समकालीन पंजाबी साहित्य की उत्कृष्ट कृतियों की तलाश

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Monday, December 10, 2012

पंजाबी उपन्यास



''साउथाल'' इंग्लैंड में अवस्थित पंजाबी कथाकार हरजीत अटवाल का यह चौथा उपन्यास है। इससे पूर्व उनके तीन उपन्यास - 'वन वे', 'रेत', और 'सवारी' चर्चित हो चुके हैं। ''साउथाल'' इंग्लैंड में एक शहर का नाम है जहाँ अधिकतर भारत से गए सिक्ख और पंजाबी परिवार बसते हैं। यहाँ अवस्थित पंजाबी परिवारों के जीवन को बेहद बारीकी से रेखांकित करता हरजीत अटवाल का यह उपन्यास इसलिए दिलचस्प और महत्वपूर्ण है क्योंकि इसके माध्यम से हम उन भारतीय लोगों की पीड़ा से रू-ब-रू होते हैं जो काम-धंधे और अधिक धन कमाने की मंशा से अपना वतन छोड़ कर विदेशों में जा बसते हैं और वर्षों वहाँ रहने के बावजूद वहाँ की सभ्यता और संस्कृति का हिस्सा नहीं बन पाते हैं।

साउथाल
हरजीत अटवाल

हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव


। उनतालीस ॥

ज्ञान कौर इंडिया चली जाती है। राजविंदर को वह साथ चलने के लिए ज़ोर डालती है, पर वह नहीं जाता। इंडिया जाने का उसका मकसद सबसे मिलना-जुलना ही है और वह अपने गाँव वाले घर की सफाई भी करवाना चाहती है। उसका जाने का कार्यक्रम तो राजविंदर को ब्याहने की बात पर बनना प्रारंभ हुआ है, पर वह नहीं मानता। ज्ञान कौर मानसिक तौर पर इंडिया के लिए तैयार हो चुकी होने के कारण चली जाती है, नहीं तो उसको पीछे लड़कियों की भी चिंता रहती है। प्रदुमण अब राजविंदर के विवाह की चिंता भी कम करने लगा है। बल्कि अब उसकी चिंता है कि लड़का समलिंगी न निकल जाए। कभी उसको यह डर भी सताता है कि वह ड्रग ही न लेने लग जाए, परंतु अभी तक उसको ऐसी कोई बात नहीं दिखाई दी जिससे लगता हो कि राजविंदर ड्रग लेने लगा है। उसने कभी अधिक पैसों की मांग भी नहीं की। उसके पास से वो गंध भी नहीं आती हो ड्रग के आदी लोगों से आया करती है। ज्ञान कौर उसके कपड़े धोते समय उसकी जेबों की तलाशी भी लेती रहती है। प्रदुमण सिंह अब उसको अधिक डांटता-फटकारता नहीं। कई बार शाम को बैठकर उसके संग छोटी-छोटी बातें करने लगता है। एक दिन राजविंदर कहता है-
      ''डैड, मुझे कार ले दो।''
      ''घर में इतनी वैनें खड़ी हैं, जो मर्जी चला। बल्कि किसी न किसी ड्राइवर के साथ राउंड पर चला जाया कर।''
      ''ये काम बहुत प्रैशर का है, मैं कोई दूसरा काम करना चाहता हूँ।''
      ''घर बैठे तो काम मिलेगा नहीं।''
      ''दैट्स वॉय, आय नीड कार। वर्क फाइंड करने के लिए दूर जाना पड़ता है।''
      एक पल के लिए तो प्रदुमण सिंह को भ्रम-सा होता है कि शायद राजविंदर ठीक रास्ते पर आ चला है। वह कहता है-
      ''तू विवाह करवा लेता तो तुझे कार भी ले देते।''
      ''डैड, मुझे विवाह नहीं करवाना अभी।''
      ''चल ऐसा कर। कार मैं तुझे कोई छोटी-मोटी ले दूँगा, पर कोई गर्ल-फ्रेंड तलाश पहले।''
      ''गर्ल-फ्रेंड तो मैं कल ही ले आऊँ।''
      ''वो तो तू कोई ड्रगी-सी लड़की पकड़ लाएगा, प्रोपर गर्ल-फ्रेंड हो जो तेरे साथ दो महीने रहे, फिर लेकर दूँगा।''
      न राजविंदर कोई लड़की खोज सका है और न उसको कार मिलती है। इंडिया जाने के लिए भी ज्ञान कौर उसको कई लालच देती है कि वहाँ जाकर कोई लड़की पसंद कर ले, मंगनी करवा ले। वहाँ से आते ही उसको कार ले देंगे, पर राजविंदर इसके लिए तैयार नहीं है।
      प्रदुमण सिंह को पत्नी का इंडिया जाना पहले तो अच्छा लगता है कि अब वह अपनी मनमर्जी कर सकेगा। कुलबीरो पर भी ट्राई मारेगा। कुलबीरो करीब छह महीने से उनके पास काम कर रही है। उसकी ज्ञान कौर के साथ अच्छी बनती है। कुलबीरो चुपचाप अपने काम में लगी रहती है। कम बोलती है, पर काम बहुत करती है। दो औरतों जितना काम कर जाती है। उसके काम को देखते हुए ही ज्ञान कौर उसको फोरलेडी बना देती है ताकि उसके इंडिया जाने पर वह आगे बढ़कर काम को चलाएगी। अब भी कुलबीरो के सिर पर ही घर का चक्कर लगाती रहती है और कभी-कभी छुट्टी भी कर लेती है। प्रदुमण सिंह ने कई बार उसको टटोल कर देखा है, वह प्रत्युत्तर में हुंकारा नहीं भरती। अब पत्नी के न होने पर वह कुलबीरो की ओर एक कदम और उठा सकेगा।
      एक दिन शिंदर कौर कहती है-
      ''अंकल जी, घर वाले नहीं तो हमें किसी का डर नहीं, पर इन तिलों में तेल है नहीं।''
      उसका इशारा कुलबीरो की तरफ है। प्रदुमण सिंह फीकी-सी हँसी हँसते हुए कहता है-
      ''शिंदर कौर, तू तो अब सीधे मुँह बात भी नहीं करती।''
      ''मैं औरत हूँ, सौ बातों का ध्यान रखना पड़ता है। और फिर आप तो लगे हुए हो, रंग-बिरंगे भोजन का स्वाद लेने में, पर एक बात बताऊँ कि यह न समझना कि आंटी को कुछ पता नहीं। वह सब जानती है और पता नहीं किस बात के कारण चुप है।''
      एक बार तो प्रदुमण सिंह को झटका-सा लगता है, पर फिर सोचता है कि शिंदर कौर उसको डरा रही है। वह उसकी बात पर अधिक ध्यान नहीं देता और सोचने लगता है कि उसको ज़रा बचकर चलने की ज़रूरत है। ज्ञान कौर यूँ तो सीधी-सी है, पर हर बात पर नज़र रखती है।
      फरीदा के पति तारिक को उसने ड्राइवर रखा हुआ है। वह एक राउंड लगाता है। उसको मोबाइल फोन भी लेकर दिया हुआ है ताकि उसकी ख़बर रहे कि वह कहाँ तक पहुँचा है। उसके पीछे वह फरीदा के साथ उसके घर में जा घुसता है। अब ज्ञान कौर यहाँ नहीं होगी तो उसका यह खेल और आसान हो जाएगा।
      तारिक आयु में तो फरीदा से काफ़ी बड़ा है, पर इतना बूढ़ा नहीं है जितना फरीदा कहती रही है। सेहत ज़रा कमज़ोर है। फरीदा के काम का बेशक न हो, पर प्रदुमण का काम ठीकठाक और पूरी जिम्मेदारी से कर रहा है।
      ज्ञान कौर के इंडिया जाने को लेकर वह काफ़ी उत्साहित है, पर उसके जाने के दूसरे दिन ही वह उसको मिस करने लगता है। रात में वह अकेला ही बैड पर पड़ा ज्ञान कौर के बारे में सोचता रहता है। कपबोर्ड में टंगे उसके कपड़ों को ध्यान से देखने और सूंघने लगता है। शाम के वक्त बड़ी बेटी सतिंदर रोटी बना रही होती है तो उसको ज्ञान कौर का भ्रम होता है। बड़ी बेटी माँ पर गई है और छोटी पवनदीप उस जैसी है। इसी तरह बड़ा बेटे राजविंदर के नयन-नक्श ज्ञान कौर से मिलते हैं और छोटे बेटे बलराम के उससे।
      एक दिन वह कुलबीरो से कहता है-
      ''तू ज़रा दफ्तर में आना ऊपर।''
      ''क्यों अंकल जी ?''
      ''ज़रा हिसाब लगाएँ कल के माल का।''
      ''कल के माल का हिसाब तो मेरे पास है, बीस ट्रे लगेंगे टोटल, दस वैजी के, पाँच चिकन और पाँच लैंब के और फ्रोजन कर बनेंगे।''
      कुलबीरो ज़रा ऊँचे स्वर में कह रही है ताकि अन्य औरतें भी सुन लें। प्रदुमण सिंह झिझकता-सा पगड़ी पर हाथ फेरते हुए ऊपर दफ्तर में चला जाता है। वह सोचता है कि कुछ अधिक ही चालाक बन रही है ये। वह एक हद में रहते हुए ही आगे बढ़ना चाहता है। फैक्टरी में काम करती सभी औरतें ही उसके किरदार को जानती हैं, पर शिंदर कौर की तरह मुँह से कोई नहीं बोलती। सबको अपनी नौकरी प्यारी है। फिर प्रदुमण सिंह उनके लिए इतना खतरनाक भी नहीं है कि किसी को जबरन हाथ लगा ले। कोई झिड़क दे तो चुप हो जाता है। अब कुलबीरो के यूँ ऊँची आवाज़ में बोलने में उसको खतरे की झलक दिखाई देती है।
      कुछ देर बाद कुलबीरो दफ्तर में आ जाती है। प्रदुमण सिंह खुश हो जाता है। वह पूछता है-
      ''ऐ लड़की, घर में किसी से लड़ कर तो नहीं आई ?''
      ''नहीं अंकल जी, लड़ना किसके साथ है।''
      ''तू तो इतना खीझ कर बोलती है, क्या पता तेरा।''
      ''नहीं अंकल जी, खीझकर तो नहीं बोलती। मैंने तो बताया कि माल की तो पूरी तैयारी है। आपने मुझे कल ही बता दिया था कि क्या तैयार करना है।''
      प्रदुमण सिंह कुछ नहीं बोल रहा। उसकी ओर घूरते हुए देखे जा रहा है। कुलबीरो की छातियों पर नज़र दौड़ाता है। कुलबीरो को जैसे उसकी नज़रें चुभ रही हों। वह बाहों का क्रॉस बनाकर छातियों को छिपा लेती है और कहती है-
      ''बताओ अंकल जी, और क्या कहना चाहते हो।''
      ''यही कि लैंब का मीट मंहगा हो गया है, मसाले में मिक्स वैजीटेबल की मात्रा ज़रा बढ़ा दो।''
      ''देख लो, जैसी आपकी मर्जी, पर पहले ही लैंब कम और वैजी ज्यादा होती है, आपके ग्राहक न खराब हो जाएँ।''
      ''यह भी ठीक है।''
      ''मैं जाऊँ अंकल जी।''
      ''हाँ जा, पर एक बात बता, तू अकड़ में बहुत रहती है। मानते हैं कि तू सुन्दर है, समझदार है।''
      ''अंकल जी, ऐसी बातें न करो। मैं तो आपकी बहुत रिसपैक्ट करती हूँ, आप तो मेरे बड़े हो।''
      ''यह भी ठीक है, पर तू चुपचाप और उखड़ी-उखड़ी क्यों रहती है ?''
      ''अंकल जी, हर किसी का स्वभाव होता है और हर किसी की प्रॉब्लम होती हैं।''
      ''तेरी क्या प्रॉब्लम्स हैं, बता ज़रा।''
      ''क्या बताऊँ ! अंटी जी को सब पता है। मैं अपनी बहन और जीजा के साथ रहती हूँ।''
      ''वही जो लाल-सी आँखों वाला तुझे लेने आया करता है, तेरा जीजा है।''
      ''हाँ जी।''
      ''वो तो बदमाश-सा लगता है, देखता ही टेढ़ा है।''
      ''वो बदमाश ही है, जेल भी जा चुका है। टैक्सी चलाता है, हर रोज़ वो क्लेश डाले रखता है।''
      ''पर इसके साथ तेरा क्या वास्ता ?''
      ''मैं भी तो उसी घर में रहती हूँ।'' कहते हुए कुलबीरो उदास हो उठती है। उसी वक्त फ़रीदा अन्दर प्रवेश करती है। सीढ़ियाँ चढ़ने के आवाज़ से ही प्रदुमण अंदाजा लगा लेता है कि फरीदा होगी। उससे कुलबीरो का दफ्तर में आना झेला नहीं गया होगा। फरीदा के अन्दर घुसते ही कुलबीरो उठकर चली जाती है। प्रदुमण कहता है-
      ''तेरे कदमों की आहट से ही पहचान लिया था कि तू है।''
      ''मेरे पैरों की आवाज़ जुदा है ?''
      ''हाँ, बूढ़े आदमी से ब्याही औरत हमेशा ही भागकर सीढ़ियाँ चढ़ा करती है।''
      ''सरदार जी, किस्मत ने तो मजाक किया ही था, आप भी कर लो।''
      ''मेरी जान, मैं तो यूँ ही कह रहा हूँ, वैसे मेरा ये मतलब नहीं।''
      ''ये कुलबीरो के साथ भी मजाक ही कर रहे थे ?''
      ''नहीं, मेरी जान, मैं तो उसे काम वाम समझा रहा था।''
      ''सरदार जी, ये काम वाम तो मुझे आपकी आँखों में ही दीख रहा है।''
      ''ऐसा तो कुछ नहीं फरीदा, माई डार्लिंग! तू यह बता कि तेरा मियाँ इतनी ड्राइविंग करके थक तो नहीं जाता ?''
      ''सरदार जी, सच बताऊँ, वो चंदरा मुझे गाली बहुत देता है। अगर मैं खुश होऊँ तो पूछता है कि मैं किस यार से मिलकर आई हूँ और अगर उदास होऊँ तो कहता है कि किस यार की याद आ रही है।''
      ''तू मेरा नाम ले लिया कर।''
      ''एक दिन सचमुच ही ले दूँगी, बता दूँगी की अपने सोहणे सरदार से मिलकर आई हूँ।''
      ''फिर तो मेरा दुश्मन बन जाएगा।''
      ''दुश्मन तो अब भी बन जाएगा।''
      ''वो कैसे ?''
(जारी…)

Saturday, November 24, 2012

पंजाबी उपन्यास



''साउथाल'' इंग्लैंड में अवस्थित पंजाबी कथाकार हरजीत अटवाल का यह चौथा उपन्यास है। इससे पूर्व उनके तीन उपन्यास - 'वन वे', 'रेत', और 'सवारी' चर्चित हो चुके हैं। ''साउथाल'' इंग्लैंड में एक शहर का नाम है जहाँ अधिकतर भारत से गए सिक्ख और पंजाबी परिवार बसते हैं। यहाँ अवस्थित पंजाबी परिवारों के जीवन को बेहद बारीकी से रेखांकित करता हरजीत अटवाल का यह उपन्यास इसलिए दिलचस्प और महत्वपूर्ण है क्योंकि इसके माध्यम से हम उन भारतीय लोगों की पीड़ा से रू-ब-रू होते हैं जो काम-धंधे और अधिक धन कमाने की मंशा से अपना वतन छोड़ कर विदेशों में जा बसते हैं और वर्षों वहाँ रहने के बावजूद वहाँ की सभ्यता और संस्कृति का हिस्सा नहीं बन पाते हैं।

साउथाल
हरजीत अटवाल

हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव


। अड़तीस ॥

उस शाम मोहनदेव घर आ जाता है। पाला सिंह उसको पास बिठा कर कहता है-
      ''देख पुत्तर, अपना शुगल-मेला जहाँ मर्ज़ी कर, पर विवाह करवाना है तो अपनी जात-बिरादरी में करवा। विवाह वही कामयाब होता है जहाँ दोनों परिवारों का पीछा एक-सा हो। दो अलग-अलग कल्चर में जन्मे लोग कभी खुश नहीं रह सकते।''
      ''लुक डैड, मैंने कितनी बार बताया कि मैं इंडियन नहीं, मैं ब्रिटिश हूँ और मुझे जबरदस्ती इंडियन न बना। यह मेरी लाइफ़ है, मुझे अपने तरीके से जीने दे।''
      ''अगर तेरी माँ जिंदा होती तो तू क्या करता।''
      ''मम्मी, तुम्हारे जैसी नहीं थी। वो मुझे ज़रूर लिसन करती।''
      घंटा भर बहस चलती रहती है, पर बात किसी किनारे नहीं लगती। अधिक मिन्नत-चिरौरी करना उसके वश में भी नहीं। आख़िर वह कह देता है -
      ''तुझे मेरे और उस लड़की में से एक को चुनना होगा।''
      ''मैं मीना को चूज़ कर चुका हूँ डैड।''
      पाला सिंह निढ़ाल-सा सैटी में धंस जाता है और फिर आहिस्ता से उठकर अपने कमरे में चला जाता है। उसको लगता है मानो उसके शरीर का कोई हिस्सा कट गया हो। सवेरे वह उदास-सा उठता है। मोहनदेव घर से जा चुका है। अमरदेव और मनिंदर डरे-डरे हैं। वह अधिक बात नहीं करता और बाहर जाने के लिए तैयार होने लगता है।
      गुरदयाल सिंह के दफ्तर में पाला सिंह पहुँचता है तो अन्दर से प्रदुमण सिंह बाहर निकल रहा होता है। वह पूछता है-
      ''पाला सिंह, कैसे ?... क्या हाल हैं ?''
      ''तू सुना दुम्मण, तेरा क्या हाल है ? कहीं देखा ही नहीं ?''
      ''लाइफ़ ज़रा बिजी है।''
      ''इधर किसलिए घूम रहा है ?''
      ''घरवाली इंडिया जा रही है, टिकट लेने आया था।''
      ''इंडिया को तो तुमने हमेशा के लिए बाय-बाय नहीं कर दिया था ?''
      ''मैंने तो कर दिया था, पर घरवाली के बहन-भाई वहीं हैं।''
      ''चल, जैसे भी है, खुश रहो।''
      ''और पाला सिंह, मूंछें खड़ी रहती है न ?''
      प्रदुमण सिंह के पूछने पर पाला सिंह ज़रा-सा झेंप जाता है कि इसको किसी बात का पता चल गया होगा, पर वह हौसले में आकर कहता है-
      ''मूंछों ने तो खड़े ही रहना है। देख, मूंछ पर तो नींबू टिकता है।''
      वह अपनी मूंछ की ओर इशारा करता है और फिर उसी से सवाल कर बैठता है-
      ''तू सुना, तेरी गिलहरी फूलों पर खेलती है न ?''
      ''खेलती है पाला सिंह, पूरी तरह खेलती है।'' कहते हुए प्रदुमण सिंह हँसता हुआ चल पड़ता है। जाते हुए प्रदुमण की पीठ देखता हुआ पाला सिंह अन्दर प्रवेश कर जाता है। अन्दर पिछले वाले दफ्तर में ही सीधे चला जाता है जहाँ गुरदयाल सिंह बैठा करता है। गुरदयाल सिंह की ओर देखकर उसकी आँखें तर-सी होने लगती हैं। वह भरे मन से कहता है-
      ''भई नहीं माना लड़का। धोखा दे गया।''
      ''यह तो बुरी बात की उसने। पालने, पढ़ाने की कोई कद्र नहीं की उसने।''
      ''गुरदयाल सिंह, वह तो पास नहीं फटकने दे रहा। कहता है, बात न कर। पता नहीं उस लड़की ने क्या जादू कर दिया।''
      ''इस मुल्क की हवा!''
      ''मुल्क की हवा तो जो हुई, सो हुई पर इस हमारे लड़के को तो पढ़ाई-लिखाई ने बिगाड़ा है। न इसको इतना पढ़ाता, न ये दिन देखने पड़ते।'' कहता हुआ वह सोच रहा है कि गुरदयाल सिंह का लड़का अधिक न पढ़ा होने के कारण बाप के कहने में रहा और इंडिया जाकर विवाह करवा आया।
      गुरदयाल सिंह कहता है, ''पाला सिंह, दिल छोटा न कर। लड़का ही है, कौन सी लड़की है।''
      ''तेरी बात ठीक है, पर गुरुद्वारे जाया करते हैं, लोगों को पता लगा तो थू-थू होगी। ये जो मूंछ खड़ी है...।''
      ''तू यूँ ही न जज्बाती हुए जा। कोई आँधी नहीं चली। हौसला रख और हमेशा की तरह खुश रह। खुश रहना तो लोग तेरे से सीखते हैं।''
      गुरदयाल सिंह के इन शब्दों से उसका मायूस-सा दिल एकाएक टिक जाता है। वह सोचता है कि ज़िन्दगी में वह कभी भी निराश नहीं हुआ, अब भी नहीं होना चाहिए। वह मूंछ को मरोड़ा देते हुए कहता है-
      ''नहीं तो न सही। मोहनदेव जाता है तो जाए, मैं अमरदेव का इंडिया में विवाह करूँगा।''
      ''इंडिया इंडिया भी तू यूँ ही गाए जाता है। वहाँ इंडिया में अपना है ही कौन ? दो खेत जो ज़मीन के हैं, रिश्तेदारों ने दबा लेंगे या यूँ कहो, दबा ही लिए हैं। गाँव में हमारे हमउम्र मर-खप चुके हैं या फिर अन्दर घुसे बैठे हैं। नई जनरेशन हमें पहचानती नहीं, अब वहाँ गाँव में अपना है ही कौन ?''
      ''बात तो गुरदयाल सिंह तेरी ठीक है, पर मैं ये सोचता हूँ कि आदमी का रौब अपने भाईचारे में ही बनता है। अब अगर किसी को पता लगा कि मोहनदेव ने किसी भैय्याणी से ब्याह करवा लिया है जिसकी जात का कुछ पता नहीं तो...।''
      ''तू फिर वही बात करने लग पड़ा। तुझे पता है, अपने गाँव के कितने ही बंदे कुदेसणों से ब्याहे हुए थे।''
      ''कुदेसणों से तो वो ब्याह करवाता है जो रह गया हो, पर मोहनदेव तो छह फुटा सोहणा जवान है।''
      ''मेरे कहने का मतलब दूसरा है भई, जट्ट का पुत्त कहीं भी ब्याह करवा ले, औरत ने जट्ट के घर में आकर जट्टी ही बन जाना होता है। अब ये गुजरातन जो पटेल, दिसाई कुछ भी हो, माहल बन जाएगी, तू तो बल्कि आशीर्वाद दे।''
      ''देख गुरदयाल सिंह, न तो मैं उसको माफ़ कर सकूँगा और न ही आशीर्वाद दे सकूँगा। यह ठीक है कि मोहनदेव को लेकर सोचना बंद कर दूँगा, भूल जाऊँगा कि मेरे दो बेटे थे।''
      ''और भाभी नसीब कौर जिंदा होती तो ऐसा करती ?''
      ''नसीब कौर भली औरत थी, पर मैं...।''
      वह अपनी बात को बीच में ही छोड़ कर मूंछ को मरोड़ा देने लगता है।
      वह गुरदयाल सिंह के यहाँ से लौटकर काफ़ी हद तक खुश है। उसके दिल का बोझ यद्यपि उतरा नहीं, पर ग़म बांटा गया है। घर पहुँचने तक वह एकदम ठीक हो जाता है। मनिंदर और अमरदेव घर में ही हैं। पिता को बदला हुआ देख कर वे भी राहत की साँस लेते हैं। अमरदेव कहता है-
      ''डैड, यह कोई इतना बड़ा इशु नहीं था, जस्ट स्मॉलथिंग था। तुम यूँ ही एंग्री हो गए, ऐसे ही हैप्पी रहा करो।''
      ''यह स्मॉलथिंग नहीं, पर मैं हैप्पी ही हूँ। मुझे क्या हुआ है।''
      ''अगर हैप्पी हो तो मोहन को फोन करूँ कि मीना को लेकर आ जाए।''
      ''ख़बरदार! अगर इस घर में लाया। उसको कह दे, अब वो भी न आए।'' कहते हुए वह सिटिंग-रूम में आ जाता है और बैठ कर टेलीविज़न देखने लग पड़ता है। मनिंदर और अमरदेव अपने-अपने कमरों में चले जाते हैं। पाला सिंह घड़ी देखता हुआ पब के खुलने का इंतज़ार करने लगता है। वह पब जाएगा तो बातें करने वाले कई मिलेंगे। मन दूसरी तरफ होगा। दुम्मण जैसा यदि कोई उसके लड़के के बारे में बात करेगा भी तो कह देगा कि लड़का ही है, कौन सा लड़की है। लड़के तो पचास दीवारें फांदा करते हैं।
      पब जाते समय वह लेडी माग्रेट रोड पर पहुँचता है। सेमा और अनवर खड़े होकर बातें कर रहे हैं। सेमे को तो वह जानता है, वह कई बार गुरुद्वारे में मिल जाया करता है। अनवर को वह नहीं जानता, पर अनवर भी उसको सतश्री अकाल बुलाता है। पाला सिंह कहता है-
      ''कौन सी साज़िश घड़ रहे हो ?''
      अनवर और सेमे के खड़े होने के अंदाज से अंदाजा लगाते हुए मजाक में वह पूछता है। सेमा कहने लगता है-
      ''अंकल जी, क्या बताएँ, ये सामने पोस्टर देखो, कितना गंदा है। हमसे नहीं देखा जाता। बच्चों पर इसका क्या असर पड़ेगा।''
      ''यह तो है। तुम्हें पता ही है कि ये कौम कितनी खुली है। कहाँ हमारी औरतें बुर्कों, घूंघटों में रहने वाली और कहाँ ये... गोरी औरतें तो कपड़े से अधिक वास्ता नहीं रखतीं। शुक्र है कि ये मुल्क ठंडा है, नहीं तो पता नहीं यहाँ क्या हाल होता।'' कहते हुए पाला सिंह पोस्टर की ओर देखता है।
      दीवार पर बड़े साइज़ की तस्वीर चिपकी हुई है। यह किसी मैगज़ीन का विज्ञापन है। तस्वीर में दिखाया गया है कि नंगे मर्द और औरत संभोग क्रिया में मग्न है, पर औरत इस क्रिया में मानसिक तौर पर शामिल नहीं है क्योंकि वह एक मैगज़ीन पढ़ रही है और उसको मैगज़ीन में ज्यादा आनन्द आ रहा है।
      पाला सिंह हँसता हुआ आगे बढ़ जाता है। अब उसका मूड बिलकुल ठीक है।
(जारी…)

Wednesday, October 24, 2012

पंजाबी उपन्यास



''साउथाल'' इंग्लैंड में अवस्थित पंजाबी कथाकार हरजीत अटवाल का यह चौथा उपन्यास है। इससे पूर्व उनके तीन उपन्यास - 'वन वे', 'रेत', और 'सवारी' चर्चित हो चुके हैं। ''साउथाल'' इंग्लैंड में एक शहर का नाम है जहाँ अधिकतर भारत से गए सिक्ख और पंजाबी परिवार बसते हैं। यहाँ अवस्थित पंजाबी परिवारों के जीवन को बेहद बारीकी से रेखांकित करता हरजीत अटवाल का यह उपन्यास इसलिए दिलचस्प और महत्वपूर्ण है क्योंकि इसके माध्यम से हम उन भारतीय लोगों की पीड़ा से रू-ब-रू होते हैं जो काम-धंधे और अधिक धन कमाने की मंशा से अपना वतन छोड़ कर विदेशों में जा बसते हैं और वर्षों वहाँ रहने के बावजूद वहाँ की सभ्यता और संस्कृति का हिस्सा नहीं बन पाते हैं।

साउथाल
हरजीत अटवाल

हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव


। सैंतीस ॥

एक दिन मनदीप कहती है-
      ''जैग, स्वीमिंग जाना बंद क्यों कर दिया ?''
      ''यूँ ही, आलस-सा आता रहता है।''
      ''वो तुम्हारे मामा की बेटी तो दुबारा बच्चा पैदा करके भी स्वीमिंग जाने लग पड़ी होगी।''
      ''मूर्खों वाली बात न कर। मैं जॉगिंग जाता हूँ इसलिए स्वीमिंग की ज़रूरत नहीं पड़ती।''
      ''इन लड़कों के बारे में क्यों भूले जाते हो, ये स्वीमिंग भूल बैठेंगे।''
      ''स्वीमिंग कोई नहीं भूला करता, हाँ प्रैक्टिस तो चाहिए ही।''
      जगमोहन कहता है और सोचने लग पड़ता है कि वह इस तरफ से क्यों बेपरवाह हो गया। उसे खुद भी तो स्वीमिंग गए को कई महीने हो गए हैं। मनदीप ठीक कहती है। वह अपनी जिम्मेदारी को भुलाए बैठा है। वह उसी पल फैसला करता है कि वह कल से ही लगातार स्वीमिंग जाना आरंभ करेगा।
      अगले रोज़ वह दोनों लड़कों के स्वीमिंग-सूट बैग में डाल लेता है और साथ ही अपना भी। दो तौलिये रखता है। पैरीवेल स्वीमिंग पूल के कार पॉर्क में कार पॉर्क करता है। यह स्वीमिंग पूल पिछले वर्ष ही बनकर तैयार हुआ है। यह नया है और इसका नाम भी बहुत है क्योंकि यह आधुनिक किस्म का स्वीमिंग पूल है। परन्तु कुछेक नस्लवादी घटनाएँ घटित होने के कारण एशियन लोग यहाँ कम ही आते हैं। ग्रेवाल का कहना है कि जब हम गोरों से पृथकता पैदा कर लेते हैं, उनसे दूर रहने लग पड़ते हैं तो इन नस्लवादियों को बढ़ावा मिलता है। ये उत्साहित होते हैं। नस्लवादियों का मुकाबला करने के लिए इनके बीच में रहना बहुत ज़रूरी है। यही कुछ सो जगमोहन कार में से उतरते हुए नवजीवन और नवकिरण को भी उतारता है। सामान वाला बैग कंधे पर लटका कर चल पड़ता है।
      प्रवेश द्वारा पर फॉर्म भरकर सदस्यता लेता है। पाँच पौंड मेंबरशिप है। बच्चों का दाख़िला मुफ्त है। लॉकर की चाबी लेकर वह कपड़े बदलने चला जाता है। दोनों बेटों के कपड़े संभालता है और अपने भी। स्वीमिंग पूल के किनारे खड़े होकर आसपास का निरीक्षण करता है। स्वीमिंग पूल के तीन हिस्से हैं। एक बच्चों और माँओं के लिए। दूसरा उससे कुछ गहरा है, करीब तीन फुट पानी होगा। और एक हिस्सा आम पूल की तरह अधिक गहरा है। वह दोनों लड़कों को गहरे पूल में नहीं जाने दे रहा यद्यपि वे दोनों अच्छे-भले तैराक हैं। वह स्वयं भी उधर नहीं जाता। इस पूल में उनका पहला दिन है। वह वातावरण से परिचित होना चाहता है। वह जानता है कि आसपास के लोग कैसे हैं। दिन अच्छा होने के कारण काफ़ी लोग आए हुए हैं। कुछ लोग बड़े पूल के फट्टे पर चढ़कर पूल में छलांगे भी लगा रहे हैं। उसका भी मन होता है कि फट्टे पर चढ़कर कलाबाजियाँ खाता हुआ पानी में गोता लगाए। फिर पूल के चार चक्कर लगाए, तेज़ तेज़ तैरते हुए। पर वह सोचता है कि अगली बार सही, अब वह निरंतर आया करेगा।
      वह देखता है कि फट्टे पर खड़ी एक लड़की पूल में अपने साथियों को हाथ हिलाकर छलांग लगाने की तैयारी के बारे में बता रही है। लड़की की आँखें पंजाबी है। बाल ऊपर की ओर खिंचे हुए हैं। टांगें गोल हैं और पिंडलियाँ भारी। सुडौल स्तनों पर ब्रॉ भी कसकर बाँधे हुए है। जगमोहन को सुखी का भ्रम होता है। इसी प्रकार सुखी फट्टे पर जा खड़ी हुआ करती थी और बाहर खड़े हुसैन को हाथ हिलाया करती थी। हुसैन स्वीमिंग पूल में कम ही घुसता था। वह बाहर ही खड़ा रहता। खड़े-खड़े सुखी की ओर देखता रहता। जब सुखी पर हमला हुआ तो भाग उठा। वह सुखी से अपना ध्यान हटा कर उस लड़की की तरफ देखने लगता है जो छलांग लगाने के लिए फट्टे को नीचे की ओर दबाने की यत्न कर रही है। उसे यूँ लगता है मानो लड़की को कहीं देखा हुआ है। लड़की फिर हँसती है। हाथ हिलाती है और कलाबाजी खाती छलांग लगा देती है। फिर पानी में मछली की तरह तैरती हुई अपने साथियों के पास जा निकलती है। लड़की जगमोहन की ओर देखती है। उसकी तरफ हाथ हिलाती है। वह जवाब देता है। उसे एकदम स्मरण हो आता है कि यह तो मनिंदर है। अंकल पाला सिंह की बेटी। वह कितनी ही बार उससे मिला है। अभी कुछ ही दिन पहले आंटी नसीब कौर के निधन के समय वह उनके घर लगभग रोज़ ही जाता रहा है। उससे पहले भी उनके पारस्परिक संबंध रहे हैं। उसको बहुत अच्छा-अच्छा लगा रहा है। मनिंदर एक अन्य लड़की और लड़के के साथ फट्टे पर जा चढ़ती है। जगमोहन उसकी तरफ देखे जा रहा है। वह फिर जगमोहन की ओर हाथ हिलाती है। जगमोहन को निरंतर देखे जाने की अपनी गलती का अहसास होता है। उसको सुखी याद आ रही है। स्वीमिंग से फुर्सत पाकर मनिंदर उसके करीब आकर कहती है-
      ''हैला भाज ! हाउ आर यूँ ?''
      ''आय एम फाइन।''
      वह इतना ही कह पाता है। पहले भी मनिंदर उसको भाजी या भाज कहकर संबोधित होती रही है। मनिंदर चली जाती है। जगमोहन के अन्दर एक लहर-सी दौड़ने लगती है। स्वीमिंग पूल के फट्टे पर खड़ी मनिंदर उसको सुखी जैसी प्रतीत होती है। उसको डर है कि सुखी जैसी किस्मत न ले बैठे मनिंदर को। वह पाला सिंह को भलीभाँति जानता है। मूँछों को ऐंठता पाला सिंह मानो साक्षात उसके सामने आ खड़ा हुआ हो।
      उसके अन्दर एक बेसब्री-सी है। किसी के साथ बात करने की बेसब्री। एक बेचैनी-सी हो रही है उसको। वह सोच रहा है कि किसके साथ बात करे। ग्रेवाल छुट्टियों पर गया हुआ है। इस सर जी को भी तभी छुट्टियों पर जाना होता है जब उसको उसकी ज़रूरत होती है। मनदीप के साथ करेगा तो वह कहेगी कि तुझे एक और चुड़ैल चिपट गई। उसको अपने ऊपर गुस्सा आ रहा है कि अब उसके ऐसे दोस्त बहुत कम हैं जिसके साथ वह दिल की बातें कर सके। दोस्ती वक्त मांगती है और वह वक्त दे नहीं सकता। गुरचरन, सोहनपाल आदि उसके पुराने मित्र हैं, पर दिल की बातें कर सकने वाली उनसे दोस्ती नहीं है। फिर मनिंदर तो अंकल पाला सिंह की बेटी है। उसकी अपनी बहन-सी। उसके बारे में आम लोगों के संग बात नहीं कर सकता। एक अजीब-सा डर उसके अन्दर घर करने लगता है।
      शाम को वह ग्लोस्टर जाता है। शायद कोई मित्र मिल जाए। कई बार अंकल पाला सिंह यहाँ होता है, पर आज वह वहाँ नहीं है। वह सोचता है कि शायद लाइटों वाले पब में हो। वह एक गिलास यहाँ पीकर लाइटों वाले पब की ओर चल पड़ता है। वहाँ भी पाला सिंह नहीं है। फिर वह सोचने लगता है कि वह पाला सिंह को क्यों खोज रहा है। अगले दिल पाला सिंह इसी पब में एक मेज़ पर बैठा मिल जाता है। उसका गिलास खत्म होने को है। वह मूंछों को मरोड़ा दे रहा है। जगमोहन को देखते ही खुश हो जाता है। उसकी ओर हाथ बढ़ाते हुए पूछता है-
      ''सुना भतीजे, किधर रहता है ?''
      ''बस इधर उधर ही अंकल जी।''
      ''मैं देखता हँ कि तूने पब में आना कम कर दिया है। ग्रेवाल की सोहबत का असर हो गया लगता है। ग्रेवाल तुझे कुछ नहीं सिखा सकेगा।''
      एक पल के लिए तो जगमोहन को गुस्सा-सा भी आता है। ग्रेवाल के संग उसको घूमते देख कर कभी-कभी प्रदुमण सिंह भी ताना-सा मार जाता है। इन्हें नहीं पता कि ग्रेवाल की संगत में उसको क्या मिलता है, पर जगमोहन कुछ बोले बिना मुस्करा देता है। पाला सिंह फिर कहता है-
      ''ग्रेवाल ने अपनी औरत छोड़ दी भाइयों के खातिर, भाइयों ने उसको छोड़ दिया पैसों की खातिर।''
      ''अंकल, ग्रेवाल ठीक बंदा है, शांत और बढ़िया सलाहकार।''
      जगमोहन ग्रेवाल के विरुद्ध और कुछ नहीं सुनना चाहता, पर पाला सिंह रुकता नहीं और आगे कहता है-
      ''बस ये शांत ही है, करने-कराने लायक कुछ नहीं है। इसमें तो इतनी हिम्मत भी नहीं कि भाइयों से अपना हिस्सा मांग सके।''
      ''अंकल, हिस्से की उसको ज़रूरत ही क्या है, अच्छी भली नौकरी है।''
      ''है तो सबकुछ भाइयों की खातिर ही, पर इसने अपनी ज़िन्दगी तो खराब कर ली। उस बेचारी की भी कर दी। कहते हैं कि एक लड़की भी है इसकी।''       पाला सिंह अपना गिलास खत्म करते हुए कहता है और फिर उठते हुए पूछता है, ''लागर ही पी रहा है ?''
      जगमोहन 'हाँ' में हल्का-सा सिर हिलाता है। पाला सिंह गिलास भरवा लाता है और बैठते हुए कहने लगता है-
      ''चल छोड़ यह सब, मैं तो तुझे ही फोन करने के बारे में सोच रहा था। एक सलाह लेनी थी।''
      ''बताओ।''
      ''यही वसीयत के बारे में। विल तो तेरी आंटी के समय हमने बनाई थी, पर अब दिल करता है कि बदल दूँ, तू जानता है कुछ इस बारे में ?''
      ''आपकी विल है, जब चाहो नई लिखो। सोलिसिटर के जाना पड़ता है।''
      ''उसके पास जाने से ही तो बचता हूँ। पैसे ही बहुत मांगते हैं।''
      ''कोई बात नहीं अंकल, कोई सस्ता राह ढूँढ़ लेते हैं, मैं पता करता हूँ।'' जगमोहन उसको हौसला देते हुए कहता है। पाला सिंह बताता है-
      ''हमने तो यह किया था कि घर दोनों बेटों के नाम और बाकी कैश और गहने आदि के तीन हिस्से। इंडिया वाली ज़मीन भी लड़कों के नाम ही।''
      ''और अब क्या सोचा है ?''
      ''अब घर मनिंदर का और गहने सारे लड़की के ही। रहा कैश तो उसके तीन हिस्से, इंडिया की ज़मीन लड़कों की।''
      ''ठीक है, जैसा कहो। पर मनिंदर के साथ लड़के झगड़ा न करने लगे घर को लेकर। आप तो जानते ही हैं कि इस तरह के कई केस होते हैं, बाद में बहुत पंगा पड़ता है।''
      ''कोई बात नहीं, पड़ता है तो पड़े। लड़के साले नालायक हैं, कहना नहीं मानते। तू देखता ही है कि सारी उम्र मूंछ खड़ी रखी है हमने। लड़का खो दें तो खो दें, पर मूंछ नीची नहीं होने देंगे।''
      ''ऐसी भी क्या बात हो गई ?''
      ''यही तो बात है भतीजे। बड़े ने पहले तो घर इलफोर्ड में लिया और छोटी-सी लड़की लिए फिरता है। लड़की ऐसी कि मैं बगल में उठा दो मील का चक्कर लगा आऊँ। खैर, मैंने कहा, इंडिया चल, ऐसी लड़की ढूँढ़ूंगा कि हाथ लगाए मैली हो। कहता है, मैं नहीं मानता।''
      ''कोई गर्लफ्रेंड होगी, कौन सा विवाह करवाने जा रहा है।''
      ''जग्गे, मैंने तो कहा था कि चार दिन ऐश कर ले, जब मन भर जाए तो छोड़ देना। मुझे कहता है कि ये तो उम्रों के सौदे हो गए, विवाह भी नहीं करवाना, पर रहना इसके संग ही है और बच्चे भी पैदा करने हैं। मैंने कहा, हम इंडियन लोग हैं और हम लोग ऐसा नहीं किया करते। इस पर कहता है कि मैं इंडियन नहीं हूँ, मैं तो ब्रिटिश हूँ... साला, ब्रिटिश कहीं का।''
(जारी…)

Sunday, September 2, 2012

पंजाबी उपन्यास



 ''साउथाल'' इंग्लैंड में अवस्थित पंजाबी कथाकार हरजीत अटवाल का यह चौथा उपन्यास है। इससे पूर्व उनके तीन उपन्यास - 'वन वे', 'रेत', और 'सवारी' चर्चित हो चुके हैं। ''साउथाल'' इंग्लैंड में एक शहर का नाम है जहाँ अधिकतर भारत से गए सिक्ख और पंजाबी परिवार बसते हैं। यहाँ अवस्थित पंजाबी परिवारों के जीवन को बेहद बारीकी से रेखांकित करता हरजीत अटवाल का यह उपन्यास इसलिए दिलचस्प और महत्वपूर्ण है क्योंकि इसके माध्यम से हम उन भारतीय लोगों की पीड़ा से रू-ब-रू होते हैं जो काम-धंधे और अधिक धन कमाने की मंशा से अपना वतन छोड़ कर विदेशों में जा बसते हैं और वर्षों वहाँ रहने के बावजूद वहाँ की सभ्यता और संस्कृति का हिस्सा नहीं बन पाते हैं।

साउथाल
हरजीत अटवाल

हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव


। छत्तीस ॥

ज्ञानेन्द्र के क़त्ल से सारा साउथाल दहल जाता है। कुछ पता नहीं चल रहा कि क़त्ल किसने किया है। तरह-तरह के कयास लगाये जा रहे हैं। ब्रितानिया की मेन स्ट्रीम की अख़बारें इस क़त्ल का गंभीर नोटिस लेती हैं। इस घटना के बारे में संपादकीय लिखे जाते हैं। इस क़त्ल को कलम की आज़ादी पर हमला समझा जा रहा है। दुनिया भर की अखबारों में इस क़त्ल की चर्चा होती है, पर धीरे-धीरे इस घटना का असर मद्धम पड़ने लगता है। 'वास परवास' यद्यपि अभी भी ठीक चल रहा है, पर ज्ञानेन्द्र पाठकों की स्मृतियों में ज्यों-का-त्यों बैठा है।
      ग्रेवाल को आज उसकी कमी बहुत चुभ रही है। वह जीवित होता तो उसको आज जगजीत परवाना की ज़रूरत न पड़ती। परवाना साउथाल का माना हुआ कवि है और एक लेखक संगठन का अध्यक्ष है। साउथाल में कई कई गुरद्वारों, मंदिरों, मस्जिदों की तरह कई लेखक संगठन भी हैं। परवाना के घर जाने के लिए वह सोमरसैट एवेन्यू से निकल कर लेडी मार्गेट रोड पर आ जाता है। फिर कारलाइल रोड पर से होकर डेन एवेन्यू पर। डेन एवेन्यू सीधी ब्राडवे को निकलती है। ब्राडवे नित्य की तरह व्यस्त है। वह सोचता है कि अच्छा हुआ जो कार नहीं लाया। उसके बायीं ओर थोड़ा हटकर ग्रेवाल इंपोरियम नज़र आ रहा है। एक पल नज़र भरकर उधर देखता है। मन ही मन कहता है कि काफ़ी साज-सजावट कर ली लगती है। ब्राडवे पर सामने ही मीट की दुकान है। यहाँ से कभी वह मीट खरीदा करता था। अब तो घर में मीट बनाये को एक मुद्दत हो गई। रसोई के काम में वह बहुत आलसी है। बना-बनाया ही टेक-अवे कर लेता है। यह साउथाल है। यहाँ तो गैस जलाने की भी ज़रूरत नहीं पड़नी चाहिए। मीट की दुकान के शीशे पर पहले पंजाबी में 'झटका' लिखा होता था, अब 'हलाल' लिख दिया गया है। हे लाम अलफ लाम - हलाल। साथ ही प्रताप खैहरे का रेस्ट्रोरेंट है और सामने चौधरी का। वह जगमोहन को बताया करता है कि बड़ी बात नहीं यदि साउथाल में सिक्ख-मुसलमान दंगे हो जाएँ। वह गुस्से को अंदर पीता हुआ चलता जाता है।
      जगजीत परवाना छोटे-मोटे मुशायरे या अन्य कार्यक्रम करवाता रहता है। पहले वह और कामरेड इकबाल एक ही ग्रुप में हुआ करते थे, पर अब नहीं हैं। जब खालिस्तान का शोर-शराबा हुआ था तो एक सभा के कई ग्रुप बन गए थे। कई तरक्कीपसंद कहलाने वाले लेखक नंगे हो गए थे। बाहर से तरक्कीपसंद और अन्दर से मूलवादी। कभी ग्रेवाल को भी कविता का शौक हुआ करता था। अब नहीं है। ग्रेवाल को परवाना की शायरी अच्छी लगती है। चुस्त शब्दावली और बौद्धिकता। पर कविता तो उसको शीला स्पैरो की ही पसंद है। छोटे कद की खूबसूरत लड़की, तेज़-तेज़ कदम रखती और चिड़िया की भाँति फुदकती शीला स्पैरो। अब भी 'वास-परवास' में पूरे एक सफ़े पर अपनी ग़ज़लें छपी देखकर वह बाग-बाग हो गई थी। वह ब्राडवे पर से नहर के साथ-साथ मुड़ जाता है। पब की तरफ़ देखता है जो अब नया बना दिया गया है। तब तो दंगाइयों ने राख की ढेरी बना दिया था। सन 1979 में साउथाल में नस्ली दंगे हुए थे। कुछ नस्लवादी लोगों को भड़काने के लिए साउथाल में मीटिंगें करनी चाहते थे। लोगों को लगा कि दुश्मन तो घर में आ घुसा। बस, सर्तक हो गए।
      परवाना उसको तपाक से मिलता है। जफ्फी डालकर पूछता है-
      ''ग्रेवाल, तू तो बिलकुल ही गायब हो गया। मिलता ही नहीं कभी।''
      ''तू तो जानता ही है परवाना, लाइफ़ स्टाइल ही ऐसा है, बस चलो चल ही हो रहा है।''
      ''तू तो यार अकेली जान है, अगर तेरी लाइफ़ चलो चल है तो हम परिवारवालों का क्या बनेगा।''
      तब तक परवाना की पत्नी नछत्तर कौर भी उनके पास आ जाती है। वे सब एक दूसरे के पुराने परिचित हैं। वह आते ही पूछती है -
      ''रे ग्रेवाल, तू ही है ? जब इन्होंने बताया कि तूने आना है तो यकीन ही नहीं हुआ। मैं तो कई बार तुम्हारी दुकान पर भी जाती हूँ, वहाँ भी कभी नहीं देखा तुमको।''
      ''भरजाई, दुकान में गए को तो मुझे पन्द्रह साल हो गए, सब कुछ भाइयों के सुपुर्द कर दिया।''
      ''चलो, कोई बात नहीं। वे भी तो अपने है। तेरी तो जॉब ही बताते हैं कि अच्छी है, जुगिंदर कौर करमजली के करमों में नहीं था।''
      ग्रेवाल कुछ नहीं बोलता। परवाना भयभीत है कि कहीं कोई जज्बाती तोड़-फोड़ न हो जाए। वह बात को बदलते हुए कहता है-
      ''देख ले, ज्ञानेन्द्र तो भंग के भाड़े ही चला गया।''
      ''बहुत बुरा हुआ।''
      ''बाबाओं से और उम्मीद भी क्या की जा सकती है।''
      ''पता नहीं ये बुरा काम कौन कर गया, कमाल की बात है कि अभी तक कुछ पता नहीं चला।''
      परवाना की पत्नी चाय ले आती है। परवाना ग्रेवाल से पूछता है-
      ''पुराने मित्रों में से कोई मिलता है ?''
      ''बहुत कम। तू बता, तू तो फंक्शन करता रहता है।''
      ''हम फंक्शन करवाते हैं, सबको बुलाते हैं, पर इकबाल अभी भी नाराज है। कहता है, तुमने ज्ञानेन्द्र के अख़बार में छप कर उसका साथ दिया। मैं कहता हूँ, हमारे छपने, न छपने से ज्ञानेन्द्र अपने विचार तो बदलने से रहा। कवि ने कविता लिखी है, वह चाहता है कि वह लोगों तक पहुँचे और 'वास-परवास' से बढ़िया कोई ज़रिया नहीं लोगों तक पहुँचने का। मैं कहता हूँ कि कामरेड, देख, हम अपने दिल की बात कह सकते हैं। पिछले विशेष अंक में मेरी कविताएँ पूरे सफ़े पर लगीं थी, पर ये सभी मूलवाद के विरुद्ध थीं।''
      ''मेरे साथ भी काफ़ी समय तक नाराज रहा। मैंने कहा कि मैं कभी खालिस्तान का समर्थक नहीं रहा और न ही इसके हक में लिखा, पर कामरेड 'आई.डब्ल्यू.ए. के ज़माने में बैठा हुआ है।''
      ''वो एक दूसरा ही दौर था, हम भी जवान थे, तुझे याद है कि भारत की प्रधान मंत्री आई तो हमने उसकी ग़लत नीतियों के कारण उसके खिलाफ़ प्रदर्शन किया था। इकबाल ने प्रधान मंत्री के ऊपर अंडा फेंक कर मारा था।''
      ''अंडा भी इस स्कीम से मारा कि जब वह डुमीनयन सिनेमा का दरवाज़ा पार करने लगी तो इसने अंडे को दरवाज़े से ज़रा-सा ऊपर दीवार पर मारा और अंडा फूट कर प्रधान मंत्री के जूड़े में यूँ गिरा जैसे कटोरी में गिरता है।''
      ग्रेवाल के कहने पर दोनों ताली बजाकर हँसने लगते हैं। ग्रेवाल फिर कहता है-
      ''फिर तो उसके पिट्ठू उसका सिर पोंछते रहे।''
      ''ग्रेवाल, यह ज़रूरी भी था, वह भी अपने आप को डिक्टेटर समझने लग पड़ी थी, लोक राय की चिंता करना उसने छोड़ दिया था, पर यह तो बहुत पुरानी बात हो गई। तू बता, यह निमंत्रण पत्र किसको भेजना है ?''
      ''मेरे परिचय में एक औरत है, कविता लिखती है, वह इधर आना चाहती है सैर के लिए और मेरी ड्यूटी लगी हुई है कि उसे किसी सभा-गोष्ठी के कार्यक्रम में लिए निमंत्रण मिल जाए। निमंत्रण मिलने पर
वीज़ा आसानी से मिल सकता है।''
      ''हम लोग गर्मियों में फंक्शन किया करते हैं, एक इन्वीटेशन भेज देंगे।''
      ''तुम इन्वीटेशन मुझे दे देना, उसके साथ मैं अपनी स्पांसरशिप भी लगा दूँगा ताकि श्योर हो जाए।''
      ''क्या नाम है उसका ? कोई नामी-गिरामी कवयित्री है ?''
      ''शीला स्पैरो।''
      ''वो तो हमारी बढ़िया कवयित्री है, उसको वीज़ा के लिए कौन मना करेगा।''
      ''बात तो तेरी ठीक है पर वहाँ लोगों को यकीन नहीं आता।''
      ''नहीं, वह तो नामी औरत है। पिछले दिनों उसके नाम को लेकर भारतीय साहित्य अकादमी की बहुत आलोचना हुई कि उसको ईनाम क्यों नहीं दिया गया जब कि हकदार वह बहुत समय से है।''
      ''यह बात मैंने भी पढ़ी थी कहीं, शायद आने वाले समय में कभी मिल जाए।''
      ''नहीं, हमारे मुल्क में करप्शन बहुत है। अगर ध्यान से देखें तो औरतों को ईनाम सिर्फ़ जवानी में ही मिलते हैं।'' कहकर परवाना हँसने लगता है। फिर पूछता है-
      ''तेरी रिश्तेदार है ?''
      ''नहीं, मेरे जानकार की परिचित है, पिछली बार गया तो मिली थी। वैसे मेरी क्लास-फैलो भी रही है।''
      ''तू जैसा कहेगा, कर लेंगे। कोई फंक्शन न भी हुआ तो हम वैसे ही लैटर ड्राफ्ट कर लेंगे, तू वरी न कर। इतना ही बहुत है कि तू आज मिला तो सही, वह भी इतने सालों बाद।''
      ''पुराने लोग अब कम ही दिखाई देते हैं। एक दिन गुरजंट सिंह औलख मिला था। कहता था कि साउथाल में परिचितों का अकाल पड़ गया है। पहले सौ आदमी हाथ मिलाने वाले मिल जाया करते थे, अब 'हैलो' कहने के लिए भी चेहरे खोजने पड़ते हैं।''
      ''औलख चलने-फिरने में तगड़ा है। एक ज़माना था जब वह साउथाल को अपनी मिल्कियत समझा करता था। एम.पी. बनने के चांस थे, पर ये छोटू राम आउट-साइड रहकर गोल कर गया और नोमीनेशन जीत गया।''
      ''चलो, यह तो हमारी भारतीय राजनीति का हिस्सा है, दूसरे को टंगड़ी मारना।''
      ''पर औलख के दिमाग में से नेतागिरी का कीड़ा नहीं निकला अभी, तभी तो हर रोज़ पूरे साउथाल का चक्कर लगाता फिरता है।''
      लौटते हुए ग्रेवाल गुरजंट के विषय में सोच रहा है कि अकेलेपन से भागकर ही साउथाल का चक्कर लगाता होगा। उसकी पत्नी भी कई वर्षों से उससे अलग रहती है। वह सोचता है कि वह औलख से कहीं अधिक खुशकिस्मत है कि वह अकेला नहीं। किताबों का उसको बहुत सहारा है।
      घर जाने के लिए वह फिर डेन एवेन्यू पर मुड़ने लगता है, पर तभी उसका मन ब्राडवे का एक चक्कर लगाने के लिए हो आता है। ब्राडवे पर इतनी भीड़ है कि कंधे से कंधा बज रहा है। ऐसी भीड़ की अब उसको आदत नहीं रही। भुनते कबाबों की खुशबू उसको अच्छी लगती है। फुटपाथ पर लगी जलेबियों की रेहड़ी देखकर एक बार उसका दिल करता है कि यहीं खड़े होकर जलेबियाँ खाने लगे। कुछ और आगे जाएगा तो सामने ग्रेवाल इम्पोरियम दिखाई देने लगेगा, पर वह उसके सामने से नहीं गुज़रना चाहता। उसके दोनों भाई सोचेंगे कि वह कमज़ोर पड़ गया है। जिन भाइयों के लिए उसने अपना सबकुछ न्योछावर कर दिया था, उन्होंने उसको बिजनेस में से इस तरह निकाल कर बाहर फेंक दिया जैसे मक्खन में से बाल फेंकते हैं। वह बहुत पहले ही यह फैसला कर चुका है कि उसको स्टोर नहीं चाहिए। शुरू शुरू में वह भाइयों के व्यवहार से बहुत दुखी रहा करता था, पर अब नहीं। स्टोर को उसने कभी अपनी कमज़ोरी नहीं बनने दिया।
      अपने से छोटे गुरजे और सुरजे को संभालते संभालते ही उसने जुगिंदर कौर को खो दिया। भाइयों को इंग्लैंड बुलाया। उनके विवाह किए। घर लेकर दिए। वे काम उसके संग दुकान में ही करते थे। उसने सोचा कि अब वे बिजनेस संभाल सकते हैं, क्यों न वह अपनी पढ़ाई पूरी कर ले। वह दुकान में से ऐसा गया कि दुबारा वहाँ न घुसा। भाइयों ने घुसने ही नहीं दिया। सारा कारोबार खुद संभाल लिया। दुकान हालांकि अभी भी उसके नाम पर ही है, परन्तु शेष सभी काग़ज़ात भाइयों ने अपने नाम पर करवा लिए हैं। भाई समझते हैं कि अब वह कहाँ ले जाएगा। उसके बाद तो सबकुछ उन्हीं का है। फिर भी वे उस पर नज़र रखते हैं कि कहीं दूसरी औरत न ले आए। वे जानते हैं कि कालेज में पढ़ाने के कारण औरतें उसके घर में आती-जाती रहती हैं। जब कोई औरत अधिक दिन रह जाए तो उन्हें चिंता सताने लगती है। आते-जाते वे अपने भाई के घर के सामने से गुज़रते हुए इस बात का ध्यान रखते हैं कि कोई अनजान कार तो उसके घर के सामने नहीं खड़ी है, अगर खड़ी है, तो कितनी देर तक खड़ी रहती है।
      इसी तरह ज्यादा चिंता उन्हें उस वक्त होती है, जब परमिंदर कौर ग्रेवाल के पीछे-पीछे घूमने लगती है। खुद ही ग्रेवाल की तरफ से विवाह के लिए 'हाँ' समझ कर खुश हुई घूमती है और अपना हक बनाने के लिए एक दिन ग्रेवाल इम्पोरियम में जा खड़ी होती है। गुरजे और सुरजे के हाथ-पाँव फूल जाते हैं। एक बार तो उन्हें लगता है कि सबकुछ हाथ से गया। दुकान अभी भी बड़े भाई के नाम है। इन बीते वर्षों के मुनाफे का भी कोई हिसाब-किताब नहीं। वह अपने भाई से मिलने के लिए तैयार होने लगते हैं। उन दोनों ने भाई के संग करने वाली बातें भी तय कर ली हैं। कुछ प्यार, कुछ मिन्नत-विनय और कुछ धमकियाँ। परन्तु बला टल जाती है। परमिंदर कौर समझ जाती है कि ग्रेवाल उससे विवाह नहीं करेगा।
(जारी…)