समकालीन पंजाबी साहित्य की उत्कृष्ट कृतियों की तलाश

‘अनुवाद घर’ को समकालीन पंजाबी साहित्य की उत्कृष्ट कृतियों की तलाश है। कथा-कहानी, उपन्यास, आत्मकथा, शब्दचित्र आदि से जुड़ी कृतियों का हिंदी अनुवाद हम ‘अनुवाद घर’ पर धारावाहिक प्रकाशित करना चाहते हैं। इच्छुक लेखक, प्रकाशक ‘टर्म्स एंड कंडीशन्स’ जानने के लिए हमें मेल करें। हमारा मेल आई डी है- anuvadghar@gmail.com

Sunday, December 25, 2011

आत्मकथा




एक नेत्रहीन लेखक की आत्मकथा

धृतराष्ट्र
डॉ. एस. तरसेम
हिन्दी अनुवाद : सुभाष नीरव
चैप्टर-25(प्रथम भाग)


चूल्हे के साथ स्कूल
नदौण सीनियर सेकेंडरी स्कूल की नौकरी के समय मैं जिस सेवा-मुक्त अध्यापिका के घर में रहा करता था, उसे मैं 'माँ' कहकर बुलाया करता था। उसने एक दिन अपने सख्त और बदज़बान ज़िला शिक्षा अफ़सर के कड़वे शब्दों की बात सुनाई। वह उसके पास अपने तबादले के लिए गई थी। उसके गाँव के करीब कोई स्कूल खुल गया था। उसने डी.ई.ओ. के पास इस नये खुले स्कूल में बदली करने के लिए अर्ज़ी दी और स्वयं पेश होकर भी विनती की। डी.ई.ओ. गुस्से में उछलकर पड़ा, ''बीबी, तेरे चूल्हे के साथ न स्कूल खोल दूँ कोई ?'' प्रत्युत्तर में वृद्ध माता से अपने अफ़सर के सम्मुख ज़बान खोलने का साहस ही नहीं पड़ा और काँपती हुई वह दफ्तर से बाहर निकल आई। अब जब मैं अपनी बदली सरकारी हाई स्कूल, तपा मंडी हो जाने की बात करने लगा हूँ, मुझे उस माँ के साथ घटित यह घटना स्मरण हो आई है। तपा स्कूल में आने से सचमुच मेरे लिए मेरा स्कूल बिलकुल चूल्हे के साथ ही था।
आठ नंबर गली में मेरा मकान था। मेरा यह मकान स्कूल के प्रवेश द्वार से सिर्फ 45-50 ग़ज़ की दूरी पर ही था, समझो चूल्हे के साथ ही। मैं स्कूल बग़ैर किसी की सहायता के पहुँच सकता था। शुरू-शुरू में हुआ भी इस तरह ही। उन दिनों मुझे धूप-छाँव का तो पता चलता था, करीब आए व्यक्ति का चेहरा भी कुछ मेरे मन-मस्तिष्क में बैठ जाता, पर मैं अब लिख-पढ़ बिलकुल नहीं सकता था। जून की पहली तारीख़ थी और वर्ष था 1976 जब मैं इस स्कूल के स्टाफ में शामिल हो गया था। ज़िन्दगी में किसी स्कूल में लगातार यदि बहुत समय मैं टिका था तो वह तपा का यही सरकारी हाई स्कूल था।
इस स्कूल के सभी अध्यापक मेरे जाने-पहचाने थे। हंस राज सिंगला मुख्य अध्यापक था। मेरा भाई उस समय सुखानंद आर्य हाई स्कूल, तपा का मुख्य अध्यापक था। शाम को सिंगला साहिब जब बाज़ार में आते, वह आकर हमारी दुकान पर ही बैठते। इस सरकारी स्कूल के पहले मुख्य अध्यापक आर्य स्कूल के साथ थोड़ा-बहुत टकराव की स्थिति में भी आए होंगे, पर सिंगला साहिब कभी नहीं। इसलिए सिंगला साहिब मेरे लिए बिलकुल अपरिचित नहीं थे।
एक बात और भी थी, सिंगला साहिब का एक साला नेत्रहीन था। वह सरकारी नेत्रहीनों के स्कूल, पानीपत का प्रिंसीपल था। इसलिए सिंगला साहिब के होते हुए मुझे यह डर भी नहीं था कि वह कम नज़र के कारण मुझे किसी तरह से तंग-परेशान करेंगे। हालाँकि मैं जानता था कि एक नेत्रहीन किसी सरकारी स्कूल में इतिहास का लेक्चरर लग चुका है। मुझे यह भी पता था कि कोई कृष्ण कुमार सरकारी राजिंदरा कालेज, बठिंडा में राजनीति शास्त्र का लेक्चरर लगा है। उसका चयन पंजाब पब्लिक सर्विस कमीशन की तरफ़ से हुआ था। मैं भी सामाजिक शिक्षा का अध्यापक था। इस विषय में इतिहास, राजनीति शास्त्र, समाज शास्त्र, अर्थ शास्त्र और भूगोल शामिल होते हैं। भूगोल पढ़ाने के लिए ग्लोब और नक्शे की ज़रूरत पड़ती थी। इन दोनों का संबंध सीधा आँखों की रौशनी से है, पर इस विषय के बहुत से अध्याय कोई भी नेत्रहीन पढ़ा सकता है। पर इस पद पर काम करने वाले हर अध्यापक को दसवीं कक्षा तक अंग्रेजी भी पढ़ानी पड़ सकती थी। मैं पिछले सभी स्कूलों में दसवीं तक अंग्रेजी पढ़ाता आ रहा था और मैंने अंग्रेजी और सामाजिक शिक्षा पढ़ाने का तरीका खोज लिया था।
मैं मुख्य अध्यापक से इतनी भर छूट चाहता था कि वह मुझे छठी कक्षा की अंग्रेजी न दे। कारण यह था कि छठी कक्षा के बच्चों की अक्षरों की पहचान कराने और छोटी और बड़ी अंग्रेजी वर्णमाला को चार लाइनों वाली कॉपी पर लिखने का काम मैं नहीं कर सकता था। न सिंगला साहिब ने और न ही किसी अन्य मास्टर ने मुझे ऐसा टाइम-टेबल देने में कोई नोंक-झोंक की थी जो जज्बात को ठेस पहुँचा सके। आठवीं की अंग्रेजी मुझे इस स्कूल में दो बार पढ़ानी पढ़ी। मुझे ये शब्द लिखते हुए अपार खुशी हो रही है कि एक बार आठवीं की अंग्रेजी में मेरा नतीजा 90 प्रतिशत से अधिक था और अधिकतर विद्यार्थियों के इस विषय में प्रथम श्रेणी के नंबर आए थे। एक विद्यार्थी के 100 में से 80 से भी अधिक। सामाजिक शिक्षा पढ़ाने में भी मुझे कोई कठिनाई नहीं थी। भारत का नक्शा मैं ब्लैक बोर्ड पर अपने हाथ से बना सकता था और स्कूल में पढ़ाते समय सैकड़ों बार बनाया भी होगा। 10वीं की वार्षिक परीक्षा में जो नक्शा भरने के लिए आता था, वह भारत का ही होता था। इस नक्शे में भारत के बड़े शहर, नदियाँ, रेल मार्ग, हवाई मार्ग, घनी आबादी वाले क्षेत्र, कम आबादी वाले क्षेत्र, खनिज पदार्थ, फसलें और औद्योगिक क्षेत्र आदि भरने के लिए कहा जाता। यह सब भरने के लिए मैं अपनी आँखों की ज्योति ठीक होने के समय काफ़ी अभ्यस्त हो चुका था। इसलिए अब भी भारत का नक्शा ब्लैक बोर्ड पर बनाकर समझाने में मुझे कोई झिझक नहीं थी। इस स्कूल में जिस सबसे बढ़िया बात ने अगले पाँच सालों में मेरा जीवन ही बदल कर रख दिया, वह थी -बाबू परषोत्तम दास से बनी सांझ। बाबू परषोत्तम दास सिंगला इस स्कूल में क्लर्क था। मुख्य अध्यापक के बाद स्कूल में क्लर्क की ही सबसे अधिक चलती, कई बार हैड मास्टर से भी अधिक। बाबू परषोत्तम दास के मधुर स्वभाव, फ़राख़दिली, नम्रता और लचीले व्यवहार के कारण सब अध्यापक उसका आदर करते। सिंगला साहिब भी उसका बहुत सम्मान करते। वह ज़िला शिक्षा विभाग मिनिस्ट्रीयल स्टाफ़ एसोसिएशन का नेता भी था। काफ़ी समय तो वह ज़िला संगरूर की इस एसोसिएशन का प्रधान भी रहा। मेरे प्रति उसके पुर-ख़ुलूस रवैये ने स्कूल में कभी भी मुझे कोई कठिनाई नहीं आने दी।
यद्यपि उस समय प्राइमरी कक्षाएँ भी हाई स्कूल का हिस्सा थीं और कुछ प्राइमरी कक्षाएँ इस मुख्य इमारत के एक ओर बनी पुरानी इमारत में लगा करती थीं, पर कुछ कक्षाएँ रेलवे स्टेशन के सामने वाली सराय में लगा करतीं। मैं चौथी कक्षा तक उस सराय वाली बिल्डिंग में ही पढ़ा था और पाँचवी कक्षा के कुछ महीने उस पुरानी बिल्डिंग में जहाँ अब प्राइमरी कक्षाएँ लगती थीं। सरदार भगत सिंह बाली तब सरकारी मिडल स्कूल के मुख्य अध्यापक थे, बहुत अच्छे अध्यापक और बहुत अच्छे खिलाड़ी, शहतूत की छमक जैसा शरीर। सुनहरी फ्रेम वाली ऐनक से वह बड़ी दिलकश शख्शीयत लगते। विद्यार्थियों के साथ हॉकी खेलते समय तो वह मुझे बहुत ही अदभुत-सी शख्शीयत लगते। ऐनक वाले किसी व्यक्ति को मैंने पहली बार हॉकी खेलते देखा था। इस स्कूल में आकर मुझे अपने बचपन की पढ़ाई वाले दिन याद आ गए और दो-तीन बार तो मैंने उस कमरे में भी जाकर देखा था जिस कमरे में मैं पाँचवी कक्षा के दौरान बैठा करता था।
हैड मास्टर हंस राज सिंगला के संग दो-तीन बार सराय वाले स्कूल में भी जाने का अवसर मिला। जब मैं 1958 से 1962 तक कुछ वर्ष आर्य स्कूल में पढ़ाता रहा था, उस समय मुकाबले का स्कूल होने के कारण सब मास्टर सरकारी स्कूल के ख़िलाफ़ पूरा रिकार्ड बजाते, पर मैं इस रिकार्डबाज़ी में कभी शामिल नहीं हुआ था। अब जबकि मैं इस स्कूल में एक अध्यापक के तौर पर आ गया था तो मुझे इस बात की तसल्ली थी कि आर्य स्कूल के कुछ अध्यापकों के पीछे लगकर मैंने अपने इस स्कूल के बारे में कभी कुछ नहीं कहा था।
1964 में कम्युनिस्ट पार्टी में फूट पड़ गई थी। कर्मचारी संगठनों की सरपरस्ती मोटे तौर पर पहले भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी करती थी। फूट के बाद कम्युनिस्ट पार्टी(मार्क्सवादी) के अस्तित्व में आ जाने के कारण धीरे-धीरे कर्मचारी भी दो हिस्सों में बँट गए थे। सी.पी.आई. अर्थात भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी वाले कर्मचारी गुट का नेता पंजाब में रणबीर ढिल्लों था और सी.पी.एम. से संबंधित कर्मचारी फेडरेशन का नेता त्रिलोचन सिंह राणा। पंजाब में कर्मचारियों में से अधिक गिनती अध्यापकों की थी, जिस कारण गवर्नमेंट टीचर्ज़ यूनियन पृथक तौर पर काम करती थी और पंजाब सबार्डीनेट सर्विसिज़ फेडरेशन के एक अंग के रूप में भी। 1968 के बाद कम्युनिस्टों में ही हथियारबंद संघर्ष से इंकलाब लाने वाली पार्टी सी.पी.आई.एम.एल. अस्तित्व में आ गई थी। एम.एल. का अर्थ है- मार्क्सवादी लेनिनवादी। इस पार्टी की नींव बंगाल के नक्सलवाड़ी क्षेत्र में रखी गई थी। इसलिए इससे संबंधित पार्टी सदस्यों या कर्मचारियों को नक्सली भी कहा जाता था। सो, 1968 से अध्यापकों में तीन बड़े ग्रुप बन चुके थे - ढिल्लों ग्रुप, राणा ग्रुप और नक्सली ग्रुप। एक ग्रुप कांग्रेसियों का भी था। असल में, यह सरकारी किस्म का ग्रुप था। कांग्रेस के राज के समय इनका अस्तित्व प्रकट होता। शहरों में आर.एस.एस. या जनसंघ (अब बी.जे.पी.) से संबंधित भी कुछ कर्मचारी थे पर इनका कोई अधिक प्रभाव नहीं था।
सरकारी हाई स्कूल, तपा एक बड़ा स्कूल होने के कारण यहाँ हर धड़े का कोई न कोई छोटा-बड़ा नेता सक्रिय था। मेरा संबंध अब ढिल्लों ग्रुप से था (वैसे मैं सी.पी.आई. की 1964 की दोफाड़ के समय सी.पी.आई.एम. का हमदर्द बन गया था, क्योंकि हमारे ज़िले के सभी बड़े और बुजुर्ग़ कामरेड सी.पी.आई.एम. से जुड़े हुए थे, पर अध्यापकों में सी.पी.आई.एम. से संबंधित फेडरेशन का आर.एस.एस. के साथ अंदरूनी समझौता मुझे कतई मौकापरस्ती प्रतीत होता था और चुभता भी था। वैसे भी अधिकांश नेताओं में कम्युनिस्ट होने की बजाय जट्ट होने की हैंकड़ मेरी मानसिकता को बिलकुल भी नहीं भाती थी। इसलिए 1970 में मैं स्पष्ट तौर पर सी.पी.आई. से जुड़ गया, समझो कर्मचारियों या अध्यापकों में मैं ढिल्लों ग्रुप का समर्थक बन गया)। लेकिन मेरा भाषण वाला जोश कइयों को राणा ग्रुप वाला लगता और कइयों को नक्सलियों वाला। वैसे भी मैं मज़दूरों और कर्मचारियों के संबंध में अलग-अलग खिचड़ी पकाने के स्थान पर एकता के पक्ष में था। बाबू परषोत्तम दास के ढिल्लों ग्रुप के साथ होने की वजह से ढिल्लों ग्रुप का स्कूल में दबदबा था। कारण यह था कि बाबू परषोत्तम दास से कई अध्यापकों को छोटे-मोटे काम लेने होते थे, जिस कारण वे ढिल्लों ग्रुप के पक्षधर होने में ही बेहतरी समझते थे।
ज्ञानी हमीर सिंह इस स्कूल में राणा ग्रुप का लीडर था। वह सी.पी.एम. पक्षधर नहीं था। उसकी पृष्ठभूमि अकाली दल से जाकर जुड़ती थी। कर्मचारियों में बहुत से अकाली पक्षधर अक्सर राणा ग्रुप की ओर ही जाते। सुरजीत सिंह डी.पी.ई. के आने से राणा ग्रुप भी स्कूल में कुछ ज़ोर पकड़ गया था। सुरजीत शहिणा का था और मेरा गाँव शहिणा होने के कारण वह मुझे बुजुर्ग़ों वाला सम्मान देता था। उभरते रूप में नक्सली सिर्फ़ एक ही अध्यापक था और वह था - हरकीरत सिंह, पी.टी.आई.। यहाँ एक जनसंघी भी था, पक्का आर.एस.एस., वह था - हंस राज गुप्ता। उसके पास एल.आई.सी. की एजेंसी होने के कारण सभी उसे बीमा मास्टर कहते थे। अकेला होने के कारण वह जल्दी ही किसी के साथ बहस में नहीं पड़ता था। किसी से बहस में पड़ने के कारण उसके बीमा वाले काम में नुकसान पहुँच सकता था। वैसे गवर्नमेंट टीचर्ज़ यूनियन के चुनाव बाकायदा ब्लॉक प्रधान और ज़िला प्रधान के होने के कारण सभी ग्रुप इस चुनाव में दिलचस्पी लेते। जब मैं तपा मंडी के स्कूल में आ गया था, तब तो चुनाव की सरगरमी ट्रक यूनियन के चुनाव जैसी हो गई थी। झूठा-सच्चा प्रचार भी होता, जिन अध्यापकों के काम रुके पड़े होते, लीडर उनके काम करवाने के लिए रातों-रात दफ्तरों में से काम करवाकर ला देते या काम करवाने का वायदा करते।
(जारी…)

Sunday, December 11, 2011

पंजाबी उपन्यास




''साउथाल'' इंग्लैंड में अवस्थित पंजाबी कथाकार हरजीत अटवाल का यह चौथा उपन्यास है। इससे पूर्व उनके तीन उपन्यास - 'वन वे', 'रेत', और 'सवारी' चर्चित हो चुके हैं। ''साउथाल'' इंग्लैंड में एक शहर का नाम है जहाँ अधिकतर भारत से गए सिक्ख और पंजाबी परिवार बसते हैं। यहाँ अवस्थित पंजाबी परिवारों के जीवन को बेहद बारीकी से रेखांकित करता हरजीत अटवाल का यह उपन्यास इसलिए दिलचस्प और महत्वपूर्ण है क्योंकि इसके माध्यम से हम उन भारतीय लोगों की पीड़ा से रू-ब-रू होते हैं जो काम-धंधे और अधिक धन कमाने की मंशा से अपना वतन छोड़ कर विदेशों में जा बसते हैं और वर्षों वहाँ रहने के बावजूद वहाँ की सभ्यता और संस्कृति का हिस्सा नहीं बन पाते हैं।

साउथाल
हरजीत अटवाल
हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव

।। उनतीस ॥
चौधरी मुस्ताक अली प्रदुमण सिंह को पाँच सौ समोसों का आर्डर दे देता है, पर उसको कच्चे समोसे चाहिए क्योंकि वह उन्हें खुद तलना चाहता है। चौधरी कहता है-
''सरदार जी, आप इतने बनाकर दो... अगर चलेंगे तो खत्म होते ही अगला आर्डर दूंगा। मेरे पास टाइम ही नहीं है समोसे बनाने लायक। फिर ये बिकते भी कितने होंगे! दूसरा इतना सामान जो है खाने वाला। समोसे खाने का क्रेज गोरों को होगा, अगर कोई पूछे तो हम फ्रिज में से निकाल कर तल देते हैं। मैंने देखा है कि आपके समोसे का साइज कुछ बड़ा है, हमें कुछ छोटे चाहिए होंगे।''
नमूने के तौर पर चौधरी एक समोसा प्रदुमण सिंह को देता है। वह समोसे को तोलकर देखता है। समोसे का वजन नब्बे ग्राम है। वह समझ जाता है कि चौधरी को क्या चाहिए। चौधरी के इस आर्डर से उसके लिए नया राह खुल जाता है। वह अगले दिन एक फ्रीजर खरीद लेता है और सारे स्टाफ से दो घंटे अधिक काम लेकर फ्रीजर को कच्चे समोसों से भर लेता है। उस शाम चौधरी का आर्डर भी पहुँचता कर देता है। वह योजना बनाने लगता है कि कच्चे समोसों का वह एक अलग राउंड खड़ा करेगा। उसका यह माल फिश एंड चिप्स की दुकानों या कैफों पर खपत हो सकेगा। अब उसको एक और ड्राइवर की आवश्यकता होगी। यूँ भी अब वह बहुत ध्यान से चलना चाहता है। बलबीर ने अपना राउंड बना लिया है। उसके पीछे-पीछे गुरमीत भी पक्का होकर अपना काम खड़ा करने का यत्न करेगा। फिर एकदम ड्राइवर खोजना कठिन हो सकता है। क्यों न किसी ड्राइवर को अभी तलाश ले और काम पर रख ले। हाल की घड़ी अन्दर काम करता रहे। कभी-कभी राउंड पर भी जाता रहे और ज़रूरत पड़ने पर काम कर सके, पूरे ड्राइवर का।
एक दिन एक औरत काम पूछने के लिए आती है। जैसा कि कई बार लोग काम की तलाश में निकलते हैं और एक फैक्टरी से दूसरी फैक्टरी होते हुए काम पूछते जाते हैं। अब तक प्रदुमण की इस फैक्टरी के आसपास के इलाके में काफी चर्चा है। यदि कोई काम छोड़ता है तो उसकी जगह भरने में वक्त नहीं लगता। काम पूछने आई औरत पाकिस्तानी है। प्रदुमण सिंह ऐसी पहचान करने में माहिर है। पाकिस्तानी औरतों के पहरावे में भी कुछ अन्तर है। चुन्नियाँ भारी होती हैं और सलवार की सलवटें भी बहुत जैसे कि पटियाला सूट-सलवार में हुआ करती हैं। एक अन्य ख़ास फ़र्क होता है कि उनकी सलवार टखनों से ऊँची होती है। उनका मेकअप भी कुछ भारी होता है और देखने के अंदाज में कुछ अजीब किस्म की झिझक होती है। मर्द की ओर देखती ही रहती हैं। वह औरत फैक्टरी के अन्दर प्रवेश करते ही मैनेजर के बारे में पूछती है। कोई ज्ञान कौर की तरफ इशारा कर देता है। वह ज्ञानो के पास जाकर पूछती है-
''जी, आपको काम के लिए किसी की ज़रूरत है ?''
ज्ञान कौर एक तरफ खड़े प्रदुमण सिंह की ओर देखती है। उसकी तो पहले ही निगाह उस औरत की तरफ है। वह निकट आते हुए पूछता है-
''बताओ, क्या खिदमत कर सकता हूँ ?''
''जी, काम होसी (होगा)?''
''क्या नाम है तुम्हारा ?''
''जी फरीदा।''
''फरीदा जी, हमें एक ड्राइवर की ज़रूरत है, फैक्टरी में तो अभी हमारा काम चल रहा है। दो हफ्ते तक पता कर लेना।'' कहकर वह ज्ञान कौर की ओर देखता है। मानो पूछ रहा हो कि ठीक कहा न। फिर वह फरीदा की तरफ देखता है, जैसे कह रहा हो कि मेरे कहे पर यकीन न करना। फरीदा का भरा हुआ शरीर और बहुत कुछ कहते नयन उसके अन्दर आकर्षण का केन्द्र बन रहे हैं। वह ज्ञान कौर से पूछता है-
''देख ले, यदि ज़रूरत है या एडजस्ट कर सकती है तो।''
''अभी तो हमको ज़रूरत नहीं।''
''तू कह रही थी कि गिलणी काम छोड़ रही है।''
''उसको वापस इंडिया जाना है, पर पता नहीं कब।''
पत्नी की बात की ओर ध्यान दिए बिना प्रदुमण फरीदा से पूछने लगता है-
''क्या क्या बना लेते हो ?''
''मैं रसोई की बहुत माहिर हूँ जी।''
''तंदूरी चिकन बना लेते हो ?''
''अगर खाने वाला अपनी उंगलियाँ न खा जाए तो मुझे फरीदा न कहना।''
''यह तो जब कभी खाएँगे तो बताएँगे।''
फिर वह धीमे से ज्ञान कौर से कहता है-
''कई दुकानों वाले तंदूरी चिकन की मांग करते हैं और कबाबों की भी।''
असल में, वे दोनों कबाब शुरू करने को लेकर कई बार आपस में सलाह कर चुके हैं, पर बनाने वाला नहीं मिल रहा। खराब चीज़ बनाकर वह अपना बना-बनाया नाम खराब नहीं करना चाहता। वह जानता है कि मुसलमान मीट बनाने में बहुत गुणी होते हैं। प्रदुमण सिंह ज्ञान कौर के उत्तर की प्रतीक्षा किए बग़ैर ही कहने लगता है-
''फरीदा जी, तुम टेम्परेरी आ जाओ, पार्ट टाइम। हम देखेंगे कि तुम कैसा चिकन बनाते हो और कबाब भी।''
''सरदार जी, एक मौका देकर देखो।''
''कल सवेरे आ जाओ।''
''क्या रेट होसी जी घंटे का ?''
प्रदुमण सिंह ज्ञान कौर की ओर देखने लगता है क्योंकि फरीदा के इस सवाल का जवाब वह नहीं दे सकता। ज्ञान कौर कहती है-
''हम दो पौंड एक घंटे के देते हैं।''
''सिर्फ़ दो !''
''लोग तो डेढ़ या एक पिचहत्तर ही देते हैं।''
''नहीं जी, दो तो बहुत कम हैं।''
''देख लो, तुम्हारी मर्जी है, हमें तो काम की ज़रूरत नहीं। यह तो यूँ ही तंदूरी चिकन की बात उठाये जाते हैं, पता नहीं बिकेगा भी कि नहीं।''
ज्ञान कौर बात खत्म करने की तरह बात करती है।
फरीदा कुछ मिनट सोचकर कहती है-
''दो तो बहुत कम होसी, पर मुझे काम की ज़रूरत है, कल सुबह आ जासां। कितने बजे?''
''छह बजे शुरू करते हैं, पर तुम आठ बजे आ जाओ बेशक।''
प्रदुमण सिंह कहता है। फरीदा बोलती है-
''सरदार जी, मैं तो छह बजे भी आ जासां, उठने की प्रॉब्लम न होसी।'' बात करते हुए वह प्रदुमण सिंह की पगड़ी की तरफ देखती है।
अगले दिन वह सवेरे छह बजे पहुँच जाती है। कुछ मसाले वह अपने साथ लाई है। मसालों वाला बैग ज्ञान कौर को दिखाते हुए कहती है-
''भा जी, ये कुछ चीज़ें हैं जो मैं कबाब बनाने में इस्तेमाल कर सां।''
''जैसे चाहे कर ले, पर पहले बनाकर दिखा कुछ न कुछ। हमको अभी सप्लाई नहीं करना।''
''सप्लाई कर सों तो धड़ाधड़ बिक सीं।''
''नहीं, सप्लाई के लिए जो माल मार्किट में जाता है, उसके स्वाद का हमको ध्यान रखना पड़ता है।''
''ये तो भा जी ठीक है, आप एक बार मेरा काम देखो, फिर फैसला कर सीं।''
ज्ञान कौर फरीदा को फ्रिज में से चिकन निकाल कर देती है। फरीदा थोड़ा-सा झुककर मसाले मिलाकर चिकन में डालती है। बड़े से पतीले के आगे झुकी हुई फरीदा की नज़र सामने खड़े प्रदुमण सिंह पर पड़ती है जो उसकी कमीज के गले की तरफ देख रहा है। वह एकदम खड़ी हो जाती है। थोड़ा मुस्कराते हुए कहती है-
''तैयार होने दो सरदार जी, फिर देखना।''
प्रदुमण सिंह झेंप जाता है और ऊपर दफ्तर की तरफ चला जाता है। वह फरीदा के बारे में सोचते हुए सपने बुनने लगता है। कुछ देर बाद फरीदा ऊपर आती है। उसके हाथ में एक प्लेट है जिसमें चिकन रखा हुआ है। लाल रंग की चिकन लैग महक छोड़ रही है। वह कहती है-
''ध्यान रखना, अगर उंगलियों को बचाना है तो।''
कहती-हँसती वह नीचे उतर जाती है।
अभी उसका खाने का मूड नहीं है। वक्त भी नहीं हुआ, पर चिकन की खुशबू से उसको भूख लग आती है। वह खाता है। स्वाद है। वह नीचे आकर ज्ञान कौर को एक तरफ ले जाकर कहता है-
''बहुत बढ़िया बनाया है चिकन, मिर्च बहुत तेज़ है। हमारे लिए तो ठीक है, पर गोरों के लिए तेज़ है। वैसे चिकन का रंग-ढंग बढ़िया रेस्ट्रोरेंट वाला ही है। सोच ले, अगर दिल करता है तो काम पर रख ले। चिकन सप्लाई करने के लिए तो अभी सोचते हैं, अभी बेशक दूसरे काम पर लगा ले।''
ज्ञान कौर कुछ नहीं कहती। उसको फरीदा बोझ-सा प्रतीत हो रही है। उसकी फैक्टरी में कोई ज़रूरत नहीं है। प्रदुमण सिंह फिर दफ्तर में चला जाता है। दोपहर को फरीदा कबाब बना लाती है। साथ में दही की चटनी है। प्रदुमण सिंह खाता है। वह पूछती है-
''कैसा टेस्ट है ?''
''बहुत बढ़िया। तेरा मियाँ तो खा-खाकर कुप्पा हो गया होगा।''
''ना सरदार जी, वह तो सूखा पड़ा है।''
''क्यों ? खाता नहीं यह सब जो तू बनाती है ?''
''मैं तो बहुत कुछ बना सां, मेरा मियाँ भी बनाने में पूरा माहिर होसी, वो खूब खाता है, पर सुकड़ा होसी, उम्र जो बहुत होसी।''
''तुझसे बड़ा है ?''
''जी, सरदार जी, पूरे बीस साल। तीसरी बेगम होसां उसकी।''
कहते हुए फरीदा आँखें भर लेती है। प्रदुमण सिंह कहता है-
''फरीदा, तेरे जैसी सुन्दर औरत के साथ तो यह बहुत ज्यादती है, यह तो बहुत गलत बात है।''
''मेरे नसीब ! सरदार जी।''
''कुछ भी कह ले, पर यदि मैं तेरे किसी काम आ सकूँ तो...''
''शुक्रिया सरदार जी, अभी तो मुझे काम की ज़रूरत थी।''
''काम तेरा पक्का।''
फरीदा कुछ नहीं बोलती। आँखों से ही उसका धन्यवाद करती है। वह जाने लगती है। प्रदुमण सिंह कहता है-
''रब तेरा हुस्न ऐसे ही बनाए रखे !''
(जारी…)
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Sunday, November 27, 2011

आत्मकथा



एक नेत्रहीन लेखक की आत्मकथा

धृतराष्ट्र
डॉ. एस. तरसेम
हिन्दी अनुवाद : सुभाष नीरव
चैप्टर-24( दूसरा भाग)

मोहब्बत का 'ससा'¹
मैंने अपने लेखकीय नाम स. तरसेम के साथ सिर्फ़ एक लड़की का नाम नहीं जोड़ा था, इस नाम में दो और लड़कियों के नाम का अगला अथवा मध्य का हिस्सा अवश्य है। भारतीय समाज को मैं आरंभ में बहुत कठोर समझता रहा था क्योंकि मेरे दिल में यह बात दृढ़ हो चुकी थी कि यदि मेरा पहला प्रेम परवान नहीं चढ़ा तो उसमें उस लड़की का कोई कसूर नहीं। वह जाति-पाति की लक्ष्मण-रेखा नहीं पा कर सकती थी। संभव है, इसीलिए उसने मेरे प्यार का जवाब देना उचित नहीं समझा हो, पर मेरे भाई की साली की राह में तो कोई रुकावट नहीं थी। बचपन में अक्सर हमारे घर में मेरे भाई की सबसे छोटी साली से मेरे विवाह की बात चलती रहती। जब भाई का बड़ा साला आता तो वह अक्सर ही यह बात करता। बात प्राय: हँसी में टल जाती। मेरा भी भाई की साली में पूरा झुकाव न होने के कारण मेरी दिलचस्पी उन बातों में बहुत कम हुआ करती, लेकिन जब मैं बड़ा हो गया और मेरे पहले प्रेम की केन्द्र-बिंदु मुझसे दूर हो गई तो मेरा झुकाव माला की तरफ हो गया था। उसका पूरा नाम राज माला था। अब जब भी राज माला की मेरे संग विवाह की बात चलती, मेरे कान खड़े हो जाते। मैंने उसे सिर्फ़ एक बार देखा था, उस समय मैं दूसरी कक्षा में पढ़ा करता था और दशहरे का दिन था। मेरा भाई मुझे अपनी ससुराल ले गया था। छोटी सी राज माला को अब मैंने 18-19 वर्ष की समझकर उसकी शक्ल अपने मन में बना रखी थी।
संयोग से जनवरी 1961 के अन्तिम सप्ताह में राज माला तपा आ गई। उसने एफ.ए. अंग्रेजी की परीक्षा देनी थी। उन दिनों उसके माता-पिता हरियाणा के एक बड़े शहर को छोड़कर नज़दीक ही छोटे-से कस्बे में जा बसे थे। यहाँ उनकी साथ वाले किसी गाँव में काफ़ी ज़मीन थी। इसलिए, उसके बड़े भाई की उस शहर में रिहाइश होने के बावजूद उसके माता-पिता और छोटे बहन-भाई उस छोटे-से कस्बे में आ टिके थे। कालेज उन दिनों आम नहीं थे। इसलिए दसवीं और प्रभाकर पास करने के पश्चात माला अंग्रेजी में एफ.ए. करने की तैयारी करने लग पड़ी थी। एक अध्यापक उसे घर में आकर पढ़ा जाता, परन्तु एक ऐसी घटना घटी कि माला ने उस अध्यापक से पढ़ने से इन्कार कर दिया। कारण शायद उसने अपने माता-पिता को बताया हो। मुझे तो बस इतना याद है कि वह एफ.ए. (आजकल प्लस 2) अंग्रेजी पढ़ने के लिए तपा में आई थी। भाई उन दिनों मोगा में बी.एड कर रहा था। मेरी समझ में नहीं आता था कि उसके माता-पिता ने क्या सोचकर उसको तपा में पढ़ने के लिए भेज दिया था। संक्षेप में यह कि माला को अंग्रेजी पढ़ाने की जिम्मेदारी भी मेरे ऊपर आ पड़ी। सच बात तो यह है कि मैं ऊपर से दुखी दिखता था परन्तु भीतर से बहुत खुश था। यदि यही काम किसी अन्य का करना होता तो मैं साफ़ जवाब दे देता।
तपा मंडी के आर्य स्कूल के सभी पीरियड पढ़ाने, सुबह और शाम ट्यूशनें करने, बहन तारा की पढ़ाई के बाद राज माला को पढ़ाकर मैं थकता नहीं था। इस न थकने का कारण माला थी। उसे पढ़ाने के बाद मैं खुद बी.ए. इतिहास की परीक्षा की तैयारी के लिए एक-डेढ़ घंटा रात के ग्यारह बजे के बाद लगाया करता। उस समय तक, दिन में पढ़ने-पढ़ाने में मुझे कोई दिक्कत नहीं आती थी परन्तु रात के समय मैं दीवार या छत से लगी ट्यूब की रोशनी में भी नहीं पढ़ पाता था। यही कारण था कि मैंने छत से अतिरिक्त तार लगाकर 60 वॉट का बल्ब लगा लिया था जो मेरे सिर से तीनेक फुट और मेज़ से चार फुट ऊँचा था। इस तरह पढ़ने-लिखने से आँखें थक तो जातीं, पर कोई मुश्किल नहीं आती थी। वैसे भी, मैं अपनी किताब पढ़ने की बजाय पढ़ने का काम किसी विद्यार्थी से करवाता। इस जुगत से विद्यार्थी का उच्चारण भी शुद्ध हो जाता और मेरी आँखों को भी आराम मिल जाता। बेचारी माला को इस बात का पता नहीं चला था कि रात के समय मैं दूर की रोशनी में पढ़-लिख नहीं सकता हूँ और न ही अँधेरे में चल फिर सकता हूँ। एक दिन झिझकते-झिझकते मैंने माला से पूछ ही लिया, ''जो टीचर तुझे वहाँ पढ़ाता था, उसमें क्या नुक्स था ?''
पहले तो वह चुप रही, पर मेरे बार-बार पूछने पर उसने बता ही दिया, ''उसने एक बार मेरी कॉपी पर लिख दिया था - आई लव यू।''
''फिर ?'' मैं इससे आगे जानना चाहता था।
वह चुप रही और कुछ न बोली।
''यदि मैं तेरी कॉपी पर यह कुछ लिखकर दूँ, फिर ?''
''आप की बात कुछ और है।''
''मेरी बात कैसे कुछ और है ?'' मैंने भी हिंदी में प्रश्न किया और प्रश्न करते समय मेरे अन्दर कोई झिझक भी नहीं थी, क्योंकि पहल उसकी तरफ़ से हुई थी।
''मैंने बोल दिया न कि आपकी बात कुछ और है।''
वो दिन सो वो दिन, उसके बाद मैं उसका ही होकर रह गया था। अब मैं पहले से भी अधिक उसे पढ़ाने लगा। हम कई छोटी-छोटी बातें किया करते। जिस चौबारे में मैं ट्यूशनें पढ़ाया करता, उसी में ही सोता था। जितनी देर मैं नौ-सवा नौ बजे तक ट्यूशनें पढ़ाता रहता, माँ नीचे काम में उलझी रहती और मेरी बहन तारा और माला नीचे पढ़ती रहतीं। इसके बाद पहले आधा-पौना घंटा तारा को और फिर माला को पढ़ाता। माँ की चारपाई बीच में होती। माला भी चौबारे में ही लेटा करती थी। माँ की खाट से दूसरी तरफ मेरी खाट होती। माँ की खाट बीच में होने के कारण मैं पढ़ाने के अलावा माला से बहुत कम बात करता। वह भी कोई बात नहीं करती थी। सवेरे पाँच बजे माँ नीचे नहाने-धोने और पूजा-पाठ करने के लिए चली जाती। माला उठकर पढ़ने लगती और मैं भी।
हम दोनों एक-दूजे की ओर पूरी तरह आकर्षित हो गए थे, पर छोटी-छोटी, अच्छी-अच्छी बातों के अलावा हमारे बीच अन्य कुछ भी नहीं घटा था।
''शादी से पहले कभी किसी को छूना नहीं चाहिए, यह पाप होता है।'' माला ने एक दिन पता नहीं यह बात क्यों कह दी।
''मैंने तो आपको कभी कुछ नहीं कहा। आपके दिमाग में ऐसी बात क्यों आई ?'' मैंने नाराज़गी और मिठास के मिलेजुले लहजे में पूछा।
''आप तो महसूस कर गए, मैंने तो यूँ ही बात की है।'' माला किसी दोषी की भाँति स्पष्टीकरण दे रही थी। साथ ही, वह रो पड़ी थी। मैं डर गया था। कोई बात नहीं, कोई चीत नहीं, यूँ ही कोई पंगा न खड़ा हो जाए। यदि माला ने भाभी को बता दिया तो घर में कोई नया तूफ़ान न खड़ा हो जाए, पर माला ने नीचे जाने से पहले अपनी गलती स्वीकार कर ली थी।
मुहब्बत का यह पाक-पवित्र रिश्ता उसके वापस अपने घर जाने तक बना रहा और वह मुहब्बत आज भी कायम है। जाने से एक रात पहले वह फिर रोने लग पड़ी थी। मैंने उसे भरोसा दिलाया था और अंग्रेजी में कहा था -'अगर विवाह करवाया तो बस मैं तेरे से ही करवाऊँगा।' मैं उसे चूमना चाहता था परन्तु उसकी पवित्रता के वचन को निभाने की खातिर मैं स्वयं ही पीछे हट गया।
मार्च का आख़िरी हफ्ता था या अप्रैल का पहला, भाभी माला को मायके छोड़ने गई। माला मुझे जाते हुए कह गई थी कि उसकी बहन अर्थात मेरी भाभी को मैं ही लेने आऊँ, पर मैं खुलकर अपने भाई या माँ को यह भी नहीं कह सका कि भाभी को लेने मैं जाऊँगा। शायद भाभी खोटे पैसे की तरह खुद ही लौट आई थी।
..


मेरे लेखकीय नाम में 'स' अक्षर के पीछे के जो शब्द अभी तक पाठकों तक नहीं पहुँचे, उनमें आरंभिक 'स' और अन्तिम 'र' के मध्य में एक अक्षर 'व' है जो 'स' के पैरों में पड़ता है। रेवती उसी लड़की के नाम के बीच का 'व' है। यह लड़की 1960-61 में तपा मंडी की नगर पालिका कन्या पाठशाला में अध्यापिका थी। जब उसने मेरे से ज्ञानी की ट्यूशन के लिए पहुँच की, तब तक उसके द्वारा मेरे बारे में की गई कई विरोधी टिप्पणियाँ मेरे तक पहुँच चुकी थीं। मैं 1959 से ही ज्ञानी कक्षाओं को पढ़ा रहा था। इस लड़की के मेरे पास आने से पहले बठिंडा ज़िले के गाँव नथाणे से उसकी एक रिश्तेदार मेरे पास ज्ञानी पढ़ने आया करती थी और वह ज्ञानी पास कर चुकी थी। मेरे बारे में वह जो भी कह चुकी थी, उस संबंध में मैं उसको अहसास करवाना चाहता था।
''लड़का-सा क्या पढ़ाएगा तुम्हें ?'' कहकर मैंने उसे जतला दिया था कि उसने जो मेरे विरुद्ध पहले टिप्पणी की थी, उसकी मुझे जानकारी है। वह पहले बहुत शर्मिन्दा थी और बार बार हाथ जोड़कर ट्यूशन के लिए कह रही थी। ट्यूशन तो मैंने पढ़ानी ही थी। मैं तो उसकी ऐंठ तोड़ना चाहता था, सो तोड़ दी। तय यह हुआ कि मैं उसके किराये पर लिए चौबारे में एक घंटा पढ़ाने के लिए आऊँ। चौबारे की सीढ़ियाँ अनाज मंडी में होने के कारण वह शाम के वक्त आने-जाने में झिझकती थी। मैंने भी अँधेरा होने से पहले पहले घर पहुँचने के हिसाब से जाना आरंभ कर दिया। यह ट्यूशन मैंने इसलिए की थी क्योंकि उस समय मेरे पास कोई अन्य ट्यूशन नहीं थी।
इधर, ज्ञानी की परीक्षाएँ आरंभ हो गई और उधर मुझे जनता हाई स्कूल, जुआर (उस समय पंजाब के ज़िला होशियारपुर में था और अब हिमाचल प्रदेश के ज़िला ऊना में है) का नियुक्ति पत्र मिल गया। जब मैं हाज़िर होने के बाद दीवाली की छुट्टियों में घर आया तो पता नहीं कैसे उसको मेरे घर आने की ख़बर हो गई। वह दीवाली की मिठाई भी लेकर आई और पेपर अच्छा होने की खुशखबरी सुनाने भी। मेरा नया पता भी ले गई।
अभी जुआर पहुँचे मुझे एक सप्ताह ही हुआ था कि रेवती की चिट्ठी मिली। बड़ा आदर और मोह-प्यार था उस चिट्ठी में। किसी लड़की द्वारा मुझे लिखी गई यह पहली चिट्ठी थी, पर पोस्ट कार्ड होने के कारण शक की कोई गुंजाइश नहीं थी। यह एक आदरसूचक ख़त था, कोई प्रेमपत्र नहीं था। मैंने ख़त का जवाब दिया। मैंने भी पोस्ट कार्ड ही लिखा था और ख़त में उसके उजले भविष्य की कामना की थी। हाँ, अन्दर ही अन्दर मैं उसकी ओर कुछ-कुछ आकर्षित हुआ था। उसकी मंशा तो पता नहीं क्या थी, पर मेरा झुकाव उसकी ओर हो गया था।
मैं किसी भ्रम का शिकार भी नहीं हो सकता था। कम से कम मैं शब्दों के भीतरी अर्थों की गहराई तक किसी हद तक पहुँचने योग्य तो हो ही गया था।
रेवती का एक और ख़त आया। मैंने ख़त का जवाब दे दिया। इस प्रकार चिट्ठी-पत्र का सिलसिला चलता रहा। जब माँ मेरे पास जुआर आ गई, मैं रेवती के ख़त माँ को पढ़कर सुनाता। एक ख़त सुनकर माँ कहने लगी-
''तू इस लड़की से विवाह ही करवा ले।'' माँ की बात में जो फराख़दिली थी, वो उस ज़माने की बूढ़ी औरतों में मैंने कम ही देखी है। लड़की, माँ की देखी हुई थी। रंग काला तो नहीं था, ज़रा सांवला था। ऑंखें मोटी थीं और बाकी नक्श मध्यम। वैसे उसके चेहरे पर रौब-दाब बहुत था। मैं तो पहले ही उसकी तरफ़ आकर्षित था, क्योंकि उस समय तक माला की मंगनी हो चुकी थी और उसे तुड़वाने की कई स्कीमें घड़ने के बावजूद मैंने कुछ नहीं किया। बस, दिल वाली बातें दिल में ही रह गई थीं। माँ के कहने पर बात पक्की होने में मदद मिलनी ही थी। लेकिन भाई की मोहर लगे बग़ैर तो कुछ भी नहीं हो सकता था। यहाँ मैं बता दूँ कि 10 दिसम्बर 1961 को राज माला का विवाह हो चुका था। उसका घरवाला आर.बी.आई., दिल्ली में क्लर्क था। मैं इस 10 दिसम्बर वाले दिन भूख-हड़ताल पर रहा, कुछ भी नहीं खाया-पिया। लगता था, जैसे मेरी दुनिया ही उजड़ गई हो। राज माला को मैं बेवफ़ा भी नहीं कह सकता था, क्योंकि मुझे मेरे भाई की लिखी कांता बहन के विवाह पर पढ़ी गई 'शिक्षा' की अन्तिम पंक्ति अच्छी तरह याद थी :-

गोयल गउँओं और धीयाँ दा माण काहदा
जिधर तोरनां, उधर ही जावणा है।

पर कभी-कभी मन में ऐसा ही आता कि राज माला एक बार तो अपनी इच्छा जाहिर करती। आख़िर मैंने उससे वायदा किया था। यदि मैं वायदा तोड़ देता तो उसके मन पर क्या गुजरती। बस, यह घटना थी जिस कारण रेवती के ख़तों ने मुझे उसकी ओर आकर्षित कर दिया। बाद में, वह तपा मंडी छोड़कर अपने गाँव चली गई। चिट्ठी-पत्र का सिलसिला खत्म हो गया।
मेरा विवाह राज माला के विवाह से पूरे पाँच साल बाद हुआ था और रेवती के विवाह के चार साल बाद। राज माला के पति की मधुमेह रोग के कारण आँखों की नज़र चली गई। मेरी नज़र पहले ही जा चुकी थी।
सुखजीत, रेवती और राज- ये तीन लड़कियाँ मेरी ज़िन्दगी में आईं और अभी भी मेरी स्मृतियों में जिन्दा हैं। तीनों का ठौर-ठिकाना मुझे मालूम है। पर मैंने कभी भी उनसे मिलने का यत्न नहीं किया। बस जो किया है, वह यह है कि उनके नाम का कोई न कोई अक्षर अथवा शब्दांग अपने संग जोड़कर मैं 'स्वराज' बन गया। मेरा यह नाम मेरे अलावा या तो कवि गुरदर्शन(स्वर्गीय) को पता था या मरे भान्जे सुदर्शन को। 1982 में जब 'एस'(स) के बारे में स्पष्टीकरण मैंने ट्रिब्यून के पत्रकार पटियाला वाले शेर सिंह गुप्ता को दिया तो भी मैं झूठ ही बोला था। उसने मेरे बताये अनुसार ट्रिब्यून में मेरा जो फ़ीचर लिखा, उसमें 'स्वराज' शब्द का अर्थ 'आज़ादी' से जोड़ा और बताया कि यह नाम 'एस. तरसेम' के 1942 में हुए जन्म के कारण रखा गया है। 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन शुरू हुआ था। यह आंदोलन स्वराज या आज़ादी से संबंधित था।
मेरी पत्नी का नाम सुदर्शना था। इसलिए मेरे कुछ लेखक मित्रों ने यह समझ लिया कि मैंने अपनी पत्नी के नाम वाला पहला अक्षर अपने नाम से जोड़ लिया है। मेरी पत्नी को भी कभी तो यह बात ठीक लगती और कभी वह सोचती कि इस 'स' या 'एस' के पीछे कोई रहस्य है। उसे भी शक था कि 'स' अक्षर किसी लड़की के नाम का पहला अक्षर है। पर मैंने अपने मुँह से कभी यह रहस्य नहीं खोला था। इसलिए यह पर्दा गृहस्थी की गाड़ी चलाने के लिए सहायक ही रहा। अब सवाल पैदा होता है कि स. तरसेम से एस. तरसेम कैसे बना। इसके साथ भी एक छोटी-सी घटना जुड़ी हुई है।
मैंने अपनी एक कहानी 'अकाली पत्रिका' को भेजी। अख़बार ने कहानी छाप तो दी पर स. तरसेम के स्थान पर मेरा नाम एस. तरसेम छाप दिया। मैंने अकाली पत्रिका के संपादक ज्ञानी शादी सिंह को पत्र लिखा। उसने उत्तर में लिखा कि 'स' से आम तौर पर अर्थ 'सरदार' लिया जाता है और किसी गुरसिक्ख के नाम से पहले 'स' सम्मान-सूचक शब्द का पहला गुरमुखी अक्षर है। भला कोई लेखक अपने नाम के आगे यह भूल कैसे कर सकता है। उन्होंने लिखा कि मैं अपने नाम के साथ 'एस' लिखा करूँ। सो, मैं स. तरसेम से एस. तरसेम बन गया।
अब जब मैं केन्द्रीय पंजाबी सभा के झंडे तले पंजाबी माँ-बोली को योग्य स्थान दिलाने के लिए चल रहे संघर्ष के दौरान, शिक्षा संस्थाओं और दफ्तरों द्वारा अंग्रेजी के किए जाने वाले अनावश्यक प्रयोग का विरोध करता हूँ तो कई अड़ियल ज्ञानी मेरे संग इस बात पर ही बहस पड़ते हैं कि मैंने स्वयं अपने नाम के साथ अंग्रेजी का अक्षर 'एस' लगा रखा है। कुछ तो मेरे द्वारा दिए गए स्पष्टीकरण से संतुष्ट हो जाते हैं पर कुछ मेरे स्पष्टीकरण को एक नाटक भी कह देते हैं। कुछ मित्र अभी चिट्ठी-पत्री के समय मेरा नाम स. तरसेम ही लिखते हैं। मुझे इसपर भी कोई एतराज़ नहीं। पर मैं कभी कभी सोचता हूँ कि क्यों न सिर्फ़ तरसेम ही लिखा करूँ। पर अब सुखजीत, रेवती और राज के चेहरे मेरे सामने आ खड़े होते हैं। मैंने उनके नामों के साथ ज़िन्दगी के इतने वर्ष गुजारे हैं। मेरी पत्नी का नाम भी संयोग से 'स' से शुरू होता है। उसकी याद भी इस नाम के साथ जुड़ी है। अब मैं एस. तरसेम नाम से दूर दूर तक जाना जाता हूँ। अब यह नाम ही ठीक है। जिन्हें इस नाम में कुछ गलत लगता है, वे मुझे माफ़ करें। मनुष्य भूलनहार है।
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1-गुरमुखी वर्णमाला का चौथा अक्षर 'स' जिसे 'ससा' कहा जाता है।

(जारी…)
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Sunday, November 13, 2011

पंजाबी उपन्यास



''साउथाल'' इंग्लैंड में अवस्थित पंजाबी कथाकार हरजीत अटवाल का यह चौथा उपन्यास है। इससे पूर्व उनके तीन उपन्यास - 'वन वे', 'रेत', और 'सवारी' चर्चित हो चुके हैं। ''साउथाल'' इंग्लैंड में एक शहर का नाम है जहाँ अधिकतर भारत से गए सिक्ख और पंजाबी परिवार बसते हैं। यहाँ अवस्थित पंजाबी परिवारों के जीवन को बेहद बारीकी से रेखांकित करता हरजीत अटवाल का यह उपन्यास इसलिए दिलचस्प और महत्वपूर्ण है क्योंकि इसके माध्यम से हम उन भारतीय लोगों की पीड़ा से रू-ब-रू होते हैं जो काम-धंधे और अधिक धन कमाने की मंशा से अपना वतन छोड़ कर विदेशों में जा बसते हैं और वर्षों वहाँ रहने के बावजूद वहाँ की सभ्यता और संस्कृति का हिस्सा नहीं बन पाते हैं।

साउथाल
हरजीत अटवाल
हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव

।। अट्ठाईस ॥
प्रदुमण सिंह कई बार सोचने लगता है कि ज्ञान कौर ठीक कह रही है कि राजविंदर का ब्याह कर दिया जाए। यह तो ठीक है कि जिस लड़की को भी वह ब्याह कर लाएगा, उसकी ज़िन्दगी खराब ही होगी, पर ऐसा करने से उसके लड़के की ज़िन्दगी तो बच सकती है। इस लड़के के साथ-साथ छोटों पर भी गलत असर पड़ने से बचेगा, लड़कियों की उसको ख़ास चिंता है। इस मुल्क में जिस तरह बच्चे बिगड़ जाते हैं, उससे तो वह सदैव ही चिंतातुर रहता है। इसीलिए इंडिया में सैटिल हुआ था कि और नहीं तो, बच्चों को तो मनपसंद जगह पर ब्याहेगा, पर हालात ने उसको फिर उस जगह पर ला खड़ा किया है जिससे वह डरता है। अभी तक तो उसके बच्चे ठीक हैं। बस, यह राजविंदर ही बिगड़ा हुआ है। वह पत्नी से कहता है-
''जा, कर ले बेटे का ब्याह, ढूँढ़ ले लड़की। पर जल्दबाजी न करना, ख़ानदानी लड़की चाहिए, भूखे घर की नहीं।''
''ख़ानदानी लड़की तो इंडिया से ही मिलेगी।''
''इंडिया हो आ फिर।''
''क्रिसमस पर देखते हैं। तुम भी साथ चलना।''
''मुझे नहीं जाना दुबारा वहाँ।''
''अब तो सब ठीक है। पंजाब में आतंकवाद तो अब खत्म हो चुका है।''
''खत्म हो चुका होगा, पर मेरे जख्म तो अभी दर्द करते हैं।''
कहने को तो वह कह जाता है पर नीरू से मिलने को उसका दिल करता है। अब तो काफी दिन हो गए हैं, नीरू को फोन किए भी। कारा ठीक कहता है कि इतनी देर कोई औरत तो मेरे इंतज़ार में बैठी नहीं रह सकती। जैसे भी हो, जब वह इंडिया गया तो कुछ दिन तो जश्न जैसे गुजरेंगे ही। पर जाएगा कब। पता नहीं, जाएगा भी कि नहीं, या फिर यूँ ही सोचता ही रहेगा।
आजकल कारा उसको कम ही मिलता है। कारे का सप्ताहांत तो निठल्लों जैसा ही होता है। खास तौर पर रविवार। लेकिन प्रदुमण सिंह किसी दिन भी खाली नहीं होता। कोई न कोई काम सिर पर खड़ा होता है। उस दिन वह प्रताप खैहरे के रेस्ट्रोरेंट पर ही मिलता है। कितने दिनों बाद। प्रताप खैहरे का ब्राडवे पर बहुत पुराना रेस्ट्रोरेंट है। बहुत प्रसिद्ध है। साउथाल के सबसे पुराने रेस्ट्रोरेंटों में से है। उसके सामने ही चौधरी मुश्ताक अली का ‘चौधरी तंदूरी’ है। यह भी काफ़ी पुराना है। एक समय था कि साउथाल के ये दोनों ही जाने-माने रेस्ट्रोरेंट होते थे। अब तो पूरा साउथाल ही रेस्ट्रोरेंटों से भरा पड़ा है। अब इनकी पहले जैसी बात नहीं रही है। 'गुड मार्निंग' रेडियों पर अनाउंसर नित्य नये-नये रेस्ट्रोरेंटों की ऊँची आवाज़ में मशहूरी करने लग पड़े हैं। फिर भी, खैहरा और चौधरी चूँकि साउथाल के पुराने व्यक्ति इसलिए लोग इन्हें जानते हैं और इन दोनों में टक्कर अभी भी पहले जैसी ही चल रही है। जैसा कि आमने-सामने वाले रेस्ट्रोंरेटों में हो ही जाया करती है। जब दोनों रेस्ट्रोरेंट भरे रहते थे, तब यह तनाव कम था। अब काम कम हो चुके हैं। नये रेस्ट्रोरेंटों ने ग्राहक खींच लिए हैं। अपने कम हुए काम का दोष ये एक-दूसरे को देने लगते हैं। अब तो तनाव इतना बढ़ चुका है कि तलवारें किसी भी समय निकल सकती हैं। प्रताप खैहरा सिक्खों के लड़कों को हवा दे कर रखता है और चौधरी मुसलमानों के लड़कों को इस्तेमाल करता है। इसलिए मुसलमानों और सिक्खों के लड़कों मे तनाव रहता है। दोनों ने अपने अपने रेस्ट्रोरेंट की बेसमेंट में स्नूकर क्लब बनाये हैं जो कि इन लड़कों के इकट्ठा होने का कारण बनते हैं।
प्रताप खैहरा सिक्ख और हिंदू कम्युनिटी के प्रतिष्ठित लोगों को अपने रेस्ट्रोरेंट में बुलाता है। बहाना तो है रेस्ट्रोरेंट की पच्चीसवीं वर्षगांठ मनाने का। साउथाल के प्रतिष्ठित लोगों में कारा भी आता है और अब प्रदुमण भी। कई दिनों बाद मिलने के कारण वे दोनों आपस में ही बातें किए जा रहे हैं। प्रताप खैहरा के निमंत्रण की उन्हें ज्यादा फिक्र नहीं है। कारा उससे कहता है -
''यह खैहरा भी सियासी बंदा है। यूँ तो यह चाय भी नहीं पिलाता। यह पार्टी यूँ ही नहीं कर रहा।''
''इसका अब चौधरी के साथ पंगा भी तो पड़ा हुआ है। शायद अपने साथ जुड़े लोगों का दिखावा करना चाहता हो उसके आगे।'' प्रदुमण कहता है। उसको कुछ स्मरण हो आता है तो वह फिर कहने लगता है, ''मुझे तो एक दिन चौधरी का फोन आया था। समोसों के बारे में पूछ रहा था। मैंने कहा था कि कभी आ जा, बैठकर बात करेंगे।''
''मेरा तो खुद का क्लाइंट है चौधरी। उसकी सारी कारों-वैनों की इंश्योरेंस मैं कर रहा हूँ। कभी रोटी खाने भी आ जाएँ तो पैसे नहीं लेता।''
''चलो, अब आए हैं तो देख लेते हैं कि खैहरा टोपी में से कैसा कबूतर निकालता है।''
बातें करते हुए वे दोनों कुर्सियों पर बैठ जाते हैं। कुछ अंग्रेज लड़कियाँ शराब, जूस और कोक आदि सर्व कर रही हैं। कारा आदत के कारण ज्यादा नहीं पीता, पर प्रदुमण सिंह एक पैग ज्यादा पी जाता है। यह रेस्ट्रोरेंट का बेसमेंट है। जहाँ पर वे सभी बैठे हैं, वह स्नूकर क्लब है। नौजवान लड़के यहाँ स्नूकर खेलने आते हैं। आज कुर्सियाँ और मेज़ लगाकर एक तरफ मंच भी बना रखा है। कुछ देर बाद जसपाल सिंह दाढ़ी पर हाथ फेरता मंच पर चढ़ता है और कहने लगता है-
''दोस्तो, आज हम खैहरा तंदूरी की सिलवर जुबली पर एकत्र हुए हैं। इन्हें हम सबकी ओर से बधाइयाँ तो हैं ही कि इतने वर्षों से इतनी कामयाबी से यह कारोबार चला रहे हैं। साथ ही साथ, हम इनके विचार भी सुनेंगे। सबसे पहले मैं सरदार सुंदर सिंह और सरदार मीहां सिंह से विनती करता हूँ कि वे मंच पर आकर सुशोभित हों। ये दोनों हमारे बुजुर्ग़ साउथाल के सबसे पुराने पंजाबी हैं। यूँ कह लो कि साउथाल इन्होंने ही बसाया है।''
दो बुजुर्ग़ उठकर मंच की तरफ जाते हैं और उसके बाद प्रताप खैहरा भी ऊपर मंच पर जा बैठता है। फिर जसपाल सिंह, केवल सिंह भंवरा को अपने विचार रखने के लिए आमंत्रित करता है। केवल सिंह भंवरा की पगड़ी जो कीन्या से आए सरदारों जैसी है, से उसकी पृष्ठभूमि का पता चल जाता है। बात करने के अंदाज से अनुभवी व्यक्ति प्रतीत होता है। वह प्रताप खैहरा की तारीफ़ों के पुल बांध रहा है। साउथाल की सांस्कृतिक ज़िन्दगी में खैहरा तंदूरी के महत्व का उल्लेख करता है और फिर कहने शरू करता है-
''दोस्तो, कुछ बातें और भी हैं आपके साथ करने वालीं। शायद, आपने खबरों में पढ़ा-सुना होगा कि मुस्लिम धर्म के कुछ लोग सिक्ख धर्म को नीचा दिखाने पर तुले हुए हैं। मैं सारे मुसलमानों को दोष नहीं दे रहा। कुछेक लोग जो कि ईर्ष्या के शिकार होकर ऐसा कर रहे हैं और यंगस्टर को उकसा रहे हैं। इसमें कोई शक नहीं कि जैसे पूरा पाकिस्तान इंडिया के लिए फैसिनेटिड है, उसी तरह पंजाब मुसलमान सिक्खों के प्रति फैसिनेटिड हैं। नहीं तो साउथाल में मुसलमान थे ही कितने! ब्राडवे की सारी दुकानें पंजाबियों की थीं, मतलब कि हमारी। अब वे दिनोंदिन यहाँ घुसपैठ कर रहे हैं। आधी दुकानें अब इनकी हो चली हैं। हलाल मीट की दुकानें झटके वाली दुकानों से ज्यादा हो गई हैं। ये ऐसी बातें घटित हो रही हैं बिकॉज वी आर नाट केअरफुल टुवर्ड अवर रिलीज़न एंड कम्युनिटी। पर अब बड़ा खतरा अपने सामने है। ये एकतरफ़ लीफ़लैट पड़े हैं जो मुस्लिम लड़कों के बीच बांटे जा रहे हैं। इनमें बताया गया है कि सिक्ख धर्म बुरा है। सिक्खों को सबक सिखाने का तरीका एक ही है कि उनकी लड़कियों को फंसाओ और मुसलमान बनाओ। इस काम के लिए लड़कों को मुस्लिम कम्युनिटी के लीडरों की सरपरस्ती हासिल है। हमें इसका मुकाबला करना चाहिए। कम से कम अपना बचाव तो करना ही चाहिए। पहली बात तो लड़कियों को यह शिक्षा दें कि मुसलमान कितने बुरे हैं, इनके इरादे क्या हैं। हमारी लड़कियों से दोस्ती का मतलब उनकी ज़िन्दगी खराब करना है। कितनी ही लड़कियों को ये लोग फुसला कर पाकिस्तान ले गए हैं और वहाँ कोठों पर बिठा आए हैं। इसके साथ-साथ, अपने लड़कों को भी शिक्षा देने की ज़रूरत है कि अपनी सिक्ख लड़कियों की रखवाली करो। हर सिक्ख लड़के के जिम्मे यह फर्ज़ लगाओ, उसकी जिम्मेवारी लगाओ कि वे हर सिक्ख लड़की के दोस्त बनकर, भाई बनकर उनकी हिफाजत करें और हम बड़ों का काम है कि मुसलमानों की तरह ही इन अपने लड़कों को सरपरस्ती दें ताकि हमें सरदार साधू सिंह न बनना पड़े।''
केवल सिंह भंवरा का भाषण अभी चल ही रहा है कि साधू सिंह का नाम सुनते ही कुछ लोग जोश में आ जाते हैं। एक आदमी उठकर बांहें ऊपर उठा आवाज़ लगाता है - ''सरदार साधू सिंह!'' कुछ आवाज़ें उठती हैं - ''ज़िन्दाबाद !'' शोर-सा मच जाता है। केवल सिंह भंवरा माहौल देखकर स्टेज पर से उतर आता है। जसपाल सिंह फिर माइक संभालते हुए कहने लगता है-
''भाइयो ! भंवरा साहब की बातें सोलह आने सच हैं। हमें मिलजुलकर बैठने की ज़रूरत है। यह साधू सिंह वाली दुर्भाग्यपूर्ण घटना दुबारा न घटे, इसे रोकना है हम सबको। हाँ जी... अगर किसी अन्य भाई को बोलना हो।''
वह सामने बैठे लोगों में से वक्ता को खोजने की कोशिश करता है। कोई नहीं उठ रहा। वह फिर कहता है -
''इस काम के लिए प्रताप खैहरा ही आगे आए हैं, हम सबको इनके हाथ मज़बूत करने चाहिएँ।''
उसकी बात के बीच ही एक हाथ खड़ा होता है। जसपाल सिंह इशारे से ही उस हाथ वाले व्यक्ति को उठकर स्टेज पर आने के लिए कहता है। यह सुरमुख संधू है। वकील संधू। वह अपना ड्रिंक खत्म करके गिलास एक तरफ रखते हुए कहता है-
''भाइयो, अगर इजाज़त दो तो दो बातें कहूँ, पर हैं कड़वीं।''
''घूंट लगाकर तो बंदे को मीठी बातें करनी चाहिएँ।''
कोई कहता है तो सभी हँसने लगते हैं। संधू फिर कहता है-
''यह भी ठीक है, पर जैसा कि कहा करते हैं कि मित्रों की लूण की डली मिश्री बराबर जानो, पहली बात तो यह कि साउथाल सिक्खों ने अपने नाम नहीं लिखवा रखा, कोई भी यहाँ आकर रह सकता है। दूसरा यह जो मुसलमान और सिक्ख लड़के टोलियाँ बना कर आपस में लड़ रहे हैं, इसका कारण धर्म नहीं, लड़कियाँ हैं। यह ठीक है कि मुसलमान लड़के कड़े पहनकर खुद को सिक्ख ज़ाहिर करके सिक्ख लड़कियों के साथ दोस्ती गांठने के चक्कर में होंगे, हो सकता है, पर दोस्ती जैसे रिश्ते को कोई मजबूरी नहीं होती। यह जो बात आप सिक्ख लड़कियों को पाकिस्तान ले जाकर कोठों पर बिठाने वाली करते हो, ज़रा बताओ तो ऐसे कितने केस हुए हैं? मैं कई लड़कियों को जानता हूँ जिन्होंने मुसलमान से शादी की, पाकिस्तान जाकर भी आई हैं और खुश हैं। मेरा ख़याल है कि हम बात को बढ़ा-चढ़ाकर कर रहे हैं। यह बात भी याद रखने लायक है कि जो पेड़ हम लगा रहे हैं, इससे यहाँ सिक्ख-मुस्लिम फसाद भी हो सकते हैं। मैं तो यह कहता हूँ कि बात को और ज्यादा सोच समझकर उसे बढ़िया ढंग से हैंडल किया जाए। हाँ, यदि हमारे मित्र प्रताप खैहरा की कोई प्रॉब्लम है तो हैल्प कर दो। हम जानते हैं कि इनका बिजनेस राइवलरी है। हम ऐसा कोई काम न करें कि कल को हमें पछताना पड़े। शुगल की बात यह है कि प्रताप खैहरा की शराब पीकर और चिकन खाकर इससे ज्यादा मैं कह ही नहीं सकता।''
सभी हँसने लगते हैं। संधू बैठ जाता है। कारा प्रदुमण के कान में कहता है-
''शराबी वकील तो छा गया। इसकी बात में सच्चाई है। खैहरा ने तो स्नूकर क्लब के बहाने ऐसे लड़कों का गैंग बना रखा है। उधर चौधरी भी मुसलमान लड़कों को हवा देकर रखता है, पैसे भी देता है उनको।''
''मैं तो सुनता हूँ कि दोनों के ही दूसरे धंधे भी हैं।''
कहते हुए प्रदुमण घड़ी देखता है। फिर कहता है-
''कारे, मुझे जल्दी जाना है। सुबह जल्दी उठना होता है और जाते हुए शायद चौधरी समोसों का आर्डर ही दे दे।''
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Sunday, October 30, 2011

आत्मकथा




एक नेत्रहीन लेखक की आत्मकथा

धृतराष्ट्र
डॉ. एस. तरसेम
हिन्दी अनुवाद : सुभाष नीरव
चैप्टर-24(प्रथम भाग)


मोहब्बत का 'ससा'¹
मेरे अपने गाँव के पंडित कपूर चंद के बनाये टेवे में मेरा नाम बिशम्भर दास था। इस नाम की बुनियाद थी मेरी जन्म-राशि। मुझसे बड़ी और मेरे बहन-भाइयों में सबसे छोटी तारा ने मेरा नाम बृज मोहन रखा। राजस्थान से आकर फेरी लगाने वाला और हमारे घर में ठिकाना करने वाला पंडित मसद्दी मुझे बंगाली कहकर बुलाता। बहन सीता का श्वसुर मुझे मौलवी कहता। ताया मथरा दास मुझे तुलसी कहकर बुलाया करता था। पर नानी द्वारा मेरे जन्म वाले दिन ही रखा नाम तरसेम मेरा पक्का नाम बन गया। 'नामों के झुरमुट' शीर्षक अधीन मैंने अपनी बचपन संबंधी आत्मकथा 'कच्ची मिट्टी, पक्का रंग' में अपने नामों के रखे जाने और उनके प्रचलित होने के बारे में विस्तार से उल्लेख किया है। इसलिए मैं उसको दोहराना नहीं चाहता। दोहराने का मुझे हक भी नहीं है।
मैं सातवीं कक्षा में था जब मेरी कविताएँ अख़बारों में छपनी शुरू हो गई थीं। मैं 'तरसेम लाल तुलसी' नाम से कविताएँ अख़बारों को भेजता। ताया मथरा दास द्वारा रखा गया नाम 'तुलसी' समझो मेरा तख़ल्लुस बन गया था। तपा मंडी में सब मुझे 'तुलसी' कहकर ही बुलाया करते थे। कोई मुझे हमारे गोत्र के कारण 'गोयल' भी कहता और मजाक में कोई 'गोलमोल' भी कह देता, पर शारीरिक तौर पर मैं बिलकुल पतला-लम्बा सींख की तरह था। मेरे भाई को तो कोई हरबंस लाल कहकर बुलाता ही नहीं था। सब उसे 'गोयल साहब' कहते। इसलिए 'तरसेम गोयल' या 'तरसेम तुलसी' मेरे दो नाम मैट्रिक पास करने से पहले चलते रहे। नवम्बर 1958 में मैंने ज्ञानी पास कर ली थी, इसलिए अख़बारों में मैं अपना नाम ज्ञानी तरसेम लाल तुलसी लिखकर भेजने लगा, जिस वजह से हमारे इलाके के कुछ लोग मुझे ज्ञानी जी भी कहने लग पड़े। तपा मंडी के आर्य स्कूल में पंजाबी अध्यापक लगने के कारण और कुछ ज्ञानी की ट्यूशनें पढ़ाने के कारण मुझे 'ज्ञानी जी' या 'तुलसी जी' कहकर ही बुलाया जाने लगा। ऐसे सम्बोधनों से मैं कभी खुश भी होता और कभी उदास भी। ज्ञानी शब्द तो मैं बिलकुल ही अपने नाम से मिटा देना चाहता था, पर क्या करूँ। अभी भी यदि मेरे भाई का मित्र मास्टर चरनदास मिल जाए, तो वह मुझे 'ज्ञानी जी' कहकर ही बुलाता है। वैसे मैंने अपने नाम के आगे और पीछे से 'ज्ञानी' और 'तुलसी' उस वक्त हटा दिए थे जब मैं पहली बार करतार सिंह बलगण की पत्रिका में छपा था - सिर्फ़ तरसेम के नाम से। बस, उस समय से मैं 'तरसेम' नाम के अधीन ही अख़बारों और पत्रिकाओं में छपता रहा। उस समय मैं कविता भी लिखा करता था और कहानी भी।
अचानक, तरसेम सिंह के नाम से छपने वाला एक कहानीकार भी अपनी कहानियों के साथ सिर्फ़ 'तरसेम' लिखने लग पड़ा। न तो मुझे उसका ठौर-ठिकाना पता था और न ही उस वक्त मुझे यह समझ थी कि उसका कहीं से पता-ठिकाना लेकर उसे पत्र लिखूँ कि वह अपना नाम बदल ले, क्योंकि 'तरसेम' नाम के अधीन मेरी रचनाएँ उससे पहले छपी थीं।
मैंने न तो किसी से सलाह ली और न ही किसी को बताया। हाँ, कुछ महीने सोचता अवश्य रहा। आख़िर मैंने अपना लेखकीय नाम 'स. तरसेम' रख लिया। तरसेम नाम से कहानियाँ लिखने वाला लेखक भी पता नहीं कहाँ गुम हो गया। मेरे द्वारा 'स. तरसेम' नाम रखने के तुरन्त बाद पता चला कि वह विदेश चला गया है। यह भी ख़बर मिली कि वह आजकल एक मैगज़ीन निकालता है - 'नीलगिरी'। इसलिए उसका नाम भी 'तरसेम नीलगिरी' पड़ गया। लेकिन मैं तो अब स. तरसेम बन चुका था। इस 'स' के बारे में मेरे लेखक दोस्त प्राय: पूछते रहते, पर मैं हँसकर टाल देता। यदि कोई पीछ ही पड़ जाता तो मैं कहता 'स' सीक्रेट है अर्थात गुप्त।
मेरे अन्दर उन दिनों इतना साहस नहीं था कि 'स' की सारी कहानी खोल देता। यह कहानी तो मैंने तब भी नहीं खोली, जब 1990 में मेरी बचपन की आत्मकथा 'कच्ची मिट्टी, पक्का रंग' में मेरे नाम को लेकर एक पूरा अध्याय छपा था। तब भी मैंने यह लिख दिया था, ''स. तरसेम मैं बहुत सोच-समझ कर लिखने लगा था। इसके पीछे तीन कहानियाँ हैं। तीन लड़कियाँ हैं। लड़कियों से हुई मुहब्बतें हैं। पहली मुहब्बत बचपन की मुहब्बत है। इसलिए अब भी मैं यह गीत अक्सर गुनगुनाता रहता हँ :

बचपन की मुहब्बत को
दिल से न जुदा करना
जब याद मेरी आए
मिलने की दुआ करना...

मुहब्बत की शुरूआत मेरे से हुई थी। भला 12-13 साल के लड़के को भी मुहब्बत करने का पता होता है, इस बात की समझ मुझे अभी तक नहीं आई। पर मैं उसको प्यार करता था। अब भी प्यार करता हूँ। अब वह मेरी तरह सेवा-मुक्त ज़िन्दगी बिता रही है। उसके कोई औलाद नहीं। सुना है कि उसने एक बेटी गोद ले रखी है। बहुत सुन्दर थी वह लड़की, मूरत जैसी, मानो ईश्वर ने फुर्सत में बैठ कर घड़ी हो। मेरी बड़ी बहन शीला ने जब उसे एक दिन देखा था, तो कहा था -
''भाई, यह लड़की तो मोरनी जैसी है, जिस घर में जाएगी, घर को सजाकर रख देगी।'' बहन को क्या मालूम था कि मैं उस लड़की को प्यार करता था। बहन को अब भी नहीं पता, किसी को भी नहीं पता। बस, मेरे मित्र कवि गुरदर्शन (स्वर्गीय) को ही मालूम था। अन्य किसी के सम्मुख इस मुहब्बत की मैंने भाप तक नहीं निकाली थी। उस लड़की को गली में 'पीचो-बकरी' खेलने से लेकर मेरे सामने पढ़ती हुई को मैंने सैकड़ों बार निहारा था। वह एक प्राइमरी अध्यापिका की बेटी थी। जब वह प्राइवेट दसवीं करने लगी तो ट्यूशन पढ़ने के लिए मेरे भाई के पास आने लगी। शाम पाँच बजे के बाद वह पढ़ने आया करती। मैं उस समय ज्ञानी कर रहा था। ज्ञानी गुरबचन सिंह तांघी के मालवा ज्ञानी कालेज, रामपुरा फूल में करीब ढाई महीने मैं पढ़ा था। दोपहर 12 बजे की ट्रेन से जाता और शाम पाँच बजे वाली से लौट आता। यदि गाड़ी छूट जाती तो मैं पैदल चल पड़ता। बहुत तेज़ चला करता था उन दिनों। उस लड़की के पढ़कर जाने से पहले पहले मैं घर पहुँच जाया करता था। उन दिनों तो मेरे अन्दर मुहब्बत का सोता निरन्तर फूट रहा था। सिर्फ़ उसके दर्शन-दीदार के लिए मैं तेज़-तेज़ चलकर रामपुरा फूल से घर पहुँचा करता। सीधा कोठे पर चढ़ जाता, जहाँ भाई दो लड़कियों को पढ़ा रहा होता। उनमें ही थी वह हसीन लड़की जो 'स' की बुनियाद थी। उस लड़की ने मार्च 1959 में दसवीं पास की। मैं उन दिनों तपा मंडी के आर्य हाई स्कूल में पंजाबी का अध्यापक लग चुका था। उस लड़की का नाना हमारे घर आया और मेरे भाई से कहने लगा कि अगर तरसेम हमारी लड़की को ज्ञानी करवा दे। मैं समीप बैठा था। अन्दर से मैं बहुत खुश था। ज्ञानी में पंजाब यूनिवर्सिटी में मैं तीसरे स्थान पर रहा था। तांघी साहब ने अपने मालवा कालेज को और अधिक चमकाने के लिए जो इश्तहार छापा, उसका आरंभ कुछ इस प्रकार था :
'केवल ढाई महीने पढ़कर ज्ञानी का विद्यार्थी तरसेम लाल गोयल पंजाब यूनिवर्सिटी की नवम्बर 1958 की परीक्षा में 367 नंबर लेकर तीसरे स्थान पर रहा और प्रथम आने वाले विद्यार्थी से केवल 10 नंबर कम।' यही कारण था कि मेरी प्रसिद्धि दूर तक फैल गई थी।
कुछ 'न-न' करने के बाद आख़िर मैं सहमत हो गया। यह 'न-न' तो यूँ ही एक ड्रामा था। मैं तो अपने पल्ले से चार पैसे खर्च करके भी उसके घर जाने को तैयार था। मैंने अगले दिन से ही बाकायदा उनके घर जाकर उस लड़की को पढ़ाना शुरू कर दिया। एक घंटा पढ़ाने की बात हुई थी और ट्यूशन लेनी थी बीस रुपये महीना। घंटा क्या, कभी डेढ़ घंटा भी लग जाता। दो घंटे भी लग जाते। समय के बीतने का पता ही न चलता। लेकिन एक दिन उसकी माँ ने कहा कि मैं चौबारे की बजाय उसे ड्यौढ़ी में ही पढ़ाया करूँ। मुझे यह मेरा अपमान-सा महसूस हुआ। लगा जैसे उसकी माँ मेरी नीयत पर शक कर रही हो। मुझे यह भी लगा कि शायद उस लड़की ने ही कोई ऐसी बात कह दी हो जिसके कारण उसकी माँ को ऐसा कहना पड़ा हो। मैं अगले दिन पढ़ाने नहीं गया, दूसरे दिन भी नहीं और तीसरे दिन भी नहीं। लड़की का नाना छड़ी खटखटाता मेरे घर आ पहुँचा। मैंने उसे भीतरी बात नहीं बताई थी। बस, कह दिया था कि मेरे पास वक्त नहीं है। पहली कक्षा में वह मेरा अध्यापक रहा था। उसने मुझे बहुत अपनेपन से कहा, ''भई तरसेम, बीच मंझदार में न डुबा लड़की को।''
कुछ तो उसके अध्यापक होने के कारण, कुछ नेत्रहीन होने के कारण और कुछ मेरे अपने दिल का उस लड़की के प्रति आकर्षण होने के कारण, मैं मान गया। लेकिन शर्त यह रखी कि मैं ड्यौढ़ी में नहीं पढ़ाऊँगा।
''लो बताओ, बखेड़ा ड्यौढ़ीवाला था। तूने पहले क्यों नहीं बताया ? बीबी यूँ ही वहमी है। मेरे यार तू कहीं भी बैठकर पढ़ा। बस, कल को आ जाना मेरे वीर।'' मास्टर जी के शब्दों में अपनत्व भी था और अनुनय भी। 'बीबी' शब्द का प्रयोग उसने अपनी बेटी के लिए किया था, दोहती के लिए नहीं। घर में लड़की की माँ को सब 'बीबी' कहा करते थे और अड़ोस-पड़ोस में भैण जी। अगले दिन दोपहर के बाद गया। वैसे ही चौबारा साफ-सफाई किया हुआ, मेरी कुर्सी बिलकुल पहले वाली जगह पर और चारपाई जिस पर लड़की बैठा करती थी, बिलकुल उसी जगह पर।
लड़की इस बात की जिद्द कर रही थी कि मैं उसे तीन दिन न आने का असली कारण बताऊँ। मैंने उसे सबकुछ बता दिया। पीचो-बकरी खेलने वाली उस लड़की के ज्ञानी की पढ़ाई शुरू करने तक की उसके प्रति अपनी सब भावनाएँ टुकड़ों में धीरे-धीरे प्रगट कर दीं। लड़की के चेहरे पर कुछ घबराहट आ गई थी और मैं भी कुछ डर गया था। मैं कौन-सा पोरस था। बात खत्म हुई तो हमने पढ़ाई शुरू कर दी।
पढ़ाई से लड़की का नाना, बीबी और स्वयं लड़की बहुत संतुष्ट थे। ढाई-तीन महीने विवाह जैसे बीत गए। चाय तो वे रोज़ पिलाते ही थे, कभी-कभार रोटी खिलाने के लिए भी वे जिद्द पकड़ लेते थे। मैं रोटी भी खा लेता था। इस सबकुछ में मेरी भावुक सांझ जुड़ी हुई थी।
लड़की ने परीक्षा दी। पेपर अच्छे हो गए। लड़की से अधिक मैं स्वयं उसके नतीजे की प्रतीक्षा करने लगा। जिस दिन उसका नतीजा अख़बार में छपा, मेरी खुशी का ठिकाना नहीं था। ऐसा प्रतीत होता था मानो मैं भी पास हो गया होऊँ। वैसे भी मैं सैर करने के लिए उनके घर के साथ लगती गली में से गुजरा करता और कभी-कभार सिर्फ़ उससे मिलने के लिए मैं उनके घर भी जाता। यह प्यार का सिलसिला मुझे एकतरफा प्रतीत हुआ। उसकी ओर से कोई हुंकारा नहीं था। बेशक एफ़.ए. और बी.ए. की परीक्षाएँ उसने मेरी तरह प्राइवेट ही दी थीं और प्राय: पढ़ाई में भी मेरी सलाह लेती रहती थी, पर मैं जो चाहता था, उस बारे में उसकी ओर से उसका इन्कार ही समझो।
बी.ए. करने के उपरांत तो वह बहुत चालाक हो गई थी। अपने आप को कुछ समझने भी लग पड़ी थी। मैंने उसे पंजाबी में एक लम्बा पत्र लिखा। ज़िन्दगी में यह मेरा पहला प्रेम पत्र था। मैं स्वयं उस पत्र को लेकर उसके घर गया। वह ड्यौढ़ी में नानी के पास बैठकर गरारे कर रही थी। मुझे देखकर उसने लुटिया रख दी और पूरे अदब से नमस्ते कहा। मैंने उसके हाथ में पत्र रख दिया।
''क्या है यह ?'' उसके चेहरे पर लाली छा गई थी, मानो उसका खूब गोरा रंग गुलाबी हो गया हो।
''देख ले।'' मेरी आवाज़ में कंपन ज़रूर होगा। उसने पत्र की पहली पाँच-सात पंक्तियाँ ही पढ़ी होंगी। बड़े धैर्य से बोली-
''बहुत सुन्दर है चिट्ठी यह। मैं इसे अकाली पत्रिका में भेज दूँ।'' वह मजाकिया लहजे में बोल रही थी। उन दिनों में पंजाब में 'अकाली पत्रिका' बहुत प्रसिद्ध अख़बार माना जाता था।
''भेज दे। चाहे ट्रिब्यून में भेज दे।'' मैंने ज़रा खीझकर कहा। (1990 में ट्रिब्यून सिर्फ अंग्रेजी में छपता था और अम्बाला से निकलता था।)
''आप नाराज़ तो नहीं होगे ?'' उसने बड़े नरम लहजे में पूछा।
''नहीं।''
चाय-पानी की रस्मी पूछताछ और मेरी रस्मी तौर पर न-नुकर के बाद मैं घर लौट आया। बस, यह उससे अन्तिम मुलाकात थी जिसके बाद यदि कोई मुलाकात हुई भी, उसमें न मेरी ओर से कोई बात चली और न ही उसकी ओर से।
1994 में वह मालेरकोटला मेरे घर आई। उसका पति उसके संग था। शिष्टाचार के नाते उसकी खातिर-सेवा भी की, पर मेरे दिल में से उसके प्रति प्यार का चश्मा न फूटा, जिसकी शीतलता वर्षों तक मेरी यादों में रची-बसी रही थी। कारण स्पष्ट था कि वह किसी मोह-मुहब्बत के कारण मेरे पास नहीं आई थी, यहाँ एक दफ्तर में उसका कोई काम था और मुझे बा-रसूख व्यक्ति समझकर वह अपने पति के संग मेरे पास आ गई थी। यह वह लड़की थी जिसका नाम 'स' से आरंभ होता था - सुखजीत। अब भी जब वह मुझे याद आती है, उसकी ओर से कोई रिस्पांस न मिलने का दर्द मेरे कलजे में कसक पैदा करता है। मुझे प्यार नहीं किया, न सही। मैंने तो उसे प्यार किया था। अब भी मैं उसे प्यार करता हूँ।
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1-गुरमुखी वर्णमाला का चौथा अक्षर 'स' जिसे 'ससा' कहा जाता है।
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Saturday, October 22, 2011

पंजाबी उपन्यास




''साउथाल'' इंग्लैंड में अवस्थित पंजाबी कथाकार हरजीत अटवाल का यह चौथा उपन्यास है। इससे पूर्व उनके तीन उपन्यास - 'वन वे', 'रेत', और 'सवारी' चर्चित हो चुके हैं। ''साउथाल'' इंग्लैंड में एक शहर का नाम है जहाँ अधिकतर भारत से गए सिक्ख और पंजाबी परिवार बसते हैं। यहाँ अवस्थित पंजाबी परिवारों के जीवन को बेहद बारीकी से रेखांकित करता हरजीत अटवाल का यह उपन्यास इसलिए दिलचस्प और महत्वपूर्ण है क्योंकि इसके माध्यम से हम उन भारतीय लोगों की पीड़ा से रू-ब-रू होते हैं जो काम-धंधे और अधिक धन कमाने की मंशा से अपना वतन छोड़ कर विदेशों में जा बसते हैं और वर्षों वहाँ रहने के बावजूद वहाँ की सभ्यता और संस्कृति का हिस्सा नहीं बन पाते हैं।

साउथाल
हरजीत अटवाल
हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव

॥ सत्ताईस ॥

ईलिंग काउंसल के चुनाव आ रहे हैं। सभी पार्टियों ने अपनी पार्टी की ओर से काउंसलर खड़े करने हैं। पहले अपने-अपने उम्मीदवार नामज़द करने हैं। भारद्वाज सक्रिय हो जाता है। सोहनपाल उसके साथ है। जगमोहन और गुरचरन भी हैं। दिलजीत दूर रहता है, राजनीति से एक तरफ। सोहनपाल ने उसके लिए हिलसाइड वार्ड चुना है। यहाँ का काउंसलर प्रीतम फुल्ल अनपढ़-सा व्यक्ति है। लोगों में उसका बड़ा नाम नहीं है। कुछ हेराफेरी से पिछली बार नामज़दगी जीत गया था, वैसे योग्य नहीं है। उसके मुकाबले शाम भारद्वाज ज्यादा पढ़ा-लिखा है और स्पीकर भी बढ़िया है।
हर वार्ड के पार्टी मेंबर्स को उम्मीदवार नामजद करने हैं। वह तारीख़ आ जाती है। शाम भारद्वाज ने अपने बहुत सारे नये मेंबर जो कि इस वार्ड में रहते हैं, लेबर पार्टी में भर्ती किए हैं। मित्रों के साथ वैन गाड़ियाँ भरकर लेबर पार्टी के ऐक्टन वाले दफ्तर में पहुँच जाता हे। सेलेक्शन कमेटी के तीन व्यक्ति हैं। सबसे पहले तो चेयरमैन नये सदस्यों को पार्टी ज्वाइन करने के लिए उनका धन्यवाद करता है, स्वागत करता है और वह इतनी बड़ी उपस्थिति पर हैरान भी होता है। वह अर्जियों को देखते हुए बारी-बारी से संभावित उम्मीदवारों को स्टेज पर बुलाता है। हर व्यक्ति अपना परिचय देता है और बताता है कि वह काउंसलर क्यों बनना चाहता है। सभी अपनी-अपनी सामाजिक और राजनीतिक गतिविधियों पर प्रकाश डालते हुए काउंसलर बनने की अपनी योग्यता के विषय में दावे करते हैं। फिर उपस्थित मेंबर उनसे भाँति-भाँति के प्रश्न पूछते हैं। कुल पांच लोगों की अर्जियां हैं- तीन एशियन और दो गोरों की। एशियनों में से सबसे अधिक प्रभावशाली भाषण मुख्तियार सिंह ग्रेवाल का है। वह कालेज में अध्यापक है। वह साउथाल में बच्चों की पढ़ाई और स्त्रियों के हकों पर ज़ोर देना चाहता है और साथ ही, वह साउथाल में घरों की बढ़ती संख्या से हो रही भीड़-भाड़ से भी चिंतित है। शाम भारद्वाज का भाषण आम मसलों के बारे में है जैसे कि साउथाल की गंदगी, बढ़ता ट्रैफिक और भाईचारे के अच्छे संबंध। इसी प्रकार प्रीतम फुल्ल रटी-रटाई बातें करता है। दोनों गोरे कुछ सही बाते करते हैं पर हाल में गोरों की संख्या कम है।
वोट पड़ते हैं। शाम भारद्वाज को इक्कीस, प्रीतम फुल्ल को उन्नीस, पीटर एंडरसन को सत्तरह, आर्थर मिलर को सोलह और ग्रेवाल को सात वोट पड़ती हैं। शाम भारद्वाज खुश है। वह अभी से ही स्वयं को काउंसलर बना समझ रहा है। लेबर पार्टी के उम्मीदवार ने साउथाल में से तो जीतना ही है। इस पार्टी का ही यहाँ पर ज़ोर है। अधिकांश एशियन लोगों के दिलों में यह बात घर किए बैठी है कि वे मज़दूर क्लास लोग हैं और लेबर पार्टी ही उनके लिए अच्छी है। इसलिए वे सभी लेबर पार्टी को ही वोट डालते हैं। शाम भारद्वाज को लगता है कि वह बस जीता ही जीता। वह अभी से सभी से बधाइयाँ ले रहा है। जगमोहन उसको दूर से हाथ हिलाकर बधाई देता है। प्रीतम फुल्ल अपने साथियों के साथ मुँह लटकाये खड़ा है। कुछेक लोग धीमे स्वर में कह रहे हैं कि यह तो सीधी हेराफेरी है। इस तरह अचानक मेंबरों की गाड़ियाँ भर कर ले आना, ये तो घटिया राजनीति है। प्रीतम फुल्ल को लगता नहीं था कि वह नामजदगी से यूँ हाथ धो बैठेगा।
जगमोहन सब उम्मीदवारों के भाषण ध्यान से परखता है। उसको सबसे बढ़िया बातें ग्रेवाल की लगती हैं। वह एक तरफ खड़ा होकर लोगों की ओर देख रहा है। जगमोहन उसके करीब जाकर उसे सम्बोधित होते हुए कहता है -
''मुझे आपकी बातें बहुत अच्छी लगीं, पर मुझे लगता है, आपने अपना होमवर्क पूरा नहीं किया। यही कारण है कि नॉमीनेशन नहीं मिली।''
ग्रेवाल हँसते हुए कहता है-
''नॉमीनेशन मिलना तो दूर की बात है, ये जो छह-सात वोट पड़े हैं, ये भी लोग धोखे में डाल गए हैं।'' कहकर वह ज़ोर से हँसता है।
जगमोहन कहता है, ''सेलेक्शन का यह तरीका ही गलत है।''
''सेलेक्शन का तरीका तो ठीक है, पर हम लोग हेराफेरी करने से नहीं हटते।''
ग्रेवाल के कहने पर जगमोहन कुछ झेंप-सा जाता है। उसको लगता है कि ग्रेवाल उसके बारे में ही कह रहा है कि वह शाम भारद्वाज की वोट बनकर आया हुआ है। ग्रेवाल पुन: कहता है-
''मैंने तो यह तुर्ज़बा ही किया है, वैसे मेरा फील्ड नहीं है यह।''
''आपका कौन-सा फील्ड है ?''
''मैं युनिवर्सिटी टीचर यूनियन में काम कर रहा हूँ। लोकल पॉलिटिक्स में इन्वोल्व होने के लिए ट्राई किया था, पर मेरे वश की बात नहीं।''
यहीं से जगमोहन का ग्रेवाल से परिचय होता है जो कि जान-पहचान की ओर बढ़ता है। एक दिन वे ईलिंग शॉपिंग सेंटर में मिलते हैं और फिर एक दिन ‘द-ग्लौस्टर’ में। विचारों का आदान-प्रदान होने लगता है। सम्बन्ध दोस्ती में बदलने लगते हैं। वे एक-दूसरे को अपना फोन नंबर देते हैं। ग्रेवाल अपने बारे में बताते हुए कहता है कि एक समय में उसे कविता लिखने का शौक रहा है। वह कामरेड इकबाल को भी भलीभांति जानता है। वह जगमोहन को साउथाल के लेखकों के विषय में कितना कुछ बताता है, परन्तु जगमोहन को इसमें अधिक दिलचस्पी नहीं है। वह 'वास-प्रवास' में से कभी कोई लेखादि पढ़ लेता है, नहीं तो पढ़ने में उसकी अधिक रुचि नहीं है। हाँ, अंग्रेजी की अख़बार वह लगातार पढ़ता है, चाहे कोई भी हाथ में आ जाए। 'द मैन' की मसालेदार ख़बरें तो वह वक्त ग़ुज़ारने के लिए पढ़ा करता है।
एक दिन अंग्रेजी की अख़बार 'द टाइम्ज़' में साउथाल की महिलाओं की संस्था 'सिस्टर्ज इन हैंड्ज़' के बारे में एक आलेख छपता है। ग्रेवाल पढ़ता और एकदम जगमोहन को फोन करता है। कहता है-
''आज का टाइम्ज़ देखा ?''
''नहीं तो।''
''देख फिर और पढ़, इन औरतों के बारे में किसी ने बड़ा लम्बा-चौड़ा आर्टिकल लिख मारा है।''
''अच्छा!''
जगमोहन टाइम्ज़ खरीदता है। ख़बर पढ़कर वह ग्रेवाल को फोन घुमाता है। कहता है -
''सर जी, यह तो किसी ने इनकी कुछ ज्यादा ही फेवर कर दी, वैसे ये इतने के लायक नहीं।''
''मेरा तो दिल कर रहा है कि टाइम्ज़ को लैटर लिखूँ और कहूँ कि किसी संस्था के बारे में लिखने से पहले उसके कामों के बारे में पूरी जांच तो कर लिया करो।''
''बात तो आपकी ठीक है सर जी, ये औरतें काम इतना नहीं करतीं। बस, ख़बरों में रहने के चक्कर में रहती हैं। ऐसे ही टाइम्ज़ का कोई रिपोर्टर फंसा लिया होगा।''
''वैसे तो अखबारवालों को भी सभी कम्युनिटीज़ को प्रतिनिधिता देनी होती है। एशियन स्त्रियों का अन्य कोई संगठन है भी तो नहीं।''
''सर जी, ये सब छोटे-से सर्किल में ही घूमती फिरती है, बस।''
जगमोहन ग्रेवाल को हमेशा 'सर जी' कहकर ही बुलाता है। सर जी मजाक में कहना आरंभ किया था कि इंडियन लोग अंकल के साथ भी जी लगा देते हैं और डैडी के साथ भी और इसी प्रकार सर के साथ भी। जगमोहन हमेशा कहता है कि इंडिया में लोगों को यह भी नहीं पता कि शब्द ‘सिस्टर’ सरनेम के साथ लगाया जाता है कि पहले नाम के साथ। उसने 'सर जी' कहना शुरू किया और अब भी 'सर जी' ही कहा करता है। यही पक्का हो गया है। ग्रेवाल हालांकि उससे अट्ठारह-बीस साल बड़ा है, परन्तु दोस्तों की तरह ही व्यवहार करता है। दोस्तों की भाँति ही खुली बातें कर लिया करता है। एक दिन जगमोहन उसके सम्मुख बैठकर सिगरेट पीने लगता है तो ग्रेवाल कहता है-
''ला यार, मुझे भी लगवा एक।''
जगमोहन को ज़रा-सी हैरानी होती है और पूछता है-
''सर जी, आप भी!''
''नहीं यार, मैं कहाँ। यह तो तुझे देखकर हुड़क-सी जाग पड़ी। कभी पिया करता था, अब मुश्किल से इस आदत से निजात पाई है।''
अब वे प्राय: मिला करते हैं। अधिकतर ग्रेवाल के घर ही बैठते हैं। ग्रेवाल अपने घर में अकेला रहता है। सिस्टर्ज इनहैंड्ज़ उनकी बात में प्राय: उपस्थित रहती हैं। ग्रेवाल जगमोहन से पूछता है -
''तू इस संस्था की ओर इतना फैसिनेटिड क्यूँ है ?''
इसका उत्तर जगमोहन के पास नहीं है। एक दिन उसके मन में कुछ ऐसा आता है कि वह ग्रीन रोड पर पंद्रह नंबर का दरवाजा जा खटखटाता है। उसके मन में है कि सिस्टर्ज इनहैंड्ज़ वाली स्त्रियाँ उतना कुछ नहीं कर रहीं, जितना करने की आवश्यकता है और जितना कुछ वे कर सकती हैं। उन्हें अपना कार्यक्षेत्र और फैलाना चाहिए। एक औरत दरवाज़ा खोलती है। वह कुछ डरी हुई-सी है। वह पूछती है -
''बताओ, मैं क्या कर सकती हूँ आपके लिए ?''
''मुझे कुलविंदर से मिलना है।''
''वह तो है नहीं।''
''वैसे होती तो यहीं है न ?''
''नहीं, अब वह यहाँ नहीं आया करती।''
''और प्रीती ?''
''प्रीती कौन ? मैं नहीं जानती।''
वह औरत न में सिर हिलाती है। जगमोहन तो वहाँ सिर्फ़ कुलविंदर को ही जानता है जो कि उसके पास सलाह लेने आई थी। फिर इधर-उधर ही मिली थी, एक-दो बार। प्रीती का नाम तो अचानक ही उसके मन में आ जाता है। प्रीती ने उसको बताया था कि वह भी इस संस्था से जुड़ी हुई है। प्रीती तो उससे बहुत दिनों से मिली ही नहीं है। उसको कभी-कभी उसकी याद भी आती है। एक बार भूपिंदर से भी उसके बारे में पूछा था। भूपिंदर ने बताया था कि प्रीती का पति उसको नाटकों में काम नहीं करने दे रहा। यह बात तो वह पहले से ही जानता है। अब इसका अर्थ है कि प्रीती का इस संस्था के साथ भी कोई सम्पर्क नहीं है। वह वहाँ से चल पड़ता है। कुछेक कदम ही चलता है तो पीछे से आवाज़ आती है-
''एक्सक्यूज़ मी।''
वह पलटकर देखता है। दरवाजे में एक अन्य औरत खड़ी है। वह पूछती है-
''कोई काम ?''
''नहीं, खास नहीं। कुलविंदर से ही मिलना था।''
''वह तो यहाँ से जा चुकी है। यदि कोई काम है, हमारे करने वाला तो बताओ।''
''नहीं, मैंने टाइम्ज़ में आपकी आर्गनाइजेशन के बारे में लेख पढ़ा है, उसके विषय में ही डिस्कस करना था कुछ।''
''आओ, मेरे साथ करो, मैं यहाँ की कन्वीनर हूँ।''
जगमोहन उसके पीछे-पीछे अन्दर चला जाता है। फ्रंट रूम में कुछ कुर्सियाँ पड़ी हैं। एक बड़ा-सा मेज लगा हुआ है। वह औरत उसको वहाँ बैठने का संकेत करती है और स्वयं भी बैठ जाती है। पूछती है-
''आपने ही वहाँ लीगल एडवाइज़ सेंटर खोल रखा है, लेडी मार्गेट रोड पर।''
''हाँ, पर बन्द करना पड़ा।''
''क्यों ?''
''कोई आता नहीं था।''
''हमने तो आप तक अप्रोच की थी, पर आपने ही मना कर दिया।''
''क्योंकि मैं तो इमीग्रेशन के केस ही करता था, दूसरे लॉ के बारे में मुझे कोई ज्यादा जानकारी नहीं।''
''बताओ, कौन सी बात करनी है?... बॉय द वे, मॉय नेम इज़ लक्ष्मी।''
''आय'एम जगमोहन।''
''आई नो ! बस बात बताओ।''
''मुझे तो यह कहना है कि जितनी आपकी कैपेसिटी है, आप लोग उतना काम नहीं कर रहे।''
''आपने आर्टिकल पढ़ा नहीं ? हमारी उपलब्धियों के बारे में नहीं पढ़ा आपने इस आर्टिकल में ?''
''देखो, इस आर्टिकल का क्या मकसद है या इसके माध्यम से इसका राइटर क्या कहना चाहता है, यह एक अलग सवाल है। मुझे तो यह कहना है कि आप स्त्रियों की मैरीड लाइफ़ की प्रॉब्लम्स को ही कवर कर रहे हो, जब कि स्त्रियों की और भी तकलीफ़ें हैं।''
''फॉर एक्ज़ाम्पिल ?''
''फॉर एक्ज़ाम्पिल... ये जबरदस्ती के विवाह, ये ऑनर किलिंग और इंडिया-पाकिस्तान में औरतों के संग कितनी ज्यादतियाँ हो रही हैं।''
''देखिए, हमारी कैपेसिटी बहुत लिमिटेड है, हमें मालूम हैं, औरतों की बहुत प्रॉब्लम्स हैं, पर इस वक्त बड़ा मसला औरत के ऊपर हो रही वायलेंस का है। भारतीयों में पंजाबी मर्द अपनी पत्नियों के साथ बहुत मारपीट करते रहे हैं, ये लोग शराब पीते हैं और शराब पीकर औरत पर हाथ उठाते हैं। दूसरा हम बुजुर्ग़ औरतों की प्रॉब्लम्स को भी डील करते हैं।''
''यह मैं जानता हूँ, मेरा कहना है कि इस एरिये का विस्तार करो, और काम करो।''
''हमारे पास ग्रांटों की कमी है, फिर भी हमने सुखी क़त्ल कांड में आवाज़ उठाई थी।''
''सिर्फ़ एक प्रदर्शन किया था।''
''और एक प्रदर्शन ही काम कर गया, क़ातिल को सज़ा हो गई। सच तो यह है कि एक प्रदर्शन भी बहुत मुश्किल से हो पाता है। सभी औरतें काम करती हैं और जुलूस में आने के लिए हसबैंड की अनुमति चाहिए। आप शायद हमारी प्रॉब्लम को इस एंगिल से नहीं समझ सकते। अब पिछले दिनों अपने एक पंजाबी व्यक्ति ने किसी से अपने घर को आग लगवा दी जिसमें उसकी तीन बेटियाँ और पत्नी जलकर मर गईं। उसने आग इसलिए लगवाई कि उसकी पत्नी बेटा पैदा करने के काबिल नहीं थी।”
''मुझे पता है इस कहानी के बारे में। मैंने 'वास-प्रवास' में पढ़ा था।''
''हम इस इशू को लेकर जुलूस निकालना चाहती हैं, पर औरतें इकट्ठी नहीं हो रहीं। औरतों को काम पर से लौटकर घर संभालना पड़ता है, बच्चे भी और पति के हुक्म भी सुनने होते हैं। सच बात तो जगमोहन जी यह है कि यह पत्नी शब्द गलत है, असली शब्द तो स्लेव है। जब हम कहते हैं कि वह औरत इस आदमी की पत्नी है, हमें कहना यह चाहिए कि वह औरत इस आदमी की गुलाम है।''
(जारी…)
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Saturday, September 17, 2011

आत्मकथा


एक नेत्रहीन लेखक की आत्मकथा

धृतराष्ट्र
डॉ. एस. तरसेम
हिन्दी अनुवाद : सुभाष नीरव

चैप्टर-23
बुध कि बुद्धू

इतिहास बताता है कि ईसवी से 563 साल पहले कपिलवस्तु के राजा सुधोदन के घर एक पुत्र ने जन्म लिया जिसका नाम सिद्धार्थ रखा गया। वैसे उसका पारिवारिक नाम गौतम था। होश संभालने पर उसने शहर में पहले एक रोगी और बाद मे एक वृद्ध को देखा। तीसरे फेरे में उसने एक अर्थी देखी।
राज कुमार ये सब दृश्य देखकर उदास रहने लगा और आख़िर एक रात अपनी सोई हुई पत्नी यशोधरा और फूल भर के बेटे राहुल को छोड़कर जीवन के सही अर्थों को समझने के लिए महलों में से निकल कर जंगल की तरफ चल पड़ा। तपस्या की, भूख से सूखकर पिंजर बन गया। आख़िर सहज जीवन का राह सिद्धार्थ ने खोज लिया और वह बुध बन गया।
कुछ इस तरह के ही ख़याल लेकर एक सुबह मैंने घर छोड़ दिया था। उन दिनों मैं सरकारी मिडल स्कूल, महिता में मुख्य अध्यापक था। सन् 1972 की बात है और दिन थे गर्मियों के। कुछ गिले-शिकवे पत्नी से थे। परन्तु असल में मैं परेशान अपनी आर्थिक मंदहाली के कारण था। तनख्वाह के अलावा अन्य कोई आमदनी नहीं थी। बेहद तंगी-तुर्शी के पश्चात भी तपा मंडी की 8 नंबर गली में बनाये मकान का कर्ज़ा नहीं उतर रहा था। लोहे और लक्कड़ वाले के पैसे ज्यों-के-त्यों खड़े थे। ईश्वर में विश्वास न होने के कारण मेरी उदासीनता मुझे घर छोड़कर बुद्ध की राह चलने के लिए मजबूर कर रही थी। जब करीब नौ बजे बस में चढ़ा तो यह पता नहीं था कि कहाँ जाना है ? बस, दिल में भूत सवार था कि भगवे वस्त्र पहन कर लोगों में समानता का प्रचार करना है। साधू-संतों की बात लोग मानते भी अधिक हैं और मेरे भगवे वस्त्रों को देखकर मेरी सिक्खी-सेवकी बढ़ जाएगी और मैं जल्दी ही जिस इलाके में भी रहूँगा, वहाँ का पथ-प्रदर्शक बन जाऊँगा और लोगों के विचारों को बदलकर रख दूँगा। परन्तु, क्रोध और जोश मनुष्य को सही सोचने नहीं देते। मेरी स्थिति भी कुछ इसी तरह की थी। क्रोध का मारा मैं घर से चला था और जोश में शेखचिल्ली की भाँति किले बनाये जा रहा था। इस जोश में पता नहीं कब मैं पटियाला पहुँच गया, फिर अम्बाला और फिर कालका। अभी चार बजे थे। मेरे लिए चार का समय छह के बराबर था। उस समय मेरी नज़र धूप-छांव से कुछ बेहतर थी। पर शाम होने पर मैं कहीं भी चलने-फिरने के योग्य नहीं रहता था। कालका में मुझे कोई उपयुक्त धर्मशाला नहीं मिली। आधा-पौना घंटा रिक्शा पर धक्के खाता वापस बस-अड्डे पर आ गया, जहाँ से मुझे सीधी चंडीगढ़ की बस मिल गई।
दिन छिप चुका था। बस से उतरते जिस रिक्शावाले ने भी बांह पकड़ी, उसी के संग चल दिया। पाँच रुपये लेकर वह मुझे एक गेस्ट हाउस में छोड़ गया। मेरे लिए वह इसलिए सस्ता था कि ऐसे कठिन समय में वह मुझे मात्र पाँच रुपये में ही ठिकाने पर पहुँचा गया था। शायद उसे फायदा यह हुआ होगा कि उसने गेस्ट हाउस के मालिक से भी पाँच-दस रुपये ले लिए होंगे। गेस्ट हाउस के कमरे में बैठकर मुझे सुख का साँस आया। लेकिन साथ ही चिंता और घबराहट की कोई लहर-सी अन्दर दौड़ जाती क्योंकि अब तक मेरे घर न पहुँचने के कारण सबको यह पता तो चल ही गया होगा कि मैं या तो घर से चला गया हूँ या किसी हादसे का शिकार हो गया हूँ। पत्नी सुदर्शना देवी तो यह सोच रही होगी कि मैं गुस्से के कारण चला गया हूँ पर अन्य रिश्तेदार और यार-दोस्त मेरे किसी हादसे में गंभीर रूप से घायल होने या मेरी मौत तक के कयास लगा रहे होंगे। इस सबकुछ के बावजूद मैंने घर वापस लौट जाने के विषय में उस रात बिलकुल ही नहीं सोचा था। सुबह से पानी तक नहीं पिया था। इसलिए पहले चाय और उसके तुरन्त बाद रोटी का आर्डर दे दिया। मैं सोच रहा था कि आदमी कितना अजीब है। मैंने बड़े स्वाद से चाय पी और फिर रोटी भी बहुत अच्छी लगी। मैंने शायद यह सोचा ही न हो कि आज की शाम मेरे घर में रोटी पकी होगी। क्रांति ज़रूर रो रहा होगा। बॉबी अभी गोद में ही था। उनके बारे में सोचकर भी दिमाग पर कोई बोझ न पड़ा। दिल जैसे पत्थर बन गया हो। उस समय तो यह बात मेरे दिमाग में नहीं आई थी पर आज सोचता हूँ कि आख़िर मनुष्य सिर्फ़ अपने और अपने अस्तित्व के लिए ही दौड़-भाग करता है। न माँ-बाप और न बच्चे, गुस्से और खतरे में उसे अपने लगते हैं और न पत्नी और प्रेमिका। दूसरा, मैं उस समय भी सोचता था और अब भी सोचता हूँ कि मनुष्य अपने आप को ही सही समझता है, दूसरा व्यक्ति उसे गलत लगता है। उस समय मैं अपने आप को बिलकुल ठीक समझता था। तब मुझे लगता था कि सुदर्शना देवी मेरी कुछ नहीं लगती। घर की खराब आर्थिक हालत के बावजूद वह मुझसे पैसों की आस रखती है। भाई, बँटवारा करवाने वाली सल्हीणे वाली बहन और जीजा जी के विषय में सोचकर मेरा मन नफ़रत से भर रहा था जिन्होंने न मेरे अंधेपन के बारे में सोचा और न मेरे बीवी-बच्चों के बारे में। दूध में से मक्खी की तरह निकाल कर बाहर फेंक दिया। घर से बाहर निकालने और बँटवारे की उस कुटिल नीति के विषय में सोचकर मुझे अपना कोई भी रिश्तेदार अपना नहीं लगता था।
शायद मैं नहाया नहीं था। सिर्फ़ मुँह-हाथ ही धोया था, पर नाश्ता ज़रूर किया था। जब पैसे पूछे, गेस्ट हाउस के मालिक ने सिर्फ़ सत्तर रुपये मांगे। रात की रिहाइश, चाय-पानी, खाना और सुबह का नाश्ता और रिक्शेवाले की कमीशन आदि के बारे में मैंने मन ही मन हिसाब लगाया। मुझे यह रकम कतई लूट नहीं लगी थी। लेकिन इस बात से अवश्य चिंतातुर था कि मेरे पास अब मात्र 125 रुपये ही रह गए थे। गेस्ट हाउस के मालिक ने एक मेहरबानी यह की कि रिक्शा पर बस-अड्डे जाने वाली सवारी के साथ मुझे बिठा दिया और उसने यह भी कह दिया कि बाबूजी से पैसे न लेना। शायद उसे मेरी कम निगाह के बारे में पता चल गया था। उपकार आख़िर उपकार होता है, छोटा हो या बड़ा। सयाना मनुष्य कभी उपकार भूलता नहीं है। गेस्ट हाउस से चलने के समय मैं सोच रहा था कि अब मैं जुआर (अब ज़िला- ऊना, हिमाचल प्रदेश में) या नादौण(अब ज़िला-हमीरपुर में) जाऊँगा। जुआर के जनता हाई स्कूल में मैं 1961-62 में करीब आठ महीने रहा था और 1966 में नादौण के सरकारी हॉयर सेकेंडरी स्कूल में सिर्फ़ साढ़े पाँच महीने। लेकिन यह इलाका मुझे घरवालों से लुक छिप कर रहने के लिए उपयुक्त ठिकाना लगा। वैसे भी, मैं इस इलाके से परिचित होने के कारण इधर ही अपना गुप्त ठिकाना बनाना चाहता था।
चंडीगढ़ के बस-अड्डे पर पहुँचते ही संयोग से मुझे ऊना की बस मिल गई। बस में बैठने के बाद मैं जैसे सारा गुस्सा-गिला भूल गया था। मेरे पर बस यही धुन सवार थी कि भगवे वस्त्र पहनकर मैं लोगों में मनुष्यता की समानता का प्रचार करूँगा। महात्मा बुद्ध के अष्ट मार्ग के कई नुक्ते मेरे दिमाग में आ रहे थे। पर बोध धर्म को मैं वर्तमान हालात के अनुसार ढालकर ही प्रचार करना चाहता था। बुद्ध से लेकर बीसवीं सदी के तीन चौथाई सफ़र तक पहुँचकर दुनिया बहुत बदल गई है। वैसे भी, माक्र्सवाद भगवे वस्त्र पहनने के बावजूद मेरे दिलो-दिमाग से बाहर जाने के लिए तैयार नहीं था। यह आर्थिक असमानता ही थी जिसके कारण मुझे घर छोड़ना पड़ा था। वैसे भी, इस प्रकार के भगवे वस्त्रों में आर्थिक, सामाजिक समानता के प्रचार करने वाले एक साधू आनन्द स्वामी का माडल मेरे सामने था। वर्ष 1970-71 में चार-पाँच बार वह संत मेरे घर में आया ही होगा।
दो घंटे से कुछ अधिक समय में बस ऊना पहुँच गई। मैं पहले कभी जुआर, कांगड़ा या नादौण जाने के लिए इस रूट से होकर नहीं गुजरा था। यूँ भी मैं बस में चुपचाप बैठा था। धूप चढ़ आने के कारण बस के करीब रेहड़ियों और लोगों के दिखाई देने तथा बस के अन्दर टोपियों वाले पहाड़ियों और पहाड़िनों की बोली के कारण मुझे इस वक्त कल घर में घटित हुई घटना का कसैलापन कुछ कम होता महसूस हुआ। ऊना में कुछ देर खड़ा रहने के बाद मुझे अम्ब की बस मिल गई, जिसे आगे जिस तरफ जाना था, उस इलाके की मुझे अधिक जानकारी नहीं थी। इसलिए मैं अम्ब में ही उतर गया। इसे एक संयोग ही समझो कि यहाँ खडूर साहिब से आई एक बूढ़ी औरत मिल गई, जिसे डेरा बाबा वडभाग सिंह जाने से पहले मैडी (यहीं डेरा वडभाग सिंह का गुरुद्वारा है) गाँव के साथ लगते बढ़ई के एक घर में जाना था। ये बढ़ई मैडी में लगने वाले मेले में हर साल अपना लकड़ी का सामान बेचने आया करते थे। उनकी इस जान-पहचान के कारण ही उस बूढ़ी स्त्री का उनसे संबंध परिवारवाला बन गया था। बुढ़िया का नाम था- नामो (शायद पूरा नाम हरनाम कौर हो) क्योंकि इस बढ़ई परिवार का एक लड़का जुआर में 1961-62 में मेरे पास पढ़ा था, इसलिए नामो के कहने पर मैंने उसके संग जाना स्वीकार कर लिया। वैसे भी, मेरे पास ठिकाने का कोई स्पष्ट नक्शा नहीं था और उदासीनता के कारण मुझे कोई भी कहीं भी ले जा सकता था। मैं नामो के संग चल पड़ा। उसे अम्ब से कुछ आगे जाकर उस गाँव का पैदल रास्ता मालूम था। हम दोनों का रिश्ता जैसे पल छिन में ही माँ-बेटे वाला बन गया हो। वह मुझे बेटा कहकर बुलाती थी और मैं उसे माँ कहकर। हालांकि दिन के समय मुझे चलने में कोई कठिनाई नहीं थी, पर ज्यों-ज्यों अंधेरा बढ़ता, त्यों-त्यों मेरे लिए चलना कठिन होने वाला था। इसलिए माँ को मैंने सारी बात पहले ही सच सच बता दी। पर सच सच वो बात बताई जो मेरी नज़र की कमज़ोरी से संबंध रखती थी। उसने मुझे भरोसा दिलाया कि दिन छिपने पर वह मेरी बांह पकड़कर मुझे ले जाएगी। मैं चिंता न करूँ। समझो, हम दोनों को एक-दूसरे का आसरा मिल गया था। वह एक अपने बुढ़ापे के कारण और दूसरा- औरत जात होने के कारण किसी सज्जन बच्चे का आसरा चाहती थी और मैं रात बिताने के लिए उसके संग चल दिया था। रात तो मैं अम्ब में भी काट सकता था। वहाँ मेरे ठहरने का प्रबंध भी आसानी से हो सकता था। पर पता नहीं, यह कैसी भटकन थी जो मुझे किसी पुख्ता फ़ैसले पर पहुँचने नहीं दे रही थी। जब हम सड़क पर चले जा रहे थे तो मैं आगे था और माँ पीछे। नहिरी से कुछ पहले कोई पहाड़ी राह था जो उस गाँव को जाता था, जहाँ हमको पहुँचना था।
दिन छिपने के कारण मैंने माँ की बांह पकड़ ली और इस तरह मैं अपने डर को छिपा कर माँ को हौसला देते हुए चले जा रहा था। अन्दर ही अन्दर अपने आप को कोस रहा था कि अगर इस तरह घर से जाना ही था तो किसी अच्छी सी जगह पहुँचता। किसी धार्मिक ठिकाने पर चला जाता जहाँ न रोटी की मुश्किल आती और न सवेर-शाम बाहर-अन्दर जाने की।
जब हम आगे बढ़ चले तो माँ ने अपनी औलाद की उपेक्षा का राग अलापना आरंभ कर दिया। मैं सोच रहा था कि इस माई के नैण-प्राण कायम हैं, चार पैसे भी पल्ले हैं, तभी अकेली चल पड़ी है। इस तरह मेरी बेबसी और मेरी अपनी माँ की मजबूरी जब इस माई के हालात के साथ मेरे अन्दर गुत्थम-गुत्था हो रही थी तो मेरे चलने की रफ्तार पहले से अवश्य ही कुछ कम हो गई थी। जब कुछ रोशनियाँ दिखाई देने लग पड़ीं तो मैंने अंदाजा लगाया कि जहाँ माँ को जाना है, वह ठिकाना अब नज़दीक ही है, और वह नज़दीक था भी। जब हम मिस्त्रियों की छन्न में दाख़िल हुए, सभी को जैसे चाव चढ़ गया हो। दोनों कमरों में रोशनी थी, एक कमरे में ग्लोब लैम्प जल रहा था और दूसरे कमरे में सरसों के तेल का दीया। बजाय इसके कि वे मेरे बारे में पूछ-पड़ताल करें, मैंने अपनी सफाई आप ही देना प्रारंभ कर दिया। सचमुच उनका वह लड़का मेरे से पढ़ा हुआ था जिसके बारे में मैंने राह में अंदाजा लगाया था। मैंने उन्हें बताया कि मुझे जाना तो जुआर था, पर माता को आप तक पहुँचाने के लिए मैं इधर आया हूँ। असल में, यह सारी मेरी अपनी घड़ी हुई कहानी थी जो उन्हें जंच गई।
चाय पीने का वहाँ उन दिनों अधिक रिवाज नहीं था। उनके यहाँ लवेरा (दूध देने वाला पशु) था। वे गरम दूध ले आए। मैंने सिर्फ़ आधे गिलास के करीब दूध पिया। रोटी बिलकुल नहीं खाई थी। मुझे डर था कि कहीं रात में रोटी खाने के कारण बाहर न जाना पड़े। उनके बार बार ज़ोर दिए जाने पर मैंने सिर्फ़ यही कहा कि मुझे भूख नहीं है। जबकि मैं चाहता तो रोटी खा सकता था। यह अलग बात है कि अन्दर ही अन्दर मैं घर के खराब हालात और अपनी कम निगाह के कारण बहुत दुखी था, बहुत ही उदास। उन्होंने गरम पानी से मेरे पैर धुला दिए थे। हाथ-मुँह भी धो लिया था और यह कहकर मैं लेट गया था कि मुझे सुबह कोई जुआर तक छोड़ आए, क्योंकि वहाँ से पहाड़ी रास्ते का मुझे पता नहीं था और वैसे भी, जुआर स्कूल की नौकरी के समय वाली मेरी दृष्टि से अब वाली दृष्टि बहुत कम हो गई थी। नींद पूरी नहीं आई थी। अधिकांश समय भविष्य के लिए कोई ठिकाना खोजने और अपनी किस्म का जीवन बिताने की उधेड़बुन में ही बीत गया। सवेर का उजाला कमरे में आने के साथ ही मैं उठकर बैठ गया। वह लड़का जिसका उल्लेख मैं पहले कर चुका हूँ, वही मेरी खातिरदारी के लिए मेरे पास आया। अब वह पूरा आदमी बन चुका था। हम दोनों बाहर गए। जंगल-पानी के बाद जैसे मन को शान्ति मिल गई हो। वहीं बहते पानी में मैंने मुँह धो लिया था और आते ही मैंने कहा था कि वह मुझे जुआर तक छोड़ आए। उसने रस्मीतौर पर एक दो बार रहने के लिए कहा। रास्ते कितनी ही देर हम स्कूल की बातें करते रहे, उसके सहपाठियों की बातें, अन्य विद्यार्थियों की बातें और अध्यापकों की बातें।
माँ और उस परिवार के बुजुर्ग़ को दुआ-सलाम करने के पश्चात हम जुआर के लिए चल पड़े। उन्होंने मुझे राह के लिए एक छड़ी भी दी। शायद, बड़े मिस्त्री को मेरी मुश्किल का अंदाजा हो गया था। अम्ब से आते समय भी जब चढ़ाई-उतराई आती तो पैर फिसलने का डर रहता। मेरी गुरगाबी की ऐड़ी के कारण मैं फिसलने से कई बार बच गया था। जब मैं जुआर स्कूल में मास्टर हुआ करता था, उस समय भी मैं घर से स्कूल आने तक और किसी अन्य चढ़ाई-उतराई के लिए छड़ी रखा करता था। अब तो इस किस्म की छड़ी की मुझे और ज्यादा ज़रूरत थी। पिछले अनुभव के कारण मुझे जुआर पहुँचने तक कोई खास मुश्किल नहीं आई थी। लेकिन इस रास्ते में जो भी खाइयाँ आईं या चढ़ाई-उतराई आई, वे कल शाम वाली से कठिन होने के बावजूद आसान लगी थीं। कारण यह था कि दिन के उजाले के कारण मुझे चलने और किसी का चेहरा-मोहरा देखने में कोई अधिक कठिनाई नहीं आ रही थी।
ऊँचे चबूतरे वाला दुकानदार जो कपड़ा भी बेचता था और किरयाने का सामान भी, उसमें कोई तब्दीली नहीं आई थी। वहीं से मैंने छह मीटर भगवा वस्त्र लिया और एक लुंगी भी। कपड़े की दुकान से खरीद-फरोख्त से पहले मैंने उस लड़के का धन्यवाद करके उसे लौटा दिया था। मैं नहीं चाहता था कि किसी को भी मेरी भविष्य की योजना का कुछ पता चले। साथ वाली नाई की दुकान से मैंने सिर के बाल कटवाये। मशीन या उस्तरा नहीं फिरवाया था। कैंची से बाल इतने छोटे करवा लिए थे कि देखने में मैं कोई संत-महात्मा लगूँ। शेव भी करवाई और मूंछें भी बिलकुल साफ़ करवा दीं। सिर मुंडवाने का मेरा यह पहला अवसर था और मूंछे साफ़ करवाने का दूसरा। हाँ, सच कपड़े वाली दुकान से एक बनियान भी ले ली थी।
अब मैं एक एक पैसा खींच खींच कर इस्तेमाल करने के बारे में सोच रहा था, क्योंकि मेरे पास सिर्फ़ 80 रुपये ही रह गए थे। लेकिन जल्द ही 'हीर दमोदर' की एक तुक मुझे याद आ गई - 'पल्ले रिज़क ना बन्हदे पंछी ते दरवेश...'। बस, इस सोच से ही मानो मैं सारी चिंता से मुक्त हो गया था। बस मेरे जाने-पहचाने रास्तों और अड्डों से गुजरती हुई आख़िर नदौण पहुँच गई और वहाँ उतर कर मैं बाज़ार के रास्ते होता हुआ उस चौंक में पहुँच गया, जहाँ से एक रास्ता मेरे आर्य समाजी परिवार के विद्यार्थियों के घर को जाता था और दूसरा रास्ता नदौण वाली मेरी उस माँ के घर को जाता था, जिसका नदौण में स्कूल की नौकरी के समय मैं किरायेदार रहा था। फिर, माँ का घर आ गया। वहाँ एक मिनट रुका, पर सिर्फ 15 फ़ुट की दूरी से ही मैं सीधा ब्यास दरिया के लकड़ी के पुल की तरफ हो गया। एक तो गरमी का मौसम था, दूसरा मैं सुबह से नहाया नहीं था, तीसरे मैंने भगवे वस्त्र पहन कर अपना जीवन-मार्ग बदलना था, जिस कारण लकड़ी का पुल पार करने के बाद मैं बायें हाथ ब्यास दरिया के किनारे-किनारे चला गया। यहीं किसी वक्त नदौण में नौकरी के समय मैं सवेरे-सवेरे नहाने के लिए आया करता था। किनारे और इसके करीब पानी की गहराई के बारे में मुझे अच्छा अंदाजा था। मैंने जूती उतारी, पैंट-शर्ट और बनियान उतार कर दरिया के किनारे बूटों पर रख दी। लुंगी के नीचे भगवे वस्त्र का बड़ा टुकड़ा रखा और छोटे टुकड़े को कमर में बांध लिया। कच्छा उतार कर लुंगी के नीचे रख दिया। ऑंखों पर पानी के छींटें मारे, फिर सिर पर हथेलियों का चुल्लू बनाकर पानी डाला, कुल्ला किया और पानी में उतर गया। पानी में उतरते समय मेरे अन्दर के विचार परस्पर टकरा रहे थे - बुद्ध बनकर प्रकाश बांटने के विचार या अपनी जीवन-लीला समाप्त करने के। संयोग ही कुछ ऐसा बना कि जीवन लीला की समाप्ति से पहले ही दो और नौजवान वहाँ नहाने के लिए आ गए। उन्होंने मुझको ऐसी बातों में लगाया कि मैंने नहा कर कच्छा पहन लिया, गीले भगवे वस्त्र को अच्छी तरह निचोड़ा और फिर हवा में फटक कर उसी से बदन को अच्छी तरह पोंछा। दूसरे भगवे वस्त्र का टुकड़ा मैंने गर्दन से नीचे तक इस तरह लपेट लिया जैसे आनन्द स्वामी पहना करता था। गीला कपड़ा भगवे वस्त्र के ऊपर रख लिया और पैंट-शर्ट और पुरानी बनियान को तहा कर लुंगी में लपेट लिया।
ज्वालामुखी वाली सड़क का मुझे पता था। दायें हाथ में छड़ी और बायीं बगल में लुंगी लेकर मैं उस सड़क की ओर हो लिया। जब मैं नदौण स्कूल में काम करता था, उस समय शौक-शौक में ही दो बार मैं पैदल चलकर ज्वालामुखी गया था। राह में डंगर चराते लड़के और गागरों में पानी ढोतीं स्त्रियाँ मिलीं। मन कभी बेचैन हो जाता और कभी फिर सामान्य हो जाता। किसी द्वारे जाकर अलख जगाने का ढंग अभी मुझे नहीं आता था। पर जब इस राह पर चल ही पड़ा था तो यह ढंग सीखना भी ज़रूरी था। कुछ समय के उपरांत सेवक अपने आप राशन-पानी डेरे में पहुँचा देंगे, पर हाल की घड़ी तो मांगकर खाना पड़ेगा। वारिस के किस्से में बाल नाथ की जोग लेने के समय दी गई शिक्षा की एक एक पंक्ति दिमाग में बिजली की भाँति कौंध गई। काम, क्रोध, मोह, लोभ, अंहकार से मुक्त होने के संबंध में सभी धर्मों में साझी शिक्षा मन में बसा रहा था। बुद्ध का अष्ठ मार्ग और बुध्द और जैन दोनों धर्मों के अहिंसा संबंधी सिध्दांत मेरी जीवनधारा के अंग बनने थे। लेकिन इनसे भी कुछ नया यदि मैंने न किया तो मेरे नये मार्ग का क्या अर्थ होगा ? सामाजिक-आर्थिक समानता मेरे प्रचार के मुख्य सूत्र होंगे। पर मैं किसी अदृश्य शक्ति और देवी-देवताओं की आराधना के बारे में अपने शिष्यों को बिलकुल उपदेश नहीं दूँगा। इस ताने-बाने में उलझा पता नहीं कब मैं सड़क के साथ एक बउली के पास पहुँच गया। वहाँ कुछ लड़के शरारतें कर रहे थे। मुझे आता देखकर वे एकदम चुप हो गए और बउली से कुछ दूर चले गए। मैंने दो चुल्लू पानी पिया और फिर उसी सीधी काली सड़क पर चलने लगा।
एक तो कुछ भूख लग आई थी और दूसरे किसी द्वारे जाकर मांगने का अभी पहला सबक सीखना था। इसलिए सड़क के दोनों तरफ दृष्टि दौड़ता कि कोई छन्न या टप्परू नज़र पड़ जाए। पहाड़ों में स्लेटों या खपरैल से बने घरों को छन्न या टप्परू कहते हैं और इनके विषय में मुझे पहाड़ों पर तीन अलग अलग स्कूलों में नौकरी करते समय पता चला था। शायद, ज्वालामुखी की राह तो अभी तीन किलोमीटर रहती थी। सड़क के दायीं तरफ एक अच्छी खासी छन्न नज़र आई। मैं कुछ झिझकते हुए उधर हो चला। दर पर खड़ा देखकर एक पच्चीस-तीस साल की युवती आई। 'जल, देवी!' मेरे इन दो शब्दों को पवित्र आदेश समझकर वह अन्दर गई। मैं पैरों के बल वहाँ बैठ गया। कुछ समय पश्चात ही वह दूध की पतली सी लस्सी बना लाई। लौटे के साथ साथ उसके हाथ में एक गिलास भी था। जब उसने मुझे गिलास भर का पकड़ाया, सचमुच वह मुझे देवी का रूप ही लगी। फिर, दूसरा गिलास और फिर बस। खड़े होकर आशीर्वाद देने के लहजे में कहा, ''सुखी रहो देवी !'' अन्दर से जो दो आवाज़ें मुझे सुनाई दीं, वह थीं - ''कौन था ?'' ''महात्मा था कोई ।'' देवी के शब्दों ने मेरे अन्दर जैसे महात्मा के आधे गुण भर दिए हों। दिन छिपने से कुछ पहले ही मैं ज्वालामुखी पहुँच गया। धर्मशाला का मुझे पता था। मैं माता के मंदिर में जाने की बजाय पहले धर्मशाला में पहुँचा। मैनेजर ने महात्मा समझ कर मेरे लिए अपने आप ही एक कमरा खोल दिया। जब वह मेरा नाम, पता पूछने लगा, मैंने अपना नाम प्रेमा नंद बताया और ठिकाने के संबंध में इतना ही कहा कि दरवेशों का कोई ठिकाना नहीं होता। मैनेजर जैसे मुझसे बहुत प्रभावित हो गया हो। थकावट के कारण मंदिर जाने की मेरे अन्दर शक्ति ही नहीं थी। बिछी हुई दरी पर लेटने के बाद मानो मैं निढाल-सा हो गया था, बहुत उदास और बहुत ही निराश।
महात्मा अभी मैं बना नहीं था। वैसे महात्मा का अभिनय करना कुछ-कुछ सीख गया था। दिल में अभी भी एक धुकधुक थी कि मुझे खोजने में मेरे परिवार या रिश्तेदारों को अधिक समय नहीं लगेगा। इसका सीधा कारण मेरी ऑंखों की कम रोशनी था। यदि ऐसा न होता तो शायद यह सब कुछ भी न घटित होता। लेकिन अब जब सब कुछ घटित हो चुका था, यह सोचना व्यर्थ था।
दिन छिप गया था और धर्मशाला का एक सेवक मुझे बाथरूम के बारे में सब कुछ बता गया था। पर उसको क्या मालूम था कि मैं रात में अकेला कहीं भी जाने योग्य नहीं हूँ। कुछ यात्रियों के आने से धर्मशाला में अच्छा रौनक मेला तो हो गया था, पर मेरा मन अशान्त था और दुविधा का शिकार भी। घर से निकले को तो यह तीसरा दिन ही हुआ था। लेकिन इतनी जल्दी दुविधा का शिकार हो जाऊँगा, यह मैंने सोचा नहीं था। ज़िन्दगी में कभी भी कोई किया गया फ़ैसला मैंने पूरी तरह नहीं बदला था। यह तो बड़ा अहम मसला था, महात्मा बुद्ध बनकर दुनिया को सामाजिक-आर्थिक अन्याय से मुक्त करवाने का मसला। परन्तु इतनी जल्दी मेरी फूंक निकल जाएगी, यह सोच सोचकर मैं बहुत शर्मिन्दा हो रहा था।
पता नहीं कौन था, शायद लाटों वाली माता के द्वार पर माथा टेकने वाला कोई भगत हो, मेरे चरण स्पर्श कर रहा था और मैंने भी 'जय हो' कहकर उसकी श्रद्धाभक्ति को नमस्कार कर दिया। वह रोटी रखकर चला गया, फिर और रोटी पूछने के लिए आया। मैंने न में सिर हिला दिया। मेरे लिए तो ये दो रोटियाँ ही बहुत थीं। मन भर भर आ रहा था। उस भगत के बाद दो और सज्जन भी आए। मेरे ठौर-ठिकाने के बारे में भी पूछा। मैंने केवल यही कहा, ''दरवेशों का कोई घर-दर नहीं होता।'' शायद, मेरे इस जवाब ने ही उन्हें संतुष्ट कर दिया हो। लेकिन एक बात साफ़ थी कि इन यात्रियों में से कोई बरनाला इलाके का नहीं था। यह उनकी बातचीत से पता चलता था। सवेरे जब उठा, कोई भगत चाय पूछने आ गया। मैंने इन्कार में सिर हिलाया और साथ ही यह भी कहा, ''स्नान के बाद।'' शायद मेरे ऐसा कहने पर उसके अन्दर मेरे प्रति सत्कार और बढ़ गया हो, क्योंकि जंगल-पानी और नहाने के बाद वह चाय के साथ पत्तल पर दो पूरियाँ भी रख लाया था। पूरियों पर आलुओं की सूखी सब्जी थी। भगत गिलास लेने आया, मैं 'जय हो, जय हो' कहकर अपने महात्मा होने के प्रभाव को जैसे और पक्का कर रहा था। शायद अब यह सब कुछ मेरी ड्रामेबाजी से बढ़कर कुछ नहीं था, क्योंकि मैंने तो रात में ही घर वापस लौटने का फ़ैसला कर लिया था।
माता के मंदिर के बिलकुल करीब एक हलवाई से 21 रुपये का प्रसाद तैयार करवाया, जिसे हिंदुओं की धार्मिक भाषा में 'कड़ाही करवाना' कहते हैं। उसने पत्तल पर गरम गरम प्रसाद डाल कर मुझे दे दिया। मैं बायें हाथ में पत्तल और दायें हाथ में छड़ी लेकर मंदिर की सीढ़ियाँ चढ़ गया और सीधा ज्वालामुखी के मुख्य मंदिर में दाख़िल हो गया, जहाँ लाटें जलती हैं। हिंदू इन लाटों को माता की करामात कहते हैं पर साइंस में विश्वास रखने वाले और नास्तिक इन लाटों के जलने को मंदिर के नीचे किसी गैस के जख़ीरे का होना बताते हैं। परन्तु इस समय जब कि मैं एक कुराही ही था, मुझे इन लाटों के जलने के संबंध में कोई भी वैज्ञानिक टिप्पणी करने का अधिकार नहीं था। उस समय तो मैं यह सोचता था कि शायद दोनों बेटों के पिछले नवरात्रों में केश उतारने के समय मेरा मंदिर में प्रवेश न करना ही इसका कारण बना है, जिस कारण मैं लाटां वाली के आगे नतमस्तक होने आया हूँ। शायद मेरे भगवे वस्त्र देख कर मंदिर में प्रवेश करते समय मंदिर के किसी भी पंडे या भोजकी ने मुझसे कुछ नहीं पूछा, वरन मुझे देखकर वह सत्कार की मुद्रा में आ गए। डोना पकड़ा, माता के चरणों में भोग लगाने के पश्चात डोने में कुछ और भोग डालकर मुझे पकड़ा दिया और साथ ही मुझे चरण-वंदना भी की। मंदिर से बाहर आते ही डोने को एक बकरा पड़ गया। शायद कोई भगत यह बकरा मंदिर में चढ़ाकर गया हो। इस घटना ने भी मुझे न तो निराश किया और न ही मुझे क्रोध आया।
अब जबकि मेरा सारा गुस्सा ही पूरी तरह काफूर हो चुका था, मैं सीधा बस-स्टैंड की तरफ़ चल दिया। होशियारपुर बस-अड्डे पर आकर किसी ओट में खड़ा हो गया। नई बनियान पहनी और पैंट-शर्ट भी। भगवे वस्त्र और मैली बनियान, लुंगी में लपेट कर मैं लुधियाना वाली बस में बैठ गया। लेकिन तपा जाने के लिए मेरा अभी भी मन नहीं कर रहा था। आख़िर, लुधियाना से रेल द्वारा मैंने अपनी बहन और अपने सबसे अधिक हमदर्द गूजर लाल जीजा जी के पास जाने का फ़ैसला कर लिया। स्टेशन से तांगा लिया और मालेरकोटला के पटेल मुहल्ले के पास जा उतरा। चन्द्रकांता बहन मेरी जैसे प्रतीक्षा ही कर रही हो। उसके लिए मानो चाँद बादलों में से निकल आया हो। शायद जीजा जी ने कुछेक पलों में ही तपा और अन्य रिश्तेदारों को फोन कर दिया। भाई और मेरी पत्नी दोनों बच्चों को लेकर दिन छिपे बहन के घर पहुँच गए। मुझे यूँ लगता था जैसे मैं अभी इन सबके लिए पराया होऊँ और ये सब मेरे लिए। बॉबी को गोद में लेकर मैं खूब रोया था। कुछ दिन मैं मालेरकोटला में ही रहा, सुदर्शना देवी भी और बच्चे भी। भाई वापस तपा मंडी लौट गया था। शायद जीजा जी और भाई ने सबको सख्त हिदायत कर रखी थी कि मालेरकोटला कोई न जाए। मुझे यह बात अच्छी लग रही थी क्योंकि मैं किसी के सामने किसी दया, किसी हमदर्दी और किसी मजाक का पात्र नहीं बनना चाहता था। मुझे बच्चों की भाँति प्यार से रखा जा रहा था। दोनों बच्चे रात में मेरे संग ही सोते थे। सुदर्शना देवी की सेवा बिलकुल वैसी ही थी, जैसी विवाह के बाद के दिनों की। तब तक मैं तपा नहीं गया था जब तक सिर के बाल पूरी तरह नहीं उग आए थे। जीजा जी के रोज़ रात को दिए गए उपदेश से मेरे अन्दर गृहस्थ जीवन और समाज सेवा की एक नई जलधारा संगम बनकर बहने लगी थी। बहुत कुछ समझा-बुझा कर जीजा जी हमें गाड़ी चढ़ा गए थे। बुध्द या नानक की उदासी जैसा मेरे पास कोई आधार ही नहीं था। बुध्द कहाँ बनता ? समझो, बुध्दू लौटकर वापस आ गया था।
यह मेरे सरकारी मिडल स्कूल, महिता में नौकरी के समय का वाकया है, जिसे मैं अपनी ज़िन्दगी की सबसे बड़ी मूर्खता समझता हूँ।
(जारी…)

Saturday, August 27, 2011

पंजाबी उपन्यास




''साउथाल'' इंग्लैंड में अवस्थित पंजाबी कथाकार हरजीत अटवाल का यह चौथा उपन्यास है। इससे पूर्व उनके तीन उपन्यास - 'वन वे', 'रेत', और 'सवारी' चर्चित हो चुके हैं। ''साउथाल'' इंग्लैंड में एक शहर का नाम है जहाँ अधिकतर भारत से गए सिक्ख और पंजाबी परिवार बसते हैं। यहाँ अवस्थित पंजाबी परिवारों के जीवन को बेहद बारीकी से रेखांकित करता हरजीत अटवाल का यह उपन्यास इसलिए दिलचस्प और महत्वपूर्ण है क्योंकि इसके माध्यम से हम उन भारतीय लोगों की पीड़ा से रू-ब-रू होते हैं जो काम-धंधे और अधिक धन कमाने की मंशा से अपना वतन छोड़ कर विदेशों में जा बसते हैं और वर्षों वहाँ रहने के बावजूद वहाँ की सभ्यता और संस्कृति का हिस्सा नहीं बन पाते हैं।


साउथाल
हरजीत अटवाल

हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव


।। छब्बीस ॥
प्रदुमण सिंह देखता है कि बलबीर कुछ खीझा-खीझा-सा रहने लगा है। पिछले महीने उसका विवाह हुआ है। रिश्तेदारों ने लड़की ढूँढ़ी और यह कारज कर दिया। विवाह करने से उसके यहाँ स्थायी होने के अवसर बढ़ गए हैं। वैसे तो सभी कहते हैं कि इमीग्रेशन कानून एक डर्टी गेम है, पता नहीं यह किधर को चल पड़ेगा। वह सोचता है कि शायद उसने ही बलबीर को कुछ कह दिया हो। या फिर तनख्वाह बढ़ाने का कोई बहाना खोज रहा हो। कई कामगर अपना वेतन बढ़वाने के लिए अक्सर ऐसा ही करते हैं। कहने लगते हैं कि वे काम छोड़ रहे हैं। वह सोचने लगता है कि बलबीर बढ़िया ड्राइवर है। यदि अधिक करेगा तो हफ्ते के दस पौंड बढ़ा देगा। बजाय इसके कि नया ड्राइवर ढूँढ़ा जाए, फिर उसे ट्रेंड किया जाए, दस पौंड बढ़ाना आसान है। बलबीर पूरे काम को बाखूबी संभाल रहा है। एक दो दिन देखकर वह स्वयं ही बलबीर से पूछता है -
''बेटा, ठीक हो ?''
''हाँ, अंकल बिलकुल ठीक हूँ।''
''फिर मुँह क्यों चारा खाती भैंस की तरह बना रखा है ?''
''असल में बात यह है अंकल कि मैं अपना काम शुरू करना चाहता हूँ।''
''अच्छा, किस चीज़ का ?''
''यही, समोसों का। मेरी वाइफ़ भी तेज है, सास ने भी यह काम किया हुआ है। उनकी गैरज बहुत बड़ी है, खाली पड़ी है।''
बात सुनकर प्रदुमण सिंह घबरा उठता है। घर में ही शरीक पैदा हो रहा है। उसी से सीखकर उसके बराबर ही खड़े होने की कोशिश कर रहा है। अपने समोसे बनाएगा, फिर उसकी दुकानों पर जाकर रखने का यत्न करेगा। दुकानदार को एक समोसे के पीछे तीन पैनियाँ कम करके अपनी तरफ कर सकता है। यह लड़का बेशक चुप-सा है पर अन्दर से तेज़ है। बलबीर चला जाता है, परन्तु प्रदुमण सिंह सोच में डूब जाता है कि क्या किया जाए। बलबीर को कैसे रोका जाए।
अगले दिन वह चेहरे पर खुशी दिखलाता हुआ बलबीर से कहता है-
''यह तो अच्छी बात है कि तू अपना काम शुरू करने के बारे में सोच रहा है।''
''अच्छा ! अंकल मैं तो डर रहा था कि आप गुस्सा करोगे।''
''गुस्सा कैसा भई, बेटे जवान होकर पिता के बराबर खड़ा हुआ ही करते हैं। बल्कि तुझे किसी हैल्प की ज़रूरत हो तो बताना।''
''ठीक है अंकल।''
''पर एक बात और है बलबीर।''
''कौन सी ?''
''तू अपना राउंड खड़ा कर ले। समोसे मैं तुझे कोस्ट प्राइज़ पर दिए जाऊँगा। तू यूँ ही भट्ठियों वगैरह पर खर्च करता फिरेगा।''
''कितने का समोसा दोगे ?''
''यह तो तुझे पूरी तरह कैलकुलेट करके बताऊँगा। आजकल हम दुकानदार को पैंतालीस पैंस का एक मसौसा देते हैं। हमें अंदाजन कोस्ट करीब पच्चीस पैंस करेगा और करीब दो पैनियाँ मैं कमाकर, तुझे अट्ठाइस पैस का देता रहूँगा, पर मुझे हिसाब करके देख लेने दे।''
शाम को प्रदुमण सिंह हिसाब लगाकर देखता है कि एक समोसा कितने का पड़ता है। पहले तो यह सस्ता ही था, वह दुकानदारों को भी तीस पैंस का बेचता रहा था, पर अब पैंतालीस का देता है। अब समोसा पैकेट में बन्द और लेबल लगा होने के कारण खर्चा बढ़ चुका है। वह हिसाब लगाता है। समोसा अभी भी बीस पैनी के अन्दर अन्दर ही पड़ता है।
अगले दिन उसकी बातचीत बलबीर से अट्ठाईस पैनी के हिसाब से पक्की हो जाती है। बलबीर को भी यह सौदा गलत नहीं प्रतीत होता। इतने दिन घूमकर अपना काम शुरू करने की राह में आती तकलीफ़ें उसने देख ही ली हैं। सबसे बड़ा चक्कर तो हैल्थ वालों का है। वे बहुत चैक करते हैं। अब यदि वह समोसे प्रदुमण सिंह से लेता रहे तो जिम्मेदारी भी उसी की होगी। बलबीर कहता है-
''पर अंकल, अगर कल को तुम समोसे देने बन्द कर दो तो ?''
''ऐसा कभी नहीं होगा, पर शर्त एक ही है कि हमारी दुकान या स्टोर आदि पर न जाना, नई जगह खोजना। तू तो जानता ही है कि लंदन तो समुद्र है, जितनी मर्ज़ी मछलियाँ पकड़े जाओ।''
''ठीक है, फिर ड्राइवर का इंतज़ाम कर लो।''
बलबीर खुश है। प्रदुमण सिंह भी खुश है। उसे पता है कि माल सप्लाई करना या सेल्समैंनशिप करना बहुत कठिन है। माल तैयार करने का क्या है, कोई भी कर करा सकता है। वह सोच रहा है कि बलबीर जितना भी काम बढ़ाएगा, उतना ही वह भी कमाएगा। यदि बलबीर जैसे एक दो व्यक्ति और उसके पास से माल लेकर आगे सप्लाई करने लग पड़े तो उसके वार-न्यारे ही हो जाएँ। काम बहुत बढ़ जाए। अब उसे नये ड्राइवर को तलाशने की चिन्ता है। वह हर मिलने वाले से पूछताछ करने लगता है यह बताते हुए कि उसको एक ड्राइवर की ज़रूरत है। बहुत बार तो लोग काम की खोज में उसकी फैक्टरी तक ही आ पहुँचते हैं, पर ड्राइवर मिलने बहुत कठिन हो जाते हैं। ड्राइवर की तलाश में वह संधू वकील से भी बात करता है। संधू आगे मीके को बताता है जिसने ड्राइविंग टैस्ट पास करके लाइसेंस ले लिया है। मीका एक दिन आकर ‘सतिश्री अकाल’ बुलाता है। कहता है -
''मुझे शराबी वकील ने बताया कि तुम्हें ड्राइवर चाहिए।''
प्रदुमण सिंह मीका को पैरों से लेकर सिर तक निहारता है और पूछता है-
''लाइसेंस है ?''
''तो और क्या मैं मुँह दिखाने आया हूँ ?''
''अपना ही है ?''
''नहीं, बिन में से ढूँढ़ा था ?''
कहकर मीका हँसने लगता है। प्रदुमण सिंह भी हँसता है। मीका जेब में से लाइसेंस निकाल कर दिखलाते हुए कहता है -
''अंकल, तुम्हें मसखरी बहुत सूझती है।''
''पूछ-पड़ताल तो करनी ही पड़ती है। लोग एक दूसरे का लाइसेंस ही इस्तेमाल किए जाते हैं। क्या नाम है तेरा ?''
''मीका।''
''मीका क्या ? पूरा क्या है ?''
''मीके से ही काम चलाये चलो।''
मीका हँसता हुआ कहता है। प्रदुमण सिंह लाइसेंस पर से उसका नाम और पता पढ़ने लगता है और फिर कहता है -
''तीस पौंड दिहाड़ी के हिसाब से देंगे, जब तक काम सीखेगा, तब तक पच्चीस पौंड। पाँच दिन ड्राइवरी के और दो दिन अन्दर के काम के, अगर लगाने हुए तो।''
''मैं तो सोचता था कि ईश्वर ने सात दिन क्यों बनाए हैं, बेशक दस बना देता। हमें कोई फ़र्क़ नहीं।''
मीका बलबीर के साथ राउंड सीखने लग पड़ता है। बलबीर सिटी की तरफ निकलता है और गुरमीत दरिया पार करके वाटरलू के एरिये में समोसे देने जाता है। बलबीर मीके से कहता है -
''दो हफ्ते लग जाएँगे, तुझे काम सीखते हुए।''
''यारा, तेरी मैं दो दिन में तसल्ली करवा दूँगा।''
''मेरी नहीं, अंकल की तसल्ली चाहिए।''
''अंकल की तसल्ली भी करवा दूँगा। अगर ऐसे नहीं हुई तो हमें दूसरी तरह भी करवानी आती है।''
मीका बात करते हुए कमीज़ के कॉलर खड़े कर लेता है। बलबीर थोड़ा-सा उसको जानता है कि वह गप्पी है। बलबीर कहता है -
''मुझे लगता है, तेरा काम करने का इरादा नहीं।''
''काम तो मुझे करना है, काम की तो ज़रूरत है। पर जहाँ कहीं भी काम करूँ, कोई न कोई पंगा पड़ जाता है साला।''
''यहाँ भी पंगा डाल लेगा अगर जीभ पर काबू नहीं रखा तो।''
''नहीं, यहाँ नहीं पड़ता। इस अंकल को मैं सोध कर रखूँगा। मुझे इसका सारा पता है, ये औरतों का शौकीन है और मैं इसको रणजीत कौर का पता दे दूँगा, नहीं तो किसी दूसरे तरीके से काणा कर लूँगा।''
मीका उत्साहित होकर कहता है। उसने दो दिन में तो राउंड क्या सीखना है, दो हफ्ते में भी नहीं सीख सकता। बहाना करते हुए कहता है -
''असल में बात यह है कि लंदन में गोरी औरतें बहुत खूबसूरत हैं, काली औरतें भी कम नहीं। गोरियों का आगा और कालियों का पीछा, बस यही देखने लग पड़ता हूँ, इसलिए राह याद नहीं हो पा रहा।''
करते-कराते मीका तीन सप्ताह राउंड सीखने में लगा देता है। वैसे मीका काम से मुँह नहीं चुराता है। कुछेक बार तो प्रदुमण सिंह को उसका व्यवहार बहुत बुरा लगता है, उसका दिल करता है कि हटा दे, पर फिर उसके काम को देखकर सोचने लगता है कि उसको वश में कर ले तो उससे अधिक से अधिक काम ले सकता है। ऐसे आदमी प्रशंसा सुनकर ज़्यादा काम करते हैं और ऐसा ही होता है। वह मीके को थोड़ी-सी फूंक दे देता है और मीका काम के लिए उड़ा फिरता है।
डिलीवरी के काम में मीका ठीक चल रहा है। फैक्टरी के अन्दर भी दो दिन लगा लेता है। अपने खुले मुँह के कारण कइयों को नाराज़ भी कर लेता है और सबका दिल भी लगाए रखता है। कोई औरत धीमे काम करती है तो कह देता है -
''क्यों बीबी, दिहाड़ी पर कपास चुगने आई हुई हो जो धीरे-धीरे काम कर रही हो।''
कोई पैरों के बल बैठी हो तो वह कह देता -
''बीबी, जंगल के लिए टॉयलेट उधर है।''
कई बार अपने खाने के लिए पकौड़े भी निकलवा लेता है। एक दिन कहीं से भांग खोज लाता है और पकौड़ों में डलवा कर अपने साथ-साथ औरतों को भी खिला देता है। कभी कोई पूछती है -
''रे मीके, तेरा पूरा नाम क्या है ?''
''क्यों बीबी ? मीके से काम नहीं चलता ?''
''चलता तो है, पर फिर भी ?''
''अभी मैं बिजी हूँ बीबी, अभी मीके से ही काम चलाई चल।''
(जारी…)