एक नेत्रहीन लेखक की आत्मकथा
धृतराष्ट्र
डॉ. एस. तरसेम
हिन्दी अनुवाद : सुभाष नीरव
चैप्टर-6(प्रथम भाग)
जोवड़ कि जुआर
तपा मंडी के आर्य स्कूल से मेरा रिश्ता माँ वाला भी है और सौतेली माँ वाला भी। इस बारे में बहुत कुछ मैं पहले लिख चुका हूँ। यहाँ सिर्फ़ आर्य स्कूल के उस जुल्म की ही बात कर रहा हूँ जिसने मुझे घर छोड़ने के लिए विवश किया था।
कोई संस्था अच्छी या बुरी नहीं होती, बुरे उसके प्रबंधक या कार्य करने वाले होते हैं। आर्य स्कूल के प्रबंधकों का मेरे से कोई झगड़ा नहीं था। वे सब तपा मंडी के वासी थे। हमारा उन सबसे घरवाला वास्ता था। मेरे भाई को उन्होंने ने ही तो बी.एड. करने के लिए कहा था। उन्होंने ही भाई के बी.एड. करते ही उसे आर्य हाई स्कूल का मुख्य अध्यापक बना दिया था। पहले वाला मुख्य अध्यापक यशपाल भाटिया यह भांप गया था कि हरबंस लाल गोयल की बी.एड. पूरी होने के बाद उसका तपा मंडी के आर्य स्कूल में टिक सकना संभव नहीं है। उसकी पंजाब आर्य समाज में अच्छी चलती थी। विशेष तौर पर आर्य विद्या परिषद् में उसका और उसके छोटे भाई राजेन्द्र जिज्ञासु का अच्छा प्रभाव था। जिज्ञासु कट्टर आर्य समाजी था। भाटिया कट्टर आर्य समाजी था या नहीं, पर वह इतवार को प्रात: स्कूल में हवन के लिए सभी अध्यापकों को बुलाया करता था। इतवार को छुट्टी लेना बड़ा कठिन होता था। उसके अपने इलाके से लाए गए दो अध्यापक उसके गुप्तचर थे। हर अध्यापक की सच्ची-झूठी रिपोर्ट भाटिया को देना मानो उनका धर्म हो। वे इस सी.आई.डी. की कमाई खाते थे। भाटिया स्वयं भी कदकाठी में जितना लम्बा था, उससे अधिक वह गप्पी था। उसके गप्प कितने बड़े होंगे, इसे समझने के लिए एक चुटकला देखें :-
एक बार गप्प मारने वाले इकट्ठा हुए। पहला कहने लगा, ''पुराने ज़माने में हमारे बुजुर्गों के पास इतना बड़ा कोठा हुआ करता था जिसमें सारा आसमान बादलों सहित आ जाता था।'' दूसरा गप्पी कहने लगा, ''हमारे बुजुर्गों के पास इतना लम्बा बांस होता था कि वे जब भी आसमान की ओर उसे मारते तो बारिश होने लगती थी।'' ''तुम्हारा बूढ़ा इतना बड़ा बांस रखता कहाँ था ?'' पहलेवाले गप्पी ने पूछा। ''तुम्हारे बूढ़े के उस कोठे में जिसमें आसमान बादलों सहित आ जाता था।'' दूसरे गप्पी का उत्तर था।
उपर्युक्त लतीफ़े जैसी गप्पों से कुछ छोटी गप्पें यशपाल भाटिया अक्सर मारा करता था। नये अध्यापकों पर एक तो उनके नये होने के कारण और दूसरे उसकी गप्पों के कारण अच्छा-खासा रौब पड़ जाता था। लेकिन, हम दोनों भाई उसकी तबीअत से परिचित थे। पहले मेरे भाई को और बाद में मुझे उसने ही स्कूल में अध्यापक नियुक्त किया था, पर जैसा कि मैंने पहले भी बताया है कि उसने मुझे स्कूल में से सबसे पहले यह बहाना बना कर निकाला कि आर्य विद्या परिषद् का नियम है कि एक स्कूल में दो भाई या पिता-पुत्र एक साथ काम नहीं कर सकते। भाई के मई, 1961 में बी.एड. करने के बाद वह पुन: स्कूल में लौट आया था। यशपाल भाटिया पहले ही अपना प्रबंध कर चुका था। उसने आर्य विद्या परिषद् से गांधी आर्य हाई स्कूल, बरनाला के मुख्य अध्यापक का नियुक्ति पत्र प्राप्त कर लिया था। तपा मंडी की प्रबंधक कमेटी के ज़ोर देने पर परिषद् को यशपाल भाटिया की भीतरी विरोधता के बावजूद मेरे भाई को तपा मंडी के आर्य स्कूल का मुख्य अध्यापक बनाना ही पड़ा। भाटिया साहिब ने जो दूसरा तीर छोड़ा, वह वही तीर था जिसे वह पहले भी दो बार छोड़ चुके थे- एक आर्य स्कूल में दो भाई एक साथ नहीं रह सकते। मुझे आर्य स्कूल, तपा को छोड़ना पड़ा। अब मैं रोज़ाना अख़बार में नौकरियों के विज्ञापन पढ़ा करता था। जहाँ ठीक लगता, अप्लाई कर देता।
अंग्रेजी टाइपराइटर हमारे घर का था। प्राइवेट स्कूल में अर्जी मैं पोस्टकार्ड पर ही टाइप करके भेज देता। 'ट्रिब्यून' में जनता हाई स्कूल जो उस समय तहसील- ऊना, ज़िला-होशियार पुर में था(अब हिमाचल प्रदेश में) की नौकरी का इश्तहार छपा। मैंने अपनी शैक्षणिक योग्यता के साथ एक अच्छे वक्ता और लेखक होने के सम्बन्ध में भी संक्षिप्त जानकारी देते हुए वहाँ आवेदन कर दिया। कम से कम वेतन लेने के बारे में भी अन्त में लिख दिया।
एक सप्ताह के अन्दर स्कूल वालों का नियुक्ति पत्र आ गया। उन्होंने मेरी वेतनवाली बात भी मान ली। मैंने सौ रुपया मासिक वेतन मांगा था। उन दिनों में सरकारी स्कूल के पंजाबी टीचर को एक सौ बारह रुपये मासिक मिलते थे। इसलिए सौ रुपया भी कोई कम नहीं था।
उनके पत्र में बताये गए रूट के अनुसार मैं होशियारपुर के भरवाईं बस-अड्डे पर पहुँच गया। इस अड्डे से कुल्लू, कांगड़ा, चिंतपुरनी, ज्वालामुखी आदि पहाड़ी इलाकों के लिए बसें चलती थीं। यह बात मुझे होशियारपुर के बस-अड्डे पर पहुँचकर ही पता चली। पत्र में उस जनता हाई स्कूल के मुख्य अध्यापक ने यह भी लिखा था कि बस शाम को चार बजे मिलेगी और यह भी कि केवल एक ही बस इस रूट पर चलती है। फिर भी, मैं भरवाईं बस-अड्डे पर दोपहर एक बजे तक पहुँच गया था। यह सन् 1961 के एक नवम्बर की बात है। मैं जाते समय अपने सर्दियों वाले कपड़े डाल कर ले गया था और साथ में एक काले-सफ़ेद डिब्बों वाला ग्यारह रुपये में खरीदा हुआ कम्बल। सोचा था कि स्कूल में उपस्थित होकर पाँच-सात दिन बाद बाकी का सामान ले जाऊँगा, क्योंकि हफ्ता भर बाद दीवाली की छुट्टी आनी थी। लेकिन भरवाईं अड्डे पर पहुँच कर मेरी आधी खुशी किरकिरी हो गई और जोश किसी हद तक ठंडा पड़ गया। अड्डे पर दो-तीन दुकानदारों से पूछा कि जोवड़ को बस कौन सी जाएगी। उन सभी का यही उत्तर था कि जोवड़ नाम का तो यहाँ कोई गांव ही नहीं। बसों के एक-दो कंडक्टरों-ड्राइवरों से भी पूछा। उनका भी यही उत्तर था। मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा था कि मैं अब क्या करूँ। समय तीन से ऊपर हो गया था। मैं बहुत निराश था। सोचा, वापस लौट जाऊँ। फिर दिमाग ने काम किया कि जो नियुक्ति पत्र मुझे मिला है, वह तो किसी को दिखाऊँ। मैं इंक्वारी वाली खिड़की पर गया और नियुक्ति पत्र सामने करके कंडक्टर से कहा, ''भाई साहब, यह चिट्ठी मेरे पास आई है, मुझे जोवड़ जाना है।'' उसने स्कूल का लैटर पैड पढ़ा और कहने लगा, ''कुथू जाणै ?'' ''जोवड़'' मैं कहा। ''बाऊ जी, इही तो जुआर है। उस बस में जाओ, वो जुआर जाएगी।'' मेरा सांस में सांस आया। इसे अंग्रेजी के शब्द-जोड़ और उच्चारण की गलती समझो कि मैं दो दिन पहले घर में और ढाई घंटे भरवाईं बस-अड्डे पर बुद्धू बना घूमता रहा। स्कूल के लैटर पैड पर अंग्रेजी में जनता हाई स्कूल, Jowar छपा था और मैं ही नहीं, अंग्रेजी में माहिर मेरे भाई ने भी इसे जोवड़ ही समझा था। उन दिनों में सब चिट्ठी-पत्र अंग्रेजी में ही हुआ करता था। अंग्रेजी में ही चिट्ठी-पत्र करने और बोलने वाले को ही असली पढ़ा-लिखा समझा जाता था। लेकिन खास नाम पढ़ने में जो गलतफ़हमी हो सकती थी, उनमें से एक गलतफ़हमी इस 'जोवड' और 'जुआर' को लेकर भी थी।
तीस-बत्तीस सीटों वाली छोटी बस की लाल बाडी और छोटे नीले मुँह ने मुझे अधिक हैरान नहीं किया था। उन दिनों में बहुत छोटे रूटों पर बिलकुल ऐसी ही बसें चला करती थीं। हम इस तरह की बस को लॉरी कहा करते थे। तपा मंडी से हमारे पुश्तैनी गांव शहिणे को भी इस तरह की ही एक लॉरी चला करती थी।
टिकट लेकर मैं लॉरी में बैठ गया। अभी बस में पाँच-सात मुसाफ़िर ही थे। वे मुझे पराये-पराये से प्रतीत हो रहे थे। उनके पहरावे और बातचीत से मैं जान गया था कि ये सब पहाड़ी इलाके के ही हैं।
''क्यों जी, यहाँ से जुआर कितनी दूर है ?''
''पहले गगरेट, फिर चौकी मुबारक पुर, फिर अम्ब, नहिरी और फिर जुआर... बस, दो ढाई घंटे।'' मेरे साथ बैठी सवारी ने मानो सफ़र को मीलों या किलोमीटर के स्थान पर घंटों में नाप कर बताया हो। वैसे भी, उसका पूरा वाक्य मेरी समझ में नहीं आया था। लॉरी चार बजे नहीं चली। साढ़े चार बजे भी कंडक्टर और ड्राइवर आसपास नहीं दिख रहे थे। लॉरी में बैठा मैं जैसे ऊब गया था। पाँच बजे तक लॉरी पूरी तरह भर चुकी थी। बस में बैठीं कुछ सवारियों की बीड़ियों और सिगरेटों के धुएं से मैं उकता गया था। यह इसलिए नहीं कि मैं तम्बाकू से नफ़रत करता था। बीड़ियाँ तो मैंने बचपन में चोरी छिपे बीसियों बार पी होंगी। मेरा अपना भाई भी बीड़ी पिया करता था। पर यहाँ तो आधी से अधिक सवारियाँ तम्बाकू पी रही थीं। इसलिए इतना धुआं मेरे से बर्दाश्त नहीं हो पा रहा था। वैसे भी मेरे दिमाग में ढाई घंटे के सफ़र की सूचना बेचैनी पैदा कर रही थी। 'अगर अब भी बस चल पड़े तो साढ़े सात बजे तक जुआर पहुँच पाऊँगा। तब तक तो अंधेरा हो जाएगा।' अंधेरे का भय मुझे निरंतर खाये जा रहा था। एक बार फिर मन हुआ कि वापस लौट जाऊँ। लेकिन माँ और भाई की ओर से पड़नें वाली डांट-फिटकार से डर कर मैं मन मार कर लॉरी में बैठा रहा।
सवा पाँच बजे कंडक्टर ने सीटी मारी। ड्राइवर आया, कितनी ही देर बस घुर्र...घुर्र... करती रही। सात-आठ किलोमीटर के बाद सड़क के दोनों ओर पहाड़ों के दर्शन हुए। बस चलने के कारण बीड़ियों का धुआं भी कम महसूस होने लगा था। थोड़ी थोड़ी दूरी पर मोड़-घुमाव आ रहे थे। मैं दायीं तरफ वाली ड्राइवर की पिछली सीट के पीछे वाली सीट पर खिड़की की तरफ बैठा था। मेरे से आगे वाली सीट पर खिड़की के साथ एक औरत बैठी थी। बोलचाल से पहाड़िन लगती थी। पर चार पाँच मोड़-घुमावों के बाद ही उसे उल्टी आनी शुरू हो गई। मैंने अपनी वाली खिड़की का शीशा बन्द कर लिया। सूरज के पश्चिम की ओर हो जाने के कारण ठंड भी कुछ बढ़ गई थी। औरत की उल्टी और ठंड से बचने के लिए शीशा बन्द करना मुझे ठीक लगा। कुछ और सवारियों ने शीशे बन्द कर लिए थे।
गगरेट पहुँचने पर दिन लगभग छिप गया था। जितना मैं देख सकता था, उसके अनुसार बस-अड्डा मुझे अच्छा लग रहा था। दो तीन चाय-पानी की दुकानों और कुछ फलों, सब्जियों के अड्डे इस साफ़-सुथरे पहाड़ी क्षेत्र यात्रियों को आकर्षित करते होंगे, मेरा यह अनुमान इसके बाद की मेरी अनेक फेरियों के बाद दृढ़ हो गया था।
सब कुछ अच्छा लगने के बावजूद डर और सहम मेरा पीछा नहीं छोड़ रहे थे। अगर बस साढ़े सात बजे पहुँची तो मैं क्या करूँगा। ठिकाने पर कैसे पहुँचूगा। इसी सोच-विचार ने तो मुझे चाय तक नहीं पीने दी थी।
दसेक मिनट पश्चात् बस फिर चल पड़ी। दोनों तरफ़ कभी छोटे-छोटे पहाड़ और कभी गहरी खाइयाँ थीं, पर साफ कुछ भी नहीं दिखाई दे रहा था। बस पानी में से निकल रही थी। यात्रियों की बातों से मालूम हुआ कि इस इलाके में पानी के इस बहाव को चौ कहते हैं। इस चौ को पार करते समय मुझे कोई डर नहीं लगा क्योंकि इससे बड़ा डर तो पहले ही मेरे दिल को दबाये बैठा था। बस अगले बस-अड्डे पर भी कुछ देर के लिए रूकी। यहाँ भी एक चाय की दुकान थी। बायें हाथ की ओर इशारा करते हुए एक यात्री भरवाईं के बारे में बताते हुए समझा रहा था कि भरवाई से आगे एक सड़क चिंतपुरनी को जाती है और दूसरी कांगड़े को। चिंतपुरनी और कांगड़ा मेरे लिए धार्मिक स्थल थे। इन दोनों देवी के मंदिरों के विषय में माँ से बहुत कुछ सुन रखा था। कांगड़ा के भूचाल और इसके ऐतिहासिक महत्व के बारे में मैंने बी.ए. में काफी कुछ पढ़ रखा था। इस सारी जानकारी से मुझे एक लाभ यह हो रहा था कि दो-एक घंटों के बाद मेरे संग घटित होने वाले घटनाक्रम के भय से मैं कुछ पल के लिए मुक्त हो रहा था।
अम्ब पहुँच कर दिन बिलकुल ही छिप गया। मेरे लिए बस के अन्दर तो कुछ उजाला था, पर बाहर अंधेरा ही अंधेरा। अम्ब पहुँचने पर सड़क के दोनों ओर की दुकानों में जलती लालटेनों, लैम्पों और दीयों की रोशनी से मन कुछ टिक सा गया। यहाँ सवारियों को उतार कर बस चल दी। ड्राइवर ने कंडक्टर को अपने पास बुलाया। नहिरी का अड्डा सिर्फ़ तीन-चार किलोमीटर रह गया था। घड़ी मेरे पास थी नहीं। टाइम पूछा। साढ़े सात बज चुके थे।
कहीं कहीं दूर ऊँची जगहों पर रोशनी नज़र आती। सड़क के दोनों तरफ जब बस की रोशनी पड़ती तो कुछ ऊँचे पहाड़ों और कुछ खाइयों का अहसास होता। खाइयों की तरफ कहीं-कहीं सीमेंट के बेंच से बने हुए थे। एक सवारी से पूछने पर पता चला कि इनको डंगे कहते हैं। मेरे अगले प्रश्न पर उसने यह भी बताया कि ये बस को खड्ड में गिरने से बचाते हैं।
नहिरी का अड्डा बड़ा रौनक वाला था। सड़क के दोनों तरफ दुकानें ही दुकानें, पर मेरे सिर पर उस समय मानो सौ घड़े पानी उलट गया जब ड्राइवर ने कहा कि बस आगे नहीं जाएगी। मेरा डर और भी दोगुना-चौगुना हो गया। मैंने कंडक्टर से कहा कि मैं परदेसी हूँ। मैं इस इलाके से परिचित नहीं हूँ। अब मैं कहाँ जाऊँ ? कहाँ ठहरूँ ? उसने मुझे हौसला दिया और समझाया कि इनमें से कई दुकानों वाले रात को ठहरने के लिए चारपाई-बिस्तर दे देते हैं। रोटी भी मिल जाएगी। पर मेरी समस्या रोटी या चारपाई-बिस्तर की नहीं थी। मेरी समस्या तो ठिकाने पर पहुँचने की थी। यह पहली बार था कि पिछले तीन सालों में मैं रात के समय किसी अजनबी जगह सड़क पर आया होऊँ। अंधेरे में न दिखने का अहसास इतनी शिद्दत से मुझे पहली बार महसूस हुआ था।
एक सवारी जो नहिरी की ही थी, मैंने उसकी बांह पकड़ कर याचना भरे स्वर में कहा कि वह मुझे किसी ऐसी दुकान पर छोड़ आए, जहाँ मैं रात बिता सकूँ। उसकी बांह पकड़ते समय मैंने उसे यह नहीं बताया था कि रात के अंधेरे में मुझे बहुत कम दिखता है। इस तरह का अहसास मुझे पहले कभी इतना अधिक हुआ ही नहीं था। परदेसी समझ कर उसने मुझे ढाढ़स बंधाया। मैंने बायीं बगल में कम्बल दबा कर और बायें हाथ में अटैची उठा कर दायां हाथ उसके कंधे पर रख लिया। दुकानों की दीया-बत्ती के कारण चलने में अधिक कठिनाई नहीं हुई थी। उसने एक दुकान के सामने ले जाकर मुझे खड़ा कर दिया और दुकानदार को मेरी समस्या समझा दी।
दुकानदार ने मुझे एक चारपाई पर बैठने का इशारा किया। बांस की बाही वाली चौकड़े के बाण से बुनी यह चारपाई कुछ ढीली भी थी और छोटी भी। बेदिली से मैं चारपाई पर बैठ गया। दुकानदार ने मुझे खाने-पीने के बारे में पूछा। रोटी का प्रबंध वहाँ कहीं नज़र नहीं आ रहा था। पर उन्होंने कहा कि इस वक्त मिर्चें या आम के अचार के साथ रोटी मिल सकती है। साथ में देशी घी मिल जाएगा। मैंने चार रोटियों और छटांक घी के लिए कह दिया। भूखा होने के बावजूद मानो मेरी भूख उड़ गई थी। आगे जुआर जाने का इरादा त्याग दिया था। लेकिन दुकानदार के समझाने पर सवेरे मैंने जुआर न जाने का अपना इरादा बदल लिया। मन ने भी कहा कि जब इतनी दूर आ ही गया है तो आगे चार-पाँच मील और जाने में हर्ज़ ही क्या है। रोटी आ गई थी। चार बड़ी-बड़ी रोटियाँ और साथ में बड़ी-बड़ी दो लाल मिर्चें मसाले से भरी हुईं। मैं बड़ी मुश्किल से दो रोटियाँ ही खा सका। ये दो रोटियाँ भी इसलिए खा सका कि मिर्चों के अचार के साथ देशी घी भी था। हमारे घर में तो इस एक रोटी की दो से अधिक रोटियाँ बन सकती थीं। शायद इसीलिए मैंने चार रोटियों के लिए कहा था। दो रोटियाँ मैंने लौटा दीं पर दुकानदार ने कहा कि पैसे चार रोटियों के ही लगेंगे। मेरे लिए यह कोई खास बात नहीं थी। एक तो भूख मर जाने के कारण और दूसरा इस डर से कि पेट भर कर खाने पर कहीं रात में जंगल-पानी न जाना पड़ जाए, मैंने शेष दो रोटियाँ छोड़ दी थीं। यही कारण था कि उनके द्वारा चाय या दूध पूछे जाने पर मैंने कुछ भी पीने से इन्कार कर दिया। एक तो अनजान इलाका, दूसरा टेढ़े-मेढ़े, ऊँचे-नीचे रास्ते और तीसरा - रात का समय। इन सबने मुझे और कुछ भी खाने से रोक दिया। खाने को तो दुकान पर पेड़े भी थे और नमक वाली पकौड़ियाँ भी। और भी बहुत कुछ खाने योग्य दुकान में था लेकिन मैं मन ही मन अपने आप को कोस रहा था - क्या ज़रूरत थी इधर आने की ? यहाँ के सौ से तो अपने इलाके में मिलने वाले साठ या सत्तर ही भले थे। पर लॉरी इस तरह धोखा दे जाएगी, घर से चलते समय इस बात का पता नहीं था।
घर से चलते समय चाव में भर कर पहनी लाल जर्सी और नीली पैंट मैंने उतार कर सिरहाने रख ली। पैंट में से साठ रुपये निकालकर मैंने कमीज की जेब में रख लिए। बस, यही पूंजी मेरे पास थी, इसमें से ही मुझे इस दुकानदार को रात काटने का किराया, खाने-पीने का खर्चा देना था और वापसी का सफ़र तय करना था। इस हिसाब-किताब से यह रकम किसी भी तरह से कम नहीं थी।
अटैची में से लुंगी निकाल कर मैंने चारपाई पर बिछा ली और कम्बल ऊपर लेकर लेट गया। दुकानदार भी वहीं था। अभी भी सौदे वाले ग्राहक आ-जा रहे थे। दुकानदार मेरे संग बातें भी किए जा रहा था और आने-जाने वाले ग्राहकों को भी निबटा रहा था। उसकी बात समझने में मुझे कोई अधिक कठिनाई नहीं हो रही थी। ज्ञानी पढ़ते-पढ़ाते समय भाषा विज्ञान के पेपर में पंजाबी की उप-भाषाओं के सर्वनामों और क्रियाओं की मुझे अच्छी जानकारी हो गई थी। हालांकि मैं बोल पूरी तरह नहीं सकता था, पर पहाड़ी समझने में कोई खास मुश्किल नहीं आ रही थी। दुकान के अन्दर जलते लैम्प और बाहर टंगी लालटेन के कारण मुझे देखने में भी कोई खास दिक्कत पेश नहीं आ रही थी। मैंने अपने अटैची में से टार्च भी निकाल कर सिरहाने रख ली थी। टार्च मैं इसलिए लेकर आया था क्योंकि मुख्य अध्यापक ने चिट्ठी में बस के जुआर पहुँचने में ढाई घंटे के सफ़र की बात लिखी थी। मुझे अपनी कमजोरी का पता था। इसलिए मैं रात-बेरात उठते समय टार्च को अपना आसरा समझ कर संग ले आया था।
दुकानदार बड़ा मीठा-मीठा बोल रहा था। उसने मुझे इस बात के लिए पक्का कर दिया था कि मैं स्कूल ज़रूर देख कर आऊँ। मुझे भी उसकी बात जच गई थी। दुकानदार के बताये अनुसार सड़क सीधी स्कूल तक जाती थी और वहाँ से आगे की सड़क भी पक्की थी। सुबह के समय इस दुकान के सामने से बहुत से लड़कों ने स्कूल के लिए गुजरना है, यह बात भी मुझे दुकानदार ने ही बताई थी। दुकानदार ने यह कह कर भी मुझे दिलासा दिया था कि मेरा अटैची और कम्बल लड़के उठा लेंगे। वे बड़े अदब से मुझे स्कूल ले जाएंगे। लड़के बहुत सीधे-सरल हैं। मास्टरों की बड़ी इज्ज़त करते हैं। स्कूल जा कर अगर तुम्हारा मन माने तो तुम ज़रूर यहाँ नौकरी करके देखना। दिलासे के उसके ये शब्द कम से कम रात काटने में मेरे बहुत सहायक होते, अगर चारपाई के खटमल सारी रात मुझे बेआराम न करते। घड़ी पल के लिए आँख लग गई हो तो मैं कह नहीं सकता, पर सारी रात जाग कर काटने के बावजूद मैं मुँह-अंधेरे ही उठ कर बैठ गया। दुकानदार पहले ही उठ चुका था। वह मुझे जंगल-पानी जाने के लिए कह रहा था, पर मैं दिन चढ़ने की प्रतीक्षा कर रहा था।
(जारी…)
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