समकालीन पंजाबी साहित्य की उत्कृष्ट कृतियों की तलाश

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Sunday, March 20, 2011

आत्मकथा


एक नेत्रहीन लेखक की आत्मकथा

धृतराष्ट्र

डॉ. एस. तरसेम

हिन्दी अनुवाद : सुभाष नीरव

चैप्टर-19(द्वितीय भाग)


आओ फिर धौले चलें और रूड़ेके भी

हमें उन दिनों यूँ लगता था कि इंकलाब हिंदुस्तान में जल्द ही जाएगा। नक्सली आंदोलन चल चुका था। मेरी हमदर्दी कम्युनिस्ट पार्टी मार्क्सवादी के साथ थी। जो भी सैद्धांतिक साहित्य पढ़ता, वह मार्क्सवादी विचारधारा से संबंधित होता। मौलिक साहित्य भी पढ़ता, चाहे रूसी, चीनी या अन्य, और चाहे हिंदी और पंजाबी का, अधिकतर प्रगतिशील साहित्य ही होता। इसी प्रभाव के अधीन मैंने स्वयं अपने बेटे का नाम राजेश क्रांति रखा। इन दिनों में कई नक्सली कारकुन भी मेरे पास आते। मास्टर सुखदेव हंढिआये वाला तो कम से कम पाँच-सात बार स्कूल में आया होगा। कभी-कभी वह काली ऐनक लगा कर आता। उसने बाल बढ़ा रखे थे और छोटी-छोटी दाढ़ी भी रखी हुई थी। एक बार उसने खाकी रंग की पगड़ी बांध रखी थी और पैरों में घोनी जूती पहनी हुई थी। हर बार रूप बदलकर धौला गाँव में नक्सली अक्सर अपनी कोई कोई मीटिंग किया करते। कई स्कूल मास्टर जो पहले राणा ग्रुप में थे, अब नक्सलियों की बोली बोलते। उनकी गुप्त बैठकों में उपस्थित होते। एक बार पता चला कि भगवान दास गुप्ता भी रात में उस मीटिंग में आया था। उन दिनों वह राणा ग्रुप का प्रान्तीय स्तर का सीनियर टीचर नेता था। त्रिलोचन सिंह राणा उनकी टीचर यूनियन का भी और कर्मचारी फैडरेशन का भी प्रधान था। असल में, कर्मचारियों में राणा ग्रुप कम्युनिस्ट पार्टी मार्क्सवादी का ही विंग था। मैं भी उन दिनों उनका समर्थक था। सी.पी.आई. से संबंधित कर्मचारी फैडरेशन का नेता उस समय रणबीर ढिल्लों था और राज्य स्तर का अध्यापक नेता बाबा मोहन सिंह तूर था। कई बार हाकिम सिंह समाओ भी धौले आया था। एक बार वह बिलकुल मेरे घर के आगे से निकला था। एक नक्सली जिसका नाम अब मुझे याद नहीं रहा, दौड़ा दौड़ा मेरे घर आया, वह हाकिम सिंह समाओ को मिलवाने का सन्देशा लेकर मेरे पास आया था, लेकिन मैंने उससे मिलने के लिए मना कर दिया। अगले दिन मालूम हुआ कि उन्होंने धौले के बाहर पिंडी के टीलों में कोई मीटिंग की थी। मैं दो बातों के कारण नक्सलियों से सहमत नहीं था। एक तो यह कि वे छोटे-छोटे गाँव के बनियों को मार रहे थे और दूसरी बड़ी बात यह थी कि मैं भारत में गुरिल्ला लड़ाई के बिलकुल हक में नहीं था। इस तरह के युद्धों के फेल हो जाने के बारे में और लाल पार्टी के हथियारबंद युद्ध के सम्बन्ध में मैंने बहुत कुछ पढ़ रखा था। यद्यपि ये नक्सली मुझे अच्छे बहुत लगते थे, क्योंकि वे भारत में इंकलाब लाने के लिए ईमानदारी से लड़ रहे थे लेकिन उनके युद्ध के फेल हो जाने के बारे में मुझे कोई शक नहीं था। कर्मचारियों में मेरे गरम भाषणों के कारण कुछ नक्सली कारकुन मुझे अपने युद्ध में शामिल करना चाहते थे लेकिन मैं तो बिलकुल भी उनके फिट नहीं सकता था। मेरे कारण तो वे और अधिक समस्या में फंस सकते थे। मैं तो दिन छिपने के बाद घर से बाहर निकलने के योग्य भी नहीं था। रात हुई नहीं कि मैं घर की चारदीवारी के अन्दर क़ैद हुआ नहीं। 1965 के बाद तो यह बात बिलकुल स्पष्ट हो गई थी कि मेरी आँखों की ज्योति दिन-प्रतिदिन कम हो रही है। पहले जब आँखों की ज्योति कम होना शुरू हुई थी, तब ऐनक का नंबर बढ़ जाता जिससे मेरी दूर की नज़र पूरी नहीं तो आधी-पौनी तो काम देती ही थी। परन्तु, 1965 के बाद ऐनक का नंबर नहीं बढ़ता था, पर नज़र कम हो रही थी। रात के समय अँधेरे में मैं कहीं भी नहीं जा सकता था। इस सब कुछ के बावजूद मैं कम्युनिस्ट पार्टी में दिलचस्पी लेना छोड़ नहीं सका था। उन दिनों तो हमने एक द्विमासिक पत्रिका भी तपा मंडी से शुरू कर दी थी। पहले उसका नाम 'अग्निदूत' रखा, फिर जिस नाम की मंजूरी मिली, वह था - 'किन्तु' सी. मारकंडा को हमने उसका संपादक बनाया। मारकंडा ने आहिस्ता-आहिस्ता इस पत्रिका को नक्सली लहर से जोड़ दिया। यही कारण था कि मैंने इस पत्रिका से अपना संबंध पूरी तरह तोड़ा तो नहीं था, पर इससे दूर अवश्य हो गया था। इन सब बातों के बावजूद कोई कोई नक्सली मेरे पास ही टपकता। एक दिन एक लड़का मेरे पास आया। उसके पास किताबें थीं- एक लाल किताब और दूसरी भगत सिंह की जीवनी। लाल किताब उन दिनों में नक्सली इस तरह रखते थे जैसे हिंदू गीता, मुसलमान कुरान और ईसाई बाईबिल। मैं यह किताब पढ़ना तो चाहता था परन्तु मुझे इस बात के विषय में कोई भ्रम नहीं था कि किसी वक्त भी इस किताब के कारण कोई पंगा खड़ा हो सकता है। और फिर जो लड़का यह किताब लेकर आया था, वह मेरे से ही पढ़कर गया था और जब मैं सहकारी कृषि विषय पढ़ा रहा था और साथ ही समाजवाद की बात भी कर रहा था, वह अकेला लड़का ही था जो कक्षा में खड़े होकर मेरे साथ समाजवादी व्यवस्था के खिलाफ़ तर्क करने लग पड़ा था। इसलिए मुझे उस पर पुलिस का भेदिया होने का भी शक था। मेरे बहुत ज्यादा इन्कार करने के बावजूद वह लाल किताब और शहीद भगत सिंह की जीवनी मुझे दे गया था। मेरी हालत उस समय इस तरह की थी जैसे साँप के मुँह में छछूंदर। छोड़ते बने, निगलते। यदि मैं किताब रखता तो मुझे भय था कि यह लड़का नक्सलियों को कोई उल्टी-सीधी बात कहकर मेरे ऊपर कोई कार्रवाई ही करवा दे। लड़का चला गया, पर मैं बहुत दुविधा में था। जब मेरे विचार ही इस लहर से मेल नहीं खाते थे, मैं जलती ज्वाला की लपेट में क्यों आता। पर अब इस किताब को रखूँ कहाँ ? आख़िर बहुत सोचने के बाद मैंने दरवाजे में बनी नांद के नीचे खुरपे से गड्ढ़ा खोदा और लाल किताब को वहाँ दबा दिया। शहीद भगत सिंह की जीवनी मैंने रख ली। इस तरह की कई किताबें मैं भगत सिंह के बारे में पहले भी पढ़ चुका था। सो, इस किताब को पढ़ने की मैंने ज़रूरत नहीं समझी। और फिर मुझे अधिक पढ़ने के लिए या तो सुदर्शना देवी से कहना पड़ता या राजी को। किसी शिष्य बालक से मैं इस तरह की किताबें नहीं पढ़वाया करता था। अब मेरे पढ़ने का बहुत-सा काम सहायकों पर निर्भर करता। मैं ट्यूशन कोई नहीं लिया करता था। जो भी कोई लड़का कभी पढ़ने आता, उसी से कोई पत्रिका या किताब पढ़वा लेता। तीसरे दिन वही बात हुई, जिसका मुझे भय था। एक थानेदार और दो सिपाही सीधे दरवाजा पार करके दायीं तरफ मेरी बैठक में धमके। करम चंद रिशी और उसकी पत्नी उस दिन अपने गाँव हढ़िआये गए हुए थे। थानेदार 'किन्तु' से बात चलाकर 'लाल किताब' तक ले आया। मैंने उन्हें बताया कि मैं नक्सली बिलकुल नहीं हूँ। मैं तो राणा ग्रुप से संबंधित हूँ। नक्सली उन दिनों में सी.पी.आई. और सी.पी.एम. के वैसे ही विरोधी थे जैसे कांग्रेस और अन्य बुर्जुवा पार्टियों के। पर लाल किताब संबंधी थानेदार ने जो कुछ भी मुझसे पूछा, मैंने स्पष्ट बता दिया कि परसों एक लड़का आया था। वह पिछले से पिछले वर्ष मेरे पास पढ़ा करता था। उसके पास लाल किताब भी थी और शहीद भगत सिंह की किताब भी। वह लाल किताब पढ़ने के लिए मुझे बार-बार ज़ोर देर रहा था लेकिन मैंने उससे लाल किताब नहीं ली क्योंकि मैं हथियारबंद युद्ध को इंकलाब लाने के लिए भारतीय स्थितियों के अनुकूल नहीं समझता। हाँ, मैं शहीदेआजम भगत सिंह के प्रति पूरा आदरभाव रखता हूँ। अल्मारी में पड़ी वह किताब एक कांस्टेबल ने पहले ही उठा ली थी। उन्हें अपने नक्सली होने के बारे में तसदीक करने के लिए मैंने सम्पूरण सिंह धौले का हवाला दिया। धौला साहिब की उन दिनों अच्छी चलती थी। अभी उसने कांग्रेस पार्टी नहीं छोड़ी थी। लेकिन उसका झुकाव कम्युनिस्टों की तरफ होता जा रहा था। उसके मेरे संग भी संबंध अब बहुत बढ़िया थे- पारिवारिक भी और विचारधारात्मक भी। थानेदार धौला साहिब की तरफ गया। वह तुरन्त मेरे पास गए और थानेदार की तसल्ली करवा दी कि हमारा मास्टर नक्सली नहीं, वैसे प्रगतिशील है, लेखक भी है और मास्टरों की यूनियन में भी आता-जाता है। मेरे और धौला साहिब के बयानों में रत्ती भर भी फ़र्क़ नहीं था। थानेदार और दोनों कांस्टेबल बिना चाय-पानी पिये ही यह कहकर चले गए, ''मास्टर जी, यह तो हमारी ड्यूटी है, तकलीफ़ मुआफ़ करना।'' शायद उनके हाथ वह लाल किताब लगने के कारण और धौला साहिब का मेरे सिर पर हाथ होने के कारण मेरा बचाव हो गया था। कुछ दिनों बाद पता चला कि पुलिस वाले सी. मारकंडे की भी पूछ-पड़ताल करके गए थे। इसके बाद मैं अंडर ग्राउंड काम कर रहे नक्सलियों से दूर रहने लग पड़ा था। उस लड़के पर जो मेरा शक था, वह ठीक निकला था। दोबारा वह लड़का कभी भी मुझे नहीं मिला था। कुछ दिनों पश्चात मैंने लाल किताब का मुद्दा ही खत्म कर दिया। चोर होगा, कुत्ता भौंकेगा। हाँ, इस किताब के विषय में उन दिनों में निकलते कुछ नक्सली परचों में कुछ कुछ अवश्य पढ़ा। 'रोहले बाण' और 'हेम ज्योति' भी कभी-कभार पढ़ लेता और बाद में 'सियाड़' के कुछ अंक भी पढ़ने को मिले। मैं इन परचों को घर नहीं लाया था और पढ़े भी इस घटना से कुछ समय बाद ही थे। 00 1968-69 का अकादमिक वर्ष मेरे लिए एक समस्या लेकर आया। धौले के हॉयर सेकेंडरी स्कूल में से मास्टरों की दो पोस्टें खत्म करके वहाँ लेक्चरर नियुक्त किए जाने थे। रैगुलर सामाजिक शिक्षा का मास्टर मैं ही था, जिसके कारण जिस लेक्चरर ने आना था, उसे मेरी जगह पर ही आना था। इसलिए ज़िला शिक्षा अफ़सर ने मुझे मेरी इच्छा के दो स्टेशन लिखित रूप में देने के लिए आदेश भेज दिया। परिणामस्वरूप, मेरा तबादला सरकारी मिडल स्कूल, रूड़ेके कर दिया गया और मेरी जगह पर बरनाला से प्रमोट होकर प्रेम सिंह राजनीति शास्त्र के लेक्चरर के पद पर उपस्थित हुआ। वह सुरजीत सिंह बरनाला का नज़दीकी रिश्तेदार था और उन दिनों सरकार भी अकालियों की थी। मेरे लिए रूड़ेके कलां जाने के सिवाय कोई चारा नहीं था। साइकिल फिर उठाना पड़ गया। आरंभ में रिहाइश तो मैंने धौले में ही रखी, क्योंकि करम चंद रिशी से मेरी अच्छी बनती थी। मुँह अँधेरे हम दोनों एक साथ रूड़ेके कलां की ओर ही जंगल-पानी के लिए जाया करते, अच्छी सैर भी हो जाती और रिशी के संग होने पर मेरा आना-जाना भी आसान हो जाता। कई बार रूड़ेके आधे रास्ते तक भी चले जाते। मिडल स्कूल, रूड़ेके था भी समझो सड़क पर ही। गाँव के बस-अड्डे से दायें हाथ पचास-साठ गज चलने पर स्कूल की बिल्डिंग जाती। इसलिए मुझे वहाँ आना-जाना कठिन नहीं लगता था, पर गाँव के सरपंच द्वारा कुछ अधिक ही कहने-सुनने पर मैंने अपनी रिहाइश रूड़ेके कलां में रख ली। स्कूल की बिल्डिंग में ही जहाँ पहले प्राइमरी ब्रांच थी, वे दो कमरे मेरे रहने के लिए पर्याप्त थे। मैं 1 जून 1968 को धौले से विमुक्त होकर उसी दिन रूड़ेके कलां हाज़िर हो गया था। मेरे लिए यह स्कूल इस कारण अधिक महत्वपूर्ण था क्योंकि इस स्कूल में मैं बतौर हैड मास्टर काम करता था। मास्टर कैडर की एक पोस्ट थी और यह सीनियर कैडर होने के कारण इस पोस्ट पर काम करने वाला मास्टर स्कूल का मुख्याध्यापक भी होता था। मुझे मुख्याध्यापक बनने का कोई चाव नहीं था पर जो मास्टर वहाँ उस समय मुख्याध्यापक था, वह एडहॉक पर था। हालांकि जे.बी.टी. अध्यापक के तौर पर वह पक्का सरकारी मुलाज़िम था, पर मास्टर कैडर में उसकी नियुक्ति एडहॉक पर थी और मेरे रैगुलर होने के कारण उसे रिलीव करके मुझे चार्ज लेना था। यह मेरी मज़बूरी थी कि मुझे रूड़ेके कलां स्टेशन लेना पड़ा, पर मेरे कारण वह मास्टर सुरजीत राम अन्दर ही अन्दर इतना दुखी होगा, इस बात का पता मुझे वहाँ पहुँचकर ही लगा। यद्यपि उसे किसी अन्य स्टेशन के आदेश मिल जाने थे, पर बरनाला का होने के कारण उसके लिए यह स्टेशन बहुत ठीक था, क्योंकि बरनाला से रूड़ेके कलां बस सीधी आती थी। मुझे उसकी कुछ हरकतें बिलकुल ही पसंद नहीं आईं। मैं तो सरकारी आदेशों में बंधा हुआ आया था, इसमें मेरा क्या दोष था। उसके चले जाने के बाद मैंने अध्यापकों से सहयोग लेने के लिए बड़ी जुगत से काम लिया। उन दिनों वहाँ पहली कक्षा से लेकर आठवीं कक्षा तक कुल आठ अध्यापक थे। तीन प्राइमरी के और पाँच मिडल क्लासों के लिए। प्राइमरी अध्यापकों में से मास्टर राम शरन सरकारी मिडल स्कूल, तपा में किसी समय मेरा अध्यापक रहा था। उसे इस बात का पता नहीं था, पर मैंने उसे पहचान लिया था। पढ़ा मैं उससे हालांकि दूसरी या तीसरी कक्षा में दस-बीस दिन ही था, पर अध्यापक तो आख़िर अध्यापक होता है। इसलिए उपस्थित होने वाले दिन से ही मैं उसका विशेष रूप से सत्कार करने लगा था। वह हढ़िआये से आता और उसके संग ही हढ़िआये से दूसरा मास्टर लक्ष्मण दास भी आता था। दोनों एक दूसरे के साँस में साँस लेते थे। तीसरी अध्यापिका गुरमेल कौर बरनाला से आती थी और उसके माँ-बाप के मेरे ससुराल वालों से अच्छे संबंध थे। वैसे भी वह एडहॉक पर थी। यही कारण था कि प्राइमरी के तीनों अध्यापकों को कुछ भी कहने की ज़रूरत नहीं थी। मिडल कक्षाओं के लिए सी एंड वी कैडर के चार अध्यापक थे- पंजाबी अध्यापक चूहड़ सिंह, ड्राइंग मास्टर राजविंदर सिंह फ़िरोजपुरिया, हिंदी अध्यापिका कृष्णा देवी और पी.टी.आई. कुलवंत सिंह। इनमें से ड्राइंग मास्टर और ज्ञानी जी ही रैगुलर थे। समय की पाबंदी, बाकायदा पीरियड में उपस्थित होना और विद्यार्थियों को पानी पीने या पेशाब करने के लिए पास सिस्टम आदि के नियमों का पालन करने के संबंध में मैंने पहली मीटिंग में ही अध्यापकों को स्पष्ट कह दिया था और अगले दिन सुबह की सभा में विद्यार्थियों को भी संक्षिप्त से भाषण में बता दिया था। धौला नज़दीक होने के कारण सब अध्यापक मेरे स्वभाव को जानते थे। ज़िन्दगी में खुद भी देर से आने, पहले भागने और पीरियड छोड़ने की आदत नहीं डाली थी। एक महीने के अन्दर अन्दर ही रूड़ेके कलां, धूरकोट और कान्हेके के छात्र-छात्राओं को पता चल गया था कि हैड मास्टर सख़्त है और वह अनुशासनहीनता बर्दाश्त नहीं करता। इसलिए इस गाँव और अन्य गाँवों से आने वाले बच्चे समय से स्कूल आते। पानी पीने के लिए पास लेकर जाते। ग्राउंड में चार-पाँच विद्यार्थियों के सिवाय अन्य कोई विद्यार्थी दिखाई देता था। अन्दर ही अन्दर एक दो अध्यापक दुखी हुए होंगे पर सामने यह बात किसी ने प्रकट नहीं की थी। एक अध्यापक ही कभी-कभी बेचैन-सा नज़र आता था। शनिवार को जल्दी जाना और सोमवार को देर से आने की उसकी आदत थी। उसकी मज़बूरी भी हो सकती है क्योंकि वह फिरोजपुर का रहने वाला था। लेकिन यह सहुलियत उसे तभी मिल सकती थी जब बाकी स्टाफ को कोई आपत्ति हो। इसलिए उसने भी इस सुविधा के लिए आरंभ में कभी भी मुँह नहीं खोला। इलाके के सारे गाँवों में मेरी 'बल्ले-बल्ले' हो गई। उन दिनों में कामरेड प्रीतम सिंह(शायर जोगा सिंह का पिता) कान्हेके का सरपंच था। धूरकोट कवि कौर चन्द राही का गाँव था और उसके दो लड़के मेरे पास पढ़ते थे। उसका बड़ा बेटा पहले मेरे पास धौले में पढ़कर गया था। रूड़ेके कलां का सरपंच करनैल सिंह रोज़ स्कूल के आगे से निकलता था। कभी-कभी स्कूल में भी जाता। स्कूल में अनुशासन देख कर वह बहुत खुश था। उसका लड़का भी छठी में पढ़ता था और उसे यह पता लग गया था कि किस तरह स्कूल का माहौल पहले से बिलकुल बदल चुका है। उम्र में बड़ा होने के बावजूद वह सिर झुका का नमस्कार करता। मैंने करनैल सिंह को बहुत बार कहा था कि वह आयु में बड़ा होने के नाते सत्कार देने का यह हक मुझे दें, पर सरपंच साहिब की दलील थी कि मैं उनके बच्चों का गुरू हूँ और गुरू के आगे शीश झुकाना सबका फ़र्ज़ है। उन दिनों में पंजाब में अकाली दल की सरकार थी और करनैल सिंह सुरजीत सिंह बरनाला की मूँछ का बाल था। हालांकि बरनाला साहिब अभी मंत्री नहीं बने थे पर अकालियों में जस्टिस गुरनाम सिंह के बाद सबसे अधिक पढ़ा-लिखा होने के कारण उनकी कद्र बहुत थी। रूड़ेके कलां के कई घर तपा में रहते थे। सबसे प्रभावशाली महाजनों का घर गुरदास मल्ल का था। उसका बड़ा बेटा रामेश्वर दास मेरा दसवीं कक्षा का सहपाठी भी था और गहरा दोस्त भी। 1960 में उसके विवाह में शामिल होने के लिए मैं रूड़ेके आया था और बारात में मेरी और जगदीश गुप्ता की सबसे अधिक इज्ज़त थी। इसलिए लाला गुरदास मल्ल मुझे बहुत प्यार करता था। मेरी पत्नी की बुआ का दामाद डा. सोहन लाल बांसल भी यहाँ प्रैक्टिस करता था। जैसा कि जुआर की नौकरी के वृत्तांत के समय मैं पहले भी बता चुका हूँ कि गुरबचन सिंह दीवाना जो किसी वक्त शहिणे हाई स्कूल का हैड मास्टर था और बाद में उप मंडल शिक्षा अधिकारी और ज़िला शिक्षा अधिकारी, बठिंडा रहा था, वह शहिणे हमारी हवेली में ही लगातार रहा था। इस कारण उसके संग हमारे घरवाले संबंध बने हुए थे। उसका रिश्तेदार करतार सिंह स्कूल के बिलकुल निकट रहता था और मेरे यहाँ जाने के दूसरे दिन ही मेरे संग अच्छी दोस्ती गांठ गया था। इसलिए बहुत थोड़े समय में ही इलाके में मेरा रसूख भी बन गया था और प्रभाव भी। शायद इसी कारण मेरे द्वारा लागू किए गए डिसीप्लिन का उल्लंघन करने का साहस किसी अध्यापक का नहीं होता था। वैसे इधर-उधर मैं नुक्ताचीनी का विषय अवश्य बना होऊँगा। हर हैड मास्टर ही अध्यापकों की चुगली का केन्द्रबिन्दु होता है। मैं तो सदैव ही अपनी शैक्षिक संस्थाओं के मुख्य अध्यापकों पर नुक्ताचीनी करता रहा हूँ, पर अन्तर सिर्फ़ यह है कि मैं किसी भी मुख्य अध्यापक या अफ़सर की तानाशाही को उसके मुँह पर कहने का हौसला भी रखता था और अब भी बड़े से बड़े आदमी के सामने सच बात कह देता हूँ। मैं तो इस स्कूल में रह कर इस बात से तरसता ही रहा कि कोई अध्यापक मेरी कमजोरी पकड़े और मुँह पर कहे, पर पता नहीं कि मेरी कोई कमजोरी थी ही नहीं या वे बहुत ही अधिक सज्जन थे कि किसी ने भी मेरे सामने मेरे विरुद्ध मुँह नहीं खोला था। एक ड्राइंग मास्टर था जो शनिवार को पहले जाने और सोमवार को देर से आने की छूट मिलने के कारण मेरे से दुखी रहता था। मुझे किसी अध्यापक ने बताया था कि वह और उसका मामा मुझे कूटने को फिरते हैं। उसका मामा मिडल स्कूल, पखों कलां में ड्राइंग मास्टर था। पखों कलां रूड़ेके कलां से अगला गाँव था, इस गाँव से बमुश्किल चार-पाँच किलोमीटर आगे। ड्राइंग मास्टर वहाँ आता-जाता था। बताने वाले मास्टर ने कोई चुगली नहीं की थी। उसकी बात सच्ची थी, जिस कारण मैं इस ओर से सर्तक हो गया था। एक वर्ष पहले ही प्राइमरी स्कूल से मिडल स्कूल बनने के कारण बिल्डिंग कुछ स्तर पर अधूरी थी, पर फिर भी आठ कक्षाएँ बिठाने के लिए स्कूल के पीछे के कुछ दरख़्त प्राइमरी कक्षाओं के लिए कमरे का काम ही देते थे। आंधी-बरसात के समय कुछ बच्चों को बरामदे में बिठा लिया जाता था। बहुत छोटा-सा स्कूल था यह, कुल दो सौ के करीब बच्चे प्राइमरी कक्षाओं सहित। छठी और आठवीं तक की कक्षाओं के बच्चों के संख्या कभी साठ से आगे नहीं बढ़ी थी। ये तीनों कक्षाएँ कमरों में लगती थीं। इन कमरों के बिलकुल सिरे पर एक छोटा-सा मुख्य अध्यापक का दफ़्तर था। मुझे कभी भी विशेष तौर पर कक्षाएँ चैक करने की आवश्यकता नहीं पड़ी थी। कोई अध्यापक जल्दी कक्षा नहीं छोड़ता था। साथ जुड़े हुए कमरों वाले अध्यापक एक-दूसरे के पास कर अगर पाँच-सात मिनट खड़े हो जाएँ तो कोई खास बात नहीं होती। परन्तु यदि पूरा पीरियड ही कोई कक्षा छोड़कर गप्पें मारने में गुजार दे तो उस पर मुख्य अध्यापक का कहना-सुनना वाज़िब बनता है। लेकिन मुझे कभी इस स्कूल में लिखित रूप में तो क्या, किसी को मौखिक रूप में भी टोकने की ज़रूरत नहीं पड़ी थी। मैं आठवीं कक्षा को अंग्रेजी और मिडल की बाकी कक्षाओं को सामाजिक शिक्षा पढ़ाता था। हिंदी अध्यापिका कृष्णा को हिंदी के अलावा तीन कक्षाओं का गणित भी दिया हुआ था। उसके पास सबसे अधिक पीरियड थे और वह पढ़ाती भी बहुत दिल लगाकर थी। साइंस मास्टर होने के कारण यह विषय भी अन्य अध्यापकों को पढ़ाना पढ़ता था। मेरे स्वयं के पढ़ाने के कारण और विद्यार्थियों की पूरी तसल्ली होने के कारण सभी अध्यापक मेरी राह पर चल पड़े थे। पढ़ाने का तरीका मेरा वही था जिसे मैं पिछले स्कूलों में प्रयोग करता रहा था। आठवीं कक्षा में एक होशियार लड़का होता था- रमेश। अंग्रेजी की पाठ्य-पुस्तक में से पढ़ने के लिए आरंभ में मैं उसी को कहा करता था। मेरी अपनी भान्जी रावी भी आठवीं में थी। मेरे द्वारा घर में पढ़ाने के कारण वह भी अंग्रेजी अच्छी तरह पढ़ लेती थी। धीरे-धीरे दो-तीन अन्य विद्यार्थी भी अच्छा पढ़ने लग पड़े थे। सामाजिक शिक्षा में भी मैं पहले पाठ्य-पुस्तक पढ़ाता और फिर छोटे-बड़े प्रश्न लिखवाता। यह पुस्तक किसी भी विद्यार्थी से पढ़वाई जा सकती थी। कई बार विद्यार्थियों को सावधान रखने के लिए मैं बीच-बीच में किसी अन्य विद्यार्थी का रोल नंबर बोल कर उसे पढ़ने के लिए कहता ताकि विद्यार्थियों का ध्यान पाठ की तरफ रहे। अंग्रेजी के ट्रांसलेशन और ग्रामर पर मैं अधिक ज़ोर देता था। मेरी हमेशा इच्छा होती थी कि विद्यार्थी खुद लेख(Essay), कहानी (Story) और पत्रादि स्वयं लिखने लग पड़ें। वे रट्टा लगाएँ, पर इसमें मुझे पूरी सफलता कभी भी नहीं मिली थी। कारण था, विद्यार्थी पहले से ही रट्टा लगाने के आदी थे। यदि लिखित रूप में घर से काम करके लाने के लिए कहता या याद करने के लिए कहता, उसे अगले दिन अश्वय देखता और सुनता। मैं केवल एक-आध विद्यार्थी की ही कॉपी चैक करता, गहरी स्याही और मोटे पैन या 'जी' अथवा 'ज़ैड' की निब से लिखे होने के कारण मुझे चैक करने में अधिक कठिनाई महसूस होती थी। बाकी कॉपियाँ वे होशियार विद्यार्थी चैक किया करते। मैं सब पर इनीशियल ही करता। सुबह की सभा में कभी-कभी भाषण भी देता। इस कला का भरपूर भंडार मेरे पास था। यह गुण मेरी निगाह की कमजोरी को भी ढक लेता था। मैं प्राय: अन्य अध्यापकों को भी बोलने के लिए कहता। लेकिन कभी भी किसी भी अध्यापक ने सुबह की सभा में भाषण नहीं दिया था। शायद एक बार कृष्णा देवी ने भाषण दिया था। हर शनिवार को आधी छुट्टी के बाद सांस्कृतिक कार्यक्रम के लिए कक्षा अध्यापिका को प्रेरित किया। परिणाम यह निकला की धूरकोट के एक लड़के बृशभान और रूड़ेके कलां के एक लड़के मुंशी ख़ान के बहुत सुन्दर गाने का पता चला। अब मुंशी ख़ान तो रेडियो और टी.वी. कलाकार है। मालेरकोटले ब्याहा होने के कारण दो बार मुझसे मिल कर भी गया है। बृशभान जो कविता किस्म की रचना गाकर सुनाया करता था, उसका संबंध 1965 की हिंद-पाक जंग से है। उसकी कुछ पंक्तियाँ मुझे अभी भी याद हैं - सुणो करके अयूब ख़ान गौर हुण(अब) जांदा जावे हत्थां विचों लाहौर मैं बोलां मूसा ख़ान जी मुट्ठी विच साडी जान जी। उन दिनों अयूब ख़ान पाकिस्तान का फौज़ी तानाशाह था और इस कारण पाकिस्तान का सदर भी। मूसा ख़ान फौज़ का जरनैल था। उपर्युक्त पंक्तियाँ मूसा ख़ान की तरह से अयूब ख़ान को टेलीफोन या वायरलैस पर दी जा रही सूचना का छंदबद्ध रूप है। खेलों में भी मैं इस स्कूल को ज़िला स्तर तक ले गया। ज़िला संगरूर के खेल उस समय मालेरकोटले के कूकियों की ऊसर धरती में हुआ करते थे, जहाँ अब शानदार नामधारी शहीद स्मारक बना हुआ है और तोपों द्वारा उड़ाकर शहीद किए 66 नामधारियों की स्मृति में हर वर्ष यहाँ बहुत भारी मेला लगता है। इस टूर्नामेंट में मेरे इस स्कूल की लड़कियों ने भी भाग लिया था जिस वजह से दो अध्यापिकाएँ मेरे संग थीं। पी.टी.आई. कुलवंत सिंह भुल्लर ने तो साथ होना ही था। हालांकि 'खो-खो' का फाइनल हारने के कारण बच्चियों में मायूसी थी, पर ज़िले में एक छोटे से नये बने स्कूल का दूसरे स्थान पर आना भी मेरे लिए बड़ी तसल्ली वाली बात थी। शायद लड़कियों को मैं संग ही लेकर आता यदि मेरी बहन यहाँ ब्याही होती। मैंने दोनों अध्यापिकाओं कृष्णा देवी और बिमला देवी की निगरानी में विद्यार्थियों को अलग-अलग कमरों में अपनी भान्जी के घर ठहरने का प्रबंध कर दिया। पी.टी.आई. और मैं मेरी बहन के घर में ठहरे। मैं जानता था कि ऐसे मौके पर राई का पर्वत बनाया जा सकता है, इसलिए मैं बहुत सर्तक होकर चला और सफल भी रहा। इस स्कूल में नौकरी के दौरान कान्हेके के सरपंच कामरेड प्रीतम सिंह और धूरकोट से शायर कौर चन्द राही मुझसे मिलने आया करते। और भी कई मित्र-यार आते। उनके मुँह से अपनी प्रशंसा सुनकर मुझे तसल्ली मिलती। गरमी में मैं अक्सर किसी पेड़ के नीचे ही कुर्सी बिछा लेता और सर्दियों होतीं तो धूप में। ऐसा करने से किसी बाहर से आए व्यक्ति को पहचानने और उससे हाथ मिलाने में मुझे कोई मुश्किल पेश आती। दफ़्तर में भी यह मुश्किल नहीं आती थी क्योंकि दोनों तरफ खिड़कियाँ थीं और तीसरी तरफ दरवाज़ा। इस तरह दफ़्तर में पूरी रोशनी रहती थी। पर बाहर बैठने की बात अलग ही थी। उससे अध्यापकों और विद्यार्थियों पर भी प्रभाव पड़ता कि हैड मास्टर देख रहा है। मेरे लिए बड़ी तसल्ली की बात यह थी कि आठवीं का नतीजा अच्छा गया था और सातवीं कक्षा की सारी पढ़ाई मेरी निगरानी में होने के कारण अगले वर्ष की कोई मुश्किल नहीं थी। लेकिन मेरी भान्जी राजी को नौवीं कक्षा के लिए धौले हाई स्कूल में लाना पड़ा था, जिस कारण उसे रोज रूड़ेके कलां से धौले जाना पड़ता। वैसे तो धौले से मेरी बदली होने के कुछ दिन बाद ही धौले का हॉयर सेकेंडरी स्कूल, हाई स्कूल बन जाने के कारण सभी लेक्चरर वहाँ से जा चुके थे और मेरी वाली पोस्ट पर मेरा ही हक बनता था। इस संबंध में पिछले वर्ष से ही मैंने ज़िला शिक्षा अधिकारी से लेकर मुख्य मंत्री तक पत्र-व्यवहार करना शुरू कर दिया था और अपना हक मांगा था, पर मेरी कोई बात नहीं बन सकी थी। जुलाई 1969 में सुरजीत सिंह के पंजाब का शिक्षा मंत्री बन जाने से मुझे धौले में तबादले की पूरी आस बन गई थी, पर उसने धौले आकर भी मेरी बात ध्यान से नहीं सुनी थी और मेरी अर्जी मुझसे पकड़कर ज़िला शिक्षा अधिकारी सुखमंदर सिंह को दे दी थी। मैंने महसूस किया मानो बरनाला साहिब ने मुझे टाल दिया हो। धौले स्कूल में उसका भरपूर स्वागत हुआ था लेकिन जो व्यवहार उसने मेरे संग किया था, उसका मैंने ठोककर जवाब दिया था, ''बरनाला साहिब, इस सुखमंदर सिंह साहिब को तो मैं पहले भी कई बार अर्जी दे चुका हूँ। इससे इन्साफ़ की मुझे कोई आस नहीं। मैं आपको एक बात बता दूँ कि मैं पंजाब सरकार का मुलाज़िम होने के साथ-साथ एक आज़ाद भारत का शहरी भी हूँ और वोटर भी। कोई बात नहीं, वक्त आने पर समझ लेंगे।'' मैंने तैश में आकर सुरजीत सिंह बरनाला को खरी-खरी सुना दी थी। यह बात समीप खड़े ज़िला परिषद के मैंबर हंस राज गर्ग ने भी सुन ली थी जिसने मेरी अर्जी पेश की थी। वह धौले में सम्पूरण सिंह धौला का विरोधी समझा जाता था। लेकिन मेरे भाइयों जैसे भाई के दोस्त प्रकाश चन्द वकील का रिश्तेदार होने के कारण उसने मेरी अर्जी पकड़ी थी। बरनाला साहिब के वह बहुत नज़दीक था। मुझे गुस्सा उगलते देखकर रूड़ेके कलां वाला सरपंच करनैल सिंह बरनाला साहिब की कार के और करीब हो गया। उन दिनों में वह बरनाला की ब्लॉक समिति का चेअरमैन था। ''हैड मास्टर साहब, हम नहीं जाने देंगे आपको अपने गाँव से।'' फिर बरनाला साहिब से मुखातिब होकर कहने लगा, ''हमारे इस हैड मास्टर जैसा योग्य व्यक्ति सारे पंजाब में नहीं बरनाला साहिब।'' बरनाला साहिब कार में बैठते-बैठते एक बार फिर बाहर गए। मुझसे कहने लगे, ''कहाँ के रहने वाले हो मास्टर जी ?'' ''तपा मंडी का रहने वाला हूँ जी और बरनाला में जोधपुरियों के यहाँ ब्याहा हुआ हूँ।'' मेरे इस एक ही फिकरे ने सुरजीत सिंह को जैसे सुन्न कर दिया हो। वोटों के इस युग में लीडर को काम से कोई वास्ता नहीं, उसे तो वोट चाहिए होते हैं। यदि बरनाले वाले जोधपुरिये चुनाव बूथ पर एक साथ पहुँच जाएँ तो एक अच्छी-खासी लम्बी लाइन तो उनकी ही लग जाए। कुछ सोच कर बरनाला साहिब ने मेरे कंधे पर हाथ रख लिया और कहने लगे- ''वो लाला नराता राम करता राम ?'' ''हाँ, जी। लाला नराता राम हमारे दादा जी हैं और करता राम पिता जी।'' यह कहकर मैं थोड़ा हटकर खड़ा हो गया और बरनाला साहिब ने मुझसे अर्जी मांगी। मैंने यह कहकर अर्जी देने से इन्कार कर दिया कि अब तो चंडीगढ़ में ही आपके दर्शन करेंगे। सरपंच करनैल सिंह को मैंने सारी बात बता दी थी कि अब रूड़के कलां मुझे कोई तकलीफ़ नहीं है, सिर्फ़ अपनी भान्जी के रोज़ धौले में स्कूल आने-जाने के कारण मैं तो इस स्कूल में आना चाहता हूँ। उन्होंने मेरी समस्या समझ ली थी पर उदास बहुत था करनैल सिंह। मानो उससे किसी ने कुछ छीन लिया हो। शाम से पहले पहले सुरजीत सिंह बरनाला से हुई झड़प के बारे में तपा जाकर भाई को किसी ने बता दिया था। अगले रोज़ जब मैं तपा पहुँचा तो वह मेरे से बहुत नाराज़ हुआ। इस बात में वह ठीक भी था, पर गलत तो मैं भी नहीं था। मेरे सामने मंत्री ने सिफारिशी नोट देकर कई अर्जियाँ अपने पी.. बलदेव सिंह मान को पकड़ाई थीं (बलदेव सिंह मान जो बाद में मंत्री भी बना और पंजाब बिजली बोर्ड का सदस्य भी) और कई संगरूर से संबंधित अर्जियाँ ज़िला शिक्षा अधिकारी सुखमंदर सिंह को दी थीं। मेरी अर्जी पर बग़ैर कुछ लिखे सुखमंदर सिंह को यूँ पकड़ा दी जैसे कि वह रद्दी की टोकरी में फेंकने के लिए पकड़ाई गई हो। जबकि तबादले की मेरी मांग बिलकुल जायज़ थी और कई अर्जियाँ ऐसी भी थीं जिनमें बहुत कुछ झूठ लिखकर मंत्री जी की सिफारिश से अपने काम निकलवाने के लिए जत्थेदारों की मार्फत कोशिश की गई थी। मुझे तैश भी इसी कारण आया था कि इस सज्जन और धर्मनिरपेक्ष कहलाने वाले मंत्री के दिमाग का असली नक्शा क्या है। तीसरे दिन मुझे किसी ने बताया कि मेरी बदली के आदेश तो डी... के दफ़्तर में आए पड़े हैं। मैं तुरन्त बस में चढ़ गया। दफ्तर में अभी पहुँचा ही था कि दफ़्तर का एक बाबू मेरी बांह पकड़कर डी... के पास ले गया। डी... सुखमंदर सिंह ने खड़े होकर मुझे रस्मी तौर पर गले लगाया और मेरी ठोड़ी पर दो उंगलियाँ रखकर कहने लगा- ''तरसेम जी, मंत्री जी के सामने इस तरह करना भला क्या हमें शोभा देता था।'' ''डी... साहिब, मंत्री जी आपके लिए हैं सुरजीत सिंह.... हमारे लिए वह और बहुत कुछ है। हमारे इलाके का लीडर और हमारा रिश्तेदार।'' मेरी दिलेरी और मुँहफट जबान से तो वह पहले ही परिचित था, इसलिए बाबू को मेरे आर्डर लाने के लिए कहकर उसने चपरासी से दो कप चाय लाने के लिए भी कह दिया। ''गुप्ता जी आपके क्या लगते हैं ?'' डी... का सवाल था। ''धर्म पाल गुप्ता जी ?'' मैंने स्पष्टीकरण की खातिर पूछा। ''हाँ हाँ, धर्म पाल जी ही।'' मानो वह मिश्री जैसे शब्द मेरी ओर सरका रहा हो। मैंने सब कुछ बता दिया और कहा कि डी... साहिब यदि गुप्ता जी की एलोकेशन हरियाणा में हुई होती तो मुझे किसी मंत्री-संत्री को इस काम के लिए कहने की ज़रूरत नहीं पड़नी थी। चाय पी, आर्डर की दो प्रतियाँ लीं - एक हाई स्कूल धौले और दूसरी मिडल स्कूल रूड़ेके कलां की, और मैं सीधा घर पहुँच गया। बरनाला होते हुए मैंने यह सन्देशा भाई को दे दिया कि बदली हो गई है। दरअसल इस बदली के पीछे जस्टिस गुरनाम सिंह के सिफारिशी नोट और मंडल शिक्षा अधिकारी के दफ़्तर के अमला अफ़सर राम किशन की बड़ी भूमिका थी। राम किशन की गुप्ता जी के साथ दोस्ती इतनी गहरी थी कि वह गुप्ता जी के किसी काम को करते समय अपना काम समझ कर किया करता था। 5 अगस्त 1969 को दोपहर के बाद रिलीव होकर मैं उसी दिन सरकारी हाई स्कूल, धौला में उपस्थित हो गया था। मेरी इस बदली को लेकर धौले वाले सभी मास्टर हैरान थे क्योंकि उन्होंने बरनाला साहिब के साथ हुई मेरी गरमा गरमी तीन दिन पहले ही देखी थी। धौले के लोगों के लिए भी और स्टाफ के लिए भी मैं पहले से ज्यादा तगड़ा और दिलेर समझा जाने लगा था। इस घटना से सम्पूरण सिंह धौला मेरे और अधिक नज़दीक हो गया था। दो दिनों में मेरा धौले में रहने का प्रबंध भी हो गया। चानण सिंह, मैंबर पंचायत धौला साहिब के बहुत करीबी थे। सरपंच बीर सिंह भी धौला साहिब के बहुत करीब था। जब मैं पहले धौला में रह कर गया था, सरपंच और पंच चानण सिंह ने खुद भी मेरी बहुत इज्ज़त की थी। पंच के घर के सामने सुंदर सिंह का मकान खाली पड़ा था। सभी की यही इच्छा थी कि मैं सुंदर सिंह के इस मकान में जाऊँ, जहाँ मैं पहले भी रहकर गया था। सुंदर सिंह ने भी कोई लम्बी-चौड़ी शर्त नहीं रखी थी। सिर्फ़ पन्द्रह रुपये महीने में दो कमरों वाला पक्का मकान मिल गया था। करम चन्द रिशी वहीं था जिसका बड़ा बेटा पप्पू(अब चरनजीत) और छोटी बेटी भोली, दोनों ही हमारा मन बहलाने और दो परिवारों के बीच अपनत्व बढ़ाने में फूलों जैसी कड़ी बन गए। पहले से कहीं अधिक स्कूल बदला हुआ था। सब लेक्चरर जा चुके थे। मास्टरों में सबसे वरिष्ठ शायद साइंस मास्टर प्रदुमन सिंह था जो दूर का होने के कारण प्राय: छुट्टी पर ही रहता था। इसलिए मुझे अक्सर स्कूल के मुख्य अध्यापक का काम करना पड़ता। देस राज के यहाँ हैड मास्टर बनकर जाने से स्कूल के माहौल में एक ख़ास परिवर्तन यह आया कि धौला साहिब अब स्कूल में बिलकुल नहीं आते थे। कारण यह था कि उनकी किसी समय में हैड मास्टर देस राज के साथ चुनाव ड्यूटी के दौरान कहा-सुनी हो गई थी। देस राज में एक मास्टर के बजाय एक अफ़सर वाले गुण और अवगुण अधिक थे। मैंने उसे 1952-53 में भी कई बार देखा था। उन दिनों मैं तीसरी-चौथी का विद्यार्थी रहा होऊँगा। प्राइमरी स्कूलों की जाँच-पड़ताल के लिए देस राज हमारे इलाके में शायद .डी.आई. अर्थात असिसटेंट डिस्ट्रिक इंस्पेक्टर ऑफ स्कूल लगा हुआ था। आजकल इस पोस्ट को ब्लॉक प्राइमरी शिक्षा अधिकारी अथवा बी.पी... कहा करते हैं। सिर पर टोप पहनता। रंग उसका गोरा था। चाहे पेंट-शर्ट पहनता या गरम सूट, गोरा-चिट्टा होने के कारण वह अंग्रेज अफ़सर ही लगता था। जब अध्यापकों के साथ बात करता था, तब वह अफ़सराना लहजे में ही बात करता था और बोलता भी अंग्रेजी-उर्दू था। बचपन में मैं उसे बहुत बड़ा अफ़सर समझा करता था, तब सारे बच्चे ही ऐसा समझते होंगे। पर हैड मास्टर देस राज के साथ रह कर मैं उसकी हर ख़ासियत से वाकिफ़ हो गया था। वह बहुत सफाई पसंद था, पानी भी चपरासी के हाथ से नहीं पीता था, नलके से स्वयं पानी भरने जाता। दोपहर के समय उबले अंडों पर से छिलका उतारने के लिए हाथ के स्थान पर चाकू का इस्तेमाल करता। सब्जी और अंडा या सलाद का कोई भी टुकड़ा हाथ से मुँह में नहीं डालता था। सिर्फ़ रोटी की बुरकियों को ही वह हाथ से छूता। इस तरह की नफ़ासत मैंने किसी आदमी में पहली बार देखी थी। उसके हर काम में अफ़सराना लहजे की झलक मिलती। चपरासी को बुलाने के लिए उसने जबान का कभी प्रयोग नहीं किया था, चाहे दफ़्तर में ही क्यों खड़ा हो। उसे बुलाने के लिए वह घंटी का ही इस्तेमाल करता। बाबू ज्ञान चन्द से दफ़्तरी काम लेने के लिए भी वह हर निमय को घोट घोट कर समझाता। जब उसने छुट्टी पर जाना होता तो वह मुझे इंचार्ज बना कर जाता। उन्हीं दिनों में हरियाणा में से अपनी एलोकेशन रद्द करवाकर एक मास्टर निरंजन रतन इस स्कूल में गया था। वह धनौले के एक थानेदार सुरजीत राय का शायद साढ़ू भी था और भान्जा भी। धौले को धनौले का थाना लगता था। इस कारण रतन महाराज अपने आप को ज़रा खींच कर रखते। वह यह भी क्लेम करता कि वह मुझसे सीनियर है, इसलिए हैड मास्टर को उसे सेकेंड हैड मास्टर के रूप में परवान करना चाहिए। लेकिन हैड मास्टर इस बात से सहमत नहीं था। इस कारण वह अपने थानेदार रिश्तेदार का रौब इस्तेमाल करके मुझसे हैड मास्टर को यह कहलवाना चाहता था कि मैं सेकेंड हैड मास्टर का काम संभालना नहीं चाहता और यह काम रतन का है, उसे दे दिया जाए। मुझे हैड मास्टर बनने का कोई चाव नहीं था, वह भी हैड मास्टर के छुट्टी पर होने या सरकारी काम पर जाने पर हैड मास्टर बनना, लेकिन मैं निरंजन रतन की हैंकड़बाज़ी के सामने भी हथियार फेंकने के लिए तैयार नहीं था। मैं तो हैंकड़ीबाज़ लीडरों, बे-उसूले अफ़सरों और करप्ट पुलिस वालों के आगे कभी भी झुका नहीं था। रतन की गलतफ़हमी थोड़े दिनों में ही दूर हो गई और वह टिक कर बैठ गया। धौला साहिब और हैड मास्टर के आपसी संबंध बिगड़े होने के कारण इस का असर स्कूल पर भी पड़ा। एक तो उन दिनों में नक्सलबाड़ी आंदोलन के कारण कालेजों में तो पी.एस.यू. अर्थात पंजाब स्टुडैंट्स यूनियन सक्रिय थी ही, गाँव में भी इसका प्रभाव पड़ना आरंभ हो गया था। वैसे भी धौला सियासतदानों का गाँव था। सुरजीत सिंह बरनाला और सम्पूरण सिंह धौला दोनों कद्दावर और एक-दूसरे के विरोधी लीडर होने के कारण गाँव में एक अजीब किस्म का तनाव बना रहता, पर लड़कों में प्रभाव अधिकतर सम्पूरण सिंह धौला का ही था। उसका बड़ा बेटा दर्शन जो देखने में बहुत सीधा-साधा था, भी पी.एस.यू. में पैर रखता था और बहुत सारे अन्य लड़के भी। यह तो मैं नहीं कह सकता कि इसके पीछे धौला साहिब का हाथ था या नहीं, पर हैड मास्टर को यहाँ से निकालने के लिए लड़कों में खुसुर-पुसुर आरंभ हो गई थी। हैड मास्टर की रिहाइश धनौले में थी। वह रोज़ धनौले से ही स्कूटर पर स्कूल आता और आता भी कुछ विलम्ब से। अब वह पता नहीं हालात बदलने के कारण या बुजुर्ग़ी के कारण, सिर पर हैट नहीं लगाता था, पगड़ी बांधता था। अध्यापकों के संग भी कभी तल्ख़ी में नहीं बोलता था। वह हालात को भांप गया था। कभी कभार वह मेरे खाली पीरियड में मुझे बुला लेता। उसने विश्व का सारा क्लासिकल साहित्य पढ़ा हुआ था। नसर और नज्म की बारीकियों के बारे में भी मेरे साथ बातें किया करता और उनमें दर्ज़ मज़मून के बारे में भी। उर्दू के शे' ही नहीं, उसे अंग्रेजी की पोयट्री भी खूब ज़बानी याद थी। पर मेरी उनसे यह निकटता कुछ अध्यापकों को बहुत चुभती थी और मेरे पीठ पीछे मुझे हैड मास्टर का चमचा कहने में भी गुरेज नहीं करते थे। मेरे अन्दर इतनी ताकत नहीं थी कि मैं धौला साहिब और हैड मास्टर के बीच के तनाव को किसी प्रकार खत्म करवा सकता। सो, एक धमाका हो ही गया। विद्यार्थी सवेरे ही गेट पर खड़े होकर नारेबाजी कर रहे थे - 'हैड मास्टर देस राज मुर्दाबाद... अफ़सरशाही नहीं चलेगी, नहीं चलेगी...' कोई कोई नारा मेरे खिलाफ़ भी लग रहा था। मेरी समझ में नहीं रहा था कि मेरे इस विरोध के पीछे कौन से विद्यार्थी काम कर रहे हैं। कोई भी मास्टर बाहर जाने और विद्यार्थियों से बात करने का साहस नहीं कर पा रहा था। मैं ही अकेला बाहर गया और विद्यार्थियों से बात की। नारेबाजी बन्द हो गई। कुछ विद्यार्थी कक्षाओं में गए और कुछ घरों को चले गए। इस विद्यार्थी अखाड़े में शायद कुछ विद्यार्थी बाहर से भी आए थे। शान्ति तो हो गई पर हैड मास्टर के लिए यह नारेबाजी खतरे की घंटी बन गई। दो अध्यापकों को यह अवसर मिल गया कि वे मेरे खिलाफ़ हैड मास्टर के कान भर सकें। वे हैड मास्टर के आगे यह दलील दे रहे थे कि तरसेम लाल गोयल ने ही यह हड़ताल करवाई है और खुद को सच्चा साबित करने के लिए उसने अपने खिलाफ़ पाँच-सात नारे लगवाने के लिए विद्यार्थियों को ट्रेण्ड किया हुआ था। हैड मास्टर के लिए इस बात पर यकीन करना कोई बहुत कठिन काम नहीं था क्योंकि मैं धौला साहिब का पड़ोसी था और हमारे पारस्परिक संबंध भी ठीक थे। कुछ दिनों पश्चात हैड मास्टर देस राज का तबादला हो गया। वह जब रिलीव हुआ, बहुत चुप था। उसने मेरे संग भी कोई बात नहीं की थी। मैं बड़ा हैरान था कि मैं उसके लिए यदि कोई बड़ी ढाल नहीं बन सका था, पर मैंने हड़ताली विद्यार्थियों को समझाने-बुझाने और उन्हें शान्त करने में तो एक अच्छे अध्यापक की भूमिका निभाई ही थी। यह काम मैंने स्कूल के हित में किया था। मेरे इस हितकारी कार्य का जैसे उस पर कोई भी अच्छा प्रभाव पड़ा हो। वेदप्रकाश सहजपाल की धौले में बदली कर दी गई। वह था तो अफ़सरशाही समर्थक हैड मास्टर पर मेरे भाई से उसके संबंध अच्छे थे। इसलिए विचाराधात्मक रूप में उससे मेल खाने के बावजूद उसका विरोधी नहीं था। लेकिन वह धौला में आकर राजी नहीं था। इसलिए उसने अपनी बदली रद्द करवा ली। मुझे बाद में पता लगा कि वह हैड मास्टर देस राज से मिला था और देस राज ने उसको मेरे बारे में टिप्पणी की थी जिसे मैं हू--हू यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ - “Be aware of Mr. Tarsem Lal Goyal. He is snake in the grass.” मेरे से सावधान रहने और मुझे घास में छिपा साँप कहने की बात मेरी समझ में नहीं आई थी। हाँ, किसी ने अवश्य उसके कान भरे होंगे। इसीलिए तो रिलीव होने के समय उसकी बेरुखी पर से पर्दा उठ गया था, पर मैंने कोई ऐसी बात नहीं की थी। मुझे तो यह भी समझ में नहीं आया था कि लड़कों ने मेरे खिलाफ़ नारे क्यों लगाये थे। जहाँ तक मैं उस समय कयास लगा पाया था और अब भी वही बात मेरे दिमाग में है, वह यह कि बनियों का एक लड़का बहुत शरारती था और मैं अक्सर उसे डांटता रहता था। उसी ने नारे लगा दिए होंगे और लड़कों के समूह ने जोश में आकर मुझे भी मुर्दाबाद की लपेट में ले लिया होगा। यह बात बाद में स्पष्ट हो गई थी, पर इस बात की स्पष्टता की ज़रूरत या तो हैड मास्टर देस राज को होनी चाहिए थी या कानों के कच्चे हैड मास्टर वेदप्रकाश सहजपाल को। मैं जहाँ तक समझता हूँ कि वेदप्रकाश बहुत चालाक था। वह धौला जैसे सियासी गाँव में आना ही नहीं चाहता था। इसे वह अपने दोस्तों को 'दो गिरे हुओं की लड़ाई' बताया करता था। मेरा किरदार तो सिर्फ़ एक बहाना था, उसका धौला में उपस्थित होने का। 00 जब मैं फिर से धौला आया तो यशपाल और कपूर का यहाँ से तबादला हो चुका था। स्कूल के प्रबंधकीय मामलों में मेरी अच्छी पूछ-पड़ताल थी। यद्यपि मेरी दफ़्तरी कामकाज में कोई रूचि नहीं थी, पर दफ़्तर के बाबू ज्ञान चन्द पुंज से दोस्ती कुछ और पक्की हो जाने के कारण मुझे दफ़्तर का भेदी समझा जाता था। स्कूल में एक सफ़ेद पगड़ी नीली हो गई थी। कभी वह धौला साहिब का दाहिना हाथ होता था और अब वह उनसे मिलने में भी गुरेज करता था। यह दु: एक दिन शाम के समय धौला साहिब ने मेरे साथ साझा किया। अब वह हर बात पर मेरी तारीफ़ किया करते और मुझे ही स्कूल का सबसे बढ़िया अध्यापक समझते। अब भी दसवीं तक अंग्रेजी और सामाजिक शिक्षा के विषय पढ़ाने में मेरा तरीका पहले वाला ही था लेकिन मेरे स्कूल में समय से आने और पीरियड लेने की मेरी आदत ने मुझे लोगों में और अधिक नेकनामी दिलानी आरंभ कर दी थी। रूड़ेके कलां से आठवीं कक्षा पास करने वाले सभी विद्यार्थी यहीं आकर दाख़िला लेते थे। इस कारण भी मुझे विद्यार्थियों की ओर से अपना पलड़ा मजबूत प्रतीत होता। लेकिन कुछ अध्यापक अन्दर ही अन्दर इस बात से दु:खी थे कि मैं धौला साहिब के भी करीब हूँ और गाँव में बरनाला साहिब का ग्रुप भी मेरे विरुद्ध नहीं है। अक्सर मैं पी.टी.आई. और ड्राइंग मास्टर आदि अध्यापकों को स्कूल में बाधा उत्पन्न करने वालों का नेता समझता रहा हूँ। पी.टी.आई. को कोई परिणाम नहीं दिखाना होता था और ड्राइंग मास्टर वाले पेपर में कोई विद्यार्थी फेल नहीं होता था, क्योंकि वह स्वयं अंदर जाकर विद्यार्थियों के माडल को ठीक कर दिया करता था। इसलिए पीरियड लगने के बावजूद वे खाली समझे जाते और खाली दिमाग शैतान का घर होता है। उन्हें कोई कोई शूल खड़ा करके अपने कुकुर्मों पर पर्दा डालना होता है। सिर्फ़ सरकारी हाई स्कूल, तपा मंडी जाकर मेरा यह भ्रम टूटा कि पी.टी.आई और डी.पी.. अच्छे भी होते हैं, उसूलपरस्त और लोकहित चिंतक भी। अब मेरे साथ बद्री दास गर्ग था, वह हंसराज गर्ग का छोटा भाई था और शायद था भी एडहॉक पर। कुछ दिनों बाद जो हैड मास्टर आया, वह था राम किशन अत्री। उसने अपनी पहली स्टाफ मीटिंग में यह कहा था कि वह सुरजीत सिंह बरनाला का सहपाठी है और बरनाला साहिब ने उसे स्कूल को सुधारने के लिए यहाँ स्थानांतरित किया है। उसके पास एक रिवाल्वर था। उसने कभी रिवाल्वर चलाया हो, यह तो मुझे नहीं पता पर दो-चार बार चार-पाँच लोगों को दिखाया अवश्य था। मुझे तो यह भी शक है कि उसके पास रिवाल्वर था ही नहीं, सिर्फ़ रिवाल्वर के चमड़े का खोल था। मुमकिन है उस खोल में कोई नकली रिवाल्वर ही हो। मैं तो उससे जल्दी ही तंग गया था। हो सकता है कि अन्य भी उससे दुखी हों, पर बोलता कोई नहीं था। सुरजीत सिंह बरनाला शिक्षा मंत्री था, इसलिए अध्यापक शायद अत्री साहिब की हाँ में हाँ मिलाने में ही बेहतरी समझते हों। निरंजन रतन बदल कर बरनाला चला गया था। कोई ओम प्रकाश धवन बरनाला से धौले में गया था। शायद उसका तबादला किसी शिकायत के कारण हुआ था। वह अपने आप को एलीट क्लास का व्यक्ति समझता था। अर्जन सिंह शांते को वह अपनी जेब में समझता था। बरनाला के कई मास्टरों ने मुझे बताया था कि जब शांते बरनाला में आता है तो रात धवन के यहाँ काटता है। धवन के साथ ही वह शाम को सैर पर जाता है। इसलिए इलाके के कई मास्टर धवन की भी जी-हुजूरी किया करते थे। शायद यह वह समय था जब अभी अत्री बतौर हैड मास्टर स्कूल में नहीं आया था। वह मुझसे वरिष्ठ था इसलिए कार्यकारी मुख्य अध्यापक के तौर पर काम करने के कारण उसे अफ़सरी करने का अवसर मिल गया था। वह समझता था मानो वह स्कूल को सुधार देगा। एक दो मास्टरों को कक्षा में जाने के लिए उसने इस तरह कहा जैसे बेलदारों को मेट हुक्म देता है। शांते का आदमी होने के कारण मैं उससे अन्दर ही अन्दर बहुत नफ़रत करता था। उन दिनों में शांते मंडल शिक्षा अधिकारी भी था और किसी प्रोजेक्ट के कारण प्रोजेक्ट अफ़सर के पद पर भी था। दफ़्तर भी उसका नाभा की बजाय संगरूर में ही था। उसने एक दिन मेरे दफ़्तर जाने पर मेरा इस प्रकार अपमान किया था जैसे कोई अनपढ़ आढ़तिया पल्लेदारों के गले पड़ता है। मैंने भी उसे खरी खरी सुनाकर अपनी भड़ास निकाल ली थी और उसे कह दिया था कि आने वाले पंजाब यूनिवर्सिटियों की सैनेट चुनावों में बताऊँगा शांत साहिब कि मूंगी किस भाव बिकती है। पता नहीं सुखमंदर सिंह के कहने पर या उसे ही अपनी गलती का अहसास हुआ हो, शांते चुपी लगा गया था। शायद यही घटना मेरी धवन के प्रति नफ़रत का कारण थी। वैसे भी मुझे ऐसे अफ़सर और इधर-उधर हाथ मारकर कुर्सियाँ हथियाने वाले व्यक्ति ज़िन्दगी में कभी भी अच्छे नहीं लगे। (जारी…) 00