एक नेत्रहीन लेखक की आत्मकथा
धृतराष्ट्र
डॉ. एस. तरसेम
हिन्दी अनुवाद : सुभाष नीरव
चैप्टर-4
आर्य हाई स्कूल, तपा में पहली नौकरी
ज्ञानी का अभी नतीजा नहीं आया था कि सुखानंद आर्य हाई स्कूल, तपा के मुख्य अध्यापक यशपाल भाटिया ने मेरे भाई के सम्मुख मुझे बतौर क्लर्क काम करने की पेशकश की। भाई के लिए इससे अच्छा अवसर और कौन-सा हो सकता था। मुझे भी यह नौकरी करने में कोई झिझक नहीं थी।
25 नवंबर 1958 को मैं आर्य हाई स्कूल में उपस्थित हो गया। अगले दिन जो नियुक्ति पत्र मुझे दिया गया, वह था - क्लर्क-कम-टीचर की नौकरी का। दफ्तर का काम सारा अंग्रेजी में करना होता था। पहले दफ्तर का काम मेरा भाई किया करता था। शायद उसकी सेवाओं के सम्मान में ही मुख्य अध्यापक ने मुझे नियुक्त किया हो। वैसे स्कूल में एक क्लर्क की भी आवश्यकता थी और एक अध्यापक की भी।
मेरी आयु 16 साल से भी कम थी। शरीर दुबला-पतला। मूंछ-दाढ़ी भी अभी फूटी नहीं थी। इस स्कूल में से ही दिसंबर 1956 में मैं 7वीं का सर्टिफिकेट लेकर उस समय अपने भाई द्वारा खोले गए गोयल माडर्न स्कूल में पढ़ने लग पड़ा था। सर्टिफिकेट मुझे 7वीं में पढ़ते का ही मिला था। ज़िला शिक्षा अधिकारी द्वारा मेरा डबल प्रमोशन केस रद्द करना और उस समय के आर्य स्कूल के अध्यापकों का मेरे भाई के प्रति ईष्या भाव, ये कारण थे कि मुझे स्कूल छोड़ना पड़ा था। उस वक्त जो मेरे सातवीं कक्षा के सहपाठी थे, वे नवीं कक्षा में पढ़ते थे और जो आठवीं में थे, वे दसवीं कक्षा में। इसलिए स्कूल में आते समय मुझे अजीब-सी झिझक और शर्म आती थी। मुझे यह भी डर सताता था कि कहीं हैड मास्टर मुझे नवीं या दसवीं के किसी पीरियड में न भेज दे। पहला कारण यह कि इन दो क्लासों के बहुत से लड़कों के सामने मैं बहुत कमजोर लगता था और दूसरा यह कि हम-जमातियों को पढ़ाने में भी मुझे बहुत संकोच होता था। इन कक्षाओं में मुझे कभी भी भेजा जा सकता था, क्योंकि जो भी अध्यापक छुट्टी पर होता था, उसके पीरियड की लिखित रूप में एडजस्टमेंट की जाती थी। मेरे तो सभी पीरियड ही खाली थे। इसलिए 3-4 पीरियड तो रोज़ पढ़ाने ही पढ़ते थे। लेकिन दो महीनों तक मुझे सातवीं कक्षा से ऊपर की कक्षा का कोई पीरियड नहीं दिया गया था। दफ्तर का प्रतिदिन का काम मैं रोज़ ही खत्म कर लेता था। इस काम में घंटे-डेढ़ घंटे से अधिक समय लगता भी नहीं था। इसलिए मुझे पीरियड देने में हैड मास्टर की समस्याएं हल हो जातीं। एक तो यह कि दूसरे अध्यापकों को और बहुत से पीरियड नहीं पढ़ाने पड़ते, दूसरा यह कि मेरा खाली होना मुख्य अध्यापक को चुभता नहीं था। उन दिनों में प्रायवेट स्कूलों को 95 प्रतिशत सरकारी ग्रांट नहीं मिला करती थी। इसलिए प्राइमरी, भाषा और पी.टी.आई. तथा ड्राइंग आदि के अध्यापकों को स्कूल 60-70 रुपये से अधिक नहीं देते थे और बी.ए. बी.एड के अध्यापकों को अधिक से अधिक सौ-सवा सौ रुपये ही दिया करते। सरकारी स्कूलों में प्राइमरी अध्यापक को सौ रुपया, बी.ए., बी.एड. के अध्यापकों को 166 रुयये और बाकी सब मिडिल और हाई क्लास को पढ़ाने वाले अध्यापकों को 112 रुपये ही दिए जाते। सरकारी क्लर्क की तनख्वाह भी सौ रुपये हुआ करती। इसलिए मेरे जैसे बेरोज़गार युवक को अपने शहर के स्कूल में फिलहाल 60 रुयये मिलना भी मेरे परिवार के लिए तो हैड मास्टर की कृपादृष्टि ही थी।
मार्च के महीने में मुझे हैड मास्टर ने 60 रुपये दिए। दस्तख़त तो पहले भी 60 रुपये पर ही करवाते थे। 20 रुपये की दान की पर्ची काट देते थे। यह बात हैड मास्टर ने मेरे भाई के साथ पहले ही तय कर ली थी। घर पहुँचकर जब मैंने 60 रुपये भाई को पकड़ाये तो वह खुश होने के बजाय हैरान अधिक हुआ। उसने सोचा कि हैड मास्टर ने भूल से मुझे 60 रुपये दे दिए हैं। भाई ने कहा कि मैं हैड मास्टर से बात करूँ। अगले दिन जब मैं हैड मास्टर को 20 रुपये लौटाने लगा तो हैड मास्टर ने कहा-
''नहीं, यह ठीक ही दिए हैं। आगे से तेरी पर्ची नहीं कटेगी।''
इस खुशी को मैं शब्दों में बयान नहीं कर सकता।
नए सैशन से मुझे अन्य अध्यापकों की भांति टाइम टेबल दे दिया गया। नवीं कक्षा तक की सारी पंजाबी मुझे सौंप दी गई थी और बाकी दफ्तर का काम। शायद, हैड मास्टर ने मेरे ज्ञानी के नतीजे से प्रभावित होकर यह एडजस्टमेंट की हो। मैं खुश था। पंजाबी पढ़ाने में मुझे कतई कोई दिक्कत नहीं थी। दूसरा यह कि जिन कक्षाओं को मैं पढ़ाता था, उनमें मेरा कोई पूर्व सहपाठी भी नहीं था। धीरे-धीरे स्कूल में भी और शहर में भी सब मुझे ‘ज्ञानी जी’ कह कर बुलाने लगे। मेरा भाई हालांकि 10वीं कक्षा को पंजाबी पढ़ाता था और उससे पहले भी एक-डेढ़ साल से पंजाबी ही पढ़ा रहा था, पर उसे कोई ‘ज्ञानी जी’ नहीं कहता था। सारा शहर ही उसे पहले की तरह गोयल साहब कह कर बुलाया करता। क्या हैड मास्टर, क्या मास्टर और क्या लड़के - सब गोयल साहिब ही कहते।
सबसे अधिक ट्यूशन भी मेरे भाई के पास आती। आठवीं से लेकर दसवीं कक्षा तक की टयूशनें सुबह-शाम पढ़ाने और पिछली सर्दी में रात को भी कई ग्रुप पढ़ाने के कारण हमारी आर्थिक स्थिति किसी हद तक पटरी पर आ गई थी। ट्यूशन का काम मैं भी करता था। तनख्वाह और ट्यूशन के सारे पैसे मैं अपने भाई को पकड़ा देता। फरवरी में भाई ने जैसे-तैसे करके इतने पैसे जोड़ लिए कि रामपुरा वालों का सारा कर्ज़ा उतर गया। मोहन लाल की धमकाने वाली बात मैंने अपने भाई को कर्ज़ा उतर जाने के बाद ही बताई थी। अगर पहले बता देता तो उसके मन पर अधिक बोझ पड़ता। अनेक तरह के बोझ तो उसके ऊपर पहले ही बहुत थे - ग्रेन डीलर्ज एसोसिएशन के टूटने के कारण मैनेजर की बढ़िया नौकरी का जाना, व्यापार में घाटा, खोली गई अकेडमी 'गोयल माडर्न कालेज' को बंद करके आर्य हाई स्कूल में पंजाबी-टीचर बनना आदि। मोहन लाल की अपमानित करने वाली बात बताने के बजाय मैंने एक-दो बार भाई को उनके पैसे लौटाने के बारे में याद अवश्य करवाया था। मोहन लाल की अपमानित करने वाली बात बताने के बाद मैंने भाई को माँ से यह कहते सुना था-
''तरसेम बहुत समझदार है। अगर हाथ ठीक होता तो इसे कालेज में दाखिला दिलाते।''
मेरे लिए यह भी एक तसल्लीवाली बात थी कि मेरे भविष्य के बारे में भाई कितना चिंतातुर है।
ट्यूशनें करने के कारण ही तारा के विवाह के बाद के सारे त्योहार भी अच्छे भेजे गए थे। कोई उलाहने वाले बात नहीं थी- करवा चौथ, दीवाली और लोहड़ी के त्योहार ही बड़े थे। इनके भेजने में कोई कमी नहीं रही थी। हाँ, यह संभव है कि तारा के ससुराल वालों को वे पूरी तरह पसंद न आए हों।
आर्य स्कूल में पढ़ाने के काम से भी ज्यादा ज़रूरी काम था- इतवार के दिन होने वाले हवन में हाज़िरी देना। हवन के मंत्रों वाली पुस्तकें सबके हाथ में होतीं। स्कूल का संस्कृत अध्यापक हवन में पुरोहित माना जाता। उन दिनों आर्य स्कूल में वरखा राम उर्फ़ वशिष्ठ देव संस्कृत अध्यापक था। बठिंडा ज़िला के एक गांव ठूठिआंवाली में जन्मा पला ब्राह्मण सिगरेट-बीड़ी पीता था। हवन करने-करवाने में उसकी बिलकुल भी रुचि नहीं थी। जनेऊ भी उसने यशपाल भाटिया से भयभीत होकर ही डाल रखा था। हवन करने को वह तम्बाकू फूंकना ही बताता। मेरे भाई और मेरे पास बैठ कर हैड मास्टर की जी भरकर निंदा करता। मेरा भाई अक्सर चुप रहता। हैड मास्टर की सारी कमियों को जानने के बावजूद मैं वरखा राम की तरह हैड मास्टर के खिलाफ न बोलता। यह मेरे भाई की हिदायत थी कि मुझे किसी के आगे हैड मास्टर के बारे में कोई टिप्पणी नहीं करनी है।
स्कूल का सेकेंड मास्टर वरिंदर मधु था। वह हिंदी में एम.ए., बी.एड था। उसे हैड मास्टर ही अपने इलाके में से कहीं से लाया था, शेष अन्य अध्यापकों की तरह। उसकी उपस्थिति में हैड मास्टर के खिलाफ वरखा राम ने बोलना शुरू किया तो मुझसे भी कहीं हुंकारा भरा गया होगा। बस, यह पहला कारण था कि हैड मास्टर ने मेरे भाई से मेरी शिकायत कर दी। कम्युनिस्टों के साथ मेरे मेलजोल की बात भी किसी ने हैड मास्टर के कान में डाल दी थी। ये दो कारण मुझे स्कूल में से निकालने के लिए बहुत थे।
स्कूल में अंतर स्कूल भाषण प्रतियोगिता, कविता पाठ प्रतियोगिता और अन्य सांस्कृतिक कार्यक्रम हालांकि मेरी हिम्मत से ही शुरू हुए थे, विद्यार्थियों में भी मैं पसंद किया जाता था, पर हैड मास्टर की आँखों में मैं अब पूरी तरह खटकने लग गया था। हैड मास्टर की दृष्टि में वरखा राम भी मेरी वाली कैटेगरी में आता था। अब तो सेकेंड मास्टर वरिंदर मधु भी हैड मास्टर के लिए एक कांटा बन गया था।
ग्रीष्म अवकाश के बाद हैड मास्टर ने वरिंदर मधु, वरखा राम और मेरे नाम आदेश जारी कर दिया कि हमें विद्यार्थियों का टूर भाखड़ा नंगल डेम और आनंदपुर साहिब ले जाना है। तर्क यह दिया गया कि बड़ी कक्षाओं के विद्यार्थी टूर पर जाना चाहते हैं। लेकिन अपने चहेतों को छोड़कर हम तीनों को ही यह जिम्मेदारी सौंपने के पीछे मुझे दाल में कुछ काला नज़र आया। मैंने दिल की बात अपने भाई से छिपाकर, मधु और वरखा राम से साझा की। वरखा राम की सोच मुझ से दो कदम आगे थी। बोला- ''दाल में काला नहीं, यह तो सारी दाल ही काली है।''
मधु ने जो जुकाम होने के कारण हाथ में रूमाल रखा करता था, रूमाल के दोनों कोने नाक में फेरते हए इसे एक साज़िश तो कहा ही, साथ ही यह भी कह दिया, ''टूर में हमसे कोई न कोई गलती तो हो ही सकती है। अगर न भी हुई, भाटिया साहब ने अपने चार-पाँच लड़कों से हमारे खिलाफ लिखवा लेना है। फिर हमको ज़लील करके वह हमारा पत्ता काट देगा।''
वरखा राम ने सिगरेट का गहरा कश भर कर तिहरे-चौहरे ब्रैकट वाली बठिंडाशाही-मलवई गालियों भाटिया के लिए बकीं और अपनी भड़ास निकाल ली। लेकिन टूर के लिए ना करने की हमें काई दलील भी नहीं सूझी।
मधु और वरखा राम से मेरा डर कुछ भिन्न भी था। एक तो यह कि आयु में मैं सबसे छोटा था। टूर पर जाने वाले कुछ लड़के मेरी उम्र थे और कुछ मुझसे बड़े भी। दूसरा यह कि मेरे पास ढंग के कपड़े भी नहीं थे। पर सबसे बड़ी बात यह थी कि दिन छिपने के बाद मुझे कुछ भी साफ दिखाई नहीं देता था। ऐनक के सहारे दिन के समय तो चल फिर भी लेता था और पढ़ना-लिखना भी हो जाता था, पर रात के समय पढ़ना-लिखना तो एक तरफ रहा, चल-फिर भी नहीं सकता था। अंधराते के इस रोग के बारे में मैं मधु और वरखा राम को भी नहीं बता सकता था। मेरी यह पोल-पट्टी खुल जाने से मेरी ज़िन्दगी के तो सारे दरवाजे ही बन्द हो जाने थे। नौकरी तो जानी ही थी, सारा भविष्य ही धुंधला हो जाना था। विवाह वाला दरवाजा तो बिलकुल ही बन्द हो जाता। सो, दुविधा का शिकार यह बेचारा तरसेम, फंसे तो फटकना क्या, का आख्यान सोचता हुआ मधु और वरखा राम के साथ बीसेक छात्रों की टीम का एक अध्यापक-नेता बन कर सवेरे साढ़े छह बजे की गाड़ी से पटियाले की ओर चल पड़ा। दिन के समय कभी कोई मुश्किल नहीं आई थी। नंगल शहर घूम कर देखा, बहुत सुन्दर लगा। वहाँ तो रात में ट्यूबों की चमचमाती रोशनी में नहर के दायें-बायें घूमने में भी बहुत आनन्द आया। गंगुवाल और कोटला की कम रोशनी वाली छोटी-छोटी सीढ़ियों के रास्ते नीचे उतरते समय तो मैं दहल गया था। उस समय एक मूर्ख-सा लड़का जो कभी हमारा पड़ोसी भी रहा था और पढ़ने में जीरो होने के बावजूद भारी जेब के कारण सब लड़कों का चौधरी था, पुराना पड़ोसी होने के नाते सीढ़ियाँ उतरते समय मेरा बड़ा ख़याल रखता। मधु और वरखा राम के अलावा दो-तीन विद्यार्थियों को छोड़ कर मैं सबसे पतला और कमजोर था। वह लड़का जिसका नाम पुरुषोत्तम था, उसने हर कठिन समय में मेरी मदद की। गंगुवाल और कोटले का स्टाफ पानी से बिजली बनने, ऊपर से पानी नीचे गिरने के बारे में ही नहीं और भी बहुत कुछ समझाता रहा। बात तो मुझे सारी समझ में आ रही थी, पर मेरी उस बात में बिलकुल भी दिलचस्पी नहीं थी। दो-तीन घंटे ये सब कुछ देखने के बाद जब हम बाहर आए, मैं महसूस कर रहा था मानो किसी भयानक घाटी में से बाहर निकल आया होऊँ।
लड़कों ने एक रात सिनेमा देखने का प्रोग्राम बना लिया। मुझे सिनेमा देखने में भी कोई रुचि नहीं थी। जब तपा मंडी में 1955-56 में टाकीज़ खुली थी, उस समय हमारे इलाके के लोग बड़े चाव से सिनेमा देखने जाते थे। सिनेमा की कोई छत नहीं थी। टिकट देने वाले छोटे से कमरे के अलावा और कोई कमरा भी नहीं था। कुर्सियों की जगह फट्टे हुआ करते थे। टिकट होता था सिर्फ़ पाँच आनों का। समझो आज के इकत्तीस पैसों का। हमारे लिए वह टिकट भी मुफ्त होता था क्योंकि सिनेमा के मालिकों में से मेघ राज नैणेवाला रिश्तेदारी में मेरे ताया का लड़का था और सिनेमा में उसकी आधे की साझेदारी थी। दूसरा यह कि सिनेमा शुरू करने से पहले उसने सारे कागज-पत्रों का काम मेरे भाई से करवाया था। इसके बाद भी जब कभी दफ्तरी काम की ज़रूरत पड़ी तब भी वे मेरे भाई के पास आए। सो, मेरे लिए यह सिनेमा बिलकुल मुफ्त था। चाहे तो रोज़ जाता। पहले पहले कई बार गया भी। संग किसी न किसी दोस्त को ले जाता। वह मुफ्त होने के कारण मेरे संग चला जाता और मुझे सहारा यह होता कि कम रोशनी के समय मुझे कोई कठिनाई पेश न आती। उन दिनों फिल्में ब्लैक एंड व्हाइट हुआ करती थीं। आगे बैठने के बावजूद मुझे कई बार तस्वीरें साफ नहीं दिखाई देती थीं। यही कारण था कि मैंने चार-पाँच फिल्में देखने के बाद तपे की इस टाकीज़ में जाना ही छोड़ दिया था। सिर्फ़ फिल्मों के नाम मुझे याद थे। एक थी- ‘पोस्ती’और दूसरी- ‘गोपाल भैया’।
मुझे उपर्युक्त कच्चा चिट्ठा इसलिए लिखना पड़ रहा है क्योंकि लड़कों की सिनेमा देखने की तजवीज़ मेरे लिए उस तरह की ही विपदा थी, जिस तरह की विपदा मैंने गंगुवाल और कोटला के बिजली घर देखते समय भोगी थी। पुरुषोत्तम ने मेरे मना करने का अर्थ यह लगाया कि मैं पैसे खर्च करने में गुरेज करता हूँ। मेरी टिकट के पैसे उसने स्वयं खर्च करने की जब तजवीज़ रखी तो उसने मेरे दिल पर एक और ज़ख्म कर दिया। पर क्योंकि मैं अध्यापक भी था, इसलिए मैंने अध्यापकीय लहजे में उसे डांट-फटकार दिया और बहाना यह लगाया कि मेरी दायीं टांग में बहुत दर्द हो रहा है। मधु बेचारे को क्या मालूम था, उसने फटाफट एक गोली निकाल कर मुझे दे दी। वह ज्यादा जुकाम होने पर जो दो गोलियाँ लिया करता था, उनमें से एक गोली यह भी थी जो दर्द में भी फायदा किया करती थी। मैंने गोली मधु से पकड़ अवश्य ली, पर खाई नहीं थी और यह कह कर जेब में रख ली थी कि अगर दर्द बढ़ गया तभी खाऊँगा।
पुरुषोत्तम ने मेरी बांह पकड़ रखी थी। सेकेंड क्लास की टिकटें होने के कारण हम गद्देदार कुर्सियों पर जा बैठे। फिल्म का नाम शायद ‘कन्हैया’ था। मुझे कुछ गाने तो अच्छे लगे, कुछ अदाकारों के चेहरे भी काफी साफ दिखाई दिए, पर फिल्म पूरी समझ में नहीं आई थी। बाहर आकर जिस प्रकार मधु और वरखा राम फिल्म की कहानी और गानों की तारीफ करते रहे, मैं भी उनकी हाँ में हाँ मिलाता रहा।
वापसी में हमें एक रात आनन्दपुर में रुकना था। पहले दिन के समय हमें नैणा देवी जाना था। नैणा देवी जाने-आने के समय तो कोई मुश्किल नहीं आई थी। उतराई के समय तो मैं सबसे आगे ही निकल जाता था। पर जब हम आनन्दपुर साहिब के गुरुद्वारे में पहुँचे, उस समय अंधेरा हो चुका था। पर पुरुषोत्तम मेरा सहायक बना रहा जिस कारण लंगर छकने, गुरु गोविंद सिंह जी के शस्त्रों के दर्शन करने से लेकर सोने तक कोई बड़ी कठिनाई पेश नहीं आई थी। जिस कमरे में हम पहुँचे, वहाँ दूधिया सफ़ेद रंग की लट्ठे की एक चादर पड़ी थी। कम से कम चार नहीं तो तीन आदमी तो उसे लेकर लेट ही सकते थे। पर कोई भी उसे हाथ लगाने को तैयार नहीं था मानो उसे कोई तपेदिक का मरीज भूल गया हो। मधु और वरखा राम सहित सभी विद्यार्थी इस धार्मिक स्थान पर से इस चादर को उठाना जैसे महापाप समझते हों। पर मुझे इसमें छुआछात या पाप जैसा कुछ भी महसूस नहीं हो रहा था। सवेरे तैयार होकर सबने चादर के बारे में पूछा तो सब यूँ चुप्पी लगा गए मानो साँप सूंघ गया हो। मैंने चादर को इकट्ठा किया और अपने बैग में ठूंस ली। लौटते समय मुझे ऐसा महसूस हो रहा था जैसे आधी से अधिक सज़ा भुगती गई हो। पर असली सज़ा की तलवार सिर पर अभी लटकती थी। स्कूल में आने के बाद पहले हैड मास्टर ने हमसे टूर के बारे में पूछा और फिर विद्यार्थियों की अलग से मीटिंग बुलाई। समझो, हम इस साज़िश केस से बरी हो गए थे। हो सकता है, यह हमारा भ्रम भी हो कि हैड मास्टर ने हमें उलझाने के लिए टूर पर भेजा था। पुरुषोत्तम जिसे मैं मूर्ख समझा करता था, वह तो मेरे लिए ईश्वर बन कर आया था। आनन्दपुर साहिब से जो चादर लेकर आया था, वह अलग फायदे का सौदा था। मैं न लाता, कोई और मुसाफ़िर ले जाता। घर में भाभी की ओर से दो-चार दिन नाक-भौं सिकोड़ने के बाद उस चादर की दो चादरें बना ली गई थीं और ये दोनों चादरें कई साल हमारे काम आती रही थीं।
हम तीनों को निकालने के लिए हैड मास्टर कोई न कोई बहाना तलाश रहा था। आखिर मुझे निकालने के लिए उसे एक बहाना मिल ही गया। आर्य विद्या परिषद्, दिल्ली और आर्य प्रतिनिधि सभा, जालंधर के अधीन यह स्कूल चलता था, जिनकी ओर से हैड मास्टर एक पत्र ले आया। पत्र में लिखा था कि एक शैक्षणिक संस्था में पिता-पुत्र या दो सगे भाई एक साथ नहीं रह सकते। इससे पहले कि हैड मास्टर मुझे निकाले, मेरे भाई ने मुझसे स्वयं ही जनवरी 1960 की किसी तारीख़ को इस्तीफा दिला दिया था। हैड मास्टर ने मेरे भाई के सम्मान का जो नाटक खेला, वह यह था कि वह जालंधर और दिल्ली के आर्य समाजी प्रबंधकों के पास मुझे स्कूल में रखने हेतु विशेष छूट देने के लिए चक्कर लगा आया था। इस सबके बारे में हम दोनों भाइयों को मालूम था। 25 जनवरी 1960 को मुझे फारिग कर दिया गया। मेरे स्कूल छोड़ने के बाद वरिंदर मधु और वरखा राम भी किसी नए स्कूल की तलाश करने लगे। पूरी तरह तो याद नहीं, पर इतना अवश्य याद है कि हैड मास्टर के छल-प्रपंची और गप्पी स्वभाव के कारण वे दोनों भी स्कूल छोड़ कर चले गए। सुखानंद आर्य हाई स्कूल, तपा में मैं तीन वर्ष पढ़ा भी था। 14 महीने नौकरी करके भी देखी। लेकिन यदि मैं यह कहूँ कि यहाँ मैंने खोया ही खोया है, तो यह ठीक नहीं होगा। ज़िन्दगी की कुछ समझ मुझे इस स्कूल में रह कर ही आई। एक मनुष्य के अन्दर और कितने मनुष्य बैठे होते हैं, इस सच का पता यहाँ की गई नौकरी से ही लगना शुरू हुआ। हवन में उपस्थित होने की गुलामी हालांकि चुभती थी, पर संस्कृत पढ़ने का अभ्यास और पंजाबी के साथ-साथ हिंदी के प्रति लगाव का कारण यह आर्य स्कूल ही बना।
एक विद्यार्थी और एक अध्यापक के तौर पर मैंने स्कूल नहीं छोड़ा था। यदि किसी मुंसिफ़ ने सही फैसला देना हो तो उसे यह लिखना ही पड़ेगा कि मुझे इस स्कूल में से विद्यार्थी की हैसियत से भी निकाला गया था और अध्यापक की हैसियत से भी। उर्दू के मशहूर शायर साहिर लुधियानवी को तो सरकारी कालेज, लुधियाना में से सिर्फ एक विद्यार्थी के हैसियत से ही निकाला गया था और उसने इस दर्द को इस कालेज में अपने सम्मान के समय इस शे'र द्वारा जुबान दी थी :-
आख़िर हम इन फ़जाओं के पाले हुए तो हैं
'गर यां नहीं तो यां से निकाले हुए तो हैं
शे'र का पिछला मिसरा असल में साहिर साहब ने अज़ीम उर्दू शायर ग़ालिब के एक शे'र से लिया था जो इस तरह है-
काबे से इन बुतों को भी निस्बत है दूर की
'गर यां नहीं तो यां से निकाले हुए तो हैं
सो, मेरी ज़िन्दगी में दूसरी तल्ख़ियों के साथ-साथ इस स्कूल में से दो दो बार निकाले जाने की दर्दनाक कार्रवाई मेरी ज़िन्दगी के तल्ख़ीनामे का बड़ा अहम हादसा है, साहिर और ग़ालिब से भी कहीं तल्ख़।
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मार्च 1959 की मैट्रिक परीक्षा में मेरी ड्यूटी सुपरवाइज़र के तौर पर सरकारी हाई स्कूल, रामपुराफूल के परीक्षा केन्द्र में लग गई थी। परीक्षा केन्द्र अब की तरह एक दिन पहले शुरू होना था। जब मैंने अपने हैड मास्टर की रिलीविंग चिट्ट दी तो सेंटर सुपरिटेंडेंट कितनी ही देर मेरी ओर देखता रह गया। उसका नाम अब मुझे स्मरण नहीं। उसने मुझे उत्तर कापियाँ गिनने के लिए कहा और मैं दोपहर के दो बजे तक इस काम में व्यस्त रहा। दो बजे के बाद, पता नहीं उसके चित्त में क्या आया, बोला-
''काका जी, तेरी डेट ऑफ बर्थ क्या है ?''
''जी 30-12-1942... '' मैंने कहा।
कुछ सोच कर उसने मुझे यह कह कर ड्यूटी पर से जवाब दे दिया कि 18 साल की उम्र से कम वाला कोई व्यक्ति सुपरवाइज़र नहीं लग सकता। मुझे अभी 17वां साल ही था। घर से ड्यूटी देने जाने के वक्त मुझे जितनी खुशी हो रही थी, उससे कहीं अधिक मायूसी लौटते समय हुई। खुशी का कारण तो मुझे अच्छी तरह याद है। मैं इसी शहर में पिछले वर्ष खुद 10वीं की परीक्षा देकर गया था और सुपरवाइज़र से लेकर सुपरिटेंडेंट तक के आदेशात्मक लहजे की हर अदा मुझे याद थी। एक वर्ष बाद ही मुझे करीब 20 दिन के लिए विद्यार्थियों पर इस तरह की हुकूमत करने का यह समझो एक अवसर मिला था। मेरे जैसे लड़के लिए यह कोई कम उपलब्धि नहीं थी।
सुपरिटेंडेंट ने एक चिट्ठी भी दी थी, हैड मास्टर के नाम, जिसमें लिखा गया था कि वह किसी और बालिग अध्यापक को मेरी जगह पर भेजे। मायूसी का मारा मैं अपनी बहनों में से किसी एक के भी घर नहीं गया। सीता बहन उन दिनों वहाँ सिविल अस्पताल में दाख़िल थी। माँ उसकी सेवा के लिए वहाँ आई हुई थी। हीनभावना का शिकार मैं अपनी बहन का पता लेने की बजाय चार वाली गाड़ी पकड़ कर तपा पहुँच गया था। जो मायूसी हुई थी, वह तो सुपरिटेंडेंट द्वारा जवाब देने के कारण हुई थी, पर जो गुस्सा आ रहा था, वह इसलिए कि चार-पाँच घंटे उत्तर कापियाँ गिनवाने से पहले सुपरिटेंडेंट ने इस नियम के बारे में मुझे क्यों नहीं बताया। गाड़ी में बैठे-बैठे मैंने दिल ही दिल में सुपरिटेंडेंट को पाँच-सात माँ-बहन की गालियाँ तो निकाल ही दी होंगी।
भाई को आकर सारी बात बताई। भाई ने हैड मास्टर से बात की। हैड मास्टर ने मेरे भाई को ही डयूटी देने के लिए भेज दिया।
शायद दो या तीन पेपर ही हुए होंगे कि बहन सीता का निधन हो गया। उस दिन बहन के ससुराल में से घर में कोई भी नहीं था। बहन का ससुर ज्वाला प्रसाद अपने किसी रिश्तेदार के पास डबवाली मंडी गया हुआ था। बहन के पति-परमेश्वर मोहन लाल किताबें खरीदने के लिए दिन से ही जालंधर गए हुए थे। संयोग से भाई ड्यूटी देने न गया होता तो लाश को संभालने वाला घर में कोई सयाना मर्द नहीं था। सन्देशा मिलते ही मैं भी परिवारजनों और मित्र-स्नेहियों सहित रामपुराफूल पहुँच गया। मोहन लाल जी महाराज दाह-संस्कार के समय तक भी नहीं पहुँचे थे। भाई ने ड्यूटी तो क्या देनी थी, दाह-संस्कार के बाद सारा परिवार तपा लौट आया था। मेरी होश में हमारे घर का यह पहला सबसे बड़ा दुखांत था क्योंकि सबसे बड़ी बहन राम प्यारी की मौत के समय मेरी उम्र सिर्फ़ दो साल की ही थी और पिता की मृत्यु के समय मैं पाँचेक वर्ष का था।
बहन के निधन का दुख अपनी-अपनी जगह हम सभी भाई-बहनों को था, पर माँ का विलाप झेला नहीं जा रहा था। शोक की रस्मों के बाद भी हमारे घर में शोक का वातावरण बना रहा। बहन सीता के पास सबसे अधिक मैं ही जाया करता था। मोहन लाल की उल्टी-सीधी बातें मैं ही सुना करता था। मेरे उज्जवल भविष्य के लिए बहन सीता द्वारा सोची गई हर बात जब भी याद आती, मैं फूट-फूट कर रोने लगता।
मजबूरी में हम दोनों भाई स्कूल तो जाते थे, पर दूसरे किसी काम में हमारा दिल नहीं लगता था। अप्रैल में मुझे एफ.ए. अंग्रेजी की परीक्षा भी देनी थी। उन दिनों प्रायवेट पढ़ने वालों को पंजाब यूनिवर्सिटी की ओर से यह सुविधा थी कि ‘ज्ञानी’ या ‘प्रभाकर’ पास व्यक्ति एफ.ए. और बी.ए. की सिर्फ़ अंग्रेजी पास करने के बाद बी.ए. का एक चुना हुआ विषय पास करने के साथ ही बी.ए. की डिग्री ले सकता था। ये सब परीक्षाएं हर तिमाही हुआ करती थीं। इस प्रकार, मैट्रिक पास करने के बाद दो साल के अन्दर बी.ए. की डिग्री मिल जाती थी।
उन दिनों में एफ.ए. (फैकल्टी ऑफ आर्ट्स) 12वीं को कहा करते थे और 11वी-12वीं का इकट्ठा पाठयक्रम होता था। परीक्षा में 'ए' और 'बी' के दो परचे हुआ करते थे। 'ए' पेपर में अंग्रेजी का काव्य संग्रह, कहानी संग्रह, निबंध संग्रह और एक नाटक होता था। कविता की पुस्तक में से प्रसंग सहित व्याख्या का प्रश्न भी पूछा जाता था। 'बी' पेपर में लेख रचना, पत्र, पंजाबी और अंग्रेजी में अनुवाद और ऊँचे स्तर के व्याकरण के व्यवहारिक प्रश्न होते थे। इस तरह के पेपर्स के लिए रट्टे की अधिक गुंजाइश नहीं होती थी। वैसे मैंने कभी रट्टा लगाया भी नहीं था।
स्कूल की नौकरी भी सख्त थी। पूरी सर्दी वार्षिक परीक्षा तक आठ पीरियड के अलावा एक पीरियड पहले पढ़ाना होता था, उसे ज़ीरो पीरियड कहते थे। सातवीं कक्षा को अंग्रेजी पढ़ाने के कारण मैं सातवीं कक्षा का ज़ीरो पीरियड भी लगाता था। ज़ीरो पीरियड से पहले घर में भी एक ट्यूशन पढ़ाता था। शाम चार बजे छुट्टी होती थी, उसके बाद भी ज्ञानी की एक ट्यूशन पढ़ाता था। इतना काम करके मैं थक जाता था, पर मेरा भाई इससे भी अधिक काम करता था। ज़ीरो पीरियड, दसवीं की पंजाबी के अलावा वह बड़ी कक्षाओं को अंग्रेजी और हिसाब भी पढ़ाया करता था और फिर सुबह-शाम ट्यूशनों का महायुद्ध। घर की आर्थिक स्थिति अच्छी करने के लिए यह युद्ध हम दोनों भाई मिल कर लड़ रहे थे।
एफ.ए. अंग्रेजी की पढ़ाई मैंने कहीं जनवरी में जाकर आरंभ की थी और पढ़ने का मौका या तो रात को मिलता या दिन के समय कुछ घंटे इतवार या छ्ट्टी वाले दिन लगाया करता। मैट्रिक के दौरान भाई द्वारा ठोका-पीटा मैं अंग्रेजी फर्र-फर्र बोलता। कोई किताब पढ़ने में कोई मुश्किल न आती। कठिन शब्दों के अर्थ हर प्रश्न के उत्तर के बाद अंग्रेजी में ही दिए होते और पंजाबी में भी। गाईड के बाहर प्रो. के.एल. कपूर का नाम लिखा होता। इस बात का मुझे बाद में बी.एड करते समय पता चला कि यह वही उर्दू का हास्य-व्यंग्य साहित्यकार कैन्हया लाल कपूर है जो डी.एम. कालेज, मोगा में अंग्रेजी का प्रोफेसर भी था।
मुझे अंग्रेजी के किसी प्रश्न का उत्तर देने में कोई कठिनाई नहीं आती थी। अंग्रेजी में किसी किस्म की चिट्ठी या मज़मून मैं बिना किसी बड़ी मुश्किल के लिख लेता था। कारण यह था कि मेरे भाई के पास अंग्रेजी का टाइपराइटर था। अंग्रेजी में चिट्ठी टाइप करवाने वाला इलाके का हर व्यक्ति मेरे भाई के पास आता। उन दिनों में भाई एक चिट्ठी की तीन-चार प्रतियाँ एक या डेढ़ रुपये में कर दिया करता था। भाई की संगत के कारण अंग्रेजी में टाइप करने और अर्जी परचे का मज़मून बनाने का अभ्यास मुझे भी हो गया था। काम करवाने वाला अपनी बात पंजाबी में समझा दिया करता और हम उसकी चिट्ठी या अर्जी अंग्रेजी में टाइप कर देते। यह बात बी.एड करते समय पता चली कि दसवीं तक जो अंग्रेजी मुझे भाई ने पढ़ाई थी, उसकी इस विधि को ट्रांसलेशन मैथड कहते हैं। किसी भाषा को सिखाने के लिए दूसरी विधि डायरेक्ट मैथड की है। इस बात का पता मुझे बी.एड करते समय लगा था। मेरा उस समय भी यह मत था और अब भी यह मत है कि मातृभाषा बगैर किसी विशेष उद्यम के सीखी जा सकती है या यूँ कह लो कि बिना किसी विशेष उद्यम के आ जाती है। मातृभाषा सीखने पर ही डायरेक्ट मैथड का नियम लागू होता है। अंग्रेजी जैसी विदेशी या किसी अन्य क्षेत्र की भाषा सीखने के लिए ट्रांसलेशन मैथड से बढ़िया कोई और तरीका नहीं है। इसलिए अंग्रेजी से पंजाबी और पंजाबी से अंग्रेजी पाँचवी कक्षा से दसवीं कक्षा तक इसी तरीके से ही सीखी थी और अंग्रेजी सिखाने वाला उस्ताद था मेरा अपना भाई हरबंस लाल गोयल। उसने दसवीं के बाद बी.ए. फ़ारसी लिपि में, ज्ञानी करने के उपरांत घर में रह कर ही रोजी-रोटी कमाते हुए पास की थी, पर कमाल यह था कि वह पंजाबी, हिंदी और उर्दू में भाषण करते व्यक्ति के सारे मज़मून का अंग्रेजी में अनुवाद साथ के साथ कर सकता था और उसमें शब्द या वाक्य तो क्या, विराम चिह्न तक की गलती नहीं होती थी। एफ.ए. में भाई द्वारा सिखाई गई अंग्रेजी बड़ी काम आई। लेकिन बहन सीता के निधन के कारण पढ़ाई तो क्या, ज़िन्दगी जीने का भरोसा भी जैसे डोल गया हो। बात बात पर उसे याद करके रो पड़ता। ऊँची आवाज़ में आर्तनाद करने लगता। रोल नंबर आ जाने पर भी किताबों को हाथ लगाने को मन नहीं करता। पूरे परिवार के बहुत ज़ोर देने पर ही मैं परीक्षा देने के लिए मालेरकोटले गया था। मालेरकोटला में बहन कांता की ससुराल थी इसीलिए मैंने फार्म भरते समय यह सेंटर भरा था। पता नहीं क्यों यह बात मैं बहन कांता को भी नहीं बता सका था कि रात में बल्ब की रोशनी में मुझे किताब के अक्षर दिखाई नहीं देते।
प्रात: जल्दी उठकर तैयार हो गया था। डेढ़-दो घंटे किताब अवश्य देखी होगी। पेपर देने गया, पर डेढ़ सवाल ही कर सका। आंखों में से आंसुओं की धारा बहने लगी थी। सेंटर स्टाफ ने भी बड़ी हमदर्दी जताई, पर मैं हाफ-टाइम में ही पेपर पकड़ा कर लौट आया। शायद एक दिन छोड़ कर दूसरा पेपर था। पहले तो बहन से दूसरा पेपर छोड़ कर जाने के लिए कहा, पर बहन के यह कहने पर कि वीर(भाई) गुस्से होगा, मैंने दूसरा पेपर देने का भी निश्चय कर लिया।
दूसरे पेपर में गाईड में जितने भी लेख और पत्र थे, वे सब मैंने पढ़ लिए थे। पंजाबी से अंग्रेजी ट्रांसलेशन और ग्रामर की तैयारी की मुझे कोई ज़रूरत नहीं थी। रात में न पढ़ सकने की समस्या के संबंध में मैंने बहन से यह कह दिया था कि रात में पढ़ने से मेरी आंखें दर्द करने लग पड़ती हैं। बहन को भी सच मैंने इसलिए नहीं बताया था कि कहीं वह यह बात अपने ससुराल में न बता दे।
'बी' पेपर बहुत बढ़िया हो गया था। परीक्षाफल ने भी यह साबित कर दिया था। 53 नंबर लेकर मैंने एफ.ए. की परीक्षा पास कर ली थी। कुल 150 नंबर के 75-75 नंबर के दो पेपरों में से 'ए' पेपर में तो मुश्किल से पाँच-सात नंबर ही आए होंगे। मेरे पास होने का करिश्मा मेरे इस 'बी' पेपर के कारण ही हुआ था। लेकिन परीक्षा पास करने से मेरी कोई तसल्ली नहीं हुई थी। इस पास हो जाने से तो फेल हो जाना मैं बेहतर समझता था।
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शोक की रस्में खत्म हो जाने के बाद मैंने माँ को अपनी आँखों की समस्या बताई। माँ का भी यह ख़याल था, भाई का भी और मेरा स्वयं का भी कि बहन की मौत के बाद ज्यादा रोने के कारण मेरी आँखों पर असर पड़ा है। भाई ने मुझे आँखें टैस्ट करवाने के लिए बठिंडा भेज दिया। वहाँ कांता बहन जी की जेठानी कौशल्या का भाई डा. राम सरूप बांसल आँखों और दांतों की डाक्टरी का काम करता था। पहले मैं डा. बांसल को कभी नहीं मिला था। रिश्तेदारी का हवाला दिया और उसने रिश्तेदारों की भांति ही मेरी आँखें टैस्ट कीं। आई चार्ट की नीचे की चार सतरें न तो दायीं आँख से पढ़ सका था और न ही बायीं आँख से। दोनों आँखों के शीशों का नंबर तीन या तीन से ऊपर था। नज़दीक की नज़र बिलकुल ठीक थी।
डॉक्टर ने हिदायत दी कि ऐनक बिलकुल नहीं उतारनी है। एक महीना सुबह-शाम गोलियाँ खाने की हिदायत दी। ये विटामिन-ए की गालियाँ थीं। नज़र टैस्ट करने के बाद डॉक्टर साहब के छोटे भाई भूदेव ने शीशों को मशीन में घिस कर ऐनक के फ्रेम में फिट कर दिया। फ्रेम में फिट करने से पहले भूदेव ने मुझे कई फ्रेम दिखलाए थे। परन्तु, फ्रेमों के रंगों और डिजाइन में मेरी कोई रुचि नहीं थी। मैंने अनिच्छा से भूदेव से कहा-
''वीर जी, जो आपको अच्छा लगता है, उसी में शीशे डाल दो।''
जब ऐनक लगा कर दुकान से बाहर निकला और दूर तक देखा, बहुत साफ दिखाई दे रहा था। गाड़ी में ऐनक उतार कर कभी अन्दर देखता, कभी बाहर। ऐनक लगाने में शर्म तो बहुत आती थी, पर जब बाहर झांकता तो दूर तक खड़े दरख्तों के पत्ते, खेतों में खड़ी गेहूं की फसलें बहुत साफ-साफ दिखाई देतीं। मन को तसल्ली हुई कि समय से ऐनक लग गई। सब कहते थे कि अगर नज़र वाली ऐनक सोने के समय को छोड़ कर हमेशा लगाई रखो तो निगाह एक जगह पर टिक जाती है, आगे कम नहीं होती। मेरे लिए इतनी बात भी तसल्ली देने वाली थी।
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अप्रैल में एफ.ए. अंग्रेजी पास करने के कारण पंजाब यूनिवर्सिटी के नियम के अनुसार सितम्बर में बी.ए. अंग्रेजी की परीक्षा नहीं दे सकता था। वैसे भी आर्य स्कूल में पढ़ाने और ट्यूशनें करने के कारण और खास तौर पर निगाह की चिंता के कारण मुझे बी.ए. की परीक्षा पास करने की कोई जल्दी नहीं थी।
(जारी…)
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धृतराष्ट्र
डॉ. एस. तरसेम
हिन्दी अनुवाद : सुभाष नीरव
चैप्टर-4
आर्य हाई स्कूल, तपा में पहली नौकरी
ज्ञानी का अभी नतीजा नहीं आया था कि सुखानंद आर्य हाई स्कूल, तपा के मुख्य अध्यापक यशपाल भाटिया ने मेरे भाई के सम्मुख मुझे बतौर क्लर्क काम करने की पेशकश की। भाई के लिए इससे अच्छा अवसर और कौन-सा हो सकता था। मुझे भी यह नौकरी करने में कोई झिझक नहीं थी।
25 नवंबर 1958 को मैं आर्य हाई स्कूल में उपस्थित हो गया। अगले दिन जो नियुक्ति पत्र मुझे दिया गया, वह था - क्लर्क-कम-टीचर की नौकरी का। दफ्तर का काम सारा अंग्रेजी में करना होता था। पहले दफ्तर का काम मेरा भाई किया करता था। शायद उसकी सेवाओं के सम्मान में ही मुख्य अध्यापक ने मुझे नियुक्त किया हो। वैसे स्कूल में एक क्लर्क की भी आवश्यकता थी और एक अध्यापक की भी।
मेरी आयु 16 साल से भी कम थी। शरीर दुबला-पतला। मूंछ-दाढ़ी भी अभी फूटी नहीं थी। इस स्कूल में से ही दिसंबर 1956 में मैं 7वीं का सर्टिफिकेट लेकर उस समय अपने भाई द्वारा खोले गए गोयल माडर्न स्कूल में पढ़ने लग पड़ा था। सर्टिफिकेट मुझे 7वीं में पढ़ते का ही मिला था। ज़िला शिक्षा अधिकारी द्वारा मेरा डबल प्रमोशन केस रद्द करना और उस समय के आर्य स्कूल के अध्यापकों का मेरे भाई के प्रति ईष्या भाव, ये कारण थे कि मुझे स्कूल छोड़ना पड़ा था। उस वक्त जो मेरे सातवीं कक्षा के सहपाठी थे, वे नवीं कक्षा में पढ़ते थे और जो आठवीं में थे, वे दसवीं कक्षा में। इसलिए स्कूल में आते समय मुझे अजीब-सी झिझक और शर्म आती थी। मुझे यह भी डर सताता था कि कहीं हैड मास्टर मुझे नवीं या दसवीं के किसी पीरियड में न भेज दे। पहला कारण यह कि इन दो क्लासों के बहुत से लड़कों के सामने मैं बहुत कमजोर लगता था और दूसरा यह कि हम-जमातियों को पढ़ाने में भी मुझे बहुत संकोच होता था। इन कक्षाओं में मुझे कभी भी भेजा जा सकता था, क्योंकि जो भी अध्यापक छुट्टी पर होता था, उसके पीरियड की लिखित रूप में एडजस्टमेंट की जाती थी। मेरे तो सभी पीरियड ही खाली थे। इसलिए 3-4 पीरियड तो रोज़ पढ़ाने ही पढ़ते थे। लेकिन दो महीनों तक मुझे सातवीं कक्षा से ऊपर की कक्षा का कोई पीरियड नहीं दिया गया था। दफ्तर का प्रतिदिन का काम मैं रोज़ ही खत्म कर लेता था। इस काम में घंटे-डेढ़ घंटे से अधिक समय लगता भी नहीं था। इसलिए मुझे पीरियड देने में हैड मास्टर की समस्याएं हल हो जातीं। एक तो यह कि दूसरे अध्यापकों को और बहुत से पीरियड नहीं पढ़ाने पड़ते, दूसरा यह कि मेरा खाली होना मुख्य अध्यापक को चुभता नहीं था। उन दिनों में प्रायवेट स्कूलों को 95 प्रतिशत सरकारी ग्रांट नहीं मिला करती थी। इसलिए प्राइमरी, भाषा और पी.टी.आई. तथा ड्राइंग आदि के अध्यापकों को स्कूल 60-70 रुपये से अधिक नहीं देते थे और बी.ए. बी.एड के अध्यापकों को अधिक से अधिक सौ-सवा सौ रुपये ही दिया करते। सरकारी स्कूलों में प्राइमरी अध्यापक को सौ रुपया, बी.ए., बी.एड. के अध्यापकों को 166 रुयये और बाकी सब मिडिल और हाई क्लास को पढ़ाने वाले अध्यापकों को 112 रुपये ही दिए जाते। सरकारी क्लर्क की तनख्वाह भी सौ रुपये हुआ करती। इसलिए मेरे जैसे बेरोज़गार युवक को अपने शहर के स्कूल में फिलहाल 60 रुयये मिलना भी मेरे परिवार के लिए तो हैड मास्टर की कृपादृष्टि ही थी।
मार्च के महीने में मुझे हैड मास्टर ने 60 रुपये दिए। दस्तख़त तो पहले भी 60 रुपये पर ही करवाते थे। 20 रुपये की दान की पर्ची काट देते थे। यह बात हैड मास्टर ने मेरे भाई के साथ पहले ही तय कर ली थी। घर पहुँचकर जब मैंने 60 रुपये भाई को पकड़ाये तो वह खुश होने के बजाय हैरान अधिक हुआ। उसने सोचा कि हैड मास्टर ने भूल से मुझे 60 रुपये दे दिए हैं। भाई ने कहा कि मैं हैड मास्टर से बात करूँ। अगले दिन जब मैं हैड मास्टर को 20 रुपये लौटाने लगा तो हैड मास्टर ने कहा-
''नहीं, यह ठीक ही दिए हैं। आगे से तेरी पर्ची नहीं कटेगी।''
इस खुशी को मैं शब्दों में बयान नहीं कर सकता।
नए सैशन से मुझे अन्य अध्यापकों की भांति टाइम टेबल दे दिया गया। नवीं कक्षा तक की सारी पंजाबी मुझे सौंप दी गई थी और बाकी दफ्तर का काम। शायद, हैड मास्टर ने मेरे ज्ञानी के नतीजे से प्रभावित होकर यह एडजस्टमेंट की हो। मैं खुश था। पंजाबी पढ़ाने में मुझे कतई कोई दिक्कत नहीं थी। दूसरा यह कि जिन कक्षाओं को मैं पढ़ाता था, उनमें मेरा कोई पूर्व सहपाठी भी नहीं था। धीरे-धीरे स्कूल में भी और शहर में भी सब मुझे ‘ज्ञानी जी’ कह कर बुलाने लगे। मेरा भाई हालांकि 10वीं कक्षा को पंजाबी पढ़ाता था और उससे पहले भी एक-डेढ़ साल से पंजाबी ही पढ़ा रहा था, पर उसे कोई ‘ज्ञानी जी’ नहीं कहता था। सारा शहर ही उसे पहले की तरह गोयल साहब कह कर बुलाया करता। क्या हैड मास्टर, क्या मास्टर और क्या लड़के - सब गोयल साहिब ही कहते।
सबसे अधिक ट्यूशन भी मेरे भाई के पास आती। आठवीं से लेकर दसवीं कक्षा तक की टयूशनें सुबह-शाम पढ़ाने और पिछली सर्दी में रात को भी कई ग्रुप पढ़ाने के कारण हमारी आर्थिक स्थिति किसी हद तक पटरी पर आ गई थी। ट्यूशन का काम मैं भी करता था। तनख्वाह और ट्यूशन के सारे पैसे मैं अपने भाई को पकड़ा देता। फरवरी में भाई ने जैसे-तैसे करके इतने पैसे जोड़ लिए कि रामपुरा वालों का सारा कर्ज़ा उतर गया। मोहन लाल की धमकाने वाली बात मैंने अपने भाई को कर्ज़ा उतर जाने के बाद ही बताई थी। अगर पहले बता देता तो उसके मन पर अधिक बोझ पड़ता। अनेक तरह के बोझ तो उसके ऊपर पहले ही बहुत थे - ग्रेन डीलर्ज एसोसिएशन के टूटने के कारण मैनेजर की बढ़िया नौकरी का जाना, व्यापार में घाटा, खोली गई अकेडमी 'गोयल माडर्न कालेज' को बंद करके आर्य हाई स्कूल में पंजाबी-टीचर बनना आदि। मोहन लाल की अपमानित करने वाली बात बताने के बजाय मैंने एक-दो बार भाई को उनके पैसे लौटाने के बारे में याद अवश्य करवाया था। मोहन लाल की अपमानित करने वाली बात बताने के बाद मैंने भाई को माँ से यह कहते सुना था-
''तरसेम बहुत समझदार है। अगर हाथ ठीक होता तो इसे कालेज में दाखिला दिलाते।''
मेरे लिए यह भी एक तसल्लीवाली बात थी कि मेरे भविष्य के बारे में भाई कितना चिंतातुर है।
ट्यूशनें करने के कारण ही तारा के विवाह के बाद के सारे त्योहार भी अच्छे भेजे गए थे। कोई उलाहने वाले बात नहीं थी- करवा चौथ, दीवाली और लोहड़ी के त्योहार ही बड़े थे। इनके भेजने में कोई कमी नहीं रही थी। हाँ, यह संभव है कि तारा के ससुराल वालों को वे पूरी तरह पसंद न आए हों।
आर्य स्कूल में पढ़ाने के काम से भी ज्यादा ज़रूरी काम था- इतवार के दिन होने वाले हवन में हाज़िरी देना। हवन के मंत्रों वाली पुस्तकें सबके हाथ में होतीं। स्कूल का संस्कृत अध्यापक हवन में पुरोहित माना जाता। उन दिनों आर्य स्कूल में वरखा राम उर्फ़ वशिष्ठ देव संस्कृत अध्यापक था। बठिंडा ज़िला के एक गांव ठूठिआंवाली में जन्मा पला ब्राह्मण सिगरेट-बीड़ी पीता था। हवन करने-करवाने में उसकी बिलकुल भी रुचि नहीं थी। जनेऊ भी उसने यशपाल भाटिया से भयभीत होकर ही डाल रखा था। हवन करने को वह तम्बाकू फूंकना ही बताता। मेरे भाई और मेरे पास बैठ कर हैड मास्टर की जी भरकर निंदा करता। मेरा भाई अक्सर चुप रहता। हैड मास्टर की सारी कमियों को जानने के बावजूद मैं वरखा राम की तरह हैड मास्टर के खिलाफ न बोलता। यह मेरे भाई की हिदायत थी कि मुझे किसी के आगे हैड मास्टर के बारे में कोई टिप्पणी नहीं करनी है।
स्कूल का सेकेंड मास्टर वरिंदर मधु था। वह हिंदी में एम.ए., बी.एड था। उसे हैड मास्टर ही अपने इलाके में से कहीं से लाया था, शेष अन्य अध्यापकों की तरह। उसकी उपस्थिति में हैड मास्टर के खिलाफ वरखा राम ने बोलना शुरू किया तो मुझसे भी कहीं हुंकारा भरा गया होगा। बस, यह पहला कारण था कि हैड मास्टर ने मेरे भाई से मेरी शिकायत कर दी। कम्युनिस्टों के साथ मेरे मेलजोल की बात भी किसी ने हैड मास्टर के कान में डाल दी थी। ये दो कारण मुझे स्कूल में से निकालने के लिए बहुत थे।
स्कूल में अंतर स्कूल भाषण प्रतियोगिता, कविता पाठ प्रतियोगिता और अन्य सांस्कृतिक कार्यक्रम हालांकि मेरी हिम्मत से ही शुरू हुए थे, विद्यार्थियों में भी मैं पसंद किया जाता था, पर हैड मास्टर की आँखों में मैं अब पूरी तरह खटकने लग गया था। हैड मास्टर की दृष्टि में वरखा राम भी मेरी वाली कैटेगरी में आता था। अब तो सेकेंड मास्टर वरिंदर मधु भी हैड मास्टर के लिए एक कांटा बन गया था।
ग्रीष्म अवकाश के बाद हैड मास्टर ने वरिंदर मधु, वरखा राम और मेरे नाम आदेश जारी कर दिया कि हमें विद्यार्थियों का टूर भाखड़ा नंगल डेम और आनंदपुर साहिब ले जाना है। तर्क यह दिया गया कि बड़ी कक्षाओं के विद्यार्थी टूर पर जाना चाहते हैं। लेकिन अपने चहेतों को छोड़कर हम तीनों को ही यह जिम्मेदारी सौंपने के पीछे मुझे दाल में कुछ काला नज़र आया। मैंने दिल की बात अपने भाई से छिपाकर, मधु और वरखा राम से साझा की। वरखा राम की सोच मुझ से दो कदम आगे थी। बोला- ''दाल में काला नहीं, यह तो सारी दाल ही काली है।''
मधु ने जो जुकाम होने के कारण हाथ में रूमाल रखा करता था, रूमाल के दोनों कोने नाक में फेरते हए इसे एक साज़िश तो कहा ही, साथ ही यह भी कह दिया, ''टूर में हमसे कोई न कोई गलती तो हो ही सकती है। अगर न भी हुई, भाटिया साहब ने अपने चार-पाँच लड़कों से हमारे खिलाफ लिखवा लेना है। फिर हमको ज़लील करके वह हमारा पत्ता काट देगा।''
वरखा राम ने सिगरेट का गहरा कश भर कर तिहरे-चौहरे ब्रैकट वाली बठिंडाशाही-मलवई गालियों भाटिया के लिए बकीं और अपनी भड़ास निकाल ली। लेकिन टूर के लिए ना करने की हमें काई दलील भी नहीं सूझी।
मधु और वरखा राम से मेरा डर कुछ भिन्न भी था। एक तो यह कि आयु में मैं सबसे छोटा था। टूर पर जाने वाले कुछ लड़के मेरी उम्र थे और कुछ मुझसे बड़े भी। दूसरा यह कि मेरे पास ढंग के कपड़े भी नहीं थे। पर सबसे बड़ी बात यह थी कि दिन छिपने के बाद मुझे कुछ भी साफ दिखाई नहीं देता था। ऐनक के सहारे दिन के समय तो चल फिर भी लेता था और पढ़ना-लिखना भी हो जाता था, पर रात के समय पढ़ना-लिखना तो एक तरफ रहा, चल-फिर भी नहीं सकता था। अंधराते के इस रोग के बारे में मैं मधु और वरखा राम को भी नहीं बता सकता था। मेरी यह पोल-पट्टी खुल जाने से मेरी ज़िन्दगी के तो सारे दरवाजे ही बन्द हो जाने थे। नौकरी तो जानी ही थी, सारा भविष्य ही धुंधला हो जाना था। विवाह वाला दरवाजा तो बिलकुल ही बन्द हो जाता। सो, दुविधा का शिकार यह बेचारा तरसेम, फंसे तो फटकना क्या, का आख्यान सोचता हुआ मधु और वरखा राम के साथ बीसेक छात्रों की टीम का एक अध्यापक-नेता बन कर सवेरे साढ़े छह बजे की गाड़ी से पटियाले की ओर चल पड़ा। दिन के समय कभी कोई मुश्किल नहीं आई थी। नंगल शहर घूम कर देखा, बहुत सुन्दर लगा। वहाँ तो रात में ट्यूबों की चमचमाती रोशनी में नहर के दायें-बायें घूमने में भी बहुत आनन्द आया। गंगुवाल और कोटला की कम रोशनी वाली छोटी-छोटी सीढ़ियों के रास्ते नीचे उतरते समय तो मैं दहल गया था। उस समय एक मूर्ख-सा लड़का जो कभी हमारा पड़ोसी भी रहा था और पढ़ने में जीरो होने के बावजूद भारी जेब के कारण सब लड़कों का चौधरी था, पुराना पड़ोसी होने के नाते सीढ़ियाँ उतरते समय मेरा बड़ा ख़याल रखता। मधु और वरखा राम के अलावा दो-तीन विद्यार्थियों को छोड़ कर मैं सबसे पतला और कमजोर था। वह लड़का जिसका नाम पुरुषोत्तम था, उसने हर कठिन समय में मेरी मदद की। गंगुवाल और कोटले का स्टाफ पानी से बिजली बनने, ऊपर से पानी नीचे गिरने के बारे में ही नहीं और भी बहुत कुछ समझाता रहा। बात तो मुझे सारी समझ में आ रही थी, पर मेरी उस बात में बिलकुल भी दिलचस्पी नहीं थी। दो-तीन घंटे ये सब कुछ देखने के बाद जब हम बाहर आए, मैं महसूस कर रहा था मानो किसी भयानक घाटी में से बाहर निकल आया होऊँ।
लड़कों ने एक रात सिनेमा देखने का प्रोग्राम बना लिया। मुझे सिनेमा देखने में भी कोई रुचि नहीं थी। जब तपा मंडी में 1955-56 में टाकीज़ खुली थी, उस समय हमारे इलाके के लोग बड़े चाव से सिनेमा देखने जाते थे। सिनेमा की कोई छत नहीं थी। टिकट देने वाले छोटे से कमरे के अलावा और कोई कमरा भी नहीं था। कुर्सियों की जगह फट्टे हुआ करते थे। टिकट होता था सिर्फ़ पाँच आनों का। समझो आज के इकत्तीस पैसों का। हमारे लिए वह टिकट भी मुफ्त होता था क्योंकि सिनेमा के मालिकों में से मेघ राज नैणेवाला रिश्तेदारी में मेरे ताया का लड़का था और सिनेमा में उसकी आधे की साझेदारी थी। दूसरा यह कि सिनेमा शुरू करने से पहले उसने सारे कागज-पत्रों का काम मेरे भाई से करवाया था। इसके बाद भी जब कभी दफ्तरी काम की ज़रूरत पड़ी तब भी वे मेरे भाई के पास आए। सो, मेरे लिए यह सिनेमा बिलकुल मुफ्त था। चाहे तो रोज़ जाता। पहले पहले कई बार गया भी। संग किसी न किसी दोस्त को ले जाता। वह मुफ्त होने के कारण मेरे संग चला जाता और मुझे सहारा यह होता कि कम रोशनी के समय मुझे कोई कठिनाई पेश न आती। उन दिनों फिल्में ब्लैक एंड व्हाइट हुआ करती थीं। आगे बैठने के बावजूद मुझे कई बार तस्वीरें साफ नहीं दिखाई देती थीं। यही कारण था कि मैंने चार-पाँच फिल्में देखने के बाद तपे की इस टाकीज़ में जाना ही छोड़ दिया था। सिर्फ़ फिल्मों के नाम मुझे याद थे। एक थी- ‘पोस्ती’और दूसरी- ‘गोपाल भैया’।
मुझे उपर्युक्त कच्चा चिट्ठा इसलिए लिखना पड़ रहा है क्योंकि लड़कों की सिनेमा देखने की तजवीज़ मेरे लिए उस तरह की ही विपदा थी, जिस तरह की विपदा मैंने गंगुवाल और कोटला के बिजली घर देखते समय भोगी थी। पुरुषोत्तम ने मेरे मना करने का अर्थ यह लगाया कि मैं पैसे खर्च करने में गुरेज करता हूँ। मेरी टिकट के पैसे उसने स्वयं खर्च करने की जब तजवीज़ रखी तो उसने मेरे दिल पर एक और ज़ख्म कर दिया। पर क्योंकि मैं अध्यापक भी था, इसलिए मैंने अध्यापकीय लहजे में उसे डांट-फटकार दिया और बहाना यह लगाया कि मेरी दायीं टांग में बहुत दर्द हो रहा है। मधु बेचारे को क्या मालूम था, उसने फटाफट एक गोली निकाल कर मुझे दे दी। वह ज्यादा जुकाम होने पर जो दो गोलियाँ लिया करता था, उनमें से एक गोली यह भी थी जो दर्द में भी फायदा किया करती थी। मैंने गोली मधु से पकड़ अवश्य ली, पर खाई नहीं थी और यह कह कर जेब में रख ली थी कि अगर दर्द बढ़ गया तभी खाऊँगा।
पुरुषोत्तम ने मेरी बांह पकड़ रखी थी। सेकेंड क्लास की टिकटें होने के कारण हम गद्देदार कुर्सियों पर जा बैठे। फिल्म का नाम शायद ‘कन्हैया’ था। मुझे कुछ गाने तो अच्छे लगे, कुछ अदाकारों के चेहरे भी काफी साफ दिखाई दिए, पर फिल्म पूरी समझ में नहीं आई थी। बाहर आकर जिस प्रकार मधु और वरखा राम फिल्म की कहानी और गानों की तारीफ करते रहे, मैं भी उनकी हाँ में हाँ मिलाता रहा।
वापसी में हमें एक रात आनन्दपुर में रुकना था। पहले दिन के समय हमें नैणा देवी जाना था। नैणा देवी जाने-आने के समय तो कोई मुश्किल नहीं आई थी। उतराई के समय तो मैं सबसे आगे ही निकल जाता था। पर जब हम आनन्दपुर साहिब के गुरुद्वारे में पहुँचे, उस समय अंधेरा हो चुका था। पर पुरुषोत्तम मेरा सहायक बना रहा जिस कारण लंगर छकने, गुरु गोविंद सिंह जी के शस्त्रों के दर्शन करने से लेकर सोने तक कोई बड़ी कठिनाई पेश नहीं आई थी। जिस कमरे में हम पहुँचे, वहाँ दूधिया सफ़ेद रंग की लट्ठे की एक चादर पड़ी थी। कम से कम चार नहीं तो तीन आदमी तो उसे लेकर लेट ही सकते थे। पर कोई भी उसे हाथ लगाने को तैयार नहीं था मानो उसे कोई तपेदिक का मरीज भूल गया हो। मधु और वरखा राम सहित सभी विद्यार्थी इस धार्मिक स्थान पर से इस चादर को उठाना जैसे महापाप समझते हों। पर मुझे इसमें छुआछात या पाप जैसा कुछ भी महसूस नहीं हो रहा था। सवेरे तैयार होकर सबने चादर के बारे में पूछा तो सब यूँ चुप्पी लगा गए मानो साँप सूंघ गया हो। मैंने चादर को इकट्ठा किया और अपने बैग में ठूंस ली। लौटते समय मुझे ऐसा महसूस हो रहा था जैसे आधी से अधिक सज़ा भुगती गई हो। पर असली सज़ा की तलवार सिर पर अभी लटकती थी। स्कूल में आने के बाद पहले हैड मास्टर ने हमसे टूर के बारे में पूछा और फिर विद्यार्थियों की अलग से मीटिंग बुलाई। समझो, हम इस साज़िश केस से बरी हो गए थे। हो सकता है, यह हमारा भ्रम भी हो कि हैड मास्टर ने हमें उलझाने के लिए टूर पर भेजा था। पुरुषोत्तम जिसे मैं मूर्ख समझा करता था, वह तो मेरे लिए ईश्वर बन कर आया था। आनन्दपुर साहिब से जो चादर लेकर आया था, वह अलग फायदे का सौदा था। मैं न लाता, कोई और मुसाफ़िर ले जाता। घर में भाभी की ओर से दो-चार दिन नाक-भौं सिकोड़ने के बाद उस चादर की दो चादरें बना ली गई थीं और ये दोनों चादरें कई साल हमारे काम आती रही थीं।
हम तीनों को निकालने के लिए हैड मास्टर कोई न कोई बहाना तलाश रहा था। आखिर मुझे निकालने के लिए उसे एक बहाना मिल ही गया। आर्य विद्या परिषद्, दिल्ली और आर्य प्रतिनिधि सभा, जालंधर के अधीन यह स्कूल चलता था, जिनकी ओर से हैड मास्टर एक पत्र ले आया। पत्र में लिखा था कि एक शैक्षणिक संस्था में पिता-पुत्र या दो सगे भाई एक साथ नहीं रह सकते। इससे पहले कि हैड मास्टर मुझे निकाले, मेरे भाई ने मुझसे स्वयं ही जनवरी 1960 की किसी तारीख़ को इस्तीफा दिला दिया था। हैड मास्टर ने मेरे भाई के सम्मान का जो नाटक खेला, वह यह था कि वह जालंधर और दिल्ली के आर्य समाजी प्रबंधकों के पास मुझे स्कूल में रखने हेतु विशेष छूट देने के लिए चक्कर लगा आया था। इस सबके बारे में हम दोनों भाइयों को मालूम था। 25 जनवरी 1960 को मुझे फारिग कर दिया गया। मेरे स्कूल छोड़ने के बाद वरिंदर मधु और वरखा राम भी किसी नए स्कूल की तलाश करने लगे। पूरी तरह तो याद नहीं, पर इतना अवश्य याद है कि हैड मास्टर के छल-प्रपंची और गप्पी स्वभाव के कारण वे दोनों भी स्कूल छोड़ कर चले गए। सुखानंद आर्य हाई स्कूल, तपा में मैं तीन वर्ष पढ़ा भी था। 14 महीने नौकरी करके भी देखी। लेकिन यदि मैं यह कहूँ कि यहाँ मैंने खोया ही खोया है, तो यह ठीक नहीं होगा। ज़िन्दगी की कुछ समझ मुझे इस स्कूल में रह कर ही आई। एक मनुष्य के अन्दर और कितने मनुष्य बैठे होते हैं, इस सच का पता यहाँ की गई नौकरी से ही लगना शुरू हुआ। हवन में उपस्थित होने की गुलामी हालांकि चुभती थी, पर संस्कृत पढ़ने का अभ्यास और पंजाबी के साथ-साथ हिंदी के प्रति लगाव का कारण यह आर्य स्कूल ही बना।
एक विद्यार्थी और एक अध्यापक के तौर पर मैंने स्कूल नहीं छोड़ा था। यदि किसी मुंसिफ़ ने सही फैसला देना हो तो उसे यह लिखना ही पड़ेगा कि मुझे इस स्कूल में से विद्यार्थी की हैसियत से भी निकाला गया था और अध्यापक की हैसियत से भी। उर्दू के मशहूर शायर साहिर लुधियानवी को तो सरकारी कालेज, लुधियाना में से सिर्फ एक विद्यार्थी के हैसियत से ही निकाला गया था और उसने इस दर्द को इस कालेज में अपने सम्मान के समय इस शे'र द्वारा जुबान दी थी :-
आख़िर हम इन फ़जाओं के पाले हुए तो हैं
'गर यां नहीं तो यां से निकाले हुए तो हैं
शे'र का पिछला मिसरा असल में साहिर साहब ने अज़ीम उर्दू शायर ग़ालिब के एक शे'र से लिया था जो इस तरह है-
काबे से इन बुतों को भी निस्बत है दूर की
'गर यां नहीं तो यां से निकाले हुए तो हैं
सो, मेरी ज़िन्दगी में दूसरी तल्ख़ियों के साथ-साथ इस स्कूल में से दो दो बार निकाले जाने की दर्दनाक कार्रवाई मेरी ज़िन्दगी के तल्ख़ीनामे का बड़ा अहम हादसा है, साहिर और ग़ालिब से भी कहीं तल्ख़।
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मार्च 1959 की मैट्रिक परीक्षा में मेरी ड्यूटी सुपरवाइज़र के तौर पर सरकारी हाई स्कूल, रामपुराफूल के परीक्षा केन्द्र में लग गई थी। परीक्षा केन्द्र अब की तरह एक दिन पहले शुरू होना था। जब मैंने अपने हैड मास्टर की रिलीविंग चिट्ट दी तो सेंटर सुपरिटेंडेंट कितनी ही देर मेरी ओर देखता रह गया। उसका नाम अब मुझे स्मरण नहीं। उसने मुझे उत्तर कापियाँ गिनने के लिए कहा और मैं दोपहर के दो बजे तक इस काम में व्यस्त रहा। दो बजे के बाद, पता नहीं उसके चित्त में क्या आया, बोला-
''काका जी, तेरी डेट ऑफ बर्थ क्या है ?''
''जी 30-12-1942... '' मैंने कहा।
कुछ सोच कर उसने मुझे यह कह कर ड्यूटी पर से जवाब दे दिया कि 18 साल की उम्र से कम वाला कोई व्यक्ति सुपरवाइज़र नहीं लग सकता। मुझे अभी 17वां साल ही था। घर से ड्यूटी देने जाने के वक्त मुझे जितनी खुशी हो रही थी, उससे कहीं अधिक मायूसी लौटते समय हुई। खुशी का कारण तो मुझे अच्छी तरह याद है। मैं इसी शहर में पिछले वर्ष खुद 10वीं की परीक्षा देकर गया था और सुपरवाइज़र से लेकर सुपरिटेंडेंट तक के आदेशात्मक लहजे की हर अदा मुझे याद थी। एक वर्ष बाद ही मुझे करीब 20 दिन के लिए विद्यार्थियों पर इस तरह की हुकूमत करने का यह समझो एक अवसर मिला था। मेरे जैसे लड़के लिए यह कोई कम उपलब्धि नहीं थी।
सुपरिटेंडेंट ने एक चिट्ठी भी दी थी, हैड मास्टर के नाम, जिसमें लिखा गया था कि वह किसी और बालिग अध्यापक को मेरी जगह पर भेजे। मायूसी का मारा मैं अपनी बहनों में से किसी एक के भी घर नहीं गया। सीता बहन उन दिनों वहाँ सिविल अस्पताल में दाख़िल थी। माँ उसकी सेवा के लिए वहाँ आई हुई थी। हीनभावना का शिकार मैं अपनी बहन का पता लेने की बजाय चार वाली गाड़ी पकड़ कर तपा पहुँच गया था। जो मायूसी हुई थी, वह तो सुपरिटेंडेंट द्वारा जवाब देने के कारण हुई थी, पर जो गुस्सा आ रहा था, वह इसलिए कि चार-पाँच घंटे उत्तर कापियाँ गिनवाने से पहले सुपरिटेंडेंट ने इस नियम के बारे में मुझे क्यों नहीं बताया। गाड़ी में बैठे-बैठे मैंने दिल ही दिल में सुपरिटेंडेंट को पाँच-सात माँ-बहन की गालियाँ तो निकाल ही दी होंगी।
भाई को आकर सारी बात बताई। भाई ने हैड मास्टर से बात की। हैड मास्टर ने मेरे भाई को ही डयूटी देने के लिए भेज दिया।
शायद दो या तीन पेपर ही हुए होंगे कि बहन सीता का निधन हो गया। उस दिन बहन के ससुराल में से घर में कोई भी नहीं था। बहन का ससुर ज्वाला प्रसाद अपने किसी रिश्तेदार के पास डबवाली मंडी गया हुआ था। बहन के पति-परमेश्वर मोहन लाल किताबें खरीदने के लिए दिन से ही जालंधर गए हुए थे। संयोग से भाई ड्यूटी देने न गया होता तो लाश को संभालने वाला घर में कोई सयाना मर्द नहीं था। सन्देशा मिलते ही मैं भी परिवारजनों और मित्र-स्नेहियों सहित रामपुराफूल पहुँच गया। मोहन लाल जी महाराज दाह-संस्कार के समय तक भी नहीं पहुँचे थे। भाई ने ड्यूटी तो क्या देनी थी, दाह-संस्कार के बाद सारा परिवार तपा लौट आया था। मेरी होश में हमारे घर का यह पहला सबसे बड़ा दुखांत था क्योंकि सबसे बड़ी बहन राम प्यारी की मौत के समय मेरी उम्र सिर्फ़ दो साल की ही थी और पिता की मृत्यु के समय मैं पाँचेक वर्ष का था।
बहन के निधन का दुख अपनी-अपनी जगह हम सभी भाई-बहनों को था, पर माँ का विलाप झेला नहीं जा रहा था। शोक की रस्मों के बाद भी हमारे घर में शोक का वातावरण बना रहा। बहन सीता के पास सबसे अधिक मैं ही जाया करता था। मोहन लाल की उल्टी-सीधी बातें मैं ही सुना करता था। मेरे उज्जवल भविष्य के लिए बहन सीता द्वारा सोची गई हर बात जब भी याद आती, मैं फूट-फूट कर रोने लगता।
मजबूरी में हम दोनों भाई स्कूल तो जाते थे, पर दूसरे किसी काम में हमारा दिल नहीं लगता था। अप्रैल में मुझे एफ.ए. अंग्रेजी की परीक्षा भी देनी थी। उन दिनों प्रायवेट पढ़ने वालों को पंजाब यूनिवर्सिटी की ओर से यह सुविधा थी कि ‘ज्ञानी’ या ‘प्रभाकर’ पास व्यक्ति एफ.ए. और बी.ए. की सिर्फ़ अंग्रेजी पास करने के बाद बी.ए. का एक चुना हुआ विषय पास करने के साथ ही बी.ए. की डिग्री ले सकता था। ये सब परीक्षाएं हर तिमाही हुआ करती थीं। इस प्रकार, मैट्रिक पास करने के बाद दो साल के अन्दर बी.ए. की डिग्री मिल जाती थी।
उन दिनों में एफ.ए. (फैकल्टी ऑफ आर्ट्स) 12वीं को कहा करते थे और 11वी-12वीं का इकट्ठा पाठयक्रम होता था। परीक्षा में 'ए' और 'बी' के दो परचे हुआ करते थे। 'ए' पेपर में अंग्रेजी का काव्य संग्रह, कहानी संग्रह, निबंध संग्रह और एक नाटक होता था। कविता की पुस्तक में से प्रसंग सहित व्याख्या का प्रश्न भी पूछा जाता था। 'बी' पेपर में लेख रचना, पत्र, पंजाबी और अंग्रेजी में अनुवाद और ऊँचे स्तर के व्याकरण के व्यवहारिक प्रश्न होते थे। इस तरह के पेपर्स के लिए रट्टे की अधिक गुंजाइश नहीं होती थी। वैसे मैंने कभी रट्टा लगाया भी नहीं था।
स्कूल की नौकरी भी सख्त थी। पूरी सर्दी वार्षिक परीक्षा तक आठ पीरियड के अलावा एक पीरियड पहले पढ़ाना होता था, उसे ज़ीरो पीरियड कहते थे। सातवीं कक्षा को अंग्रेजी पढ़ाने के कारण मैं सातवीं कक्षा का ज़ीरो पीरियड भी लगाता था। ज़ीरो पीरियड से पहले घर में भी एक ट्यूशन पढ़ाता था। शाम चार बजे छुट्टी होती थी, उसके बाद भी ज्ञानी की एक ट्यूशन पढ़ाता था। इतना काम करके मैं थक जाता था, पर मेरा भाई इससे भी अधिक काम करता था। ज़ीरो पीरियड, दसवीं की पंजाबी के अलावा वह बड़ी कक्षाओं को अंग्रेजी और हिसाब भी पढ़ाया करता था और फिर सुबह-शाम ट्यूशनों का महायुद्ध। घर की आर्थिक स्थिति अच्छी करने के लिए यह युद्ध हम दोनों भाई मिल कर लड़ रहे थे।
एफ.ए. अंग्रेजी की पढ़ाई मैंने कहीं जनवरी में जाकर आरंभ की थी और पढ़ने का मौका या तो रात को मिलता या दिन के समय कुछ घंटे इतवार या छ्ट्टी वाले दिन लगाया करता। मैट्रिक के दौरान भाई द्वारा ठोका-पीटा मैं अंग्रेजी फर्र-फर्र बोलता। कोई किताब पढ़ने में कोई मुश्किल न आती। कठिन शब्दों के अर्थ हर प्रश्न के उत्तर के बाद अंग्रेजी में ही दिए होते और पंजाबी में भी। गाईड के बाहर प्रो. के.एल. कपूर का नाम लिखा होता। इस बात का मुझे बाद में बी.एड करते समय पता चला कि यह वही उर्दू का हास्य-व्यंग्य साहित्यकार कैन्हया लाल कपूर है जो डी.एम. कालेज, मोगा में अंग्रेजी का प्रोफेसर भी था।
मुझे अंग्रेजी के किसी प्रश्न का उत्तर देने में कोई कठिनाई नहीं आती थी। अंग्रेजी में किसी किस्म की चिट्ठी या मज़मून मैं बिना किसी बड़ी मुश्किल के लिख लेता था। कारण यह था कि मेरे भाई के पास अंग्रेजी का टाइपराइटर था। अंग्रेजी में चिट्ठी टाइप करवाने वाला इलाके का हर व्यक्ति मेरे भाई के पास आता। उन दिनों में भाई एक चिट्ठी की तीन-चार प्रतियाँ एक या डेढ़ रुपये में कर दिया करता था। भाई की संगत के कारण अंग्रेजी में टाइप करने और अर्जी परचे का मज़मून बनाने का अभ्यास मुझे भी हो गया था। काम करवाने वाला अपनी बात पंजाबी में समझा दिया करता और हम उसकी चिट्ठी या अर्जी अंग्रेजी में टाइप कर देते। यह बात बी.एड करते समय पता चली कि दसवीं तक जो अंग्रेजी मुझे भाई ने पढ़ाई थी, उसकी इस विधि को ट्रांसलेशन मैथड कहते हैं। किसी भाषा को सिखाने के लिए दूसरी विधि डायरेक्ट मैथड की है। इस बात का पता मुझे बी.एड करते समय लगा था। मेरा उस समय भी यह मत था और अब भी यह मत है कि मातृभाषा बगैर किसी विशेष उद्यम के सीखी जा सकती है या यूँ कह लो कि बिना किसी विशेष उद्यम के आ जाती है। मातृभाषा सीखने पर ही डायरेक्ट मैथड का नियम लागू होता है। अंग्रेजी जैसी विदेशी या किसी अन्य क्षेत्र की भाषा सीखने के लिए ट्रांसलेशन मैथड से बढ़िया कोई और तरीका नहीं है। इसलिए अंग्रेजी से पंजाबी और पंजाबी से अंग्रेजी पाँचवी कक्षा से दसवीं कक्षा तक इसी तरीके से ही सीखी थी और अंग्रेजी सिखाने वाला उस्ताद था मेरा अपना भाई हरबंस लाल गोयल। उसने दसवीं के बाद बी.ए. फ़ारसी लिपि में, ज्ञानी करने के उपरांत घर में रह कर ही रोजी-रोटी कमाते हुए पास की थी, पर कमाल यह था कि वह पंजाबी, हिंदी और उर्दू में भाषण करते व्यक्ति के सारे मज़मून का अंग्रेजी में अनुवाद साथ के साथ कर सकता था और उसमें शब्द या वाक्य तो क्या, विराम चिह्न तक की गलती नहीं होती थी। एफ.ए. में भाई द्वारा सिखाई गई अंग्रेजी बड़ी काम आई। लेकिन बहन सीता के निधन के कारण पढ़ाई तो क्या, ज़िन्दगी जीने का भरोसा भी जैसे डोल गया हो। बात बात पर उसे याद करके रो पड़ता। ऊँची आवाज़ में आर्तनाद करने लगता। रोल नंबर आ जाने पर भी किताबों को हाथ लगाने को मन नहीं करता। पूरे परिवार के बहुत ज़ोर देने पर ही मैं परीक्षा देने के लिए मालेरकोटले गया था। मालेरकोटला में बहन कांता की ससुराल थी इसीलिए मैंने फार्म भरते समय यह सेंटर भरा था। पता नहीं क्यों यह बात मैं बहन कांता को भी नहीं बता सका था कि रात में बल्ब की रोशनी में मुझे किताब के अक्षर दिखाई नहीं देते।
प्रात: जल्दी उठकर तैयार हो गया था। डेढ़-दो घंटे किताब अवश्य देखी होगी। पेपर देने गया, पर डेढ़ सवाल ही कर सका। आंखों में से आंसुओं की धारा बहने लगी थी। सेंटर स्टाफ ने भी बड़ी हमदर्दी जताई, पर मैं हाफ-टाइम में ही पेपर पकड़ा कर लौट आया। शायद एक दिन छोड़ कर दूसरा पेपर था। पहले तो बहन से दूसरा पेपर छोड़ कर जाने के लिए कहा, पर बहन के यह कहने पर कि वीर(भाई) गुस्से होगा, मैंने दूसरा पेपर देने का भी निश्चय कर लिया।
दूसरे पेपर में गाईड में जितने भी लेख और पत्र थे, वे सब मैंने पढ़ लिए थे। पंजाबी से अंग्रेजी ट्रांसलेशन और ग्रामर की तैयारी की मुझे कोई ज़रूरत नहीं थी। रात में न पढ़ सकने की समस्या के संबंध में मैंने बहन से यह कह दिया था कि रात में पढ़ने से मेरी आंखें दर्द करने लग पड़ती हैं। बहन को भी सच मैंने इसलिए नहीं बताया था कि कहीं वह यह बात अपने ससुराल में न बता दे।
'बी' पेपर बहुत बढ़िया हो गया था। परीक्षाफल ने भी यह साबित कर दिया था। 53 नंबर लेकर मैंने एफ.ए. की परीक्षा पास कर ली थी। कुल 150 नंबर के 75-75 नंबर के दो पेपरों में से 'ए' पेपर में तो मुश्किल से पाँच-सात नंबर ही आए होंगे। मेरे पास होने का करिश्मा मेरे इस 'बी' पेपर के कारण ही हुआ था। लेकिन परीक्षा पास करने से मेरी कोई तसल्ली नहीं हुई थी। इस पास हो जाने से तो फेल हो जाना मैं बेहतर समझता था।
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शोक की रस्में खत्म हो जाने के बाद मैंने माँ को अपनी आँखों की समस्या बताई। माँ का भी यह ख़याल था, भाई का भी और मेरा स्वयं का भी कि बहन की मौत के बाद ज्यादा रोने के कारण मेरी आँखों पर असर पड़ा है। भाई ने मुझे आँखें टैस्ट करवाने के लिए बठिंडा भेज दिया। वहाँ कांता बहन जी की जेठानी कौशल्या का भाई डा. राम सरूप बांसल आँखों और दांतों की डाक्टरी का काम करता था। पहले मैं डा. बांसल को कभी नहीं मिला था। रिश्तेदारी का हवाला दिया और उसने रिश्तेदारों की भांति ही मेरी आँखें टैस्ट कीं। आई चार्ट की नीचे की चार सतरें न तो दायीं आँख से पढ़ सका था और न ही बायीं आँख से। दोनों आँखों के शीशों का नंबर तीन या तीन से ऊपर था। नज़दीक की नज़र बिलकुल ठीक थी।
डॉक्टर ने हिदायत दी कि ऐनक बिलकुल नहीं उतारनी है। एक महीना सुबह-शाम गोलियाँ खाने की हिदायत दी। ये विटामिन-ए की गालियाँ थीं। नज़र टैस्ट करने के बाद डॉक्टर साहब के छोटे भाई भूदेव ने शीशों को मशीन में घिस कर ऐनक के फ्रेम में फिट कर दिया। फ्रेम में फिट करने से पहले भूदेव ने मुझे कई फ्रेम दिखलाए थे। परन्तु, फ्रेमों के रंगों और डिजाइन में मेरी कोई रुचि नहीं थी। मैंने अनिच्छा से भूदेव से कहा-
''वीर जी, जो आपको अच्छा लगता है, उसी में शीशे डाल दो।''
जब ऐनक लगा कर दुकान से बाहर निकला और दूर तक देखा, बहुत साफ दिखाई दे रहा था। गाड़ी में ऐनक उतार कर कभी अन्दर देखता, कभी बाहर। ऐनक लगाने में शर्म तो बहुत आती थी, पर जब बाहर झांकता तो दूर तक खड़े दरख्तों के पत्ते, खेतों में खड़ी गेहूं की फसलें बहुत साफ-साफ दिखाई देतीं। मन को तसल्ली हुई कि समय से ऐनक लग गई। सब कहते थे कि अगर नज़र वाली ऐनक सोने के समय को छोड़ कर हमेशा लगाई रखो तो निगाह एक जगह पर टिक जाती है, आगे कम नहीं होती। मेरे लिए इतनी बात भी तसल्ली देने वाली थी।
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अप्रैल में एफ.ए. अंग्रेजी पास करने के कारण पंजाब यूनिवर्सिटी के नियम के अनुसार सितम्बर में बी.ए. अंग्रेजी की परीक्षा नहीं दे सकता था। वैसे भी आर्य स्कूल में पढ़ाने और ट्यूशनें करने के कारण और खास तौर पर निगाह की चिंता के कारण मुझे बी.ए. की परीक्षा पास करने की कोई जल्दी नहीं थी।
(जारी…)
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