समकालीन पंजाबी साहित्य की उत्कृष्ट कृतियों की तलाश

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Sunday, July 29, 2012

आत्मकथा





एक नेत्रहीन लेखक की आत्मकथा
धृतराष्ट्र
डॉ. एस. तरसेम
हिन्दी अनुवाद : सुभाष नीरव
चैप्टर-29

कालेज मेरा पहला दिन

वैसे तो लेक्चरर के तौर पर कालेज में मेरा पहला दिन 31 दिसम्बर 1981 से शुरू हो गया था परन्तु असली पहला दिन मैं उसको समझता हूँ, जब मैं पहली बार पढ़ाने के लिए कालेज गया। इससे पहले कुछ दिन मुझे क्लास में जाने की आवश्यकता नहीं पड़ी थी, क्योंकि दिसम्बर-जनवरी टैस्ट चल रहे थे और ये टैस्ट ही कालेज में विद्यार्थियों के यूनिवर्सिटी परीक्षा में बैठने के लिए आधार थे, अब भी हैं। मेरी इस परीक्षा में ड्यूटी नहीं लगी थी। कारण स्पष्ट है कि मैं एक निरीक्षक के तौर पर परीक्षा में काम कर ही नहीं सकता था। इसलिए मैं समय पर कालेज तो आता। दफ्तर के बरामदे के सामने बैडमिंटन कोर्ट के दोनों ओर सीमेंट के बैंच बने हुए थे, उन्हीं बैंचों में से किसी एक बैंच पर बैठ जाता। कालेज में लेक्चरर की हाज़िरी नहीं लगा करती थी। डा. हरमंदर सिंह दिओल उन दिनों में कालेज के प्रिंसीपल थे। मेरा तीसरा कहानी संग्रह ''पाटिया दुध'' अभी छप कर आया ही थाजब उन्होंने एक दिन मुझे अपने दफ्तर में बुलाया, मैंने अपना कहानी संग्रह ''पाटिया दुध'' उन्हें भेंट कर दिया। किताब लेकर वे बहुत प्रसन्न हुए। मुझे बाद में पता चला कि दिओल साहब खुद भी पढ़ने और लिखने का शौक रखते हैं। उनकी मानववादी पहुँच का उल्लेख करना यहाँ बहुत ज़रूरी है।
      प्रो. सरबजीत सिंह गिल पंजाबी विभाग के हैड थे। प्रो. स.स. पदम इस विभाग में उससे अगले स्थान पर थे। पदम साहिब बरनाला के होने के कारण मेरे पहले ही परिचित थे। वैसे भी, वह स्वयं साहित्यकार होने के कारण मेरे साथ दिल से मोह रखते थे। जब कर्मचंद ऋषि और मैं धौला में एक ही घर में रहा करते थे, उस समय अक्सर ऋषि से पदम साहिब का चिट्ठी-पत्र चलता रहता था। जब चिट्ठी-पत्र की वे यादें मैंने पदम साहिब को ताज़ा करवाईं तो वह मुझसे और अधिक मोह करने लग पड़े।
      कालेज के कमरा नंबर 9 में कई वरिष्ठ लेक्चरर और पदम साहिब खाली पीरियडों में आकर बैठा करते थे। मुझे दो-चार दिन में ही पता चल गया था कि पदम साहिब यद्यपि कालेज में वरिष्ठता के लिहाज़ से पाँचवे-छठे नंबर पर हैं, पर प्रभाव के तौर पर वह कालेज में प्रमुख हैं। उनके द्वारा मुझे खाली समय में 9 नंबर कमरे में बैठने के लिए कहना मेरे लिए बहुत बड़ी बात थी। एक एडहॉक नेत्रहीन लेक्चरर को 75 लेक्चररों में इतने वरिष्ठ स्टाफ में बैठने का अवसर मिलना कोई छोटी बात नहीं थी।
      घरेलू परीक्षा के तुरन्त बाद कक्षाएँ प्रारंभ हो गई थीं। मुझे अधिकांश पीरियड बी.ए. भाग दो तक ही दिए गए और वे भी अनिवार्य पंजाबी के, पंजाबी लिटरेचर के नहीं। दूसरे पीरियड से मेरा टाइम टेबल शुरू होता था। यह पीरियड प्रैप के 'पंजाबी अनिवार्य' के विषय का था। यह कक्षा दफ्तर से कुछ दूर एक दरख्त के नीचे लगा करती थी। कमरों के अभाव के कारण पंजाब की बहुत की कक्षाएँ उन दिनों कमरों से बाहर ही लगा करती थीं। इस कक्षा में मेरी एक भान्जी नीरजा भी पढ़ती थी। उसकी सहेली पाली अक्सर नीरजा के संग घर आ जाती थी। मैंने मालेरकोटला आकर अपना ठिकाना बहन के घर को ही बनाया था। उनके कारण ही मैंने मालेरकोटला कालेज में नियुक्ति करवाई थी। जीजा जी का निधन हो जाने के कारण घर में मेरी बहन चन्द्र कांता के अलावा प्रैप अर्थात ग्यारहवीं में पढ़ने वाली मेरी यह भान्जी नीरजा और लड़कियों के जैन कालेज में पढ़ती मेरी बड़ी भान्जी सुनंदा थी। बहन का बड़ा बेटा और सबसे छोटा बेटा मुम्बई में कारोबार करते थे और बीच वाला बेटा उस समय एम.बी.बी.एस. करके कहीं बाहर नौकरी करता था। इसलिए मेरा उनके यहाँ रहना उनको एक सहारा महसूस होता था और मुझे अपनी बहन के पास रहना बिलकुल पराया नहीं लगता था।
      पाली और नीरजा को मैंने पहले ही बता दिया था कि मुझे वही टाइम टेबल मिला है जो पहले किरपाल सिंह के पास था। इसलिए जब पंजाबी विभाग के हैड प्रैप को यह बताने के लिए गए कि प्रो. किरपाल सिंह की जगह अब प्रो. एस. तरसेम उन्हें पढ़ाया करेंगे, तो उन्होंने मेरी नेत्रहीनता के विषय में भी विद्यार्थियों को बता दिया। यह सुनकर विद्यार्थियों में खुसुर-पुसुर शुरू हो गई और एक लड़का जिसका नाम शायद विनोद धीर था, कुछ अधिक ही उच्छृंखल होकर बोला कि ब्लाइंड आदमी हमें क्या पढ़ा सकता है। पाली जिसका पूरा नाम हरपाल कौर था, खड़ी होकर कहने लगी कि हमें पढ़कर देख लेना चाहिए, अगर अच्छा पढ़ाएँगे तो इसमें क्या हर्ज़ है कि यह ब्लाइंड हैं। दूसरे शब्दों में पाली ने बड़ी जुगत से मेरा पक्ष लिया था। दरख्त के नीचे से विद्यार्थी उठकर हैड के पीछे-पीछे बैडमिंटन कोर्ट के पक्के फर्श पर आ बैठे। मैंने हैड की आमद पर विभाग का हैड होने के नाते उनका आदर किया। वहाँ आकर भी हैड ने मेरी शैक्षिक योग्यता और मेरे छपे तीन कहानी संग्रहों और सैकड़ों कविताओं/ग़ज़लों के संबंध में विद्यार्थियों को बताया और फिर स्वयं चले गए।
      मेरे लिए यह परीक्षा की घड़ी थी। मैं समझता था कि इसमें पास होना मेरे लिए बेहद आवश्यक है। पहले कभी भी मैं ऐसे अवसरों पर डोला नहीं था। अब भी मैंने लेक्चर शुरू करने से पहले विद्यार्थियों को अपना संक्षिप्त सा परिचय देने के पश्चात पूछा कि किस पाठ्य-पुस्तक में से, कहाँ से पढ़ना है। वही विद्यार्थी धीर जो पहले हैड द्वारा मेरे बारे में बताये जाने पर मुझसे पढ़ने से इन्कार कर रहा था, उसी ने कहा कि कविता पढ़नी है - ताजमहल। यह मेरी खुशकिस्मती ही समझो कि मैंने ज्ञानी और पंजाबी की एम.ए. करते समय प्रो. मोहन सिंह की चुनिंदा कविताओं की पुस्तकें पढ़ रखी थीं। सबब से यह पूरी की पूरी कविता मुझे ज़बानी याद थी। इसलिए इस कविता को पढ़ाने के लिए मेरी नेत्रहीनता कोई रुकावट नहीं बन सकती थी। मैंने पहले प्रो. मोहन सिंह के जीवन के बारे में बहुत कुछ बताया और फिर क्रमवार प्रो.मोहन सिंह के काव्य-संग्रहों की सूची ज़बानी बता दी। यह भी बताया कि मोहन सिंह एक प्रगतिशील कवि हैं और प्रगतिशील लेखक किसे कहा जाता है, इस विषय में भी ग्यारहवीं के पेपर को सामने रखकर संक्षेप में जानकारी दी। फिर मुगल बादशाह शाहजहाँ के ताज महल बनाने की पृष्ठभूमि भी बहुत ही सरल और संक्षिप्त रूप में बताई। साथ यह भी बता दिया कि 'ताज महल' को लेकर कविताएँ और भी कवियों ने लिखी हैं, क्योंकि मैं जानता था कि इस कक्षा में कुछ विद्यार्थी मुसलमान ज़रूर होंगे, जिन्हें उर्दू साहित्य के बारे में जानकारी अवश्य होगी। इसलिए साहिर लुधियानवी की कविता 'ताज महल' के विषय में भी बताया और यह भी बताया कि प्रो. मोहन सिंह और साहिर की इस कविता में एक साझी बात यह है कि पैसे और ताकत के ज़ोर पर शाहजहाँ ने उस समय गरीब मिस्त्रियों और मज़दूरों पर जुल्म ढाह कर अपनी पत्नी मुमताज़ महल की यह यादगार बनवाई थी। चूंकि शाहजहां ने अपनी प्रजा से मुहब्बत की अपेक्षा अपनी पत्नी से मुहब्बत को अधिक आंका, इसलिए ये दोनों कवि इस अद्भुत और सुन्दर इमारत को सुन्दर नहीं मानते और यह कहकर मैंने पहले साहिर की कविता 'ताज महल' का यह शेर सुनाया :
     
इक शहनशाह ने दौलत का सहारा लेकर
      हम ग़रीबों की मुहब्बत का उड़ाया है मज़ाक

      इस शेर के अर्थ भी बताये और फिर पाठ्य-पुस्तक में शामिल कविता का मूल पाठ शुरू कर दिया। 
      अभी मैं पहले बंद के अर्थ और उसकी व्याख्या करने ही लगा था कि घंटी बज गई। जितना समय मैं बोलता रहा, बच्चे गेहूँ के घुन की भाँति निश्चल-से बैठे रहे। मैं महसूस करता था कि मेरा जादू चल गया है। विद्यार्थियों की उस दिन मैंने हाज़िरी नहीं लगाई थी और उनसे कहा था कि वे इस पीरियड के लिए यहीं पर आएँ।
      विभाग का हैड मेरी बांह पकड़कर मुझे दफ्तर में ले गया। बरामदे में अध्यापक और विद्यार्थी आ जा रहे होंगे, यह अहसास मुझे उनके पदचापों से लगा था। हैड ने प्रिंसीपल दिओल के सम्मुख मेरी बहुत प्रशंसा की। शायद मेरे लेक्चर का कुछ हिस्सा प्रिंसीपल साहिब ने भी सुना हो, क्योंकि मेरे कक्षा-अनुशासन की प्रशंसा वह भी कर रहे थे।
      टाइम टेबल के अनुसार मैंने शेष तीन दिन और पीरियड लिए। बाकी कक्षाओं को भी उसी तरह लेक्चर दिया जैसे प्रैप को दिया था।
      स्टाफ रूम में हाज़िरी लगाने के बाद मैं 9 नंबर कमरे में चला गया था और वहाँ से मुझे किसी विद्यार्थी के संग पदम साहिब के घर भेज दिया गया था।
      मेरे जाने से पहले ही नीरजा और पाली घर पहुँच चुकी थीं। दोनों बहुत खुश थीं। उन्होंने मुझे बताया कि कालेज में बहुत सारे अध्यापकों, सभी क्लर्कों, लड़कियों के कॉमन रूम और बरामदे में सैकड़ों विद्यार्थियों ने मेरा लेक्चर सुना था। मुझे ऐसा महसूस हुआ कि जैसे मैं तमाशा दिखाने वाला कोई मदारी या सरकस का कोई अद्भुत जीव होऊँ, जिसकी कलाबाज़ियों को देखने के लिए कालेज के विद्यार्थी और स्टाफ दूर-करीब खड़े होकर तमाशा देखने आए थे। मैं तमाशा बढ़िया दिखा रहा था और इस तमाशे की सफलता ने मुझे इस कालेज के सफल अध्यापक होने का सर्टिफिकेट दे दिया था।
(जारी)

Thursday, July 19, 2012

पंजाबी उपन्यास



''साउथाल'' इंग्लैंड में अवस्थित पंजाबी कथाकार हरजीत अटवाल का यह चौथा उपन्यास है। इससे पूर्व उनके तीन उपन्यास - 'वन वे', 'रेत', और 'सवारी' चर्चित हो चुके हैं। ''साउथाल'' इंग्लैंड में एक शहर का नाम है जहाँ अधिकतर भारत से गए सिक्ख और पंजाबी परिवार बसते हैं। यहाँ अवस्थित पंजाबी परिवारों के जीवन को बेहद बारीकी से रेखांकित करता हरजीत अटवाल का यह उपन्यास इसलिए दिलचस्प और महत्वपूर्ण है क्योंकि इसके माध्यम से हम उन भारतीय लोगों की पीड़ा से रू-ब-रू होते हैं जो काम-धंधे और अधिक धन कमाने की मंशा से अपना वतन छोड़ कर विदेशों में जा बसते हैं और वर्षों वहाँ रहने के बावजूद वहाँ की सभ्यता और संस्कृति का हिस्सा नहीं बन पाते हैं।

साउथाल
हरजीत अटवाल

हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव

। पैंतीस ॥




प्रदुमण सिंह के चलते बिजनेस से यदि किसी को ईर्ष्या है तो वह है कारा। कारा पहले से ही सैटिल है। लाखों की बात करता है पर प्रदुमण पुन: ए.बी.सी. से ज़िन्दगी प्रारंभ करके उसके बराबर जा खड़ा होता है। उसको अच्छा नहीं लग रहा। अब उसे यह इंश्योरेंस का काम छोटा लगने लग पड़ा है।


      इस काम में उसका मन नहीं लग रहा। कई बार वह दफ्तर भी नहीं जाता। दफ्तर के काम के लिए एक अंग्रेज मैनेजर रखा हुआ है। एक लड़का और एक लड़की भी है। फिर उसकी पत्नी सुरजीत भी आ जाती है। स्वयं तो वह खाली-सा ही रहता है। साउथाल की अंदरूनी सियासत में सक्रिय रहता है, पर उभर कर बाहर नहीं आता।
      पर जब प्रदुमण सिंह किसी औरत को संग बिठाकर उससे मिलता है तो उसकी ईर्ष्या और अधिक बढ़ जाती है। वह कहने लगता है-
      ''दुश्मन, ये क्या हारी-सी औरतें लिए घूमता है। जा, जाकर मसाज करवा, कोई नई दुनिया देख।''
      ''नहीं भाई कारे, उन औरतों के पास रोज़ के पचास लोग आते हैं।''
      ''हाँ, ये तो सिर्फ तेरे लिए ही पैदा हुई हैं। दुश्मन, बात सर्विस की है, पैसे ख़र्च कर और बढ़िया सर्विस ले। ज़िन्दगी सिर्फ़ पेट घिसाई ही नहीं है।''
      प्रदुमण सिर्फ़ मुस्करा भर देता है। उसने पैसे बहुत मेहनत से कमाए हैं। इतनी मुश्किल से कमाये पैसों को बर्बाद कैसे कर सकता है। कारा को बड़े-बड़े रेस्तरांओं में या बीयर-बारों में जाने का शौक है, पर प्रदुमण ऐसी जगहों पर जाने से बचता है। वह यूँ भी कारा के दायरे वाले दोस्तों में जाने से झिझकता रहता है। वे सभी बड़े-बड़े लोग हैं, बड़ी बातें करने वाले।
      कारा का एक दोस्त है मनीष पटेल। वह एक दिन कहता है-
      ''मिस्टर राय, एक होटल बिकाऊ है। फिफ्टी रूम्ज़। बेअज़ वॉटर के एरिये में।''
      ''कितने में ?''
      ''एक मिलियन।''
      ''बहुत ज्यादा है।''
      ''हाँ, बट इट'स अपोजिट टू हाइड पॉर्क। पता है न उस जगह पर क्या प्राइसेज हैं प्रॉपर्टी के ?''
      ''हाँ, पर...।''
      वह बात बीच में ही छोड़ देता है। होटल खरीदने के बारे में तो वह काफ़ी सयम से सोच रहा है। होटल के मालिक को होटलियर कहते हैं। उसकी तमन्ना रही है कि लोग कहें -''वह है बलकार सिंह राय, होटलियर।'' इस होटल की कीमत उसकी पहुँच से बाहर की है, पर वह भीतर से बहुत उत्सुक बल्कि उत्तेजित है। वह पूछता है-
      ''पटेल, तुमने देखा है क्या ?''
      ''देखा है, मैं लेना भी चाहता हूँ, मगर मेरे अकेले के लिए कठिन है।''
      कारे का एकदम से मन बन जाता है कि देखी जाएगी, जो होगा। वह कहता है-
      ''तो फिर फिफ्टी-फिफ्टी ?''
      ''डन।''
      ''चलो, होटल देखते हैं, किसी एक्सपर्ट की राय लेते हैं।''
      ''वो तो अकाउंट्स हैं पिछले पाँच साल के, उसी से आमदनी का पता चल जाएगा।''
      ''ठीक है अकाउंट्स तो अकाउंटेंट को दिखा देंगे, पर किसी एक्सपर्ट की राय भी चाहिए।''
      अगले दिन ही वे एजेंट से जा मिलते हैं। एजेंट कहता है -
      ''मि. राय, जाकर मार्केट की स्टडी करो, यह होटल हॉफ मिलियन सस्ता है।''
      ''सस्ता क्यों है ?''
      ''क्योंकि यह कंपनी इस मुल्क में स्थित अपने सभी होटल बेच रही है और अमेरिका मूव हो रही है।''
      मनीष पटेल और कारा पूरा होटल घूम कर देखते हैं। अधिकतर कमरे भरे हुए हैं। जो कमरे खाली हैं, उनको वे अन्दर से देखते हैं। उन्हें सब ठीक लगता है। कारा तो यही सोचता जा रहा है कि एक कमरा वह अपने लिए सुरक्षित रखेगा जहाँ वह दुम्मण जैसों को बुलाकर अपना रौब डाला करेगा। थोड़ा काम चला तो मनीष से उसका हिस्सा खरीद लेगा या फिर अपना हिस्सा उसको बेचकर दूसरा होटल ले लेगा। अपने पुत्र को भी इसी बिजनेस में ही सैटल करेगा।
      मनीष कहता है-
      ''चलो, किसी ऐसे आदमी से एडवाइज़ लेते हैं जिसको इस काम की जानकारी है।''
      ''मेरा एक दोस्त है मि. आनन्द, उसके पास दो होटल हैं। उससे बात करते हैं, उसको दिखाते हैं।''
      कारा मि. आनन्द से बात करके उस एजेंट को फोन करता है जिसके माध्यम से यह होटल बिक रहा है। वह कहता है-
      ''हमें होटल देखने के लिए एप्वाइंटमेंट चाहिए। हम किसी दोस्त को दिखलाना चाहते हैं।''
      ''बताओ कब आना चाहते हो ? पर एक बात बता दूँ कि यह होटल सस्ता बिक रहा है, यदि किसी ने आपसे अधिक रकम की पेशकश की तो हम उसको बेच देंगे।''
      कारा समझ जाता है कि एजेंट का इशारा है कि यदि किसी अन्य को होटल दिखलाया गया तो हो सकता है कि वही हमसे अधिक रकम की पेशकश कर दे। फिर मि. आनन्द तो है ही तेज़ आदमी। मनीष पटेल भी किसी अन्य से सलाह करने के हक में नहीं है। वह कहता है-
      ''राय, तुम अपने बैंक से बात करो, मैं अपने से करता हूँ। देखते हैं कि कितना लोन मिल सकता है।''
      ''ओ भाई, लोन की वरी मत कर, साले मैनेजर को इतनी पार्टियाँ किसलिए देता हूँ।''
      कारा का बैंक वैस्टमिनस्टर बैंक है और उसका मैनेजर डेविड कैलाहन कारा का खास दोस्त है। डेविड भारतीय खानों का शौकीन है और कारा अक्सर उसको किसी न किसी रेस्ट्रोरेंट में ले जाया करता है। इस पर डेविड कहा करता है-
      ''मि. राय, कोई बड़ा काम कर, हंड्रेड परसेंट लोन दिला दूँगा।''
      वह डेविड कैलाहन के साथ एप्वाइंटमेंट बनाता है। उसको मिलने के लिए जाते समय सोच रहा है कि क्यों न वह अकेला ही यह होटल खरीद ले, पर सोचता है कि यदि बिजनेस चौपट हो गया तो फिर क्या होगा। मनीष पटेल साथ होगा तो सौ तरीके खोजे जा सकते हैं। फिर मनीष को वह वर्षों से जानता है, वह बुरा व्यक्ति नहीं है। उसने कुछ बात तो डेविड कैलाहन से फोन पर ही कर ली है। वह बैंक में तय किए समय पर पहुँच जाता है। डेविड की हैलो में पहले जितनी गर्मजोशी नहीं है। कारा समझ जाता है कि उसने पूरे का पूरा लोन मांगा है इसलिए ही डेविड अधिक खुश नहीं होगा। पर उसको यकीन है कि वह अपनी बात पर दबाव डाल सकेगा।
      वह तैयार की गई फाइल डेविड के सम्मुख रख देता है, जिसमें होटल के सारे पेपर और अकाउंट्स हैं, बिजनेस प्रपोजल है। डेविड पेपर उलटता-पलटता है, बीच बीच में पढ़ रहा है और कहता है-
      ''हंड्रेड परसेंट लोन नहीं मिल सकेगा।''
      ''क्यों नहीं मिल सकता ? तू खुद ही तो कहा करता था।''
      ''हाँ, पर यह प्रोजेक्ट बहुत बड़ा है और इसमें रिस्क बहुत है।''
      ''क्या रिस्क है ? होटल की कीमत तो पहले ही कम है।''
      ''हाँ, पर पिछले दिनों आए रिसैशन ने सब कुछ बदल दिया है। लोन देने का सिस्टम भी। और फिर मेरे हाथ में कुछ नहीं है, दफ्तर में ऊपर से पास करवाना पड़ेगा।''
      ''डेविड, मैंने तो तुझे कितनी बार लोन देते हुए देखा है।''
      ''छोटे लोन देते हुए देखा होगा, बड़ी रकम मेरे अधिकार में नहीं है।''
      ''कितना है तेरे अधिकार के अधीन।''
      ''फिफ्टी परसेंट... आधा।''
      ''आधा तो कोई भी बैंक दे देगा, फिर तेरी दोस्ती का क्या फायदा !''
      ''सॉरी मि. राय, मैं इतना भर ही कर सकता हूँ।''
      ''यह तो गलत है डेविड। मैंने हिसाब लगाया है कि मिलियन पौंड की आठ हज़ार महीने की किस्त बनती है और खर्च निकालकर होटल की आमदनी दस हज़ार पौंड है। किस्त तो आसानी से निकल जाएगी।''
      ''आमदनी तो कल कम भी हो सकती है। तुझे तो पता है कि बैंक लोन कैसे वर्क करता है। बैंक ने यह देखना है कि यदि तू कल को लोन नहीं लौटा सकता तो उस स्थिति में यह होटल कितने का बिकेगा। क्या बैंक के पैसे पूरे भी होंगे?''
      ''डेविड, मुझे यकीन नहीं था कि तू ऐसा भी कर सकता है।''
      ''राय, एक और तरीका है, अगर तू चाहे तो।''
      ''वो कौन सा ?''
      ''तू अपनी सारी जायदाद इस लोन में लिखवा दे।''
      ''यू आर ए जोकर डेविड।''
      कहते हुए कारा गुस्से में उठ खड़ा होता है और अपनी फाइल उठा लेता है। चलते हुए कहता है -
      “मि. कैलाहन, मैंने तेरे पर इतने पैसे फिजूल ही खर्च किए हैं।''
      उसको निराश लौटा देखकर मनीष सारी बात समझ जाता है। वह कहता है-
      ''फिक्र न कर राय, मैं लोन का इंतज़ाम करता हूँ। अपने बैंक में कोशिश करता हूँ।''
      मनीष पटेल की ग्रोसरी की तीन दुकानें हैं। तीनों ही हाई स्ट्रीट पर हैं। मैनेजर रखे हुए हैं। दुकानों में जगह-जगह वीडियो लगे हुए हैं ताकि कोई कर्मचारी चोरी न कर सके। होटल का काम उसको फिट भी बैठता है क्योंकि समय काफी होता है। वह भी कारा की तरह घाटे से डरकर अकेला हाथ नहीं डाल रहा। उसका बैंक लंडन बैंक है। छोटा बैंक है। अपने काम को बढ़ाने के मकसद से बड़े लोन को भी हाथ डाल लेता है। मनीष पटेल की दुकानों की सारी कमाई इस बैंक में ही जाती है। जब मनीष पटेल अपनी बिजनेस प्रपोजल बैंक मैनेजर के सामने रखता है तो वह एकदम 75 परसेंट कर्जे के लिए मान जाता है। इसके अलावा, दस परसेंट डिपोज़िट के तौर पर भी बैंक की ओर से मिल जाता है। इस हिसाब से पचासी फीसदी कर्ज़ा बैंक दे देता है। बाकी का इंतज़ाम वे दोनों खुद कर लेते हैं।
      करीब तीन महीने बाद होटल की चाबी मिल जाती है। कारा सातवें आसमान पर है। वह मनीष से कहता है-
      ''एक कमरा मेरी अय्यासी के लिए।''
 (जारी…)