समकालीन पंजाबी साहित्य की उत्कृष्ट कृतियों की तलाश

‘अनुवाद घर’ को समकालीन पंजाबी साहित्य की उत्कृष्ट कृतियों की तलाश है। कथा-कहानी, उपन्यास, आत्मकथा, शब्दचित्र आदि से जुड़ी कृतियों का हिंदी अनुवाद हम ‘अनुवाद घर’ पर धारावाहिक प्रकाशित करना चाहते हैं। इच्छुक लेखक, प्रकाशक ‘टर्म्स एंड कंडीशन्स’ जानने के लिए हमें मेल करें। हमारा मेल आई डी है- anuvadghar@gmail.com

Sunday, December 11, 2011

पंजाबी उपन्यास




''साउथाल'' इंग्लैंड में अवस्थित पंजाबी कथाकार हरजीत अटवाल का यह चौथा उपन्यास है। इससे पूर्व उनके तीन उपन्यास - 'वन वे', 'रेत', और 'सवारी' चर्चित हो चुके हैं। ''साउथाल'' इंग्लैंड में एक शहर का नाम है जहाँ अधिकतर भारत से गए सिक्ख और पंजाबी परिवार बसते हैं। यहाँ अवस्थित पंजाबी परिवारों के जीवन को बेहद बारीकी से रेखांकित करता हरजीत अटवाल का यह उपन्यास इसलिए दिलचस्प और महत्वपूर्ण है क्योंकि इसके माध्यम से हम उन भारतीय लोगों की पीड़ा से रू-ब-रू होते हैं जो काम-धंधे और अधिक धन कमाने की मंशा से अपना वतन छोड़ कर विदेशों में जा बसते हैं और वर्षों वहाँ रहने के बावजूद वहाँ की सभ्यता और संस्कृति का हिस्सा नहीं बन पाते हैं।

साउथाल
हरजीत अटवाल
हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव

।। उनतीस ॥
चौधरी मुस्ताक अली प्रदुमण सिंह को पाँच सौ समोसों का आर्डर दे देता है, पर उसको कच्चे समोसे चाहिए क्योंकि वह उन्हें खुद तलना चाहता है। चौधरी कहता है-
''सरदार जी, आप इतने बनाकर दो... अगर चलेंगे तो खत्म होते ही अगला आर्डर दूंगा। मेरे पास टाइम ही नहीं है समोसे बनाने लायक। फिर ये बिकते भी कितने होंगे! दूसरा इतना सामान जो है खाने वाला। समोसे खाने का क्रेज गोरों को होगा, अगर कोई पूछे तो हम फ्रिज में से निकाल कर तल देते हैं। मैंने देखा है कि आपके समोसे का साइज कुछ बड़ा है, हमें कुछ छोटे चाहिए होंगे।''
नमूने के तौर पर चौधरी एक समोसा प्रदुमण सिंह को देता है। वह समोसे को तोलकर देखता है। समोसे का वजन नब्बे ग्राम है। वह समझ जाता है कि चौधरी को क्या चाहिए। चौधरी के इस आर्डर से उसके लिए नया राह खुल जाता है। वह अगले दिन एक फ्रीजर खरीद लेता है और सारे स्टाफ से दो घंटे अधिक काम लेकर फ्रीजर को कच्चे समोसों से भर लेता है। उस शाम चौधरी का आर्डर भी पहुँचता कर देता है। वह योजना बनाने लगता है कि कच्चे समोसों का वह एक अलग राउंड खड़ा करेगा। उसका यह माल फिश एंड चिप्स की दुकानों या कैफों पर खपत हो सकेगा। अब उसको एक और ड्राइवर की आवश्यकता होगी। यूँ भी अब वह बहुत ध्यान से चलना चाहता है। बलबीर ने अपना राउंड बना लिया है। उसके पीछे-पीछे गुरमीत भी पक्का होकर अपना काम खड़ा करने का यत्न करेगा। फिर एकदम ड्राइवर खोजना कठिन हो सकता है। क्यों न किसी ड्राइवर को अभी तलाश ले और काम पर रख ले। हाल की घड़ी अन्दर काम करता रहे। कभी-कभी राउंड पर भी जाता रहे और ज़रूरत पड़ने पर काम कर सके, पूरे ड्राइवर का।
एक दिन एक औरत काम पूछने के लिए आती है। जैसा कि कई बार लोग काम की तलाश में निकलते हैं और एक फैक्टरी से दूसरी फैक्टरी होते हुए काम पूछते जाते हैं। अब तक प्रदुमण की इस फैक्टरी के आसपास के इलाके में काफी चर्चा है। यदि कोई काम छोड़ता है तो उसकी जगह भरने में वक्त नहीं लगता। काम पूछने आई औरत पाकिस्तानी है। प्रदुमण सिंह ऐसी पहचान करने में माहिर है। पाकिस्तानी औरतों के पहरावे में भी कुछ अन्तर है। चुन्नियाँ भारी होती हैं और सलवार की सलवटें भी बहुत जैसे कि पटियाला सूट-सलवार में हुआ करती हैं। एक अन्य ख़ास फ़र्क होता है कि उनकी सलवार टखनों से ऊँची होती है। उनका मेकअप भी कुछ भारी होता है और देखने के अंदाज में कुछ अजीब किस्म की झिझक होती है। मर्द की ओर देखती ही रहती हैं। वह औरत फैक्टरी के अन्दर प्रवेश करते ही मैनेजर के बारे में पूछती है। कोई ज्ञान कौर की तरफ इशारा कर देता है। वह ज्ञानो के पास जाकर पूछती है-
''जी, आपको काम के लिए किसी की ज़रूरत है ?''
ज्ञान कौर एक तरफ खड़े प्रदुमण सिंह की ओर देखती है। उसकी तो पहले ही निगाह उस औरत की तरफ है। वह निकट आते हुए पूछता है-
''बताओ, क्या खिदमत कर सकता हूँ ?''
''जी, काम होसी (होगा)?''
''क्या नाम है तुम्हारा ?''
''जी फरीदा।''
''फरीदा जी, हमें एक ड्राइवर की ज़रूरत है, फैक्टरी में तो अभी हमारा काम चल रहा है। दो हफ्ते तक पता कर लेना।'' कहकर वह ज्ञान कौर की ओर देखता है। मानो पूछ रहा हो कि ठीक कहा न। फिर वह फरीदा की तरफ देखता है, जैसे कह रहा हो कि मेरे कहे पर यकीन न करना। फरीदा का भरा हुआ शरीर और बहुत कुछ कहते नयन उसके अन्दर आकर्षण का केन्द्र बन रहे हैं। वह ज्ञान कौर से पूछता है-
''देख ले, यदि ज़रूरत है या एडजस्ट कर सकती है तो।''
''अभी तो हमको ज़रूरत नहीं।''
''तू कह रही थी कि गिलणी काम छोड़ रही है।''
''उसको वापस इंडिया जाना है, पर पता नहीं कब।''
पत्नी की बात की ओर ध्यान दिए बिना प्रदुमण फरीदा से पूछने लगता है-
''क्या क्या बना लेते हो ?''
''मैं रसोई की बहुत माहिर हूँ जी।''
''तंदूरी चिकन बना लेते हो ?''
''अगर खाने वाला अपनी उंगलियाँ न खा जाए तो मुझे फरीदा न कहना।''
''यह तो जब कभी खाएँगे तो बताएँगे।''
फिर वह धीमे से ज्ञान कौर से कहता है-
''कई दुकानों वाले तंदूरी चिकन की मांग करते हैं और कबाबों की भी।''
असल में, वे दोनों कबाब शुरू करने को लेकर कई बार आपस में सलाह कर चुके हैं, पर बनाने वाला नहीं मिल रहा। खराब चीज़ बनाकर वह अपना बना-बनाया नाम खराब नहीं करना चाहता। वह जानता है कि मुसलमान मीट बनाने में बहुत गुणी होते हैं। प्रदुमण सिंह ज्ञान कौर के उत्तर की प्रतीक्षा किए बग़ैर ही कहने लगता है-
''फरीदा जी, तुम टेम्परेरी आ जाओ, पार्ट टाइम। हम देखेंगे कि तुम कैसा चिकन बनाते हो और कबाब भी।''
''सरदार जी, एक मौका देकर देखो।''
''कल सवेरे आ जाओ।''
''क्या रेट होसी जी घंटे का ?''
प्रदुमण सिंह ज्ञान कौर की ओर देखने लगता है क्योंकि फरीदा के इस सवाल का जवाब वह नहीं दे सकता। ज्ञान कौर कहती है-
''हम दो पौंड एक घंटे के देते हैं।''
''सिर्फ़ दो !''
''लोग तो डेढ़ या एक पिचहत्तर ही देते हैं।''
''नहीं जी, दो तो बहुत कम हैं।''
''देख लो, तुम्हारी मर्जी है, हमें तो काम की ज़रूरत नहीं। यह तो यूँ ही तंदूरी चिकन की बात उठाये जाते हैं, पता नहीं बिकेगा भी कि नहीं।''
ज्ञान कौर बात खत्म करने की तरह बात करती है।
फरीदा कुछ मिनट सोचकर कहती है-
''दो तो बहुत कम होसी, पर मुझे काम की ज़रूरत है, कल सुबह आ जासां। कितने बजे?''
''छह बजे शुरू करते हैं, पर तुम आठ बजे आ जाओ बेशक।''
प्रदुमण सिंह कहता है। फरीदा बोलती है-
''सरदार जी, मैं तो छह बजे भी आ जासां, उठने की प्रॉब्लम न होसी।'' बात करते हुए वह प्रदुमण सिंह की पगड़ी की तरफ देखती है।
अगले दिन वह सवेरे छह बजे पहुँच जाती है। कुछ मसाले वह अपने साथ लाई है। मसालों वाला बैग ज्ञान कौर को दिखाते हुए कहती है-
''भा जी, ये कुछ चीज़ें हैं जो मैं कबाब बनाने में इस्तेमाल कर सां।''
''जैसे चाहे कर ले, पर पहले बनाकर दिखा कुछ न कुछ। हमको अभी सप्लाई नहीं करना।''
''सप्लाई कर सों तो धड़ाधड़ बिक सीं।''
''नहीं, सप्लाई के लिए जो माल मार्किट में जाता है, उसके स्वाद का हमको ध्यान रखना पड़ता है।''
''ये तो भा जी ठीक है, आप एक बार मेरा काम देखो, फिर फैसला कर सीं।''
ज्ञान कौर फरीदा को फ्रिज में से चिकन निकाल कर देती है। फरीदा थोड़ा-सा झुककर मसाले मिलाकर चिकन में डालती है। बड़े से पतीले के आगे झुकी हुई फरीदा की नज़र सामने खड़े प्रदुमण सिंह पर पड़ती है जो उसकी कमीज के गले की तरफ देख रहा है। वह एकदम खड़ी हो जाती है। थोड़ा मुस्कराते हुए कहती है-
''तैयार होने दो सरदार जी, फिर देखना।''
प्रदुमण सिंह झेंप जाता है और ऊपर दफ्तर की तरफ चला जाता है। वह फरीदा के बारे में सोचते हुए सपने बुनने लगता है। कुछ देर बाद फरीदा ऊपर आती है। उसके हाथ में एक प्लेट है जिसमें चिकन रखा हुआ है। लाल रंग की चिकन लैग महक छोड़ रही है। वह कहती है-
''ध्यान रखना, अगर उंगलियों को बचाना है तो।''
कहती-हँसती वह नीचे उतर जाती है।
अभी उसका खाने का मूड नहीं है। वक्त भी नहीं हुआ, पर चिकन की खुशबू से उसको भूख लग आती है। वह खाता है। स्वाद है। वह नीचे आकर ज्ञान कौर को एक तरफ ले जाकर कहता है-
''बहुत बढ़िया बनाया है चिकन, मिर्च बहुत तेज़ है। हमारे लिए तो ठीक है, पर गोरों के लिए तेज़ है। वैसे चिकन का रंग-ढंग बढ़िया रेस्ट्रोरेंट वाला ही है। सोच ले, अगर दिल करता है तो काम पर रख ले। चिकन सप्लाई करने के लिए तो अभी सोचते हैं, अभी बेशक दूसरे काम पर लगा ले।''
ज्ञान कौर कुछ नहीं कहती। उसको फरीदा बोझ-सा प्रतीत हो रही है। उसकी फैक्टरी में कोई ज़रूरत नहीं है। प्रदुमण सिंह फिर दफ्तर में चला जाता है। दोपहर को फरीदा कबाब बना लाती है। साथ में दही की चटनी है। प्रदुमण सिंह खाता है। वह पूछती है-
''कैसा टेस्ट है ?''
''बहुत बढ़िया। तेरा मियाँ तो खा-खाकर कुप्पा हो गया होगा।''
''ना सरदार जी, वह तो सूखा पड़ा है।''
''क्यों ? खाता नहीं यह सब जो तू बनाती है ?''
''मैं तो बहुत कुछ बना सां, मेरा मियाँ भी बनाने में पूरा माहिर होसी, वो खूब खाता है, पर सुकड़ा होसी, उम्र जो बहुत होसी।''
''तुझसे बड़ा है ?''
''जी, सरदार जी, पूरे बीस साल। तीसरी बेगम होसां उसकी।''
कहते हुए फरीदा आँखें भर लेती है। प्रदुमण सिंह कहता है-
''फरीदा, तेरे जैसी सुन्दर औरत के साथ तो यह बहुत ज्यादती है, यह तो बहुत गलत बात है।''
''मेरे नसीब ! सरदार जी।''
''कुछ भी कह ले, पर यदि मैं तेरे किसी काम आ सकूँ तो...''
''शुक्रिया सरदार जी, अभी तो मुझे काम की ज़रूरत थी।''
''काम तेरा पक्का।''
फरीदा कुछ नहीं बोलती। आँखों से ही उसका धन्यवाद करती है। वह जाने लगती है। प्रदुमण सिंह कहता है-
''रब तेरा हुस्न ऐसे ही बनाए रखे !''
(जारी…)
00

4 comments:

सुधाकल्प said...

साउथाल उपन्यास की उन्तीसवीं किस्त पढी जो बहुत दिलचस्प लगीI उपन्यासकार ने इंग्लैण्ड केजीवन का बखूबी चित्रण किया हैI विदेशी सभ्यता की छाप वहाँ बसे भारतीयों पर स्पष्टझलकती हैI उपन्यास का विषय आँखें खोलने वाला है विशेषकर उन अशिक्षित या कम पढ़े लोगों की जो पैसे के लालच में चले तो जाते हैं पर इसके लिए उनको भारी कीमत चुकानी पड़ती है I

रूपसिंह चन्देल said...

प्रिय नीरव,

उपन्यास बहुत ही स्वाभाविक रूप से चल रहा है. इसके पुस्तकाकार प्रकाशित होने की प्रतीक्षा है.

चन्देल

रचना दीक्षित said...

बहुत दिलचस्प लगा उपन्यास का यह अंक. बहुत आभार नीरव जी.

उमेश महादोषी said...

वहां के हालातों का यथार्थ चित्रण दिलचस्प है.