''साउथाल'' इंग्लैंड में अवस्थित पंजाबी कथाकार हरजीत अटवाल का यह चौथा उपन्यास है। इससे पूर्व उनके तीन उपन्यास - 'वन वे', 'रेत', और 'सवारी' चर्चित हो चुके हैं। ''साउथाल'' इंग्लैंड में एक शहर का नाम है जहाँ अधिकतर भारत से गए सिक्ख और पंजाबी परिवार बसते हैं। यहाँ अवस्थित पंजाबी परिवारों के जीवन को बेहद बारीकी से रेखांकित करता हरजीत अटवाल का यह उपन्यास इसलिए दिलचस्प और महत्वपूर्ण है क्योंकि इसके माध्यम से हम उन भारतीय लोगों की पीड़ा से रू-ब-रू होते हैं जो काम-धंधे और अधिक धन कमाने की मंशा से अपना वतन छोड़ कर विदेशों में जा बसते हैं और वर्षों वहाँ रहने के बावजूद वहाँ की सभ्यता और संस्कृति का हिस्सा नहीं बन पाते हैं।
साउथाल
हरजीत अटवाल
हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव
।।तैंतीस॥
भूपिंदर फिल्मों में मिल रहे काम से खुश है। वह जगमोहन और अन्य मित्रों से फोन पर अपनी यह खुशी साझी करता रहता है। अब संगीत के वीडियो ऐसे बनने लगे हैं कि भूपिंदर जैसे कलाकारों की मांग बढ़ गई है। भूपिंदर उससे पूछता है कि यदि किसी ऐसी वीडियो में काम करना है तो बताए, पर जगमोहन का यह शौक अब पहले जैसा नहीं रहा है। एक्टिंग की बजाय रैड हाउस में बैठकर लोगों को सलाह-मशवरा देना अधिक अच्छा लगता है, परन्तु अब वह भी बन्द हो जाता है। किसी को कानूनी परामर्श देते हुए लगता है कि जैसे वह कुछ हो। उसको अपनी हैसियत बड़ी-बड़ी लगने लगती है। उसको दु:ख है कि यह सब बन्द करना पड़ा। एक बात और कभी-कभी उसको दु:खी करने लगती है कि शाम भारद्वाज ने पुराने मित्रों से एक प्रकार से मुँह मोड़ लिया है।
इन सबसे ऊपर उसको ग्रेवाल की दोस्ती सुहाती है। ग्रेवाल बेशक उम्र में उससे बड़ा है पर दोस्तों की तरह व्यवहार करता है। उम्र के अन्तर को कभी महसूस नहीं होने देता। उसको ग्रेवाल के साथ बैठकर सिगरेटें फूँकना अच्छा लगता है। ग्रेवाल सॉमरसैट एवेन्यू में रहता है जो कि लेडी मार्ग्रेट रोड में से ही निकलती है। वह वहाँ अकेला रहता है। उसकी पत्नी बहुत समय पहले उसको छोड़कर अमेरिका चली गई थी। जगमोहन प्राय: पूछने लग जाता है-
''सर जी, इतनी पहाड़ जैसी ज़िन्दगी अकेले कैसे काट ली ?''
''इन किताबों के सहारे।''
''क्यों ? किताबों के सहारे ही क्यों ? किताबों से आगे कुछ नहीं दिख रहा ?''
''क्योंकि किताबें तुम्हारे साथ दूसरों की तरह झगड़ती नहीं है। ये तुम्हें नीचा नहीं दिखातीं बल्कि तुम्हारी किसी कमी पर उंगली रख कर तुम्हें और पढ़ने के लिए उकसाती है। किताबें ज़ख्म दे जाती हैं पर इनमें दुर्भावना नहीं होती, पर इन्सान तो पूछ न कुछ...।''
ग्रेवाल की पत्नी जुगिंदर कौर उसको सिर्फ़ इसलिए छोड़ गई थी कि वह अपनी सारी कमाई भाइयों को भेजता रहता था। ग्रेवाल बताने लगता है-
''बाप मर गया था और मैं बड़ा था। भाइयों को पढ़ाने का और घर चलाने का सारा जिम्मा मेरा था। जुगिंदर कौर हर समय लड़ती रहती थी। इतना लड़ती कि सिर दीवारों में मारने लगती। दुकान थी हमारी। दुकान में से पैसे चुरा लेती। सिर्फ़ मुझे सबक देने के लिए। फिर एक दिन कोई रिश्तेदार अमेरिका से आया और वह उसके संग चली गई।''
''लौट कर नहीं आई ?''
''क्या लौटना था, तलाक के पेपर आए थे।'' कह कर ग्रेवाल हँसता है।
''कोई बच्चा भी नहीं था ?''
''बच्चे से परहेज़ करते थे हम। थोड़ा सैटल होना चाहते थे। मैं चाहता था कि वह दुकान चलाए और मैं पढ़ूँ।''
''यदि कोई बच्चा होता तो शायद यह सब न होता।''
''नहीं, उसका स्वभाव ऐसा था, उड़ गई।''
''बाद में कोई ख़बर नहीं ?''
''एक बार शुरू-शुरू में ही हवा उड़ी थी कि उसके पास मेरी बच्ची थी, पर मैं श्योर था कि जब यहाँ से गई थी तो ऐसी कोई बात नहीं थी। पर यह तो अब हिस्ट्री है। हिस्ट्री कब्रें होती हैं, कब्रिस्तान से मुझे नफ़रत है।''
''हम सबने कब्रिस्तान ही जाना है।''
''हाँ, मर कर, जिन्दा होते क्यों जाएँ !''
जगमोहन को कोई भी सलाह-मशवरा करना होता है तो ग्रेवाल के पास दौड़ा चला जाता है। प्रीती के बारे में, बॉबी या फिर सुखी के बारे भी बातें करने बैठ जाता है। ग्रेवाल कहता है-
''तू किसी बात को दिल पर लगा लेता है। ये बातें दिल में नहीं, दिमाग में रखा करते हैं। इनके बारे में सोचो और किसी परिणाम पर पहुँचो, कुछ करो। अगर कुछ कर नहीं सकता तो मन में से डिलीट कर दो। दिल पर लगाने से हम कहीं भी नहीं पहुँच सकते।''
''दिल पर तो मैं सिर्फ़ सुखी को लगा बैठा था। असल में, सुखी सुन्दर बहुत थी, लम्बूतरा-सा चेहरा और गोल-गोल कसी हुई टांगें। उसकी टांगों की एक ख़ासियत थी कि उसकी पिंडलियाँ भी सुडौल थीं। नहीं तो एशियन औरतों की पिंडलियाँ पतली होती हैं, तभी तो स्कर्ट पहने भी कई बार अच्छी नहीं लगती।''
''इस बात का कभी इज़हार भी किया उससे ?''
''नहीं, इज़हार क्या करना था, कभी दो शब्द भी साझे नहीं हुए हमारे। जब मछली की तरह दौड़ती पानी में से बाहर निकलती तो एक बार मेरी ओर ज़रूर देख लिया करती थी, पर उस देखने में अपने आप पर किया जाने वाला एक गुरूर होता। पर ये जो उसके लिए फीलिंग्स थीं, ये तो उसके मरने के बाद ही मुझे पता चलीं।''
''शायद उसकी मौत का कारण ही तुझे ज्यादा भावुक कर गया हो।''
''हो सकता है।''
''यंग मैन, भावुक होना मर्दों को काम नहीं। मर्द तो स्टेशन की तरह होना चाहिए, गाड़ी आए, रुके और गुज़र जाए। स्टेशन वहीं का वहीं रहे।''
''स्टेशन तो तुम्हारे जैसा अकेला मर्द ही बन सकता है जिसके पास किस्मत से जॉब भी ऐसी हो कि सवारियाँ आती-जाती रहें।''
यह सुनकर ग्रेवाल ठंडी साँस भरता है और हँसता है। जगमोहन पूछता है-
''कोई स्टेशन मास्टर बनने की कोशिश भी करती थी ?''
''कइयों ने की, पर मैं अस्थायी रिश्तों के हक में हूँ। इस मामले में गोरी औरत स्पष्ट बात करती है। पहले ही टेम्प्रेरी दोस्ती डालती है, पर हमारी औरतों का तो उद्देश ही होता है कि ठांय से विवाह की बात करती हैं। मैं गुरुद्वारे में लेक्चर देने जाता हूँ तो वहाँ बहुत सारी मिल जाती हैं।'' कहते हुए ग्रेवाल फिर हँसता है।
एक दिन जगमोहन पूछता है-
''सर जी, दिल्ली वाली का क्या हुआ ?''
''कौन-सी दिल्ली वाली ?''
''जिसकी खातिर दाढ़ी रंगनी शुरू की थी।''
''अच्छा परमिंदर कौर, वह तो खोखला फॉयर थी, गले पड़ने को घूमती थी। मेरा मकसद दोस्ती करना था या एक रिश्ता कायम करना, पर वह विवाह करवाने के लिए उतावली थी।''
''उसे क्या मालूम कि सर जी की ज़िन्दगी में एंट्री इतनी आसान नहीं।''
''वैसे एक बात थी कि बोलती बहुत धड़ल्ले से थी। वह गुरुद्वारे की स्टेज पर से अपने मन की बात कह जाती थी। दिल्ली के दंगों में उसका पति और पुत्र मारे गए थे। यहाँ से दिल्ली दंगों के लिए हज़ारों पाउंड इकट्ठे हुए, पर सही लोगों तक कुछ नहीं पहुँचा था, वह यह बात निडर हो कर कह जाती थी। कई बार खालिस्तानियों के मंच पर से उनकी ही आलोचना कर जाती थी।''
''आजकल कहाँ है ?''
''आजकल एक बूढ़े ग्रंथी के साथ विवाह करवाकर यहाँ स्थायी हो गई है। किसी गुरुद्वारे में पंजाबी पढ़ाती है।''
एक शाम जगमोहन ग्रेवाल के घर आता है। उसके हाथ में इस हफ्ते का 'वास-परवास' अखबार है। वह ग्रेवाल को सूट, टाई और पगड़ी में बैठा देखकर प्रश्न करता है-
''सर जी, अभी ही आए हो ?''
''नहीं, चार बजे ही आ गया था।''
''कहीं जाने की तैयारी लगती है।''
''नहीं, कहीं नहीं जाना। अब तो खा-पी कर सोना ही है।''
''फिर यह घोड़े की तरह तैयारी क्यों कर रखी है ?''
''पहले अन्दर आ जा।''
जगमोहन उसके पीछे-पीछे फ्रंट रूम में आ जाता है। ग्रेवाल कहता है-
''यह तो मैंने सोचा ही नहीं। मैं कालेज से लौटकर टी.वी. के सामने बैठ गया और बस बैठा ही रहा।''
''चाय पी है आकर ?''
''नहीं, चाय भी नहीं और पानी भी नहीं। मुझे तो लगता है कि मैंने टेलीविज़न ऑन किया और यह यूँ ही चले जा रहा है। मुझे तो यह भी याद नहीं कि इतनी देर कौन-सा प्रोग्राम देखा मैंने।''
''सर जी, तुम तो गए काम से ! देखना, कभी ऐसे ही अकेले बैठे रह जाओगे।''
''हाँ यार, अब लगता है कि कोई हो जो चाय बनाकर दे, पानी का गिलास पकड़ाए। जैसे-जैसे उम्र बढ़ रही है किसी की ज़रूरत महसूस होने लगी है।''
''फिर देखें कोई ?''
''अब तो अगली दुनिया में ही देखेंगे।''
कह कर ग्रेवाल हँसने लगता है। जगमोहन 'वास-परवास' अखबार खोलता है।
''मैंने तुम्हारा लेख पढ़ा। अवचेतन कैसे काम करता है। मैं ख़बरों और चुटकलों के अलावा कुछ नहीं पढ़ा करता, पर तुम्हारा लेख पूरा पढ़ गया।''
''तू पढ़ने की आदत डाल, यह बहुत अच्छी आदत है। अपने बेटों को भी पढ़ने के लिए प्रेरित कर।''
कहते हुए ग्रेवाल उठ कर उसको एक किताब देते हुए कहता है-
''ले, इसे पढ़। यह रोज़ाना की ज़िन्दगी के बारे में है। तुझे पसन्द आएगी।''
''कहाँ पढ़ पाऊँगा। तुम्हारी कोई लिखी हुई हो तो दे दो।''
''मैं इतना कहाँ लिखता हूँ। यह तो ज्ञानेन्द्र मेरा पुराना मित्र है और कभी-कभी कुछ लिखने के लिए आदेश दे देता है।''
''तुम्हारा मित्र तो खालिस्तान का माउथपीस बनकर रह गया।''
''माउथपीस नहीं किसी का। जो बात उसको अच्छी लगे, वही करता है। अब उसने खालिस्तान से भी मुँह मोड़ लिया है। इनके अब कई ग्रुप बन गए हैं और एक-दूसरे से दुश्मनी किए जाते हैं। ज्ञानेन्द्र भी ऐसी ही दुश्मनी का शिकार हुआ बैठा है। ये ग्रुप एक-दूसरे के शत्रु बने बैठे हैं।''
ग्रेवाल अभी बात कर ही रहा है कि टेलीविज़न पर समाचार शुरू हो जाते हैं। पहला समाचार है कि ज्ञानेन्द्र का क़त्ल हो गया है। वे दोनों एक-दूजे के मुँह की ओर फटी नज़रों से देखने लगते हैं।
(जारी…)
हरजीत अटवाल
हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव
।।तैंतीस॥
भूपिंदर फिल्मों में मिल रहे काम से खुश है। वह जगमोहन और अन्य मित्रों से फोन पर अपनी यह खुशी साझी करता रहता है। अब संगीत के वीडियो ऐसे बनने लगे हैं कि भूपिंदर जैसे कलाकारों की मांग बढ़ गई है। भूपिंदर उससे पूछता है कि यदि किसी ऐसी वीडियो में काम करना है तो बताए, पर जगमोहन का यह शौक अब पहले जैसा नहीं रहा है। एक्टिंग की बजाय रैड हाउस में बैठकर लोगों को सलाह-मशवरा देना अधिक अच्छा लगता है, परन्तु अब वह भी बन्द हो जाता है। किसी को कानूनी परामर्श देते हुए लगता है कि जैसे वह कुछ हो। उसको अपनी हैसियत बड़ी-बड़ी लगने लगती है। उसको दु:ख है कि यह सब बन्द करना पड़ा। एक बात और कभी-कभी उसको दु:खी करने लगती है कि शाम भारद्वाज ने पुराने मित्रों से एक प्रकार से मुँह मोड़ लिया है।
इन सबसे ऊपर उसको ग्रेवाल की दोस्ती सुहाती है। ग्रेवाल बेशक उम्र में उससे बड़ा है पर दोस्तों की तरह व्यवहार करता है। उम्र के अन्तर को कभी महसूस नहीं होने देता। उसको ग्रेवाल के साथ बैठकर सिगरेटें फूँकना अच्छा लगता है। ग्रेवाल सॉमरसैट एवेन्यू में रहता है जो कि लेडी मार्ग्रेट रोड में से ही निकलती है। वह वहाँ अकेला रहता है। उसकी पत्नी बहुत समय पहले उसको छोड़कर अमेरिका चली गई थी। जगमोहन प्राय: पूछने लग जाता है-
''सर जी, इतनी पहाड़ जैसी ज़िन्दगी अकेले कैसे काट ली ?''
''इन किताबों के सहारे।''
''क्यों ? किताबों के सहारे ही क्यों ? किताबों से आगे कुछ नहीं दिख रहा ?''
''क्योंकि किताबें तुम्हारे साथ दूसरों की तरह झगड़ती नहीं है। ये तुम्हें नीचा नहीं दिखातीं बल्कि तुम्हारी किसी कमी पर उंगली रख कर तुम्हें और पढ़ने के लिए उकसाती है। किताबें ज़ख्म दे जाती हैं पर इनमें दुर्भावना नहीं होती, पर इन्सान तो पूछ न कुछ...।''
ग्रेवाल की पत्नी जुगिंदर कौर उसको सिर्फ़ इसलिए छोड़ गई थी कि वह अपनी सारी कमाई भाइयों को भेजता रहता था। ग्रेवाल बताने लगता है-
''बाप मर गया था और मैं बड़ा था। भाइयों को पढ़ाने का और घर चलाने का सारा जिम्मा मेरा था। जुगिंदर कौर हर समय लड़ती रहती थी। इतना लड़ती कि सिर दीवारों में मारने लगती। दुकान थी हमारी। दुकान में से पैसे चुरा लेती। सिर्फ़ मुझे सबक देने के लिए। फिर एक दिन कोई रिश्तेदार अमेरिका से आया और वह उसके संग चली गई।''
''लौट कर नहीं आई ?''
''क्या लौटना था, तलाक के पेपर आए थे।'' कह कर ग्रेवाल हँसता है।
''कोई बच्चा भी नहीं था ?''
''बच्चे से परहेज़ करते थे हम। थोड़ा सैटल होना चाहते थे। मैं चाहता था कि वह दुकान चलाए और मैं पढ़ूँ।''
''यदि कोई बच्चा होता तो शायद यह सब न होता।''
''नहीं, उसका स्वभाव ऐसा था, उड़ गई।''
''बाद में कोई ख़बर नहीं ?''
''एक बार शुरू-शुरू में ही हवा उड़ी थी कि उसके पास मेरी बच्ची थी, पर मैं श्योर था कि जब यहाँ से गई थी तो ऐसी कोई बात नहीं थी। पर यह तो अब हिस्ट्री है। हिस्ट्री कब्रें होती हैं, कब्रिस्तान से मुझे नफ़रत है।''
''हम सबने कब्रिस्तान ही जाना है।''
''हाँ, मर कर, जिन्दा होते क्यों जाएँ !''
जगमोहन को कोई भी सलाह-मशवरा करना होता है तो ग्रेवाल के पास दौड़ा चला जाता है। प्रीती के बारे में, बॉबी या फिर सुखी के बारे भी बातें करने बैठ जाता है। ग्रेवाल कहता है-
''तू किसी बात को दिल पर लगा लेता है। ये बातें दिल में नहीं, दिमाग में रखा करते हैं। इनके बारे में सोचो और किसी परिणाम पर पहुँचो, कुछ करो। अगर कुछ कर नहीं सकता तो मन में से डिलीट कर दो। दिल पर लगाने से हम कहीं भी नहीं पहुँच सकते।''
''दिल पर तो मैं सिर्फ़ सुखी को लगा बैठा था। असल में, सुखी सुन्दर बहुत थी, लम्बूतरा-सा चेहरा और गोल-गोल कसी हुई टांगें। उसकी टांगों की एक ख़ासियत थी कि उसकी पिंडलियाँ भी सुडौल थीं। नहीं तो एशियन औरतों की पिंडलियाँ पतली होती हैं, तभी तो स्कर्ट पहने भी कई बार अच्छी नहीं लगती।''
''इस बात का कभी इज़हार भी किया उससे ?''
''नहीं, इज़हार क्या करना था, कभी दो शब्द भी साझे नहीं हुए हमारे। जब मछली की तरह दौड़ती पानी में से बाहर निकलती तो एक बार मेरी ओर ज़रूर देख लिया करती थी, पर उस देखने में अपने आप पर किया जाने वाला एक गुरूर होता। पर ये जो उसके लिए फीलिंग्स थीं, ये तो उसके मरने के बाद ही मुझे पता चलीं।''
''शायद उसकी मौत का कारण ही तुझे ज्यादा भावुक कर गया हो।''
''हो सकता है।''
''यंग मैन, भावुक होना मर्दों को काम नहीं। मर्द तो स्टेशन की तरह होना चाहिए, गाड़ी आए, रुके और गुज़र जाए। स्टेशन वहीं का वहीं रहे।''
''स्टेशन तो तुम्हारे जैसा अकेला मर्द ही बन सकता है जिसके पास किस्मत से जॉब भी ऐसी हो कि सवारियाँ आती-जाती रहें।''
यह सुनकर ग्रेवाल ठंडी साँस भरता है और हँसता है। जगमोहन पूछता है-
''कोई स्टेशन मास्टर बनने की कोशिश भी करती थी ?''
''कइयों ने की, पर मैं अस्थायी रिश्तों के हक में हूँ। इस मामले में गोरी औरत स्पष्ट बात करती है। पहले ही टेम्प्रेरी दोस्ती डालती है, पर हमारी औरतों का तो उद्देश ही होता है कि ठांय से विवाह की बात करती हैं। मैं गुरुद्वारे में लेक्चर देने जाता हूँ तो वहाँ बहुत सारी मिल जाती हैं।'' कहते हुए ग्रेवाल फिर हँसता है।
एक दिन जगमोहन पूछता है-
''सर जी, दिल्ली वाली का क्या हुआ ?''
''कौन-सी दिल्ली वाली ?''
''जिसकी खातिर दाढ़ी रंगनी शुरू की थी।''
''अच्छा परमिंदर कौर, वह तो खोखला फॉयर थी, गले पड़ने को घूमती थी। मेरा मकसद दोस्ती करना था या एक रिश्ता कायम करना, पर वह विवाह करवाने के लिए उतावली थी।''
''उसे क्या मालूम कि सर जी की ज़िन्दगी में एंट्री इतनी आसान नहीं।''
''वैसे एक बात थी कि बोलती बहुत धड़ल्ले से थी। वह गुरुद्वारे की स्टेज पर से अपने मन की बात कह जाती थी। दिल्ली के दंगों में उसका पति और पुत्र मारे गए थे। यहाँ से दिल्ली दंगों के लिए हज़ारों पाउंड इकट्ठे हुए, पर सही लोगों तक कुछ नहीं पहुँचा था, वह यह बात निडर हो कर कह जाती थी। कई बार खालिस्तानियों के मंच पर से उनकी ही आलोचना कर जाती थी।''
''आजकल कहाँ है ?''
''आजकल एक बूढ़े ग्रंथी के साथ विवाह करवाकर यहाँ स्थायी हो गई है। किसी गुरुद्वारे में पंजाबी पढ़ाती है।''
एक शाम जगमोहन ग्रेवाल के घर आता है। उसके हाथ में इस हफ्ते का 'वास-परवास' अखबार है। वह ग्रेवाल को सूट, टाई और पगड़ी में बैठा देखकर प्रश्न करता है-
''सर जी, अभी ही आए हो ?''
''नहीं, चार बजे ही आ गया था।''
''कहीं जाने की तैयारी लगती है।''
''नहीं, कहीं नहीं जाना। अब तो खा-पी कर सोना ही है।''
''फिर यह घोड़े की तरह तैयारी क्यों कर रखी है ?''
''पहले अन्दर आ जा।''
जगमोहन उसके पीछे-पीछे फ्रंट रूम में आ जाता है। ग्रेवाल कहता है-
''यह तो मैंने सोचा ही नहीं। मैं कालेज से लौटकर टी.वी. के सामने बैठ गया और बस बैठा ही रहा।''
''चाय पी है आकर ?''
''नहीं, चाय भी नहीं और पानी भी नहीं। मुझे तो लगता है कि मैंने टेलीविज़न ऑन किया और यह यूँ ही चले जा रहा है। मुझे तो यह भी याद नहीं कि इतनी देर कौन-सा प्रोग्राम देखा मैंने।''
''सर जी, तुम तो गए काम से ! देखना, कभी ऐसे ही अकेले बैठे रह जाओगे।''
''हाँ यार, अब लगता है कि कोई हो जो चाय बनाकर दे, पानी का गिलास पकड़ाए। जैसे-जैसे उम्र बढ़ रही है किसी की ज़रूरत महसूस होने लगी है।''
''फिर देखें कोई ?''
''अब तो अगली दुनिया में ही देखेंगे।''
कह कर ग्रेवाल हँसने लगता है। जगमोहन 'वास-परवास' अखबार खोलता है।
''मैंने तुम्हारा लेख पढ़ा। अवचेतन कैसे काम करता है। मैं ख़बरों और चुटकलों के अलावा कुछ नहीं पढ़ा करता, पर तुम्हारा लेख पूरा पढ़ गया।''
''तू पढ़ने की आदत डाल, यह बहुत अच्छी आदत है। अपने बेटों को भी पढ़ने के लिए प्रेरित कर।''
कहते हुए ग्रेवाल उठ कर उसको एक किताब देते हुए कहता है-
''ले, इसे पढ़। यह रोज़ाना की ज़िन्दगी के बारे में है। तुझे पसन्द आएगी।''
''कहाँ पढ़ पाऊँगा। तुम्हारी कोई लिखी हुई हो तो दे दो।''
''मैं इतना कहाँ लिखता हूँ। यह तो ज्ञानेन्द्र मेरा पुराना मित्र है और कभी-कभी कुछ लिखने के लिए आदेश दे देता है।''
''तुम्हारा मित्र तो खालिस्तान का माउथपीस बनकर रह गया।''
''माउथपीस नहीं किसी का। जो बात उसको अच्छी लगे, वही करता है। अब उसने खालिस्तान से भी मुँह मोड़ लिया है। इनके अब कई ग्रुप बन गए हैं और एक-दूसरे से दुश्मनी किए जाते हैं। ज्ञानेन्द्र भी ऐसी ही दुश्मनी का शिकार हुआ बैठा है। ये ग्रुप एक-दूसरे के शत्रु बने बैठे हैं।''
ग्रेवाल अभी बात कर ही रहा है कि टेलीविज़न पर समाचार शुरू हो जाते हैं। पहला समाचार है कि ज्ञानेन्द्र का क़त्ल हो गया है। वे दोनों एक-दूजे के मुँह की ओर फटी नज़रों से देखने लगते हैं।
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