समकालीन पंजाबी साहित्य की उत्कृष्ट कृतियों की तलाश

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Sunday, July 4, 2010

पंजाबी उपन्यास


''साउथाल'' इंग्लैंड में अवस्थित पंजाबी कथाकार हरजीत अटवाल का यह चौथा उपन्यास है। इससे पूर्व उनके तीन उपन्यास - 'वन वे', 'रेत', और 'सवारी' चर्चित हो चुके हैं। ''साउथाल'' इंग्लैंड में एक शहर का नाम है जहाँ अधिकतर भारत से गए सिक्ख और पंजाबी परिवार बसते हैं। यहाँ अवस्थित पंजाबी परिवारों के जीवन को बेहद बारीकी से रेखांकित करता हरजीत अटवाल का यह उपन्यास इसलिए दिलचस्प और महत्वपूर्ण है क्योंकि इसके माध्यम से हम उन भारतीय लोगों की पीड़ा से रू-ब-रू होते हैं जो काम-धंधे और अधिक धन कमाने की मंशा से अपना वतन छोड़ कर विदेशों में जा बसते हैं और वर्षों वहाँ रहने के बावजूद वहाँ की सभ्यता और संस्कृति का हिस्सा नहीं बन पाते हैं।

साउथाल
हरजीत अटवाल
हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव

॥ सात ॥
एक दिन ज्ञान कौर डरते-सहमते कहती है-
''जी, गुरुद्वारे चलें ? कितने दिन हो गए मत्था टेके।''
''पहले इन गुरुद्वारों ने हमारे साथ कौन-सा ख़ैर की है।''
''इसमें वाहे गुरू का क्या कसूर है ! ये तो उसके बंदे थे। यह भी तो नहीं पता कि उसके बंदे भी थे कि नहीं, उसके नाम पर कुछ बहुरूपिये और पाखंडी हमें खराब कर गए तो इसका मतलब यह तो नहीं कि वाहे गुरू ने अपने हाथों यह सब किया था। यहाँ के गुरुद्वारों में फिर भी ठंड (शांति) है।''
''मैं सुन आया हूँ जो यहाँ कढ़ी घुलती है।''
''नहीं जी, एक नया गुरुद्वारा खुला है, वहाँ कोई रौला नहीं।''
''नया खुला है ! पता नहीं हमारे बाद यहाँ और क्या क्या खुल गया है।''
''यह खुला है किंग स्ट्रीट पर, जहाँ पब हुआ करता था। हमें ये नीचे वाली बहन जी बता रही थी।''
यह सच है कि साउथाल में गुरुद्वारों की संख्या बढ़ गई है। जिस किसी को कमेटी या अग्रणी व्यक्ति पसन्द नहीं करते हैं, वह दूसरी जगह जाने लगते हैं या फिर अपना ही कोई स्थान बना लेते हैं। प्रदुमण भी सोचता है कि बड़े गुरुद्वारे पर गरमदल वालों का कब्ज़ा होने के कारण नरमदल वालों को भी तो कहीं जाना ही है। वह ज्ञान कौर के संग गुरुद्वारे जाता है। अरदास करता है। उसे विश्वास लौटता प्रतीत होता है। गुरुद्वारे का माहौल बहुत शान्त है। वह प्रसाद लेकर बाहर निकलता है तो एक परिचित शिव सिंह मिल जाता है। प्रदुमण की सारी कहानी उस तक पहुँच चुकी है। वह अफ़सोस प्रकट करते हुए कहता है-
''दुम्मण, तेरे संग बहुत बुरा हुआ, मुझे पाले से पता चला।''
''ऐसे ही शिव सिंह, कहते हैं न कि तगड़े की ही चला करती है।''
''यह भी क्या बात हुई यार, बंदा अपने गाँव, अपने घर में भी सेफ नहीं।''
''कैसा अपना गाँव यार। मैंने गाँव के हर काम में आगे बढ़कर साथ दिया, हर इक के दुख-सुख में साथ खड़ा हुआ, पर मेरे साथ गाँव का एक भी आदमी खड़ा नहीं हुआ। किसी कंजर ने मेरा साथ नहीं दिया।''
''बस, ऐसा ही सुनते हैं। पर उनका देख जो भाग कर कहीं जा भी नहीं सकते।''
''बस शिव सिंह, पूछ न कुछ। अंधी पड़ी हुई है।''
''एक बात है दुम्मण सिंह, यह सरकार ही है जो सारे काम करवाती है।''
शिव सिंह अख़बारों में से पढ़ी हुई बात के अनुसार कहता है। साउथाल के कुछ अख़बार जैसे कि 'वास-परवास' और कुछ अन्य हर वारदात की जिम्मेदारी सरकार के सिर पर डाल देते हैं। इंडिया की कुछ अख़बारें भी कह रही हैं कि यह कत्लो-गारत सरकार स्वयं ही करवा रही है। बहुत सारे धार्मिक नेता डरते हुए भी ऐसे बयान दिए जा रहे हैं। वे ऐसी घटनाओं की जिम्मेदारी लेने वाले दलों की ओर उंगली उठाने से भी डरते हैं या सोचते भी ऐसा ही होंगे। प्रदुमण शिव सिंह की बात का कोई उत्तर नहीं देता। शिव सिंह फिर कहता है-
''वहाँ तो अब यह भी पता नहीं चलता कि कौन चोर है और कौन सिपाही। सब मिले हुए हैं और नाम खालिस्तानियों का लिए जाते हैं। लूट-खसोट ये पुलिस ही करती है।''
''नहीं शिव सिंह, यह मसले को कुएँ में फेंकने वाली दलील है। पुलिस भी बहुत कुछ करती है, पर मैं मौत के दर से वापस लौटकर आया हूँ या मौत मेरे दर से खाली लौट गई है। यह काम आतंकवादियों का है। छोटे-मोटे चोर ग्रुप में इतनी हिम्मत नहीं होती कि खूब बसते गाँव में गोलियाँ चला कर चले जाएँ... मैंने ऊपरी लोगों तक भी पहुँच की थी। कहते थे कि तुझे पंद्रह सौ पौंड से क्या फर्क पड़ता है।''
''मैं नहीं मानता, मुझे लगता है, यह गोरमिंट की किसी एजेंसी का काम होगा।''
''न मान, तेरी मर्जी।''
प्रदुमण गुस्सा-सा होकर चल पड़ता है। आगे एक और जानकार मिल जाता है। शिव सिंह वाली बातें ही उसके संग होती हैं। प्रदुमण सिंह अधिक उलझाव में फंसने से बचने के लिए बात का रुख मोड़ता है-
''सतवंत सिंह, काम कहाँ करता है आजकल ?''
''बेकरी पर।''
''कोई जॉब ?''
''फोरमैन तो अपना दयाला ही है भोगपुरिया, कल पूछकर बताऊँगा।''
प्रदुमण सिंह उसका फोन नंबर ले लेता है ताकि उससे मालूम कर सके कि बात बनी या नहीं। ज्ञान कौर भी एक तरफ खड़ी होकर दो औरतों से बातें करने लग जाती है। प्रदुमण सिंह जूती पहन कर बाहर निकलता है। ज्ञान कौर उसके पीछे ही आ जाती है और खुशी में बताती है-
''जी, मुझे तो काम मिल गया।''
''कहाँ ?''
''यहीं पुराने साउथाल में कोई समोसे बनाता है। उसकी घरवाली मिली थी। कहती थी, कल ही आ जा। देखा, वाहे गुरू ने सुन ली न मेरी।''
प्रदुमण सिंह कुछ कहे बग़ैर चल पड़ता है। वह सोचता है कि चलो एक व्यक्ति को तो काम मिला। जमा पड़े पैसे तो झट खत्म हो जाते हैं। वह जमा किए पैसों को खर्च करने के हक में नहीं है। उनमें कुछ और साथ के साथ मिलते रहने चाहिएँ। वह काम की खोज में तेजी लाना चाहता है। नौकरियाँ तो कई तरफ उपलब्ध हैं। सिक्युरिटी में भी बहुत बन्दों की ज़रूरत है, पर सिक्युरिटी का काम तो बीमारों और बूढ़ों वाला है। वह अभी तंदुरुस्त है। दौड़-भाग कर सकता है। वह सोचता है कि यदि कुछ और न हो सका तो फिर से दुकान खरीद लेगा। वह 'लंडन वीकली' नामक मैग़जीन जिसमें दुकानों और अन्य छोटे दर्जे के कारोबार की खरीद-फरोख्त की जानकारी दी होती है, खरीदना आरंभ कर देता है। घर पर उसे कर्ज़ा तो मिल ही जाएगा। कोई बन्द पड़ी या बन्द होने जा रही दुकान सस्ती भी मिल जाएगी। उसे मेहनत तो करनी आती ही है। अब तो बड़ा राजविंदर भी मदद कर सकता है। पर राजविंदर कुछ बेसब्रा है। अपने आप में ही ज्यादातर रहता है। इंडिया में भी किसी के साथ कम ही बोलता था।
दो दिन बाद वह सतवंत सिंह को फोन करता है।
सतवंत सिंह कहता है, ''मैंने दयाले के साथ बात की थी।''
''क्या बोलता है ?''
''कहता, तुझे एडजस्ट कर सकते हैं, पर तुझे दुकान की अच्छी समझ है, कोई शॉप क्यों नहीं कर लेता ?''
''शॉप क्या करनी है। अगर ना ही काम मिलेगा तो ठीक है।''
''बेकरी का काम भी आसान नहीं।''
''मुश्किल आसान… ऐसा कभी नहीं सोचा मैंने, अगर काम है तो मैं तैयार हूँ।''
''लिख फिर दयाले का नम्बर, उसे फोन कर ले।''
(जारी…)
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2 comments:

उमेश महादोषी said...

उपन्यास की यह किस्त अच्छी लगी।

Sanjeet Tripathi said...

chaliye ji, dekhte hain, agli kisht me kahani kaha pahuchti hai aur kya mod leti hai....