड हूँ। कामरेड किसी कट्टरपंथी आर.एस.एस को तो क्या, राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के साधारण वर्कर को न तो पहले भाता था और न अब भाता है। यह पृष्ठभूमि थी बाबू अच्छरू राम के उस नियुक्ति पत्र की जो उसने 28 फरवरी 1965 तक का दिया था।
भाई को भी मेरे आर्य हाई स्कूल, रामपुराफूल छोड़ने पर कोई अफ़सोस नहीं हुआ था। वह खुद अच्छरू राम से नफ़रत करता था। दूसरा यह कि मैंने कहीं भी नियुक्ति पत्र लेते समय अभी तक भाई का ज़ोर नहीं लगने दिया था। इसका कारण केवल मेरी योग्यता ही नहीं थी, बल्कि उस समय बेरोज़गारी के हालात का कारण भी रहा होगा। उस समय आज जैसा बुरा हाल नहीं था। अगर यह कहूँ कि हाल अच्छा था तो भी ठीक नहीं।
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Sunday, July 18, 2010

पंजाबी उपन्यास




''साउथाल'' इंग्लैंड में अवस्थित पंजाबी कथाकार हरजीत अटवाल का यह चौथा उपन्यास है। इससे पूर्व उनके तीन उपन्यास - 'वन वे', 'रेत', और 'सवारी' चर्चित हो चुके हैं। ''साउथाल'' इंग्लैंड में एक शहर का नाम है जहाँ अधिकतर भारत से गए सिक्ख और पंजाबी परिवार बसते हैं। यहाँ अवस्थित पंजाबी परिवारों के जीवन को बेहद बारीकी से रेखांकित करता हरजीत अटवाल का यह उपन्यास इसलिए दिलचस्प और महत्वपूर्ण है क्योंकि इसके माध्यम से हम उन भारतीय लोगों की पीड़ा से रू-ब-रू होते हैं जो काम-धंधे और अधिक धन कमाने की मंशा से अपना वतन छोड़ कर विदेशों में जा बसते हैं और वर्षों वहाँ रहने के बावजूद वहाँ की सभ्यता और संस्कृति का हिस्सा नहीं बन पाते हैं।


साउथाल
हरजीत अटवाल
हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव

॥ आठ ॥
सप्ताहांत पर ग्लोस्टर ऐसे ही भरता है। खास तौर पर शनिवार वाले दिन। बैठने के लिए जगह नहीं मिलती। यद्यपि कोई खास संगीत नहीं होता, खास किस्म का खाना आदि नहीं होता, बड़े स्क्रीन वाला टेलीविज़न भी नहीं कि लोग मैच देखने आएँ। लोगों में इस पब का नाम बहुत साफ़-सफ़ाफ है। यह पारिवारिक पब के तौर पर जाना जाता है। पब का अपना बड़ा कार पॉर्क है। इसलिए लोग दूर-दूर से भी आ जाते हैं। हर रंग का आदमी होता है। यह पब साउथाल और ग्रीनफोर्ड के बार्डर पर होने के कारण यहाँ देसी लोगों की बहुतायत नहीं होती बल्कि मिले-जुले लोग होते हैं।
श्याम भारद्वाज का यह पसंदीदा पब है। यहाँ की बीयर से अधिक यह भीड़ उसे अच्छी लगती है। किसी की ओर देखे बग़ैर अपनी अपनी बातों में उलझी भीड़। सप्ताहांत पर वह यहीं आता है। दोस्तों को मिलने के लिए भी यहीं बुला लिया करता है। उसने कुछ जल्दी आकर एक मेज पर कब्ज़ा कर रखा है। बीयर के गिलास भी भरवा लिए हैं। जगमोहन जल्दी ही पहुँच जाता है। उसके पीछे ही गुरचरन। कुछ देर बाद दिलजीत भी हाथ मिलाता आ बैठता है। वह पूछता है-
''श्याम, तूने ऐसी कौन सी खास बात करनी है कि पूरा गैंग ही बुला लिया।''
''अभी सोहनपाल नहीं आया, आ लेने दे उसे भी।''
''भीड़ बढ़ रही है, फिर एक दूसरे की बात भी सुनाई नहीं देगी।''
दिलजीत पत्रकार है। पत्रकारों वाली खुरचने की आदत है उसकी। श्याम कुछ कहने के लिए तैयार हो ही रहा है कि सोहनपाल आ जाता है। सबसे 'हैलो' कहता है। श्याम उसे गिलास की तरफ संकेत करता है। वह चीयर्स कहता हुआ उठा लेता है और फिर कहता है-
''संगत के बैठने के लिए यह स्थान बहुत ठीक नहीं, बात ढंग से नहीं हो सकेगी। किसी दूसरे पब में चलते हैं।''
''पर श्याम को यही जगह पसंद है, चल तू बात शुरू कर।''
जगमोहन पहली बात सभी को और दूसरी बात श्याम भारद्वाज से कहता है। श्याम दोनों हाथों को मलता हुआ बोलना प्रारंभ करता है-
''मैं बहुत दिनों से सोच रहा हूँ कि ईलिंग काउंसल में कई काउंसलर ऐसे हैं जो काउंसलर बनने के बिलकुल काबिल नहीं, अनपढ़ किस्म के लोग।''
''हम क्या अब इन्हें पढ़ाएँ ?''
जगमोहन को सियासत से कोई लगाव नहीं है। वह जानता है कि श्याम कोई सियासी बात ही करेगा। गुरचरन कहने लगता है-
''तू बात तो उसकी पूरी सुन ले।''
''हाँ, मेरा मतलब है कि हम सब पढ़े-लिखे हैं। हम क्यों नहीं काउंसल का चुनाव लड़ते। इन ग्रामीण अनपढों को खदेड़ कर एक तरफ करें।''
''ओ श्याम भाई, ऐसे नहीं किसी को खदेड़ा जा सकता। इन लोगों को कई कई साल लग गए हैं लोगों में अपना नाम बनाने में। तेरे जैसा कोई कल को उठकर कहे कि...''
''मैं कौन सी कल की ही बात कर रहा हूँ। मैं तो लोंग टर्म के बारे में कहता हूँ। अब अपने में से सोहनपाल सियासत में हिस्सा लेता है, पर पीछे रह कर ही। इसे काउंसलर बनाएँ।''
''न भाई, मुझे अगर काउंसलर के लिए खड़ा होना होता तो कई साल पहले ही बन जाता, पर मुझे किंग बनने से किंग मेकर बनने में अधिक मजा दिखाई देता है। और मैं ऐसे ही खुश हूँ।''
''फिर तू हमारे में से किसी को किंग बना, मैं चाहता हूँ कि हम इस चुनाव में हिस्सा लें। क्यों भाई ?''
कहते हुए श्याम भारद्वाज जगमोहन की तरफ देखता है। जगमोहन प्रत्युत्तर में कहता है-
''श्याम, मैं भी इस रेस का घोड़ा नहीं। तुम सब खड़े हो जाओ, मैं पीछे से पूरी सपोर्ट करूँगा।''
जगमोहन के बाद गुरचरन भी हाथ खड़े कर जाता है और दिलजीत को भी कोई दिलचस्पी नहीं। वह पंजाबी के एक साप्ताहिक पत्र का एडिटर है जिसका मालिक राजकुमार मित्तल इसी पत्र को हिंदी में भी निकालता है। हिंदी में 'आईना' और पंजाबी में 'नवे अक्स'। हिंदी के पाठकों की संख्या तो लंदन में यूँ ही न बराबर ही है पर पंजाबी का परचा ठीक बिक जाता है। कहा जाता है कि भारतीय सरकार इसको पूरी मदद दे रही है। साउथाल में से निकलते पंजाबी के बहुत से परचे खालिस्तान की बोली बोलते हैं और उनका मुकाबला करने के लिए भारतीय सरकार राजकुमार मित्तल की किसी न किसी तरह आर्थिक सहायता करती है। दिलजीत कहता है-
''मेरे पास तो टाइम ही नहीं। यह जो मूलवाद की ज़हरीली हवा चली हुई है, इसे रोकने में परचे के माध्यम से जो मैं योगदान दे रहा हूँ, उधर से ही फुरसत नहीं है मेरे पास।''
श्याम भारद्वाज मुंस्कराता है मानो यही सुनना चाहता हो और ठहरी सी आवाज़ में कहता है-
''फिर तुम सब मेरे साथ खड़े होवो, मुझे काउंसलर बनाओ।''
''छोड़ यार श्याम, काउंसलर की भी कोई जॉब है।''
''ठीक है तेरी बात सोहनपाल, पर मेरी निगाह तो इससे भी आगे जाने की है, एम.पी. तक।''
''एम.पी. की पोस्ट पर बड़े बड़े घड़ियाल नज़र टिकाये बैठे हैं। तू इतनी जल्दी क्या कर पाएगा।''
''मैं जल्दी में कुछ करने के लिए कब कहता हूँ, मुझे कोई जल्दी नहीं।''
सभी हाँ में सिर हिलाकर चुप हो जाते हैं। दिलजीत पूछने लगता है-
''किस पार्टी में जाएगा ?''
''लेबर पार्टी का मैं मेंबर हूँ यार।''
''लेबर पार्टी के पास तो पहले ही काउंसलर ज्यादा हुए फिरते हैं।''
''पहले कैंडीडेट तो बने यह।''
''लेबर पार्टी की कैंडीडेसी के लिए भी लोग सड़कों पर घूमते फिरते हैं।''
सोहनपाल कहता है। श्याम भारद्वाज के हौसले पस्त होने लगते हैं। वह फिर कहता है-
''ये यार माणकूं, परदेसी, कंवल जैसे कैसे बन गए ?''
''ये भी बन गए, इसका भी एक प्रोसीज़र है, उसे फौलो करना पड़ेगा।''
''यार सोहनपाल, तू श्याम को इस तरह की बातों से हर्ट अटैक न करवा देना। सीधी तरह बता कि इसे कौन सी सीढ़ियाँ चढ़नी होंगी।''
''प्रोसीज़र यह है कि हर कैंडीडेट को सिलेक्शन कमेटी के सामने जाना पड़ता है। वहाँ जाकर बताना पड़ता है कि उस में काउंसलर बनने की कौन सी योग्यता है, लेक्चर वगैरह तू दे ही लेगा। वहीं पार्टी के सभी मेंबर बैठे होते हैं, उन्हें कन्विंस करना पड़ता है। वोटिंग होती है। जिसकी अधिक वोटें, वह काउंसलर के लिए पार्टी का कैंडीडेट चुना जाता है। यह तो तू जानता ही है कि ईलिंग में लेबर पार्टी का ज़ोर है, लेबर का कैंडीडेट आगे चुना ही जाता है। जद्दोजहद बस कैंडीडेट की नोमिनेशन जीतने की है।''
''श्याम, तेरी बात नहीं बनेगी।''
जगमोहन सोहनपाल की बात सुनकर अपनी राय देता है। श्याम कुछ नहीं बोलता, सोहनपाल फिर कहता है-
''यहाँ ट्रिक यह है कि अधिक से अधिक लोगों को लेबर पार्टी के मेंबर बनाओ और जिस दिन सेलेक्शन हो, सारे मेंबरों को लेकर जाओ। अगर तुम्हारी वोटें अधिक हुईं तो तुम कैंडीडेट भी चुने गए, समझो।''
''यह हेराफेरी नहीं ?''
''नहीं, यह राजनीति है।''
''इसीलिए मैं राजनीति से नफ़रत करता हूँ।''
''जग्गे, नफ़रत वाली इसमें कोई बात नहीं। गोरे कैंडीडेट भी कई बार इसी तरह करते हैं, पर हम तो करते ही ऐसा हैं। यह एक प्रोसीज़र है। असल बात यह है कि जो लोग लोगों में जाकर ज्यादा काम करते हैं, वही आगे आते हैं।''
''लोगों में तो मैं भी जाऊँगा, मेरे बहुत लोग परिचित हैं। मैं सबको पार्टी का मेंबर बना दूँगा। थोड़ी सी तो मेंबरशिप फीस है, मैं दे दिया करूँगा।''
''फीस तो थोड़ी ही होती है पर बहुत ध्यान से चलना पड़ेगा। दूसरे नज़र भी रखते हैं पूरी तरह। यह मेंबरशिप फीस कोई कैंडीडेट नहीं भर सकता।''
सभी सोचने लग जाते हैं। गुरचरन कहता है -
''पहले कभी सोचा ही नहीं था इसके बारे में।''
''कभी किसी फंक्शन में हिस्सा लो तभी तो पता चलेगा, घर से काम पर और काम से पब में। अगर आँख खोलकर रखो कि साउथाल में क्या-क्या हो रहा है तभी तो पता चले। यह देख अपने लोगों ने इसी तरह ही वोटों से पुराना पापूलर गोरा एम.पी. उठाकर वो फेंका।''
''यह तो सरेआम बेईमानी है।''
''बेईमानी नहीं, सियासत है। अगर यह प्रोसीज़र न होता तो यहाँ कभी भी देसी एम.पी. नहीं बनने वाला था।''
''फिर तो नोमिनेशन जीतना सरल ही हुआ।''
''नहीं, इतनी सरल नहीं। गोरे भी यही दांव बरत जाते हैं। और अब तो हमारा वास्ता आगे देसी लोगों के साथ ही है। कारें भर कर तुम लाओगे, वे भी इतने लादकर पहुँचे होंगे।''
श्याम भारद्वाज सबकी बातें सुनता रहता है। फिर सभी को शांत कराते हुए कहता है-
''मैं इस पंगे के लिए तैयार हूँ बशर्ते तुम मेरी मदद करो।''
''हम तेरे साथ हैं पूरी तरह।''
''फिर अधिक से अधिक लोगों को लेबर पार्टी के मेंबर बनाओ मेरे लिए।''
उसकी बात पर कोई नहीं बोलता। फिर जगमोहन कहता है-
''श्याम, हम तेरी वोटें हैं, जहाँ मर्जी भुगता ले। इससे अधिक कुछ नहीं।''
''हाँ भाई श्याम, सौ पाउंड तुझे फंड दे दूँगा।''
''फंड तो लेंगे ही, पर कन्विंसिंग भी करनी होगी।''
फिर वे नोमिनेशन जीतने के बारे में योजनाएँ घड़ते रहे। फिर अचानक श्याम कहता है-
''मुझे एक स्कीम सूझी है।''
''कौन सी ?''
''कि हम एक लीगल ऐड कमेटी बनाएँ और इमीग्रेशन के केस लोगों के मुफ्त में लड़ें, उन्हें स्थायी करवाएँ तो हमारी वोट पक्की।''
श्याम भारद्वाज की बात पर जगमोहन और गुरचरन एक-दूसरे की तरफ देखते हैं। उन दोनों ने भी भारत से श्याम के साथ ही वकालत की है। वे तीनों ही सहपाठी रहे हैं, पर यहाँ आकर वकालत के पेशे में नहीं पड़े। दिलजीत बोलता है-
''यह काम तो तुम्हें बहुत देर पहले करना चाहिए था। इन इमीग्रेशन एडवाइज़रों को न लॉ की समझ है और न अन्य कुछ, भोले भाले लोगों को लूटे जा रहे हैं। यदि तुम यह काम शुरू करो तो कितनों का भला हो जाए।''
जगमोहन और गुरचरन मान जाते हैं। जगमोहन कहता है-
''मैं श्याम के वक्त दो घंटे रोज निकाल सकता हूँ, पब न गए, यह काम कर लिया।''
''ले भई सोहनपाल, अब तेरे जिम्मे एक काम है। तू हमें कोई ऐसा ठिकाना तलाश कर दे जहाँ बैठकर यह काम कर सकें।''
बात करता हुआ श्याम खुश है कि उसकी आज की यह मीटिंग का बुलाना सफल रहा है। सोहनपाल कहता है-
''अपना कामरेड है न इकबाली, जो ग़ज़लें भी लिखता है, उसका ये लेडी मार्गेट रोड वाला घर खाली ही है। ऐसे कामों के लिए ही इस्तेमाल किया जाता है। हम किसी दिन पूछ लेते हैं। फोन का इस्तेमाल करना शायद वहाँ कठिन हो।''
''पूछ फिर उसे किसी वक्त। फिर हम लीफलैट छपवा के ब्रॉडवे पर बाँट देंगे।''
''वह सब तो हो जाएगा, पर इमीग्रेशन लॉ के बारे में पता है कुछ ?''
''बिलकुल, मैं अप-टू-डेट रहता हूँ। मैंने कई केस करवाये भी हैं। इस तरह जग्गे ने भी कइयों को पक्का करवाया है। इसने तो संधू के साथ कुछ देर के काम भी किया था। गुरचरन को हम अपने संग चला लेंगे।''
श्याम खुशी-खुशी बताता है। फिर वह जगमोहन से पूछता है-
''तेरे ड्रामे वाले पंगे का क्या होगा ?''
''ड्रामों में यह कौन सा दिलीप कुमार है !''
''साली उम्र निकल गई, मैंने इसे कहीं ड्रामा खेलते नहीं देखा। हाँ, इसकी बातें बहुत सुनी हैं।''
''यह बातें करके ही स्वाद लेता है। लिए जाने दो, तुम्हारा क्या जाता है।''
''वो सुखी वाले सपने तो अब बन्द हो गए हैं न ?''
वे सब जगमोहन के पीछे पड़ जाते हैं। वह प्रत्युत्तर में कुछ नहीं बोलता और मंद-मंद मुस्कराये जा रहा है।
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Saturday, July 10, 2010

आत्मकथा



एक नेत्रहीन लेखक की आत्मकथा

धृतराष्ट्र
डॉ. एस. तरसेम
हिन्दी अनुवाद : सुभाष नीरव
चैप्टर-10(शेष भाग)


तपा वापसी/मौड़ मंडी

छुट्टियों के बाद लाला कर्म चंद की ट्यूशनों की दुकानदारी का पहला दौर शुरू हो गया था। अंग्रेजी की ट्यूशन के लिए लाला कर्म चंद मेरे नाम की सिफ़ारिश करता। विद्यार्थी स्वयं भी मेरे पढ़ाने के तरीके को देखकर मेरे पास खिंचे आ रहे थे। दसवीं कक्षा के दोनों सेक्शन को मैं सामाजिक शिक्षा पढ़ाता था और नौवीं कक्षा के एक ही सेक्शन जिसमें सत्तर विद्यार्थी थे, को अंग्रेजी। आठवीं कक्षा के एक सेक्शन को अंग्रेजी पढ़ाना भी मेरे पास था। हैड मास्टर खुंगर के पास दसवीं के दोनों सेक्शन अंग्रेजी के थे। वह कभी पीरियड नहीं छोड़ता था और न कभी किसी अध्यापक को छोड़ने देता था। लेकिन उसे अंग्रेजी का कोई सफल अध्यापक नहीं कहा जा सकता। वह विद्यार्थियों को रट्टा लगवाता था। रोज़ दसवीं के दोनों सेक्शनों के विद्यार्थियों को अंग्रेजी का एक आधा लेख, कहानी या पत्र(कम्पोजिशन) याद करने के लिए कहता और अगले दिन लिखवाता। मूल्यांकन और निरीक्षण के लिए वह कापियाँ हम चारों बी.एड. के अध्यापकों में बांट देता। मेरे हिस्से भी 12 से 15 कापियाँ आतीं। मास्टर महिंदर सिंह और राधा कृष्ण बड़े ध्यान से कापियाँ देखते। जिस गाईड में से विद्यार्थियों ने रट्टा लगाकर वह कम्पोजिशन लिखी होती, पहले उसमें से उससे संबंधित कम्पोजिशन पढ़ते। अपने स्तर पर वह बड़े ध्यान से हैड मास्टर की यह बेगार करते। दोनों हैड मास्टर से थर-थर कांपते।
मेरे पास आठवीं और नौवीं की अंग्रेजी होने के कारण मेरा अपना कापियाँ जाँचने का काम ही काफी होता। मुझे वह काम भी पहाड़ लगता। मैं जो लिखने का काम विद्यार्थियों को देता, उस काम का तौर-तरीका हैड मास्टर से बिलकुल भिन्न था। मैं पाठ्य पुस्तकों के अलावा अधिक ज़ोर पंजाबी से अंग्रेजी ट्रांसलेशन और ग्रामर पर देता। विद्यार्थियों को ज़ैड के निब से लिखने के लिए कहता। स्याही भी बहुत गहरी इस्तेमाल करने की पक्की हिदायत दे रखी थी। हालांकि अंग्रेजी 'जी' के निब से लिखने का प्रचलन था, पर 'ज़ैड' का निब मोटा होने के कारण अक्षर मोटे मोटे लिखे जाते। इस प्रकार मुझे कापियाँ जाँचने में सुविधा होती। कापियाँ भी मैं सिर्फ दो या तीन होशियार विद्यार्थियों की देखता और शेष कापियाँ होशियार विद्यार्थी देखा करते। मैं सिर्फ़ हस्ताक्षर करके नीचे तारीख़ डाल देता। विद्यार्थियों की सहायता भी मैं इसलिए लेता था क्योंकि इतनी कापियाँ मैं देख ही नहीं सकता था। मैं तो पाँच-सात कापियाँ भी बड़ी मुश्किल से देख पाता। पाँच-सात कापियाँ जाँचने के बाद ही मेरी आँखों के आगे भंबू तारे से घूमने लगते। किताब का एक आधा पन्ना पढ़ना भी मेरे लिए कठिन था। कक्षा में पाठ्य पुस्तक मैं स्वयं नहीं पढ़ता था, विद्यार्थियों से पढ़वाता था। मैं सिर्फ़ कठिन शब्दों के अर्थ बताता। वाक्य पूरा होने पर अंग्रेजी वाक्य की पंजाबी कर देता। मेरे अन्दर आत्मविश्वास होने के कारण विद्यार्थियों को इस बात का पता ही नहीं चलता था कि मैं विद्यार्थियों को किताब पढ़ने के लिए इसलिए कहता हूँ क्योंकि मुझे स्वयं किताब पढ़ना मुश्किल लगता है। अंग्रेजी की किताब पढ़ने के लिए मैं होशियार विद्यार्थियों को ही कहता। यदि किसी शब्द का विद्यार्थी सही उच्चारण नहीं कर पाते, तो मैं किसी अन्य विद्यार्थी का रोल नंबर बोलकर उस हिज्जे को बताने के लिए कहता और फिर मैं उस शब्द का सही उच्चारण बताता। उस शब्द को दो या तीन बार दोहरवाता। इस प्रकार पढ़ने में ढीले विद्यार्थियों को भी मेरे पढ़ाने का यह ढंग अच्छा लगता। कई बार मैं पूरे का पूरा वाक्य विद्यार्थी के पढ़ने के बाद बोलता। इस प्रकार मैंने अपनी इस कमज़ोरी को छिपा कर अपनी योग्यता में बदल लिया था। हैड मास्टर की कापियों को जाँचने का काम ही था जो बाद में जाकर मुख्य अध्यापक और मेरे बीच टकराव का कारण बना। मैं बमुश्किल जैसे तैसे मुख्य अध्यापक की कापियों को जाँचता। अभी इस काम को एक सप्ताह भी नहीं हुआ था कि हैड मास्टर और मेरे बीच टक्कर शुरू हो गई। हैड मास्टर ने जो शब्द-जोड़ विद्यार्थियों को बताये थे, मैंने कुछ विद्यार्थियों की कापियों में काटकर ठीक कर दिए। शायद शब्द 'अनटिल' और 'टिल' थे। मैंने 'एल' और 'डबल एल' का इन शब्दों में ठीक प्रयोग के बारे में विद्यार्थियों को अपनी सामाजिक शिक्षा की कक्षा में भी बताया। दो विद्यार्थियों ने हैड मास्टर के लिखवाए शब्द-जोड़ दिखाए। अगर मैं हैड मास्टर के शब्द-जोड़ों को ठीक कहता तो मेरा अपमान होना था और अगर मैं गलत कहता तो इसमें हैड मास्टर का अपमान था। मैंने डिक्शनरी मंगवा ली। मेरे शब्द जोड़ सही थे। विद्यार्थियों ने यह कहकर टाल दिया कि हैड मास्टर साहब ने तो ठीक ही लिखवाए होंगे, विद्यार्थियों की जल्दबाजी में ही यह गलती हो गई होगी। हैड मास्टर द्वारा शब्द-जोड़ों की कुछ और गलतियाँ भी हुई थीं। इस संबंध में मैंने विद्यार्थियों को कुछ खास शब्दों के शब्द जोड़ों के बारे में समझाया। दसवीं कक्षा के विद्यार्थियों में की गई मेरी बात हैड मास्टर तक पहुँच गई। हैड मास्टर ने मेरे पास कापियाँ भेजने का सिलसिला बन्द कर दिया, पर मेरे से नाराज रहने लग पड़ा। मालूम नहीं उसे किसी ने क्या पट्टी पढ़ाई कि वह मुझे हैड मास्टर के पद का दावेदार समझने लग पड़ा जब कि मैं अपनी शारीरिक स्थिति के कारण हैड मास्टर के पद के लिए कतई योग्य नहीं था। मैं जानता था कि प्राइवेट स्कूल के हैड मास्टर को तो पता नहीं कब, किस वक्त प्रधान, मैनेजर या कोई अन्य सदस्य घर में बुला ले। एक तो मुझे अपने स्वभाव के कारण प्रबंधक कमेटी के मैंबरों की खुशामद करनी नहीं आती थी और दूसरा, वक्त बेवक्त खास तौर पर रात के समय किसी मैंबर के घर जाना कठिन लगता था। इसलिए हैड मास्टर बनने के बारे में तो मैंने कभी सपने में भी नहीं सोचा था। अगर हैड मास्टर ही बनना होता तो मुझे रामा मंडी के एक स्कूल में आने के लिए सन्देशा आ चुका था। वहाँ भी मेरे किसी प्रशसंक ने मेरी योग्यता के पुल बांध दिए थे, जिस कारण वहाँ की कमेटी के मैंबर मुझे ले जाने के लिए उतावले थे।
हैड मास्टर ओछे हथियारों पर उतर आया था। एक के बाद दूसरी और दूसरी के बाद तीसरी मेरी जवाब तलबी की गई। आख़िर मुझे चार्जशीट कर दिया गया। हॉस्टल खाली करने का आदेश जारी कर दिया गया। बात सारे विद्यार्थियों में भी फैल गई और मंडी में भी। विद्यार्थियों ने हड़ताल कर दी। बहुत सारे विद्यार्थियों ने सच्चाई अपने घरवालों को जा बताई। प्रधान का बेटा सुभाष नौवीं कक्षा में पढ़ता था। महावीर दल का कैप्टन होने के कारण सभी उसे कैप्टन साहब कहते थे। वैसे शायद उसका नाम दीवान चंद था। हैड मास्टर कमेटी को मेरी सेवाओं को बर्खास्त करने के लिए ज़ोर डाल रहा था। मैं भी ऐसे माहौल में स्कूल में रहना नहीं चाहता था। लाला कर्म चंद की मार्फत मुझे एक महीने की पेशगी तनख्वाह देकर बरतरफ़ करने की कोशिश की गई। लेकिन गर्मियों की छुट्टियों की तनख्वाह जो मुझे नियमानुसार दस महीने की सेवा पूरी होने पर मिलनी थी, अदा करने की हठ की। आठ महीने तो मैं इस स्कूल में नौकरी कर ही चुका था। इसलिए मुझे जबरन स्कूल से निकालते समय छुट्टियों की तनख्वाह मांगना मेरा हक था। बात यहाँ तक पहुँच गई थी कि कमेटी के कुछ मैंबर महीने दो महीने बाद हैड मास्टर को स्कूल में से निकालकर मुझे हैड मास्टर बनाने की पेशकश करने लग पड़े थे, लेकिन मुझे यह छिपा हुआ खेल खेलना मंजूर नहीं था। जैसा कि मैं पहले ही बता चुका हूँ, मैं किसी भी तरह से किसी प्राइवेट स्कूल के हैड मास्टर के योग्य ही नहीं था।
विद्यार्थियों के मेरे साथ लगाव, पंजाब प्राइवेट स्कूल टीचर्स यूनियन के सचिव केवल कृष्ण टंडन की धमकी और लोगों के बीच बढ़ रहे मेरे रसूख को देख कर हैड मास्टर और कमेटी के प्रधान व मैनेजर ने मेरी शर्तों पर मुझे मुक्त कर दिया।
मौड़ मंडी के लोगों और विद्यार्थियों की तरफ से जो प्यार और सम्मान मुझे मिला, उसकी कोई मिसाल नहीं। हैड मास्टर के विरोध के बावजूद विद्यार्थियों ने मुझे शानदार विदाई पार्टी दी। उन्होंने इस पार्टी में अध्यापकों को भी आमंत्रित किया। हैड मास्टर से डर कर कोई भी अध्यापक इस पार्टी में शामिल नहीं हुआ। मुझे तसल्ली थी कि लोग मेरे साथ हैं। मध्य श्रेणी का होने के कारण अध्यापकों का विदाई पार्टी में न आना, मुझे चुभा नहीं था क्योंकि मुझे वर्गीय चरित्र की समझ थी।
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मौड़ मंडी आकर एक लाभ यह हुआ था कि मेरा साहित्यिक शौक जाग्रत हो उठा था। यहाँ आते ही जसवंत सिंह आज़ाद से मेरी मुलाकात हो गई। बहुत ही मध्यम कद और अच्छी-खासी शख्सियत के मालिक साहित्य सभा, मौड़ मंडी के प्रधान थे - जसवंत सिंह आज़ाद। मेरे आने पर उनके अन्दर और उनके मेल मिलाप से मेरे भीतर सोई हुई कविता फिर से जाग उठी थी। और तो बहुत कुछ याद नहीं, बस इतना अवश्य याद है कि जब पंडित जवाहर लाल नेहरू का 27 मई को निधन हुआ था, हम दोनों ने ही मर्सिये लिखे थे -
रोको रे कोई रथ सूरज का
रोको रे कोई चक्कर समय का
रोक दो घड़ियों की सुइयाँ
रोको रे कोई मई सत्ताइस।

बस, ये सतरें याद हैं, बाकी कविता न किसी की डायरी में है, कहीं छपी थी या नहीं, यह भी कुछ याद नहीं। कम्युनिस्ट होने के बावजूद मैं नेहरू का बड़ा सम्मान करता था। वैसे भी मैं नेहरू समय की कांग्रेस के साथ कम्युनिस्टों के अंधे विरोध को मैं उचित नहीं समझता था। पर पता नहीं कि यह इलाके के कम्युनिस्ट नेताओं का प्रभाव था कि 1964 की कम्युनिस्ट के दोफाड़ के समय मैं मार्क्सवादी पार्टी का हमदर्द बन गया था।
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Sunday, July 4, 2010

पंजाबी उपन्यास


''साउथाल'' इंग्लैंड में अवस्थित पंजाबी कथाकार हरजीत अटवाल का यह चौथा उपन्यास है। इससे पूर्व उनके तीन उपन्यास - 'वन वे', 'रेत', और 'सवारी' चर्चित हो चुके हैं। ''साउथाल'' इंग्लैंड में एक शहर का नाम है जहाँ अधिकतर भारत से गए सिक्ख और पंजाबी परिवार बसते हैं। यहाँ अवस्थित पंजाबी परिवारों के जीवन को बेहद बारीकी से रेखांकित करता हरजीत अटवाल का यह उपन्यास इसलिए दिलचस्प और महत्वपूर्ण है क्योंकि इसके माध्यम से हम उन भारतीय लोगों की पीड़ा से रू-ब-रू होते हैं जो काम-धंधे और अधिक धन कमाने की मंशा से अपना वतन छोड़ कर विदेशों में जा बसते हैं और वर्षों वहाँ रहने के बावजूद वहाँ की सभ्यता और संस्कृति का हिस्सा नहीं बन पाते हैं।

साउथाल
हरजीत अटवाल
हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव

॥ सात ॥
एक दिन ज्ञान कौर डरते-सहमते कहती है-
''जी, गुरुद्वारे चलें ? कितने दिन हो गए मत्था टेके।''
''पहले इन गुरुद्वारों ने हमारे साथ कौन-सा ख़ैर की है।''
''इसमें वाहे गुरू का क्या कसूर है ! ये तो उसके बंदे थे। यह भी तो नहीं पता कि उसके बंदे भी थे कि नहीं, उसके नाम पर कुछ बहुरूपिये और पाखंडी हमें खराब कर गए तो इसका मतलब यह तो नहीं कि वाहे गुरू ने अपने हाथों यह सब किया था। यहाँ के गुरुद्वारों में फिर भी ठंड (शांति) है।''
''मैं सुन आया हूँ जो यहाँ कढ़ी घुलती है।''
''नहीं जी, एक नया गुरुद्वारा खुला है, वहाँ कोई रौला नहीं।''
''नया खुला है ! पता नहीं हमारे बाद यहाँ और क्या क्या खुल गया है।''
''यह खुला है किंग स्ट्रीट पर, जहाँ पब हुआ करता था। हमें ये नीचे वाली बहन जी बता रही थी।''
यह सच है कि साउथाल में गुरुद्वारों की संख्या बढ़ गई है। जिस किसी को कमेटी या अग्रणी व्यक्ति पसन्द नहीं करते हैं, वह दूसरी जगह जाने लगते हैं या फिर अपना ही कोई स्थान बना लेते हैं। प्रदुमण भी सोचता है कि बड़े गुरुद्वारे पर गरमदल वालों का कब्ज़ा होने के कारण नरमदल वालों को भी तो कहीं जाना ही है। वह ज्ञान कौर के संग गुरुद्वारे जाता है। अरदास करता है। उसे विश्वास लौटता प्रतीत होता है। गुरुद्वारे का माहौल बहुत शान्त है। वह प्रसाद लेकर बाहर निकलता है तो एक परिचित शिव सिंह मिल जाता है। प्रदुमण की सारी कहानी उस तक पहुँच चुकी है। वह अफ़सोस प्रकट करते हुए कहता है-
''दुम्मण, तेरे संग बहुत बुरा हुआ, मुझे पाले से पता चला।''
''ऐसे ही शिव सिंह, कहते हैं न कि तगड़े की ही चला करती है।''
''यह भी क्या बात हुई यार, बंदा अपने गाँव, अपने घर में भी सेफ नहीं।''
''कैसा अपना गाँव यार। मैंने गाँव के हर काम में आगे बढ़कर साथ दिया, हर इक के दुख-सुख में साथ खड़ा हुआ, पर मेरे साथ गाँव का एक भी आदमी खड़ा नहीं हुआ। किसी कंजर ने मेरा साथ नहीं दिया।''
''बस, ऐसा ही सुनते हैं। पर उनका देख जो भाग कर कहीं जा भी नहीं सकते।''
''बस शिव सिंह, पूछ न कुछ। अंधी पड़ी हुई है।''
''एक बात है दुम्मण सिंह, यह सरकार ही है जो सारे काम करवाती है।''
शिव सिंह अख़बारों में से पढ़ी हुई बात के अनुसार कहता है। साउथाल के कुछ अख़बार जैसे कि 'वास-परवास' और कुछ अन्य हर वारदात की जिम्मेदारी सरकार के सिर पर डाल देते हैं। इंडिया की कुछ अख़बारें भी कह रही हैं कि यह कत्लो-गारत सरकार स्वयं ही करवा रही है। बहुत सारे धार्मिक नेता डरते हुए भी ऐसे बयान दिए जा रहे हैं। वे ऐसी घटनाओं की जिम्मेदारी लेने वाले दलों की ओर उंगली उठाने से भी डरते हैं या सोचते भी ऐसा ही होंगे। प्रदुमण शिव सिंह की बात का कोई उत्तर नहीं देता। शिव सिंह फिर कहता है-
''वहाँ तो अब यह भी पता नहीं चलता कि कौन चोर है और कौन सिपाही। सब मिले हुए हैं और नाम खालिस्तानियों का लिए जाते हैं। लूट-खसोट ये पुलिस ही करती है।''
''नहीं शिव सिंह, यह मसले को कुएँ में फेंकने वाली दलील है। पुलिस भी बहुत कुछ करती है, पर मैं मौत के दर से वापस लौटकर आया हूँ या मौत मेरे दर से खाली लौट गई है। यह काम आतंकवादियों का है। छोटे-मोटे चोर ग्रुप में इतनी हिम्मत नहीं होती कि खूब बसते गाँव में गोलियाँ चला कर चले जाएँ... मैंने ऊपरी लोगों तक भी पहुँच की थी। कहते थे कि तुझे पंद्रह सौ पौंड से क्या फर्क पड़ता है।''
''मैं नहीं मानता, मुझे लगता है, यह गोरमिंट की किसी एजेंसी का काम होगा।''
''न मान, तेरी मर्जी।''
प्रदुमण गुस्सा-सा होकर चल पड़ता है। आगे एक और जानकार मिल जाता है। शिव सिंह वाली बातें ही उसके संग होती हैं। प्रदुमण सिंह अधिक उलझाव में फंसने से बचने के लिए बात का रुख मोड़ता है-
''सतवंत सिंह, काम कहाँ करता है आजकल ?''
''बेकरी पर।''
''कोई जॉब ?''
''फोरमैन तो अपना दयाला ही है भोगपुरिया, कल पूछकर बताऊँगा।''
प्रदुमण सिंह उसका फोन नंबर ले लेता है ताकि उससे मालूम कर सके कि बात बनी या नहीं। ज्ञान कौर भी एक तरफ खड़ी होकर दो औरतों से बातें करने लग जाती है। प्रदुमण सिंह जूती पहन कर बाहर निकलता है। ज्ञान कौर उसके पीछे ही आ जाती है और खुशी में बताती है-
''जी, मुझे तो काम मिल गया।''
''कहाँ ?''
''यहीं पुराने साउथाल में कोई समोसे बनाता है। उसकी घरवाली मिली थी। कहती थी, कल ही आ जा। देखा, वाहे गुरू ने सुन ली न मेरी।''
प्रदुमण सिंह कुछ कहे बग़ैर चल पड़ता है। वह सोचता है कि चलो एक व्यक्ति को तो काम मिला। जमा पड़े पैसे तो झट खत्म हो जाते हैं। वह जमा किए पैसों को खर्च करने के हक में नहीं है। उनमें कुछ और साथ के साथ मिलते रहने चाहिएँ। वह काम की खोज में तेजी लाना चाहता है। नौकरियाँ तो कई तरफ उपलब्ध हैं। सिक्युरिटी में भी बहुत बन्दों की ज़रूरत है, पर सिक्युरिटी का काम तो बीमारों और बूढ़ों वाला है। वह अभी तंदुरुस्त है। दौड़-भाग कर सकता है। वह सोचता है कि यदि कुछ और न हो सका तो फिर से दुकान खरीद लेगा। वह 'लंडन वीकली' नामक मैग़जीन जिसमें दुकानों और अन्य छोटे दर्जे के कारोबार की खरीद-फरोख्त की जानकारी दी होती है, खरीदना आरंभ कर देता है। घर पर उसे कर्ज़ा तो मिल ही जाएगा। कोई बन्द पड़ी या बन्द होने जा रही दुकान सस्ती भी मिल जाएगी। उसे मेहनत तो करनी आती ही है। अब तो बड़ा राजविंदर भी मदद कर सकता है। पर राजविंदर कुछ बेसब्रा है। अपने आप में ही ज्यादातर रहता है। इंडिया में भी किसी के साथ कम ही बोलता था।
दो दिन बाद वह सतवंत सिंह को फोन करता है।
सतवंत सिंह कहता है, ''मैंने दयाले के साथ बात की थी।''
''क्या बोलता है ?''
''कहता, तुझे एडजस्ट कर सकते हैं, पर तुझे दुकान की अच्छी समझ है, कोई शॉप क्यों नहीं कर लेता ?''
''शॉप क्या करनी है। अगर ना ही काम मिलेगा तो ठीक है।''
''बेकरी का काम भी आसान नहीं।''
''मुश्किल आसान… ऐसा कभी नहीं सोचा मैंने, अगर काम है तो मैं तैयार हूँ।''
''लिख फिर दयाले का नम्बर, उसे फोन कर ले।''
(जारी…)
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