एक नेत्रहीन लेखक की आत्मकथा
धृतराष्ट्र
डॉ. एस. तरसेम
हिन्दी अनुवाद : सुभाष नीरव
चैप्टर-5
पुन: तपा के आर्य स्कूल में
लौट के बुद्धू घर को आए।
सुखानंद आर्य हाई स्कूल, तपा में जुलाई या अगस्त 1960 को मेरे हाज़िर होने पर उक्त कहावत तो लागू नहीं होती क्योंकि मैं स्वयं स्कूल छोड़ कर नहीं गया था, स्कूल छुड़वाया गया था। यह समझो, खूबसूरत योजना के तहत स्कूल से निकाला गया था। हाँ, 'मुड़ घुड़ खोती बोहड़ थल्ले' वाली कहावत मेरे स्कूल में पुन: नौकरी करने पर अगर कोई लागू करता है, तो उस पर मेरा कोई उज्र नही। लेकिन मेरे लिए इस बोहड(वट वृक्ष) के सब पत्ते झड़े हुए हैं। इस वट वृक्ष के नीचे आकर झुलसा देने वाले सेक का मुझे ज्ञान था। मेरी तुलना खोती यानी गधी के साथ भी नहीं हो सकती थी। हालांकि मेरे पास कोई धन-दौलत नहीं थी, पर अक्ल का खाना मेरा पूरी तरह खुला था। माँ की शिक्षा और भाई के हुक्म पर ही मैंने यह नौकरी स्वीकार की थी।
जुलाई में दाख़िल होने के बाद भाई ने मई में वापस लौटना था। नौ-दस महीने घर का सारा खर्च अब मेरे जिम्मे थे। माँ और भाभी के बिना भाई के चार बच्चे भी थे- ऊषा, सरोज, सुरेश और नरेश। बहन शीला का बड़ा बेटा विजय भी उन दिनों हमारे पास ही दसवीं में पढ़ रहा था। अब वाले ज़िला मोगा के गांव सल्हीणे में बहन शीला के परिवार की रिहाइश थी। वहाँ सिर्फ़ चौथी तक स्कूल था। इसलिए बहन ने हम पर अपना ज़ोर समझ कर विजय को पाँचवी से ही हमारे पास छोड़ दिया था और तब से उसकी फीस और किताबों का सारा खर्च हमारे ऊपर ही था। इस प्रकार परिवार के कपड़े-लत्ते और राशन-पानी के अलावा इन पाँच बच्चों की पढ़ाई-लिखाई का सारा खर्च भी मेरे सिर पर आ पड़ा।
कोल्हू के बैल की भांति सुबह पाँच बजे से लेकर रात नौ बजे तक मैं पढ़ाने में जुटा रहता। सवेरे छह बजे से आठ बजे तक का एक ग्रुप पढ़ाता। आठ बजे से स्कूल के बाकायदा लगने तक स्कूल में ज़ीरो पीरियड पड़ता और फिर स्कूल के आठ पीरियड भी। छठी और दसवीं तक की पंजाबी के अलावा सातवीं कक्षा की अंग्रेजी और आठवीं कक्षा का मैथ भी पढ़ाता। स्कूल में सिर्फ़ एक पीरियड ही खाली मिलता, वह भी दफ्तर के किसी काम के लेखे लग जाता। तनख्वाह वही पहले वाली सिर्फ़ 60 रुपये, पर नौकरी का फायदा यह था कि जो ट्यूशन मेरे भाई के पास आती थीं, अब वे सारी मेरे पास आने लग पड़ी थीं। अधिक ट्यूशन मिलने का एक कारण और भी था। वह यह कि अंग्रेजी पढ़ाने वाला सतपाल गुप्ता और साइंस पढ़ानेवाला हरचरन दास कपला स्वयं ट्यूशन नहीं कर सकते थे। नौवीं और दसवीं को मैथ हैड मास्टर स्वयं पढ़ाता था। गुप्ता और कपला बच्चों को ट्यूशन के लिए मेरे नाम की सिफारिश करते ही थे, हैड मास्टर भी छोटे-बड़े अनेक विरोधों के बावजूद ट्यूशन के लिए मेरे पास जाने की ही प्रेरणा देता।
चार बजे के बाद एक घंटे के लिए डा. आनंद कुमार के बच्चों को उसके घर पढ़ाने जाना पड़ता। हमारे घर से डॉक्टर साहिब का घर दो किलोमीटर से भी अधिक दूरी पर होगा। पर इस ट्यूशन के पढ़ाने का वायदा मेरे भाई ने ही आनंद कुमार से किया था, इसलिए मैं उसको जवाब नहीं दे सकता था। इसका एक कारण यह भी था कि बी.एड के दाख़िले के समय कुछ पैसे भाई ने डॉक्टर आनंद कुमार से बिना ब्याज पर पकड़े थे और लौटाने की भी कोई समय-सीमा नहीं थी। ट्यूशन के 20 रुपये महीना देने में डॉ. आनंद कुमार बहुत पक्का था। उसके घर जाने से पहले रास्ते में उसका क्लीनिक पड़ता था। पहली तारीख को फीस देने में वह इतना पक्का था कि मेरे घर लौटते समय वह दस-दस के दो नोट हाथ में लिए बाहर खड़ा होता और बड़े आदरसहित वह रकम मेरी जेब में डाल देता। लेकिन उनके घर में ट्यूशन पढ़ाने का यह काम बहुत कठिन था। आरंभ में उसने कहा तो था दो विद्यार्थियों को पढ़ाने के लिए, पर धीरे-धीरे यह गिनती दोनों लड़कियों -आठवीं वाली सीता और छठी वाली प्रकाश से बढ़ कर पाँच तक पहुँच गई थी। दसवीं वाला मनमोहन, तीसरी वाला पवन और पहली कक्षा वाला सुरेश भी पढ़ने बैठ जाते। मनमोहन जिसे सभी मोहणा कहते थे, को ऊँचा सुनाई देता था। वह हिसाब के कुछ सवाल समझने के लिए मेरे पास आता, खास कर एलज़बरे के। करते-कराते वह मेरा आधा घंटा खा जाता। उसे पढ़ाने के लिए ऊँची आवाज़ में बोलना पड़ता। तपते तंदूर पर रोटी उतारने की तरह दो-चार सवाल और पंजाबी का थोड़ा-बहुत पाठ पवन भी पढ़ जाता। पाँचेक मिनट सुरेश पर भी लगाने पड़ते। दोनों लड़कियों को अंग्रेजी और हिसाब पढ़ाना पड़ता। अगर घंटा नहीं तो पचासेक मिनट तो उन पर भी लग जाते। इस तरह एक घंटे के स्थान पर डेढ़ घंटे पढ़ाने के बावजूद पानी मांग कर पीना पड़ता। आठ महीनों में उन्होंने सिर्फ़ एक बार शिकंजी पिलाई थी और एक बार चाय। लेकिन भाई पर की गई डॉ. आनंद कुमार की कृपादृष्टि और समय से ट्यूशन की फीस देने के कारण ओखली में दिए सिर को अधिक महसूस न होता। कम महसूस होने का एक कारण और भी था। डॉ. आनंद कुमार दिमागी रोगों के भारत प्रसिद्ध वैद्य पंडित गोवर्द्धन प्रसाद का भतीजा था। पंडित जी का अपना अड्डा हवेली के बड़े गेट के साथ लगने वाले कमरे में था और उनके साथ ही डॉ. आनंद कुमार के पिता पंडित देवराज जी भी बैठते थे। इस दरवाजे में से गुजर कर ही मुझे इन बच्चों को पढ़ाने के लिए चौबारे पर जाना पड़ता था, क्योंकि इस हवेली में पंडित गोवर्द्धन दास जी और पंडित देव राज जी के परिवार रहा करते थे। जब मैं हवेली के दर पर पहुँचता तो अक्सर पंडित जी के दर्शन हो जाते। उन जैसा आकर्षक व्यक्तित्व मैंने आज तक दुनिया में नहीं देखा -सफ़ेद दूध जैसी पगड़ी और दूध जैसे सफ़ेद वस्त्र, साथ में सुर्ख दिपदिपाता चेहरा, चौड़ा माथा, नुकीली नाक और मोटी आँखें। उनके चेहरे से मानो कोई नूर बरस रहा हो। वह जब मुझे कविराज कह कर बुलाते तो मेरी सारी थकान मिट जाती। संभव है उनके दिल में प्यार की यह भावना पैदा करने में उनकी बेटी कमला का हाथ हो, क्योंकि वह उन दिनों में आर्य स्कूल में दसवीं कक्षा में पढ़ती थी और मैं उसे पंजाबी पढ़ाया करता था। डॉ. आनंद कुमार और उनके सारे परिवार का भी पंडित जी के दिल में मेरे प्रति आदर बढ़ाने में हाथ हो सकता है। एक कारण और भी था। पंडित जी स्वयं संस्कृत के कवि थे। मेरी कविताएं उन दिनों अखबारों में छपती रहती थीं। वे कविताएं उन्हें कोई न कोई अवश्य सुना दिया करता था। यही कारण है कि वह मेरे साथ जब भी बात करते, कविता की ही बात करते।
सितम्बर में एक डॉक्टर की बेटी भी मुझसे पढ़ने लगी थी। वह डॉक्टर हमारा फैमिली डॉक्टर था। दसवीं में पढ़ने वाली यह लड़की मुझसे एक महीना ही पढ़ सकी। मैं चाहता था कि किसी न किसी तरह उससे छुटकारा पाऊँ। वह लड़की ठीक नहीं थी। डॉक्टर साहब से मैंने समय की कमी का बहाना बना कर उससे पिंड छुड़ा लिया था और साथ ही लिहाज करने के उद्देश्य से कह दिया कि अगर इसे आप रात में दसवीं के ग्रुप में भेज सको तो अधिक अच्छा रहेगा। एक लड़की को पढ़ाने के लिए हैड मास्टर ने स्वयं कहा था। मैं उसे पढ़ाना नहीं चाहता था। उस लड़की का भाई भी दसवीं में पढ़ता था। 20 रुपये में दो किलोमीटर जा कर पढ़ाने का यह सौदा मुझे पुजता नहीं था। लेकिन मैं भाटिया साहब को जवाब भी नहीं दे सकता था। दो विद्यार्थियों को दसवीं की अंग्रेजी और हिसाब, और वह भी दो किलोमीटर जा कर पढ़ाना बस गले पड़ा ढोल बजाने वाली बात थी। अच्छा हुआ कि कानों का कच्चा लड़की का बाप लड़के द्वारा मेरे विरुद्ध शिकायत करने पर मुझसे बहस पड़ा और मेरे लिए ट्यूशन पढ़ाने का सिलसिला बन्द करना आसान हो गया। नवम्बर और फरवरी तक नौवीं और दसवीं के दो ग्रुप रात में भी लगाता था। सवेरे और रात के इन ग्रुपों में कम से कम एक तिहाई विद्यार्थी लिहाज वालों के थे। पर तपा मंडी जैसे छोटे से कस्बे में उन दिनों में आँख-लिहाज का भी बड़ा मूल्य था। इसलिए सेवाभाव वाला यह काम करना ज़रूरी था।
भाई की अनुपस्थिति में दसवीं तक अंग्रेजी और हिसाब की ट्यूशन करने वाला मैं तपा मंडी में इकलौता अध्यापक था। इलाके में मेरी इतनी पैंठ बन गई थी कि मैं अपने भाई से भी अधिक योग्य अध्यापक माना जाता। योग्य तो असल में मेरा भाई ही था, अन्तर सिर्फ़ यह था कि भाई के पढ़ाने की रफ्तार बहुत तेज थी। मैं बड़े धीरज के साथ पढ़ाता था। इसलिए मध्यम और कमजोर विद्यार्थियों को मेरे पढ़ाने का तरीका अधिक पसंद था। ट्यूशन रखने वाले थे भी बहुत मध्यम या कमजोर किस्म के विद्यार्थी। मेरे एक सफल और सर्वप्रिय अध्यापक होने की मुहर तो सबके दिलों पर लग गई थी, पर भाई के स्वभाव की तरह मेरे अन्दर मिठास और नम्रता का अभाव कइयों को चुभता था। स्कूल में भी और मंडी में भी मुझे अड़ियल और हठी समझा जाता था। कम्युनिस्ट पार्टी के कार्यक्रमों में चोरी छिपे हिस्सा लेने वाली बात भी पता नहीं लोगों और हैड मास्टर को कहाँ से पता चल जाती। इस कारण भी भाई के गऊ जैसे स्वभाव के मुकाबले मंडी के कई लिहाजी भी मुझे बिगड़ा हुआ बछड़ा समझते। कई तो मेरे मुँह पर भी यह बात कह देते।
भाई के बी.एड की परीक्षा देने के बाद लौट कर आने तक स्कूल में पूरा साल ही ठीक गुजर जाता अगर आर्य प्रतिनिधि सभा का एक पत्र आ कर रंग में भंग न डालता। पत्र में आदेश था कि अध्यापक सभी को 1961 में होने वाली मरदम शुमारी में अपनी मातृभाषा हिंदी लिखवाने के लिए प्रेरित करें। हैड मास्टर ने इस आदेश का ज्यों कि त्यों पालन करने के लिए पत्र को चपरासी के माध्यम से सभी अध्यापकों को दिखाने और नोट करने के लिए भेज दिया। जब पत्र मेरे पास पहुँचा तो पढ़ कर मुझे ताव-सा आ गया। मैंने पत्र पर ही पंजाबी में लिख दिया- ''हमारी मातृभाषा पंजाबी है'' और दस्तख़त कर दिए। भाटिया साहब को पंजाबी नहीं आती थी। जब पत्र वापस हैड मास्टर के पास पहुँचा तो पता नहीं उसने किससे पंजाबी में लिखा मेरा वाक्य पढ़वाया और तुरन्त मुझे क्लास में से बुलवा लिया। मुझे पता था कि मेरे इस वाक्य से हैड मास्टर ज़रूर गुस्से में होगा। जब मैं दफ्तर में पहुँचा तो वह जैसे आग बबूला हो उठा। वह मेरे साथ किसी रचनात्मक बहस की जगह डिक्टेटर शाही ढंग से पेश आ रहा था। आखिर मुझे कहना ही पड़ा -
''मैंने सच लिखा है और मैं अपने हाथ से सच का क़त्ल नहीं करूँगा।'' यह कह कर मैं अपनी क्लास में चला गया। कुछ मिनट बाद ही मेरे पास अंग्रेजी में लिखा हुआ आर्डर भेजा गया, जिसमें आज्ञा पालन न करने के कारण स्कूल से मेरी बरखास्तगी के आर्डर थे। मैंने आर्डर बुक पर हस्ताक्षर करने से इन्कार कर दिया। सतपाल गुप्ता और हरचरन दास कपला ने मुझे समझाने की कोशिश की, पर मैंने जो कुछ किया था, सोच-समझ कर ही किया था। मैंने उनका माफी मांगने का सुझाव रद्द कर दिया। विद्यार्थियों को पता नहीं यह बात कैसे पता चल गई थी। सभी छात्र कक्षाएं छोड़ कर बाहर आ गए थे। सिर्फ़ नौवीं-दसवीं की लड़कियाँ ही क्लास में रह गई थीं। बात स्कूल बन्द होने से पहले ही पूरी मंडी में फैल गई थी। पंडित गोवर्द्धन दास जी को जब यह बात पता चली तो उन्होंने हैड मास्टर को यह फैसला वापस लेने के लिए कहा। प्रबंधक कमेटी के अन्य सदस्यों ने भी हैड मास्टर के इस एक्शन को जल्दी में उठाया गया कदम कहा। पत्र पर लिखे गए मेरे वाक्य की भी छानबीन हुई। पता नहीं रातों रात क्या हुआ, हैड मास्टर खुद मेरे घर आया और उसने पहले की तरह मुझे स्कूल आने के लिए कहा। और भी बहुत सा उपदेश झाड़ा। शहर के कुछ प्रतिष्ठित लोगों की यह बात हैड मास्टर को जच गई थी -
''गोयल साहब हमें क्या कहेंगे। तरसेम ने तो बच्चों जैसी कर दी, पर आप तो सयाने हो। जब तक गोयल साहब नहीं आते, कोई ऐसी वैसी बात नहीं होनी चाहिए। लड़का पढ़ाने में एक नंबर है, स्वभाव का भी तेज है।'' मुझे बाद में पता चला कि असल में यह बात साधू राम ने कही थी जिसका आर्य स्कूल की इमारत बनाने के लिए सारी ज़मीन दान देने के कारण न केवल हैड मास्टर पर बल्कि शहर पर भी काफी प्रभाव था। लाला साधू राम हालांकि हमारे खानदान में से नहीं था, पर हमारे पुश्तैनी गाँव शहिणे का होने के कारण हमारा पक्ष भी खूब लेता था। पंडित श्री राम और उनके पढ़े लिखे पुत्र ब्रज मोहन शर्मा ने भी हैड मास्टर के इस एक्शन पर उसे काफी झाड़ा-फटकारा था। ब्रज मोहन शायद उन दिनों में स्कूल का मैनेजर था। वह मुझसे आठ साल बड़ा था और मेरे भाई से दस साल छोटा था। इसलिए वह मेरे साथ भी और मेरे भाई के साथ भी दोस्तों जैसी बातें कर लेता। सिगरेट का कश लेते हुए अगले दिन ब्रज मोहन कह रहा था-
''परवाह न करना। सारी मंडी तेरे साथ है। सब लड़के तेरे साथ हैं। पढ़ाने में कोई फर्क न करना।'' उसके बाद उसने हैड मास्टर को भी लगे हाथ दो तीन गालियाँ निकाल दी थीं।
जनवरी और फरवरी के दो महीने मेरा शिकंजा पूरी तरह कसा गया। मेरी बहन तारा ने प्रभाकर करने के बाद मैट्रिक और एफ.ए. की अंग्रेजी तो कर ली थी, पर पूरी मैट्रिक करने के लिए गणित-हाऊस होल्ड, इतिहास-भूगोल, पंजाबी और एक अन्य चुनिंदा विषय करने की आवश्यकता थी। तभी वह एस.डी. कन्या पाठशाला में अध्यापिका लग सकती थी। इसलिए रात में ट्यूशनें पढ़ाने के बाद आधा-पौंना घंटा बहन की सेवा में भी लगाना पड़ता। इससे भी एक और बड़ी सेवा इन्हीं दिनों मेरे हिस्से में आई। भाई साहब की छोटी साली। जिसने प्रभाकर करने के पश्चात् एफ.ए. अंग्रेजी की परीक्षा देनी थी। उस पर एक घंटा लगाने की जिम्मेदारी मेरे पर आ पड़ी थी। अप्रैल 1961 के पहले सप्ताह तक रात में एक घंटे के अलावा छुट्टी वाले दिन करीब दो घंटे उसको अर्पित करने पड़ते थे।
बी.ए. अंग्रेजी जिसमें मैं अप्रैल में फेल हो गया था, सितम्बर में लाख मुश्किलों के बावजूद मैंने पास कर ली थी। इसलिए मैं चाहता था कि अप्रैल 1961 में एक चुनिंदा और एक वैकल्पिक विषय लेकर बी.ए. भी पूरी कर लूँ। पर न तो पढ़ने का समय था, न ही पैसों का पूरा बंदोबस्त। जिन दिनों में दाख़िले होने थे, उन दिनों में 60रुपये दाख़िला भेजने लायक भी पैसे जेब में नहीं थे। अगर मैं अपने मित्र जगदीश से बात न करता और उससे एक बार कहने पर ही यह रकम मुझे न मिलती तो शायद अप्रैल 1961 में बी.ए. पास कर ही नही सकता था। चुनिंदा विषय के रूप में इतिहास और वैकल्पिक विषय के रूप में हिंदी भर कर फॉर्म भेज दिया। इतिहास की किताबें फरवरी के मध्य में खरीदीं, पर पढ़ने का समय रात में दस बजे के बाद ही मिलता। मार्च में ट्यूशनों का जोर कम हो गया। बहन तारा भी मार्च के मध्य के बाद अपने ससुराल चली गई। अब पढ़ाने के लिए सिर्फ़ भाई की साली ही रह गई थी। उसे पढ़ाना अब मुझे अधिक कठिन नहीं लग रहा था। मार्च में स्कूलों की परीक्षाएं शुरू हो जाने और अप्रैल के पहले सप्ताह में ट्यूशनों से मुक्त हो जाने के कारण मैं अपना अधिकांश समय अपनी बी.ए. के चुनिंदा विषय की तैयारी में लगाने लग पड़ा। हिंदी वैकल्पिक विषय की न कोई किताब खरीदी और न ही गाईड। इसके बावजूद मैंने ना सिर्फ़ सेकेंड डिवीज़न लेकर चुनिंदा विषय पास किया, बल्कि हिंदी के वैकल्पिक पेपर में भी सेकेंड डिवीज़न आ गई। भाई के बी.एड करने तक तनख्वाह और ट्यूशनों के सहारे घर का सारा खर्च भी निकाला। भाई को भी साढ़े तीन सौ रुपये मोगे भेजे। उसका कद ऊँचा करने के लिए कुछ साहित्यिक सामग्री भी भेजी जिसका जिक्र फिर कभी करना ही उपयुक्त रहेगा। भाई के सिर पर कोई कर्ज़ भी नहीं चढ़ने दिया था। लेकिन ज़िन्दगी में इतना काम न मैंने पहले कभी किया था और न कभी बाद में।
रविवार को होने वाली आर्य समाजी हवन से लेकर भाटिया साहब की तानाशाही तक, सब इसलिए बर्दाश्त की क्योंक यह मेरे परिवार की ज़रूरत थी। भाई का आदेश था। माँ की अन्दर घुस कर दी गई नसीहत थी।
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धृतराष्ट्र
डॉ. एस. तरसेम
हिन्दी अनुवाद : सुभाष नीरव
चैप्टर-5
पुन: तपा के आर्य स्कूल में
लौट के बुद्धू घर को आए।
सुखानंद आर्य हाई स्कूल, तपा में जुलाई या अगस्त 1960 को मेरे हाज़िर होने पर उक्त कहावत तो लागू नहीं होती क्योंकि मैं स्वयं स्कूल छोड़ कर नहीं गया था, स्कूल छुड़वाया गया था। यह समझो, खूबसूरत योजना के तहत स्कूल से निकाला गया था। हाँ, 'मुड़ घुड़ खोती बोहड़ थल्ले' वाली कहावत मेरे स्कूल में पुन: नौकरी करने पर अगर कोई लागू करता है, तो उस पर मेरा कोई उज्र नही। लेकिन मेरे लिए इस बोहड(वट वृक्ष) के सब पत्ते झड़े हुए हैं। इस वट वृक्ष के नीचे आकर झुलसा देने वाले सेक का मुझे ज्ञान था। मेरी तुलना खोती यानी गधी के साथ भी नहीं हो सकती थी। हालांकि मेरे पास कोई धन-दौलत नहीं थी, पर अक्ल का खाना मेरा पूरी तरह खुला था। माँ की शिक्षा और भाई के हुक्म पर ही मैंने यह नौकरी स्वीकार की थी।
जुलाई में दाख़िल होने के बाद भाई ने मई में वापस लौटना था। नौ-दस महीने घर का सारा खर्च अब मेरे जिम्मे थे। माँ और भाभी के बिना भाई के चार बच्चे भी थे- ऊषा, सरोज, सुरेश और नरेश। बहन शीला का बड़ा बेटा विजय भी उन दिनों हमारे पास ही दसवीं में पढ़ रहा था। अब वाले ज़िला मोगा के गांव सल्हीणे में बहन शीला के परिवार की रिहाइश थी। वहाँ सिर्फ़ चौथी तक स्कूल था। इसलिए बहन ने हम पर अपना ज़ोर समझ कर विजय को पाँचवी से ही हमारे पास छोड़ दिया था और तब से उसकी फीस और किताबों का सारा खर्च हमारे ऊपर ही था। इस प्रकार परिवार के कपड़े-लत्ते और राशन-पानी के अलावा इन पाँच बच्चों की पढ़ाई-लिखाई का सारा खर्च भी मेरे सिर पर आ पड़ा।
कोल्हू के बैल की भांति सुबह पाँच बजे से लेकर रात नौ बजे तक मैं पढ़ाने में जुटा रहता। सवेरे छह बजे से आठ बजे तक का एक ग्रुप पढ़ाता। आठ बजे से स्कूल के बाकायदा लगने तक स्कूल में ज़ीरो पीरियड पड़ता और फिर स्कूल के आठ पीरियड भी। छठी और दसवीं तक की पंजाबी के अलावा सातवीं कक्षा की अंग्रेजी और आठवीं कक्षा का मैथ भी पढ़ाता। स्कूल में सिर्फ़ एक पीरियड ही खाली मिलता, वह भी दफ्तर के किसी काम के लेखे लग जाता। तनख्वाह वही पहले वाली सिर्फ़ 60 रुपये, पर नौकरी का फायदा यह था कि जो ट्यूशन मेरे भाई के पास आती थीं, अब वे सारी मेरे पास आने लग पड़ी थीं। अधिक ट्यूशन मिलने का एक कारण और भी था। वह यह कि अंग्रेजी पढ़ाने वाला सतपाल गुप्ता और साइंस पढ़ानेवाला हरचरन दास कपला स्वयं ट्यूशन नहीं कर सकते थे। नौवीं और दसवीं को मैथ हैड मास्टर स्वयं पढ़ाता था। गुप्ता और कपला बच्चों को ट्यूशन के लिए मेरे नाम की सिफारिश करते ही थे, हैड मास्टर भी छोटे-बड़े अनेक विरोधों के बावजूद ट्यूशन के लिए मेरे पास जाने की ही प्रेरणा देता।
चार बजे के बाद एक घंटे के लिए डा. आनंद कुमार के बच्चों को उसके घर पढ़ाने जाना पड़ता। हमारे घर से डॉक्टर साहिब का घर दो किलोमीटर से भी अधिक दूरी पर होगा। पर इस ट्यूशन के पढ़ाने का वायदा मेरे भाई ने ही आनंद कुमार से किया था, इसलिए मैं उसको जवाब नहीं दे सकता था। इसका एक कारण यह भी था कि बी.एड के दाख़िले के समय कुछ पैसे भाई ने डॉक्टर आनंद कुमार से बिना ब्याज पर पकड़े थे और लौटाने की भी कोई समय-सीमा नहीं थी। ट्यूशन के 20 रुपये महीना देने में डॉ. आनंद कुमार बहुत पक्का था। उसके घर जाने से पहले रास्ते में उसका क्लीनिक पड़ता था। पहली तारीख को फीस देने में वह इतना पक्का था कि मेरे घर लौटते समय वह दस-दस के दो नोट हाथ में लिए बाहर खड़ा होता और बड़े आदरसहित वह रकम मेरी जेब में डाल देता। लेकिन उनके घर में ट्यूशन पढ़ाने का यह काम बहुत कठिन था। आरंभ में उसने कहा तो था दो विद्यार्थियों को पढ़ाने के लिए, पर धीरे-धीरे यह गिनती दोनों लड़कियों -आठवीं वाली सीता और छठी वाली प्रकाश से बढ़ कर पाँच तक पहुँच गई थी। दसवीं वाला मनमोहन, तीसरी वाला पवन और पहली कक्षा वाला सुरेश भी पढ़ने बैठ जाते। मनमोहन जिसे सभी मोहणा कहते थे, को ऊँचा सुनाई देता था। वह हिसाब के कुछ सवाल समझने के लिए मेरे पास आता, खास कर एलज़बरे के। करते-कराते वह मेरा आधा घंटा खा जाता। उसे पढ़ाने के लिए ऊँची आवाज़ में बोलना पड़ता। तपते तंदूर पर रोटी उतारने की तरह दो-चार सवाल और पंजाबी का थोड़ा-बहुत पाठ पवन भी पढ़ जाता। पाँचेक मिनट सुरेश पर भी लगाने पड़ते। दोनों लड़कियों को अंग्रेजी और हिसाब पढ़ाना पड़ता। अगर घंटा नहीं तो पचासेक मिनट तो उन पर भी लग जाते। इस तरह एक घंटे के स्थान पर डेढ़ घंटे पढ़ाने के बावजूद पानी मांग कर पीना पड़ता। आठ महीनों में उन्होंने सिर्फ़ एक बार शिकंजी पिलाई थी और एक बार चाय। लेकिन भाई पर की गई डॉ. आनंद कुमार की कृपादृष्टि और समय से ट्यूशन की फीस देने के कारण ओखली में दिए सिर को अधिक महसूस न होता। कम महसूस होने का एक कारण और भी था। डॉ. आनंद कुमार दिमागी रोगों के भारत प्रसिद्ध वैद्य पंडित गोवर्द्धन प्रसाद का भतीजा था। पंडित जी का अपना अड्डा हवेली के बड़े गेट के साथ लगने वाले कमरे में था और उनके साथ ही डॉ. आनंद कुमार के पिता पंडित देवराज जी भी बैठते थे। इस दरवाजे में से गुजर कर ही मुझे इन बच्चों को पढ़ाने के लिए चौबारे पर जाना पड़ता था, क्योंकि इस हवेली में पंडित गोवर्द्धन दास जी और पंडित देव राज जी के परिवार रहा करते थे। जब मैं हवेली के दर पर पहुँचता तो अक्सर पंडित जी के दर्शन हो जाते। उन जैसा आकर्षक व्यक्तित्व मैंने आज तक दुनिया में नहीं देखा -सफ़ेद दूध जैसी पगड़ी और दूध जैसे सफ़ेद वस्त्र, साथ में सुर्ख दिपदिपाता चेहरा, चौड़ा माथा, नुकीली नाक और मोटी आँखें। उनके चेहरे से मानो कोई नूर बरस रहा हो। वह जब मुझे कविराज कह कर बुलाते तो मेरी सारी थकान मिट जाती। संभव है उनके दिल में प्यार की यह भावना पैदा करने में उनकी बेटी कमला का हाथ हो, क्योंकि वह उन दिनों में आर्य स्कूल में दसवीं कक्षा में पढ़ती थी और मैं उसे पंजाबी पढ़ाया करता था। डॉ. आनंद कुमार और उनके सारे परिवार का भी पंडित जी के दिल में मेरे प्रति आदर बढ़ाने में हाथ हो सकता है। एक कारण और भी था। पंडित जी स्वयं संस्कृत के कवि थे। मेरी कविताएं उन दिनों अखबारों में छपती रहती थीं। वे कविताएं उन्हें कोई न कोई अवश्य सुना दिया करता था। यही कारण है कि वह मेरे साथ जब भी बात करते, कविता की ही बात करते।
सितम्बर में एक डॉक्टर की बेटी भी मुझसे पढ़ने लगी थी। वह डॉक्टर हमारा फैमिली डॉक्टर था। दसवीं में पढ़ने वाली यह लड़की मुझसे एक महीना ही पढ़ सकी। मैं चाहता था कि किसी न किसी तरह उससे छुटकारा पाऊँ। वह लड़की ठीक नहीं थी। डॉक्टर साहब से मैंने समय की कमी का बहाना बना कर उससे पिंड छुड़ा लिया था और साथ ही लिहाज करने के उद्देश्य से कह दिया कि अगर इसे आप रात में दसवीं के ग्रुप में भेज सको तो अधिक अच्छा रहेगा। एक लड़की को पढ़ाने के लिए हैड मास्टर ने स्वयं कहा था। मैं उसे पढ़ाना नहीं चाहता था। उस लड़की का भाई भी दसवीं में पढ़ता था। 20 रुपये में दो किलोमीटर जा कर पढ़ाने का यह सौदा मुझे पुजता नहीं था। लेकिन मैं भाटिया साहब को जवाब भी नहीं दे सकता था। दो विद्यार्थियों को दसवीं की अंग्रेजी और हिसाब, और वह भी दो किलोमीटर जा कर पढ़ाना बस गले पड़ा ढोल बजाने वाली बात थी। अच्छा हुआ कि कानों का कच्चा लड़की का बाप लड़के द्वारा मेरे विरुद्ध शिकायत करने पर मुझसे बहस पड़ा और मेरे लिए ट्यूशन पढ़ाने का सिलसिला बन्द करना आसान हो गया। नवम्बर और फरवरी तक नौवीं और दसवीं के दो ग्रुप रात में भी लगाता था। सवेरे और रात के इन ग्रुपों में कम से कम एक तिहाई विद्यार्थी लिहाज वालों के थे। पर तपा मंडी जैसे छोटे से कस्बे में उन दिनों में आँख-लिहाज का भी बड़ा मूल्य था। इसलिए सेवाभाव वाला यह काम करना ज़रूरी था।
भाई की अनुपस्थिति में दसवीं तक अंग्रेजी और हिसाब की ट्यूशन करने वाला मैं तपा मंडी में इकलौता अध्यापक था। इलाके में मेरी इतनी पैंठ बन गई थी कि मैं अपने भाई से भी अधिक योग्य अध्यापक माना जाता। योग्य तो असल में मेरा भाई ही था, अन्तर सिर्फ़ यह था कि भाई के पढ़ाने की रफ्तार बहुत तेज थी। मैं बड़े धीरज के साथ पढ़ाता था। इसलिए मध्यम और कमजोर विद्यार्थियों को मेरे पढ़ाने का तरीका अधिक पसंद था। ट्यूशन रखने वाले थे भी बहुत मध्यम या कमजोर किस्म के विद्यार्थी। मेरे एक सफल और सर्वप्रिय अध्यापक होने की मुहर तो सबके दिलों पर लग गई थी, पर भाई के स्वभाव की तरह मेरे अन्दर मिठास और नम्रता का अभाव कइयों को चुभता था। स्कूल में भी और मंडी में भी मुझे अड़ियल और हठी समझा जाता था। कम्युनिस्ट पार्टी के कार्यक्रमों में चोरी छिपे हिस्सा लेने वाली बात भी पता नहीं लोगों और हैड मास्टर को कहाँ से पता चल जाती। इस कारण भी भाई के गऊ जैसे स्वभाव के मुकाबले मंडी के कई लिहाजी भी मुझे बिगड़ा हुआ बछड़ा समझते। कई तो मेरे मुँह पर भी यह बात कह देते।
भाई के बी.एड की परीक्षा देने के बाद लौट कर आने तक स्कूल में पूरा साल ही ठीक गुजर जाता अगर आर्य प्रतिनिधि सभा का एक पत्र आ कर रंग में भंग न डालता। पत्र में आदेश था कि अध्यापक सभी को 1961 में होने वाली मरदम शुमारी में अपनी मातृभाषा हिंदी लिखवाने के लिए प्रेरित करें। हैड मास्टर ने इस आदेश का ज्यों कि त्यों पालन करने के लिए पत्र को चपरासी के माध्यम से सभी अध्यापकों को दिखाने और नोट करने के लिए भेज दिया। जब पत्र मेरे पास पहुँचा तो पढ़ कर मुझे ताव-सा आ गया। मैंने पत्र पर ही पंजाबी में लिख दिया- ''हमारी मातृभाषा पंजाबी है'' और दस्तख़त कर दिए। भाटिया साहब को पंजाबी नहीं आती थी। जब पत्र वापस हैड मास्टर के पास पहुँचा तो पता नहीं उसने किससे पंजाबी में लिखा मेरा वाक्य पढ़वाया और तुरन्त मुझे क्लास में से बुलवा लिया। मुझे पता था कि मेरे इस वाक्य से हैड मास्टर ज़रूर गुस्से में होगा। जब मैं दफ्तर में पहुँचा तो वह जैसे आग बबूला हो उठा। वह मेरे साथ किसी रचनात्मक बहस की जगह डिक्टेटर शाही ढंग से पेश आ रहा था। आखिर मुझे कहना ही पड़ा -
''मैंने सच लिखा है और मैं अपने हाथ से सच का क़त्ल नहीं करूँगा।'' यह कह कर मैं अपनी क्लास में चला गया। कुछ मिनट बाद ही मेरे पास अंग्रेजी में लिखा हुआ आर्डर भेजा गया, जिसमें आज्ञा पालन न करने के कारण स्कूल से मेरी बरखास्तगी के आर्डर थे। मैंने आर्डर बुक पर हस्ताक्षर करने से इन्कार कर दिया। सतपाल गुप्ता और हरचरन दास कपला ने मुझे समझाने की कोशिश की, पर मैंने जो कुछ किया था, सोच-समझ कर ही किया था। मैंने उनका माफी मांगने का सुझाव रद्द कर दिया। विद्यार्थियों को पता नहीं यह बात कैसे पता चल गई थी। सभी छात्र कक्षाएं छोड़ कर बाहर आ गए थे। सिर्फ़ नौवीं-दसवीं की लड़कियाँ ही क्लास में रह गई थीं। बात स्कूल बन्द होने से पहले ही पूरी मंडी में फैल गई थी। पंडित गोवर्द्धन दास जी को जब यह बात पता चली तो उन्होंने हैड मास्टर को यह फैसला वापस लेने के लिए कहा। प्रबंधक कमेटी के अन्य सदस्यों ने भी हैड मास्टर के इस एक्शन को जल्दी में उठाया गया कदम कहा। पत्र पर लिखे गए मेरे वाक्य की भी छानबीन हुई। पता नहीं रातों रात क्या हुआ, हैड मास्टर खुद मेरे घर आया और उसने पहले की तरह मुझे स्कूल आने के लिए कहा। और भी बहुत सा उपदेश झाड़ा। शहर के कुछ प्रतिष्ठित लोगों की यह बात हैड मास्टर को जच गई थी -
''गोयल साहब हमें क्या कहेंगे। तरसेम ने तो बच्चों जैसी कर दी, पर आप तो सयाने हो। जब तक गोयल साहब नहीं आते, कोई ऐसी वैसी बात नहीं होनी चाहिए। लड़का पढ़ाने में एक नंबर है, स्वभाव का भी तेज है।'' मुझे बाद में पता चला कि असल में यह बात साधू राम ने कही थी जिसका आर्य स्कूल की इमारत बनाने के लिए सारी ज़मीन दान देने के कारण न केवल हैड मास्टर पर बल्कि शहर पर भी काफी प्रभाव था। लाला साधू राम हालांकि हमारे खानदान में से नहीं था, पर हमारे पुश्तैनी गाँव शहिणे का होने के कारण हमारा पक्ष भी खूब लेता था। पंडित श्री राम और उनके पढ़े लिखे पुत्र ब्रज मोहन शर्मा ने भी हैड मास्टर के इस एक्शन पर उसे काफी झाड़ा-फटकारा था। ब्रज मोहन शायद उन दिनों में स्कूल का मैनेजर था। वह मुझसे आठ साल बड़ा था और मेरे भाई से दस साल छोटा था। इसलिए वह मेरे साथ भी और मेरे भाई के साथ भी दोस्तों जैसी बातें कर लेता। सिगरेट का कश लेते हुए अगले दिन ब्रज मोहन कह रहा था-
''परवाह न करना। सारी मंडी तेरे साथ है। सब लड़के तेरे साथ हैं। पढ़ाने में कोई फर्क न करना।'' उसके बाद उसने हैड मास्टर को भी लगे हाथ दो तीन गालियाँ निकाल दी थीं।
जनवरी और फरवरी के दो महीने मेरा शिकंजा पूरी तरह कसा गया। मेरी बहन तारा ने प्रभाकर करने के बाद मैट्रिक और एफ.ए. की अंग्रेजी तो कर ली थी, पर पूरी मैट्रिक करने के लिए गणित-हाऊस होल्ड, इतिहास-भूगोल, पंजाबी और एक अन्य चुनिंदा विषय करने की आवश्यकता थी। तभी वह एस.डी. कन्या पाठशाला में अध्यापिका लग सकती थी। इसलिए रात में ट्यूशनें पढ़ाने के बाद आधा-पौंना घंटा बहन की सेवा में भी लगाना पड़ता। इससे भी एक और बड़ी सेवा इन्हीं दिनों मेरे हिस्से में आई। भाई साहब की छोटी साली। जिसने प्रभाकर करने के पश्चात् एफ.ए. अंग्रेजी की परीक्षा देनी थी। उस पर एक घंटा लगाने की जिम्मेदारी मेरे पर आ पड़ी थी। अप्रैल 1961 के पहले सप्ताह तक रात में एक घंटे के अलावा छुट्टी वाले दिन करीब दो घंटे उसको अर्पित करने पड़ते थे।
बी.ए. अंग्रेजी जिसमें मैं अप्रैल में फेल हो गया था, सितम्बर में लाख मुश्किलों के बावजूद मैंने पास कर ली थी। इसलिए मैं चाहता था कि अप्रैल 1961 में एक चुनिंदा और एक वैकल्पिक विषय लेकर बी.ए. भी पूरी कर लूँ। पर न तो पढ़ने का समय था, न ही पैसों का पूरा बंदोबस्त। जिन दिनों में दाख़िले होने थे, उन दिनों में 60रुपये दाख़िला भेजने लायक भी पैसे जेब में नहीं थे। अगर मैं अपने मित्र जगदीश से बात न करता और उससे एक बार कहने पर ही यह रकम मुझे न मिलती तो शायद अप्रैल 1961 में बी.ए. पास कर ही नही सकता था। चुनिंदा विषय के रूप में इतिहास और वैकल्पिक विषय के रूप में हिंदी भर कर फॉर्म भेज दिया। इतिहास की किताबें फरवरी के मध्य में खरीदीं, पर पढ़ने का समय रात में दस बजे के बाद ही मिलता। मार्च में ट्यूशनों का जोर कम हो गया। बहन तारा भी मार्च के मध्य के बाद अपने ससुराल चली गई। अब पढ़ाने के लिए सिर्फ़ भाई की साली ही रह गई थी। उसे पढ़ाना अब मुझे अधिक कठिन नहीं लग रहा था। मार्च में स्कूलों की परीक्षाएं शुरू हो जाने और अप्रैल के पहले सप्ताह में ट्यूशनों से मुक्त हो जाने के कारण मैं अपना अधिकांश समय अपनी बी.ए. के चुनिंदा विषय की तैयारी में लगाने लग पड़ा। हिंदी वैकल्पिक विषय की न कोई किताब खरीदी और न ही गाईड। इसके बावजूद मैंने ना सिर्फ़ सेकेंड डिवीज़न लेकर चुनिंदा विषय पास किया, बल्कि हिंदी के वैकल्पिक पेपर में भी सेकेंड डिवीज़न आ गई। भाई के बी.एड करने तक तनख्वाह और ट्यूशनों के सहारे घर का सारा खर्च भी निकाला। भाई को भी साढ़े तीन सौ रुपये मोगे भेजे। उसका कद ऊँचा करने के लिए कुछ साहित्यिक सामग्री भी भेजी जिसका जिक्र फिर कभी करना ही उपयुक्त रहेगा। भाई के सिर पर कोई कर्ज़ भी नहीं चढ़ने दिया था। लेकिन ज़िन्दगी में इतना काम न मैंने पहले कभी किया था और न कभी बाद में।
रविवार को होने वाली आर्य समाजी हवन से लेकर भाटिया साहब की तानाशाही तक, सब इसलिए बर्दाश्त की क्योंक यह मेरे परिवार की ज़रूरत थी। भाई का आदेश था। माँ की अन्दर घुस कर दी गई नसीहत थी।
(जारी…)
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2 comments:
Bahut rochak lag rahi hai yeh aatamkatha. Kya yeh pustak rup mein uplabadh hai?
Ajay
Delhi
उम्दा प्रयास है. जारी रखें.
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