एक नेत्रहीन लेखक की आत्मकथा
धृतराष्ट्र
डॉ. एस. तरसेम
हिन्दी अनुवाद : सुभाष नीरव
चैप्टर-6(अन्तिम भाग)
जोवड़ कि जुआर
पहाड़ों के ऊँचे-नीचे, टेढ़े-मेढ़े रास्तों पर चलने का यह मेरा पहला अवसर था। दिन चढ़ने के कारण मुझे चलने में कोई परेशानी नहीं हो रही थी, परन्तु ढलान के कारण डर लगता था कि कहीं पैर फिसल न जाए। मैं बस इतनी ही दूर गया कि वापस लौटते समय मुझे किसी से रास्ता पूछने की आवश्यकता न पड़े। लोग आ-जा रहे थे। बड़ी उम्र के कई लोगों के सिर पर सफेद टोपी थी। लौटते समय एक औरत भी मिली, उसने सिर पर पानी की एक गागर उठा रखी थी। उतरते समय मैं बड़े ध्यान से पैर जमा जमा कर रख रहा था, पर यहाँ के लोग इस तरह चल रहे थे मानो दौड़े जा रहे हों। रात वाला भय जैसे खत्म हो गया हो। दातुन-कुल्ला मैं वहीं कर आया था। मुँह-हाथ भी धो आया था। पानी बहुत ठंडा था, इसलिए नहाने को जी नहीं किया था। कच्छा-बनियान उसी तरह वापस ले आया था। बस, सिर्फ़ तौलिया और साबुन ही इस्तेमाल किया था। जब मैं दुकान पर पहुँचा तो स्कूल देखने को मेरा मन पूरी तरह तैयार था। तैयार होने से पहले दुकानदार ने मुझे चाय बना कर दे दी थी। साथ में कुछ खाने को भी। जब दुकानदार से सुबह की चाय तक के मैंने पैसे पूछे तो मैं हैरान रह गया। उसने सिर्फ़ चार रुपये ही लिए और साथ में यह भी कहा कि मैं तो उनके बच्चों का उस्ताद हूँ। कमाई के लिए और बहुत से मुसाफ़िर आते-जाते रहते हैं। गुनगुनी धूप ने हल्की-हल्की गरमाहट देनी आरंभ कर दी थी। स्कूल जाने वाले बच्चे आने शुरू हो गए थे। दुकानदार ने एक लड़के को हांक लगाई और मुझे साथ ले जाने के लिए कहा। उसने यह भी बता दिया कि मैं उनका मास्टर हूँ। एक गोल से मुँह वाले पक्के रंग के लड़के ने मेरा अटैची और दूसरे छोटे-से कद वाले लड़के ने मेरा कम्बल पकड़ लिया। राह में और लड़के भी मिलते गए। काले रंग वाला लड़का सबको बड़े चाव से मेरे बारे में बताता। लड़के बड़े अदब से नमस्ते करते। कुछ लड़कों ने तो मेरे पैर भी छुए। लड़कों के सत्कार ने मुझे मोह लिया था। पर फिर भी मन उस स्कूल में नौकरी करने के लिए नहीं मान रहा था। कल दोपहर के बाद की सारी मुश्किलें मुझे पीछे लौट जाने के लिए ही कहतीं। करीब पौने घंटे में हम स्कूल के सामने पहुँच गए। स्कूल ऐन सड़क पर था। पी.टी.आई. मास्टर प्रार्थना करवा रहा था। राष्ट्रीय गीत के लिए विद्यार्थियों को सावधान कर रहा था। यह बुजुर्ग पी.टी.आई. मुझे बड़ा सीधा-साधा प्रतीत हुआ। दो सरदार अध्यापक मुझे देख कर सड़क की तरफ आ रहे थे।
''आप गोयल साहब ही हो न ?''
''आओ जी ज्ञानी जी, मोस्ट वैलकम।''
बाद में बातचीत में पता चला कि पहला बारीक-सी मूंछों वाला साइंस मास्टर बाजवा है और सिर्फ़ एफ.एस.सी. पास है। दूसरा सुरिंदरपाल सिंह मैथ मास्टर था। उसने बी.ए., मैथ ए. बी. कोर्स और बी.एड. कर रखी थी। सवेर की सभा का सिलसिला चलता रहा। साइंस मास्टर और सुरिंदरपाल मुझे मुख्य अध्यापक के दफ्तर में ले गए। मुख्य अध्यापक हेम राज शर्मा अपनी कुर्सी से उठ कर मुझे इस तरह मिला मानो किसी अफसर के स्वागत के लिए खड़ा हुआ हो। कुशल-क्षेम पूछने पर मैंने उस स्कूल में नौकरी न करने का अपना फैसला सुना दिया। मुख्य अध्यापक जैसे बहुत उदास हो गया हो। मुझे अपनी आँखों की तो क्या बात करनी थी, यह करनी भी नहीं चाहिए थी। यहाँ आने-जाने में आने वाली मुश्किल बता कर मैंने यहाँ रहने में अपनी असमर्थता प्रकट की।
पी.टी.आई. की सुबह की सभा वाली कार्रवाई अभी चल रही थी। मेरी अच्छे मेहमान वाली खातिर-सेवा का सिलसिला शुरू हो चुका था। सामने हलवाई की दुकान से बर्फी, पेड़े और नमकीन, चाय के साथ मंगवाया गया। मुख्य अध्यापक ने बड़ी आजिज़ी के साथ कहा-
''तुम नौकरी नहीं करना चाहते तो मत करना, मेरी इतनी अर्ज़ तो मान लो कि हमारे बच्चों को एक लेक्चर दे जाओ। तुमने अपनी अर्जी में एक अच्छे वक्ता होने की बात लिखी थी। हम तुम्हारा भाषण सुनना चाहते हैं।''
मुख्य अध्यापक साहब, सरदार सुरिंदरपाल और साइंस मास्टर मुझे ग्राउण्ड में ले गए। पी.टी.आई. ने हमारे पहुँचने पर एक लम्बी सीटी बजाई और फिर विद्यार्थियों को बैठने का कॉशन दे दिया। मुख्य अध्यापक ने विद्यार्थियों को सम्बोधित होते हुए मेरे बारे में कुछ बताया। कुछ बढ़ा-चढ़ा कर भी बताया, जिस विषय पर बोलना था, वह पहले ही दफ्तर में तय कर लिया गया था। वैसे भी मुझे किसी विषय पर बोलने में कोई झिझक नहीं थी।
जब मैंने बोलना आरंभ किया, विद्यार्थियों ने ज़ोर से ताली बजाई। मुख्य अध्यापक के बोलने के बाद भी विद्यार्थियों ने ताली बजाई थी, पर मेरे बोलने से पहले इन ज़ोरदार तालियों का अर्थ मैंने यही लगाया कि मुख्य अध्यापक ने मेरी तारीफ़ में जो पुल बांधे थे, यह उस तारीफ़ की करामात है। कुल दसेक लड़कियाँ थीं, बाकी ढाई सौ से भी अधिक लड़के। एक लड़की ने चप्पलें पहन रखी थीं और दो लड़कों ने फ्लीट, शेष सभी विद्यार्थी नंगे पांव थे। उनके कपड़ों से भी उनकी गुरबत का पता चलता था। इसलिए मैंने अपने भाषण का विषय आधा तो वह रखा जो दफ्तर में तय हुआ था, और आधा मैंने बदल दिया। सच, नम्रता, सहनशीलता और मीठे बोल - असल में मेरे भाषण का विषय था। परन्तु विद्यार्थियों के नंगे पैरों को देखकर मैं गरीब और अमीर के अन्तर की बात छेड़ बैठा और फिर इस बात को सच, नम्रता, सहनशीलता और मीठे बोल आदि के गुणों से जोड़ने में इस प्रकार मस्त हो गया कि एक घंटा बोलता ही चला गया। बोलना भी विद्यार्थियों के स्तर का था। फ़रीद, कबीर, बाबा नानक, कुरबानी के पुंज गुरु अर्जन देव जी, गुरु गोबिंद सिंह जी से ले कर कई विदेशी, कुछ हिंदी और उर्दू शायरों के कलाम को अपने भाषण में फिट करता गया। धन्यवाद करने के पश्चात् मैंने सबसे इस बात की क्षमा मांगी कि मैं ज़रूरत से अधिक समय ले गया हूँ और साथ ही साथ इस बात की भी माफी मांगी कि मैं इस स्कूल में सेवा नहीं कर सकूंगा।
मुख्य अध्यापक ने फिर से मेरी तारीफ़ के पुल बांधने शुरू कर दिए और विद्यार्थियों से कहा कि हम सभी ज्ञानी जी को जाने नहीं देंगे। एक तो उनका आदर भाव और दूसरा दफ्तर में आकर तनख्वाह और बढ़ा देने का लालच, इन दोनों बातों ने मुझे उपस्थिति रिपोर्ट (ज्वाइनिंग रिपोर्ट) लिखने के लिए मजबूर कर दिया।
मैं अपने सभी यूनिवर्सिटी और अनुभव से संबंधित सर्टिफिकेट संग ले कर गया था। मुख्य अध्यापक और सुरिंदरपाल ने सारे सर्टिफिकेट बड़े ध्यान से देखे। पंजाबी के अलावा दसवीं तक अंग्रेजी, मैथ और सामाजिक शिक्षा पढ़ाने का अनुभव देख कर मेरा टाइम टेबल केवल पंजाबी अध्यापक का न रहा। आठवीं से दसवीं तक पंजाबी, नौंवी को अंग्रेजी और सामाजिक विज्ञान के साथ-साथ कुछ पीरियड दसवीं की सामाजिक शिक्षा के दिए गए। दसवीं कक्षा को सामाजिक शिक्षा का विषय उस समय मुख्य अध्यापक स्वयं पढ़ाया करता था। टाइम टेबल की स्लिप लेने से पहले मैंने मुख्य अध्यापक को यह बात स्पष्ट कर दी -
''अगर मेरा दिल लग गया तो रहूंगा, नहीं तो दीवाली से एक दिन पहले चला जाऊँगा। मुझे इतने दिनों का वेतन दे देना।''
मुख्य अध्यापक ने दीवाली की छुट्टी के साथ पाँच-सात दिन और घर में रहने की छूट भी दे दी। स्कूल में ही एक अस्थायी-सा होस्टल था। दसवीं के सभी विद्यार्थी वार्षिक परीक्षा तक हॉस्टल में ही रहते थे। सुरिंदरपाल और साइंस मास्टर भी वहीं एक कमरे में रहते थे। शाम को मेरे लिए भी उसी कमरे में रहने का प्रबंध कर दिया गया।
बच्चों के आदर-भाव और नम्रता ने मुझे कम से कम एक सैशन वहीं रहने के लिए विवश कर दिया। हॉस्टल की रोटी तो अच्छी थी। दोनों समय बड़ी-बड़ी मक्की की रोटियाँ बनतीं। सवेरे नाश्ते में परांठे मिलते। विद्यार्थी अचार के साथ परांठे खाते, पर चाय नहीं पीते थे। दोपहर को तरी वाली सब्जी के साथ वही मक्की की मोटी-मोटी रोटियाँ और शाम के वक्त माह-छोलों की दाल से वही मक्की के ढोडे। इन रोटियों को देख कर मुझे 'हीर दमोदर' के कैदों के मुँह से कहलाई गई यह तुक याद आ जाती - 'असीं खांदे हां ढोडा थापी, चाक खांदा ई वथ्थू।' रोटियों की खूबी यह थी कि वे इकसार होतीं और उनमें मिठास होती। इतनी मीठी मक्की मैंने कभी नहीं खायी थी। हम हॉस्टल में रहने वाले मास्टर तीन-चार बार चाय भी पीते। लेकिन अधिकांश बेचारे विद्यार्थी तीन वक्त की रोटियों से भी पेट भरते। शायद ही कोई विद्यार्थी चाय, दूध और मिठाई वाली सामने की दुकान से चाय पीकर आता होगा या मिठाई खाकर, परन्तु आम विद्यार्थियों के लिए हॉस्टल का तीन समय का भोजन ही नेमत थी।
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जिस कमरे में सेकेंड मास्टर और साइंस मास्टर बाजवा रहते थे, उसकी सारी दीवारें ही पहाड़ की कच्ची मिट्टी से बनी हुई थीं। पहाड़ों पर सभी घरों की भांति स्कूल की सभी छतें ढलानदार थीं। एक ढलान दायीं तरफ थी और दूसरी हर कमरे के बायीं ओर। छत का बीच का हिस्सा ऊँचा उठा हुआ होता। स्कूल की ये सारी छतें स्लेटों की थीं। ये उसी किस्म की स्लेटें थीं जिस तरह की पत्थर की स्लेटों पर मैदानी स्कूलों के बच्चे स्लेटी के साथ गणित का काम करते थे। अन्तर सिर्फ इतना था कि इन स्लेटों को पहाड़ी लोग स्लोटां कहते थे। इन स्लोटों और कच्ची दीवारों वालें कमरे में सेकेंड मास्टर और बाजवा की चारपाई के पास ही मेरी चारपाई बिछा दी गई थी। बढ़िया-सा बिस्तर मुख्य अध्यापक के घर से आ गया था।
मैंने रात की रोटी कमरे में ही मंगवा कर खा ली थी। दो लड़के जो पढ़ने में तो बहुत अच्छे नहीं थे, पहले दिन से लेकर सैशन के अन्तिम दिन तक मेरे सेवादार बने रहे। इन्होंने ही यह रोटी-पानी की सेवा की।
कमरे में एक बहुत बड़ा नुक्स था। इसके एक तरफ कोने की दीवारों में छत से लेकर फर्श तक इतनी बड़ी दरार थी कि आसानी से छोटा बच्चा या कुत्ता-बिल्ला अन्दर आ-जा सकता था। मुझे डर लगता था कि कहीं यह छत गिर ही न पड़े। मैंने जब अपना यह डर दोनों साथियों को प्रकट किया तो सेकेंड मास्टर सुरिंदरपाल सिंह हँस पड़ा।
''एक साल हो गया, अभी तक तो गिरी नहीं। अगर गिर पड़ी तो 'सदे उठ जाइ' हो जाउ, और क्या बिगड़ेगा अपना।'' मुझे उसकी यह बात किसी हिसाब मास्टर की बजाय किसी जट्ट के मुँह से निकली हुई प्रतीत हुई। नया होने के कारण मैं और कुछ नहीं बोला। मैं अपना दूसरा भय प्रगट करता तो वे मुझे डरपोक समझते। मैं डरपोक था भी नहीं। लेकिन अनआई मौत मरना भी तो समझदारी नहीं है। पेट भर कर खाई रोटी और पिछली रात की अनिद्रा के कारण रजाई लेते ही मुझे नींद आ गई।
दिन चढ़ने से पहले सेकेंड मास्टर और बाजवा तो उठ कर बाहर चले गए थे। मुझे बाहर ले जाने के लिए रातवाले वे दोनों छात्र आ गए थे। दिन निकलने के बाद मुझे जाने-आने में कोई कठिनाई नहीं हुई थी। मुझे याद नहीं कि वे दोनों मास्टर कहाँ और कब नहाये। लेकिन मैं एक अन्य कमरे के एक कोने में बैठ कर गरम पानी से नहाया था। पानी मेरी इच्छा पर रसोइये ने गरम कर दिया था और पानी लाने की सेवा उन दोनों छात्रों ने की थी।
दूसरे दिन मुख्य अध्यापक ने भाषण देने के लिए पुन: इच्छा व्यक्त की। मैं इस प्रकार अगले दिन भाषण करने से दो बातों के कारण झिझक रहा था। एक तो पहले दिन की तरह भाषण का स्तर बनाये रखने की अंदरूनी कशमकश थी, दूसरा इसे मैं अपना ओछापन समझता था। सो, मैंने मुख्य अध्यापक के सम्मुख बदल-बदल कर भाषण करवाने का सुझाव रख दिया। मुख्य अध्यापक ने शायद समझ लिया था कि मैं सवेरे की सभा में रोज़ भाषण करने के लिए तैयार नहीं हूँ। उसने मुझ पर भाषण के लिए दबाव नहीं डाला। राष्ट्रीय गीत के पश्चात् मैं मुख्य अध्यापक के संग दफ्तर में आ गया और सोने वाले कमरे की समस्या बता कर उसे हल करने की विनती की। मेरी इस समस्या के हल होने का मुझे उस समय पता चला जब शाम को एक कक्षा का कमरा खाली करवा कर मेरा बिस्तर वहाँ लगवा दिया गया।
पहले दो दिन पढ़ा कर मैं भी संतुष्ट था, मुख्य अध्यापक भी और विद्यार्थी भी। लेकिन बेचारा फौजा सिंह परेशान था। वह पहले छठी से दसवीं तक इस स्कूल में पंजाबी पढ़ाया करता था। वह इसी इलाके का था। उसने स्वयं भी सिर्फ़ मैट्रिक तक पंजाबी पढ़ी हुई थी। उसे दसवीं तक के पीरियड देना एक अस्थायी इंतज़ाम था। पंजाबी और साइंस के अध्यापक इस इलाके में जाने के लिए इतनी जल्दी तैयार नहीं होते थे। मेरे यहाँ आ जाने से फौजा सिंह सातवीं कक्षा तक का ही अध्यापक बन कर रह गया। दसवीं कक्षा को जो कुछ उसने पढ़ाया था, उसमें से अधिकांश वह उच्चारण और अर्थ के हिसाब से गलत पढ़ा बैठा था। कविताओं के अर्थ समझाते समय जिन शब्दों के अर्थ उसने बताये थे, उनमें से कुछ शब्दों के अर्थ बच्चों ने किताब पर लिखे हुए थे। कुछ अर्थ पुस्तक के अंत में दिए हुए थे। फौजा सिंह द्वारा बताये गए अर्थ यद्यपि सभी तो गलत नहीं थे, परन्तु कुछ अर्थों में उसने तुक्के का ही प्रयोग किया हुआ था। लेकिन मुझे फौजा सिंह की इज्जत का ख्याल था। इसलिए बच्चों को असली अर्थ बताते समय फौजा सिंह का यह कह कर बचाव कर लेता कि एक शब्द के कई कई अर्थ होते हैं और मेरी बुद्धि के अनुसार इस शब्द का यह अर्थ होता है। इसके बावजूद कुछ बच्चे असलियत समझ गए थे। इसलिए फौजा सिंह मेरे से काफी परेशान था और उसने पहले कुछ दिन बच्चों को कुछ ऐसे शब्द देकर मेरे पास भेजा जिनके बारे में उसे आशा थी कि मैं बता नहीं सकूंगा। लेकिन मैं फौजा सिंह के इम्तिहान में पास होता रहा और उसकी यह कमीनगी न चाहते हुए भी मैंने मुख्य अध्यापक के नोटिस में ला दी। मुख्य अध्यापक ने मेरी उपस्थिति में ही उसकी अच्छी-खासी क्लास ली। मैंने ऐसा न करने के लिए मुख्य अध्यापक से विनती की और स्वयं फौजा सिंह को ऐसी हरकतों से परहेज करने के लिए कहा।
दीवाली की छुट्टी से पहले ही स्कूल की प्रबंधक कमेटी का उप-प्रधान राम सिंह मुझे अपने घर में रहने की पेशकश कर गया था, क्योंकि उसके बेटे गुरबख्स के माध्यम से उसे पता चला था कि स्कूल में मेरा अभी तक पूरी तरह जी नहीं लगा। राम सिंह के अलावा स्कूल के काम में अन्य कोई दिलचस्पी नहीं लेता था। गाँव का सरपंच पंडित शिवराम स्कूल का मैनेजर था। वह शायद सरकारी ग्रांट लेने के लिए ही मैनेजर बना हो। वैसे वह न तो स्कूल और न ही गाँव के किसी काम में दिलचस्पी लेता था। दरअसल, हेमराज शर्मा स्कूल का मुख्य अध्यापक भी था और प्रबंधक कमेटी के सभी अधिकार भी उसके पास ही थे। कमेटी तो यूँ ही अंगूठे लगवाने के लिए बनाई हुई थी। राम सिंह को छोड़कर दूसरा कोई मेम्बर स्कूल में नहीं आता था। वह भी मुख्य अध्यापक को ही स्कूल का मालिक समझता था और अपने बच्चों को पढ़ाने के लिए या अपनी सज्जनता के कारण मुख्य अध्यापक के कहने पर स्कूल के कामों में दिलचस्पी लिया करता था। बड़े अदब के साथ मिल कर उसने मुझे कहा था कि यदि मेरा स्कूल में मन न लगे तो मैं उसके घर में ठहर सकता हूँ, जहाँ मुझे कोई दिक्कत नहीं होगी।
स्कूल के हॉस्टल में नहाने-धोने से लेकर नाश्ते-पानी तक सब कुछ तसल्लीबख्श था, परन्तु रात में सोने का सिलसिला जैसा मैं चाहता था, वैसा नहीं था। जिस कमरे में मैं सोता था, वह सातवीं कक्षा का कमरा था। पूरी छुट्टी के बाद कुछ बेंच एक तरफ सरका कर मेरा बिस्तर लगा दिया जाता। सुबह स्कूल के लगने से पहले मुझे कमरा खाली करना पड़ता। हालांकि इस काम में मुझे हाथ तक नहीं हिलाना पड़ता था और सारा काम या तो परसा चौकीदार करता या किशनू रसोइया या फिर विद्यार्थी, पर मुझे यह चूल्हा उठाने जैसा सिलसिला भाता नहीं था।
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लॉरी जो शाम में आती थी, वही अगले दिन सवेरे होशियारपुर को वापस लौट जाती। इसलिए सेकेंड मास्टर, बाजवा और मैं उस बस से ही दीवाली मनाने अपने अपने घर के लिए चले थे। मुख्य अध्यापक विशेष तौर पर मुझे बस चढ़ाने आया था। उसने मुझे अपना कम्बल नहीं ले जाने दिया था। एक पैंट-शर्ट भी रख ली थी। शायद उसे डर था कि मैं सारा सामान ले जाने के बाद लौट कर ही न आऊँ।
''ज्ञानी जी, अपने वचन याद रखना। यहाँ तुम्हें कोई तकलीफ़ नहीं होगी।'' चलती बस में मुख्य अध्यापक के प्यार भरे शब्दों ने मुझे वचन निभाने के लिए मन ही मन पक्का कर दिया। दसवीं के कुछ विद्यार्थी भी हमें बस चढ़ाने आए थे। इस तरह का मान-सम्मान मुझे अपने इलाके के विद्यार्थियों में खत्म होता लग रहा था और विद्यार्थियों के इसी सत्कार के कारण मैं कम से कम यह सैशन तो इस स्कूल में पूरा करने के लिए मानो नैतिक तौर पर बंध गया था। एक अन्य बात जिसने मुझे यहाँ लौट कर आने के लिए पक्का कर लिया था, वह थी इस पहाड़ी इलाके की वनस्पति। चीड़, साल, गलगल, किम्म (आजकल के किन्नुयों जैसा फल), आड़ू, हरड़, औले और अनगिनत किस्म की झाड़ियाँ और जड़ी-बूटियों की हरियाली और प्राकृतिक दृश्यों ने मानो मेरी आँखों को मुझे लौट आने के लिए खुला निमंत्रण दिया हो। आते समय होशियारपुर और जुआर का सफ़र जितना कठिन, उबाऊ और दिल में खीझ पैदा करने वाला था, लौटते समय उससे कहीं बढ़कर सुखद और मनमोहक लगा। होशियारपुर से लुधियाना तक बस का सफ़र, इसके बाद रेल यात्रा - अपनी आज़ादी और मस्ती में बगैर किसी तनाव के घर वापसी का यह मेरा पहला लम्बा सफ़र था।
(जारी…)
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जोवड़ कि जुआर
पहाड़ों के ऊँचे-नीचे, टेढ़े-मेढ़े रास्तों पर चलने का यह मेरा पहला अवसर था। दिन चढ़ने के कारण मुझे चलने में कोई परेशानी नहीं हो रही थी, परन्तु ढलान के कारण डर लगता था कि कहीं पैर फिसल न जाए। मैं बस इतनी ही दूर गया कि वापस लौटते समय मुझे किसी से रास्ता पूछने की आवश्यकता न पड़े। लोग आ-जा रहे थे। बड़ी उम्र के कई लोगों के सिर पर सफेद टोपी थी। लौटते समय एक औरत भी मिली, उसने सिर पर पानी की एक गागर उठा रखी थी। उतरते समय मैं बड़े ध्यान से पैर जमा जमा कर रख रहा था, पर यहाँ के लोग इस तरह चल रहे थे मानो दौड़े जा रहे हों। रात वाला भय जैसे खत्म हो गया हो। दातुन-कुल्ला मैं वहीं कर आया था। मुँह-हाथ भी धो आया था। पानी बहुत ठंडा था, इसलिए नहाने को जी नहीं किया था। कच्छा-बनियान उसी तरह वापस ले आया था। बस, सिर्फ़ तौलिया और साबुन ही इस्तेमाल किया था। जब मैं दुकान पर पहुँचा तो स्कूल देखने को मेरा मन पूरी तरह तैयार था। तैयार होने से पहले दुकानदार ने मुझे चाय बना कर दे दी थी। साथ में कुछ खाने को भी। जब दुकानदार से सुबह की चाय तक के मैंने पैसे पूछे तो मैं हैरान रह गया। उसने सिर्फ़ चार रुपये ही लिए और साथ में यह भी कहा कि मैं तो उनके बच्चों का उस्ताद हूँ। कमाई के लिए और बहुत से मुसाफ़िर आते-जाते रहते हैं। गुनगुनी धूप ने हल्की-हल्की गरमाहट देनी आरंभ कर दी थी। स्कूल जाने वाले बच्चे आने शुरू हो गए थे। दुकानदार ने एक लड़के को हांक लगाई और मुझे साथ ले जाने के लिए कहा। उसने यह भी बता दिया कि मैं उनका मास्टर हूँ। एक गोल से मुँह वाले पक्के रंग के लड़के ने मेरा अटैची और दूसरे छोटे-से कद वाले लड़के ने मेरा कम्बल पकड़ लिया। राह में और लड़के भी मिलते गए। काले रंग वाला लड़का सबको बड़े चाव से मेरे बारे में बताता। लड़के बड़े अदब से नमस्ते करते। कुछ लड़कों ने तो मेरे पैर भी छुए। लड़कों के सत्कार ने मुझे मोह लिया था। पर फिर भी मन उस स्कूल में नौकरी करने के लिए नहीं मान रहा था। कल दोपहर के बाद की सारी मुश्किलें मुझे पीछे लौट जाने के लिए ही कहतीं। करीब पौने घंटे में हम स्कूल के सामने पहुँच गए। स्कूल ऐन सड़क पर था। पी.टी.आई. मास्टर प्रार्थना करवा रहा था। राष्ट्रीय गीत के लिए विद्यार्थियों को सावधान कर रहा था। यह बुजुर्ग पी.टी.आई. मुझे बड़ा सीधा-साधा प्रतीत हुआ। दो सरदार अध्यापक मुझे देख कर सड़क की तरफ आ रहे थे।
''आप गोयल साहब ही हो न ?''
''आओ जी ज्ञानी जी, मोस्ट वैलकम।''
बाद में बातचीत में पता चला कि पहला बारीक-सी मूंछों वाला साइंस मास्टर बाजवा है और सिर्फ़ एफ.एस.सी. पास है। दूसरा सुरिंदरपाल सिंह मैथ मास्टर था। उसने बी.ए., मैथ ए. बी. कोर्स और बी.एड. कर रखी थी। सवेर की सभा का सिलसिला चलता रहा। साइंस मास्टर और सुरिंदरपाल मुझे मुख्य अध्यापक के दफ्तर में ले गए। मुख्य अध्यापक हेम राज शर्मा अपनी कुर्सी से उठ कर मुझे इस तरह मिला मानो किसी अफसर के स्वागत के लिए खड़ा हुआ हो। कुशल-क्षेम पूछने पर मैंने उस स्कूल में नौकरी न करने का अपना फैसला सुना दिया। मुख्य अध्यापक जैसे बहुत उदास हो गया हो। मुझे अपनी आँखों की तो क्या बात करनी थी, यह करनी भी नहीं चाहिए थी। यहाँ आने-जाने में आने वाली मुश्किल बता कर मैंने यहाँ रहने में अपनी असमर्थता प्रकट की।
पी.टी.आई. की सुबह की सभा वाली कार्रवाई अभी चल रही थी। मेरी अच्छे मेहमान वाली खातिर-सेवा का सिलसिला शुरू हो चुका था। सामने हलवाई की दुकान से बर्फी, पेड़े और नमकीन, चाय के साथ मंगवाया गया। मुख्य अध्यापक ने बड़ी आजिज़ी के साथ कहा-
''तुम नौकरी नहीं करना चाहते तो मत करना, मेरी इतनी अर्ज़ तो मान लो कि हमारे बच्चों को एक लेक्चर दे जाओ। तुमने अपनी अर्जी में एक अच्छे वक्ता होने की बात लिखी थी। हम तुम्हारा भाषण सुनना चाहते हैं।''
मुख्य अध्यापक साहब, सरदार सुरिंदरपाल और साइंस मास्टर मुझे ग्राउण्ड में ले गए। पी.टी.आई. ने हमारे पहुँचने पर एक लम्बी सीटी बजाई और फिर विद्यार्थियों को बैठने का कॉशन दे दिया। मुख्य अध्यापक ने विद्यार्थियों को सम्बोधित होते हुए मेरे बारे में कुछ बताया। कुछ बढ़ा-चढ़ा कर भी बताया, जिस विषय पर बोलना था, वह पहले ही दफ्तर में तय कर लिया गया था। वैसे भी मुझे किसी विषय पर बोलने में कोई झिझक नहीं थी।
जब मैंने बोलना आरंभ किया, विद्यार्थियों ने ज़ोर से ताली बजाई। मुख्य अध्यापक के बोलने के बाद भी विद्यार्थियों ने ताली बजाई थी, पर मेरे बोलने से पहले इन ज़ोरदार तालियों का अर्थ मैंने यही लगाया कि मुख्य अध्यापक ने मेरी तारीफ़ में जो पुल बांधे थे, यह उस तारीफ़ की करामात है। कुल दसेक लड़कियाँ थीं, बाकी ढाई सौ से भी अधिक लड़के। एक लड़की ने चप्पलें पहन रखी थीं और दो लड़कों ने फ्लीट, शेष सभी विद्यार्थी नंगे पांव थे। उनके कपड़ों से भी उनकी गुरबत का पता चलता था। इसलिए मैंने अपने भाषण का विषय आधा तो वह रखा जो दफ्तर में तय हुआ था, और आधा मैंने बदल दिया। सच, नम्रता, सहनशीलता और मीठे बोल - असल में मेरे भाषण का विषय था। परन्तु विद्यार्थियों के नंगे पैरों को देखकर मैं गरीब और अमीर के अन्तर की बात छेड़ बैठा और फिर इस बात को सच, नम्रता, सहनशीलता और मीठे बोल आदि के गुणों से जोड़ने में इस प्रकार मस्त हो गया कि एक घंटा बोलता ही चला गया। बोलना भी विद्यार्थियों के स्तर का था। फ़रीद, कबीर, बाबा नानक, कुरबानी के पुंज गुरु अर्जन देव जी, गुरु गोबिंद सिंह जी से ले कर कई विदेशी, कुछ हिंदी और उर्दू शायरों के कलाम को अपने भाषण में फिट करता गया। धन्यवाद करने के पश्चात् मैंने सबसे इस बात की क्षमा मांगी कि मैं ज़रूरत से अधिक समय ले गया हूँ और साथ ही साथ इस बात की भी माफी मांगी कि मैं इस स्कूल में सेवा नहीं कर सकूंगा।
मुख्य अध्यापक ने फिर से मेरी तारीफ़ के पुल बांधने शुरू कर दिए और विद्यार्थियों से कहा कि हम सभी ज्ञानी जी को जाने नहीं देंगे। एक तो उनका आदर भाव और दूसरा दफ्तर में आकर तनख्वाह और बढ़ा देने का लालच, इन दोनों बातों ने मुझे उपस्थिति रिपोर्ट (ज्वाइनिंग रिपोर्ट) लिखने के लिए मजबूर कर दिया।
मैं अपने सभी यूनिवर्सिटी और अनुभव से संबंधित सर्टिफिकेट संग ले कर गया था। मुख्य अध्यापक और सुरिंदरपाल ने सारे सर्टिफिकेट बड़े ध्यान से देखे। पंजाबी के अलावा दसवीं तक अंग्रेजी, मैथ और सामाजिक शिक्षा पढ़ाने का अनुभव देख कर मेरा टाइम टेबल केवल पंजाबी अध्यापक का न रहा। आठवीं से दसवीं तक पंजाबी, नौंवी को अंग्रेजी और सामाजिक विज्ञान के साथ-साथ कुछ पीरियड दसवीं की सामाजिक शिक्षा के दिए गए। दसवीं कक्षा को सामाजिक शिक्षा का विषय उस समय मुख्य अध्यापक स्वयं पढ़ाया करता था। टाइम टेबल की स्लिप लेने से पहले मैंने मुख्य अध्यापक को यह बात स्पष्ट कर दी -
''अगर मेरा दिल लग गया तो रहूंगा, नहीं तो दीवाली से एक दिन पहले चला जाऊँगा। मुझे इतने दिनों का वेतन दे देना।''
मुख्य अध्यापक ने दीवाली की छुट्टी के साथ पाँच-सात दिन और घर में रहने की छूट भी दे दी। स्कूल में ही एक अस्थायी-सा होस्टल था। दसवीं के सभी विद्यार्थी वार्षिक परीक्षा तक हॉस्टल में ही रहते थे। सुरिंदरपाल और साइंस मास्टर भी वहीं एक कमरे में रहते थे। शाम को मेरे लिए भी उसी कमरे में रहने का प्रबंध कर दिया गया।
बच्चों के आदर-भाव और नम्रता ने मुझे कम से कम एक सैशन वहीं रहने के लिए विवश कर दिया। हॉस्टल की रोटी तो अच्छी थी। दोनों समय बड़ी-बड़ी मक्की की रोटियाँ बनतीं। सवेरे नाश्ते में परांठे मिलते। विद्यार्थी अचार के साथ परांठे खाते, पर चाय नहीं पीते थे। दोपहर को तरी वाली सब्जी के साथ वही मक्की की मोटी-मोटी रोटियाँ और शाम के वक्त माह-छोलों की दाल से वही मक्की के ढोडे। इन रोटियों को देख कर मुझे 'हीर दमोदर' के कैदों के मुँह से कहलाई गई यह तुक याद आ जाती - 'असीं खांदे हां ढोडा थापी, चाक खांदा ई वथ्थू।' रोटियों की खूबी यह थी कि वे इकसार होतीं और उनमें मिठास होती। इतनी मीठी मक्की मैंने कभी नहीं खायी थी। हम हॉस्टल में रहने वाले मास्टर तीन-चार बार चाय भी पीते। लेकिन अधिकांश बेचारे विद्यार्थी तीन वक्त की रोटियों से भी पेट भरते। शायद ही कोई विद्यार्थी चाय, दूध और मिठाई वाली सामने की दुकान से चाय पीकर आता होगा या मिठाई खाकर, परन्तु आम विद्यार्थियों के लिए हॉस्टल का तीन समय का भोजन ही नेमत थी।
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जिस कमरे में सेकेंड मास्टर और साइंस मास्टर बाजवा रहते थे, उसकी सारी दीवारें ही पहाड़ की कच्ची मिट्टी से बनी हुई थीं। पहाड़ों पर सभी घरों की भांति स्कूल की सभी छतें ढलानदार थीं। एक ढलान दायीं तरफ थी और दूसरी हर कमरे के बायीं ओर। छत का बीच का हिस्सा ऊँचा उठा हुआ होता। स्कूल की ये सारी छतें स्लेटों की थीं। ये उसी किस्म की स्लेटें थीं जिस तरह की पत्थर की स्लेटों पर मैदानी स्कूलों के बच्चे स्लेटी के साथ गणित का काम करते थे। अन्तर सिर्फ इतना था कि इन स्लेटों को पहाड़ी लोग स्लोटां कहते थे। इन स्लोटों और कच्ची दीवारों वालें कमरे में सेकेंड मास्टर और बाजवा की चारपाई के पास ही मेरी चारपाई बिछा दी गई थी। बढ़िया-सा बिस्तर मुख्य अध्यापक के घर से आ गया था।
मैंने रात की रोटी कमरे में ही मंगवा कर खा ली थी। दो लड़के जो पढ़ने में तो बहुत अच्छे नहीं थे, पहले दिन से लेकर सैशन के अन्तिम दिन तक मेरे सेवादार बने रहे। इन्होंने ही यह रोटी-पानी की सेवा की।
कमरे में एक बहुत बड़ा नुक्स था। इसके एक तरफ कोने की दीवारों में छत से लेकर फर्श तक इतनी बड़ी दरार थी कि आसानी से छोटा बच्चा या कुत्ता-बिल्ला अन्दर आ-जा सकता था। मुझे डर लगता था कि कहीं यह छत गिर ही न पड़े। मैंने जब अपना यह डर दोनों साथियों को प्रकट किया तो सेकेंड मास्टर सुरिंदरपाल सिंह हँस पड़ा।
''एक साल हो गया, अभी तक तो गिरी नहीं। अगर गिर पड़ी तो 'सदे उठ जाइ' हो जाउ, और क्या बिगड़ेगा अपना।'' मुझे उसकी यह बात किसी हिसाब मास्टर की बजाय किसी जट्ट के मुँह से निकली हुई प्रतीत हुई। नया होने के कारण मैं और कुछ नहीं बोला। मैं अपना दूसरा भय प्रगट करता तो वे मुझे डरपोक समझते। मैं डरपोक था भी नहीं। लेकिन अनआई मौत मरना भी तो समझदारी नहीं है। पेट भर कर खाई रोटी और पिछली रात की अनिद्रा के कारण रजाई लेते ही मुझे नींद आ गई।
दिन चढ़ने से पहले सेकेंड मास्टर और बाजवा तो उठ कर बाहर चले गए थे। मुझे बाहर ले जाने के लिए रातवाले वे दोनों छात्र आ गए थे। दिन निकलने के बाद मुझे जाने-आने में कोई कठिनाई नहीं हुई थी। मुझे याद नहीं कि वे दोनों मास्टर कहाँ और कब नहाये। लेकिन मैं एक अन्य कमरे के एक कोने में बैठ कर गरम पानी से नहाया था। पानी मेरी इच्छा पर रसोइये ने गरम कर दिया था और पानी लाने की सेवा उन दोनों छात्रों ने की थी।
दूसरे दिन मुख्य अध्यापक ने भाषण देने के लिए पुन: इच्छा व्यक्त की। मैं इस प्रकार अगले दिन भाषण करने से दो बातों के कारण झिझक रहा था। एक तो पहले दिन की तरह भाषण का स्तर बनाये रखने की अंदरूनी कशमकश थी, दूसरा इसे मैं अपना ओछापन समझता था। सो, मैंने मुख्य अध्यापक के सम्मुख बदल-बदल कर भाषण करवाने का सुझाव रख दिया। मुख्य अध्यापक ने शायद समझ लिया था कि मैं सवेरे की सभा में रोज़ भाषण करने के लिए तैयार नहीं हूँ। उसने मुझ पर भाषण के लिए दबाव नहीं डाला। राष्ट्रीय गीत के पश्चात् मैं मुख्य अध्यापक के संग दफ्तर में आ गया और सोने वाले कमरे की समस्या बता कर उसे हल करने की विनती की। मेरी इस समस्या के हल होने का मुझे उस समय पता चला जब शाम को एक कक्षा का कमरा खाली करवा कर मेरा बिस्तर वहाँ लगवा दिया गया।
पहले दो दिन पढ़ा कर मैं भी संतुष्ट था, मुख्य अध्यापक भी और विद्यार्थी भी। लेकिन बेचारा फौजा सिंह परेशान था। वह पहले छठी से दसवीं तक इस स्कूल में पंजाबी पढ़ाया करता था। वह इसी इलाके का था। उसने स्वयं भी सिर्फ़ मैट्रिक तक पंजाबी पढ़ी हुई थी। उसे दसवीं तक के पीरियड देना एक अस्थायी इंतज़ाम था। पंजाबी और साइंस के अध्यापक इस इलाके में जाने के लिए इतनी जल्दी तैयार नहीं होते थे। मेरे यहाँ आ जाने से फौजा सिंह सातवीं कक्षा तक का ही अध्यापक बन कर रह गया। दसवीं कक्षा को जो कुछ उसने पढ़ाया था, उसमें से अधिकांश वह उच्चारण और अर्थ के हिसाब से गलत पढ़ा बैठा था। कविताओं के अर्थ समझाते समय जिन शब्दों के अर्थ उसने बताये थे, उनमें से कुछ शब्दों के अर्थ बच्चों ने किताब पर लिखे हुए थे। कुछ अर्थ पुस्तक के अंत में दिए हुए थे। फौजा सिंह द्वारा बताये गए अर्थ यद्यपि सभी तो गलत नहीं थे, परन्तु कुछ अर्थों में उसने तुक्के का ही प्रयोग किया हुआ था। लेकिन मुझे फौजा सिंह की इज्जत का ख्याल था। इसलिए बच्चों को असली अर्थ बताते समय फौजा सिंह का यह कह कर बचाव कर लेता कि एक शब्द के कई कई अर्थ होते हैं और मेरी बुद्धि के अनुसार इस शब्द का यह अर्थ होता है। इसके बावजूद कुछ बच्चे असलियत समझ गए थे। इसलिए फौजा सिंह मेरे से काफी परेशान था और उसने पहले कुछ दिन बच्चों को कुछ ऐसे शब्द देकर मेरे पास भेजा जिनके बारे में उसे आशा थी कि मैं बता नहीं सकूंगा। लेकिन मैं फौजा सिंह के इम्तिहान में पास होता रहा और उसकी यह कमीनगी न चाहते हुए भी मैंने मुख्य अध्यापक के नोटिस में ला दी। मुख्य अध्यापक ने मेरी उपस्थिति में ही उसकी अच्छी-खासी क्लास ली। मैंने ऐसा न करने के लिए मुख्य अध्यापक से विनती की और स्वयं फौजा सिंह को ऐसी हरकतों से परहेज करने के लिए कहा।
दीवाली की छुट्टी से पहले ही स्कूल की प्रबंधक कमेटी का उप-प्रधान राम सिंह मुझे अपने घर में रहने की पेशकश कर गया था, क्योंकि उसके बेटे गुरबख्स के माध्यम से उसे पता चला था कि स्कूल में मेरा अभी तक पूरी तरह जी नहीं लगा। राम सिंह के अलावा स्कूल के काम में अन्य कोई दिलचस्पी नहीं लेता था। गाँव का सरपंच पंडित शिवराम स्कूल का मैनेजर था। वह शायद सरकारी ग्रांट लेने के लिए ही मैनेजर बना हो। वैसे वह न तो स्कूल और न ही गाँव के किसी काम में दिलचस्पी लेता था। दरअसल, हेमराज शर्मा स्कूल का मुख्य अध्यापक भी था और प्रबंधक कमेटी के सभी अधिकार भी उसके पास ही थे। कमेटी तो यूँ ही अंगूठे लगवाने के लिए बनाई हुई थी। राम सिंह को छोड़कर दूसरा कोई मेम्बर स्कूल में नहीं आता था। वह भी मुख्य अध्यापक को ही स्कूल का मालिक समझता था और अपने बच्चों को पढ़ाने के लिए या अपनी सज्जनता के कारण मुख्य अध्यापक के कहने पर स्कूल के कामों में दिलचस्पी लिया करता था। बड़े अदब के साथ मिल कर उसने मुझे कहा था कि यदि मेरा स्कूल में मन न लगे तो मैं उसके घर में ठहर सकता हूँ, जहाँ मुझे कोई दिक्कत नहीं होगी।
स्कूल के हॉस्टल में नहाने-धोने से लेकर नाश्ते-पानी तक सब कुछ तसल्लीबख्श था, परन्तु रात में सोने का सिलसिला जैसा मैं चाहता था, वैसा नहीं था। जिस कमरे में मैं सोता था, वह सातवीं कक्षा का कमरा था। पूरी छुट्टी के बाद कुछ बेंच एक तरफ सरका कर मेरा बिस्तर लगा दिया जाता। सुबह स्कूल के लगने से पहले मुझे कमरा खाली करना पड़ता। हालांकि इस काम में मुझे हाथ तक नहीं हिलाना पड़ता था और सारा काम या तो परसा चौकीदार करता या किशनू रसोइया या फिर विद्यार्थी, पर मुझे यह चूल्हा उठाने जैसा सिलसिला भाता नहीं था।
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लॉरी जो शाम में आती थी, वही अगले दिन सवेरे होशियारपुर को वापस लौट जाती। इसलिए सेकेंड मास्टर, बाजवा और मैं उस बस से ही दीवाली मनाने अपने अपने घर के लिए चले थे। मुख्य अध्यापक विशेष तौर पर मुझे बस चढ़ाने आया था। उसने मुझे अपना कम्बल नहीं ले जाने दिया था। एक पैंट-शर्ट भी रख ली थी। शायद उसे डर था कि मैं सारा सामान ले जाने के बाद लौट कर ही न आऊँ।
''ज्ञानी जी, अपने वचन याद रखना। यहाँ तुम्हें कोई तकलीफ़ नहीं होगी।'' चलती बस में मुख्य अध्यापक के प्यार भरे शब्दों ने मुझे वचन निभाने के लिए मन ही मन पक्का कर दिया। दसवीं के कुछ विद्यार्थी भी हमें बस चढ़ाने आए थे। इस तरह का मान-सम्मान मुझे अपने इलाके के विद्यार्थियों में खत्म होता लग रहा था और विद्यार्थियों के इसी सत्कार के कारण मैं कम से कम यह सैशन तो इस स्कूल में पूरा करने के लिए मानो नैतिक तौर पर बंध गया था। एक अन्य बात जिसने मुझे यहाँ लौट कर आने के लिए पक्का कर लिया था, वह थी इस पहाड़ी इलाके की वनस्पति। चीड़, साल, गलगल, किम्म (आजकल के किन्नुयों जैसा फल), आड़ू, हरड़, औले और अनगिनत किस्म की झाड़ियाँ और जड़ी-बूटियों की हरियाली और प्राकृतिक दृश्यों ने मानो मेरी आँखों को मुझे लौट आने के लिए खुला निमंत्रण दिया हो। आते समय होशियारपुर और जुआर का सफ़र जितना कठिन, उबाऊ और दिल में खीझ पैदा करने वाला था, लौटते समय उससे कहीं बढ़कर सुखद और मनमोहक लगा। होशियारपुर से लुधियाना तक बस का सफ़र, इसके बाद रेल यात्रा - अपनी आज़ादी और मस्ती में बगैर किसी तनाव के घर वापसी का यह मेरा पहला लम्बा सफ़र था।
(जारी…)
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3 comments:
anuj ji
behad rochak aatm katha hai , mujhe padhkar bahut achchha laga .
aisa laga mano aapake sath hum bhi skool main bachchon ke sath padh rahe hain .
bahut mast likha hai .
धन्यवाद रेणु जी, यह आत्मकथा डा0 एस0तरसेम जी की है,मैं तो अपने ब्लॉग पर इसे धारावाहिक प्रस्तुत कर रहा हूँ। बहरहाल, मुझे अच्छा लगा कि आप मेरे ब्लॉग को पढ़ती हैं और आप इसके अनुसरणकर्ताओं में शामिल भी हुई हैं।
आगे भी आपकी टिप्पणियों की प्रतीक्षा रहेगी।
अनुज कुमार
Bahut sahaj shaili me, bahut rochak ban padi hai yeh aatmakatha.
-susham bedi
sb12@columbia.edu
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